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की रेखाएँ खींचता है, जबकि जैनधर्म एवं दर्शन समता, स्वावलम्बन और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं । अतएव आचार्य श्री यह मानते हैं। कि सामाजिक कुरीतियों तथा विसंगतियों को ठीक करने में जैन श्रावक एक आदर्श समाजसुधारक का प्रतिमान उपस्थित कर सकता है। इसी लक्ष्य पर केन्द्रित रहते हुए आचार्यश्री ने परोपकार वृत्ति को समझाने का प्रयास किया है। जैन समाज द्वारा हजारों अनाथ बच्चों, विधवा स्त्रियों आदि के संरक्षण और सम्बर्धन के सम्बन्ध में आपका कथन है कि अनाथ बच्चे को अपना पुत्र या पुत्री समझकर ही पालना चाहिये और विधवा स्त्री की सहायता इस प्रकार की जानी चाहिए जिससे कि वह जीवनपर्यन्त अपने प्रयासों से जीविका उपार्जन कर सके। लोककल्याण की इन दोनों दृष्टियों में सहिष्णुता एवं स्वावलम्बन की भावना निहित है जहां सहिष्णुता एवं स्वावलम्बन होता है वहां समता स्वयं विद्यमान रहती है ।
आचार्यश्री ने सामाजिक सम्पत्ति के संरक्षण पर विशेष बल दिया है । मेधावी छात्र किसी भी समाज तथा देश की अमूल्य निधि हैं। किसी विवशता या दरिद्रता के अभिशाप से ऐसे छात्रों का विकास अवरुद्ध हो जाए तो उससे पूरे समाज एवं देश की हानि होती है । अतएव आचार्यश्री ने निर्धन छात्रों की समुचित अध्ययन-व्यवस्था को समाज कल्याण के क्षेत्र में सर्वाधिक प्राथमिकता प्रदान की है। उनकी इस सप्रेरणा के परिणामस्वरूप आज देश के विभिन्न भागों में अनेक शिक्षण संस्थान कार्यरत हैं और अनेक महाविद्यालय, विद्यालय एवं गुरुकुल इस सन्देश को कार्यरूप दे रहे हैं । आचार्यश्री ने इस प्रकार के लोकोपकारी कार्यों को वात्सल्य भाव के आदर्श रूप में परिलक्षित किया है ।
त्याग की भावना से भोग करने का सन्देश प्राचीन काल से प्रचारित होता आया है। आधुनिक चिन्तन पद्धति में साम्यवाद, समाजवाद जैसी शब्दावलियों से सामाजिक न्याय और आर्थिक समता की भावना को प्रतिपादित किया जाता है। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के उपदेशामृत इस समाज चिन्तन से अछूते नहीं है। उन्होंने सम्पन्न और सुधापीडित, सुविधाभोगी और साधनहीन के मध्य की खाई को इन शब्दों से भरा है :
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"भोजन करते समय भूखी जनता को न भूतो उसके लिए कुछ-न-कुछ (कम-से-कम एक-दो रोटी) भोजन बचाओ पलंग पर सोते समय उन दरिद्र स्त्री-पुरुषों का स्मरण करो जो नंगी जमीन पर अपमानित रूप में सो रहे हैं। सुन्दर मूल्यवान वस्त्रों को पहनते समय उन ग़रीब स्त्री-पुरुषों, बच्चों का भी ध्यान रक्खो जिनके शरीर पर चिथड़ा नहीं है ।” (उपदेश सार संग्रह, भाग-१, पृष्ठ १५ )
आचार्यश्री ने सामाजिक कुरीतियों, आडम्बरों और मिथ्या अभिमान को दर्शाने वाले रीति-रिवाजों की कटु आलोचना की
है इन सब कुरीतियों में सर्वाधिक आलोचना का विषय रही है-दहेज प्रथा आचार्यश्री के अनुसार दहेज की विभीषिका ने न केवल अनेक निर्दोष अविवाहित कुमारियों और उनके निर्धन अभिभावकों को निराश कर रखा है बल्कि इस कुप्रथा के दुष्परिणामों से धर्मपरिवर्तन जैसी प्रतिक्रिया को भी बल मिला है। ऐसे अनेक युवक-युवतियां है जिनके विवाह बहेज के कारण नहीं हो सके और उन्होंने बलात् अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया। विवाह में होने वाला अपव्यय वस्तुतः दहेज से अनुप्रेरित है। दूसरी ओर दहेज मानवीय दुर्बलता का वह अभिशप्त रूप है जो लोभ से उत्पन्न होता है, और इस लोभ की सीमा पर जब तक सामाजिक नियन्त्रण नहीं होगा तब तक समाज में स्वस्थ परम्पराओं की आशा रखना व्यर्थ है ।
उपसर्गजयी
आचार्यश्री के सम्बन्ध में 'शिशुपाल वध' महाकाव्य की यह उक्ति अक्षरशः चरितार्थ होती है - "शरीरभाजां भवदीय दर्शनं व्यक्ति कालत्रितयेऽपि योग्यताम् "शरीरधारियों के लिए आपका दर्जन भूत, वर्तमान एवं भविष्य को पवित्र करने वाला है। आचार्यश्री के दर्शन मात्र से ही श्रद्धालु प्राणी में एक सात्त्विक अनुभूति होती है और वह सब कुछ विस्मृत कर आपके द्वारा स्वयं को सम्मोहित-सा अनुभव करता है। भौतिक क्रिया-कलापों की दौड़-धूप से थका हुआ व्यक्ति जब आपके उपदेश रूपी वृक्ष की शीतल- सुखद छाया में बैठता है तो उसे अभूतपूर्व शान्ति मिलती है। यह आत्मिक शान्ति ही आचार्यश्री का आध्यात्मिक सम्मोहन है । यही कारण है कि साधना के विविध अवसरों पर आचार्यश्री के सम्पर्क में न केवल क्रूर प्रकृति के व्यक्ति ही आए अपितु अनेक हिंसक जीव-जन्तुओं से भी आपका सामना हुआ । किन्तु आध्यात्मिक सम्मोहन के आकर्षण से उनकी क्रूर एवं हिंसक प्रवृत्ति आपके प्रति असीम श्रद्धा में बदल गई। इस सम्बन्ध में कतिपय चमत्कारपूर्ण घटनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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