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प्रस्तावना
५९
योग व जैन दर्शनोंमें विभूतिविषयक समानता १. योगसूत्र (३-४) में धारणा, ध्यान और समाधिको समुदित रूपमें संयम कहा गया है। अभीष्ट विषयमें किये गये इस संयमसे योगीको तदनुरूप विभूति प्राप्त होती है। जैसे-हृदयमें जो अधोमुख छोटा कमल है। उसके अभ्यन्तरमें अन्तःकरणरूप सत्त्वका स्थान है। इसके विषयमें किये गये उक्त संयमसे योगीको अपने व परके चित्तका ज्ञान प्रादुर्भुत होता है (३-३४)।
जैन दर्शनमें इस स्व-परचित्तके ज्ञानको मनःपर्ययज्ञान कहा गया है, वह संयमीके ही होता है, असंयमीके नहीं होता।
२. पुरुषसंयमसे--सत्त्व-पुरुषभेदविज्ञानविषयक संयमसे—योगीके प्रातिभ, श्रावण, वेदना, आदर्श, स्वाद और वार्ता ये ज्ञान उत्पन्न होते हैं (३-३६)। यहाँ प्रातिभसे सूक्ष्म-विप्रकृष्टादिविषयक ज्ञान, श्रावणसे दिव्य शब्दज्ञान, वेदनासे दिव्य स्पर्शज्ञान, आदर्शसे दिव्य रूपज्ञान, स्वादसे दिव्य स्वादविषयक ज्ञान और वार्तासे दिव्य गन्धज्ञान अभिप्रेत रहा है ।
जैन दर्शनके अनुसार तिलोयपण्णत्तिमें गा. ४,९८४-९७ द्वारा जिन संभिन्नश्रोतृत्व, दूरास्वादित्व, दूरस्पर्शत्व, दूरघ्राणत्व, दूरश्रवणत्व और दूरदर्शित्व ऋद्धियोंको प्रकट किया गया है वे उन योगसूत्र प्ररूपित प्रातिभ आदि ऋद्धियां जैसी ही हैं। तत्त्वार्थवार्तिक (३,३६,३ ) में भी बुद्धि ऋद्धिके १८ भेदोंमें उनका निर्देश किया गया है।
३. योगसूत्र ( ३-२४ ) में कहा गया है कि अभीष्ट बलके विषयमें संयम करनेवाला योगी उसी प्रकारके बलको प्राप्त करता है। इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए उसके व्यास विरचित भाष्यमें यह कहा गया है कि योगी यदि हाथीके बलके विषयमें संयम करता है तो वह हाथी जैसा बलवान् होता है, यदि वह गरुड़के बलके विषयमें संयम करता है तो गरुड़ जैसा बलवान् होता है, तथा यदि वह वायुबलके विषयमें संयम करता है तो वायुबलसे युक्त होता है।
जैन दर्शनके अन्तर्गत तत्त्वानुशासनमें स्फटिक मणिका उदाहरण देते हुए यह कहा गया है कि आत्मज्ञ योगी जिस भावसे जिस रूपका ध्यान करता है वह तन्मय हो जाता है (१९०-९१ )। इसे आगे कुछ उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि गरुड़के ध्यान द्वारा योगी स्वयं गरुड़ होकर क्षण-भरमें विषको दूर कर देता है, वह कामके ध्यानसे कामरूप परिगत होकर विश्वको वशमें करता है, अग्निके ध्यानसे वह अग्नि होकर रोगीको ज्वालाओंसे व्याप्त करता हुआ उसके शीतज्वरको नष्ट करता है । सुधाके ध्यानसे वह सुधामय होकर अमृतकी वर्षा करता है, तथा क्षीरसमुद्रके ध्यानसे क्षीरसमुद्रस्वरूप होकर लोकको प्लावित करता है। इस प्रकारसे योगी ध्यानके द्वारा तन्मय होकर प्राणियोंके शान्तिक व पौष्टिक कर्मको करता है (२०५-८)।
४. योगसूत्र ( ३-३९ ) में उदान वायुके जयके फलको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि उदान
१. ज्ञानार्णवमें पिण्डस्थ ध्यानके प्रसंगमें (1890-91) हृदयस्थ आठ पत्तोंवाले अधोमुख कमलका उल्लेख
किया गया है। २. स. सि. १-२५; त. वा. १,२५,२; धव. पु. १३, पृ. २१३ । ३. शुभाशुभ तैजसलब्धिका स्वरूप भी लगभग इसी प्रकारका समझना चाहिए, जैसे द्वीपायन मुनिके।
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