Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रे __ " चत्तारि पुरिसजाया” इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एको गणशोभाकरः-गणस्य-साधुसमुदायस्य-अनवद्यसाधुसामाचारीपवर्तनपा चादित्व-धर्मोपदेशित्व-नैमित्तिकख-विद्यासिद्धत्वादिना वा शोभा करो. तीत्येवंशीलस्तथा भवति, किन्तु नो मानकरः-तदमिमानकारी न भवति विनैवाभपर्थन या गणशोमाकरणपरायणत्वाद् निरहङ्कारत्वाद्वा १, तथा-मानकरो नामैको नो गणशोभाकरः २, एको गणशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणशोभाकरो नो मानकरः ४। इति ।
" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तयथा-एको गणशोधिकरः-गणस्य शाधि-समुचितप्रायश्चित्तदानादिना शोधनं पुनश्च - " चत्तारि पुरिसजाया " - इत्यादि, पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे - कोई एक पुरुष गण साधुसमुदाय की अनवद्य - निर्दोष साघु समाचारी की प्रवर्तना से, वादित्व गुण से, धर्मोपदेश करने से, नैमित्तिकत्व से, या-विद्यामिद्धित्व आदि से शोभा करने का स्वभाव वाला होता है, किन्तु-" नो मानकर" मानकर नहीं होता है इस बात का अभिमान करने का स्वभाव वाला नहीं होता है, क्योंकि यह बिना कहे सुने ही गण की शोभा करने में तल्लीन रहता है, अथवा अहङ्कार विना का होता है ऐसा यह प्रथम भंग है. १ कोई पुरुष मानकर होता है गण शोभाकर नहीं. २ कोई एक गण की शोभाकर भी होता है और-मानकर भी, ३ कोई एक न गणकी शोभाकर होता है और न मानकर ही होता है, ४ "चत्तारि पुरिसजाया "-पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक गण
“ चत्तारि पुरिसजाया ” मा प्ररे पुरुषान। या२ २ ५ छ(१) ओ मे घुरुष मनबध (नि:ोष) साधु समायारीनी प्रपतन , વાદિત્ય ગુણ દ્વારા, ધર્મોપદેશ દ્વારા, નિમિક વડે, અથવા વિદ્યાસિદ્ધિત્વ આદિ 43 गनी (साधुस हायना) शमा पधारना२ डाय छ, ५२-तु " नो मानकरः" (એ વાતનું અભિમાન કરનાર) હોતું નથી. કારણ કે તે કોઈની વિનંતિની અપેક્ષા રાખ્યા વિના ગણની શોભા વધારવાને તત્પર રહે છે અને તેનામાં અહંકાર હેત નથી. (૨) કોઈ પુરુષ માનકર હોય છે. પણ ગણશભાકર હેતું નથી. (૩) કઈ પુરુષ ગણશોભાકર પણ હોય છે અને માનકર પણ હોય છે. (૪) કે પુરુષ ગણશભાકર પણ હેત નથી અને માનકર પણ હોતું નથી.
"चत्तारि पुरिसजाया " पुरुषना नाये प्रमाणे या२ प्रा२ ५५ ५३ છે–કેઈ એક પુરુષ ગણાધિકર હોય છે એટલે કે સમુચિત પ્રાયશ્ચિત્ત
श्री स्थानांगसूत्र :०३