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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्री तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ
सम्पादक
जैनेन्द्र कुमार जैन
यशपाल जैन
प्रक्षयकुमार जैन
सुमेरचन्द जैन
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प्रकाशक: श्री अशोदेवी धर्मपत्नी ला० तनसुखराय जैन तनसुखराय स्मृति ग्रन्थ समिति २१, असारी रोड, दरियागज, दिल्ली
मूल्य : १० रुपये
मुद्रक इम्पीरियल बुक डिपो प्रेस
जामा मस्जिद.
दिल्ली
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.០០០០០០០
समर्पण
00000000
Do
सुश्री अशर्फी देवी धर्मपत्नी ला० तनसुखराय जी
के लिए
जिन्होने अपने पति के लिए समाज और देश सेवा के कार्य में सहयोग हो नही दिया बल्कि समय-समय पर उत्साह और प्रेरणा देकर उन्हे प्रोत्साहन देती रही
जो
अति विनम्र, अतिथि सेवा परायण, धार्मिक और कर्तव्यशील महिला रत्न हैं
स्त्री शिक्षा प्रचार और समाज सेवा के कार्य में
जो विशेष प्रयत्नशील रहती हैं उन्ही के कर कमलो में यह स्मृति ग्रन्थ सादर समर्पित है
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PRAKAR
जन्म २१नयम्बर,
म्वर्गवास १४ जाना,
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दो शब्द :
प्रसिद्ध देशभक्त कर्मवीर कुशल व्यवसायी समाजसेवी
ला० तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ
देश और समाज सेवा का सुन्दर समन्वय
भारतभूमि रत्नगर्भा है । समय-समय पर कुछ ऐसी दिव्य विभूतियाँ जन्म लेती है जो अपने कार्य और प्रभाव से एक नया चमत्कार पैदा कर देती है । नवभारत के निर्माण मे लोकमान्य तिलक, विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, विश्वबन्धु महात्मा गाधी, पजावकेसरी ला० लाजपतराय और विश्व शान्ति के अग्रदूत प० जवाहरलाल नेहरू जैसे अद्वितीय महान रत्न हुए जिन्होने लोक कल्याण की भावना से जन साधारण मे असाधारण क्रान्ति की भावना उत्पन्न की। अपनी प्रभावशाली वाणी और प्राश्चर्यजनक कार्यों से देशवासियों के हृदय मे ऐसी जागृति की ज्वाला जगाई कि उन असख्य युवको और वीराङ्गनाओ ने सहर्प मातृभूमि के चरणो मे अपने को न्योछावर कर दिया । राष्ट्रीय आन्दोलन मे जैन समाज भी कभी पीछे नही रहा उसके शक्तिशाली युवको ने स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से आगे बढकर अपना तन-मन-धन अर्पण करने मे अपना गौरव समझा ।
परतत्रता रूपी अन्धकार को दूर करने और स्वतन्त्रता रूपी लाली भरे भास्कर का स्वागत करने के लिए तेजस्वी युवक आगे आए। उन्ही युवको से देशभक्त कर्मवीर समाजसेवी ला० तनसुखरायजी थे, जो देश सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य समझते थे । उन्होने भ० महावीर के मंगलमय शासन को लोकव्यापी बनाने के लिए प्रयत्न किया । वे मानवता की सेवा के लिए सदैव लालायित रहते थे । जैन समाज एकता के सूत्र मे बंघकर अहिंसा धर्म का अधिक से अधिक प्रचार करता रहे। यह पुनीत भावना उनके हृदय में सदैव बनी रहती थी । शाकाहार का प्रचार हो, पशुधन की रक्षा हो इस सम्बन्ध में उन्होने वडा महत्वपूर्ण कार्य किया । देश समाज के प्रति की गई उनकी सेवाएं स्वर्णाक्षरो मे लिखने योग्य है। उनका जीवन युवको के लिए आदर्श है | आज जब भ्रष्टाचार और लोलुपता का बोलबाला दिखाई दे रहा है तब हम उनके जीवन को देखते हैं कि उन्होने पदो की कभी अभिलापा नही की । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राजनीति को छोड़कर वे समाजसेवा के क्षेत्र मे आए ।
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देश-सेवा
सन् १९१९ मे जबकि असहयोग प्रान्दोलन शुरू हुआ और हमारे देश मे आजादी की लहर दौडी तो उनसे न रहा गया। एकदम स्वदेशी वस्तुनो का प्रयोग करना शुरू कर दिया। पंजाबकेमरी लाला लाजपतराय के साथ तिलक स्वराज्य फण्ड मे रुपया एकत्रित करने मे आपने बड़ा कार्य किया । प्राप पर लाला लाजपतरायजी का बड़ा प्रेम था। लोकनायक प० जवाहरलालजी नेहरू के साथ-साथ रोहतक, करनाल आदि जिलो मे दौरा किया। रोहतक में जब माता कस्तूरबा गाँधी पधारी और चर्खा बङ्गल हुआ जिसमे २५० महिलाएं सम्मिलित हुई तो आपने प्रत्येक महिला को ५) प्रौर चाँदी की तकली भेट मे दी । असहयोग आन्दोलन मे ६ माह कारावास मे रहे । १९४२ मे दिल्ली प्रदेन काग्रेस के अध्यक्ष रहे । हरिजनो के लिए उन्होंने एक बोर्डिङ्ग हाउस की स्थापना कराई ।
प्राप उन व्यक्तियो मे से थे जो अन्त तक अपने को छिपाए रखना चाहते थे । अथक उत्माह, स्फूर्ति, व्यवसाय कुशलता, नम्रता, सच्चाई आदि लोकोत्तर गुणों की मूर्ति थे । आप देन और समाज के निर्भीक सिपाही थे । लक्ष्मी इन्शोरेन्ा और तिलक बीमा कम्पनी भारत को प्रसिद्ध प्रगतिशील राष्ट्रीय कम्पनी रही है। यह कम्पनी उच्च आदर्श और लोकहित के सदेश को लेकर कार्यक्षेत्र मे उतरी उसका मूल उद्देश्य भारत की प्रार्थिक स्थिति को वैज्ञानिक ढंग से उन्नत करना मोर भारत की बढती हुई वेकारी को दूर करना प्रापने अपने नेतृत्व मे उसका बडी सफलता के साथ सचालन किया 1
समाज-सेवा
आपके जीवन पर श्रापकी धर्मपरायणा माताजी और उदार हृदय पिताजी का प्रभुत प्रभाव पडा । माताजी ने समाज सेवा की ओर प्रेरित किया । इस युग के समन्तभद्र महान कर्मयोगी
० सीतलप्रसादजी, और विद्यावारिधि वैरिस्टर चम्पतरायजी वीर प्रभु की पवित्र वाणी को देश विदेशो मे फैलाने मे सतत प्रयत्नशील रहते थे । उन्होंने समाज मे नये युग का आह्वान किया, विरोध को चुनौती दी और सघर्ष से टक्कर ली। दोनो का हृदय जैन धर्म की श्रद्धा से श्रोत-प्रोत था । उनकी रुचि दीप शिखा की तरह शान्त, स्निग्ध और स्थिर थी । परिपद की पतवार अपने समर्थ हाथो में लेकर उन्होंने कभी तूफान की पर्वाह की न प्रलय की । वह जैन धर्म के वडे मर्मज्ञ थे। दोनो के जीवन का अद्भुत प्रभाव उनके हृदय पर पड़ा। परिपद के प्रधान मन्त्री वनकर परिषद की सफलता को मुट्ठी मे लिए फिरते थे। उनके कार्यों, त्याग और उदारता को देखकर सब लोग भूरिभूरि प्रशमा किया करते थे। परिपद के लिए उन्होने अपना तन-मन-वन लगा दिया । भेलसा, सडवा, मतना, भासी प्रादि के अधिवेशन उनकी सफलता के सर्वोत्तम उदाहरण है । वीर सेवा सध की स्थापना करके नवयुवको को नामाजिक कार्यो की ओर लगा दिया । वीर जयन्ती की छुट्टी के लिए उन्होंने वडा प्रयत्न या । उनकी भावना यो कि कोई सामाजिक उद्योग होना चाहिए | सेवा के कार्य मे वे सबसे भागे थे । वे कहा करते थे कि मैं जैन समाज का मदम्य हूँ पर वैसे ही भारतीय
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समाज का भी हूँ । इस उद्योग से कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे सबका भला हो, इसी भावना मे उन्होंने अपने जीवन मे सेवा के अनेक कार्य किये जिनमे कतिपय का उल्लेख करना श्रावश्यक
है :
- महगांव काड में समस्त जैन समाज विक्षुब्ध हो उठा। ढाई माह तक आन्दोलन करने के पश्चात् ग्वालियर सरकार के कान खड़े हो गए जिसमे जान-बूझकर जैन धर्म का अपमान किया गया था। यह जैन समाज की परीक्षा का समय था । अपने सहयोगी दाहिने हाथ युवक हृदय गोलीय जी के साथ परिषद के नेतृत्व मे उस सफलता के साथ कार्य किया कि वह विष का घूंट अमृत वन गया । जैन समाज में क्षत्रिय तेज उमड उठा । सफलता का श्रेय उनके चरणो को म उठा । इस कार्य में लालाजी के अदभुत कार्यशक्ति का परिचय दिया ।
- प्राबू के मन्दिरो पर सिरोही स्टेट द्वारा लगाया गया टैक्स, टैक्स नहीं है किन्तु कलङ्क है । यह टैक्स हमारी धार्मिक स्वाधीनता में बाधक है तथा स्वाभिमान घातक है। आपके इस पुनीत सदेश से जनता में क्रांति मच गई और टैक्स हटाकर ही शान्ति ली । यह कलक जब तक धुल नही गया तब तक चुप नहीं बैठे ।
- भा० दि० जैन परिषद, भारत जैन महामण्डल, वैश्य काफेस, अग्रवाल सभा, भारत वेजिटेरियन सोसायटी के तो प्राण ही थे ।
- दि० जैन पोलिटेक्निकल कालेज (दि० जैन कालेज ) वडीत का शिलान्यास आपके ही कर-कमलो द्वारा हुआ ।
-५००० भोलो को मासाहार का त्याग कराया ।
- चरित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के वे बड़े भक्त दर्शनो के लिए पधारे।
| कई बार उनके
- स्याद्वाद महाविद्यालय के भवन को गंगा के थपेडो से जब खतरा उत्पन्न हो गया और भेदनी घाट जर्जर होने लगा, भ० सुपार्श्व नाथ के विशाल मन्दिर के गिरने की आशका पैदा हो गई तो सरकार द्वारा उसके निर्माण की स्वीकारता प्रदान कराई। इस सम्बन्ध मे श्रद्धेय वर्णीजी ने उनके सम्बन्ध मे लिखा कि "इस युग मे आपने महान धर्म का उद्धार करके अपूर्व पुण्य लाभ किया। घाट के कार्य का श्रेय आपको ही है । आपने वडा भारी अद्वितीय दुर्घर कार्य किया। हमारा हृदय आपके इस धार्मिक कार्य को लगन के लिए आपका शुभाकाक्षी है ।"
भारत जैसे धर्मपरायण अहिसाप्रिय देश में जहा अधिक जनता शाकाहारी हो वहाँ मांसाहार का प्रचार बढे यह देख सेठ शान्तिकरण आसकरण और श्रीमती रुक्मिरणी अरुण्डेल के नेतृत्व में मिलावट विरोधी काफ्रेंस और शाकाहारी काफ्रेंस की, जिसमे जनता को बताया, यहा के नर-नारी घी-दूध के सेवन से बलवान और बुद्धिमान होते थे । श्राज जो अनेक बीमारियां फैल रही है उसका कारण शुद्ध घी का प्रभाव है। इस सम्वन्ध में आपने बड़ा प्रयत्न किया ।
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लालाजी जैन समाज के उन कर्मठ अनुभवी और कर्तव्यपरायण कार्य-कर्तामों में से थे जिन्हे सदैव देश और समाजसेवा का प्रकृतिदत्त व्यसन था जो कठिन से कठिन परिस्थिति में सदैव निर्भय और सफल रहते थे।
लालाजी की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। सभी विषयों में उनकी प्रवाधगति थी। ऐसे कर्मयोगी सेवापरायण निस्वार्थ समाज-सेवक नर-रत्न का उनके जीवन मे ही यथोचित सत्कार होना चाहिए था। उनके कार्यों से युवको को भली प्रकार परिचित होना आवश्यक है ताकि नि:स्वार्थ कार्यकर्तामो की वृद्धि हो परन्तु ऐसा हुआ नहीं। समाज अपने कार्यकर्ताओ के प्रति उदासीन रहती है।
कुछ भाइयो की मान्तरिक प्रमिलापा थी कि उनके सम्बन्ध में एक उत्तम अन्य प्रकाशित हो । उनके विचारो का नवयुवक लाभ उठा सकें। उन्हें मार्गदर्शन मिल सके। इसी भावना से उनके मित्रो और घनिष्ठ सम्पर्क रखने वाले साथियो की प्रेरणा से एक स्मृति-प्रन्य प्रकाशित किया जा रहा है।
इससे लालाजी की देश और समाज के प्रति की गई सेवा से आप भली प्रकार परिचित होंगे।
___ अथ को सर्वांग सुन्दर बनाने का प्रयत्ल किया गया है परन्तु सम्भव है आपकी रुचि अनुकुल न हो परन्तु फिर भी उनके कार्यो का सुन्दर दिग्दर्शन और धार्मिक लेखो से प्रथ की शोभा बढ़ गई है। इस प्रकार के अन्य से आप भली प्रकार उनके कार्यों से परिचित हो सकेंगे। प्रथ के कार्य को प्रारम्भ करने के लिए श्रीवनमुखराय जैन स्मृतिग्रंथ मयोजक समिति का निर्माण हुआ। जिसके अध्यक्ष स्वनाम धन्य दानवीर साहू गान्तिप्रसाद जी है। साहू जी ने इस कार्य मे विशेष रुचि प्रकट की। क्योकि सुयोग्य कार्यकर्ता और समान सेवको का सम्मान करना अत्यन्त आवश्यक है । 'गुणिषु प्रमोद' की भावना का यही अभिप्राय है । गुणवान सेवाभावी पुस्पो को देखकर हृदय मे हर्ष का भाव होना प्रमोद भावना है।
यह कहते हुए अपार हर्प होता है कि इस सम्बन्ध में हिन्दी के उच्चकोटि के लेखक और प्रतिभा सम्पन्न विद्वानो मे एच समाज के गण्यमान नेतामो, कार्यकर्तामो और प्रमुख पुरुषों कषियो तथा सुयोग्य सपादको ने अपनी श्रद्धाजलि, सम्मरण, कविताएँ भिजवाकर हमे अनुगृहीत किया है। हम उन लेखको, कवियो और नेताओं के हार्दिक आभारी है जिन्होंने हमारी प्रार्थना पर रचनाएँ भिजवा कर हमे अनुगृहीत किया है।
साथ ही प्रथ की छपाई और इतने मुन्दर डग से प्रकाशित करने का श्रेय श्री रामजस कालेज सोसाइटी के प्रेस व्यवस्थापक श्री सुरेन्द्र प्रकाश जी रस्तोगी विशेष धन्यवाद के योग्य है जिन्होंने बड़ी चि और उत्साह के साथ हमारे इस कार्य में पूर्ण सहयोग प्रदान किया है।
एकवार हम उन सभी सम्पादकी, लेखको और नेताओ को धन्यवाद देते है जिन्होंने लालाजी के प्रति अपना स्वाभाविक प्रेम दर्शाकर ही उनके सम्बन्ध मे अमूल्य विचार दिए है।
माशा है इस स्मृतिग्रप से लालाजी की स्मृति हमारे हृदय में सदैव बनी रहेगी और उनके किए गए कार्यों से हम थोड़े-बहुत उऋण भी हो जावेंगे।
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हमें विश्वास है-- इस अथ से समाज के उदीयमान युवक उनके महत्वपूर्ण कार्यों से प्रेरणा लेकर देश और समाज की सेवा में अपने को सहर्ष अर्पण करने के लिए तत्पर रहेगे । तो हमे अतीव प्रसन्नता होगी और हम अपना परिश्रम सफल समझेगे ।
विनम्र अक्षयकुमार जैन
सुमेरचन्द जैन शास्त्री प्रधानमत्री
साहित्यरत्न, न्यायतीर्थ भा० दि. जैन परिपद
अध्यापक अध्यक्ष
जैन म० क० हायर सेकेण्डरी स्कूल अखिल भारतीय सम्पादक सम्मेलन
सयोजक मत्री
श्री तनसुखराय स्मृति प्रथ सयोजक समिति
२१ अन्सारी रोड, दरियागज, दिल्ली.
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अनुक्रम श्रद्धांजलियां, सस्मरण, प्रथम अध्याय
'ब
* < <
श्रद्धाजलिया
लेखक याद तुम्हारी सेवाएं आती है तनसुखराय
श्री कल्याणकुमार जी 'शशि' १-२ श्री साहू जी के उद्गार
दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जैन प्रेरणा के स्रोत
श्री मिश्रीलाल जी गगवाल उनका नाम अमर रहेगा
श्री तख्तमल जैन विचारवान व्यक्तियो मे अग्नगण्य
सेठ अचलसिंह जी सदस्य लोकसभा जनकल्याण हितपी
साहू श्रेयासप्रसाद जी व्यापक कार्यदृष्टि और निर्मल भावना सेठ ब्रजलाल जी वियाणी, अकोला कर्मठ एव लगनशील व्यक्ति
दानवीर सेठ गजराज जी गगवाल, कलकत्ता दिलेर और अदम्य साहसी
श्री लालचद जी जैन एडवोकेट रोहतक ७ वात्सल्य की मूर्ति सुश्री लेखवती जैन डिप्टी चेयरमैन पजाव विधान सभा चण्डीगढ ८, १० नई-नई सूझ के धनी श्री लक्ष्मीनारायण अग्रवाल मंत्री वैश्य को-ओपरेटिव बैक दिल्ली प्रगतिशील समाज सुधारक श्री जगजीवनराम जी भूतपूर्व रेल मन्त्री, भारत सरकार ११ कर्मठ कार्यकर्ता और निर्भीक नेता श्री महेन्द्रजी, सचालक साहित्यरत्न भडार प्रागरा ११ सेवामूति ला० तनसुखराय जी श्री रिषभदास जी राका अध्यक्ष, भारत जैन
महामण्डल बम्बई १२, १३ अपने नाम को अक्षरश चरितार्थ किया श्री देशराज चौधरी उपाध्यक्ष दिल्ली
कार्पोरेशन, दिल्ली १४ महापुरुषो के जीवन का व्यक्ति के चरित्र पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है
सम्पादकीय टिप्पणी १५ मैं किन-किन का कृतज्ञ हूँ
अपनी कलम से १६, १८ श्रीमान् ला. तनसुखराय जी का जीवन चरित्र श्री सुमेरचन्द जैन, शास्त्री १६, ४८ अनमोल रत्न श्री प्रकाशचन्द टोग्या एम ए, बी. काम०, एलएल बी० इदौर धर्मपत्नी की दृष्टि में
श्रीमती अशर्फी देवी धर्मपत्नी कर्मवीर
ला. तनसुखराय जी जैन ४९, ५१ सुलभ मार्गी
श्रीमती सुशीलादेवी उत्साही और सच्ची लगन के व्यक्ति श्री लालचंद जी सेठी मालिक विनोद मिल्स उज्जन ५२
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दीपक के समान प्रकाशमान
श्री महावीरप्रसाद एडवोकेट हिसार ५२ वे धन्य है.
थी जियालाल जैन, प्रेसीडेण्ट दि जैन कालेज बड़ौत ५३ सहनशीलता और दूरदर्शिता के आदर्श श्री उग्रसन जैन, एम० ए०, एल०एल० वी०
रोहतक सच्चे देशभक्त श्री वासुदेवशरण, अग्रवाल बनारस विश्वविद्यालय वाराणसी अपना जमाना पाप बनाते है प्रहलेदिल
श्री देवेन्द्रकुमार जैन मैनेजर
दि० जैन कालेज वडोत मेरठ ५५ A Man of Inspiration
Shri Bhikha Lal Kapasi ५६, ५७ मानव हृदय का आलोक
श्री सुल्तानसिंह जैन M.A ५८ लगनशील कार्यकर्ता
जनरत्न श्री गुलावचन्द टोग्या इदार ५६ प्रेरणा के स्रोत'
डा० ताराचद जैन (वस्नी) साहसी तेजस्वी नर रल
रायवहादुर वा० दयाचद जी सर्वतोमुखी प्रतिभा
सुश्री काता जैशीराम मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी महान परोपकारी
सेठ मिश्रीलाल पाटनी वैकर्स ६१ Very Good Worker Shri Narındra Kumar Jain, B.A सफल जीवन
श्री रूपचंद गार्गीय ६२ सबके प्रिय नेता
श्री हीराचद जैन कर्मवीर श्री तनसुखराय जी
फविरल श्री गुणभद्र जैन ः विरले महापुरुष
श्री नरेन्द्र कैप्टेन ४ अपने काल के सरक्षक
श्री जुगलकिशोर मुखत्यार ६५ स्वजनो की ओर से श्रद्धाजलिया
सेठ रामगोपालजी ६६, ६७ श्रीशिसरचद जी
श्री खूबचंद जी श्री गिरीलाल जी श्री रणजीतसिंह जी श्री किशनलाल जी श्री भगवानदास जी श्री गातीप्रसाद जी श्री कुलभूपण जी
श्री रुलियाराम जी
श्री विद्यावती स्वदेवारानी
पाशादेवी, मन्तोषकुमारी, त्रिशालादेवी सच्चे सेवक
श्रीमत विद्वान् ला० राजकृष्ण जी दरियागज, दिल्ली स्नेहशील महापुरुष
श्री मातिकुमार गोवा
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पितृतुल्य स्नेहधारी सफल कार्यकर्त्ता
चमकते हीरे कुशल कार्यकर्ता
अद्वितीय समाजसेवक
सेवाभावी, मधुर भाषी श्री मेहमानवाज
प्रेरणा प्राप्त करे
परिषद् का सपूत
देशभक्त और प्रबल समाज सुधारक प्रसिद्ध समाज सुधारक और मूक सेवक काम करने की अद्भुत शक्ति मे
पजाब मे जागृति का श्रेय मार्गदर्शक
एकता के स्तभ
प्रदम्य साहसी
मानवता के महान पुत मेरे सामाजिक गुरु मजुल मूर्ति श्रद्धामय व्यक्तित्व
निडर कार्यकर्त्ता
स्वजनो की भोर से
निर्भीक साहसी वीर
कर्मठ सेनानी लाला तनसुखराय जी
मेरे भ्राता
भा० दि० जैन परिषद के प्राण
श्रीमन्त तनसुख राय जैन
युवक समाज द्वारा सत्कार बड़े नक्षत्र जीवी
ला० तनसुखराय के प्रति मेरी एक भेट
क्रातिकारी नेता
मिलनसार और प्रेमी सज्जन
श्री मन्नूलाल हीरालाल जी श्री रतनलाल जी श्री जगतप्रसाद जी
रायबहादुर सेठ श्री हीरालाल जी जैन भैया साहब
श्री दरबारीलाल जैन
श्री भगवती प्रसाद खेतान
श्री उग्रसेन मन्त्री
श्री भुवनेन्द्र विश्व जवलपुर श्री सलेकचद जैन
श्री भगतराम जैन
श्री हजारीलाल जैन प्रेमी
श्री केशरलाल वख्शी जयपुर
श्री चिरजीलाल जी बड़जात्या ७२, ७३
श्री रतनेशकुमार जैन
७४
श्री उमाशकर शुक्ल
श्री गुलाबसिंह जैन एडवोकेट हिसार ( पजाव )
श्री गिरवरसिंह सूरजभान जैन
श्री कौछल जी वकील ७७, ७८
श्री ज्ञानवती जैन
1
६८
ફર
ला० राजेन्द्रकुमार जैन बैंकर्स अध्यक्ष भा० दि० जैन परिपद हजारीलाल जैन प्रेमी
७०
७१
५०
८१
८२
श्री विशनचद ८३, ८४
श्री जगदीशराय गुप्ता
८५ श्री मिश्रीलाल पाटनी ८६
डा० महेन्द्रसागर प्रेचडिया
श्री राजेन्द्रकुमार जी कुमरेश
श्री ताराचन्द जी प्रेमी
श्री शीलचंद जैन शास्त्री
श्री रघुवीरसिंह जी, कोठीबाला
५
७६
श्री बाबूलाल जैन जमादार ८७, ८ श्री मखमली देवी जैन ६०, ९१
६२
६२
६३
૪
६५
१६
૨૭
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प्रतिष्ठित समाज सेवक नवयुवको के प्रेरणा स्रोत
शुभाशीर्वाद
समाज-सुधारक नेकी कर दरिया मे डाल
लगनशील लालाजी
सक्षिप्त जीवन झांकी
कर्मठ सेवामार्ग कार्यकर्ता
लाला जी एक सस्था थे
अहिसा के प्रेमी और पशुधन के रक्षक तरुण गीत
लाला जी एक योद्धा श्रान्दोलनकारी लाला जी
सामाजिक धार्मिक सेवायें
कर्मठ समाजसेवी
स्मृतियाँ और श्रद्धाजलियाँ
परिपद के प्रमुख सस्थापक तरुण गीत
० सीतलप्रसाद जी
विद्यावारिधि वै० चम्पतराय जी
परिपद का शानदार अधिवेशन
जैन और हिन्दू
रक्षाबन्धन के सम्बन्ध मे हमारा दृष्टिकोण
भ० महावीर का निर्वाण दिवस
अध्यक्ष श्री जैन शिक्षा बोर्ड कुचा सेठ, दिल्ली देशभक्त श्री दौलतराम जी गुप्ता
कथनी और करनी मे समानता लाइए महान क्रांतिकारी विश्वोद्धारक भ० महावीर आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य 'पशुहत्या वन्द कराओ वध योजना
६७
हद
१९-१० १
१०२
१०३
१०४
१०५
श्री गुलाबचद पाडया श्री सुरेशचन्द्र जैन १०६, १०६ श्री रतनलाल जैन ११०, १११ ११२, ११३
११४
११५
११६, ११७ ११५, ११३ १२०, १२१
जैन एकता का मंच
भा० दि० जैन परिषद् के ३७ वर्ष देवशास्त्र गुरु
राजस्थान नहर योजना और उसके प्रवर्तक
वैश्य वर्ग साहस और उद्यम को हृदय में स्थान दें
श्री सुल्तानसिंह जी एम० ए० श्री दयाशकर ज्योतिपी कानपुर
डा० नन्द किशोर जी
प० परमेष्ठीदास जी
श्री यशपाल जैन ७/८ दरियागज दिल्ली श्री जयन्तीलाल जी मानकर श्री कल्याणकुमार जी शनि श्री सत्यधरकुमार जी श्री वलभद्र जैन
प० रामलाल जैन
श्री मोतीलाल जैन
श्री श्यामलाल पाडवीय
१२२-१२४ १२५, १२६
संकलित १२७-१२ε १३० १३१, १३३
श्री राजेन्द्रकुमार जैन
पं० परमेष्ठीदास जी
श्री त्रिशला देवी
श्री पचरत्न जो
डा० ज्योतीप्रसाद जैन
१३४-१३८
१३६-१४१
१४२-१५१
१५२
१५३
१५४-१५६
१५७-१५८
१५६
१६० - १६१
१६२-१६३
१६४-१६६
१६७-१७०
१७१-६७३
१७५-१७६
१७६-१८०
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राष्ट्र निर्माण की प्रतिज्ञा करें
महावीर क्या थे
जैन समाज के सगठन का रूप कैसा हो ? भगवान महावीर और उनके सदेश जैन समाज के सामने एक समस्या
महावीर जयंती पर हमारा कर्तव्य
Report on the Marketing of Meat in India
कवितायें
मानव धर्म
ईश्वरोपासना
विविध कविताए
हिन्दोस्ता हमारा वीर की सच्ची जयन्ती समाज सम्वोधन
साघु विवेक
जैन सम्बोधन
हृदयोद्गार, सफल जन्म नवयुवको से नम्र निवेदन
धनिक सम्बोधन
उपदेशिक ढाला
नीच और अछूत चेतावनी
जैन धर्म की प्राचीनता
जैन झडा गायन
सद्धर्म संदेश
पूज्य पिता की जय-जय
स्वदेश सदेश
तेरी आयु मे कमती पडे
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प्रमुख नेताओं के वाक्य १८२, १८३
१८४, १८५
१५६-१८९
१८६
१०-१२
१६३, १९४
विविध आन्दोलन, द्वितीय अध्याय
महगांव आन्दोलन दस्सा पूजन अधिकार
दूध-घी मिलावट कान्फ्रेंस के अध्यक्ष तिलक बीमा कम्पनी की अपूर्व सफलता
श्री श्यामलाल पाडवीयं श्री राजेन्द्रकुमार
सेठ शातिदास प्राणकरण जी का भाषण
१९५-१९७
१९८-२००
२०१-२०८
२०६, २१०
२११
२१२
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२१७, २१८
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२३१, २३२
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२४४ - २४६ २४७ - २४९
२५० - २५३ २५४, २५५
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वीर सेवा मन्दिर
लालाजी का परोपकारी कार्य
राजस्थानी भाइयो की प्रपूर्व सेवा
अग्रसेन जयन्ती महोत्सव
चरण कमलो में श्रद्धा फूल
भील प्राश्रम श्रावर्टक्स विरोधी श्रान्दोलन
स्याद्वाद महाविद्यालय का जीर्णोद्वार
श्रादर्श सामूहिक विवाह
विश्व का शाकाहार प्रान्दोलन
·
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जयन्ती के जलूस का श्रेय धर्म और संस्कृति
London Vegetarian Society List of Books
जैन कोआपरेटिव बैंक
श्राध्यात्म विज्ञान
शिक्षा प्रेम और श्रेय का कारण है
राणाप्रताप प्रोर भामाशाह
भारतीय एकत्व की भावना
मेवाड उद्धारक भामाशाह गाधी जी के व्रत रामचन्द भाई के सस्मरण
महात्मा गाधीजी के प्रश्नो का समाधान
वीर भूमि पंजाब
हिन्द का जवाहर
णमो हार मंत्र उसका माहात्म्य विभिन्न सम्प्रदायो मे एक सूत्रता डा० हर्मन जैकोबी और जैन साहित्य
० सीतलप्रसाद जी सम्पादक विश्वमित्र
रायजादा गूजरमल जी मोदी
कुशल प्रचारक
जैन दर्शन मे सत्य की मीमासा श्रीमद् गीता और जैन धर्म जैनधर्म और कर्मसिद्धान्त • विश्वशाति के अमोघ उपाय जयपुर का हिन्दी जैन साहित्य जैनदर्शन मे सर्वज्ञाता की सम्भावनाएँ
२६२-२६४
राजेन्द्रप्रसाद जैन २६५-२६७
श्री विजयकुमार जैन २६८-२९२ पूज्य वर्णीनी २६३
श्री गोकुलप्रसादजी २९४-२६६
श्री सन्मतिकुमार २९७-३०३
३०४-३०८ रायस ० ज्योतिप्रसादजी ३०६ ला० तनसुखराय जी ३१०-३१२ श्राचार्य का उपदेश
३१३ स्व० कवि पुष्पेन्द्र ३१४, ३१५ व्योहार श्री राजेन्द्रसिंह ३१६-३२०
श्री प्रयोध्याप्रसाद जी गोयलीय ३२१-३२५
महात्मा गाधीजी
श्रीमद् रायचन्द भाई
सरदार इन्द्रजीत सिंह तुलसी
श्री आदीश्वरप्रसाद जैन मन्त्री जैन मित्रमडल
भारतेन्दुजी के पद
श्री सौभाग्यमल जी एडवोकेट
२५६, २५७
२५८
डा० देवेन्द्रकुमार जैन
वा० महताब सिंह जी जैन
मुनिश्री नथमल जी श्री दिगम्बरदास जैन श्री हीरालाल जी
श्री अगरचंद जी नाहटा
श्री गंगाराम गर्ग
प्रो० दरबारीलालजी कोठिया
२५९
२६०, २६१
३२५-३२६
३३०-३३९
३४०-३४८
३४९, ३५०
३५५
३५६
३५७
३५६-३६२
३६३
३६४
३६८- ३७० ३७१-३७३
३७४-३८०
३८१३८३
३५४ ३८८
३८६-३६८
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य मे प्रेममूला भक्ति जनपद साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
सयम सदाचार
जैनवीर वकरस
आचार्य कुन्दकुन्द और उनका जीवन दर्शन पट् द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध
तत्वार्थ सूत्र और उसकी प्रमुख टीकाएं
श्रहिंसक परम्परा
संस्कृत साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का सहयोग
Ahimsa Ideology and Family Planning तनसुखराय जैन स्मृतिग्रन्थ संयोजक ममिति
डा० प्रेमसागर जैन ३६६-४१० डा० कस्तूरचंद कासलीवाल ४११-४१३ श्री दयाचंद जैन शास्त्री ४१४, ४१५ प० केभुजवलि शास्त्री ४१६ ४१८ डा० प्रद्युम्नकुमार जी जैन ४१६-४२५ श्री रूपचदनी गार्गीय ४२६ ४२६ श्री श्रमतलालजी ४ ०२४३३
श्री विश्वम्भरनाथ पाडे ४३४-४३८ डा० मगलदेव शास्त्री ४३६-४४६
Director Ahimsa Shodha Peeth ४४६-४४९ ४५०
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जैनधर्म के परमप्रभावक * महान् प्राचार्यरत्न १०८ श्री देशभूषणजी महाराज विद्यालंकार दिल्ली में आपके पार चातुर्माम हो चुके है, जिनके कारण जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना हुई है
मोर अनेक लोकोपकारी कार्य होरहे है।
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चत्तारि मंगलं- अरिहता मंगलं, सिद्धा मंगल, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्ती धम्मो मंगल। __ चत्तारि लोमुत्तमा - अरिहंता लोगुत्तमा. सिद्धा
लोगुत्तमा, KARलोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो।
चत्तारि सरणं पवज्जामि
अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणं पवन्जामि, साह सरणं पवज्जामि, HE केवलिपनत्तं धम्म सरणं पयज्जामि
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णमो अरिहन्ताण णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाण आ णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं
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मथुरा सग्रहालय के सौजन्य से प्राप्त
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कुशल व्यवसायी
ला० तनसुखराय जैन
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स्मृति में
★ श्री तनसुखराय स्मृति ग्रन्थ ★
प्रसिद्ध देशभक्त कर्मवीर
समाजसेवी
याद तुम्हारी सेवाएँ आती हैं तनसुखराय
यो तो जग अनादि से, सुनता आया अगनित नाम ! जीवित वही बचा है, जिसके साथ जुडा है काम । केवल सेवाएँ जीती हैं, मृत- मानव के बाद | जिसने यह रहस्य पहिचाना, वची उसी की याद ।
( २ )
तन का सुख यदि प्रमुख रहा, तो मिला न मन का बोध | मन का बोध मिला तो, पथ का लोप हुआ अवरोध । त्याग तथा सेवाओं द्वारा प्राणी बना महान् । उपकारी का सारा जीवन, जीवन का वरदान ।
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कठिन समस्याओ मे दीखे कभी न तुम निरुपाय | याद तुम्हारी सेवाएँ आती हैं तनसुखराय ।
इसी दिशा पर वढे सदा, तुम रह कर मंद कषाय । याद तुम्हारी सेवाएँ आती है तनसुखराय ।
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( ३ ) तुमने अपनी क्षमताश्रो को अर्पित किया शरीर । रहे सतत कर्तव्य परायण सेनानी बड़े सकटो में भी तुमको देखा तुम साहस, समाज सेवा की वने रहे प्राचीर ।
प्रण-धीर ।
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अधीर ।
कैसा भी हो किया न तुमने सहन कभी अन्याय याद तुम्हारी सेवाएँ आती हैं तनसुखराय ।
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२]
कविरत्न श्री कल्याणकुमार 'शशि'
रामपुर
( ४ )
वह सीमित जीवन है, जिसका विश्व न हो परिवार । वह जीवन क्या ! दिया न जिसने पथ को नया सुधार । वह वचित जीवन है, जिसका ध्येय न पर उपकार । वह जीवन क्या, वना न जो वहु जन हित का आधार ।
इसी दिशा मे किये शक्तिभर तुमने बड़े उपाय । याद तुम्हारी सेवाएं श्राती हैं तनसुखराय ।
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दानवीर
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साहू शान्तिप्रसाद जैन
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भाई तनसुखरायजी एक बड़े ही उत्साही मित्र थे । समाज-सेवा और समाज-सुधार उनके जीवन के अग थे। समाज-क्रांन्ति और समाज४. उत्थान की बात वे सदा सोचते थे। जैन-सस्कृति और धर्म में उनकी
अटूट श्रद्धा थी। मेरा उनसे २५ वर्ष भाई का सम्बन्ध रहा है। वे
अपने कष्ट के समय भी हमेशा प्रसन्न मुद्रा में रहते थे। उनके अभाव मे ___ जैन समाज ने एक कर्मठ नेता खोया है और कई संस्थाओ ने तो अपना R: सहारा ही खो दिया है।
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प्रेरणा के स्रोत
श्री मिश्रीलाल गंगवाल योजना तथा विकासमन्त्री, मध्यप्रदेश
स्वर्गीय ला० तनसुखरायजी की जीवनी और उनके कार्यों को लेखनीबद्ध कर सकलन करने का विचार वास्तव मे एक सराहनीय और उपयोगी पहल है। स्व० लाला तनसुखरायजी का मेरे पर अगाध स्नेह और ममत्व था। वे न केवल जैन समाज के प्रेरणा के स्रोत रहे वरन् देश के कर्मठ समाजसेवको मे उनकी गिनती थी। उनके ऊपर हमे गर्व था। उनके द्वारा किए गए समाजोपयोगी कार्य सदैव उनकी पवित्र स्मृति को उज्ज्वल रखेगे। वे एक तपे हुए काग्रेस-जन भी थे। उनमे राष्ट्रीयता और देशप्रेम कूट-कूट कर भरा हुमा था। जिन्हें भी उनके सामीप्य मे रहने का अवसर मिला वह उनके गुणो और कार्यशैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। उनका सौम्य और सरल रहन-सहन सबके लिए प्रेरणादायी था। उनके विपय मै जितना भी लिखा-कहा जाय कम ही होगा। उनके निधन से समाज की महान क्षति हुई।
मैं आपके इस प्रयास की हृदय से सफलता की कामना करता हूँ। मेरी आपके इस शुभ प्रयत्न के साथ सपूर्ण सद्भावना और सहानुभूति है।
उनका नाम अमर रहेगा
श्री तस्तमल जैन
भूतपूर्व मुख्यमंत्री मध्यभारत' लाला तनसुखरायजी से मेरा एक सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते काफी सम्पर्क रहा है। विवादो मे अधिक न उलझ कर उन्होने समाज की काफी सेवा की है। समाज-सुधारको । के इतिहास मे उनका नाम अमर रहेगा। जीवन पर्यन्त उन्होने अपने समाज के लक्ष्य को प्राप्त , करने हेतु हमेशा प्रयत्न किया है। ऐसे महान समाज-सेवक की स्मृति मे भाप अथ का सम्पादन , कर रहे है, इसकी मुझे बही खुशी है। मुझे आशा है कि उनके जीवन से नई पीढी लाभ उठाकर उनके पद-चिह्नो पर चलने का प्रयत्न करेगी।
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विचारवान व्यक्तियों में अग्रगण्य ।
सेठ प्रचासहजी
सदस्य लोकसभा मैं स्वर्गीय श्री तनसुखरायजी जैन को गत तीस वर्षों से जानता हूँ। प्रापके हृदय में समाज-सेवा के लिए बडी लगन व भावना थी। एक समय जब आप एक वीमा कम्पनी के संचालक थे या मुख्य कार्यकर्ता थे, उस समय आपने मुझे आगरे मै दर्शन दिये थे तब से उनके विचारो की मेरे ऊपर छाप पडी और उसके बाद समय-समय पर जैन-ससार की जागृति के सम्बन्ध मे विचारों से अवगत होता रहता था। अभी चन्द वर्ष पूर्व मापने भारत जैन-मडल के श्री चिरजीलालजी की प्रेरणा पर दिल्ली में एक भारतीय जैन कान्फ्रेंस करने का कार्यक्रम बनाया। पर कुछ लोगो के मुखालफत के कारण उन्होने बन्द कर दिया। इसी प्रकार अ०भा० महावीर जयन्ती कमेटी को भी जैन कन्वेन्शन करने का विचार स्थगित करना पड़ा, कारण हमारे जनसमाज मे कुछ व्यक्ति अपने पुराने विचारो से ओतप्रोत है, वे समयानुसार सुधारो से परे रहना चाहते थे।
स्वर्गीय श्री तनसुखरायजी की सेवाये समाज के लिए अकथनीय थी। वे बड़े विचारवान और समाज के लिए हमदर्द व्यक्तियो मे अग्रगण्य की पक्ति मे थे । उनकी समाजसेवायें कभी भी नहीं भुलाई जा सकती है।
मै उनके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
जन-कल्याण हितैषी
साहू श्री श्रेयांस प्रसादजी जैन भूतपूर्व अध्यक्ष, भा० वि० मन परिषद् तथा अ० भा० व्यापार संघ, घम्बई यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप लोग लाला तनसुम्बरायजी जैन की स्मृति मे एक स्मृति-प्रन्थ प्रकाशित करने जा रहे है। समाज सेवियो की सेवाओ के मूल्याकन के लिए ऐसे अन्य बहुत ही अच्छे माध्यम सिद्ध हुए हैं। 'श्री तनसुखराय जैन स्मृति प्रन्य समिति के तत्वावधान में यह सकलन बहुत ही अच्छा प्रायोजन है।
लाला तनसुखरायजी की सामाजिक सेवामओ और जन-कल्याण-हित में किये गये प्रयलों को सम्मान देना एक बड़ा सामाजिक उत्तरदायित्व है, जिसके निर्वाह के लिए पाप लोगो के साथ मेरा पूरा-पूरा सहयोग है।
इस सप्रयास में मेरी शुभ कामनाएँ आप के साथ है। कृपया इस पवित्र कार्य में मेरी भी श्रद्धांजलि स्वीकार करें।
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व्यापक कार्यदृष्टि और निर्मल भावना
श्रीयुत तनसुखरायजी जैन की स्मृति के साथ उनके अपने प्रति ममत्व का श्रीर उनकी क्रियाशीलता का मुझे स्मरण हो याता है। मेरा उनका प्रनेक वर्षो तक सम्बन्ध रहा । में, दिल्ली जब काऊसिल श्राफ स्टेट के मेम्बर के नाते जाने लगा, तब से मेरा उनका परिचय हुग्रा और वह बढता ही गया । व्यक्तिगत और कोटुम्बिक तरीके से भी उनका सम्बन्ध श्राते गया । उनके कार्य की दृष्टि से उनकी व्यापक और सर्वग्राही शक्ति का मैं अवलोकन कर सका । वे जिस काम को करते थे, अत्यन्त लगन से करते थे और अपने अनेक कामो को करते हुए भी मैने उनमे ग्रहकार का अभाव पाया । बढी निर्मल भावना से वे अपने सब कामों को सपादित करते थे । उनके मित्रो का परिवार भी काफी बडा था । श्रार्थिक क्षेत्र मे पूर्णतया स्वावलम्बी होते हुए भी उनके जीवन मे सादगी थी और साथ ही जीवन व्यवस्था समयानुकूल भी थी ।
श्रीयुत तनमुखरायजी जैन की स्मृति मे ग्रथ निर्माण किया जा रहा है, यह जानकर मुझे प्रत्यत प्रसन्नता है । श्रच्छे स्थायी ग्रथ का निर्माण उनके प्रति कर्तव्यपालन होगा । इस प्रथ के लिए मै अपनी इन पक्तियो के साथ श्रीयुत तनसुखरायजी जैन की स्मृति मे अपनी अजी प्रेपित करता हूँ ।
कर्मठ एवं लगनशील व्यक्ति
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श्री ब्रजलाल faurit सदस्य विधान परिषद् महाराष्ट्र प्रदेश
यह ज्ञात कर परम हर्प हुआ कि श्री लाला तनसुखरायजी जैन के विषय में स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। श्री लालाजी जैन समाज के सुयोग्य, कर्मठ एवं लगनशील व्यक्ति रहे है श्रौर मुझे उनके निकटतम सम्पर्क में रहने का सुअवसर प्राप्त रहा है। भाशा है यह स्मृति प्रथ समाज के नवयुवको को समाज एवं धर्म सेवा के लिए स्फूर्ति एव प्रेरणाप्रद होगा । श्रापका यह प्रयास सर्वथा प्रशंसनीय है ।
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दानवीर सेठ गजराजजी गंगवाल
कलकत्ता
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दिलेर और अदम्य साहसी
श्री लालचन्द जैन एडवोकेट, रोहतक
भूतपूर्व अध्यक्ष भा० दि० जैन परिषद् स्वर्गीय तनसुखरायजी एक साहसी और धैर्यवान व्यक्ति थे। पहले-पहल मुझे उनके साहस का परिचय असहयोग आन्दोलन के समय हुआ, जब वे गिरफ्तार किए जाकर अदालत मे लाये गये, और उनके रिश्तेदार इस सवध मे मुझे अदालत में ले गये।
उनके भाई गनपतरायजी का झुकाव तो जन-समाज की कुरीतियां दूर करने के लिये बहुत था और उनसे काफी बातचीत होती थी। तनसुखराय जी पहले-पहल हमारे रोहतक के साथियो के साथ परिषद् अधिवेशन सहारनपुर मे गये और परिपद् के कार्य से बहुत प्रभावित हुए।
यह उनकी ही हिम्मत थी कि दिल्ली में परिषद् का अधिवेशन हुआ, तब उनका जोश, उत्साह, लगन और उनके काम करने की शक्ति पूरी तरह रोशनी मे आई।
उसी समय महगांव काड का आदोलन हुआ, तब तनसुखरायजी ने बहुत सहनशीलता और दिलेरी से काम लिया। इस मौके पर भी उनका साहस मैने एक बार फिर देखा जब कि मैं और वे ग्वालियर गये और रियासत के उच्चतम अधिकारी से मिले, जिनके गुस्से का पार न पाया यहाँ तक कि उन्होने गिरफ्तार करने की धमकी भी दी।
परिपद के सतना अधिवेशन मे उन्होने जिस हार्दिक लगन से काम किया और उसके बाद एक साल तक जिस तरह उन्होंने मुझे सहयोग दिया और मेरी इच्छानुसार परिपद दिवस मनाकर दस हजार से अधिक मेम्बर बनाये, वीर सेवा सघ जगह-जगह स्थापित किये, और मेरे साथ घूमकर मेरे लिए जो जो प्रवध उन्होने किये, और जो जो सहूलियते मुझे दी इन सब का मेरे लिये भूलना कठिन है। मैं उनका प्रति आभारी हूँ।
श्री वीर प्रमु से प्रार्थना है कि उनकी असीम कृपा से स्वर्गीय आत्मा को सुगति, शांति, सुख और आनद प्राप्त हो।
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वात्सल्य की मूर्ति
सर्वश्री विदुषी बहिन लेखवती जैन डिप्टी चेयरमैन पजाव विधानसभा, चण्डीगढ़
विदुषी वहिन लेखवतीजी जैन आजकल | पजाब विधानसभा की उपाध्यक्ष है। देश और समाज सेवा के भाव उनमें कूट कूट कर भरे हुए हैं। वात्सल्य का नैसर्गिक माधुर्य, प्रबन्ध कुशलता और नारी जाति मे जागृति का भाव पैदा करना इन कार्यों में उनकी स्वाभाविक रुचि है। जैन परिपद् की एक कुशल कार्यकर्तृ होने के कारण उन्होने समाज को उत्तम सेवा की है। पावू टैक्स विरोधी आन्दोलन मै लालाजी के साथ रहकर जो प्रशसनीय नेतृत्व दिखाया समाज उसे सदैव गौरव के साथ याद रखेगी। देश और समाज को आपसे भविष्य मे घडी आशायें है।
आँखो में प्रासू एव हाथ में लेखनी लेकर स्वर्गीय भाई तनसुखराय की स्मृति में प्रकाशित होने वाले, तनसुखराय जैन स्मृति-ग्रन्थ मे कुछ लिखने का प्रयास कर रही हूँ। (भाई तनसुखराय समाज-सेवा तथा देश-मेवा के लिए जब निकलते, उनके साथ जीवन की एक लहर-सी दौड पड़ती थी। उनके सभा सोसाइटियो में पहुंचते ही जनता मे जागृति की लहर दौड़ पडती थी।) लेखनी किंकर्तव्य विमूढ बनी हुई सी सोच रही है कि उनके जीवन की कौन-कौन सी सेवाओ का वर्णन करू । भाई तनसुखरायजी ने अपने जीवन-काल मे देशसेवा के साथ साथ जो समाज-सेवायें की उसको वैश्य जाति, जैन समाज तथा देश की जनता भुला नही सकती है। कुशल व्यवसायी होने पर भी मापने उद्योग को प्राथमिकता न देकर सामाजिकता को प्रथम स्थान प्रदान किया। इनके जीवन का यह सर्वश्रेष्ठ त्याग था।
उनके सामाजिक कार्यों में आपके साथ रहने का मुझे भी अवसर मिला। जैन समाज, अग्रवाल एवं वैश्य समाज के लिए अनेक कार्य किये। इन सभी कार्यों में से यदि मै अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद की सफलता, उसके कार्य, सफल अधिवेशन, जैन जाति मे जागृति उत्पन्न करने वाले आन्दोलनो आदि के विषय मे ही कुछ लिखू या उनकी याद करूँ, वही मेरे लिए पर्याप्त होगा। सतना, खण्डवा, झांसी और दिल्ली के सम्मेलन मेरी आंखो के सामने हुए।
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जिनमे भाई तनसुखरायजी ने दिगम्बर जैन परिपद् के महा-मन्त्री होने के नाते जो कार्य किये, इन अधिवेशनो को जो सफलता प्राप्त हुई उसकी धूम को मैं ही क्या सनम्त भारत के जन-समाज सदैव स्मरण करेगे। दिगम्बर जैन परिपद् के जीवनदाता आप ही है। आपने अपने महामन्त्रित्व काल मे परिषद् के लिए जो कार्य किये वैसा आपसे पूर्व न किसी ने किया था न मापके पश्चात् ही अभी तक कोई कर सका और न भविष्य मे होने की सभावना है।
आपके निधन से हमारी ये सस्थायें शिथिल हो गई है। विशेपकर दिगम्बर जैन परिषद् जिसके कि आप आत्मा थे। वह तो आपको खोकर निर्जीव-सी प्रतीत होती है। आप निस भी आन्दोलन अथवा कार्य को अपने पर लेते थे उसको सफल बनाकर ही शान्त होते थे। आपकी प्रत्येक सेवा मे सजीवता तथा साहस विद्यमान रहता था जिसको आप मनसा, वाचा कर्मणा तया तन, मन एव धन से सम्पन्न करते थे। आज जैन-ममाज के कर्णधार सागे दिली एव साहसी कर्मवीर के प्रभाव से प्रति व्यथित हो दिल कचोट कर रह जाते है। जबकि वर्तमान नवयुवक नवीन भावो के सचारक, कर्तव्य-परायणता का पाठ पढाने वाले अदम्य उद्योगी मित्र के प्रभाव का अनुभव कर रहे है । कहाँ तक कहे वे बच्चे जो अभी आपका नाम ही सुन सके थे वे भी ग्रह कह रहे है कि हममे जान पैदा करने वाला, समय में समाज की सेवा करने मे साहस प्रदान करने वाला एक महान समाजसेवी हमको छोड़ कर चला गया। समाजमेवा का पाठ हम उससे प्रत्यक्ष रूप में पढने का सौभाग्य प्राप्त न कर सके।
भाई तनसुखरायजी के विषय मे मैं कुछ भी लि वह मुझे बहुत थोडा ही प्रतीत होता है । मैं उनकी समाज एव देशसेवामओ से ही प्रेरणा नहीं प्राप्त करती रही है बल्कि मुझे उनसे भाई का प्यार भी मिला। अपने मन के इन उद्गारो के बीच उनके उद्देन कई वाक्य स्मरण आ रहे है। उनके लिखने के लोभ का सम्वरण मैं नही कर सक रही है।
___ एक वार भाई तनसुखराय आवू के मन्दिरो पर सिरोही स्टेट्न द्वारा लगाये गये करों के विरुद्ध आन्दोलन के फलस्वरूप प्रावू पहुंचे। मार्ग मे सदस्यो की देखरेख में व्यस्त रहे । घर पहुंच कर भी उन्हे अपने आराम की चिंता उतनी न रही जितनी कि मेरी । उस समय उनके कहे गये वे शब्द मुझे सदैव स्मरण रहेंगे जो कि उन्होने अपनी पत्नी से कहे थे, 'देखना वह्न जी को कष्ट न होने पाये।' इतना कहने से भी उन्हे सन्तोप न हुआ और स्वय उठ कर मेरे खाने-पीने की व्यवस्था करने में व्यस्त हो गये।
देवगढ मे हुए सम्मेलन में दिगम्बर जैन परिपद् के अधिवेशन के समय जब आपको पुन. महामन्त्री चुना गया उसी समय मच से यह ध्वनि समस्त गतावरण मे गूज गई, "इम सस्था मै पुन जान आ गई, मानो एक अस्वस्थ को किसी वडे डाक्टर के हाथो में सांप दिया गग है।" यह डाक्टर भाई तनसुखराय और अस्वस्थ व्यक्ति दिगम्बर जैन सस्था जिसका कि नगपने जीर्णोद्वार ही नहीं किया बल्कि उसमे एक नवीन प्रात्मा डाल दी। आपकी मफलता का एक मात्र कारण आपका उत्साह तथा लगन थी।
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रक्षाबन्धन के दिन की बात है, मै आपके पास गई थी मुझे अपने कर्तव्य का ध्यान भी न था । वे प्रचानक मुझे स्मरण दिलाते हुए बोल पडे, "वहन, मेरे हाथ मे राखी बांघो ।” इतना कहना था कि जेब से एक नोट बाहर निकल आया । मेरे ना करने पर लाड में न जाने क्या बोलते चले गये । मेरे स्वीकार करने पर ही शान्त हुए । यह था उनका मेरे प्रति श्रगाध प्रेम ।
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एक दिन की बात है मैं आपके निवास स्थान पर गई । श्रापकी सुपुत्री जिसका नाम स्वदेश है एक नया कोट पहने मेरे पास मा गई । मैं उधर देखने लगी। मेरा उधर देखना था कि वे बोल उठे - "कैसा है स्वदेश का कोट ? अच्छा सिला है न । तुम्हे भी ऐसा ही कोट सिलवा कर दूँगा ।"
भाई तनसुखराय अनेक प्रकार से मेरे प्रेरक तथा सहयोगी थे । उनके सहयोग और उनकी सहायता की भावना से लोग मुझ से ईर्ष्या करते थे । सन् १९३३ ई० 'चुनाव का क्या कहना ? मेरे प्रतियोगी देशबन्धुजी थे । उस समय अज्ञात रूप से आप मेरा प्रचार करते रहे । इश्तिहारो की बोरियां की वोरियां आपके श्रादमी रातो-रात बाँट जाते । इतना ही नही भाई मानसिंह उनका यह सन्देश भी लाये, "भाई तनसुखराय जी ने कहा "कि वहन किसी प्रकार की चिन्ता न करें। चुनाव मे हर प्रकार की सुविधा प्रदान करेगे ।"
यह तो रही पिछले चुनाव की बात । इस अन्तिम एम० एल० सी० के चुनाव में भी अस्वस्थता की स्थिति मे स्वय अपने साथियों के साथ मेरे चुनाव क्षेत्र मे गये । मेरे साथी जो मेरे साथ ही निर्वाचित हुए उन्होने आपके सहयोग को देखकर कह दिया, "बहन जी श्रापके लिए तो नई-नई गाडियां, नई-नई कारे आ रही है। इतना ही नही, जैनियो के बडे-बडे नेता पधार रहे है | आपको चुनाव की क्या चिन्ता ? गाडियाँ लाने वाले जैनियो के नेता और कोई नही बल्कि भाई तनसुखराय ही थे । उनके ये कार्य मुझे उस समय कुरेदेगे जब मै पुनः निर्वाचन क्षेत्र मे प्रस्तुत होऊँगी । किन्तु उस समय भी भाई तनसुखराय की श्रात्मा हमारी अप्रत्यक्षरूप से सहायता करेगी। ऐसे महान् व्यक्ति चले जाते है किन्तु छोड जाते है अपनी एक अमिट छाप ।
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नई-नई सूझ के धनी
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श्री लक्ष्मीनारायण अग्रवाल मंत्री वैश्य कोपरेटिव बैक, दिल्ली
श्राप जैन समाज के एक ऐसे कर्णधार थे जो वैश्य जाति की उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहते थे । वैश्य युवकों मे व्यापार की ओर विशेष रुचि पैदा हो इसलिए आप सतत जागरूक रहते थे । बैंक के पुराने सदस्य थे । वैश्य कोआपरेटिव कमर्शियल बैंक लि० की कार्यकारिणी के सदस्य थे। मैं श्रापके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ ।
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प्रगतिशील समाज सुधारक
माननीय श्री जगजीवनराम जी भूतपूर्व रेलवे मत्री, भारत सरकार
__ स्वर्गीय श्री तनसुखराय से मेरा परिचय १६४१ मे हुआ था। मेरठ में अखिल भारतीय दलित-वर्ग सम्मेलन से होते हुए मैं दिल्ली आया। सम्मेलन से लौटते हुए दूर-दूर के कुछ प्रतिनिधि भी मेरे साथ थे। दिल्ली में उनके आवास, भोजन का प्रवन्ध करना था। एक मित्र के द्वारा तनसुखराय से परिचय हुआ। तनसुखराय ने काफी दिलचस्पी से सभी व्यक्तियो के लिए उचित प्रबन्ध करा दिया। इसका मेरे ऊपर गहरा असर पडा। तब से हम एक-दूसरे के नजदीक आते गए। मैने पाया कि तनसुखराय जी एक निखरे हुए देशभक्त, समाजसेवी और परदुखकातर पुरुष थे। राष्ट्र और समाज के लिए सदा सोचा करते थे और कुछ न कुछ रचनात्मक काम भी किया करते थे। वे एक प्रगतिशील समाज-सुधारक थे। जन-समाज के लिए उनकी सेवाएं नगण्य नहीं रही। संगठन को बढाया और समाज को प्रगतिशील बनाने मे यलशील रहे।
अतिम दिनो मे उनका स्वास्थ्य गिर गया था और आर्थिक कठिनाई मे भी रहते थे। फिर भी समाज-सेवा के कार्य से विमुख नही हुए। समाज के उपेक्षित और पीडित समुदाय के लिए उनके दिल में इतना अगाध प्रेम था कि स्वय कष्ट मे रहते हुए भी वे इनके लिए क्रियात्मक रूप से सहानुभूति दिखाने में कभी नहीं हिचकते थे। हम उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखें। उनके जीवन से समाज को प्रेरणा मिले तो यह उनके लक्ष्य के प्रति अच्छी स्मृति होगी।
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कर्मठ कार्यकर्ता और निर्भीक नेता
प्रसिद्ध साहित्यसेवी श्री महेन्द्रजी
संचालक साहित्यरत्न भडार, आगरा आप महानुभावो ने श्री तनसुखराय जैन की स्मृति में एक स्मृति-अथ प्रकाशित करने का निश्चय किया है-यह जान कर हर्ष हुआ। लालाजी ने धर्म और समाज की बड़ी सेवा की थी। उनका लगभग सारा जीवन समाज की सेवा में व्यतीत हुआ। उन जैसे कर्मठ कार्यकर्ता
और निर्भीक नेता थोड़े ही होते है। समाज में उनके द्वारा ऐसे अनेक कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हुए हैं कि उनकी याद सदा बनी रहेगी। उनके यशस्वी जीवन की चिर स्मृति और उनकी प्रात्मा की शान्ति के लिए मै जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना करता हूँ।
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सेवामूर्ति ला० तनसुखरायजी
ससार मे जो आता है वह तो जाने के लिए ही श्राता है। लेकिन उनका जाना सफल है जो जाकर भी लोगो के हृदय में स्थान पाते है |
श्री रिषभदास का अध्यक्ष भारत जैन महामण्डल, बम्बई
लाला तनसुखरायजी उन लोगों मे से एक थे जिन्होने अपने शील स्वभाव और सेवा के द्वारा समाज और राष्ट्र मे ऐसा स्थान पाया था जो अविस्मरणीय रहेगा ।
उनकी सौम्य मुद्रा और विनम्रता इतनी आकर्षक थी कि उनके सम्पर्क मे आने वाला उन्हें भुलाने की कोशिश भी करे फिर भी उन्हे भुला नही पाता ।
सेवा चाहे परिवार की हो या समाज की, राष्ट्र की हो या मानव की, जो काम करने जैसा दिखाई पड़ा उसमे वे नम्रतापूर्वक लग जाते थे । न रात देखी न दिन, न सुविधा देखी न असुविधा, बस सेवा कार्य में लीन हो जाते थे I
लाला तनसुखरायजी का दृष्टिकोण व्यापक और उदार था । उन्होने समाज की सेवा की लेकिन दृष्टिकोण सदा राष्ट्रीय ही रहा। उनकी सामाजिक सेवाएं राष्ट्रीयता की पोपक ही रही थीर दिगम्बर सम्प्रदाय मे जन्म लेकर भी वे सम्पूर्ण जैन समाज को नजर के सामने रखकर काम करते रहे ।
सन् १९५० की बात है उन्होने मुझे दिल्ली भारत जैन महामण्डल के कार्य के लिए बुलाया। उनकी यह इच्छा थी कि भारत जैन महामण्डल का सगठन दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश मे हो । में उनके घर पर ठहरा था, तब उनके स्नेह व आत्मीयता से पूर्ण श्रातिथ्य का सौभाग्य भी मिला । हमारा यह स्नेह बढता हो गया। फिर तो मिलने-जुलने प्रोर साथ काम करने के कई प्रसग आए जिसमे उनकी समाज के प्रति निष्ठा के दर्शन हुए।
लालाजी चाहते थे कि सम्पूर्ण जैन समाज एकत्र आवे और प्रपनी शक्ति, समाज व राष्ट्र व मानवता की भलाई के लिए लगावे । इसी दृष्टि कोण से उन्होने भारत जैन महामण्डल के तत्वावधान मे जैन समाज के सभी सम्प्रदायो के प्रमुख कार्यकर्ताघ्रो का कन्वेन्शन बुलाने का प्रयास किया था। लेकिन स्वास्थ्य एव अन्य कारणो से उनकी इच्छा पूर्ण नही हो पाई पर इस कार्य के लिए उन्होने अथक प्रयास किए थे ।
यो लालाजी का जीवन सादगीमय होने पर भी वे ग्रागत-स्वागत मे वडे ही उदार थे। सेवा कार्यों के लिए भी उन्होने कभी मितव्ययता नही की बल्कि कई बार सामर्थ्य से अधिक ही
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खर्च किया। सेवा-लगन उनमे वचपन से ही थी और विविध सेवा-कार्यों में वे सदा सहयोग देते रहे।
जब राष्ट्रीय आन्दोलन ने देश के नौजवानो मे देशभक्ति की भावना पैदा की तो लालाजी भी उससे अछूते नहीं रहे और सरकारी नौकरी त्याग कर राष्ट्रीय आन्दोलन में योग देने लगे। एक बार तो जेल यात्रा भी कर पाए । राजनैतिक कार्य मे उन्होने लाला लाजपतराय के साथ कार्य किया और वे उनके प्रेरणा-स्रोत रहे तो सामाजिक कार्यों में अ. शीतलप्रसादजी ने वैरिस्टर चम्पतरायजी से प्रेरणा पाई थी। दिगम्बर जैन परिपद के लिए उन्होने अत्यन्त परिश्रम किया था और समाज के नौजवानो के वे प्रेरणा केंद्र थे।
यद्यपि उनका कार्य रचनात्मक ही अधिक था लेकिन वे जैन-समाज पर होने वाले किसी भी प्रकार के अन्याय को बर्दाश्त नही कर पाते थे और उनके जीवन में कई ऐसे प्रसग आए जब उन्हे सघर्प भी करना पड़ा और महगाँव काण्ड तथा आबू मदिर पर सिरोही राज्य की ओर से लिए जाने वाले टैक्स के खिलाफ आन्दोलन कर सफलता पाई।
समाज, राष्ट्र और मानव तक ही उनकी सेवा का क्षेत्र नियमित हो सो वात नही । उनके हृदय मे प्राणीमात्र के प्रति करुणा भाव था और उन्होने शाकाहार के प्रसार मे भी बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ऐसे सामाजिक, राष्ट्रीय व मानवताप्रेमी लालाजी के प्रति मेरी ही नहीं जन-समान के अनेको बन्धुप्रो के हृदय मे बड़ा आदर का स्थान था। उनकी सेवाएं समाज के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगी। और मुझ जैसे मित्र उनकी सौम्य और विनम्रता की मूर्ति को कदापि नहीं भुला सकते । लालाजी गए अब उनके मित्रो और चाहनेवालो का यही कर्तव्य शेप रह जाता है कि उनके कामो को कर उस कमी की पूर्ति करे जो लालाजी के चले जाने से समाज में हुई है। मुझे आशा है कि गुणपूजक जैन-समाज अवश्य उनके गुणो का और कामो का स्मरण कर उनका अनुगमन करेगा।
जब कि सेवा का क्षेत्र अधिक व्यापक बना है तब लालाजी जैसे सेवा-मूर्ति का स्मरण सबको सेवा की प्रेरणा देने वाला होगा।
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उपाध्य
अपने नाम को अत्तरशः चरितार्थ किया
श्रो देशराज चौधरी
उपाध्यक्ष, देहली कार्पोरेशन, वेहली मूक समाज-सेवक
स्व० लाला तनसुखरायजी जव भी कभी मुझे दरियागज के निर्माण करने वाले सहयोगियो की याद आती है तो स्वर्गीय श्री लाला तनसुखरायजी सरल प्रकृति, खादी की वेशभूपा, मधुर वाणी वाली सौजन्य की मूर्ति तत्काल पाखो के सामने आ जाती है । लालाजी दिल्ली नगर के प्रतिष्ठित नागरिको मे अपने प्रकार का अपना ही स्थान रखते थे।
सन् १९४२ मे विश्ववन्य पूज्य बापूजी के 'भारत छोडो' के उद्घोप पर देशभक्तो ने जान-माल की बाजी लगाकर जो कार्य किए वे अभूतपूर्व थे। उन्हे दवाने के लिए विदेशी सरकार ने जो दमन की नीति अपनाई, उससे जो विपम परिस्थिति पैदा हुई उसका सामना करने के लिए दिल्ली में बनाई गई रिलीफ सोसायटी के निर्माण करने में मुझे बहुत बडा योग श्री लालाजी का मिला था जिससे राजनैतिक बन्दियो पर चलाए अभियोगो और उनके पीडित परिवारो को जो सहायता इस सोसायटी के द्वारा की गई उससे देशभक्तो को उत्साह मिला और बल मिला।
__इसी प्रकार से बहुत से रचनात्मक कार्यों में लालाजी आगे बढकर सहयोग देते थे। प्रभु ने उन्हे पुष्कल धन भी दिया था और साथ ही विनम्र स्वभाव भी, जो कि ससार मे बहुत कम व्यक्तियो को मिल पाता है। सचमुच वह सक्रिय निष्ठावान् गांधीवादी मनोवृत्ति के महान् व्यक्ति थे।
किसी भी दुखी को देखकर वह उसके दुख दूर करने मे देर नहीं लगाते थे। जीवन के मन्तिम वर्षों मे रुग्ण होते हुए भी वह रचनात्मक कार्यों को सफल बनाने मे पूर्ण मनोयोग से कार्य करते रहे।
जहां उन्हें दिल्ली तथा विशेषकर दरियागज की जनता तथा रचनात्मक कार्य करने वाली सामाजिक सस्थाए सदा याद करती रहेगी वहाँ ऐसे अनेक व्यक्ति जिनकी वह समय-समय पर सहायता करते थे, उन्हे याद रखेंगे।
बहुत अच्छा हो यदि हम सामाजिक कार्यकर्ता उनके शुभ गुणो को अपने जीवनो में धारण करके उनकी याद मनाए और उनके परिवार वाले उनकी उन परम्परामो मैं रचनात्मक, शारीरिक, माल्मिक, सामाजिक मनोयोग देकर उनके अनुवत रहने का सत् प्रयत्न करते रहे।
___ उन्होने सदैव अपने नाम को अक्षरश' चरितार्थ किया। उन्होने समाज को अपने तन से सुख दिया और सदैव नेक राय दी। उनके निधन से समाज को जो क्षति हुई है वह पूरी नहीं हो सकती।
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महापुरुषों के जीवन का व्यक्ति के चरित्र पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है
___ जीवन को उन्नत बनाने लिए उत्तम शिक्षा की तो आवश्यकता है ही, चरित्रवान् लोकमेवी उदार नर-रलो के सम्पर्क मे रहना भी आवश्यक है। राष्ट्रपिता गावीजी के जीवन पर तीन व्यक्तियो की अनुपम छाप है जो उन्होंने अपने लेखो में स्वीकार की है। श्रीमद् राजचद भाई, मनीपी टालस्टाय और प्रसिद्ध विचारक रस्किन जिनका प्रभाव गाँधी जी के जीवन पर पड़ा। जिसने उन्हे भौतिक ऐश्वर्य के शिखर पर चढने की अपेक्षा लोकसेवी के कण्टकाकीर्ण मार्ग की
ओर प्रेरित किया जिससे हिसा और सत्य का पथ विस्तृत हुमा । और स्वतत्रता सेवी अमृत का प्रादुर्भाव हुआ। इसी प्रकार जननायक लोकप्रिय महान् नेता प. जवाहरलालजी नेहरू के जीवन पर भी तीन व्यक्तियो की छाप पडी विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की सौन्दर्यानुभूति और काव्य-हृदय, अपने पिता १० मोतीलालजी नेहरू की शालीनता और उदारता और बापू का सेवामयी मार्ग भारतीय जनता को उन्नत बनाने की तीव्रतम महत्वाकाक्षी भावना गाधीजी के चरणो मे बैठ कर ही सीखी। राष्ट्रपिता गाधीजी से देशभक्ति की भावना उदित हुई।
हमारे चरित्र नायक लालाजी के जीवन पर भी कतिपय महान व्यक्तियो की अनुपम छाप है। पजावकेसरी ला लाजपतरायणी से निर्भीकता और कर्तव्य-परायणता। विश्व के लोकप्रिय नेता प० जवाहरलालजी नेहरु से लोकसेवा और शुभ्र धवलमय खद्दर के वस्त्रो को धारण करना। इन दोनो नररत्नो के चरित्र से न मालूम देश के कितने युवक देश-सेवा के मार्ग में अग्रसर हुए । लालाजी को भी देश सेवा का व्यसन दोनो महान पुरुषों के निर्मल चरित्र से ही प्राप्त हुआ।
समाज-सेवा की प्रेरणा त्यागमूर्ति ७० सीतलप्रसादजी से और जैनधर्म प्रचार की धुन स्वनामधन्य विद्यावारिधी वैरिस्टर चम्पतरायजी से सीखी।
इनकी माता और वर्णीजी का प्रभाव भी आपके जीवन पर अद्भुत पडा जिसके फलस्वरूप लालाजी देश और समाज-सेवा के लिए प्रेरित हुए।
चरित्र चक्रवर्ती प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज, आबू के योगी शान्तिविजयजी और आर्यसमाजी विद्वान सत्यदेवजी का प्रभाव भी आपके जीवन पर हुआ। फलस्वरूप लोकमेवी बन गए और सदैव भावना रखने लगे।
न व कामये राज्य न स्वर्ग नापवर्ग का, कामये दुःख तप्ताना, प्राणिनामातं मभवे ।
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मैं किन-किन का कृतज्ञ हूँ
अपनी कलम से
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'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'
सर्वप्रथम मैं अपनी जननी माता भगवती देवी (जो कि भुप्रसिद्ध रईस ला० मुरलीधरजी मोनीपत निवासी की इकलौती बेटी थी) उनका आभारी हूँ। वैसे तो मेरी माताजी ने और पुत्र व पुत्रियों को जन्म दिया परन्तु उनको मेरे लिए तो गर्भ-काल मे ही बहुत मोह था जहाँ और पुत्र-पुत्रियो ने उनके नी मास गर्भ मे रहने के बाद जन्म लिया वहा मैने अपनी माता के गर्भ मे १२ माम रहने के बाद जन्म लिया। बाल्यकाल मे धार्मिक शिक्षा इनके द्वारा ही मिली और जो भी धार्मिक वृत्ति थोडी बहुत मुझ मे है यह सब उन्ही की कृपा का फल है। अभी मैं १५ साल का ही था कि पूज्य पिताजी का साया सर से उठ
गया। माताजी को सब भार सम्भालना पड़ा। उन्होंने नम्रता, अतिथि-सत्कार, कृतज्ञता तथा देश व समाज के लिए सेवा-भाव का सवक पढाया जिसके कारण मैं समाज व देश की कुछ सेवा कर पाया हूँ और गौरव के साथ कहने का साहम रखता हूँ कि यदि मेरे पास वन नही है तो भी बहुत से धनियो से मैं बड़ा धनी हूं क्योकि जीवन में धनियो की मुझ पर वहुत कृपा रही है और है जिसके कारण मैं बड़ी से बडी आपत्ति मे से निकलकर अटल खडा रहा हूँ और इज्जत-आवरू व विचारो मे कोई फर्क नहीं माने दिया। मेरी माताजी का देहान्त ७३ वर्ष की आयु मे हुआ और मरते समय मुझे जो वह आशीर्वाद दे गई है उससे मुझे अपने ऊपर पूरा भरोसा है कि जब तक मै जीवित रहूंगा मेरी इज्जत व पावरू बनी रहेगी और वडी से बड़ी कठिनाइयो को हंसता हुआ झेल जाऊगा। मेरा अपनी स्वर्गीय माताजी के चरणों में सादर प्रणाम।
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अभिवादन गीलस्य, नित्य वृद्धोपसेविन
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, प्रायुविधायगो वलम् । जो सदैव अपने माता-पिता, गुरुजनो और वृद्धजनो की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है।
मेरे पिताजी व्यापारी थे और सारी उम्र उन्होने बजाजे और सरफि का धन्धा किया। वह हमेशा कहा करते थे कि वेटा छावड़ी बेच कर खाना ठीक है, नौकरी ठीक नही। वह १८८२-८३ के मैट्रिक पास थे। उन दिनो का मैट्रिक आज के ग्रेजुएट्स से वेदरना बेहतर था।
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उनको पढाने का बडा शौक था। मुलतान छावनी में अपना सर्राफे का काम करते हुए भी दो-तीन अग्रेज आफिसरो को उर्दू-हिन्दी पढाया करते थे। मुझे भी वह दुकान पर बैठा लिया करते और पढाई भी करते। मैने कोई सार्टीफिकेट तो प्राप्त नहीं किया, उर्दू, अग्रेजी, हिन्दी का जो ज्ञान है वह सब पूज्य पिताजी के द्वारा मिला। सन् १९१८ मे जब कि मैने गवर्नमेट की सर्विस के लिए प्रार्थनापत्र दिया तो वहाँ मेरा इम्तिहान लिया गया। सब उम्मीदवारो मे मै सर्वप्रथम रहा और मुझे नौकरी मिल गई। क्योकि पिताजी का देहान्त सन् १५ मे हो चुका था और हम बच्चे थे पिताजी के धन्धे को नही सम्भाल सके और लाचार हो न करी की तरफ जाना पडा । पिताजी पढाई के साथ अपने अनुभव और ससार मे दूसरो को कैसे अपना बनाया जाता है, बताते रहते थे। मेरे पिताजी एक बहुत ही धार्मिक विचार के महानुभाव थे और बचपन से ही उन्होने मेरी रुचि भी उधर ही कराई। दुःख है कि पूज्य पिताजी ४५ साल की आयु मे ही स्वर्गवास कर गए और मैं उनकी कुछ भी सेवा न कर पाया। अब भी उनके पाशीर्वाद का फल है कि जो मै इतना सुखी हूँ। उनके चरणो मे भी मेरा सादर प्रणाम ।
आते ही उपकार याद हे माता तेरा,
हो जाता मन मुग्ध, भक्तिभावो का प्रेरा । मुझे अपनी माताजी के गर्भ मे १२ मास हो गए थे इसलिए सब चिंतित थे कि क्या बात है। जन्म-दिन से पहली रात महात्मा साधु और मुनियो ने माताजी को स्वप्न मे दर्शन दिए और कहा कि कल तुम्हारे प्रतापशाली पुत्र पैदा होगा, और हमारा प्राशीर्वाद है कि वह सदा सुखी रहेगा। और उसपर धनियो और मुनियो की विशेष कृपा रहेगी। जन्म-काल से अब तक त्यागी महात्मा और मुनियो की कृपा मुझ पर बनी रही। अभी ७, ८ साल का ही था जबकि मुलतान छावनी मे पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का आगमन हुआ और जब तक वह वहा ठहरे तब तक मैं उनकी सेवा में रहा और आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद जो भी मुनिगण आते ऐसे उनकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। सन् १९१४ मे पिताजी ने भटिंडा रियासत पटियाला में अपना व्यापार शुरू किया। वहा दिगम्बर जैन मदिर नहीं है । स्थानक मे जो भी साधु-महात्मा पाते. थे उनके पास घटा डेढ घटा व्यतीत करता था और उनसे ज्ञान प्राप्त करता था। १९१६, १७ मे, सनातनधर्म के प्रकाड विद्वान स्वामी राम भटिंडा पधारे। उनके पास भी मेरा आना-जाना शुरू हुआ, वे मेरे सेवा-भाव से प्रसन्न हुए और बहुत प्यार करने लगे । जब तक वह भटिंडा मे रहें उनकी कृपा मुझ पर बनी रही। इसके कुछ दिन बाद ही स्वामी सतदेवनी भटिंडा पधारे । वे आर्यसमाजी उन विचार के ऊचे विद्वान थे। उनके आदेशो से नवयुवको के हृदय मे स्फूर्ति आती थी। उन्होने विदेशो मे यात्रा की थी। मुझे उनके सत्सग से अच्छे विचार मिले । सन् २२ से ३३ तक विशेषकर राजनैतिक क्षेत्र मे जीवन बीता। इस बीच में महात्मा और त्यागियो का सत्सग तो कम हुआ परन्तु देश के बड़े से बड़े राजनैतिक नेताओ से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सन् ३४ से धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रुचि हुई। सन् ३४ से ३८ तक अखिल भा० दि० जैन परिषद् समाज के सुधारक दल मे बहुत जोरो से कार्य किया। इसी बीच मे जैसे समाज के प्राय कर बहुत से विद्वानो, त्यागियो, बनियो और कार्यकर्तामो के सम्पर्क में आया। सन् ३८ मे अग्नसेन जयन्ती के शुरूपात करने में भी मेरा ही प्रयास था और बाद मे अग्रवाल महासभा के प्रधान मत्री और
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प्रधान रहने के कारण भारतवर्ष के बहुत से ख्याति प्राप्त अग्रवाल भाइयो से परिचय बढ़ा। सन् ३८ मे मारवाडी सम्मेलन का अधिवेशन दिल्ली में हुआ जिसके अध्यक्ष राजा सेठ रामदेवजी पोदार थे। मैने भी उसमे कुछ भाग लिया और उसकी कार्यकारणी समिति के सदस्यो को अपने घर बुलाने का सौभाग्य प्राप्त हुमा । उसमे कलकत्ता, बम्बई, कानपुर आदि के सभी मारवाडी उद्योगपति उपस्थित थे। उनसे परिचय बढा । सन् ४० मे दूध-धी-मक्खन मिलावट निपेष कान्फ्रेंस दिल्ली में की, उसके अध्यक्ष (१) बम्बई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर सेठ शान्तिदास प्रासकरणजी थे। मेरी इन वृत्तियो से बहुत प्रसन्न हुए और जब तक वह जीवित रहे उनकी विशेष कृपा मुझ पर बनी रही। बम्बई में उनके पास ही ठहरा करता था। (२) सर सेठ शान्तिदास भासकरण बम्बई वालो के सम्पर्क में बहुत रहा था। उनसे मालूम हुआ कि आबू पहाड पर योगीराज शान्तिविजयजी महाराज रहते है, उनके दर्शनो से मनुष्य को वढी शान्ति प्राप्त होती है । मैं योगीराज महाराज के दर्शनो के लिए ३-४ बार आबू गया और आबू मदिर के टैक्स के आन्दोलन के लिए भी उन्ही का सकेत था। मान्दोलन को जोरो से चलाने और सफल बनाने के कारण वह मुझ पर बहुत प्रसन्न हुए और पाखीर तक शुभ कामनाए भेजते रहे। (३) सन् ४१ से ४३ तक राजनैतिक क्षेत्र में कार्य किया। सन् ४६ मे दसवा मानव-धर्म सम्मेलन का अधिवेशन दिल्ली में किया जिसकी अध्यक्षा श्रीमती रुक्मणीदेवी अरुणेल थी उनके साथ रहकर कुछ समय कार्य किया जिससे वह बहुत प्रभावित हुई । सन् ४७ मे भारत स्वतत्र होने के बाद भारतवर्ष का विधान बना जिसमे कि मनुष्य मात्र को मदिरो मे जाने का समान अधिकार था। हरिजनो को मदिरो में प्रवेश करने का प्रान्दोलन जोरो पर चला । मैने भी हरिजनो को जैन मदिरो मे प्रवेश करने के लिए अपने भाइयो से अपील की परन्तु रूढिवादी भाइयो ने इसका विरोध किया। उन्ही दिनो मुनि महाराज आचार्य नेमिसागरजी सन् ४६ मे दिल्ली पधारे। मुनि महाराज ने मुझे बुलाया। एकान्त मे उनसे २ घन्टे तक हरिजन मदिर प्रवेश पर वार्तालाप हुआ। वह मेरी वातो से प्रभावित हुए। उन्होने कहा कि तुम ठीक कहते हो। ये ही सारी बातें परम पूज्य आचार्य शान्तिसागर महाराज को बताने की है। उन्होने तुरत एक चिट्ठी परम पूज्य शान्तिसागर महाराज के नाम लिखवाई और मुझे शान्तिसागर महाराज के पास जाने का आदेश हुआ। उन दिनो मुनि महाराज शान्तिसागरजी नासिक के पास में विराजमान थे। मैं वहा पहुंचा। पूज्य नैमिसागरजी वहाँ थे। वह मुझ को प्राचार्य शान्तिसागर महाराज के पास ले गए। उनसे भेट हुई, उन्होने बहुत आश्चर्य से कहा कि मैं तो समझता था कि भाप लोग परिषद वाले धर्म की जड़ो में कुलाहबा चला रहे है परन्तु पापके विचार तो बहुत सुन्दर विचार है। मै वहा एक-दो रोज के लिए गया था परन्तु उन्होने मुझे एक सप्ताह तक नही पाने दिया। यह उनकी विशेष कृपा थी। जब दिल्ली आया पूज्य नेमिसागर जी महाराज को वहा के सब हाल सुनाए । बहुत प्रसन्न हुए और कहा तुम भी पाहार लगाया करो। मेरा सौभाग्य है कि चार बार मुनि नेमिसागर महाराज का आहार मेरे गरीबखाने पर हुमा और प्रतिम समय तक नमिसागर महाराज की कृपादृष्टि मुझ पर रही।
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प्रसिद्ध देशभक्त, कर्मवीर समाजसेवी
श्रीमान् ला० तनसुखरायजी का जीवन चरित्र
कर्मवीर ला० तनसुखरायनी
लालाजी के मन मे भावना थी :
श्री सुमेरचन्द जैन, शास्त्री साहित्यरत्न, न्यायतीर्थं
किसी कवि ने कितनी सुन्दर उक्ति कही है कि हे माता ! तू ऐसा पुत्र उत्पन्न कर जो भक्त हो, दाता हो या शूरवीर हो । नही तो क्यो अपनी शक्ति व्यर्थ मे नष्ट करती है । नि सदेह ससार मे उन्ही पुरुषो का नाम अक्षय बना रहता है जो अपने कार्य और प्रभाव से मानव जाति का हित सचय करते है । देश, धर्म और समाज की सेवा मे अपने जीवन को लगाते है ।
न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और घन सेवा,
मुझे है इष्ट जन सेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा ॥
ला० तनसुखरायजी ऐसे ही सत्पुरुप थे। लंबा कद, छरहरा वदन, चाल-ढाल में फुर्ती, हिन्दुस्तानी ढग की छोटी मूछें, दूर तक देखनेवाली आँखे और मुस्कराहट से हर समय भरा हुआ चेहरा, दिल्ली जैसे विशाल नगर मे इस हुलिए से प्राप कही भी लाला तनसुखराय जैन को पहचान सकते थे और बिना किसी हिचकिचाहट से मिल सकते थे ।
एक कुशल वैज्ञानिक व्यापारी, एक प्रभावशाली पुरुष, एक उत्साही कार्यकर्ता लाला तनसुखराय जैन यह सब कुछ है । पर उनके यह सब परिचय अधूरे हैं। वे असल मे एक निःस्वार्थी मित्र हैं । उन्हें प्रकृतिदत्त नई-नई सूमो से भरा दिमाग और प्रभावशाली व्यक्तित्व दिया है। पर इससे भी बढकर हमदर्दी और मुहब्बत से भरा दिल उनके पास है । वे जानते और समझते हैं कि नदी का पानी हमेशा एक ही रफ्तार से नही वहता । जीवन मे उतार-चढाव
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आते रहते है। इसलिए न चढाव मे फूलकर अन्धा होने की जरूरत है और न उतार मे घवराकर मैदान छोडने की।
उतार के भंवर मे पाने पर उन्होने अपने मित्रो की ही नही, साथियो की ही नही अनजाने लोगो तक की समय-समय पर स्वयं कष्ट झेलकर भी सहायता की है। और यही कारण है कि वे अपने विस्तृत सकिल में एक भरोसे, विश्वास और सहारे की पतवार बनकर अटल और निश्चल खड़े रहे।
आज उनके चारो ओर पुण्य कर्म के उदय से सफलता खेल रही है। यह सब उनकी कुशाग्रबुद्धि और परम पुरुषार्थ का चमत्कार है। और चमत्कार की एक बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है। इस दुखभरी दुनिया मे जब उन्होने अाँखे खोली तो उनके चारो ओर सुख ही सुख था। धनी मां-बाप की गोद मे वे जनमे, खेले और पले-पुसे, वढे । और पढ़-लिखकर गवर्नमेंट सर्विस मे चले गए।
परिवार परिचय
___ सन् १८४० ई० के लगभग जीद राज्यान्तर्गत होट ग्राम में एक समृद्धशाली जनपरिवार निवास करता था। उसी परिवार के एक दूरदर्शी एव उच्च इच्छामो से प्रोत प्रोत नवयुवक ने अपनी महत्त्वाकाक्षानो को पूरा करने के उद्देश्य से रोहतक मे पाकर अपना कारोवार प्रारम किया। इन्ही के वश मे श्रीयुत ला० जज्जूमलजी का जन्म हुआ। महत्वाकाक्षा और धार्मिक वृत्ति इस परिवार का पैतृक गुण रहा है । अत श्रीयुत लाला जज्जूमलजी के सुयोग्य पुत्र ला. गणेशीलालजी ने रोहतक मे अपनी महत्वाकाक्षानो को विशेप रूप से अवरुद्ध होते देखा तो वे रोहतक से मुलतान चले गये और वहाँ अपने पैतृक व्यवसाय, लेन-देन और सर्राफ का काम प्रारम्भ किया। आपने अपने अध्यवसाय और व्यापार-कुशलता से इतना धन सग्रह किया कि मुलतान में बहुत बडी सम्पत्ति खरीद कर वहां के उच्चकोटि के समृद्धशालियो में आपकी गणना होने लगी। परन्तु समय की गति और लक्ष्मी के चचल स्वभाव के कारण मिल्स के कार्य मे आकस्मिक असह्य हानि होने के कारण अपनी सम्पूर्ण सचित सम्पत्ति खो बैठे। परन्तु सौभाग्य से चार पुत्र-रत्न प्राप्त हो चुके थे जिनमें होनहार पुत्र ला० जौहरीमलजी दूरदर्शी और व्यापारकुशल व्यक्ति थे जिनका व्यापारिक सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय था। आप अपने बच्चो को व्यापारकुशल बनाने का भरसक यल करते थे। जहां बच्चो की शिक्षा की पोर विशेष ध्यान दिया वहाँ व्यापार की ओर बचपन से ही उनका रुझान पैदा करने के लिए उन्हे व्यापार की ओर माकर्षित करते रहते थे।
ला. जौहरीमलजी को पांच पुत्र-रत्न प्राप्त हुए जिनके नाम क्रमशः सर्वत्री ना. नानकचदजी, ला. गणपतरायजी, ला० तनसुखरायजी हमारे (चरित्रनायक), स्व० दौलतरामजी तथा राजारामजी है। अपने व्यापारिक कार्यों मे आकस्मिक हानि के कारण श्री जौहरीमलजी ने सन् १९१३ ई० मे मुलतान छोड़ दिया और भटिण्डा आकर बस गये । २०]
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ला जौहरीमलजी ने भटिंडा मे जनरल मर्चेण्ट और ठेकेदारी का कार्य प्रारम्भ किया हुआ था। लाजीहरीमलजी का केवल पंतालीस वर्ष की आयु में प्राकस्मिक बीमारी से स्वर्गवास हो गया । पिता की मृत्यु के पश्चात् ला० गणपतरायजी ने अपने पिता के कार्य-भार को सम्भाल लिया। परन्तु आकस्मिक व्यापार उलट-फेर के कारण सन् १९२३ ई० मे वे भटिंडा से पुन अपनी मातृभूमि रोहतक मे लोट पाए।
बाल्यकाल
प्रत्येक मनुष्य का वाल्यकाल उसके भावी जीवन का दर्पण है। यदि मनुष्य के स्वभाव और चरित्र का अध्ययन करना हो तो उसके वचपन के कार्यों के निरीक्षण से भलीभांति पता लग जाता है। जब हम इस तुला पर अपने चरित्रनायक का वाल्यकाल परखते है तो पता चलता है कि वचपन से ही उनमे विलक्षण सूझ थी।
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लाला तनमुखराय जैन का जन्म पजाब प्रात के रोहतक नगर ने स्व. श्रीमान् लाला जौहरीमलजी जैन को धर्मपरायणा पली श्री भगवतीदेवी की कोख से सन् १८६६ ई० मे हुमा
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था यह महान आश्चर्य की बात है कि आप अपनी माता की कोच में बारह महीने रहकर इस घराधाम मे अवतीर्ण हुए। आपके जन्मदिन की पिछली रात को इनकी माताजी को स्वप्न में एक नग्न दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हुए; जिन्होने कहा था कि प्रातःकाल तुम्हारे उदर से एक पुण्यात्मा, प्रतिभा सम्पन्न, प्रतापी पुत्र जन्म लेगा जो अपनी प्रखर बुद्धि से ससार में कई लोकोपकारी कार्य करके अपने कुल का नाम रोशन करेगा और सदा उसकी कीर्ति वढेगी । लाला तनसुखराय ने भटिंडा में रहकर हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू की शिक्षा पाई।
वाल्यकाल से ही उनको वस्तुप्रो की सजावट तथा व्यवस्था का अधिक शौक रहा है तथा अवसर के अनुसार उनकी अनुपम सूझ उनकी उन्नति का रहस्य है जिसका दिग्दर्शन हमे उनके बाल्यकाल के कार्यों से मिलता है। इस सम्बन्ध में चपन की एक घटना अत्यत आकर्षक है।
'होनहार विरवान के होत चीकने पात' वालक तनसुखराय जव छोटे ही थे तो उन्होने मेले के दिनो मे कुछ लोगो को छोटी-छोटी चीजो की दुकानें लगाकर विक्री करते देखते ही
:उनके मन में भी इसी प्रकार का कार्य करके लाभ उठाने की सूझी। मित्रमडली को साथ लेकर मेले मे बच्चो के खिलौने की दुकान लगा ली और उसमें कई रुपये पैदा किये। इस घटना का पता घर वालो को उस समय लगा जब कि आमदनी के रुपये उन्होने घर जाकर दिये। इसी प्रकार की सामयिक सूझ और संगठन के बहुत से कायों का परिचय उनके वाल्यकाल के छोटे-छोटे-कार्यों में लगता है। कार्यक्षेत्र में प्रवेश
बालक तनसुखराय अपने पांचो भाइयो मे अधिक व्यवहारकुशल और होनहार थे। इसलिए माता-पिता की दृष्टि इन पर विशेप रूप से रहती थी। पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि उन्हे उच्चकोटि की शिक्षा दी जावे। परन्तु १९१६ ई० मे पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण इन्हे अपनी पढाई समाप्त करनी पडी। और अन्य भाइयो के साथ १८ वर्ष की आयु मे ही इन्हे अन्य भाइयो के साथ घर का कार्यभार सम्भालना पड़ा। सन् १९१८ ई० मे आपने N. W. R रेलवे के D T.S के कार्यालय मे लेखक (Clerk) का कार्य प्रारभ कर दिया जो सन् १९२१ ई० तक सुचारु रूप से चलता रहा।
कार्यालय के उच्च पदाधिकारी आपकी कार्यशैली, व्यवहारकुशलता, कर्तव्यपरायणता, अनुशासनप्रियता, सत्यनिष्ठा और विनम्र स्वभाव के कारण इनसे बहुत प्रसन्न थे। २२]
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परन्तु यह सब कुछ होते हुए इन्हे कुछ ही समय में यह भलीभाँति विदित होगया था, कि उनकी योग्यता के सदुपयोग के कारण यह क्षेत्र पर्याप्त एव समुचित नहीं है। अतएव समुचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
राजनैतिक जीवन मे प्रवेश
१९१६ मे जव असहयोग आन्दोलन प्रारभ हुआ, और सारे देश मै आजादी की लहर दौड़ी तो इनसे भी न रहा गया। और एकदम विदेशी वस्त्रो की होली जलाकर स्वदेशी वस्तुमो का प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। हालाकि उन दिनो पाप गवर्नमेट की मुलाजमत मे एक अच्छे पद पर नियुक्त थे। परतु केवल स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार से ही इनकी तपिश नही बुझी। आपने सरकारी नौकरी से भी स्तीफा देने का निश्चय किया और खामोशी के साथ राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने लगे।
सन १९२१ मे भिवानी में पोलिटिकल कान्फ्रेस हुई। उसमे ला. तनसुखरायजी भी सम्मिलित हुए। इस कान्फ्रेंस का आपके मन पर वडा प्रभाव पड़ा। आपने राजनैतिक जीवन मे कार्य करने का निश्चय कर लिया।
देश के नेताओ की अपील पर आप सत्याग्रह आन्दोलन मे कूद पड़ । परन्तु कुछ ही समय में महात्मा गाधीजी की आज्ञा से जब यह आन्दोलन स्थगित कर दिया गया तो इन्हें भी पुन. व्यापारिक कार्यक्षेत्र मे लौटने का विचार करना पड़ा।
सन् १९२१ और २२ के दिन भारत के राष्ट्रीय उत्थान मे चढ़ाव के दिन थे। स्वाभिमानी नवयुवको में उत्साह की हिलारे उठ रही थी। भारत के नवयुवको के कान और ऑखें भारत माता की प्रातभरी पुकार सुनकर वेचैन थे। राष्ट्र की महान आत्मा ने फतवा दिया था कि सरकारी नौकरियां भारत की गुलामी को लोहे से भी ज्यादा सख्त बनाती है । अत. प्रत्येक भारतवासी को उन्हें त्याग देना चाहिए ।
इसी तेजाव मे डूबी हुई बात को सुनकर भारत के स्वाभिमानी व्यक्ति तक भी सह गए। फिर कमजोरो की क्या गिनती थी। पर भाई तनसुखरायजी में एक जीती-जागती आत्मा मौजूद थी। आपने वगाल के राष्ट्रीय जीवन के प्राण श्री सुभापचन्द्र बोस की तरह सोचा, दिमाग मे अक्ल है। शरीर मे जीवन मौजूद है। फिर कमाकर खाना क्योकर मुश्किल होगा। फिर पेट भरने के लिए यह दासता क्यो ? तनसुखराय खाली जेब और भरे दिमाग उस वैभवपूर्ण सफलता और वातावरण से निकल कर जीवन के मैदान मे कूद पड़े।
सन् १९२१ ने १९२७ तक काग्रेस और खासतौर से स्वदेशी का प्रचार करते रहे और अपने संक्डो मित्रो से स्वदेशी के प्रयोग करने का वचन लिया।
गवर्नमेंट सर्विस से स्तीफा देने के बाद आपके सामने आजीविका के प्रश्न नै कठोर और विपम प्रहार करना शुरू किए, पर भाप इच मात्र भी नहीं घबराए और पर्वत के समान अटल
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और निश्चित खडे रहे। उनका विश्वास था कि प्रचलता और दृढता के सम्मुख धन और मान स्वय ही आकर अपना शीश झुकायेगे। इसी विचार को सामने रखते हुए और स्वतत्रा के रग मे होने के कारण १०२० मात्र की नौकरी करने में भी सकोच नहीं किया। नौकरी करते समय आप यह नहीं सोचते थे कि मै १० रु० की नौकरी कर रहा हूँ। वल्कि सोचते कि मेरा कर्तव्य क्या है। इसी कारण इन्होने नही, नही, इनके कार्य ने मिल-मालिक पर एक अधिकार-सा कर लिया। वह इन्हें अपने भाई की ही तरह समझने लगा। कुछ दिनो के बाद मिल-मालिक का एक दोस्त उनसे मिलने के लिए आया। और एक विश्वसनीय तथा ईमानदार आदमी की आवश्यकता की इच्छा प्रकट की। फिर क्या था, वडी दृढता वाले विचार सत्यता मे परिणत होना प्रारभ हो गए । और मिल-मालिक के सकेत पर वह मित्र लाला तनसुखराय जन को ८० रु० महीने के वेतन पर अपने साथ ले गया।
__वहा पर अचानक बीमार हो जाने के कारण ही आपको वापिस आना पडा। अच्छा होने पर भी आपकी स्वतत्र प्रवृत्ति न बदल सकी और आपने रवतत्रतापूर्ण ध्यान रखते हुए कमीशन का कार्य प्रारभ कर दिया जिससे आपको लगभग १०० २० महीने की आमदनी होने लगी। इन सब बातो से लोगो को आपकी दृढता, अचलता और स्वतत्रता पर विशेप पार्कषण हो गया।
लालाजी का रुझान नौकरी की मोर न था। उनकी योग्यता का सदुपयोग व्यापारिक लाइन मे ही हो सकता है। परन्तु व्यापार के लिए व्यापारिक अनुभव अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक समझकर आपने कई व्यापारिक कम्पनियो मे रहकर कन्वेसर, एकाउन्टेंट, सेक्रेटरी
और मैनेजर आदि भिन्न-भिन्न पदो पर रहकर व्यापारिक क्षेत्रों का गहन अध्ययन किया और अनुभव प्राप्त किया। यह अध्ययन कार्य मन् १९२४ ई० तक चलता रहा । लालाजी की प्रभावशाली मूर्ति प्रत्येक व्यापारी के लिए आकर्षक थी और प्रत्येक उनके ईश्वर-दत्त प्रभावशाली व्यक्तित्व से लाभ उठाना चाहता था। इस प्रकार के व्यक्तियों का सबसे अधिक सदुपयोग करने वाले बीमा व्यवसायी ही होते है। इस बात को प्रत्येक भलीभांति जानता है। और लालाजी के साथ कई बार ऐसा हुआ भी। अपनी-अपनी वीमा कम्पनियो का आकर्षण दिखाकर इन्हे कई कम्पनियो ने अपनी ओर खीचना चाहा। परन्तु वीमा व्यवसाय भी लालाजी को रुचिकर प्रतीत नहीं होता था अत बहुत समय तक इन अवसरो को टालते रहे ।
परन्तु १९२४ ई० मे लालाजी के ज्येष्ठ वहनोई श्रीयुत ला० महेन्द्रसनजी जैन ने जो उस समय भारत बीमा कम्पनी दिल्ली वाच के मैनेजर थे, इन्हें वलपूर्वक इस कार्य की पोर आकर्पित किया। आप भी उनका भाग्रह नही टाल सके, और अनिच्छा होते हुए कार्य प्रारम किया। प्रारभ मे श्रीयुत ला० महेन्द्रसनजी ने आपको बहुत प्रोत्साहन दिया और कुछ ही समय मे इन्हें कई हजार का कार्य मिल गया। धीरे-धीरे झिझक दूर होने लगी और आपका उत्साह वढ़ने लगा। पुण्योदय से थोड़े ही समय मे पापके कार्य की धूम मच गई। और प्रत्येक कम्पनी इन्हे अपनाने के लिए उत्सुक रहने लगी। सम्पूर्ण जिला रोहतक, हिसार तथा जीद स्टेट की २४ ]
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एजेन्सी आपको मिल गई। अपनी कार्यकुशलता और परिश्रम के बल पर आपने कम्पनी को इतना कार्य दिया कि शीघ्र ही आप एक एजेण्ट से डिस्ट्रिक्ट आर्गनाइजर बन गये।
आपके मन में विश्वास पैदा हो गया था कि बीमा एक ऐसा कार्य है जहाँ स्वतन्त्र रहता हुमा आवमी राष्ट्र की गुरुतर सेवा कर सकता है। और यदि परिश्रम से इस क्षेत्र में कदम बढाया तो लक्ष्मी पर पूजती है। लाला तनसुखराय जैन के पौरुप और प्रतिभा से वीमे का व्यापार इसलिए चमक उठा चुकि इनके सादा रहन-सहन एव छलछिद्र रहित जीवन की गहरी छाप दूसरो पर पड़ी।
शुरू से ही इनकी प्रवृत्ति दूसरो से भिन्न रही है जव कि दूसरे वीमा एजेण्ट पान सिगरेट और चाय के व्यसन को अपने व्यापार की सफलता की कुजी मानते हैं। तव उमके विपरीत तनसुखरायजी का यह विचार रहा है कि पान, सिगरेट, चाय जैसी नशीली चीजो के बजाय त्यागमय जीवन का असर दूसरो पर अधिक पड़ता है। इसलिए पाप पान, सिगरेट, चाय आदि से दूर रहे। फलस्वरूप प्राप के पद की दिनोदिन उन्नति होती रही। लक्ष्मी बीमा कम्पनी में प्रवेश
उन्ही दिनो देश के कर्णधार प० मोतीलालजी नेहरू और पनाबकेसरी ला० लाजपतरायजी ने के० सन्तानम् के सहयोग से राष्ट्रीय कार्यकर्ताओ की वेरोजगारी के प्रश्न को हल करने के लिए लक्ष्मी इश्योरेन्स कम्पनी को जन्म दिया।
प्राग वस्त्रो की कितनी ही तहो मे भी छिप नही सकती। लक्ष्मी इन्श्योरेन्स के कार्यकर्तामो की दृष्टि भी एक कोने में बैठे हुए लाला तनसुखरायजी पर पड़ी।
राष्ट्र-सेवा की भावना से प्राकृष्ट होकर आप भारत बीमा कम्पनी को छोडकर लक्ष्मी बीमा कम्पनी में चले गये । आपकी पूर्ण सफलता का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि एव वर्ष के अन्दर ही लक्ष्मी को देहली जैसी बड़ी ब्राच पास होते हुए भी आपके लिए रोहतक मे अलग वाच खोलनी पड़ी।
- दो वर्ष कार्य करने के बाद ही रोहतक बाब का कार्य इतना सतोपजनक हुआ कि
आपको देहली बाच का सेक्रेटरी बनाकर भेज दिया । लेकिन वाह रे तनसुखराय तीन वर्ष के अल्प काल मे ही देहली बाच ने इतना कार्य किया जितना एक छोटी-मोटी कम्पनी करती है। और उसका पोसत चौगुने विजनेस का हो गया । तनसुखराय का नाम बीमे के व्यापार में सूर्य की तरह चमक उठा । और लक्ष्मी का नाम तनसुखराय के नाम के साथ मत्यी होगया।
बीमे के काम के साथ राष्ट्र का काम न किया हो, यह वात नही है । आपने अपने वीमे व्यवसाय को चालू रखते हुए सन् १९२६ मे जिला रोहतक मे जबकि प्रान्तीय मजदूर-किसान कान्स हुई उस समय आप उसकी स्वागतकारिणी के जनरल सेक्रेटरी बनाये गये । जिस पद
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को आपने बहुत ही खूबी के साथ निभाया । कौन जानता था कि एक खामोश काम करने वाला पादमी देश का इतना उपयोगी सिपाही होगा । काग्रेस के कार्यकर्ताओ ने इनकी शक्ति को जाना, समझा और इसलिए प्रत्येक मीटिंग, जलूस और प्रत्येक मौके पर इनका पूरा उपयोग उठाने लगे।
लाहौर मे आल इंडिया काग्रेस का इजलास था। आपको वहा के लिए डेलीगेट चुना गया। यह अधिवेशन नवयुवक हृदय-सम्राट ५० जवाहरलालजी नेहरू के सभापतित्व में हुआ जिसमे जिला रोहतक से ला. तनसुखराय प्रतिनिधि होकर गये। सन् १९२६ मे आपने रोहतक में सूबा किसान कान्फ्रेंस करने का विचार किया और इसके सम्बन्ध के लिए शीघ्र ही एक स्वागतकारिणी समिति का निर्माण किया जिसके आप जनरल सेक्रेटरी थे। सन् १९२६ मे यह कान्फेस देश के प्रसिद्ध नेता श्री अर्जुनलालजी सेठी के सभापतित्व में अपूर्व सफलता के साथ सपन्न हुई। इस कान्फ्रेस के फलस्वरूप इस क्षेत्र मे बहुत ही जागृति हुई।
रोहतक जिले के कार्यकर्तामो की मीटिंग हुई कि जिले मे कैसे काम किया जाय । आपने कहा कि मैं तो एक खामोश सिपाही की तरह काम कर सकता है, जो भी जिम्मेदारी मुझे देना चाहं दे सकते है। इस पर इनको आन्दोलन मे ठहरने का प्रबन्ध, भोजन, वालन्टियरो के जुलूस व वालन्टियरो का तैयार करना, मीटिंग और जुलूसो का प्रबन्ध करने की जिम्मेवारी दी गयी।
आन्दोलन जोरो के साथ आरम्भ हुआ। रोहतक जिले में गिरफ्तारिया होना शुरू हुई। रोहतक जिले में मुख्य-मुख्य कार्यकर्ता गिरफ्तार होने लगे । सैकडो वालन्टियर्स गिरफ्तार हुए। गवर्नमेट ने काग्रेस के कार्यकर्ताओ को गिरफ्तार करने मे पूरी शक्ति लगाई। परन्तु काग्रेस का काम जारी रहा, जरा शिथिलता नही आई । प्रत्येक पदाधिकारी प्रसमजस मै था कि काग्रेस की मशीनरी किस तरह धूम रही है । अगुआ सब गिरफ्तार कर लिए । अत में सूझी कि इस काम की बागडोर जिनके हाथ मे है उन्हे कैसे गिरफ्तार किया जाए । गिरफ्तारी के लिए कोई कानून लागू नही हो सकता था। तो भी दफा १०८ मे गिरफ्तार कर लिए गए।
यह दफा आमतौर पर भापण देने वालो पर लगा करती है । लाला तनसुखराय जैसे खामोश कार्यकर्ताओ पर नही । उस आन्दोलन मे प्लेटफार्म पर एक शब्द भी न बोलने की शपथ ली हुई थी । खैर, ऐसे समय पूछता कौन है ? इधर इनको भी कुछ जेल का डर नही था। नौ महीने जेल काटकर मार्च सन् १९३१ मे घर वापिस लौटे । जेल से आते ही आपसे चुप बैठते न रहा गया।
हरिजन पाश्रम की स्थापना
भारत में सबसे पहले अपने नगर मे हरिजन उद्धार का बीणा उठाया। मापन अपने ही विश्वास पर हरिजन विद्यार्थी आश्रम की रोहतक मे स्थापना की। पाश्रम का सारा खर्च आप अपनी तरफ से ही करते थे। आपके दिन-रात परिश्रम से अल्पकाल मे आश्रम ने अच्छी
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उन्नति की और पजाब प्रांत मे वह एक आदर्श संस्था मानी जाने लगी। इस सस्था द्वारा हरिजनो और उनके वे बच्चे जिनको सरकार ने कभी भी शिक्षित बनाने की चिन्ता नहीं की, उस सस्था द्वारा शिक्षा लेकर अपना अहोभाग्य समझते थे। आपके इस परमार्थ एवं लोकोपकारी कार्य से दूसरो पर अच्छा असर पड़ा। पजाव प्रांत के लोगो ने इस कार्य की अति सराहना की और तभी से हरिजनोबार का कार्य भारत में प्रचलित हुमा। . निस्वार्थ भाव से आश्रम की सेवा करते हुए उन दिनो कई ऐसे देशहित के कार्य किये जिससे आप जनता के श्रद्धा पात्र बन गये। यही वजह हुई कि सन् १९३२ मे आपको पजाव प्रान्तीय कापस कमेटी का मेम्बर चुना गया था। रोहतक में इतना कार्य करने के पश्चात् पाप देहली लक्ष्मी के प्राच माफिस मे आये ।
रोहतक बाढ़ में हरिजनों की सेवा
सन् १९३३ रोहतक में एक भयकर बाढ़ आगई । उच्च जातियो के सहायतार्थ पर्याप्त धन-धान्य एकत्र करके सहायता-कार्य जनता की ओर से चल रहा था। परन्तु हरिजनो को जो वास्तव में सहायता के अधिकारी थे, पर्याप्त सहायता न पहुच रही थी। अतः आपने हरिजन रिलीफ फड की स्थापना करके लगभग १५००० रु० की एक अच्छी राशि से हरिजनो को समुचित सहायता दी।
स्थान परिवर्तन
बीमा व्यवसाय मे आप लक्ष्मी बीमा कम्पनी के अधिकारियो के ऊपर अपनी योग्यता की छाप डाल चुके थे । कम्पनी ने आपकी योग्यता से और भी लाभ उठाने के लिए सन् १९३३ ई मे पापको रोहतक से देहली ब्राच का सेक्रेटरी बनाकर भेजा । सन् १९३४ ई में भारत के हृदयसम्राट ५० जवाहरलाल नेहरू ने रोहतक मे दौरा प्रारम्भ किया। इस इलाके के दौरे मे लाला तनसुखरायजी उनके साथ दौरे पर रहे और इस दौरे मे देश-कार्य के लिए उन्हें बड़ा उत्साह प्राप्त हुआ।
सन् १९३६ में वे दिन राष्ट्रीय भारत अपने जीवन में एक नया अध्याय आरम्भ करना था । उसने निश्चय किया कि ब्रिटिश सरकार को अपने बनाये हुए जाल में फास ले। साथ ही जो सन् १९३५ का विधान राष्ट्र के लिए चलेज था उस चैलेंज को स्वीकार करके उसके देने वालो को बता दें कि आज राष्ट्र जाग चुका है और वह भी समझता है कि उसके दिन राष्ट्र के सेवको के लिए मजबूत हाथो मे सुरक्षित है, न कि पूजीपति चापलूसो के। इसके लिए सारे भारतवर्ष मे उन योग्य व्यक्तियो की तलाश प्रारम्भ हुई, जिन्होने अपने इलाके में जनता-जनार्दन की नि स्वार्थ सेवा की है, उनके लिए कुछ त्याग किया है। रोहतक जिले के इलाके से जो इस समय तक लाला तनसुखरायणी सार्वजनिक कार्यक्षेत्र से लक्ष्मी मैनेजिंग डायरेक्टर सा. के दोस्त उम्मीद करते थे कि लक्ष्मी के डायरेक्टर्स माफ बोर्ड ने अपनी मीटिंग में
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एक प्रस्ताव पास किया कि लक्ष्मी के कोई भी वैतनिक कार्यकर्ता इस चुनाव मे भाग न लें । वास्तव मे इस चुनाव मे लालाजी का स्वयं खड़े होने का कोई इरादा न था । परन्तु उनको लक्ष्मी के सचालकमडल का यह प्रस्ताव नागरिक अधिकारी मे हस्तक्षेप मालूम हुआ । इसलिए लालाजी की जागृत प्रात्मा इस अनाचार एव अत्याचार को वरदाश्त नहीं कर सकी और वह स्वत्वाधिकार के लिए विद्रोह कर बैठी ।
उधर जैन समाज का नवयुवक वर्ग आपसे यह भाग कर रहा था कि अव जैन समाज का धनिक वर्ग समाज की बेकारी से हमेशा से उदासीन है तो आप कोई कार्य खडा कीजिए । वस लालाजी ने एक मिनट की देर किए विना एक बहादुर समाजसेवक की तरह एक हजार रुपये महीने के लगभग की प्राय की लात मार कर एक बार फिर सफलता के वातावरण से बाहर आकर खडे हो गए । स्तीफा देने के लक्ष्मी की ओर से लालाजी को वापिस बुलाने के बहुतेरे प्रलोभन मिले और बहुतेरे दवाव भी पडे । परन्तु आप अपने निश्चय से इचमात्र भी नही डिगे । आपके मित्र पहले से ही इसके लिए तैयार थे। फौरन ही तिलक बीमा कम्पनी की नीव डाल दी गई।
लक्ष्मी बीमा कम्पनी से त्यागपत्र
निश्चय किया । लिए एक क्षेत्र से
सन् १९३६ मे काग्रेस ने असेम्बली के निर्वाचनो मे भाग लेने का पजाब प्रोविन्शियल काग्रेस कमेटी ने श्रीयुत लालाजी को पजाब असेम्बली के खडा करना चाहती थी । परन्तु लक्ष्मी इन्श्योरेंस कम्पनी के कार्यकर्ताओ ने प्रतिवन्ध लगाकर रोकना चाहा । यद्यपि लालाजी ने असेम्बली के चुनाव मे खडे होने का निश्चय किया था और वे इसके लिए तैयार भी न थे तथापि लालाजी जैसे निर्भीक, देशप्रेमी और स्वाभिमानी व्यक्ति के लिये इस प्रकार का प्रतिबन्ध अपमानजनक और उनकी भावनाओ को ठेस पहुचाने वाला था, अत उन्होने जिन परिस्थितियो मे अपना त्यागपत्र दिया वे निम्नलिखित त्यागपत्र की प्रतिलिपि से प्रगट होती है :
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मैनेजिंग एजेण्ट्स,
लक्ष्मी इश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड,
लाहौर ।
१० अक्तूबर, १९३६
मैं आपकी सेवा में निम्नाकित कुछ पक्तिया इगित करना चाहता हू कि किस प्रकार लक्ष्मी इन्श्योरेस कम्पनी, जिसकी स्थापना ला० लाजपतराय और प० मोतीलाल नेहरू जैसे देशभक्तो द्वारा हुई है वह उस बात की न केवल अवहेलना ही कर रही है किन्तु जान-बूझकर उसके ध्येय को पीछे पटक रही है। और इस प्रकार इसके कार्यकर्तानो के उत्साह को क्षीण किया है जिन्होने इसमे इसी प्राशा से प्रवेश किया था कि इसके सस्थापको की सद्इच्छाप्रो की पूर्ति सदैव ही इसके प्रबन्धको का लक्ष्य रहेगी और जिससे कि वे अपनी मातृभूमि के प्रति अपनी सद्भावनाओ के बाह्य प्रदर्शन का अवसर पाते रहेगे ।
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असहयोग आन्दोलन के समय सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने का और व्यापारिक सस्था (भारत इन्श्योरेंस क०) में प्रविष्ट होने का मुख्य उद्देश्य यही था कि मुझे अपने आगामी जीवन मे स्वतत्रतापूर्वक काग्रेस के साथ देशसेवा के कार्य को पूर्णरूपेण क्रियात्मक रूप देने के लिए पर्याप्त क्षेत्र और स्वतत्रता मिलेगी। इससे भी अधिक वह विचार जिसने मुझे और भी लक्ष्मी बीमा कम्पनी की ओर आकर्षित किया वह यह था कि यह कम्पनी काग्रेस के गणमान्य नेता ला. लाजपतरायजी तथा प० मोतीलाल नेहरू द्वारा सस्थापित हुई थी जिसका सुचारू प्रबन्ध पं० के० सन्तानम के हाथ में है जिन्होने कि असहयोग आन्दोलन के समय अमूल्य सेवाए और त्याग अर्पित किया था अवश्य ही अपने कार्यकर्तामो को वह स्वतत्रता प्रदान करेगी कि वह काग्रेस के साथ मिलकर कार्य कर सकेगी। साथ ही हर प्रकार से उन्हे सहायता देगी। भारत कम्पनी को छोड़कर अपनी कम्पनी मे पाने में मुझे अत्यधिक हानि हुई थी किन्तु अब मै अनुभव कर रहा हूँ कि मैने अपनी भावनाओं के प्रति न्याय नहीं किया क्योकि अब मै स्पष्ट देख रहा हूँ कि लक्ष्मी कम्पनी अब वह नही रही है जो कि कुछ समय पूर्व थी और जो लक्ष्य इसके सहायको ने उद्घोषित किया था। कम्पनी के प्रवन्धको का यह निश्चय कम्पनी की इच्छा प्रगट करता है और इसके ऊपर यह प्रतिबन्ध कि वे सामाजिक और देश की राष्ट्र-निर्माण व्यवस्था मे भाग न ले सकेंगे मुझे इससे भाष होता है कि अब वह समय दूर नहीं है जबकि जो प्रतिबन्ध गवर्नमेंट ने अपने कार्यकर्ताओ पर लगाये है यह कम्पनी भी उनसे पीछे न रहेगी।
आपके बोर्ड का यह निर्णय सीधा उस चेतावनी का द्योतक है कि मेरी राष्ट्रीय भावनामो की अभिव्यक्ति के लिए यहा पर कोई स्थान नहीं और इस प्रकार आपकी कम्पनी में मेरे आने का ध्येय अस्त-व्यस्त हो जाता है, अत मुझे खेद है कि मैं आपके इस निर्णय से सहमत नहीं है । और न मैं इस प्रतिबन्ध से अपने आपको भविष्य के लिए वाषित करता है । मैं, इसीलिए अपना त्याग-पत्र दे रहा है। इसे मेरा एक माह का नोटिस समझा जाएगा। मुझे आशा है कि मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है और मेरा त्याग-पत्र तुरन्त स्वीकार किया जाए। उत्तर की प्रतीक्षा मे।
भवदीय, तनसुखराय जैन
सन् १९३६ ई. के अक्तूबर मास में लक्ष्मी बीमा कम्पनी से त्याग-पत्र देने के उपरान्त ला० तनसुखरायजी ने तिलक बीमा कम्पनी की स्थापना की और उसके मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त हुए। सन् १९४२ ई. तक तिलक वीमा कम्पनी को छोडने से पूर्व ही उन्नति पथ पर अग्रसर कर दिया और यह भारतवर्ष की उच्चकोटि की कम्पनी बन गई।
तिलक वीमा कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर रहते हुए भी लालाजी ने कम्पनी की उन्नति के लिये अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को एक ओर रखकर इसकी उन्नति के लिए अपने पास से हजारो रुपये लगाकर कम्पनी के धन की रक्षा की थी। यदि लालाजी कुछ समय और भी इस कम्पनी की सेवा कर सकते तो तिलक बीमा कम्पनी के लिये सौभाग्य की बात होती परन्तु
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सन् १९३९ ई० मे एक नया बीमा कानून बना जिसके अनुसार एक व्यक्ति तीन साल तक ही किसी बीमा कम्पनी का मैनेजिंग डायरेक्टर रह सकता था । लालाजी की यह अवधि सन् १९४२ ई० में समाप्त होती थी । अत थापने लक्ष्मी बीमा कम्पनी से त्याग-पत्र दे दिया ।
तिलक बीमा कम्पनी की स्थापना
जिन लोगो का तिलक से सम्बन्ध रहा है और वैसे भी सारा समाज जानता है कि तिलक ने क्या-क्या किया । जहाँ दसो और वीसो वर्षों की खडी हुई कम्पनियो के नाम तक लोग नही जानते, वहाँ दो वर्ष मे ही तिलक का नाम बच्चे-बच्चे की जबान पर हो गया था ।
नये बीमा कानून की चोट मे जहाँ नई कम्पनियो का अस्तित्व खतरे में पड गया था और बहुतेरी कम्पनियाँ किश्त न देने की दशा में सरकार द्वारा बन्द कर दी गई थी । तिलक ने समय से पहले ही अपनी जमानत की रकम पूरी कर दी थी ।
आज भी जब विकट परिस्थितियो मे सभी वैकिंग संस्थानो पर सकट के बादल मंडरा रहे है और अधिकाश सस्थाएं बंद हो गई है तिलक सीना निकाल अडिग खडी हुई है। इस सब का श्रेय केवल इसी एक महान व्यक्ति लाला तनसुखराय जैन को है। तात्पर्य यह है सफलता लाला तनसुखराय जैन के पीछे-पीछे दोडती है, और व्यापारी जगत् में यह निश्चित समझा जाता कि ला० तनसुखराय के साथ सफलता की गारटी रही ।
आम तौर पर यह देखा गया है कि जो व्यक्ति व्यापार में सफलता प्राप्त करता है वह सार्वजनिक क्षेत्र से दूर रहता है। लाला तनसुखराय जैन इसके अपवाद रहे है । आप न केवल काग्रेस के प्रसिद्ध कार्यकर्ता ही रहे बल्कि सामाजिक क्षेत्र मे भी नाम बहुत ऊँचा पाया । जैन समाज मे तो लाला तनसुखराय जैसे कार्यकर्ता उंगलियों पर गिनने लायक हैं ।
धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश
सन् १९३५ ई० में देश मे शान्ति स्थापित हुई । काग्रेस का कार्यक्रम सरकार के साथ सहयोग रूप मे चल पडा, प्रत इस ओर से श्री लालाजी का कार्यभार हलका हो गया था । श्रीयुत लालाजी की माताजी की यह हार्दिक इच्छा थी कि आपको धार्मिक क्षेत्र मे प्रविष्ट किया जाए परन्तु जो देश के आन्दोलन की घोर भाकपित हो चुका हो उसके लिए जातियां, धर्म के बघन तुच्छ दीख पडते है। फिर भी धार्मिक वृत्ति श्री लालाजी की पैतृक सम्पत्ति रही है। इस घोर भी प्रापकी अभिरुचि शीघ्र ही जागृत हो उठी सन् १९३५ ई० में श्राप पूज्य माताजी के प्राग्रह पर भाप हस्तनागपुर के उत्सव पर गये । धार्मिक क्षेत्र की ओर आपका यह प्रथम रुझान था । अपनी सूझ से आपने हस्तनागपुर ६०, ७० व्यक्तियो के ठहरने योग्य कैम्प बनाया और उसका प्रबन्ध बडी कुशलता के साथ किया। इस अवसर पर अखिल भारतीय जैन परिषद् की कार्यकारिणी की बैठक हस्तनागपुर में रखी गई थी। सौभाग्य से परिषद की मीटिंग
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का स्थान भी आपके पडाल में ही रखा गया। इससे आपको वडी प्रसन्नता हुई। आपने परिषद् की मीटिंग के लिए हर प्रकार का समुचित प्रबन्ध कर दिया।
परिषद में अनेको आवश्यक विषयो पर विचार होने के साथ ही आगामी अधिवेशन के स्थान का भी प्रश्न उपस्थित हुआ। कोई किसी स्थान का निर्णय होने में नहीं आ रहा था। उस समय ला० तनसुखरायजी ने विचार प्रगट किया कि यदि परिषद् का अधिवेशन दिल्ली में हो तो ठीक है। उस समय जैन समाज में परिपद् की ओर से कुछ भ्रम फैला हुआ था। कुछ लोगो ने इस प्रस्ताव का विरोध भी किया परन्तु परिषद की कार्यकारिणी ने लाला तनसुखरायजी से आग्रह किया कि वे दिल्ली जाकर परिस्थिति का अध्ययन करके पुन इस विषय मे लिखे। श्रीयुत लालाजी के चित्त पर हस्तनागपुर उत्सव का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था और अनेको जाति-बन्धुओ के धनिष्ठ सम्पर्क मे आने के कारण उनकी समाज-सेवा की सुपुप्त भावना एक दम जाग उठी, और इसी भावना से आपने परिषद को दिल्ली के लिए निमन्त्रण भी दे दिया। कुछ साथियो ने इस कार्य को वहत कठिन बताया परन्तु आपने हस्तनागपुर से लौटते ही लोगो से मिलना-जुलना प्रारम्भ कर दिया और अपना विचार लोगो को बताया। फिर लाल मन्दिर मे एक मीटिंग बुलाई गई। प्रथम तो उपस्थिति ही बहुत कम थी। फिर बिना किसी निश्चय के ही यह अपूर्ण मीटिंग भी समाप्त हो गई। इससे आपको हार्दिक दुख हुमा । अगले दिन आपने अपने मकान पर ही कुछ मित्रो की एक बैठक बुलाई और उसमे जिला परिषद की स्थापना करके अखिल भारतीय जन परिपद का आगामी अधिवेशन दिल्ली रखने का निमत्रण दे दिया। एक मित्र ने आर्थिक कठिनाई का जिक्र किया तो इन्होने तत्काल अपनी स्वीकृति प्रदान की और कहा इस सम्बन्धी आने वाली कठिनाइयो का मै स्वय सामना कर लूगा। आप सब परिषद के कार्य को बढाइये। यह वात सुनकर सर्वसम्मति से आप जैन परिषद के मन्त्री चुने गये।
महगांव काड का सफल संचालन अ. भा. जैन परिषद् के दिल्ली अधिवेशन को समाप्त हुए पूरा १ मास भी न बीता था कि जैन समाज में महगाँव काड का प्रवल आन्दोलन छिड़ गया। यहां कुछ अत्याचारियो ने मन्दिर की मूर्तियो को चुरा लिया और मन्दिर को अपवित्र कर दिया। इससे श्रीयुत लालाजी के हृदय को बड़ी ठेस पहुंची। आपने आठ दिन मै ही इस आन्दोलन को अखिल भारतीय रूप दे दिया तथा १६ जनवरी, सन् १९३६ को सम्पूर्ण भारत मे महगांव काण्ड दिवस मनाने की अपनी कार्यदक्षता और प्रवन्ध से इस दिवस को इतनी सफलता से मनाया गया कि लगभग सम्पूर्ण भारत मे हडताल मनाई गई तथा सभाएं हुई। इस दिवस की सफलता का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक दिन मे ग्वालियर राज्य के पॉलिटिकल विभाग मे हजारो तार पहुंचे थे तथा प्रनेको स्वीकृत प्रस्ताव-पत्रो का ढेर लग गया था। यह दिवस दिल्ली मे तो इतनी सफलता के साथ मनाया गया कि जैन-इतिहास में इसका एक विशेष स्थान रहेगा और यह इस कारण और भी कि पहली बार ही दिगम्बरी, श्वेताम्बरी, स्थानकवासी आदि सब प्रकार के जैनियो ने एक मच से सम्मिलित होकर इस दिवस को मनाया।
आपको इस काण्ड की जांच के लिए कई बार ग्वालियर राज्य जाना पड़ा और राज्याधिकारियो से मिल कर अपना दृष्टिकोण रखकर न्याय की प्रार्थना की। यह आन्दोलन
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श्रापके परिश्रम और कार्यकुशलता के कारण इतना वृहत् रूप धारण कर गया था। इस बार तो
राज्य की चेतावनी दे दी थी कि यदि उन्हें इसके लिए पूरी तैयारी आरम्भ कर दी अदालत में दे दिया जहाँ पूरी शक्ति से
पकी गिरफ्तारी का भय हो चला था परन्तु ग्रापने राज्य से न्याय न मिला तो सत्याग्रह किया जाएगा। गई थी। इस मामले को अन्त मे राज्याविवारियो ने आप इसे डेढ वर्ष नकलटते रहे श्रीर जैन समाज के मस्तक को ऊंचा किया ।
समाज संगठन का व्रत
१९ जनवरी सन् १९३६ ई० के महगाँव काण्ड दिवस ने आपकी समाज सगठन की भावना को और भी जागृत कर दिया और तन-मन-धन ने समाज सेवा में जुट गये । महगाँव काण्ड के कारण समय का प्रभाव होते हुए भी श्रापने जैन परिपद का सारा विवान नए रूप से बनाया और परिपद का कायाकल्प हो गया ।
मन् १९३७ मे परिपड का सालाना अधिवेशन आपके परिश्रम मे ही इतना सफल हुआ कि इसमें जैन समाज के १० हजार व्यक्तियों के प्रतिचिन महाराजा शेवा और कोसी नरेश भी पधारे थे | इस अवसर पर ममाज की कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रस्ताव पास हुआ । हजारो व्यक्तियों ने मरण-भोजन जैसी हानिकारक घृणित कुप्रथा को नष्ट करने, मान में परिषद के १०००० सदस्य बनाने की प्रतिज्ञा की। समाज के नैकड़ों नवयुवकों ने भिन्न-भिन्न भागो में परिषद की शाखाएं खोलने का व्रत किया । श्रीयुन लालाजी मई-जून की भयंकर गर्मी मे, यू०पी० सी० पी०, यादि प्रान्तों के दौरे पर निकल पड़े और समाज मे एक नवचेतना पैदा कर दी। आपके कार्य से श्र० भा० जैन परिपत्र के महामंत्री देशभक्त त्यागमृति श्री रत्नलालजी एम० एल० ए० इतने प्रभावित हुए कि ग्र० भा० जैन परिषद का सम्पूर्ण कार्य उन्होंने आपके ऊपर ही छोट दिया और अन्त मे बहुत समय तक श्र० मा० जैन परिपद का कार्यालय आपके पास ही रहा ।
जैन रथ-यात्रा पर पावन्दी
सन् १९४० ई० में जब कि आप अखिल भारतीय जैन परिषद के मंत्री थे, दिल्ली के धिकारियो ने जैन रथ-यात्रा के जुलूस पर पावन्दी लगा दी थी । उस समय श्रापने पचानो जैन श्री जैनेत्तर अन्य समाए सरकार के इस अनुचित कार्य के विरोध में संगठित कराकर तथा ममय-समय पर वक्तव्यो द्वारा अपने समाज का रोप प्रकट करके सरकार की यह बतला दिया कि दिल्ली का जैन समाज की ओर आपका ध्यान आकर्पित किया। आपने सबको इस बात का आश्वासन दिया कि यदि श्रावश्यकता हुई तो वे सब व्यय अपने ऊपर लेने को तैयार हैं। परिषद का निमंत्रण देने के बाद वे सब कार्य छोडकर परिषद के कार्य पर जुट गये और एक सप्ताह में परिपद के मकड़ी सदस्य बनाये | आपकी इस मफलता को देखकर बहुत से सज्जन चकित रह गये और वे आप ही प्राप परिषद ने सम्मिलित होने लगे । अनिल भारतीय जैन परिपद दिल्ली प्रविवेशन के लिए स्वागतकारिणी के मन्त्री निर्वाचित हुए और आपके कठिन परिश्रम, प्रपूर्व
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साहस तथा उत्साह से अ०भा० जैन परिपद का दिल्ली अधिवेशन इतना सफल हुमा और अपूर्व समारोह के साथ समाप्त हुआ कि यह अ. भा. जैन परिपद के इतिहास मे अमर रहेगा। इस अवसर पर आप पावन्दी के साथ जलूस निकालने को तैयार नहीं थे अन्त में स्थानीय अधिकारियो को झुकना पडा और दिल्ली मे जलयात्रा का शानदार जुलूस निकला । शायव भारतवर्ष में यह पहला जुलूस था जिसमे श्वेताम्बरी और दिगम्बरी आदि सभी सम्मिलित होकर जुलूस मे निकले और यह सब आपके प्रयत्लो का ही फल था।
रथयात्रा पर लगाई गई पावन्दी को सफलतापूर्वक हटवाने के बाद जो निम्नाकित वक्तव्य लालाजी की ओर से प्रकाशित हुआ उससे इनकी निर्मीकता का भलीभांति ज्ञान होता
"विविध जातियो में फूट डालकर अपना काम बनाने की जिस नीति से सरकार हमेशा काम लेती रही है, वही नीति स्थानीय सरकार ने जैनियो के जुलूसो पर पाबन्दी लगाकर हिन्दुनो में प्रयोग करनी चाही थी अर्थात् यदि जैनी पावन्दियो सहित अपने जुलूस निकाल लेते तो हिन्दुओं के जुलूसो पर भी उसी प्रकार पाबन्दी लगाई जा सकती थी और सरकार का उद्देश्य भी यही था। सरकार का इरादा यह था कि पहले एक छोटे समाज पर पाबन्दी लगाकर देख लिया जाय कि हिन्दू लोग उसे कैसा महसूस करते है। जैन समाज अपनी परीक्षा में सफल रहा है, क्योकि उन्होने पावन्दियो के साथ जुलूस निकालने में समस्त हिन्दू जाति का अपमान समझा और इसलिए विरोध प्रदर्शनार्थ अपने आठो मेलो को बन्द कर दिया और न कोई जुलूस ही निकाला । उसी का फल आज हम देख रहे है कि रामलीला के लाइसेन्स बिना किसी पाबन्दी के मिलेंगे। रामलीला के जुलूसो मे कोई पावन्दी न लगाकर सरकार ने बहुन बुद्धिमना प्रकट की है और सरकार को चाहिए कि वह जैनियो के मामले में अपनी गलती स्वीकार करे और उसके दिलो को जो दुःख पहुंचा है उसे शान्त करे।
अन्त मे जैन समाज की ओर से सब सज्जनो और व्यक्तियो को जिन्होने कि इस मामले मे सहयोग दिया तथा इस अन्याय के प्रति सहानुभूति प्रकट की है, धन्यवाद देता हूँ।"
श्री अग्रसेन जयन्ती का वृहत् आयोजन दिल्ली में पिछले कई वर्षों से अग्नसेन जयन्ती मनाई जाती रही थी। परन्तु बहुत समय तक अग्रवाल भाई दिल्ली के भिन्न-भिन्न मुहल्लो मे ही जयन्ती मना रहे थे। लाला तनसुखरायजी जैन ने जो कि इस समय तिलक वीमा कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर थे, ला. लक्ष्मीनारायणजी अग्रवाल व बालकृष्णजी एम० ए० की प्रेरणा से इस बात का बीडा उठाया कि दिल्ली के समस्त वैश्य भाई सगठित रूप में एक ही स्थान पर जयन्ती मनाये।
इससे पूर्व दिल्ली के वैश्य भाई जयन्ती के अवसर पर जुलूस निकालने से हिचकिचाते थे। परन्तु आपने साहस और आत्मविश्वास से काम लेकर जुलूस का आयोजन किया जिसके
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फलस्वरूप ऐसा जुलूम निकाला जो दिल्ली के वैश्य जाति के इतिहास में एक अद्वितीय प्रकरण रहेगा ।
खट्टा अत्याचार विरोध प्रयत्न -
सन् ३७ मे खट्टे में जब कि वहाँ के जैन भाइयो पर प्रजनों ने हर तरह के अत्याचार करना प्रारम्भ किये और जैन मन्दिर न बनाने दिया तव प्रापने वहाँ पहुँच कर उन श्रापत्तिग्रसित जैन वन्धुओ को अपने गले लगाकर उनके अधिकारो की रक्षा के निमित्त अपनी जान पर खेल गये । लाला तनसुखरायजी जैन के अथक श्रम का यह फल है कि ग्राज भी खट्टे के जैन भाई और उनके धर्माधिकार सुरक्षित है ।
सिकन्दराबाद अत्याचार विरोध प्रयत्न :
सन् ३८ मे सिकन्दरावाद यू० पी० मे जब कि वहाँ के जैन जुलूसो पर किसी जैनेतर ने जूता फेक कर जैनियो को महाअपमानित किया था और वहाँ अनैक्यता बढ गई थी और वडे भारी झगडे होने की उम्मीद थी तब ऐन मौके पर अपने कई साथियो को लेकर ला० तनसुखराय जी जैन वहाँ पहुँचे और जैन रथ चलवाया तथा मुजरिमो को कडी सजा दिलवाकर सरकार का पीछा छोडा !
मित्रमडल जुलूस का प्रारंभ :
जैन मित्रमडल धर्मपुरा दिल्ली लगभग २३ वर्षो से वीर जयन्ती का उत्सव मनाया करता था, पर सन् ३६ मे आपके सद्प्रयत्न से ग्राम शहर मे जुलूस निकालने की योजना बनी और उसी वर्ष से वह कार्यरूप मे परिरणत भी कर दी गई। प्रथम वर्ष मे हो जुलूस को इतनी अधिक सफलता मिली कि अजनो पर उसका काफी असर हुआ श्रीर जैनेतर जनता ने वीर जयन्ती महोत्सव में शामिल होकर इस बात का सबूत पेश किया कि हम लोग भगवान महावीर स्वामी के अहिसात्मक सिद्धान्तो को लोकोपकारी समझते हैं। जुलूस की योजना ग्राज तक चली आ रही है और प्रतिवर्ष उसमे दूज के चन्द्रमा की तरह तरक्की होती ही रहती हैं। हजारो जैनेतर भाई अव वीर जयन्ती के जुलूस के साथ रहते है तथा सभामंडप मे भी हजारो उपस्थित होती हैं ।
की तादाद मे जनता
मनोरजन हिसा का विरोध :
नई दिल्ली के असेम्बली हाल पर प्रतिवर्ष की गई निश्चित तारीख को यहाँ के सरकारी अफसर कबूतरो को अपनी गोली का निशाना बनाकर अनेक तरह की रंगरलियाँ मनाते और उन तडफते कबूतरो से खिलवाड़ किया करते थे । सन् ३९ मे उस निर्दय पूर्णहिंसा को रोकने के लिए दिल्ली मे आपने जोरदार प्रान्दोलन चलाकर प्रति वर्ष होने वाली हजारो निरपराध कबूतरो की हिंसा को रुकवाया ।
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भीलो में सुधार
इस सन् में नीमखेडा स्टेट में एक भीलो के बच्चो को सुशिक्षित बनाने का ध्येय सामने रखकर आपने वहा एक आश्रम की नीव डाली और उस समय १० हजार भीलो ने आपके उपदेश से आजन्म मास खाने का त्याग किया। उस श्राश्रम की नीव डालते समय श्रापने एक अच्छी रकम दान मे दी।
सम्मिलित जलूस
सरकार
सन् ४० मे दिल्ली मे भादवें के महीने में जब कि जैन रथोत्सव सरेग्राम निकलता है उस पर मस्जिद के आगे बाजे न बजाने की रोक सरकार ने लगा दी तब आपने प्रथक परिश्रम द्वारा उस पावन्दी को हटवाया और तब से इस प्रकार की पावन्दी फिर कभी भी लगाने की हिम्मत न हुई । श्रापके सप्रयत्न से पावन्दी तो हट गई पर उस समय आपने एक कार्य और भी बडे मार्के का किया और वह यह है कि पहले कभी दिगम्बर तथा श्वेताम्बर भाई आपस मे धार्मिक मामलो मे इकट्ठे नही होते थे, आपने दो बिछडे हुए भाइयों के मिलाने का और उन्हें एक साथ धार्मिक कार्य करने का प्रयत्न किया और वे उसमे पूर्ण सफल भी हुए ।
सन् ४२ मे जब कि विश्वयुद्ध को ज्वालाएं भारत के सिंह द्वार को छूकर लोगो में भय उत्पन्न करने लगी श्रीर राजपूताने के मारवाड़ी भाई कलकत्ता, मद्रास आदि व्यापारिक केन्द्रो को छोडकर अपनी जन्म भूमि की ओर भागने लगे तब आपने दिल्ली जक्शन पर उन मुसीवतजदा मुसाफिरो की हर तरह की सुविधा के लिए रेलवे के श्राफिसरों से मिल कर और लिखा-पढी करके उनका स्थायी प्रवन्ध करवाया ।
और जिसके पुन. प्रकाशन की
दिल्ली की सुप्रसिद्ध साहित्यिक सस्था जैन मित्रमडल धर्मपुरा के आप कई वर्ष तक सफल महामंत्री रह चुके है। इसके अलावा आप दिल्ली की बहुत सी सामाजिक सस्थाओ के सभापति, मंत्री, सस्थापक और सरक्षक है। दि० जैन समाज का एक मात्र साहित्यिक पत्र 'अनेकान्त' जो कि अर्थाभाव से सिर्फ एक वर्ष चलकर वन्द हो गया था आवश्यकता को समाज के विद्वान जोरो से महसूस कर रहे थे। आपके ही हर तरह के त्याग से उसका पुन प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो श्राज तक हो रहा है और उससे अच्छी साहित्यिक सेवा हो रही है। जैन समाज का कार्य करते हुए भी आपने राष्ट्र को भुला नही दिया है अपितु आज भी नई दिल्ली काग्रेस कमेटी के आप प्रधान है। तात्पर्य यह है कि लाला तनसुखरायजी जैन स्वय एक महान् सस्था है और उनके मजबूत हाथो मे जैन समाज के हित सुरिक्षत है ।
दिगम्बर श्वेताम्बर तथा स्थानकवासियो को एक प्लेटफार्म पर लाने की स्कीम प्रापके आपको श्रावू माऊट जाने का सुअवसर
दिमाग मे बहुत दिनो ने चक्कर काट रही थी कि अचानक प्राप्त हुआ और वहा पर आबू पर्वत पर बने अपने पूर्वजो करोडो की लागत के जैन तथा हिन्दू मन्दिरो की कलाकृति को देखने तथा अपने आराध्य देव के दर्शनार्थ श्राने वाले यात्रियों पर
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सिरोही स्टेट द्वारा लगाए गए प्रति भयानक धर्मघातक कलको टैक्स को देख कर आपकी आत्मा छटपटा उठी और वहा से आते ही आपने आवू टॅक्म के लगने से होने वाले जातीय अपमान का बदला लेने की गरज से हिन्दू तथा जैन समाज को साथ लेकर सिरोही राज्य से भिडने को प्रस्तुत हुए ।
जैसी कि लालाजी को हर एक आन्दोलनो मे उन्हें पूरी-पूरी कामयावी हासिल होती रही है। इस प्रान्दोलन में भी सफलता का सेहरा थापके उन्नत मस्तक को सुशोभित करेगा । यदि इस भावू प्रान्दोलन से जैसा कि लालाजी का ख्याल है, समस्त जैन 'टुकडे मिल कर एक हो जाय तो फिर स्वतंत्र भारत मे जैनो को अपमानित करने का होसला किसी भी कोम को न हो सकेगा ।'
जन समाज के इस चमकते सितारे पर जैन समाज जितना भी श्रभिमान करे, थोडा होगा । उन्होने समाज का कार्य सेवा-भाव से करने मे कभी मुह नही मोडा ।
श्राबू मंदिर आन्दोलन
की बात है जब कि ला०
अप्रैल सन् १९४१ ई०
तनसुखरायजी गुरुदेव श्री विजयशान्ति गुरुदेव के दर्शन करने के पश्चात् वे विमलशाह तथा वस्तुपाल सुप्रसिद्ध जैन मन्दिरो के दर्शनार्थं भी गए। लालाजी के श्चर्य का ठिकाना न था जब कि अन्य यात्रियो के साथ उन्हें भी सिरोही स्टेट द्वारा लगाए गए टैक्स का शिकार होना पडा परन्तु जैसे ही वे दिल्ली प्राए इस टैक्स के विरोध में उन्होने समाचारपत्र मे अपने विचार प्रगट किए। लालाजी के इन विचारो से सहमत व्यक्तियो की सख्या वढने लगी और छ महीने तक मित्रो से इसी विषय मे पत्र-व्यवहार होता रहा । नवम्बर, १९४९ ई० में सम्पादक श्री चिमनसिहजी लोढा का व्यावर से एक पत्र मिला जिसमे सम्पूर्ण परिस्थिति पर विचार करने के लिए कार्यकर्ता सम्मेलन बुलाने का परामर्श दिया गया था । अन्त मे अखिल भारतीय श्रावू मन्दिर टॅक्स विरोधी काफ्रेंस कर व्यावर मे करने का निश्चय किया । और लाला तनसुखरायजी को उसका अध्यक्ष चुना गया । लालाजी के सभापतित्व मे यह कान्फेस बहुत सफल हुई । इस श्रान्दोलन की आवश्यकता इस कान्फ्रेंस के अवसर पर देश के कोने-कोने से प्राप्त कुछ सदेश-पत्रो से भली-भाति विदित है । इन समितियो से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि लालाजी ने कितने गम्भीर विषय को अपने हाथ मे लिया था ।
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जी महाराज के दर्शनार्थ श्राबू गये तेजपाल द्वारा निर्माणित देववाडा के
श्राबू मन्दिर आन्दोलन सन् १९४३ ई० तक बहुत उग्र रूप में चलता रहा। कई वार डेपुटेशन सिरोही राज्य के अधिकारियो से मिला और समाचारपत्रो मे बहुत समय तक यह चर्चा का विषय वना रहा, परन्तु देशव्यापी अगस्त- प्रान्दोलन के कारण देश की परिस्थिति एकदम चिगढ गई और श्रावू मन्दिर ग्रान्दोलन के प्रधानमत्री चिमनसिंहजी लोढा राज्यवन्दी बनाए गए अत यह प्रान्दोलन देश की विकट परिस्थितियो के कारण इस भ्राशा से कि ज्योही देश का वातावरण सुधरेगा पुनः प्रारम्भ कर दिया जाएगा ।
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इस सम्बन्ध मे देश के विभिन्न भागो से राष्ट्रीय और सामाजिक नेताओं और कार्यकामो के जो उत्साहवर्धक पत्र आए जिनमे इस कार्य की मुक्तकठ से प्रशंसा की थी और सभी प्रकार सहयोग देने का वचन दिया था उनमे से कतिपय इस प्रकार है :श्री एस. सत्यमूर्ति त्यागराज, मद्रास . मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि समस्त जैनो की कान्फ्रेंस व्यावर मे होने जा रही है। में पापकी प्रधानता मे कान्फेन्स की हर प्रकार से सफलता की कामना करता हूँ। श्री व्रजलालजी वियाणी, सदस्य कौसिल आफ स्टेट, अकोला (वरार)
मैने आबू के जैन मदिरो के सम्बन्ध मे सामग्री पढी। इस बारे मे मैं आपकी कौनसी सेवा कर सकता हूं लिखिये। मेरे योग्य जो कार्य होगा, आज्ञानुसार उसे पालन करने का प्रयत्न करूंगा। श्री सेठ गोविंददास, एम. एल ए सेन्ट्रल जवलपुर
_____ाबू के जैन मदिरो के टैक्स का हाल मुझे भलीभांति मालूम है और मेरा स्पष्ट मत है कि यह यात्रियो पर निरर्थक भार है। इस दिशा मे आपका प्रयल सफल हो, यही मेरी हार्दिक कामना है। श्री श्रीप्रकाशजी, एम. एल. ए, वनारस
मुझे प्रादू के मदिरो के दर्शनार्थियो की कठिनाइयो का हाल जानकर हार्दिक खेद हुआ। मैं आशा करता हूँ कि इस दशा मै प्रापका प्रयल उच्च अधिकारियों पर वांछनीय प्रभाव डालेगा। इस दशा मे मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? श्री के. एम मुशी भू० पू० मिनिस्टर, वम्बई सरकार
प्रावू के दर्शनार्थियो के टेक्सो को दूर कराने की दशा में मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ, लिखिये। श्री डा. श्यामाप्रसाद मुकर्जी, गृहमत्री वगाल सरकार
मेरी उन सभी पादोलनो के साथ गहरी सहानुभूति है जो निरकुशता के विरोध में किये जाते हैं और विशेप रूप से धार्मिक विधियो की स्वतत्रता की दिशा में किये गये आंदोलनो का मै पूर्ण समर्थक हूं। मुझे विश्वास है कि आपकी प्रधानता मे कान्फ्रेस को सफलता मिलेगी। श्रीमान् सेठ जुगलकिशोरजी विडला का हिन्दू धर्म सेवा संघ द्वारा प्राप्त सदेश
सेठजी के विचारानुकूल इस आदोलन की ओर हिन्दू महासभा तथा उपयुक्त हिन्दू सम्यामो को इस ओर प्रांदोलन करने के लिए संघ द्वारा लिखा जा रहा है, सघ आपकी कान्फेन्स की पूर्ण सफलता चाहता है। हिन्दू भावना की सुरक्षा और उसके विरुद्ध विवेकहीन कार्यों का विरोध करना वास्तव में उचित और न्यायपूर्ण है। सघ आपके इस आंदोलन मे भौचित्य अनुभव करता है।
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कुँवर चॉदकरणजी शारदा अजमेर
वास्तव में आबू स्थित मदिरो पर सिरोही स्टेट ने जो टैक्स लगाया है वह हमारी धार्मिक स्वाधीनता मे कलक रूप है और इसके विरोध मे जितना आदोलन किया जाय थोडा है । इस आदोलन में श्राप कोरे प्रस्तावो से सफलीभूत नही होगे, बल्कि आपको सन्याग्रह की पल्टन तैयार करनी होगी तब कही इन निरकुश राजाधो के होश ठिकाने श्रावेंगे। समस्त हिन्दू जनता आपके साथ इस श्रादोलन मे सहानुभूति प्रगट करेगी ऐसी मुझे पूर्ण आशा है। मैं आपके शुभ प्रयत्न की हृदय से सफलता चाहता हूँ ।
रायबहादुर मेहरचंद जी खन्ना, पेशावर
आपकी कान्फेन्स की पूर्ण सफलता चाहता हूँ ।
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श्री कन्हैयालालजी वैद्य, मत्री मध्यभारत देशी राज्य लोकपरिषद्, वम्बईयह दुख की बात है कि सिरोही राज्य हिन्दू राज्य होते हुए, वहाँ पर हिन्दू धर्म की चौकीदारी का टैक्स वसूल होता है । हमारे ये राजे-महाराजे केवल घन खीचना जानते है, नीति और अनीति की उन्हें चिन्ता नही है सिरोही राज्य की टैक्स लेने की नीति लूट की नीति ही कही जाएगी क्योकि वह इस टैक्स को मदिरो के लिए खर्च न करते हुए अपने स्वच्छद शासन मे खर्च लेता है । ऐसी लूट का जितना भी विरोध किया जाय थोडा है । सिरोही के निरकुश शासन में प्रजा भी दुखी हो रही है। आप क्रियात्मक सत्याग्रह की योजना कीजिये । राजस्थान और अग्रेजी भारत से आपको सहयोग मिलेगा ।
श्री हीरालालजी शास्त्री, जयपुर राज्य प्रजामडल
अगर कोई राज सस्था किन्ही लोगो से कर वसूल करती है तो उसे उस आमदनी को उन लोगो की राय से उन्ही लोगो के हितार्थ खर्च करना चाहिए। चाहे जिस बहाने से कर लगा देना और उसे मनमाने तरीके से खर्च करना अन्याय है जिसका सम्वन्धित जनता को अवश्य विरोध करना चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि आप लोग न्याय की दृष्टि से एक मामले को हाथ ले रहे है तो उस पर पूरे श्राग्रह के साथ अडे रहेगे और उसे अपने अनुकूल तय करवाकर छोडेंगे ।
श्री गोकलभाई भट्ट सिरोही राज्य प्रजामंडल
मै मानता हूँ कि आवू मंदिर प्रवेश टैक्स कतई हटना चाहिए ताकि यात्रियो को ईश्वर दर्शन के लिए कोई टिकट न लेना पडे । प्रगतिशील जमाने में यह टैक्स कलक है। आपकी कान्फ्रेन्स के साथ हमारी पूरी हमदर्दी है । कान्फ्रेन्स अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यावहारिक व असरकारक योजना वनायेगी ऐसी आशा है । कान्फ्रेन्स को ला० तनसुखरायजी का नेतृत्व मिलने से कार्य सुचारु रूप से चलेगा ऐसी प्राशा है ।
श्रीमान् सेठ पद्मपतजी सिंहानिया -
वस्तुत यह बात बडी अधार्मिक है कि भगवान के दर्शन की कोई फीस ली जावे, चाहे वह किसी भी रूप में हो । सिरोही मे तो इस प्रथा का भौर भी उग्र रूप प्रतीत होता है । चोर• 135]
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डाकुओ से रक्षा करना राज्यधर्म है, प्रजा धर्म नही । इसके अलावा चढाने वाली वस्तुनो पर भी टैक्स लगाना धर्म को व्यवसाय बना देना है, मेरी सहानुभूति आपके साथ है ।
'श्री नवलकिशोर भरतिया, कानपुर
मैं सम्मेलन की सफलता हृदय से चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि इस सम्मेलन मे कुछ ऐसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव स्वीकृत होगे जिनसे भविष्य मे दर्शनार्थियों की असुविधायें दूर हो सकें। ईश्वर आपको तथा प्रापके सहयोगियो को पूर्ण सफलता दे। इस कार्य मे हमारी प्रापके साथ पूर्ण सहानुभूति है ।
श्री जार्ज अरुण्डेल अ दायर मद्रास
आबू के मंदिरो पर टैक्सो की समस्या वास्तव में जैन समाज के सामने गम्भीर प्रश्न होना चाहिए । आशा करता हूँ कि मंदिर दर्शन की धार्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न बाकी न रखेगे। मैं आपके सम्मेलन की पूर्ण सफलता चाहता हूँ और प्राशा करता हूँ कि आप इस अन्याय को दूर करने में उचित प्रभाव डाल सकेगे ।
रायसाहब खुशीराम छारिया, रोहतक
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप एक ऐसे कार्य के लिए आगे वढ रहे है जिसका सम्बन्ध प्रत्येक नागरिक और उसके मौलिक अधिकारो के साथ है, मंदिर में पूजा अर्चा पर सरकारी टैक्स लगाना एक ऐसा कार्य है जिसका किसी भी न्याय से समर्थन नही हो सकता। मैं इस पुण्य कार्य मे प्रापकी और भापके सहयोगियो की पूर्ण सफलता चाहता हूँ" ।
मुनि श्री वल्लभसूरजी महाराज, गुजरांनवाला
मे और पजाब का श्रीसघ इस पवित्र कार्य मे आपकी सफलता चाहते है ।
आनरेविल सर शान्तिदास ग्रासकरन एम. एस. जे पी बम्बई
मै इस पवित्र आन्दोलन के प्रति अपना सहयोग तथा पूर्ण सहानुभूति प्रगट करता हूँ । मेरा विश्वास है कि सम्मेलन का सगठित आन्दोलन सिरोही राज्य के अधिकारियो की आँखें खोल देगा, तथा उनको इस बात पर बाध्य करेगा कि वे शीघ्र ही इन कठिनाइयो तथा शिकायतो को दूर करने के लिए उचित उपाय ढूँढें ।
सर श्री मानिकलाल नानावतीजी बम्बई
मैं कान्फ्रेस की सफलता चाहता हूँ ।
दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी, डालमियानगर
दिलवाडा वू मन्दिर के विषय मे आपका कार्य वास्तव में सराहनीय है और इसमे मेरा आपसे पूर्ण सहयोग है, मै व्यावर के सम्मेलन की पूर्ण सफलता चाहता हूँ । इस विषय मे आप मेरे सहयोग पर विश्वास कर सकते है ।
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रायबहादुर राज्यभूपण दानवीर सेठ हीरालालजी, इन्दौर
मुझे कान्फ्रेन्स के कार्य मे पूर्णरूप से सहानुभूति है और इस कान्फेन्स की अधिक से अधिक सफलता चाहता हूँ, आजकल सगठन की आवश्यकता है और व्यावर कान्फ्रेन्स पर तीनो सम्प्रदायो के संगठन का एक अपूर्व अवसर है जिसमे चूकना नहीं चाहिए । श्री एन के शाह बी. ई न्यायतीर्थ बम्बई
आबू के विश्वविख्यात मन्दिर जैनियो की निजी सम्पत्ति हैं, उनके दर्शन की स्वतन्त्रता मे ये कर बाधक है उनका विरोध होना ही चाहिए। हमे चाहिए कि मन्दिरो के दर्शन के लिए जाएँ लेकिन कर न दे। सरकार अत्याचार करे तो पहिसक नीति से उसका प्रतिकार करे, ऐसी हममे शक्ति प्राप्त हो । आपके प्रयत्लो की पूर्ण सफलता चाहता हूँ। सेठ गजराज जी, कलकत्ता
सम्मेलन की शानदार सफलता चाहते है । मिस एलिजाबेथ फ्रेजर, कराची
__ मैं एक यूरोपियन जैन के नाते इन टैक्सो का सस्त विरोध करती हूँ। मैं पूछना चाहती हूँ कि जब क्रिश्चियन और यूरोपियन को दर्शन पर कोई टैक्स नही है तब जैनो को अपने देश मे अपने ही मदिरो के निशुल्क दर्शन की क्यो आज्ञा नहीं है। ब्रिटिश नीति के अनुसार देव-दर्शन पर कोई कर नहीं लिया जाना चाहिए । राज्यभूषण राजरत्न दानवीर सर सेठ हुकुमचन्दजी, इन्दौर
इस पत्र द्वारा हम अपना लिखित विरोध भेजते है कि सिरोही राज्य की ओर से प्राबू पर्वत पर स्थित सुप्रसिद्ध जैन मन्दिरो पर जो टैक्स लगाया है वह साधारण धार्मिक स्वतन्त्रता मे बाधक है और एक कलक है इसका हटवाने का प्रबन्ध करना चाहिए । सेठ राजमल लखीचन्द, जामनेर
मेरी हार्दिक इच्छा है कि कान्फ्रेन्स के प्रयत्न सफल हो। श्री पी सी मोघा, जम्मू-काश्मीर
कान्फ्रेन्स के उद्देश्यो के सम्बन्ध मे मेरी हार्दिक सहानुभूति है, मुझे आशा है कि आपके नेतृत्व मे कान्फेन्स जैन समाज के उत्थान और संगठन के लिए वास्तविक योजना बना सकेगी, साथ ही साथ वेलवाडा मदिरो के दर्शनाथियो पर से कर हटवाने मे सफल प्रयत्न होगी। सेठ गुलाबचन्द साँगिया बैकर, इन्दौर
__ मैं समझता हूँ कि कान्फ्रेन्स ने महत्वपूर्ण समस्या के योग्य महत्वपूर्ण व्यक्ति को नेतृत्व के लिए चुना है, मुझे आशा है कि आप स्वय को इस दशा मे अवश्य ही सफल और विश्वसनीय सिद्ध करेगे। मेरी शुभ कामनाएं आपके साथ है ।
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श्री विजयेन्द्र सूरी ग्वालियर
देव-दर्शनो पर यह टैक्स अनुचित है साथ ही साय हिन्दुओ और जैनो के लिए अन्यायपूर्ण । मैं आशा करता हूँ कि महाराजा सिरोही बुद्धिमत्तापूर्वक औचित्य की दृष्टि से अपने राजकोष की आय को इस धार्मिक टैक्स से न भरेंगे। मैं कान्फ्रेन्स की हार्दिक सफलता चाहता हूँ और जहाँ जाऊँगा उसके लिए संगठन और समर्थन कहंगा। श्री मुनीवल्लभ विजयजी महाराज वरकाना तीर्थ
__ व्यावर में होने वाली पावू मदिर टैक्स विरोधी कान्फ्रेन्स का मै हृदय से समर्थन करता हूँ और उसकी हार्दिक सफलता चाहता हूँ। वास्तव में यह टैक्स जैन समाज के लिए कलंक रूप है और इसके मिटाने का पूर्ण प्रयत्न आवश्यक है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी सेवाएं देने को तयार हूँ। श्री विजयसिंह नाहर, कलकत्ता
___कान्फ्रेन्स द्वारा टैक्सो के विरोध मे जबरदस्त निश्चय की आशा करता हूँ, शुभ कामनामो के साथ। श्री सुगनचन्दजी लुणावत, धामनगाँव, वरार
आपके सभापतित्व मे कान्फ्रेन्स सफल होकर अपने उद्देश्य को प्राप्त करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है । कान्फेन्स की पूर्ण सफलता चाहता हूँ। प्रो० हीरालाल जैन अमरावती, मध्यप्रान्त
पावू मन्दिर टैक्स के विरोध में मैं पूर्णरूप से आपके साथ और इन अनुचित टैक्सो को जैन दर्शनायियो पर से हटाने के लिए हर प्रकार के उचित प्रयत्लो से काम लिया जाना चाहिए। डाक्टर बूलचद जैन, पी एच डी. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी
जिस उद्देश्य से आपने कान्फ्रेन्स का आयोजन किया है, उस प्रश्न का उठाया जाना अत्यन्त आवश्यक है। सिरोही द्वारा दर्शनार्थियो पर लगाये जाने वाले टैक्म अन्यायपूर्ण भार ही नहीं वरन् आपत्तिजनक है। वीरपुत्र आनन्द सागरजी महाराज, किशनगढ राजपूताना
आबू मदिर टैक्स विरोधी कान्फेन्स का हम स्वागत करते है। एक दीर्घ द्रष्टा की तरह विवेकपूर्ण कान्फ्रेन्स कदम भरेगी, ऐसा विश्वास है । हस्तगत कार्य सफल हो, यह हमारा शुभाशीर्वाद है। सेठ रुघनाथमलजी वैकर, हैदरावाद
कान्फ्रेन्स की सफलता चाहता हूँ। सिरोही राज्य द्वारा लगाया गया कर अपमानपूर्ण है। अपने मौलिक अधिकार के लिए जैनो को विरोव करना चाहिए ।
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सेठ इन्दरमलजी हैदराबाद
कान्फ्रेन्स की हार्दिक सफलता चाहते है ।
श्री मोतीलालजी सिकन्दरावाद -
सिरोही राज्य द्वारा लगाये गये टॅबस अन्यायपूर्ण है । जैनियो को भरसक विरोध करना चाहिए, सफलता की कामनाओ के साथ |
श्रीमान् राजा दीनदयाल सिकन्दराबाद
दिलवाडा के मन्दिरो के टैक्सो का जोरदार विरोध कीजिये । सभापति के समर्थ नेतृत्व मे हर प्रकार की सफलता की श्राशा करता हूँ ।
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सेठ परमानन्द के. कापडिया, बम्बई -
इस अवसर पर जैनों के सगठन को अमूल्य आवश्यकता है । मैं आपके कान्फ्रेन्स के प्रयत्नो की सफलता के लिए प्रार्थी हूँ ।
सेठ गुलाबचन्दजी टोग्या, आनरेरी मजिस्ट्रेट, मथुरा
कान्फ्रेन्स द्वारा श्राप जो प्रश्न उठाया है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एक ऐसे समय मे जब कि भारत सरकार की यह स्पष्ट घोषणा है कि प्रत्येक भारतीय अपने अपने धर्मानुसार कार्य कर सकता है और उन्हे अपने तीर्थस्थान पर जाने का पूर्ण अधिकार है । ऐसी अवस्था मे भी सिरोही राज्य १९वी शताब्दी के स्वप्न देखता हुआ उन स्थानो पर जैन यात्रियो से टैक्स वसूल करता है, जो जैनियो के ही बनाये हुए है और जैनियो की ही सम्पत्ति है । ऐसे सार्वजुनिक प्रौर दर्शनीय स्थानो पर किसी सरकार द्वारा टैक्स जारी करना तब उचित समझा जाता है जब कि वह टैक्स उन स्थानो की उन्नति एव प्रबन्धार्थ लगाया गया हो । केवल सार्वजनिक हितो मै खर्च किया जाता हो । किन्तु हम देखते है कि सिरोही सरकार यह कार्य केवल अपना कोप भरने के लिए कर रही है । सिरोही सरकार का कर्तव्य है कि इस टैक्स से यात्रियो को सर्वथा मुक्त कर दे ।
हीराचन्दजी मन्त्री महावीर, परिपद, विशनगढ़
महावीर जैन परिषद की श्रीर से हम श्रावू के टैक्सो के प्रयत्न के लिए कान्फ्रेन्स के सयोजक और सभापति लाला तनसुखरायजी को वधाई भेजते है । हम हर दशा मे सपरिषद् कान्फ्रेन्स के निर्णयो के साथ है ।
ला० फतेहचदजी सेठी और हेमचदजी, अजमेर
कान्फ्रेस की सफलता के लिए हार्दिक कामना करते है ।
श्री सत्यभक्त पडित दरबारीलालजी वर्घा० सी० पी०-
मैं कान्फ्रेंस की सफलता चाहता हूँ । इस प्रकार का अन्यायपूर्ण टैक्स देशी राज्यो की नीति का कलक है । ईस्ट इंडियन कम्पनी की लुटेरी नीति के इतिहास मे भी ऐसा कूलक नही
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दिखता । ये देशी राजा होते हुए नौ पूरी लूट मचाते है। किसी धर्मस्थान के ठेकेदार बनकर कंजूस से कंजूस पडो को भी मात कर रहे हैं। उनकी यह नीति भ्रष्टता और क्षत्रियत्व के विरुद्ध होने से वर्णभ्रष्टता अत्यन्त निन्दनीय है । इन्हें अपना कहते हुए शर्म मालूम होती है। आप इसके लिए पूरी कोशिश करें ।
सेठ पोषराजजी, सिकन्द्राबाद-
कान्फ्रेंस की हर प्रकार से सफलता चाहता हूँ ।
श्री बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि ब्यावर मे जैनो को कान्फ्रेंस सिरोही राज्य द्वारा देलवारा के जैन मन्दिरो पर लगाए गए टैक्सो को हटवाने के लिए प्रयत्न करने जा रही है। यह और भी प्रसन्नता का विषय है कि ग्राप उस कान्फ्रेंस का सभापतित्व करने जा रहे है। मैं कान्फ्रेंस की हार्दिक सफलता चाहता हूँ । इस सम्बन्ध मे पोलिटिकल एजेन्ट पर प्रभाव डाला जाय और उन्हें इन टैक्सो के औचित्य के सम्बन्ध मे विश्वस्त कराया जाय तो मेरी राय में समस्या सानी से सुलझ सकती है। मैं आशा करता हूं कि इस अवसर पर समस्त जैन समाज संगठित होकर सयुक्त रूप से मोर्चा बनाएगा ।
श्री एस० आर० ढड्डा सेक्रेटरी चैम्बर आफ कामर्स कलकत्ता-
आपने आबू के मंदिर के टैक्सों को उचित ढंग से उठाया है ।
ला० अमोलकचदजी जैन, खडवा सी० पी०
सिरोही राज्य के अन्याय के विरुद्ध आपका आन्दोलन स्तुत्य व सराहनीय है। इस आन्दोलन को जोरदार बनाने को जो भी योजना भेजें उसे में सक्रिय रूप देने को तैयार हूँ ।
सेठ सुखदेव तुलाराम लाडनू
कान्फ्रेंस के साथ हमारी पूर्ण सहानुभूति है ।
श्री एम० वी० महाजन एडवोकेट जनरल सेक्रेटरी, आल इंडिया जैन एसोसिएनन अकोला
मैं जैन समाज को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उसने आबू के मंदिरों के टैक्सों के आन्दोलन के लिए श्राप जैसा नेता प्राप्त किया। लेकिन मैं भाशा करता हूँ कि जब यह मामला एक बार उठाया गया है तो उसे बीच ही में न छोड़ा जाएगा क्योकि इससे अपने उद्देश्य को सफलता मे धक्का ही नही लगता, वरन् मेरी दृष्टि से जैन समाज ही इस देश में जो भी थोड़ी बहुत प्रतिष्ठा है वह भी खतरे मे पड़ सकती है। भागा है आप इस दिशा में प्रभावशाली कदम उठाएंगे ।
गम्भीर मौर
श्री अमरचन्द कोचर म्यु० मेम्वर फलौदीकान्फ्रेंस की पूर्ण सफलता चाहता हूँ ।
BAAD
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श्री जगन्नाथजी, नाहरपट्टी पंजाब --
कान्फेस की सफलता चाहता हूँ । प्रापके निर्णय के अनुसार हर प्रकार की सेवाओ के लिए प्रस्तुत हूँ ।
श्री कपूरचदजी पाटनी, जयपुर
आशा करता हूँ आपके नेतृत्व में कान्फ्रेंस निश्चित प्रोग्राम बनाकर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने मे सफल होगी।
श्री उग्रसेनजी, एम० ए० एल-एल० बी०, मथुरा
आधुनिक युग मे जब एकता का राग अलापा जा रहा है हम एक वीर प्रभु के अनुयाई होते हुए एकता के सूत्र मे क्यो न बँधे । ऐसी कान्फेस ही एकता का एक मात्र साधन और उपाय है । अनावश्यक भेदभाव को मिटाएं। भगवान वीर आपको अपने कार्य के लिए बल प्रदान करें। श्री नन्दलालजी, बीना सिघई
सिरोही राज्य द्वारा लगाए गए श्राबू मन्दिरो के टैक्सो के सम्बन्ध मे उचित उपाय बतलाकर हमे प्रदेश दीजिए। हमारा सहयोग आपके हाथ मे है ।
श्री भगवानदासजी सर्राफ, ललितपुर -
यह कार्य प्रति सराहनीय है, आप अनुचित टैक्स हटवाने का पूर्ण प्रयत्न अवश्य ही कीजिए और मेरे योग्य सेवा कार्य भेजे ।
श्री रामचन्द्रजी खिन्दका, जयपुर सिटी
चाहता हूँ ।
मेरी आपकी कान्फ्रेंस के साथ पूर्ण सहानुभूति है । और में इसकी हृदय से सफलता
श्री प० खुशालदासजी, बम्बई
कान्फ्रेंस का उद्देश्य न केवल प्रशसनीय है वरन् सहयोग्य भी है। टैक्स का विरोध प्रत्येक जैन को करना चाहिए। आपके प्रयत्नो की में हर तरह से सफलता चाहता हूँ ।
श्री वृजभूषणजी वकील, मथुरा
मेरी हार्दिक इच्छा है कि जैन समाज मात्र मिलकर श्रागे ऐसे ही धर्मवर्षक कार्यकर्ता रहे। मैं अपनी सेवाएं आपको भेट करता हूँ ।
श्री रोशनलालजी जैन, मंत्री जैनमण्डल, मथुरा
सिरोही राज्य की प्रोर से जैन मन्दिरो के दर्शनार्थियों पर जो टैक्स लगा हुआ है वह यात्रियो पर निरर्थक प्रहार है । यह हम सब के लिए खेद का विषय है। इस टैक्स के विरोध के लिए सम्मेलन की जो आयोजना की जा सकती है वह अत्यन्त शुभ है। आप अपने उद्देश्यो को प्राप्त करने मे सफल हो, यही हमारी हार्दिक शुभकामना है ।
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श्री अक्षयकुमार जैन, वी० ए०
मेरी शुभकामना कान्फ्रेंस के साथ है । इस समय कान्फ्रेंस को कि जैन समाज जीवित है और हमे हर प्रकार के सकटो से मुकाबिले के चाहिए। आर्य सत्याग्रह का उदाहरण हमारे सामने है जब कि निजाम पड़ा था। इस दिशा मे हमे पहले अधिकारियो से मिलकर मामला तय करना इससे उद्देश्य सिद्धि न हो तो हमे सबसे सुगम कदम उठाना चाहिए।
सेठ सागरमल जैन, कलकत्ता
कान्फ्रेंस के उद्देश्यो की सिद्धि के लिए हर प्रकार की सेवा करने को तैयार हूँ ।
दिखला देना चाहिए
लिए तैयार रहना
बहादुर को झुकना
चाहिए और अगर
मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज -
धावू मन्दिरो के टैक्स के विरोध मे श्रापका प्रयास स्तुत्य है और मैं हृदय से सफलता चाहता हूँ । इतना ध्यान अवश्य रखिए कि जैन समाज में प्रारम्भ में 'सूरा' वाली कहावत अक्सर चरितार्थं होती देखी गई है। पहले तो हम लोग बहुत जोश दिखाते है, पर बाद मे पानी के बुदबुदे की तरह बैठ जाते हैं। पर मुझे आशा हैं कि आप लोग इस नियम के अपवाद है और आपके प्रयत्न से यह कार्यं सफल होगा ।
श्री खेमचन्दजी सिंधी, भू० पू० रेवेन्यू कमिश्नर, सिरोही
मैं आशा करता हूँ कि इस मामले को कान्फ्रेंस द्वारा उचित ढंग से सफल बनाया जाएगा। इस समय अत्यन्त आवश्यकता है कि जैनो श्रीर हिन्दुओ पर समान रूप से प्रभाव डालने बाला यह अनुचित कर समाप्त होना चाहिए। इस कान्फ्रेंस द्वारा किए जाने वाला निश्चय सभापति द्वारा महाराजा साहिब सिरोही के पास भेजा जाना चाहिए। और इस सम्बन्ध में प्रतिष्ठित जैनो और हिन्दुओ का प्रतिनिधिमण्डल महाराजा साहिव से मिले । आपकी हर प्रकार से सफलता चाहता हूँ ।
श्री गुलाबचंदजी ढड्डा
आपकी कान्फ्रेंस की हर प्रकार से सफलता चाहता हूँ ।
श्री गुलाबचदजी जैन, दिल्ली
सुप्रसिद्ध भाव के जैन मन्दिरो पर लगे हुए अनुचित करो को हटाने के आपके पुनीत प्रयत्न की हर प्रकार से सफलता चाहता हूँ। और आशा करता हूँ कि इस उद्देश्य को सफल बनाने के लिए समस्के भारतवर्ष के जैन सगठित होकर मोर्चा लेंगे ।
सेठ मोहनलाल हेमचदजी, बम्बई
मुझे आपके प्रयत्नो के साथ पूरी सहानुभूति है । सिरोही दरवार के साथ प्रयत्न कीजिए कि वह दर्शनार्थियो की असुविधा और कठिनाइयो को बढाने वाले इस कर को हटा लें । श्री फकीरचंद जैन, सिरोही
सिरोही राज्य ने भावू देलवाड़ा के मन्दिरो के प्रति जो नीति अख्तियार की है वह [ ४५
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भारत के जैन जाति पर पलक है और जन जाति के प्रति अपमानजनक है। आप इसके लिए उचित मार्ग बूढे और इसे सदा के लिए नेस्तनाबूद कराने में सहयोग दे। कान्फ्रेंस जो भी नीति ग्रहण करेगी उसमे मेरी सहमति है।
बाबूमल जी शाहजी, सिरोही
मैं आशा करता हूँ कि उचित अधिकारी आपकी बातो को मान देकर प्रतिबन्ध हटाने मे अपनी उदारता दिखलाएंगे। मै सम्मेलन को पूर्ण सफलता चाहता हूँ। श्री बाबूमलजी कालन्द्री
आबू जैसे प्रख्यात मन्दिरो के लिए सिरोही सरकार ने यह कलकी टैक्स लगाया है । यह बडे शर्म की बात है। मैं आशा करता हूँ कि कान्फ्रेस इस टैक्स को हटाने के लिए भरसक प्रयत्न करेगी। और कान्फ्रेस की सफलता चाहता हूँ। श्री चुन्नीलाल जे० शाह, बरलुट सिरोही स्टेट
पाब् मन्दिर के टैक्सो को हटवाने के लिए अगरचे कान्फ्रेंस की राय में सत्याग्रह करना अनिवार्य समझा जाए तो सत्याग्रहियो की नामावली में सर्वप्रथम मेरा नाम दर्ज कर अनुग्रहीत कीजिएगा। कान्फ्रेस की हरएक कार्यवाही मे मेरा हार्दिक सहयोग है। श्री ताराचंदजी दोसी, सिरोही
___ सिरोही राज्य द्वारा प्राबू मन्दिरो के दर्शनार्थियो से जो मुण्डका कर लिया जाता है वह अत्यन्त निन्दनीय है। और जिन मन्दिरो पर इनके सस्थापको ने करोडो रुपये लगाए है और अखण्ड निधि छोड गए है उसको पूर्णतया न सम्हाल कर टैक्स लगा देना अपमानजनक बात है। उसी को हटाने के लिए पापने जो कदम कान्फ्रेंस के द्वारा बढाया है वह अत्यन्त सराहनीय है। ससार के मुख से एक ही स्वर निकला है कि धार्मिक स्वतन्त्रता पर ऐसे कर कलक है।
श्री बिशनचदजी जैन, मत्री जैन मित्रमण्डल, दिल्ली
इस कार्य को सफल बनाने के लिए तन मन और धन से कोशिश करनी चाहिए। श्री देवराजजी सिंगवी, सोजत सिटी
मै स्वय इस समस्या पर सोचता रहा है। अब आपकी कान्फेस इस दशा मे प्रयल करने जा रही है। यह जानकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई, मैं आपकी हर प्रकार से सेवा करने के लिए तैयार हूँ। श्री निवास जैन सघ नीबाज, मारवाड
सघ आबू के जैन मन्दिरो पर सिरोही राज्य द्वारा लगाए गए करो को अनुचित समझता है और प्रार्थना करता है कि सिरोही राज्य इन टैक्सो को जल्दी हटा कर यह कलक दूर करे। कान्फ्रेंस के साथ सघ का पूर्ण सहयोग है ।
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श्री कस्तूरचन्दजी जैन, अकोला. पावू के मन्दिरो का टैक्स विलकुल बन्द होना चाहिए। इसका पूरा आन्दोलन प्राप करेंगे। अगर इस दशा-मै सत्याग्रह हो तो मेरा नाम सबसे पहले लिखिए। श्री प्रतापमलजी सेठिया, मदसौर
+ , आपकी कान्फ्रेंस की सफलता चाहता हूँ। श्री धनराजजी तातेड़, सिरोही
. पावू के मन्दिरो के ऊपर टैक्स धर्म के ऊपर अत्याचार के समान है और यह खामतौर से हिन्दुस्तानी के लिए है। ऐसे टैक्स के विरोध में बडा भारी आन्दोलन चलाना हम जनो का ही.सिर्फ धर्म नहीं बल्कि हर एक हिन्दुस्तानी का फर्ज है। उम्मेद है कि कान्फ्रेस प्रान्दोलन के मङ्गल मुहूर्त के समान होगी। श्री कुन्दनलालजी जैन, भरतपुर। कान्फ्रेंस की सफलता के लिए कामना करता हूँ और कान्स द्वारा बतलाई गई किसी भी प्रकार की सेवा के लिए प्रस्तुत हूँ। श्री, पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल
दुःख है कि मै कान्फ्रेंस के समय वहा उपस्थित नही रह सकूगा। कान्फ्रेंस के प्रति मेरी हार्दिक सहानुभूति है। इस कार्य को ऐसे लोगो ने उठाया है कि जिसकी सफलता मे कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। जैन समाज का प्रथम धर्म है कि वे इस कलक को हटाने में अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दे। श्री चन्दनमलजी, कोचर आष्टा
मुझे दुःख है कि मैं कान्कस में सम्मलित नहीं हो सकूगा । सिरोही स्टेट द्वारा लगाए गए कलकित टैक्स को हटाने सम्बन्धी हर प्रान्दोलन में समाज आपका पूरा साथ दे, यही प्रार्थना है।
प्रादू टैक्सविरोधी आन्दोलन चलता रहा। फिर १९४२ मे राष्ट्रीय प्रान्दोलन के कारण वन्द करना पड़ा। देश के स्वतंत्र होने पर महारानी सिरोही ने जनता की आवाज पर ध्यान दिया और इस कलक को सदा के लिए धो डाला। उन्होने घोषणा को और मदा के लिए इमे हटा दिया । इसका विस्तृत विवरण अगले पृष्ठों में विस्तार मे दिया है।
लालाजी मस्वस्थ होने पर भी सामाजिक कार्यों में रुचि रसते रहे और गणित-अनुमार सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों मे अग्रसर होते रहे ।
शाकाहारी आन्दोलन और अध्यात्म समाज की स्थापना उनी ममय उन्होंने को जिसका विवरण प्रगले पृष्ठो पर दिया है।
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सन् ५२-५३ मे यू०पी० में जोर की बाढ आई। बनारस के स्याद्वाद महाविद्यालय, जोकि पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजी की देन है, बाढ से उसकी बिल्डिंग खतरे में आ गई। ला. राजकृष्णजी जैन ने बताया कि ये कार्य आपके मित्र कुवरसैन के हाथ में है। लालाजी कु वरसैनजी से मिले । उन्होने पूरी सहायता करने का विश्वास दिलाया और उन्होने एक तिथि दी कि हम लोग उस दिन बनारस पहुंचे वह भी वही होगे । पूज्य वर्णीजी को जब यह मालूम हुमा कि तनसुखराय स्याद्वाद विद्यालय के लिए इतना प्रयत्न कर रहे है तो वह बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद के पत्र भेजे। श्री कु वरसैनजी को पूज्य वर्णीजी के दर्शनो के लिए ले गये। श्री कुवरसैनजी ने पूज्य वर्णीजी को आहार भी दिया। पूज्य वर्णीजी बहुत प्रसन्न हुए। श्री कु वरसनजी के द्वारा स्यावाद महाविद्यालय के विल्डिंग बचाने में बहुत मदद मिली। वर्णीजी की वैसे तो कृपा हर एक प्राणीमात्र पर है परन्तु लालाजी पर इतने प्रसन्न हुए कि समय-समय पर आशीर्वाद और धर्म पर पारूढ रहने के पत्र पाते रहते है। उनकी बड़ी दयादृष्टि रही।
तत्पश्चात् लालाजी अस्वस्थ हो गये और वीमार रहने लगे। परन्तु अपनी बीमारी की अवस्था में भी सामाजिक जागृति उत्पन्न करने के लिए वे लेख लिखते रहते । अत समय तक उन्होने भनेक लेख लिखे।
___ अत मे ता. १४ जुलाई १९६२ को धर्मध्यानपूर्वक ६९ वर्ष की आयु मे आपका स्वर्गवास हो गया । आपके प्रभाव से जैन जाति का एक ज्योतिर्मय प्रकाशस्तम्भ अस्त हो गया। उनके सम्बन्ध मे जब अथ निकालने का विचार हुआ तब सभी तरफ से सहयोग का वचन मिला
और ग्रथ तैयार हो सका। आप देखेंगे उनका कार्य क्षेत्र कितना व्यापक था। यदि उनके इस प्रथ से नई पीढी मे उत्साह का संचार हुआ तो हम अपना परिश्रम सफल समझेगे।
अनमोल रत्न
श्री प्रकाशचन्द टोंग्या
एम ए, बी. कॉम , एल-एल. बी., इन्दौर स्व. लाला तनसुखराय जैन के निधन से समाज ने अनमोल समाज रत्न खो दिया। मैं उनका नाम कई वर्षों से सुनता रहता था। वे लगनशील कार्यकर्ता थे।
मुझे याद आता है कि अ०भा० दि. जैन परिपद् के प्रचार हेतु एक डेप्यूटेशन लेकर वे इन्दौर पाए थे। उस समय उनके दर्शनो का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। श्री प्र० दि० जैन मिशन के कार्यों में उन्हे रुचि रहती थी-उसके प्रचार एवं प्रसार से वे प्रसन्न थे।
आप उनकी स्मृति मे स्मृति-ग्रन्थ प्रकाशित करने जा रहे है-यह स्मृति ग्रन्थ कार्यकर्ताओ के लिए प्रकाशस्त:भ का कार्य करेगा। मै इस स्मृति-प्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की कामना के साथ साथ उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। ४८ ]
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लालाजी की छोटी पुत्री स्वदेश कुमारी अपने पति के नाव श्री प्ररिदमन कुमार जी
डजीनियर लघुसिचाई योजना उत्तर प्रदेश
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सिद्धचक्र के पाठ के अवसर पर, परिवार सहित लालाजी अपनी धर्मपत्नी के साथ
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LIVा VASHILA
AZAR
BY
VAAR
AMARHI
मसरकार
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धर्मपत्नी की दृष्टि में
श्रीमती प्रशों देवी, धर्मपत्नी कर्मवीर ला० तनसुखरायजी जैन
[कुछ मनुष्यो के स्वभाव में इस प्रकार की आदत होती है कि जिन लोगो के साथ उन्हे रहना पडता है उनके प्रति दृढता और कर्कशता का व्यवहार करते है और दूसरो के साथ दिखाने के लिए दयालुता का, इस तरह व्यक्ति की पूर्ण जांच नही हो पाती। परन्तु जो व्यक्ति घर और बाहर एकसा सद्-व्यवहार दिखाते है, दूसरो के साथ-साथ, निज परिवार वालो के प्रति भी करुणा और वात्सल्य का स्रोत बहाने है वे प्रशसनीय है। प्रायः देखा जाता है कि कुछ व्यक्तियो के साथ सीमित समय अच्छी तरह व्यतीत हो जाता है परन्तु अधिक समय रहने से कटुता बढ़ जाती है। लेकिन श्रेष्ठ नर-रत्न वे है जिनके साथ अधिक से अधिक समय रहने पर भी स्नेह की चतुर्गुणी वृद्धि होती है । उनको आत्मीयता के कारण वात्सल्य और सौहार्द परस्पर बढता ही जाता है। लालाजी ऐसे ही सहृदय और दयालु नररल थे। उनके प्रति उनकी श्रीमतीजी ने श्रद्धाजलि अर्पित की है वह इस बात का प्रतीक है कि उनका गृहस्थ जीवन क्तिना सुखी और
आनन्दमय था। उनके हृदय मे दया और परोपकार की नदी बहती थी।] पूजनीय प्राणनाथ ।
अापके चरणो में श्रद्धाजलि अर्पित करती हैं। आपकी परम पवित्र महान् आत्मा को उत्तम गति प्राप्त हो ऐसी श्री जिनेन्द्र भगवान् से मेरी विनम्र प्रार्थना है।
उन महान् सज्जन पुरुष की पर-उपकारी भावना का कुछ थोडा सा वर्णन करती हूँ। यू तो उनका जीवन पर-उपकार में बीता कहा तक गिनती गिनाऊ । लेकिन कुछ मोटी-मोटी घटनाएं उनके जीवन मे घटी है वे बूढे, बच्चे और स्त्री इन तीनो की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। जो भी सहायता बनती, करते रहते । कभी शब्दो के द्वारा प्रकट नही करते थे। जब बच्चे पढ़-लिखकर अपने काम मे लग जाते तव बच्चे पाकर आभार मानते तो खुश होते और कहते-भगवान् सवकी रक्षा करते है । मैं कौन करने वाला।
एक बार की बात है । एक लडका माया । उसकी बहिन की शादी थी । उसे रुपयो की भावश्यकता पड़ी। उसे उन्होने तत्काल रुपये दे दिये लेकिन वापिस लेने का भाव नहीं था। लेने वाला भी स्वाभिमानी था । जब उसके पास रुपये देने को हो गये तो एक चिट्ठी के साथ ४००७० लिफाफे मे बन्द करके घर पर दे गया और कह गया कि ये चिट्ठी लालाजी को ही देना। आकर जव उन्होने खोली तो रुपये देखे तो खुश होकर बोले किसी का काम नहीं भटकता मैने तो मना किया था कि वेटा तुम देने की कोशिश मत करना।
एक बार किसी काम के वास्ते रुपयो की जरूरत पडी । ५००० रु० मगवाया। किसी अपने भाई ने आकर अपनी मजबूरी बतलाई कि ५०० रु० चाहिए। अपने मन में क्या सोचते है
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है ५००० रु० पूरा नही होगा इसका तो भला करो तत्काल ५०० रु० दे दिये। उनके मन में हर समय यही विचार रहता था कि अपने देश की, धर्म की, जाति की सच्चे चरित्र की और सद्भावना की वृद्धि हो।
किसी समय पर कोई आपत्ति आती फिर तो अपनी जान पर खेलना अपना कर्तव्य समभते थे । तन, मन, धन से कुछ उठाकर नही रखते थे। अपनी ताकत से बाहर कोशिश करते थे। किसी ने कहा मेरे घर में आग लग गई। आपने अपने पहनने के कपडे और घर का जो सामान चाहिए था सब उठाकर दे दिया। छात्रवृत्ति छोटी जाति वालो को दिया करते थे और कहा करते थे कि इनका उठाना परम धर्म है। उठे को धया उठाना गिरे को उठाना ही मनुष्य जन्म की सफलता है।
दरिद्रान भर कौन्तेय । मा पृच्छेश्वरे धन,
व्याधितस्यौषध पथ्य नीरुजस्य किमोषधे । हे कौन्तेय (युधिष्ठिर) दरिद्रो की सेवा कर, धनियो की सेवा करने से कुछ लाभ नही, रोगियो को औषधि की आवश्यकता है । निरोगी पुरुप को औपधि देने से कोई लाभ नहीं।
इस बात का मेरे हृदय पर अद्भुत प्रभाव पडा। ऐसे परोपकारी पुरुष को वार-बार प्रणाम हो।
पारिवारिक परिचय मेरे दो पुत्रिया हुई । बडी पुत्री विद्यावती श्री लालचदजी को करनाल व्याही गई, जो आजकल रक्षा मत्रालय में कार्य करते है। दूसरी छोटी पुत्री स्वदेशरानी श्री अरिदमनकुमारजी को व्याही गई जो एक्जीक्यूटिव इजीनियर हैं। इस प्रकार दोनो ही कन्यायें मुखी है।
अन्तिम समय लडकियो के लिए वाप के बाद बाद क्या वाकी रह गया ? पीहर मे कभी जरा-सी तबियत खराब होती तो लडकी तिलमिला उठती थी। मगर उस वक्त तक मेवा में लगी रही हाय तक नहीं की। हम सब तो वही थे। लेकिन वह प्रभावशाली आत्मा बदल चुकी थी। जब कभी तबियत घबरा जाती तो उनके छोटे भाई की पत्नी जिसके पति को मरे ३० साल हो गए उसको अपनी लडकियो के बरावर रखा। कभी किसी तरह कष्ट नहीं होने दिया। उनका भाव यह रहता था इसे मेरे मरने के बाद भी किसी प्रकार का दुःख न हो । बेचारी परदा करती थी फिर भी पास बुलवाकर बिठला लेते। कहते यह मेरी तीसरी बेटी है। क्योकि उसके कोई नही था । न पीहर मे कोई था। बेचारी कहने लगी मैने पति का दुख आज जाना। सो उस समय वो ऐसे निर्मोही हो गए कि उसके लिए भी कुछ नहीं कहा।
___ लालाजी के सबसे छोटे भाई को गुजरे १७ साल होगए। उन्होंने अपने पीछे तीन लडकिया व एक लडका जो ढाई साल का था, छोडा । लडकिया बडी थी। उनकी शादी का भार इनके ही ऊपर था। उसको भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया। लडकियो की अच्छे घर ५० ]
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शादी की वे सब सुखी है। सब भाराम मे है। मुझे तो वेफिक्र कर गए। मेरी भगवान से हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि उनको महान आत्मा को शान्ति दे ।
समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास
अन्तिम समय के ७ वजे थे । धर्मं पढना शुरू किया। जब तक प्राण निकले पढते ही रहे । श्रोरो से कहते तुम भी पढो । ध्यान लगाए बैठे रहे । जब तीन बजे तो और भी सचेत होकर आसन लगाकर सामने महावीर स्वामी का फोटो था । उसपर दृष्टि लगा ली। पद्मासन लगाकर बैठ गए । जल्दी जल्दी णमोकार मंत्र पढने लगे जैसे समय कम हो जाय पूरा करना हो । प्राणान्त के समय हिचकी आना, कठ मे कफ बोलना, श्राखो मे आसू आना, किसी से मोह, किसी से कहना - सुनना, आदि उस समय की त्रियाएं कुछ भी नही हुई । आत्मा के ध्यान मे मग्न | चेहरे पर अपूर्व तेज झलक रहा था । ऐसी उत्तम दशा उन्ही पुरुषो की होती है जिनका जीवन दूसरो के लिए होता है । यह उनके पुण्य का उदय कहिए या शुभ भावना का फल कहिए । स्त्री के लिए पति का अन्त समय देखकर कितनी भी धीरज वाली स्त्री हो, घबरा उठती है । लेकिन उनकी पुण्य प्रकृति इतनी प्रबल थी कि मैं किसी को हाय तक नहीं करने दूं । रोने का समय बहुत है । ध्यान न डिग जाय इसलिए किसी को चूं तक नही करने दी ।
अपना अन्तिम समय धमंध्यान और मल्लेखनापूर्वक व्यतीत किया । श्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि
अन्त. क्रियाधिकरण, तप फलं सकलदर्शन. स्तुवते, तस्माद्यावद्विभव, समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।
सर्वज्ञदेव सन्यास धारण करने को तप का फल कहते है । इसलिए जब तक शरीररूपी ऐश्वर्य हो तब तक यथाशक्ति समाधिमरण में प्रकृष्ट यत्न करना चाहिए ।
उनके जीवन को धन्य है जो उन्होने समाधिपूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया है । में श्री जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो ।
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सुलभ मार्गी
धर्मपत्नी रायबहादुर बा०
श्रीमती सुशीलादेवी सुलतानसिहजी जैन कश्मीरी गेट, दिल्ली
लाला तनसुखरायजी जैन समाज के एक ऐसे समाज सेवक हुए जिनमे लोकसेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी । देशप्रेम से उनका हृदय लबालब भरा था । राष्ट्रीय और धार्मिक कार्यों मे सदैव तत्पर रहते थे। जैन धर्म की सेवा के लिए वे ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहते थे जिससे धर्म का मार्ग सबके लिये सुलभ हो जाए। उन्होंने समाज की वडी सेवा की ।
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उत्साही और सच्ची लगन के व्यक्ति
श्री लालचंदजी सेठी मालिक विनोद मिल्स, उज्जैन
श्री तनसुखराय स्मृति-प्रथ के सम्बन्ध में ___ माननीय सेठीजी जैन समाज के समाजपत्र आपका मिला। यह जानकर बड़ी प्रसन्नता सुधारक, गणमान्य नेता थे। खेद है कि हुई कि पाप समाज-सेवी लाला तनसुखराय जैन उनका स्वर्गवास हो गया। उन्होने अस्वस्थ की स्मृति मे, एक स्मृति-प्रथ प्रकाशित कर रहे | अवस्था में ही लालाजी के सम्बन्ध में चार है और इस कार्य मे आप सक्रिय भाग ले रहे | पक्तिया लिखकर भिजवा दी। हम पाशा है। वास्तव मे लाला तनसुखरायजी एक बडे | लगाये थे क्योकि उन्होने लिखा था तवियत ही उत्साही और सच्ची लगन के व्यक्ति थे। ठीक होते ही लिखकर आपके पास भिजवा मेरा उनसे अच्छा परिचय रहा है। दूगा। परन्तु खेद है ऐसे नेता का असमय
मे ही वियोग हो गया । हम जिनेन्द्रदेव, से मै कोई खास सम्बन्धित विषय लेकर प्रार्थना करते है कि स्वर्गीय महान् भात्मा तो कुछ लिख नहीं सकता, किन्तु मेरा जो को शाति प्राप्त हो और कुटुम्वियो को इस व्यक्तिगत सम्बन्ध उनसे रहा है उस सम्बन्ध मे | सकट के समय मे धैर्य धारण करने की अवश्य ही कुछ लिखकर भेज सकता है। शक्ति प्राप्त हो।
एक मास से मेरा स्वास्थ्य अच्छा न होने से मै डाक्टरो के मशवरे के अनुसार विश्राम ले रहा हूँ, सो तबियत ठीक होते ही लिखकर मानके पास भिजवा दूंगा।
मैं आपके इस कार्य मे पूर्ण सफलता चाहता है।
दीपक के समान प्रकाशमय
श्री महावीर प्रसाद, एडवोकेट
हिसार भाई साहब कुटुम्ब और समाज के प्रति कितना काम करते थे। कितने उनके सरल परिणाम थे । समाज-उद्धार की उनकी बडी लगन एक दीपक के समान थी। उनका मन सदा सेवा के लिए तडपता रहता था। कभी देश-सेवा तो कभी समाज-सेवा । सच पूछो तो उनका जीवन सेवा के लिए निर्माण किया गया था। वे हमारे परिवार में एक प्रकाशमान ज्योति थे।
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वे धन्य हैं
श्री जियालाल जैन प्रेसीडेन्ट दि० जन कालिन सोसायटी, बड़ौत (मेरठ) यही जीने का मकसद था, यही थी आरजू उनकी । कि गर निकले तो, मुल्को-कौम की खिदमत में दम निकले ॥
उपरोक्त शब्द अक्षरश. ला. तनसुखराय जैन के सम्बन्ध मे घटित होते है। उन्होंने अपने जीवन को मुल्क और कीम की खिदमत मे लगाया। लालाजी ने रोहतक से पजाव प्रात की काग्रेस पार्टी में बड़ा पार्ट अदा किया। वे निडर, निर्भीक बनकर मैदान में पाये । राष्ट्र की स्वतन्त्रता की खातिर वे कागवास भी जाने से न घबराये । जनता ने उन्हे पूर्ण सम्मान की दृष्टि से देखा । राष्ट्रीय-काग्रेस मे वे ऊचे से ऊचे पदो पर आसीन हुए। देश की आजादी के साथ-साथ लालाजी ने जैन समाज की महान् सेवा की है। धर्म के प्रचार-प्रसार मे उन्होने जी-जान की वाजी लगायी। वे दि. जन परिषद् के प्रधान तथा प्रधान-मत्री पद पर उम्र भर सुशोभित रहे । वे दि० जैन परिषद् के महारथी थे, जिसके द्वारा उन्होने बडे-बडे सम्मेलन बुलाए। इन सम्मेलनो से समाज में नवीन जागृति का अनूठा स्रोत उद्भूत हुआ। समयानुकूल नवीन तथा आवश्यक परिवर्तनो की मोर उनका ध्यान सतत् रहा। उन्होने हस्तनागपुरजी आदि तीर्थस्थानो पर विशाल जैन-सम्मेलन बुलाये, जिनमे अनेक सामयिक एव परम उपयोगी प्रस्ताव समाज के सामने पाये, जिनमे से विशेपकर-१ स्त्री-पूजा-प्रक्षाल, २ मरण-भोज कुप्रथा का निपेध, ३. दस्सा पूजाधिकार, मे वढार-वन्दी, ५. दहेज-दिखावा बन्द । उन्होने मीणा-जाति को भी जन-धर्म में दीक्षित कर लेने का प्रस्ताव समाज के सामने रखा था। दिगम्वर, श्वेताम्वर तथा स्थानकवासी साम्प्रदायिकता को भी वे जैन समाज तथा जैन धर्म के विकास मे हानिकर समझते रहे। इन तीनो सम्प्रदायो के एकीकरण का प्रस्ताव भी उनका उपयोगी प्रस्ताव था। उन्होने महगांव-काण्ड तथा आबू-मदिर काण्ड को एक सेनानी की भाँति डटकर लडा । उसमे वे विजयी हुए। निस्सन्देह इससे समाज की प्रतिष्ठा मे महानता पाई। उन्होने दि. जैन इण्टर कालेज, बड़ोत की आधारशिला का शिलान्यास किया। बहुत सारे छात्र प्रति वर्ष इस सस्था से प्रशिक्षण प्राप्त करते है । ऐसी उपयोगी सस्थाओ की समाज तथा देश को महान् आवश्यकता है। मुझे याद है कि लालाजी ने जब भी हमे आवश्यकता पही तभी हमारे कालिज की सहायता की। इस अवसर पर मै उनकी सुयोग्य सह-पमिणी श्रीमती अशर्फीदेवीजी की उदारता की भी प्रशसा करूंगा। उन्होने अपने को अपने दिवगत पति के प्रति परम श्रद्धान्वित होने का एक प्रमाण सिद्ध कर दिया है। जहां लालाजी ने अपने कर-कमलो से बड़ौत जैन इन्टर कालेज की आधारशिला की स्थापना की थी-- ठीक, उसी के सामने वगल मै इन्होंने भी लालाजी के नाम को सदैव-सदैव अमर रखने के लिए एक विशाल कमरे का निर्माण कॉलिन मे करा दिया है । इसलिये.-"हम तो उन्हे माने कि भर दे सागरे हर खासो आम" वाली किंवदन्ती इन लोगो पर घटित होती है। इन्होने जीवन का लक्ष्य मात्र सेवा-भाव बनाकर रखा है। वास्तव में ऐसे लोगो का जीवन-काल भावी पीढ़ियो के लिए मार्ग-दर्शक बनकर रहता है । वे धन्य है । भगवान् महावीर स्वामी से प्रार्थना करता हूं कि लालाजी की आत्मा को शान्ति तथा उन्हे सद्गति प्रदान करें।
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सहनशीलता और दूरदर्शिता के आदर्श
श्री उग्रसेन जैन, एम ए., एल-एल बी.
रेलवे रोड, रोहतक आपका पत्र मिला, समाचार जाना, आभारी हूँ। मैं अस्वस्थ रहता है, भाख की विनाई काम नहीं करती, अत मैंने सब सस्थाओ से प्राय सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है।
____ भाई तनसुखरायजी के सम्बन्ध में क्या लिखा जाए वे एक उत्साही, साहसी और कर्मठ कार्यकर्ता थे । परिषद् की उन्नति के लिए उनमे बडी लगन थी, वे सेवाभावी कार्यकर्ता थे। महगांव काड मे भी वे प्रमुख कार्यकर्ता थे। विरोधी परिस्थितियो मै भी साहस और चतुराई के साथ परिषद् के शानदार अधिवेशनो को सफलता के साथ कराने में उनका अधिक सहयोग रहा है। कई अधिवेशनो मे विरोधी दल से प्रेम के साथ टक्कर लेने में वे पीछे नही हटे । अपनी सहनशीलता और गभीरता तथा दूरदर्शिता के कारण उन्होने जटिल से जटिल परिस्थिति को सभाला और परिषद् के अधिवेशनो को सफल बनाया।
सच्चे देशभक्त
बहुश्रुत विद्वान् श्री वासुदेवशरण
अग्रवाल
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री तनसुखराय जैन की स्मृति मे एक प्रय प्रकाशित किया जा रहा है। मैं जब नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में अध्यक्ष का कार्य कर रहा था तब श्री तनसुखरायजी से मेरा परिचय हुआ । मैं उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ । उनके हृदय मे समाज-सेवा का बहुत अधिक उत्साह था। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। वे जहा कही प्रभाव और दुःख देखते, उसके निवारण के लिए प्रयत्नशील हो उठते । मुझे आज तक स्मरण है कि किस प्रकार उन्होने अग्रवाल जाति के उत्थान सम्बन्धी आन्दोलन के अनेक सूत्रो को अपने व्यक्तित्व में समेट लिया था। उनका स्वप्न था कि अनजाति के प्राचीन स्थान अग्रोहा का पुनरुद्धार करे। इसके लिए उन्होने अग्रोहा मे अखिल भारतीय अग्रोहा सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन किया और उसमे देश के अनेक नेतामो को दूर-दूर से एकत्र किया । उन्ही की प्रेरणा से मैंने उस सम्मेलन का सभापतित्व स्वीकार किया और अग्रोहे की यात्रा की । अग्नोहे का पुनरुद्धार श्री तनसुखरायजी का सच्चा कीति-स्तम्भ होगा। उनकी दृष्टि मे देश-सेवा पौर समाज-सेवा परस्पर विरोधिनी थी। एक सच्चे जैन, सच्चे अग्रवाल और सच्चे देशसेवक और मानवता प्रेमी व्यक्ति का स्मरण अवश्य ही सबके लिए कल्याणप्रद होगा। उनके स्मृति-पथ का यही सन्देश-सूत्र है।
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अपना जमाना श्राप बनाते हैं प्रहले - दिल
श्री देवेन्द्र कुमार जैन
मैनेजर दि० जैन कालिज ( बड़ौत ) मेरठ जैन समाचार-पत्रो द्वारा तथा प्रकाशित विज्ञप्ति से यह जानकर हर्प हुआ कि ला० तनसुखरायजी के सम्बन्ध मे जैन समाज को शोर से महान् स्मृति-प्रथ प्रकाशित किया जा रहा है । मेरे तथा लालाजी के सम्बन्ध अति निकट के रहे है । अतः उनके विषय मे अधिक कुछ लिखू, यह शोभनीय नही ? तिस पर भी लालाजी वास्तव मे एक कर्मठ, निडर तथा अडिग समाज सेवी हुए है । मैंने जो देखा, सुना उस पर प्रकाश डालता हू । लालाजी का नाम जैनसमाज का बच्चा-बच्चा जानता है। वे समाज मे एक चमत्कृत सितारे की भाँति आए और समाज को एक रोशनी देकर चले गए। लालाजी ने एक साधारण परिस्थिति से उठकर अपने ज्ञानवल, - बाहुबल तथा अपनी व्यवहार कुशलता के कारण विशेष उन्नति की। वे धुन के पक्के, कर्मशीलप्राणी तथा जीवट के पुरुष थे। देश मे गाँधी युग प्राया । महान् परिवर्तन के साथ देश का काया कल्प हुआ | नव-निर्माण हुआ । ऐसे क्राति-काल मे जैन समाज मे भी चेतना आई | लाला तनसुखराय सरीखे महानुभावो ने जहा काग्रेस पार्टी को पूर्ण सहयोग प्रदान किया, वहा वे इस क्रांति-काल मे अपने समाज को भी न भूले । वे समाज के सामने नवीन, किन्तु सामयिक - प्रस्ताव लेकर आए ।
वे अकेले ही चले थे जानिवे-मजिल मगर - लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया ।
उन्होने अ० भा० दि० जैन परिपद् का झडा उठाया । परिषद् के प्लेटफार्म पर अपने विचार के लोगो को एकत्रित किया और एक जाग्रति समाज में पैदा कर दी। उन्होने विधवाविवाह का चलन, दस्सा पूजा अधिकार, मरण-भोज कुप्रथा का निषेव, विवाह-शादियों मे बहार की फिजूलखर्ची का वन्द होना तथा धार्मिक क्षेत्रो मे शिक्षा का प्रचार, छात्रवृत्तियों को देन, धार्मिक ट्रैक्टस् छापना तथा पुस्तिकात्रो का वितरण आदि उत्तम कार्य किए हैं ।
भारत भर में ख्याति प्राप्त दि० जैन पोलिटेक्निक इन्स्टीट्यूट बड़ौत की बाधारशिला की स्थापना उन्ही के वरद्-हस्तो द्वारा हुई । पोलिटेक्निक इन्स्टीट्यूट वह पौधा है जिसे लालाजी ने रोपा था | आधुनिक युग को इस ऐसी सस्था की कितनी श्रावश्यकता है। यहाँ से प्रति वर्ष अनेक जैन तथा जैनेतर प्रशिक्षार्थी उद्योग घघो में प्रवीण होकर अपने भरण-पोषण के लिए आत्म-निर्भर होते है । देश की सेवा करते हैं। असल मे दि० जैन पोलिटेक्निक बढ़ोत को उपादेयता के साथ लाला तनसुखराय का नाम सव अमर रहेगा। इस नश्वर ससार मे कोई मदा तो रहा नही - तिस पर भी कुछ लोग होते है जो कभी-कभी होते हैं। लालाजी के निधन से समाज को भारी क्षति पहुची ।
जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नही -- आ गई हममें कुछ ऐसी कमी, उनके वगैर ।
भगवान् उनकी श्रात्मा को सद्गति दें, शान्ति दें, और हमारी पीढ़ी के लोग उनके उपयोगी पथ के राही बनें। उनकी स्मृति मे निकलने वाले ग्रंथ की मै सराहना करता हूँ ।
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A Man of Inspiration
Shri Bhikha Lal Kapasi Pandara Road, New Delhi.
When I came to New Delhi in August 1940 as Assistant Information Officer in the Ministry of Information and Broadcasting, Government of India, my first association with Lala Tansukbrai Jain was at a meeting of Jain Sabha New Delhi Then I met him several times later on when he was incharge of Tilak Insurance Co Ltd. and my association grew gradually and I must also give credit to him for making me insurance minded.
Afterwards he was instrumental in calling a meeting after some years for discussing the questions of establishing unity amongst Jain community in Delhi and I had the good luck to preside at a meeting at the premises of Mahavir Jain Library when the question of Jain Unit was discussed and be was mainly instrumental in collecting all prominent Jains of Delhi and New Delhi for this purpose. I also associated myself with his various activities namely Jain Cooperative Bank, Jain Club, All India Humanitarian Conference, Bharat Vegetarian Society etc He was a source of inspiration to many young Jains of Delhi and he always encouraged all activities relating to social, economic and cultural development of Jains in Delhi. I may also mention here that when I discussed the question of starting Jain Milan at Delhi in September 1960 he gave me the encouragement and took active part in its activities in the initial state, though because of his ill-health later on, he had to curtail all his activities.
The Jain Milan of Delhi is an informal organisation started in september 1960 and during this short career of four years it has gained popularity mainly because of its democratic atmosphere. This organisation has no president, no office bearers, no membership fee and no constitution. However, with the goodwill of
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friends and sympathizers, this informal association is gaining strength day by day. After starting this organisation with the help of friends like Mr Daulat Singh Jain, Mr. Deputy Mall Jain and other friends, this organisation is now being continued with the help of convener friends like Shri Daulat Singh Jain, Sri Lodha, Shri Mehtab Singh Jain, Shri R. C Jain and Shri B. Jain and the present convenors of Jain Milan are Mr. Dlat Singh, Shri R C Jain, Shri Adishwar Prasad Jain, Shri Lodha and Shri Kapur Chand Jain. In this connection, it may not be out of place to mention here one unique achievement of this gathering of calling all the leaders of Jain community belonging to various sections, who had come here to give evidence before the Select Committee of the Religious Trust Bill and presenting a unanimous voice by selecting one spokesman for giving evidence and in this connection one cannot, but remember the services rendered by M.Ps, Shri Rajpath Singh Dugger and Shri R. K Milvi, through whose effort a meeting was called at the residence of Shri R jinder Kumar Jain to decide this question. It now rests with the members of the Jain community in Delhi to fulfill the high ideals and aspiration of late Lala Tansukhrai Jain for giving tangible shape for having a strong central organisation 11 Delhi which can coordinate the activities of various small and big organisations and which would, besides. improving the social economic, cultural and political status of the Jain community would also be useful for having its due share in the overall development of the capital of the country.
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महावीर वाणी
कोहो पीइ पणासेठ, माणो विषय नासणी ।
माया मित्ताणि नासेड, लोभो सव्त्र विणामणो ॥
sta प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है । माया मित्रता का नाम करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नादा करता है।
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मानव-हृदय का आलोक
श्री सुलतानसिंह जैन, एम ए मत्री अ०भा० दि० जैन परिषद शाखा शामली (उ० प्र०) "लाला तनसुखरायजी जैन समाज के ही नहीं अपितु समस्त वैश्य वर्ण के महान् सेवक, कर्मठ कार्यकर्ता, नवयुवको के प्रेरणा-स्रोत, जैन परिषद् के स्थायी स्तम्भ एव मानवता के सच्चे पुजारी थे। उन्हे समाज-सुधारक, राजनीतिक, साहित्यिक, प्रकाण्ड पण्डित, सिद्धहस्त लेखक, धर्मप्राण या और भी कुछ कहे तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। वस्तुत वे सब कुछ कहलाने के सच्चे अधिकारी थे। नि सदेह ऐसे महान् पुरुप का ससार से-उठ जाना, सभी के लिए हृदयबिदारक ही होता है। .... यद्यपि मै कभी उनके दर्शन न कर पाया था; किन्तु उनके कार्य-कलापो से परिचित होकर ही कृत-कृत्य हो गया। उनके 'वीर' में प्रकाशित लेखो से जो प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई, उसीके फलस्वरूप मै धार्मिक कार्यों में रुचि लेने लगा और सेवा कार्य को अपने जीवन का प्रमुख उद्देश्य समझकर समाज के अखाडे मे कूदकर समाज-सेवा करने के लिए अनायास ही प्रवृत्त हो उठा। मेरी कोई प्राकाक्षा नहीं कि में क्या बनू और क्या न वनू , किन्तु प्रति-क्षण किसी न किसी सेवाकार्य मे रत रहना अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझता हूँ। और उसी मे सुख का अनुभव करता है।
अत मे मेरी हार्दिक कामना है कि लालाजी की दिवगत आत्मा को शान्ति प्राप्त हो और उनके सतप्त परिवार एव स्नेहीजन को धैर्य तथा सान्त्वना मिले। यही नहीं, उनके किये गये कार्य मानव-मात्र के हृदय को सदैव आलोकित करते रहे ।
लगनशील कार्यकर्ता
जनरत्न सेठ श्री गुलाबचन्द टोग्या
इन्दौर स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी जैन एक लगनशील, कर्मठ समाज-सेवक थे। उन्होने न सिर्फ जैन समाज की ही सेवा की बल्कि स्वतत्रता संग्राम में भी भाग लिया था।
तिलक इश्योरेंस क. १९३५ मे स्थापित हुई थी। १९३६ मे इसका इन्दौर मे भी ब्राच आफिस खुल गया था। १९४० तक यहा उसका ब्रांच आफिस रहा। इस बीच वे लगभग १२१५ वार इन्दौर पाये । जब भी पाये, मुझसे हमेशा मिलते रहे । समाज-सेवा के सम्बन्ध में ही उनकी चर्चाएं होती रहती थी। भा० दि. जैन परिषद् का कार्य उन दिनो बहुत जोरो पर था। परिषद् के भाप स्तम्भ थे। आपने अपना पूरा जीवन धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक कार्यों मे ही व्यतीत किया । ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता को मै अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता है।
लालाजी की स्मृति मे आप स्मृति-प्रथ प्रकाशित कर रहे है यह प्रसन्नता की बात है -उसकी सफलता की कामना करता हूँ।
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प्रेरणा के स्रोत
डा. ताराचन्द जैन (बख्शी) M.Sc., LL.B, N.D.D.Y.
जयपुर लाला तनसुखरायजी निश्चय ही उन महान् विभूतियो मे से थे, जिन्होने विना स्वार्थ के अपने पापको देश तथा समाज-सेवा के कार्य मे मिला दिया, घोल दिया। एकमात्र कर्तव्य को ही उन्होने अपना धर्म समझा। राष्ट्रीय-आन्दोलन में उन्होने अपना पूरा सहयोग दिया और देश की खातिर वे जेल भी गये । लेकिन उनमे पद की लोलुपता नहीं थी। यदि वे चाहते तो मिनिस्टर भी बन सकते थे, लेकिन देश के स्वतत्र होने के बाद उन्होने अपने आपको समाज-सेवा के ठोस कार्य में लगा दिया। उन्होने सैकडो सेवाभावी कार्यकर्ता पैदा किये-वे प्रेरणा के स्रोत थे। उनके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति एक बार आ जाता था वह सदा के लिए उनका हो जाता था। उनका जीवन युवको के लिये आदर्श है।
लालाजी से मेरा परिचय सन् १९५२ मे हुआ, जवकि वे एक सस्था का उद्घाटन करने आये से उसके बाद से वे जब भी जयपुर में पधारते थे हमारे यहा ही ठहरते थे। और मै भी कई वार दिल्ली गया, तब उनसे अवश्य मिलकर माता था। उनके दर्शनो से ही गजब की प्रेरणा मिलती थी। उनकी प्रकृति व भाकृति बहुत सौम्य थी।
__समाज-सेवा के कार्यों में उनकी बेहद लगन थी। समाज का ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसमें उन्होने अपना सहयोग नहीं दिया हो । उनके कार्यो, त्याग और उदारता को देखकर सब लोग उनकी भूरि-भूरि प्रशसा किया करते थे। वे देश, समाज के उन कर्मठ, अनुभवी और कर्तव्य-परायण कार्य-कर्ताओ मे से थे, जिनका जीवन अनुकरणीय है । आज उनकी सेवामो की देश व समाज को अत्यन्त आवश्यकता थी। ऐसे असमय मे वे हमारे बीच से उठ गये, अभी उनकी आयु भी अधिक नहीं थी। किन्तु ऐसे योग्य व त्यागी महान् पुरुषो की परलोक मे भी आवश्यकता रहती है । मै दिवगत आत्मा के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता है।
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साहसी तेजस्वी नररत्न
सेवा का कार्य महान है, सेवा करने वालो को कदम-कदम पर कठिनाइया उठानी पडती हैं। यदि काम बिगड गया तो सब जी भर के बुराई करते हैं और कदाचित् काम सफल हो गया तो उसका श्रेय उस व्यक्ति को न देकर अन्य को देना चाहते है । स्वय तो करना नही चाहते और यदि कोई कर रहा हो तो उसकी प्रणसा न करके बुराई टटोलने मे लगे रहते हैं । यही कारण है कि हमारे यहा अच्छे समाजमेवक और उत्तम कार्यकर्ताओ का अभाव है । परन्तु कुछ ऐसे तेजस्वी नर-रत्न होते हैं जो इन बातो की चिता नही करते । अपना धर्म मानकर देश श्रौर समाज की सेवा करते है। लाला तनसुखरायजी ऐमे ही थे जिन्होने कार्य करते किसी की परवा नही की और जिस काम को अच्छा समझा दृढ सकल्प से कर डाला ।
रायबहादुर वा० दयाचन्दजी जैन एक्स चीफ इंजीनियर, दरियागंज, दिल्ली
'उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हू थोर भगवान् से प्रार्थना करता हू कि हमारे समाज मे अच्छे लोक-सेवक जन्म लें ।
सर्वतोमुखी प्रतिभा
आज देश मे मासाहार का प्रचार बढ रहा है, भ्रष्टाचार की अधिकता है । चीजो में मिलावट का रोग इस तेजी से बढता जाता है कि शुद्ध पदार्थ खाने तक को नही मिलते । शरीर को वलिष्ठ श्रीर शक्तिशाली बनाने के लिए शुद्ध घी, दूध की प्रावश्यकता है। लालाजी की दृष्टि इस घोर गई। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी । उन्होने बम्बई के मेयर सेठ श्रासकरनदासजी की अध्यक्षता मे घी-दूध मिलावट निषेध कान्फ्रेंस की और पूरे जोर-शोर के साथ उसका प्रचार किया जिसका अच्छा फल हुप्रा और शाकाहार के प्रचार के लिए Vegetarian Conference की और समिति बनाकर महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ किया जिसकी आज वडी आवश्यकता है। मैं युवको का ध्यान इस ओर श्राकर्षित करना चाहती हू कि वे लालाजी के अधूरे कार्य को पूरा करें । शाकाहार के सम्बन्ध मे अपनी रुचि लगावें । मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पित
करती हू ।
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सर्वश्री कान्ता जैशीराम मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, दरियागंज, दिल्ली
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महान् परोपकारी
जैन समाज मे भी ऐसे महान् कार्यकर्ता, कर्मठ व्यक्ति थे कि वाकई इनके कार्यों को पढ कर ऐसे महान् वीर, कर्मठ कार्यकर्ता का जैन समाज से विछोह हो जाना महान् दुख की बात है जिसकी पूर्ति होना इस काल मे बडी मुश्किल व असभव-सी है ।
सेठ मिश्रीलाल पाटनी बैकर्स steवाना भोली लश्कर ( म०प्र०)
श्री दानवीर माहू शान्तिप्रसादजी, श्री प्रक्षयकुमारजी एव श्री सुमेरचन्दनी शास्त्री आदि आप माहबान ने प्रसिद्ध देशभक्त, कर्मवीर, समाज-सेवी, प्रभावशाली, विख्यात नेता, अनेक सस्था को प्राण देने वाले महान् यशस्वी पुरुष के कार्यों की स्मृति हेतु एक स्मृतिग्रथ तैयार करने का प्रायोजन किया । यह सकलन उनके सेवा कार्य व बिखरी हुई सामग्री का सग्रह कर एक जगह एकत्रित कर जनता के सदुपयोगार्थं रखने का विचार किया यह अत्यत सुन्दर है । मैं श्री तनसुखरायजी के प्रति श्रद्धाजलि भेजता हू और यह भी शुभ कामना भेज रहा हू कि आपका यह प्रयास प्रापके उत्साह एव भावनानुकुल शीघ्र ही निर्विघ्न सम्पूर्ण होकर यह लालाजी का स्मृतिप्रथ बडा ही लाभोपयोगी बने यह मेरी भावना है। और मै इस समिति के समस्त सदस्यो का भी श्राभार प्रदर्शित करता हू ।
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VERY GOOD WORKER
Shri Narendra Kumar Jain, BA Dehradun.
I just received a few papers relating to Shree Tansukh Rai Jee. This is really a very good adventure and this reminded me my association with him on so many occasions He was really dynamic man and perhaps the only person who realised at one stage to bridge the rift among Jain Youth and the organisation of the Parishad. It was at that time I had an opportunity to come in contact with him and I was very much impressed by his method of dealing the things in the interest of the community I have also seen him working for the Congress and Congress Organisational matters I can say he was a man who always took optimistic views and was always successful.
I wish the work taken up be successful and it will be a good contribution in the old memories
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सफल जीवन
श्री रूपचंद गार्गीय जैन
पानीपत
स्व. जैनधर्म-भूषण ७० सीतलप्रसादजी ने अपने जीवन काल मे जैन समाज के नवयुवको के दिलो मे धर्म व समाज-सेवा की एक गहरी लगन पैदा की थी जिसके परिणामस्वरूप समाज में सुधार के कई महत्वपूर्ण कार्य हुए। बहुत-सी नई शिक्षण संस्थाए खुली । समाज के नवयुवको में धर्म-सिद्धात के ज्ञान की वृद्धि हुई तथा उनके आचार-विचार में भी उन्नति हुई। हमारे मित्रवर स्व. लाला तनसुखरायजी को भी उन्ही ब्रह्मचारीजी की सगति बचपन से ही प्राप्त हुई जिसकी गहरी छाप उनके जीवन पर लगी, फलस्वरूप दिन पर दिन उनके दिल में धर्म, समाज-सेवा व देशोद्धार की लगन वढती ही गई। अपने जीवन के मन्दर जिस समाज-सेवा व देश-सेवा के कार्य मे उन्होने हाथ डाला उसीमे उनको सफलता मिली। इसका एक कारण यह भी था कि किसी कार्य मे सफलता प्राप्त करने के लिये उसे सुव्यवस्थित रूप से चलाने की कला उन्हे पाती थी। वे सदा हसमुख रहते थे, अतिथि-सेवा का पूरा ध्यान रखते थे। १९३४ से दि० जैन परिपद् के द्वारा उन्होने जैन समाज के मुधार-कार्यों में अपनी सेवा का क्षेत्र बढाया, तव से ही मेरा उनसे सम्पर्क रहा है। १४ जुलाई १९६३ को वे हमसे सदा के लिये विदा हो गये । हमने एक सच्चा मित्र खोया और समाज ने अपना एक सच्चा हितपी खोया । मै उन्हें उनके गुणो के कारण अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता है।
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सबके प्रिय नेता
श्री हीराचंद जैन
मांडला, राजस्थान लालाजी का जीवन सादा और पवित्र था। वे जैन समाज के गौरव थे। भ० महावीर के सिद्धातो को सरल रूप से प्रचार करने मे वे बड़ी रुचि रखते थे। महावीर जयती उत्सव मनवाकर उन्होने एक आदर्श कार्य किया। आज जब हिंसा की अधिकता बढ रही है तव उसके विरोध मे आवाज उठाने वाले दृढप्रतिज्ञ साहसी नेता की बडी पावश्यकता थी। लालाजी ऐसे ही शक्तिशाली रत्न थे जो सिद्धातो की रक्षा के लिए निरन्तर तत्पर रहते थे। वे हमारे पुराने मित्र थे । मैं उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता है ।
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कर्मवीर श्री तनसुखरायजी
जीवन के पश्चात् नाम उसका ही रहता, सत्य-सिद्धि के लिए कष्ट जो बहुधा सहता, वह मनुज-रत्न होता है, सब कुछ पावन, पर सेवा के लिए करे जो अर्पण तन-मन, श्रीयुत् तनसुखराय ने, की जो सेवा धर्म की,
व्याप रही है आज भी, यश गाथा सत्कम की ॥१॥
16.
श्री गुणभद्र जैन,
कविरत्न
श्री मद्राजचंच प्राधम
मागास (सौराष्ट्र)
सेवक मिलते जहां-तहाँ, स्वार्थी अभिमानी, ___करते आग्रह विधा सर्वदा वे मनमानी, - ' कहकर कलियुग दोष, सत्य को नहिं अपनाते,
करते स्वय अनीति, अन्य से और कराते, सेवक लालाजी सदृश, है मिलना दुर्लभ महा,
सेवा का प्रादर्श ही, नस-नस मे जिसके रहा ॥२॥
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सरल सत्यता, न्याय नीति थी उनके मन में,
सादाई को ग्रहण किया था निज जीवन में, हुए नही गर्विष्ठ क्षणिक वैभव को पाकर, सेवाये की यथा समय घर-घर भी जाकर, हो निरीह निज देश की, सेवा वे करते रहे, देकर के निज द्रव्य भी, पर दुख वे हरते रहे ॥३॥
सुन निन्दा वे नहीं डिगे थे अपने प्रण से, था सुधार से प्रेम नही नश्वर जीवन से, परिषद् के थे प्राण, कर्म के थे उत्साही, करके
कर्मवीर है वही न जो बाधा से डरता, बढता रहे सदैव नही पग पीछे वरता, मिली सफलता उन्हें हाथ जिसमे भी डाला, पाला निज कर्तव्य, कभी भी उमे न टाला, जाति सुधारक सर्वदा, लाला तनसुखराय थे, दीन-हीन जन के लिए, सच्चे प्रवल सहाय थे || ५ ||
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बिरले महापुरुष
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पर उपकार प्रशसा कभी न चाही, देख धर्म के ह्रास को, दुखित था उनका हिया,
सत्य धर्म रक्षार्थ ही, सब कुछ था उनने किया ||४||
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लालाजी जैन समाज के महान् सुधारक थे। उनके मन मे सदैव देश और समाज-सेवा की भावना जागृत रहती थी। हमारे पिता वैरिस्टर जमनाप्रसादजी उनकी सदैव प्रशसा किया करते थे। ऐसे महापुरुष ससार मे बिरले ही होते है । मैं उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पण करता हू ।
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श्री नरेन्द्र (कैप्टेन )
सुपुत्र श्री जमनाप्रसादजी वैरिस्टर, नागपुर
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अपने काल के संरक्षक
प्राच्य विद्यामहार्णव श्री जुगलकिशोरजी मुख्त्यार
अधिष्ठाता वीर सेवा मविर, दिल्ली
हर्ष का विषय है कि वोर शासन जयन्ती के शुभ अवसर पर श्रीमान् लाला तनसुखराय जैन (मैनेजिंग डाइरेक्टर तिलक बीमा कम्पनी) दिल्ली का भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय सहित, उत्सव के प्रधान की हैसियत से वीर सेवामन्दिर में पधारना हुआ। आपने वीर सेवामन्दिर के कार्यों को देखकर अनेकान्त के पुन प्रकाशन की आवश्यकता को महसूम किया और गोयलीयजी को तो उसका वन्द होना पहले से ही खटक रहा था, वे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ यात्रा के बाद ही वह वन्द हुआ । अत. दोनो का अनुरोध हुआ कि "अनेकान्त" को अब शीघ्र ही निकालना चाहिए । लालाजी ने घाटे के भार को अपने ऊपर लेकर मुझे प्राधिक चिन्ता से मुक्त रहने का वचन दिया, और भी कितना ही आश्वासन दिया साथ ही उदारतापूर्वक यह भी कहा कि यदि पत्र को लाभ होगा तो उस मव का मालिक वीरसेवा मन्दिर होगा। और गोयलीयजी ने पूर्ववत् प्रशासक के भार को अपने ऊपर लेकर मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था सवन्धी चिन्तामो का रास्ता साफ कर दिया। ऐसी हालत मे दीपमालिका से नये वीर निर्वाण सवत् के प्रारम्भ होते ही अनेकान्त को फिर से निकालने का विचार सुनिश्चित हो गया। उसी के फलस्वरूप यह पहली किरण पाठको के सामने उपस्थित है और इस तरह मुझे अपने पाठको की पुन सेवा का अवसर प्राप्त हुआ है। प्रसन्नता की वात है कि यह किरण आठ वर्ष पहले की सूचना अनुसार विगेपाक के रूप में निकाली जा रही है। इसका सारा श्रेय लालाजी तथा गोयलीयजी को प्राप्त हैखासफर अनेकान्त के पुन प्रकाशन का सेहरा तो लालाजी के सर पर ही वंचना चाहिए जिन्होंने उस अर्गला को हटाकर मुझे इस पत्र की गति देने के लिए प्रोत्साहित किया जो अब तक इसके मार्ग में बाधक बनी हुई थी।
इस प्रकार जव अनेकान्त के पुन. प्रकाशन का सेहरा ला० तनमुखरायजी के सिर पर बंधना था, तब इससे पहले उसका प्रकाशन कैसे हो सकता या ऐमा विचार कर हमे सन्तोप धारण करना चाहिए और वर्तमान के साथ वर्तते हुए लेखको, पाठको नथा दूसरे सहयोगियों को पत्र के सहयोग विपय मे अपना-अपना कर्तव्य समझ लेना चाहिए तथा उसके पालन मे दृढसकल्प होकर मेरा उत्साह बढाना चाहिए ।
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स्वजनों की ओर से श्रद्धाञ्जलियाँ
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श्री किशनलालजो
मोडलवस्ती, दिल्ली लालाजी मेरे मामा थे। मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हो सका कि में उनकी बीमारी की अवस्था में कुछ सेवा कर सका । इसे मैं अपना अहोभाग्य समझता है। वे एक प्रतिभा-मान्न समाज के नेता थे। जैन समाज शक्तिशाली और गौरवशील वने वे इस वान का सदैव प्रयत्न करते थे ।
___ श्रीभगवानदासजी जैन, मोडलबस्ती, दिल्ली
श्री शान्तिप्रसादजी जैन, सरिया, विहार हम अपने को वहा भाग्यशाली समझते हैं कि लालाजी की छत्रछाया हमारे ऊपर रही। हमारे जीवन पर उनका बडा प्रभाव है। उदारता, प्रेम और कर्तव्यपरायणता की भावना उनमे अनुपम थी। उन जैसे गुण समाज के युवको मे मा जावें तो हमारा समाज शक्तिशाली वन जाये ।
श्री कुलभूपणजी
रोहतक मेरे पिताजी का स्वर्गवास उस समय हुमा जव में ढाई वर्ष का था। मेरा पालन-पोषण ताऊजी ने किया। उनकी छत्रछाया में मैंने शिक्षा पाई और योग्य हुआ। मैं उनके ऋण से कभी उऋण नही हो सकता। ताऊजी ने धर्म और समाज की तो सेवा की ही उन्होंने परिवार की भी बहुत उत्तम रीति से सेवा की। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे परिवार में जन प्रकार के तेजस्वी नररत्न का जन्म हुआ।
श्री कलियारामजी
दरियागज, दिल्ली लालाजी को मैं अपने बड़े भाई के समान मानता है वे मेरे प्रत्यत निकट थे। मेरे दुख सुख के साथी थे। सदा मेरे मार्गदर्शक और सलाहगीर थे। उनके प्रभाव में मै अपने को असहाय अनुभव करता हूँ। सामाजिक कार्यों के करने मे उन्हे बड़ा उत्माह रहता था । जिमी बदले की इच्छा के विना परोपकार की भावना थी। उनका सिद्धात या 'नेसी कार परिया में डाल'।
श्री विद्यायती. स्वारानी
(दोनो पुनिया) पिताजी का हमारे ऊपर अपरिमित स्नेह पा। उन्होंने हमें मनी प्रगर योग्य बनाया। वे हमारी उन्नति का सदेव ध्यान रखते थे। प्रतियि सवार, नेवा मारमा चार वटी का सम्मान प्रादि गुण उनमे चूट-कूट कर भरे थे। बाहर में पान धारिया और कार्यकर्तामो का जब भी घर पर ग्राना होता उनी गरगा लिए
पीने पौर अपने को धन्य समभते उन्होंने मेवा को कभी भी कर गन्ना ही घर स्वर्ग बन जाता है। ऐसे मनुष्य रत्न को हमारा उनी गमों में गम्य ।
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पूज्य ताऊजी, ही हमारे सब कुछ थे। हमने अपने पिता के दर्शन भी नही किए वे छोटी श्रायु में ही हम सब चालको को छोड़कर स्वर्गं मिधार गए। हमारी माता असहाय थी । उसकी देखरेख और व्यवस्था का कोई साधन न था । परतु ईश्वर की कृपा से हमें इस बात का ऊपर किसी की छत्रछाया नहीं है। हमारा पालन पोपन, उत्तम रीति से किया जिसके कारण हम सब सुखी है और हृदय में विद्यमान रहेगी। हमारा उनके चरणो मे वारम्बार
कभी अनुभव नही हुआ । कि हमारे शिक्षा और विवाह का कार्य अत्यन सदैव उनकी पावन स्मृति हमारे नमस्कार हो ।
श्रमादेवी, संतोषकुमारी, त्रिशलादेवी (तीनो छोटे भाई की पुत्रियाँ)
स्नेहशील महापुरुष
भाई तनसुखराय हमारे ऐसे साथियो मे से ये जिन्हे देश, धर्मं मोर समाजकी सेवा मे Est आनद आता था । धार्मिक कार्यों में नर्वानता यावे समाज प्रभावशाली बने । रात दिन इस बात का ध्यान रखते थे । तीस वर्ष से हमारा उनका भाई जैसा सम्बन्ध था । पूज्य वर्णाजी के अनन्यभक्त थे । देश धर्म और समाज के सच्चे सेवक थे । सुधार वादी दष्टिकोण रखते थे । निर्भीक साहसी और स्पष्ट वादी समाज के कार्यकर्ता थे । उनके प्रभाव से समाज का एक तेजस्वी कार्यकर्ता चला गया जिसकी निकट भविष्य मे पूर्ति होनी कठिन है। मै उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ ।
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प्रसिद्ध समाजसेवी, श्रीमंत विद्वान् ला० राजकृष्णजी दरियागंज, दिल्ली
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श्री शांतिकुमार गोधा डिग्गी हाउस, जयपुर
लालाजी वडे सज्जन व स्नेहशील महानुभाव थे । धर्म और मनचाहा विषय था । सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र मे जो कार्य स्मरणीय रहेगे | मैं उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हू ।
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देश सेवा करना उनका उन्होने किए है वे सदैव
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पितृतुल्य स्नेहधारी
श्री नन्दनकुमार, हीरालाल मन्नूलाल
जुमती बाजार, मेरठ लाला तनसुखरामजी को मै अपने पिता के समान मानता था। सेवा का भाव मेरे हृदय में उनकी गतिविधियो को देखकर हुआ। वे जहा पहुच जाते वही के युवको मे उत्साह का सचार कर देते थे । उमग और उत्साह की साक्षात् मूर्ति थे । जैन समाज के अद्वितीय रल थे।
सफल कार्यकर्ता
श्री रतनलालजी
Ex. ML.A. उन्होने परिपद् मे कधे से कंधा मिलाकर बड़ा कार्य किया था। उनके प्रयास से परिषद् लोकप्रिय वन गई थी।
चमकते हुए हीरे
श्री जगत प्रसादजी
बम्बई भाई तनसुखरायजी के प्रति मेरे मन मे अगाध प्रेम था । मैं किन गन्दी मे उन्हें व्यक्त करू ? वे जैन समाज के ऐसे चमकते हुए हीरे थे जिन पर सभी को गौरव होता था। राष्ट्रप्रेम उनमे कूट-कूट कर भरा था। जब समाज से जाति के क्षेत्र में आए तो उन्होने आभातीत कार्य किया। परिषद् और वे एकार्थवाची हो गये थे। मैं उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता है।
कुशल कार्यकर्ता
रायवहादुर सेठ श्री हीरालाल जैन 'भैयासाहव
कल्याण भवन, इन्दौर लाला तनसुखरायजी का सार्वजनिक क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान था। मामाजिक कार्यों में उनकी विशेष रुचि थी। जलसा और दूसरे सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्था करने में वे अत्यन्त पटु थे। दिल्ली में जो उन्होंने मेरा सार्वजनिक स्वागत कराया वह मुखद स्मृति सदैव याद रहेगी।
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अद्वितीय समाज सेवक
उन जैसा समाज-सेवक और समाज के लिए टीस रखने वाला मुझे दूसरा कोई व्यक्ति दिखाई नही देता । उनकी कार्य-प्रणाली श्रोर ठोस कार्य करने की शक्ति से मै तव से परिचित हू जब १९३५ मे साबू क्षेत्र पर यात्रियो के लिए गवर्नमेंट द्वारा लगाये टैक्स का उन्होने डटकर विरोध किया था और हम जैसे युवको को आह्वान किया था । अब तो उनका व्यक्तित्व, प्रभाव और सेवा का ढग केवल रमरणीय रह गये है ।
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उनके स्थान की पूर्ति होना कठिन है । मैं और मेरी श्रीमती उनकी श्रात्मा की शांति के लिए कामना करते है तथा आपके प्रति हार्दिक सहानुभूति प्रकट करते है । भगवान् श्री जिनेन्द्र से प्रार्थना है कि वे आपको इस असह्य कष्ट को सहन करने का बल प्रदान करें ।
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सेवाभावी, मधुरभाषी
श्री दरबारीलाल जैन न्यायाचार्य M. A.
स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी की स्मृति में आप एक प्रथ प्रकाशित कर रहे है जिसका सूचना पत्र प्राप्त हुआ । पढ कर बहुत ही खुशी हुई ।
मेरा भी उनके साथ कुछ सपर्क दिल्ली में दो तीन बार हुआ था। इनकी सेवाभावी मिलनसार वृत्ति से मै परिचित हूँ और उनके चतुराई भरे मधुर शब्द अभी तक नही भुला सका हूँ । उनका सार्वजनिक कार्य में सपर्क तो बहुत ही था और ऐसे सेवाभावी व्यक्ति के लिए स्मृतिग्रन्थ प्रकाशित करने का आयोजन आपने किया इसके लिए अनेक धन्यवाद । उनकी पुण्यस्मृति मैं मै श्रद्धाजली भेंट करता हूँ ।
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बड़े मेहवाननवाज़
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श्री भगवतीप्रसाद खेतान खेतान भवन, बम्बई
श्री उग्रसेन जैन
मंत्री भा०वि० जैन परीक्षाबोडं, काशीपुर (नैनीताल)
भाई तनसुखरायजी बडे उत्साही कार्यकर्ता थे । उनमे टक्कर लेने की शक्ति थी । और कुशल प्रबन्धक तथा मेहमाननवाज थे। मेरा उनका ३५ वर्ष से अधिक समय से सम्पर्क रहा । परिषद् के कार्यों में उनके सामने बडी-बडी कठिनाइया भाईं परन्तु उन्होने उसकी थोडी-सी भी चिंता नही की और लगातार जीवन भर समाज और देशसेवा के कार्यो मे लगे रहे।
मैं ऐसे कर्मबीर पुरुष के प्रति हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करना है ।
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प्रेरणा प्राप्त करें
श्री भुवनेन्द्र 'विश्व
जवाहरगंज, जबलपुर स्व० तनसुखरायजी का स्मृति-ग्रन्थ तैयार करने का आयोजन किया जा रहा है। यह समाज के लिए गौरव का विषय है कि वह अपने कर्मठ व्यक्तियो का समुचित सम्मान करने के लिए प्रयत्नशील है।
मेरा उनका कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं था फिर भी मै उनकी समाज सेवा की लगन से बहुत प्रभावित रहा हूँ।
मेने उनको झासी और दिल्ली के परिषद्-अधिवेशन मे देखा है। हर काम मे उन्ही को सक्रिय सहयोग देते हुए देखकर लगता था कि यदि परिषद् का प्रत्येक कार्यकर्ता इसी लगन से समाज सेवा मे तत्पर रहे तो परिपद् अपने उद्देश्य मे पूर्ण सफल हो सकेगी।
मैं प्रत्येक नवयुवक से आग्रह करता हूँ कि वह भी अपने आपको स्व० तनसुखरायजी के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करे और उनकी तरह से तन, मन, धन और मनसा वाचा कर्मणा जाति, समाज और देश की सेवा में समर्पित कर दे।
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परिषद् का सपूत
श्री सलेकचंद जैन
बड़ौत (मेरठ) समाचार पत्रो मे कई वार पढने मे पाया है कि ला० तनसुखराय जैन की स्मृति मे एक पथ निर्माण किया जा रहा है । इस बात से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। लालाजी की स्मृति मे अथ का प्रकाशन समाज को उदारता का परिचायक है । वास्तव मे ला. तनसुखरायजी, जैन समाज में अपने समय के एक क्रातिकारी, समाज-सुधारक, तथा जैन समाज में नव-परिवर्तन करने वाले बडे साहसी पुरुप हुए है। लालाजी ने लगभग ४० वर्ष तक निरन्तर जैन समाज की सेवा में अपना समय लगाया और साथ-साथ अपने तन, मन, धन को लगाया। जो भी कदम उठाया वह अति प्रशसनीय तथा सराहनीय रहा । परिषद् से लालाजी अधिक प्रकाश में आये किन्तु मुझे यह कहने मे जरा भी हिचक नही कि परिपद् की नीव को सुदृढ करने तथा परिषद् को ख्याति बननेबनाने मे लालाजी का सहयोग एक वरदान सिद्ध हुमा है । ला० तनसुखरायजी जैन ने परिपद् के प्लेटफार्म से जैन समाज को नवीनता दी। समाज मे नव-चेतना का संचार किया। मुझे यह कहने में कोई सकोच नहीं कि उनकी मृत्यु के पश्चात् अब परिषद् शक्तिहीन और निर्बल सस्था पड गई है। लालाजी परिपद् के सजग प्रहरी थे। उनकी स्मृति में प्राज जैन समाज की भोर से यह स्मृति-प्रथ प्रकाशित करना अपने योग्य तथा कर्मठ कार्यकर्ता के प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता है ।
अन्त मे-"वे अमर रहे हजारो वर्ष, हर वर्ष के हो हजार दिन"।
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देशभक्त और प्रबल समाजसुधारक
माननीय श्री चिरंजीलाल जी वड़जात्या
LKEdit
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माननीय श्री वडजात्याजी जैन समाज के पुराने समाजसेवी और कट्टर देशभक्त है । पूज्य गाधीजी के पाचवे पुत्र स्वनाम धन्य सेठ जमुनालाल जी बजाज के यहा प्रमुख कार्य करने वाले कार्यकर्ता है। गाधीजी की शिक्षामो को आपने अपने जीवन में उतार कर सात्विक रहन-सहन और उच्च विचारो का महान मादर्ण प्रस्तुत किया। लाला तनमुखरायजी से पाप अत्यधिक प्रभावित थे। आपके भावमयी उद्गार प्रशसनीय और उनके प्रति अमीम प्रेम प्रकट करने वाले है। आपने ग्रन्थ के कार्य मे पूर्ण सहयोग प्रदान किया है।
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आदरणीय लाला तनसुखरायजी जैन समाज में एक सम्माननीय व्यक्तियो मे हो गए। स्व० लालाजी का नाम जैन समाज के इतिहास मे स्वर्णाक्षरो से लिखा जाएगा। निःस्वार्थ भाव से देश एव समाज की उनके द्वारा अनेक सेवाएं हुई है।
वे दिगम्बर जैन परिषद के मत्री थे। समाज मे जो अनेक त्रुटियों थी उनमे सुधार कर समाज के अनेक पंथो को एक सूत्र मे लाने का महान कार्य उनके उत्साह एव सहयोग से ही पूरा हो सका है। अन्तर्जातीय विवाह के वे बहुत-बहुत पक्षपाती थे जिस कारण अनेक अन्तर्जातीय विवाह सम्पन्न हुए। समाज के पढ़े-लिखे और होनहार विद्यार्थियो पर उनका बहुत स्नेह था । इस लिए ऐसे विद्यार्थियो को जगह-जगह अच्छे काम पर लगा दिया करते थे। वह विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति भी दिलवाते थे और खुद के पास से स्वय देते भी थे।
___ स्व० लालाजी बटे शान्त, नम्र और धैर्यशाली व्यक्तियो मे से थे। किसी बात का निर्णय वह जल्दवाजी मे न कर बहुत सोचकर ही उचित निर्णय करते थे। इस कारण कितना भी दुखी हृदय का व्यक्ति उनके पास जावे वह सुखी और समाधान कर ही उनके पास से लौटता था।
श्री तनसुखरायजी भारत जैन महामडल की पकिंग कमेटी के भी एक सदस्य थे इस कारण उनके विचार का लाभ मडल को हमेशा मिलता रहा है। समन जैन समाज को एक सूत्र ७२ ]
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मे लाना और समाज मे भाईचारा बढाना जैसे जटिल कार्य मे उनका सहयोग हमेशा मिलता रहा है।
उनका मुझ पर भी बड़ा स्नेह था । जब तीन साल पहले लकवे से मै वीमार हो गया था तव उनके कई स्नेह भरे पत्र मुझ को मिले जिससे मुझे बहुत शान्ति मिली और सनोप भी हुआ । वाद में मेरे स्वास्थ्य मे कुछ सुधार होने पर जव में दिल्ली गया तो उनसे मिला था। हमारी अनेक विषयो पर चर्चा हुई। यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। पता नहीं था कि वह इतनी जल्दी हम लोगो से बिछुड जावेगे। बाद मे वह अचानक बीमार हो गए जिस कारण हमको चिन्ता होना स्वाभाविक था। इस बीच मे उनके स्वास्थ मे कुछ सुधार भी हुआ लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था। ईश्वर की इच्छा । अन्त मे वह हम लोगो को छोड़कर चले ही गए। उनके स्वर्गवास से हमको वडा आघात पहुंचा क्योकि वह मेरे अभिन्न मित्रो में से थे। जब भी मै उनसे मिलता था मेरे को बडी शान्ति मिल जाती थी। उनका हसमुख चेहरा और मधुर स्वभाव हमेशा हमको स्मरणीय रहेगा। मै उनकी धर्मपत्नीजी से भी दो-तीन बार मिला था और कई बार उनके यहां भोजन का साथ भी मिला था। लालाजी जैसे बहुत कम व्यक्ति इस ससार मे जन्म लेते है और समाज पर अपनी छाप छोड़कर महाप्रस्थान करते है ।
श्रीमान लालाजी श्री तनसुखरायजी से मेरा परिचय करीवन ३५ सालो से था। दिल्ली निवासी श्री लालाजी जोहरीमलजी सर्राफ बडा दरीवा ने मेरी उनसे मुलाकात करवाई थी। मुझ पर उनके व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। मैने एक दम निश्चय कर लिया कि श्री लालाजी द्वारा देश व समाज की बहुत सेवा होगी तत्पश्चात क्रमश खडवा, सतना, जवलपुर में हुई भारत दिगम्बर जैन परिषद् के अधिवेशन मे उनसे मुलाकातें हुई । सभा का अधिवेशन व जिस उत्साह से, जिस लगन और सुचारु रूप से करते थे वह तो में ताकता ही रह जाता था। मुझे उन पर गर्व था। समस्त जैनीवर्ग मे रोटी-बेटी व्यवहार चालू हो इस बात के लिए वे सदा ही प्रयत्नशील रहते थे। दस्सा-पूजा-अधिकार के आन्दोलनो के वे समर्थक थे व इस आन्दोलन मे उन्होने काम भी किया था। पूज्य श्री महात्मा गावीजी के सिद्धान्तानुसार वे सदा असहयोग आन्दोलन में भाग लिया करते थे व जेल जाने वालो की वे हर प्रकार से मदद करते थे। खादी आन्दोलन की शुरूपात से ही वे खादी पहनने लगे और जीवनपर्यन्त पहनते ही रहे। दलित-जातियो व अछूतोबार के काम में वे हमेशा सलग्न रहा करते थे। जब सन् १९२६ में कानेस की सेवा मे मेरी सम्पत्ति खत्म हो गई थी तव लालाजी ने ही मुझे उत्साह हिम्मत बढ़ाई थी। मुझे जव लकवा मार गया था तब हमेशा उनके सान्त्वना भरे पत्र प्राते रहे थे और जव ठीक होने के बाद में उनके पास दिल्ली गया तो कुछ कमजोरी तथा प्रेमवश मा जाने की वजह से मै बहुत रोया तब उन्होंने मेरी हिम्मत को सुदृढ बनाया। मुझे धैर्य प्रदान करते रहे। आबू जैन मन्दिर मे यात्रियो पर सरकार ने टैक्स लगाया था उस आन्दोलन में भी उन्होने बहुत काम किया। मेरे मालिक श्री कमलनयननी बजाज के सभापतित्व मे उन्होने 'अग्रवाल महासभा' का अधिवेशन करवाया था। श्री कमलनयनजी उनके काम की बहुत तारीफ करते थे।
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मैं जब-जब भी दिल्ली जाता था तब-तब में रोज उनसे मिलता था। जिस दिन उनसे नही मिलता था उस रात की नीद ही हराम हो जाती थी। लालाजी साक्षात करुणा व दया की मूर्ति थे। मैं उनको एक तरह से देवता ही समझता था वर्धा प्राए थे और हर बार अपने चरणकमलो से मेरे घर को पवित्र किया था । परिषद् के तो वे प्राण ही थे । दिगम्बर जैन परिपद् का अधिकाश काम उन्होने ही किया था । उनकी अभिलाषा थी कि दिल्ली मे समस्त जैनियो का एक कनवेन्शन किया जाय मगर बीमार हो जाने की वजह से उनकी इच्छा अधूरी ही रह गई। भारत जैन महामंडल वर्किंग कमेटी के वे मेम्वर थे ।
वे चार बार दिगम्बर जैन
मेरे तो वे खास मित्र थे । उनके स्वर्गवास से मुझे बहुत दुख पहुँचा । उनके निधन से समाज को व देश की बहुत बडी हानि हुई है। मे हृदय से उनको श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ । लाला तनसुखरायजी ने सैकडो विद्यार्थियो को पुरस्कार दिए और दिलाए । सैकडो नौजवान ( जैन अजैन) को नौकरी से लगाया । अपने यहाँ रखा और दूसरी जगह भी रखवाए। जैन भारतमडल का २० वर्ष कार्य किया । उसमे उन्होने हर प्रकार की मदद की, सहयोग दिया । तिलक बीमा कपनी मे कई नौजवानो को नौकरी से लगवाया। एक प्रकार से जैन सगठन था ।
प्रसिद्ध समाजसुधार और मूकसेवक
जैन
कुमार रांची (बिहार)
श्री रतनेश
स्व० लाला श्री तनसुखरायजी की स्मृति मे आप स्मृति-प्रथ प्रकाशित करने जा रहे है । लालाजी की सेवाए धर्म, समाज एव राष्ट्र के क्षेत्र मे सदैव स्मरण होती रहेगी। आपके कार्य की अवश्यमेव सराहना करूंगा कि कार्यकर्ताओ को उनके दिया जाना चाहिये । जीवितावस्था मे नही तो मरणोपरात ही सही ।
अनुरूप सम्मान इसी तरह
मैंने लालाजी के कई दफा दर्शन किए है और परिषद् के देवगढ अधिवेशन मे उनकी चिर कार्य प्रणाली देखने का अवसर भी मिला है ।
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आशा है आपका प्रयास ऐसा ठोस प्रयास होगा जिसे युगो तक अनुकरणीय रूप में वे स्मृति रूप मे सजो कर रखा जाएगा ।
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काम करने की अद्भुत शक्ति
श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल
नई दिल्ली
ला० तनसुखरायजी को मै अर्से से जानता हूँ | आप एक परिश्रमी, उद्योगी, धर्म-प्रेमी व्यक्ति थे । आप मे काम करने व लेने की अद्भुत शक्ति थी। आप जिस काम को हाथ में लेते थे, पूरा करके ही छोडते थे। आपने कई आन्दोलनो का भी श्रीगणेश किया, कई समा-सोसाइटियो में भी कार्य किया। सवका श्रेय आपको ही है । आपके जीवन से सबको सवक लेना चाहिए ।
* * * * पत्रकारों की दृष्टि में
श्री उमाशंकर शुक्ल
वर्षा
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप श्री तनसुखराय स्मृति-नथ के प्रकाशन का आयोजन कर रहे है । उनसे मेरा परिचय तो नही था किन्तु उनके बारे मे जो जानकारी प्राप्त हुई, उससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आपने यह जो महत्वपूर्ण काम अपने हाथ में लिया है, उससे संकहो, हजारो व्यक्तियो को स्व० तनसुखरायजी के जीवन से स्फूर्ति व प्रेरणा प्राप्त होगी। मैं आपके इस साहस की सराहना करता हू तथा ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मापने यह जो पुण्य कार्य हाथ मे लिया है, उसमे आपको सफलता प्राप्त हो । मै लालाजी को अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
ग्रथ यदि मुझे प्राप्त हुआ तो मैं उस पर कुछ लिखू गा।
पंजाब में जागृति का श्रेय
श्री गुलाबसिंह जैन एडवोकेट
हिसार (पंजाब) पूज्य बडे भाई साहब ने पजाब प्रान्त के बड़े २ शहरो मे धर्म जागृति पैदा करने में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया। अन्य प्रान्तो की अपेक्षा इस प्रान्त मे त्यागी विद्वानो का पदार्पण वहुत कम होता है । इसलिए धार्मिक जागृति बहुत कम दिखाई देती है। परन्तु कार्य करने की लगन और धर्म श्रद्धा स्वभाव से इस प्रान्त में विशेष है। गोहाना, रोहतक, हिसार, अम्बाला आदि स्यानो पर जो समाज मे विशेष उत्साह दिखाई देता है उसका श्रेय स्व० लाला तनसुखराय जी को है।
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मार्ग दर्शक
श्री गिरिवरसिंह
बडौत (मेरठ) सन् १९४४.४५ में दिल्ली के परेड ग्राउड में दि० जैन परिपद् की ओर से एक महान् सम्मेलन का आयोजन था । वडा पडाल, ऊचे-ऊचे शामियाने, बडा-सा मच था उसमें । सम्मेलन मे एक विशेप-प्रस्तावपेश किये जाने की चर्चा थी। जैन-जनता का सागर कुछ पक्ष मे, कुछ विपक्ष में उमड पडा । प्रस्ताव समय पर घटित हुआ । विरोधी पार्टी ने इतना शोर-गुल मचाया कि उत्सव का रूप भीषण संघर्ष में बदल गया । जलसे की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी। उपस्थित नेतागण, पडित वृन्द तथा अनेक वक्ता एव सम्भ्रान्त अतिथि भाग-दौड में निकलने और जान बचाने आ मार्ग खोजने लगे । ऐसे समय मे लालाजी ने युक्ति से काम लिया । उन्होने पडाल की पिछली और की कनाते तुटवाकर एक छोटा-सा द्वार बनाया और सम्य-जनो को ससम्मान उस उमड़ती भीड मे से कुशलपूर्वक निकालकर सुरक्षित स्थान पर भेजा । उस समय की लालाजी की सूझ और विरोधी पक्ष का आक्रमणात्मक भयावना दृश्य मुझे अभी तक खूब याद आता रहता है।
__लालाजी का हृष्ट-पुष्ट शरीर रोग से जर्जरित हो गया था । घुटनो मे दर्द और प्रांखो में पीड़ा रहने लगी थी। पाखो की शक्ति कम हो जाने मे, वे अव बहुधा रोग-गग्या पर ही रहने लगे थे। एक दिन में उनसे मिलने के लिए उनके पास गया, मैने जीने मे से ही आवाज़ लगाईलालाजी | और वे 'पायो भाई आओं' कहते हुए वे खडे होकर मुस्कराने लगे। बैठने का संकेत करते हुए, झिझकते से बोले-ऐं आप, आप कौन साहब हैं। मैं चकित-सा होकर वोला। लालाजी | क्या आपने मुझे नही पहिचाना है। और उन्हें कुछ चेत-सी आई । बोले, महा! अरे भाई गिरिवरसिंहजी हैं । अपने पर वे पश्चाताप-सा करते हुए बोले, भाई | कम सुनने लगा है। कम दीखने लगा है । नाराज़ न होना । इतना कहते-कहते वे घर में गये, ४ केले, २ सन्तरे और कुछ मिष्टान लाकर मेरे सामने रख दिया। अब मैं उनकी आत्म-वत्सलता, ममत्व और निश्छल प्रेम पर विचार करते हुए उनसे अनेक बातें कर रहा था।
मैं सन् १९६३ मे पुस्तकालय-विज्ञान के प्रशिक्षणार्थ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ गया। मेरी आथिक स्थिति सीमित थी। परिवार का भार वहन करने में भी मैं भगक्त था। उन दिनो ला० नन्हेमल जैन जिन्दा थे और मैंने उन्ही की प्रेरणा से प्रेरित होकर वहा जाने का साहस किया था । यूनीवसिटी से स्वीकृति और उघर आर्थिक विषमता, से मैं परेशान था। लालाजी के फह से मासिक छात्र-वृत्ति का वचन मिलने से मैं ट्रेनिंग पर चला गया। कुछ कालान्तर पश्चात् छात्रवृत्ति का मिलना वन्द हो जाने से मैं दुविधा में पड़ गया। ट्रेनिंग रूपी सरिता की मझवार मे मेरी तरणी डावा-ढोल थी। इसको पार लगाने के सहायतार्थ एक पत्र मैने लालाजी को अलीगढ से लिखा । उन्होंने तुरन्त अपनी भगनी की पुत्र-वधू को जिनके पास छात्रो के लिये मासिक-छात्रवृत्ति का कोप था, एक पत्र भेज देने के लिये मुझे लिखा। तुरन्त वहां से सहायता चालू हो गयी और मैं गान्ति-पूर्वक शिक्षण प्राप्त कर वहां से चला आया। ७६ ]
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एकता के स्तंभ
सूरजभान जैन "प्रेम"
प्रागरा
लालाजी की जीवन-यात्रा
मानव जीवन के दो पहलू है एक सामाजिक दूसरा धार्मिक । लालाजी ने अपने जीवन I मे दोनो भागो को अपनाया था। उन्होने सामाजिक और धार्मिक दोनो क्षेत्रो मे अपना जीवन व्यतीत किया । राष्ट्रीयता, परोपकार, सेवाभाव और सदाचार उनके जीवन के मुख्य अग थे । उन्होने देश सेवा को अपने जीवन मे उतारा और भगवान महावीर के दो अटल सिद्धान्त सत्य और अहिंसा को अपने जीवन मे अपनाया। बड़े वडे विद्वानो का मत है कि वह जीवन क्या जिसे कोई जान न सके । यो तो पशु भी अपना जीवन व्यतीत कर जाते हैं । और मनुष्य भी अपने परिवार के भरण पोषण करते-करते ससार चले जाते है। उन्हे कोई ज्ञान ही नही होपाता कि क आए और कब गए। ऐसे बिरले ही व्यक्ति होते 'देश सेवा मे रत रहते हुए धार्मिक ज्ञान उपार्जन कर अपना कल्याण कर जाते है । और अपनी स्मृति छोड़ जाते है । ऐसे बिरले व्यक्तियो मेलाला तनसुखरायजी का नाम भी आता है, जिन्होंने अपने जीवन का एक एक क्षण परोपकार और देश सेवा मे लगाया ।
समाज की एकता के लिए ग्र० भा० दि० जैन परिपद् मे आपने तन, मन, धन से पूरा सहयोग दिया । आज यह परिषद् का वृक्ष आपका सीचा हुआ ही है ।
लालाजी का जन्म सन् १८९९ मे सुलतान में हुआ । आपके पिता श्री जौहरीलालजी अग्रवाल जैन थे । सन् १९०८ में व्र० शीतलप्रसादजी मुलतान पवारे । वह उनकी सेवा करते रहे । वचपन से ही लालाजी को धार्मिक प्रवृत्ति और सामाजिक कार्यों मे अनुराग रहा ।
सन् १९१४ मे इनके पिता कुटुम्ब भटिंडा चले गए । उन्होंने सन् १९१८ में सरकारी रेलवे विभाग मे नौकरी की । सन् १६२१ मे गाधीजी के श्रसहयोग के कारण राजनैतिक क्षेत्र में सक्रिय सहयोग देने लगे और त्यागपत्र देकर नौकरी छोड दी। स्वदेशी वस्त्रो और वस्तु के प्रयोग का वृत्त ले लिया तथा सैकडो व्यक्यिो स्वदेशी वस्तुओ की प्रतिज्ञा कराई । खादी प्रचार, हिन्दी भाषा प्रचार समिति में जोरो से काम किया । सन् १६२४ मे आप अपने जन्म स्थान रोहतक मे प्रागए । सन् १९२६ मे पंजाब की क्रान्तिकारी सस्था नौजवान भारत सभा के सदस्य बने । १९३३ तक आपने असहयोग आन्दोलन मे जोरो से कार्य किया । जिससे सी० आई० डी० पुलिस भी २ साल तक पीड़ लगी रही और ८ मास का कारावास भी भोगना पड़ा । सन् ३१-३२ मे हरिजन सुधार का भी कार्य किया। इस बीच मे पंजाब कान्तीय काग्रेस कमेटी की कार्यकारणी के सदस्य चुने गए और काग्रेस ने श्रापको प्रतिनिधि चुन कर लाहौर अधिवेशन में भेजा । वैसे तो राष्ट्रीयता से जीवन भर प्रेम रहा और दीन दुखियो के प्रति करुणा भाव सदा ही उमडता रहा । सन् १९३३ मे रोहतक मे वाढ आई और आपने वाढ पडितो के लिए एक रिलीफ कमेटी बनाई ।
[ ७७
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सन् १९३४ मे आप लक्ष्मी बीमा कपनी के मैनेजर होकर दिल्ली चले पाए और इसी साल दिल्ली में आपने अ० भा० दिगम्बर जैन परिषद् का सफल अधिवेशन कराया। उसमे आप स्वागत समिति के प्रधान मत्री थे। यह अधिवेशन बडी सज धज के साथ विशाल पैमाने पर हुमा।
आपने सन् ३४ से ३८ तक ५ वर्ष तक परिपद् का कार्य बहुत जोरो से किया। देश भर मे इसका प्रचार किया और कई स्थानो पर परिषद् के सफल अधिवेशन कराए। वास्तव मे पाप परिषद् के प्राण थे।
सन ३६ मे पापने कोआपरेटिव बैक और जैन क्लब की स्थापना की । वीर सेवा मदिर के वीर शासक जयन्ती समारोह मे सभापति बनाए गए। उसी वर्ष निवसेडा मे भीलो की सभा के प्रधान बनाए गए और आप ने ५००० भीलो से मास-भोजन का त्याग कराया।
सन् ४० में जिला मडल के प्रधान मत्री और ४१ मे नई दिल्ली काग्रेस कमेटी के प्रधान चुने गए। सन् ४२ ४३ मे काग्रेस के "भारत छोडो" आन्दोलन मे तन, मन और घन से पूरा सहयोग दिया। सन् ४४-४५ मे वनस्पति घी निपेष कमेटी के पद पर रहते हुए हजारो व्यक्तियो के हस्ताक्षर करा कर सरकार के पास भेजे ।
सन् ४६ मे अ०भा० मानव धर्म सम्मेलन के प्रधान मत्री रहकर जोरो से कार्य किया। सन् ४७ से ५१ तक अग्रवाल महा सभा और नारवाडी सम्मेलन के कार्य को खूब बढाया और प्रधान मत्री चुने गए। इसके पश्चात् प्रधान भी बनाए गए। सन् ५५ मे भारत के शाकाहार का प्रचार किया। सन् ५६ से ५८ तक जैन परिषद् के खडवा अधिवेशन में प्रधान मंत्री चुने गए और दरियागज दिल्ली काग्रेस मडल के सदस्य चुने गए। सन् ५८ से १४ तक अस्वस्थ रहते हुए भी मे यथाशक्ति भाग लेते रहे। इसप्रकार पापका सारा जीवन सामाजिक, राष्ट्रीय
और धार्मिक कार्यों में व्यतीत हुआ। अन्त मे १४ जुलाई ६४ को अपना व्यक्तित्व दिखा कर ससार से विदा हो गए।
मनुष्य की उन्नति के लिए जैन धर्म का चरित्र बहुत ही लाभकारी है। यह धर्म बहुत ही ठीक, स्वतन्त्र, सादा तथा मूल्यवान है। ब्राह्मणो के प्रचलित धर्मों से वह एकदम भिन्न है। साथ ही साथ वौद्ध धर्म की तरह नास्तिक भी नहीं है।
-मेगास्थनीज, नीक इतिहासकार
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अदम्य साहसा
श्री कौछल जी धकील
सागर
श्री लालागी मेरे प्रात्मीय मित्रो मे से
मध्य भारत के लब्ध-प्रतिष्ठित वकीलो रहे । मेरा उनसे धनिष्ठ प्रेम रहा। मेरा
मे श्री कौछल जी का नाम विशेष रूप से उनसे सन् १० मे अधिवेशन काल से सम्बन्ध
स्मरणीय है जो समाज और देश सेवा के रहा और मेरे सभापतित्व मे जो परिषद् ने
लिए सदैव अग्रसर रहते है। आपके समाज जैन समाज के एकीकरण और साम्प्रदायिकता
में सुधार करने का भाव प्रशसनीय है। तथा जातिवाद को नष्ट करने में जो कार्य
लालाजी के साथ प्रापन जाति में सुधार और किया, और आर्थिक परिस्थिति जव परिषद्
रूढ़ियो के विरोध में ऐसी शक्तिशाली की ठीक नहीं रही उस समय तूफानी दौरा
आवाज उठाई जिसके कारण मध्य भारत में करके तथा आबू के धर्म-विरोधी कर का
| अपूर्व जागृति दिखाई देती है। आपका उन्मूलन करके रहे। साथ-ही-साथ जन ।
| लालाजी के प्रति अति अनुराग था। श्वेताम्बरी साधुवर्ग और कार्यकर्तामो का - अनन्य सहयोग प्राप्त कर विजयश्री परिपद् को प्रदान की। कितना परिश्रम ग्रीष्म-काल में राजपूताना का दौरा कर उठाया कितनी सहिष्णुता और त्याग लालाजी ने किया। यह उनके अदम्य साहस का पमिचय है। मेरा उनसे इतना भाईचारा रहा है कि जो अन्त समय तक वना रहा । सन् ६२ में मेरी उनसे आखिरी मुलाकात हुई जब वे रोग मै असित थे, मगर फिर भी उनके प्रेम मे वही प्रात्मीयता रही।
-l
मानवता के महान पूत
श्री ग्यानवती जैन जनयात्रा संघ, दिल्ली
हे धरती के प्रिय सपूत ।
जन मत के तनसुखराय प्रिय ॥ विश्वशान्ति के अडिग प्रणेता।
अमर वीर सेनानी हिय ॥ धन्य-धन्य तन श्रम निर्माता।
शान्त कान्त के अग्रिम दूत ॥ सादर श्रद्धा पुप्प समर्पित।
__ मानवता के महान पूत ॥ x x
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मेरे सामाजिक गुरु
मैं लाला तनसुखरायजी को सन १९३२-३३ से जानता था, परन्तु मुझे उनके साथ कार्य करने का अवसर १९४४ से हुआ। लाला दीपचन्दजी सम्पादक वर्धमान यादि के प्रयत्नो से दिल्ली मे स्थानीय अ० भा० दिगम्बर जैन परिपद की शाखा स्थापित हुई जिसमे मत्री पद का कार्य करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुया । तव से लालाजी से मेरा सम्पर्क दिनो दिन बढता गया ।
श्री भगतरामजैन बहादुरगढ़ रोड, दिल्ली
लाला भगतरामजी परिपद के प्रतिष्ठित कार्यकर्ताओ मे से है । बहुत अच्छे समाजसेवी और उत्तम आन्दोलन करने वाले है | महावीर जयन्ती के जलूस और परिपद के कार्यों में सदैव अग्रसर होकर सेवा के कार्यों मे अग्रसर रहते हैं। समाज को आपसे वडी प्राणाये है।
परिपद के मुजफ्फरनगर अधिवेशन पर लालाजी प्रधान मंत्री व मुझे मन्त्री चुने जाने के कारण सामाजिक कार्यों मे उनका मेरा हर समय का साथ होगया । वाद मे तो वह इतना बढ गया कि हर सामाजिक कार्य मे वह मुझे अपने साथ रखते थे ।
वह कार्यकर्ता की बडी कदर करते थे व उसकी हिम्मत बढाते रहते थे । उनमे प्रचार अपने ढंग से करते थे । दूसरो का
करने का बड़ा गुण था । जब भी कोई कार्य हाथ मे लेते थे, दखल उन्हे पसन्द नही होता था । अपने विचार के पक्के थे। उनके समय मे समाज मे कई आन्दोलन हुए । उन्होने वडी हिम्मत से उनका प्रचार किया। हर क्षेत्र में उनके कार्यों के कारण उन्हे प्रतिष्ठा प्राप्त हुई । उनका समस्त जीवन राष्ट्रीय व सामाजिक कार्यो मे अधिकतर
लगा ।
उनका स्वभाव गर्म होने पर भी थोड़ी देर मे ठीक हो जाता था। मेरे साथ अनेको अवसर प्राये कि वह विगडे परन्तु कुछ देर बाद वैसे के वैसे हो जाते थे । सुधारक होने पर भी धर्म मे पक्के थे। जैन धर्म की मान पर हर जगह लोहा लेने को तैयार रहते थे । उनके विषय मे क्या लिखू, समझ मे नही था रहा है। अनेको उदाहरण है जिनसे उनकी हिम्मत, कार्य करने की दृढता की झांकी प्राप्त हो सकती है । परन्तु में केवल एक का उलेख यहा करके अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता हू ।
८० ]
१९५० में जब परिषद का अधिवेशन दिल्ली में हुआ, उसमें आने वाले हरिजन मन्दिर प्रवेश के प्रस्ताव पर समाज मे वडा वादविवाद हुआ था। उसके पास होने के कुछ दिनो वाद मुझे तीन पत्र प्राप्त हुए जिनमे बडा बुरा-भला लिखने के साथ-साथ मारने तक की
(शेप पृष्ठ ८२ पर)
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मंजुल मूर्ति
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श्रद्धामय व्यक्तित्व
श्री केशरलाल बशी न्यू कालोनी, जयपुर
लाला तनसुखरायजी जैन बडे ही उच्च व उदार विचारो के व्यक्ति थे । वे सच्चे देशभक्त, प्रसिद्ध समाज सेवी व कर्मठ नेता थे। युवको मे नवीन जागृति पैदा करना व उन्हे देश तथा समाज सेवा के लिए प्रोत्साहन देने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। उनकी प्रकृति व आकृति भी बहुत सौम्य थी । उनकी सम्पर्क मे जो भी व्यक्ति एक बार आ जाता था, वह उनके आकर्षण के कारण सदा के लिए उनका हो जाता था ।
माननीय केशरलालजी वस्शी जयपुर जैन समाज के वयोवृद्ध समाज सेवी और सुप्रसिद्ध कार्यकर्ता है। आपकी देखरेख में कई संस्थाओ का सचालन सुचारु रूप से चल रहा है। लालाजी के आप पुराने मित्र है । श्रापने लालाजी के प्रति उत्तम उद्गार प्रकट किए है ।
वैसे लालाजी से मेरा परिचय तो बहुत समय पहले से था, लेकिन उनसे निकट सम्पर्क सन् १८५२ मे हुआ, जब कि उन्होने उद्योग उन्नतिमडल नाम की सस्था का जयपुर में उद्घाटन किया और उसका ग्राफिस मेरे मकान बख्शी भवन, न्यू कालोनी, जयपुर मे ही रखा तब से मेरा उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध वढता हो गया- और मैने उन्हे अत्यत ही व्यवहारिक व सर्वसम्पन्न व्यक्ति पाया । उन्होने इसी विशेष गुण के कारण प्रत्येक क्षेत्र मे सफलता प्राप्त की।
आज जब कि देश व समाज में उनके जैसे कर्मठ व समाज सेवी नेता की अत्यत आवश्यकता थी, वे हमारे बीच मे से असमय मे ही उठ गए। समाज मे उनके प्रभाव की क्षति पूर्ति निकट भविष्य में सम्भव नही है । मे दिवगत आत्मा के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
( पृष्ठ ८० का शेप )
धमकी दी गयी थी । जब परिषद में उन पत्रो पर चर्चा चली, तव किसी की राय थी कि इन्हें पुलिस मे दे दिया जावे, किसी की राय थी कि ऐसी तरफ ना जाया जावे जहा इसका डर हो, व हिफाजत से जाया जावे श्रादि २, परन्तु लालाजी ने कहा था कि इन पत्रो को पुलिस मे देने की आवश्यकता नही है और न किसी प्रकार का भय खाने की, वेफिक्र जहा भी आओ जाओ । मेरी राय भी उनके अनुसार थी। ऐसा ही किया ।
२]
लालाजी को मैं अपना सामाजिक गुरू मानता था। जब भी कोई अडचन माती थी उनसे विचार-विमर्श करने पर हल जाती थी । इतनी लगन वाले बहुत ही कम पैदा होते है ।
श्रीन
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निडर कार्यकर्ता
श्री विशनचन्द न ओवरसियर साहू सीमेट सर्विस, नई दिल्ली
मापसे लगभग ३० वर्ष पुराने सबन्ध थे। लाला विशनचन्दजी लालाजी के पुराने जब भी मैं बाहर से दिल्ली आता, मापसे | साथियो मे से है। महावीर जयन्ती का उत्सव जरूर मिलता था, और आपसे जैन धर्म प्रचार प्रारभ कराने और जैन मित्रमडल द्वारा साहित्य व जैन समाज की उन्नति के सम्बन्ध मे बातें | वितरण करने का कार्य प्रापकी देखरेख में हुआ होती थी। आप की जैन धर्म प्रचार व जैन था । आपने बड़ी लगन के साथ समाज-सेवा का ) समाज को ऊचा उठाने में बड़ी वडी उमगें, | कार्य प्रारम किया था। वयोवृद्ध होने पर सेवा सच्ची लगन, घुन व ऊचे ऊचे विचार तथा | कार्यों में सबसे आगे है। लालाजी की सेवामो श्रद्धा थी। आपका सुझाव बड़ा अच्छा और का आपने सुन्दर ढग से वर्णन किया है जो लाभदायक होता था। लेकिन आप कई साल ] पठनीय है। से पेट के भोपरेशन आदि के कारण बीमार रहते थे। इसी कारण आपका स्वास्थ ठीक नही रहता था इसलिये इस दौरान मे कुछ कार्य नही कर सके, लेकिन फिर भी वीमार होते हुए भी आप जैन धर्म के विषय मे कुछ-न-कुछ लिखते ही रहते थे, जैसा कि पत्रो के देखने से पता चलता है।
आज वह हमारे बीच नहीं है, हमारे से अलग हो गये है। मैं अपने पुराने साथी श्री ला० उमरावसिंह, ला० रघुवीरसिंह, महोकमलाल, जौहरीमल सर्राफ, ला० महावीरप्रसाद (नूरीमल) वला. चुन्नीलाल रोशनाई वाले जो जैन मित्रमडल दिल्ली के खास कार्यकर्तामो मे से थे, उनका तो दुख भूल ही न सका था कि अचानक आज श्री ला तनसुखरायजी जैन का भी दुःख सहन करना पड़ रहा है।
आपके निधन से जैन समाज के कार्यों में बड़ी भारी हानि हुई है, मैं आपको श्रद्धाजली भेंट करता हुआ श्री जी से प्रार्थना करता हूँ कि आपकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो और उनके कुटुम्बी जनो को इस दुखद वियोग मे धैर्य प्राप्त हो ।
श्रीमान ला० तनसुखरायजी जैन रोहतक के रहने वाले थे, कनाट प्लेस नई दिल्ली में मापने एक तिलक वीमा कम्पनी के नाम से एक फर्म खोली थी, किसी कारण से वह फेल हो जाने से बन्द करनी पड़ी उसके बाद वह देहली मे ही रहकर अपना कार्य करने लगे और २१ दरयागज मे आपने अपना मकान बनवा लिया । आप उसी में रहते थे।
आप जैन समाज तथा और दूसरे समाजो में सिपाही के रूप मे सचाई व बहादुरी के साथ निडर होकर कार्य करते थे। आपके दिलेरपन के बारे में क्या २ बातें बतलाऊँ, अब से १८ वर्ष पूर्व जब मैं जैन मित्र मडल दिल्ली का मत्री था तब आपको भी अपने साथ कार्य करने के वास्ते जैन मित्र मडल देहली के एक विभाग का मत्री बना दिया था।
[
३
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श्री महावीर जयन्ती मनाने के कुछ वर्षों बाद हम लोगो के दिलो मे यह विचार पैदा हुए कि श्री महावीर जयन्ती का नये ढग से बड़े पैमाने मे (विराट जलूस) निकाला जाये जिसके द्वारा जैन धर्म के प्रचार मे और वढोतरी हो। लेकिन वर्षों तक दिल्ली जैन समाज के अलग २ विचारो के कारण इस कार्य में सफलता प्राप्त न हो सकी यह मामला झगड़े में पड़ा रहा। लेकिन इस कार्य को असली जामा पहनाने लाने के वास्ते दिल मे सच्ची लगन व धुन लगी हुई थी, विचार किया कि इस कार्य में किस प्रकार कामयाबी (सफलता) प्राप्त हो सकती है । आखिरकार मैने मापसे श्री महावीर जयन्ती के जलूस निकालने के बारे मे मशवरा किया,
आप इस कार्य के वास्ते स्वय तैय्यार हो गये, चुनाचे जैन मित्रमडल दिल्ली की कार्यकारणी कमेटी ने महावीर जयन्ती का जलूस निकालने की मजूरी दे दी। और जलूस के निकालने की बागडोर स्व० श्रीमान ला० तनसुखराय जैन ने अपने हाथ मे ले ली। और आपके बतलाए हुए ढग के मुताविक जलूस की तैय्यारी की गई। . ... की कम्पनी वाग (.......) से बड़े-बडे ऊचे झडो आदि के साथ "श्री महावीर जयन्ती की छुट्टी होनी चाहिये" के नारो के साथ जलूस बडी धूम-धाम के साथ निकाला गया तमाम बाजार झडी आदि से सजे हुये थे, और उस रोज देहली के तमाम बाजार वद रहे, भूखो को खाना खिलाया गया। महावीर जयन्ती की छुट्टी का प्रस्ताव पास किया गया, सब से पहले जैन मित्र मडल दिल्ली ने ही महावीर जयन्ती का जलसा व जलूस तथा महाबीर जयन्ती की छुट्टी मागने का आन्दोलन भारत वर्ष में शुरू किया था जिसके कारण अव गाव-गाव में महावीर जयन्ती मनाई जा रही है और बहुत से प्रान्तो मे महावीर जयन्ती की छुट्टी होने लगी है। यह था ला• जी की बहादुरी व निडरपन का कार्य जिससे सदा के लिये जैन समाज के बच्चे २ के दिलो से डर निकला और यही कारण है कि प्राज विल्ली में बहुत बड़े पैमाने के रूप में श्री महावीर जयन्ती का जलूस निकाला जाता है।
आप भारतवर्ष दि० जैन परिपद के भी महामन्त्री रह चुके है। मुझे भी परिषद के कार्यों से बड़ी दिलचस्पी रही है, चुनाचे सन १९४० मे जब भारतवर्ष दि० जैन परिषद का सालाना अधिवेशन झासी मे हुआ था तब मै भी देहली से उनके साथ गया था। परिषद के पडाल मे जब रात्रि को जलसा हो रहा था तब जैन समाज के कुछ भाइयो ने झगडा शुरू कर दिया कि परिषद का जलसा न होने पाये।
तब भी आपने बडी होशियारी व बहादुरी से किसी बात की परवाह न करते हुए भीड मे वडी हिम्मत व बुद्धि के साथ निडर होकर स्टेज पर खडे होकर पब्लिक को शात किया और परिषद के सालाना अधिवेशन मे शान्ति के साथ सफलता प्राप्त हुई।
दिल्ली मे जव अखिल भारतीय दि. जैन महासभा का सालाना अधिवेशन स्वर्गीय श्रीमान दानवीर ला० सेठ हुकम चन्द जैन इन्दौर निवासी के सभापतित्व में हुआ था, तव भी जैन समाज को परिषद के कार्यों के बारे मे भडकाया गया था, उस समय भी आप किसी से न डरे माप परिषद के प्रसूलो पर डटे रहे और निडर होकर श्री ला० सेठ हुकमचन्दजी जैन आदि के मुकावले मै खुद जोर शोर के साथ भाषण दिया और वतलाया कि परिपद जो कार्य कर रही है ५४]
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ठीक कर रही है ठोस कार्य कर रही है वह समय दूर नही है जब भारतवर्ष के हर - जैनी को इस मे शामिल होकर इसके असूलो पर कार्य करना पडेगा, आखिरकार वाद-विवाद के बाद यह हुआ कि महासभा और परिपद एक हो जावे । विचार किया गया । तै पाया कि श्री महावीर जी मे महासभा और परिषद की मीटिंग करके इस मामले को सुलझाया जावे। इस प्रकार के बीच मे कई बार झगडे आये और सब मे निडर होकर कार्य किये । स्व० श्रीमान दानवीर ला० सेठ हुकमचन्द जैन भी आपका वडा आदर करते थे ।
श्राप श्राल इण्डिया काग्रेस के भी कार्य कर्ता थे । वहा भी आपने खूब कार्य किया है। आप जैन महामंडल के भी मत्री रह चुके है। इसके अलावा आप और बहुत सी सस्थान के कार्यं कर्ता व सभासद थे | आपने समाज में और बहुत से कार्य किये है जिनके बारे में मुझे जानकारी नही है । मेरी भावना है कि जैन समाज मे ऐसे कार्य कर्ता पैदा होकर जैन समाज के कार्यों को अपने हाथो मे ले ।
स्वजनों की ओर से
श्री जगदीशराय गुप्ता मानसर मंडी
भाई साहब तनसुखराय जैन मे सेवक वृति, प्रेम भाव, उदारहृदयता का समावेश जब जवसे मुझे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तभी से मैंने देखा । उनके हृदय मे प्रेम की ऐसी भावना घर कर गई थी जो उन्हें सभी को एक दृष्टि से देखने को लालायित करती थी, जीवन- पर्यन्त उन्होंने काग्नेस की सेवा मे जो भाग लिया वह प्रशसनीय है । मानवता की टूटी-फूटी बिखरी अभिलाषाओं रूपी शृखलाओ को नये रूप मे लाने का साहस भी उन्ही की एक जीती-जागती कसौटी थी - एक महान् आत्मा मानव के रूप मे इस भूलोक पर उतरी थी जो अपनी क्षणिक झलक दिखाकर उस लोक मे चली गई जिसे हम मे से बहुत कम लोग समझने का प्रयत्न करते है । उस दिवंगत आत्मा को मैं शत् शत् प्रणाम करता हूँ ।
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निर्मीक साहसी वीर
सेठ मिश्रीलालजी पाटनी
लश्कर, मध्यप्रदेश
श्रीयुत लाला तनसुखरायजी एक कर्मठ
सेठ मिश्रीलालजी पाटनी मध्य प्रदेश के साहसी जैन वीर युवक, एक जैन महान
| ऐसे खामोश कार्यकर्ता है जो अपने कार्यों से विभूति थे। उन्हे जैन धर्म व जैन समाज व
धर्म और समाज की सच्ची सेवा करते रहते राष्ट्रीय एव समाज की प्रत्येक प्रकार
है। यश की पर्वाह नहीं करते । लश्कर की निर्भीकता से सेवाए की जो भुलाई नही
(ग्वालियर) के कई सस्थामओ के संचालक है। जा सकती वह चिरस्मरणीय है व रहेगी।
जैन मिशन की प्रदर्शनी विभाग के सर्वेसर्वा जिनका विशेप विस्तृत उल्लेख पाठकगणो को
है। जैन धर्म प्रचार और पुरातत्व के प्रति आगे पढने को मिलेगा। मै ऐसे महान जैन
|आपकी विशेष रुचि है । मापने प्रथ के कार्य वीर एव साहसी व्यक्ति के लिए श्रद्धाजलि मे समुचित सहयोग प्रदान किया है। भेज रहा हूँ और जो समिति ने अभिनदन । अथ संकलन कर प्रकाशित किया जाने का प्रयत्न चालू किया है वह अति उत्तम है और यह कार्य समिति के कार्यक्रम के अनुसार सम्पूर्ण हो, यही मेरी शुभ कामना है ।
जैन मन्दिर के पुस्तकालय के प्रबन्धको से निवेदन है कि ऐसे प्रथ को खरीद कर मन्दिर में व पुस्तकालयो मे अवश्य स्मृति हेतु रखे । साहसी वीरता इससे प्रगट होती है। प्रत्येक समाज के चतुर साहसी वीर विद्वान लोग भी इसे अवश्य पढ कर पुनरावृत्ति कर साहसी वीर बन कर चलें।
कह चरे ? कह चट्टे ? कहमासे ? कह सए ?
कह भुजन्तो भासन्तो पाव कम्म न बन्ध ? (भन्ते ! कैसे चले ? कैसे खडा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले ?-जिससे कि पाप कर्म का बन्धन न हो)
जय चरे जयं चढ़े जयमासे जय सए !
जय भुजन्तो भासन्तो पाव कम्म न बन्धइ !! (आयुष्मन् । विवेक से चलो, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठो, विवेक से सोए, विवेक से भोजन करे और विवेक से ही बोले तो पाप कर्म नही बंध सकता)
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कर्मठ सेनानी लाला तनसुखरायजी
बाबूलाल जैन जमादार नया बाजार बड़ौत, मेरठ
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इस नीति को स्मरण करते हुए हम कह सकते हैं कि लाला जी तनसुखरायजी ने समाज और वश की उन्नति मे पूर्ण सहयोग दिया। पासाधारण प्रतिभा वाले इस कर्मठ सेनानी के साथ हजारो समाज-सेवक काम करते थे। और हँसते हंसते कार्य को सफल बना देते थे।
श्री वावू लाल जी जैन 'जमादार' | बडौत कालेज में जैन धर्म के प्राध्यापक
है। प्रोजस्वी वक्ता और कुशल निर्भीक | कार्यकर्ता है। समाज को आपसे बड़ी
आशाएँ है । आप समाज के ऐसे आज्ञाकारी सिपाही है जब समाज सेवा का अवसर प्राता है तत्काल सेवा के लिए तत्पर रहते है।
लालाजी के साथ कार्य करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ। इनमे से कुछ सस्मरण पाठको के सम्मुख उपस्थित कर रहा हूँ। संस्मरण नं०१
"मैं कहता हूँ कोई भी वालण्टियर प्रतिकार की भावना से कार्य नहीं करेगा । सिर्फ जूते ही तो हम लोगो पर पड़े है, सिर ही तो टूटे है, कौनसी बड़ी मुसीवत सामने भा गई जो हम प्रतिशोध की ज्वाला मे जलने लगे है। जलसा होगा और उसी स्थान पर होगा जहाँ वावू रतन लाल जी व वाबूलाल धनुजी पिटे है। लेकिन नवजवानो हिम्मत से काम लो और रात्रि को मीटिंग मे अधिक से अधिक उपस्थित हो जानो तुम्हारा दस्सा पूजाधिकार प्रस्ताव निश्चित पास
होगा।"
"परिवर्तनशील संसारे मृत को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंश्च समुन्नतिम् ।। इन वाक्यो को सुनकर नवयुवको मे असीम चेतना जागृत हुई। बडौत, मुजफ्फरनगर, सरधना तथा दिल्ली के युवको ने अपने नायक की बात मानकर अदम्य उत्साह से सभा-स्थल की भोर कूच किया। और अपने "दस्सा-पूजा-अधिकार" का प्रस्ताव उस प्रागण मे पास किया जहाँ पर दस्सो के विरोधी लोगो ने मारपीट कर के उन्हें पीछे हटा दिया था।
___ उपयुक्त घटना १९३८ ई० मे श्री हस्तिनापुर क्षेत्र के विशाल मेले पर परिषद के जलसे के समय पर घटित हुई थी। दस्सा पूजा अधिकार के पक्ष वालो की काफी पिटाई शास्त्र सभा-स्थल पर ही हुई थी जिसमे लाला तनसुखरायजी ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। इसमे भाई वीलचन्द्रजी मवाने वालो की खतौली पाठशाला में लगी हुई नौकरी छूटी थी लेकिन लालाजी के सहयोग से दैनिक 'विश्वामित्र' में नियुक्ति शीघ्र हो गई थी।
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मेरे भी १४ रु० से १६ २० अर्थात् २ रु० की तरक्की शीघ्र हो गई थी। नव-जवानों को पूर्ण विश्वास आपके सहयोग का सदैव रहा है और यही कारण है कि आपके साथ कार्य करने वाला सदैव प्रसन्न व श्रीसम्पन्न रहा। संस्मरण नं. दो
सन् १९५० ई० मे दिल्ली के परेड ग्राउण्ड में विशाल पण्डाल के चारो ओर परिपद के अधिवेशन के समय पर हरिजन विरोधी आन्दोलन के कार्यकर्ता अपने मोचें लगाए हुए डटे खडे थे। दि. जैन कॉलेज के स्वयसेवक सतर्कता से ड्यूटी दे रहे थे कि यकायक लालाजी मेरे डेरे पर लपके हुए चले पाए। उम समय भाई चतरसेनजी व शीलचन्द्रजी सहित उत्तर प्रदेश के प्रमुख कार्यकर्ता विचार-विमर्श मे लीन थे कि लालाजी ने आते ही शीघ्र सेनापति की तरह आदेश दिया कि "आप लोग मेरे मकान पर शीघ्र पहुंची समस्या विकट हो चुकी है इस पर बात करनी है।" सब लोगो ने कहा कि यही बता दी जाए तो अच्छा है इस पर लालाजी एकदम विगड़ पडे वोले "विरोधियो के मोर्चे के अन्दर विचार-विमर्श करना अक्लमन्दी नहीं है, तुम जमा समझो करो मेरा काम जो था कह दिया।"
यह कहकर लालाजी यकायक चले गए। हम लोग शीघ्र लालाजी के मकान पर पहुंचे जहाँ पर मान्यवर वाबू रतनलालजी विजनौर और कुछ दिल्ली के प्रमुख सज्जन स्व. लाला नन्हेमलजी स्व० लाला रघुवीरसिंहजी लाला भगतरामजी वावू हसकुमारजी श्रादि गभीर मुद्रा में बैठे हुए कुछ सोच रहे थे।
हम लोगो को यकायक आता देखकर मुस्कराए और वोले कि "लाला तनमुखरायजी को क्या हो गया जो प्रत्येक कार्य मे वहम करने लगे है। उन्हें उपद्रव का ही खतरा समा रहा
सच यह था कि हम लोगो ने लालाजी की बात का आधा विश्वास किया था और जिन लोगो पर विश्वास किया था वे वास्तव में साथी थे नही इस बात को लालाजी अच्छी तरह जानते थे। इसीलिए वे परिपद अधिवेशन के प्रत्येक कार्य को वगैर पदाधिकारी हुए भी पूर्ण जिम्मेवारी से देखते थे।
आखिर परिपद अधिवेशन का उद्घाटन मान्यवर श्री श्रीप्रकाशजी तत्कालीन राज्यपाल वम्बई द्वारा हुआ। माननीय साहू श्रेयासप्रसादजी ने अध्यक्षता की और मच पर मा० साहू शान्तिप्रसादजी सहित जैन समाज के प्रसिद्ध कर्मठ कार्यकर्ता उपस्थित होकर अविवेशन की शोभा बढ़ा रहे थे लेकिन लाला तनसुखरायजी मच पर न आकर स्वयसेवको के पास भागे-भागे फिर रहे थे। उन्हे चैन नहीं था।
____ जिस समय मच पर व पण्डाल मे हरिजन-मन्दिर प्रवेश पर हगामा मचा उस समय सवकी आँखे लाला तनमुखरायजी पर ही जाकर टिकी। उनकी दूरदर्शिता पर सवको विश्वास हुमा । साहू बन्धुप्रो को येनकेन प्रकारेण पण्डाल से बाहर निकालकर ले जाना पड़ा। ५६
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श्री दिगम्बर जैन कालिज
बड़ौत (मेरठ) उत्तरप्रदेश
श्री दिगम्बर जैन कालिज बडौत की स्थापना २० जनवरी १९१६ को एक छोटीसी पाठशाला के रूप में हुई थी । सन् १९२१ मे हाई स्कूल लिये मान्यता प्राप्त हुई तथा समाज के सतत प्रयत्नों से हाईस्कूल १९४० से इण्टर कालिज के रूप में परिणत हो गया । उसी समय स्वर्गीय ला० तनसुखरायजी के कर-कमलो द्वारा इसके नवीन भवन का शिलान्यास हुआ | आपने कालिज को १००१) रु० का दान दिया । आजकल उस भवन मे दिगम्बर जैन पॉलिटेकनिक कक्षाएँ चल रही हैं ।
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वर्तमान मे दिगम्बर जैन कालिज में एम० ए०, एम० एस० सी० वी० ए०, बी० एस० सी०, तथा बी० ए० की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध है तथा इसी के अन्तर्गत एक इण्टर कालिज, प्राइमरी स्कूल, वालनिकेतन एव बालिका विद्यालय स्थापित हैं । इन सब सस्थाओ लगभग ३००० छात्र शिक्षा पा रहे है ।
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श्री दिगम्बर जैन कालिज बड़ौत (मेरठ) उत्तर प्रदेश
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एक निस्तब्ध वातावरण उपद्रव के बाद सामने आया ।
रात्रि के तीन बजे लालाजी के मकान पर मोटिंग हुई और अधिवेशन में घटी घटनामो के प्रति सबके मुख मलिन हो रहे थे कि लालाजी यकायक तमक कर बोल उठे।
"माज काश आप लोग मेरी बात मानते तो यह दृश्य सामने न होता और अच्छा उत्तर दिया जा सकता था। अब अधिवेशन अवश्य होगा, हरिजन-मन्दिर प्रवेश प्रस्ताव दोहराया जाएगा भले ही हमारी लाशो पर विरोधी लोग आगे बढ़ सकें।"
आप लोग निश्चिन्त रहो मैने रात ही रात मे महावीर दल के स्वयसेवको की सेवाएं और अपने प्रमुख साथियो की सेवाएं प्राप्त कर ली है, और हुआ भी ऐसा ही।
दूसरे दिन अधिवेशन पूर्ण तनाव के वातावरण में, मान्यवर साहू श्रेयासप्रसादजी की अध्यक्षता मे, विरोधियो के महान विरोध के मध्य मे, लालाजी को दूरदर्शिता से पूर्ण हुआ। उपद्रवी लोग पण्डाल के अन्दर पहुंच तो क्या सकते थे नजदीक भी नही फटक सके ।
एक मोर लाला तनसुखरायजी व्यवस्था पर थे तो दूसरी ओर बहिन लेखावती
अम्बाला।
हम सब सिपाही उनकी कार्यदक्षता देखकर हैरान थे। अाखिर अधिवेशन सफल हुप्रा।
उपयुक्त दो सस्मरण तो मात्र सकेत के तौर पर लिखे है । आपके कितने ही सस्मरण है जो सन् १९३८ से १९६३ तक उनके साथ रहने से सम्बन्धित है जिन्हे लेखक हृदय में सजोये है। परन्तु यह सत्य है कि लाला तनसुखरायजी गरीबो के हमदर्द, दुखियो के साथी, मित्रो पर तन मन निछावर करने वाले, समाज-सेवक, देशभक्त मुनिगुरुभक्त और धर्म रक्षक थे। उनके प्रति विनम्र श्रद्धाजलि समर्पित करते हुए लेखनी को यही विश्राम देता हूँ।
पराधीनात्तु जीवाना, जीवस्य मरण वर, मृगेन्द्रस्य भृगेन्द्रत्वं, वितीर्ण केन कानने ।
पराधीन जीवन से जीवो का मरना अच्छा । सिंह के मस्तक पर रोली से कौन तिलक करता है।
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'मेरे भ्राता'
श्री मखमली देवी जैन १६ दरियागंज, दिल्ली
"बहिन मखमलीदेवीजी जैन समाज की उन तेजस्वी कार्यकर्त्री बहिनो मे से है जिनमे उदारता, सल्य श्रीरवात्समाज सेवा का भाव असीमित भरा है । श्रापने मातुश्री दाबाईजी की प्रेरणा से श्री जैन महिलाश्रम का कार्य सचालन किया । श्राज सस्था की जो इतनी उन्नति होती हुई दिखाई दे रही है उसका सारा श्रेय श्रापके समस्त परिवार को है । आप स्वय, आपकी सुयोग्य सुपुत्री श्री कान्ता जैशोराम ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट मोर पुत्रवधू लीलावतीजी तथा रायबहादुरजी भैय्या तनसुखराय का व्यवहार प्राय बा० दयाचदजी चीफ इजीनीयर सस्था की सीधा-सादा और सौम्यपूर्ण था । उनकी इस उन्नति के लिए अहर्निश प्रयत्नशील रहते है । श्राकृति के कारण मेरे मन मे उनके प्रति जैन समाज को ऐसे परिवार पर अत्यत गौरव अपनत्व की भावना ओत-प्रोत हुई । है जो शिक्षा प्रचार मे शक्तिभर तन, मन, धन मैं उनके जीवन मे क्या देखा, क्या से सहयोग देते है । 'मेरे भ्राता' के नाम से सुना आदि सभी पहलुओ का परिचय लालाजी के सम्बन्ध में अत्यत आत्मीय देने नही जा रही, इसके विषय मे तो उद्गार प्रकट किए है जो मननीय है ।" विद्वान लोग, नेता लोग आपको कुछ बताएँगे। परन्तु मे कुछेक उन वर्षों को दृष्टि में रखकर - जोकि समय के साथ-साथ सुषुप्तावस्था की ओर चले जा रहे है-उन मे के बिखरे विचार बता रही हूँ । इन्ही वर्षों मे मेरा उनका पड़ौस रहा है। वास्तव मे उनका जीवन घटनापूर्ण था । उसके व्यक्तित्त्व मे पूर्ण निष्ठा था । गहरी और गम्भीर प्रेरणा थी और समाज-सेवा का उनमे परम उत्साह था। इस पर भी कुछ लोगो की धारणा है कि वे जिद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे । इस सम्बन्ध मे मेरा यह कहना अनुचित न होगा कि वे सचमुच इस धारणा के विपरीत थे । उन्हे तो परखने की थाह तक उतरने की आवश्यकता थी । उनमें अपनो के लिए तथा पीड़ितो के लिए एक टीस थी, तडप थी। वे पर सेवा मे अपनी शक्ति को भूलकर अपने ऊपर कष्ट उठाने को तत्पर हो जाया करते थे । निराश्रित व्यक्तियो का तो वे मात्र केन्द्र बिन्दु थे। भारत की स्वतन्त्रता और धर्म तथा समाज की मान-मर्यादा का प्रश्न उनके जीवन का मात्र लक्ष्य था । इस पर तो सब कुछ न्यौछावर कर देने का एक मूक आह्वान् उनके द्वारा प्रदर्शित होता था । सुडौल 201
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भैय्या तनसुखराय को मै सन् १९३० से जानती हूँ। वे जैन धर्म के धार्मिकोत्सवो पर तथा राष्ट्रीय काग्रेस के जलसो मे बहुधा भाषण दिया करते थे । दिल्ली उन दिनो उनके इस कार्य क्षेत्र का केन्द्र था । उनके द्वारा प्रायोजित बहुधा सभाएँ तथा बहुत-से जलसे भी मैने देखे है । उनके मुखारविंद से परोपकारी एव मधुर पुष्प समान झडते हुए मेने सुने है । और देखा है उनमे मानवता का उज्जवल एवं ज्वलत प्रतीक |
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लम्बा कद, गेहुँवा रग और उस पर शुद्ध खादी की अपनी शोभा फवती थी। वे एक आदर्शवादी, कर्मठ सुधारक थे। जब से उन्होने हमारे पड़ोस में अपना निवास स्थान बनाया तव से उन्हे और भी निकट से देखने का हमें भवसर मिला। मैने उनमे देश-सेवा, समाज-सेवा, आश्रम-सेवा इन दोनो शक्तियो का अद्भुत-स्रोत प्रवाहित होते देखा है। कार्य पूर्ति के लिए उनमे कठोरता भी थी और कोमलता भी परिपूर्ण थी। अगरत १९६३ के दिन उनकी अतिम विदाई के समय, जब मेरे प्रांसू भजन-धारा बनाकर वह पडे-तो, मैने उन्हे अपने सपनो मे डूबा हुमा एक समाज-सेवी, समाज-प्रहरी और देश-रक्षक तथा मानवता का पुज ही कहा ?-वे महान थे। उनका अन्तरवाहर पवित्र था। हृदय कोमल था। कर्तव्य मे कठोरता थी, पूर्ण निष्ठा थी। समाज का पतन उनके मन के दीप को जैसे बुझाने जा रहा था। और उस काल महाकाल की ओर से प्रलयकारी झझावात का एक अजीव झोका आया, जो कि उनके विचार-चित्र को गिराकर चकना-चूर करता चला गया। हृदय-गति बन्द हो गई और वे सबके देखते पाखें मूद इस नश्वर ससार की मोह माया को छोड़ अनन्त की ओर चले गए।
___ इस थोडे से जीवन में मेरा सम्बन्ध प्राय. अनेक समाजसेवियो से रहा है। मैं पूर्ण निष्ठा तथा पूर्ण विश्वास के साथ कहती हूँ कि जो व्यक्ति समाजोत्थान की चिन्ताओ के प्रति भावुक होता है, जिसका मन दर्द-पीडा से द्रवित हो उठता है, उसकी सहानुभूति उतनी ही गहरी, तीन और महान तथा क्रान्तिकारी होती है । उस क्रान्ति से देशसेवा और समाजोत्थान के लिए सुख-सौन्दयं जन्म लेता है। किन्तु उस सुख-सौन्दर्य को उपजाने वाले क्रान्तिकारी "वीर" बहुधा उस प्रसव की पीड़ा को सहन किया करते है। भैय्या तनसुखराय भी इस अपवाद के प्रतीक थे। उन्होने कितने कष्ट सहन किए । उनका व्यक्तित्व विशाल था और शक्तिशाली था। वे बिना किसी प्रपच के अपने अन्तिम दिनो तक अपने विचारो के प्रहरी और अडिग रक्षक बनकर रहे। यद्यपि कई लोग उनसे ईर्षा भी रखते थे, परन्तु उन से डर भी थे उतना ही मानते थे।
और उन्हे प्यार करते तथा आदर की दृष्टि से देखते थे। समाज-सेवा का मच उनके विना हिलता न था और समाज उनकी सेवाओ का मान करता था। ऐसे थे वे महान और ऐसी थी उनकी महान भावनाएँ।
मैं अपने सम्पर्क मे भाई अनेक घटनामो की गुत्थी को सुलझाने के लिए जब भी समयसमय पर उनके पास गई, उन्होने बडे प्रेम से, ममता से बिठाकर उन बातो को समझाया और हर बात को सफल बनाने में योग दिया करते थे। आज आश्रम का कार्य उनके बताए हुए पद चिह्नो पर चलता हुमा विशाल प्रगति की ओर चला जा रहा है। महिलाश्रम मे हायर सेकेण्ड्री स्कूल तथा छात्रावास आदि आदि योजनाएँ उन्ही की बताई हुई है। हम इन्हे सफल बनाकर रहेगे। परन्तु हमे इसके साथ-साथ इस बात का खेद है कि वे भाई जो इन परोपकारी योजनाओ के दाता थे, इनके निर्माता होने पर भी हमारे बीच नही होगे। अन्त में मै भगवान से याचना करती हूं कि उनकी शुद्ध आत्मा को शान्ति प्राप्त हो ।
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भा० दि० जैन परिषद के प्राण
श्री तनसुखराय एक तेजस्वी पुरुष
थे । उनके हृदय में देश सेवा की भाग सुलगती रहती थी । सामाजिक कार्यों मे I उनका बहुत उत्साह था । जब कठिन से कठिन कार्य का अवसर आता तो उनका साहस बहुत बढ जाता था । नि सदेह वे एक साहसी और दृढ कर्मठ थे पुरुष भा० दि० जैन परिषद के तो प्राण ही थे। उन्होने समाज में 'अपूर्व साहस से कार्य किया। समाज में उनकी स्मृति सदैव बनी रहेगी ।
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श्रीमन्त तनसुखराय जैन
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योभूरि सुकृता सदाशामलता जीवेषु सजीवताम् । याम. सय मिने जिनोन्नत जिनाचार रूप सचारनाम् । aar कम्पनिकासुता सुविदितो बीमावता ख्यातिमान् । श्रीमान् तनसुखराय जैन विबुधो भूद् भारतीयो महान् ॥ ज्ञानी ज्ञानजने गुणी गुणीजने मानी सदा मानिनि । त्यागी त्यागीजनोजयी विजायिनि प्राज्ञस्तु विद्वज्जने । रागी रागीजने पटु पदुजने जैनेषु जैनाग्रणी ।
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लाला
राजेन्द्रकुमार जैन
बैंकर्स
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अध्यक्ष
भा० दि० जैन परिषद्
हजारीलाल जैन 'प्रेमी'
नागरा
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युवक समाज
द्वारा
प्राबू आन्दोलन मे आपने देश के विभिन्न भागो मे दौरे किए। विशेषकर राजस्थान मे यह अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे। जगह-जगह समाज की ओर से मान-पत्र भेंट किए गए। थैलियां भेंट की गई। और आपको आश्वासन दिया गया कि आन्दोलन मे हम तन-मन-धन से अापके साय है । उस समय के अभिनन्दन पत्रो में प्राप्तयुवफ समाज की ओर से दिया गया ऐसा ही एक अभिन्दन-पत्र इस प्रकार है।
सत्कार
अभिनन्दन-पत्र
महावीर हीरोज लाडनूं (मारवाड)
हे कर्मवीर ।
पाज आपने हमारे नगर मे अपने सहयोगियो सहित पधारकर जो अनुगृहीत किया है उसके . लिए हम आपके आभारी है। हम आपकी पवित्र सेवा मे सम्मानस्प यह अभिनन्दन-पत्र भेट करते हुए फूले नहीं समा रहे है । यो तो आप अनेको राष्ट्रीय एव धार्मिक कार्यों को तन-मन-धन से करते रहते है किन्तु वर्तमान मे जो आपने पावू मन्दिर टैक्स आन्दोलन को उठाकर सोती हुई हिन्दू तथा जैन जाति को उसके जातीय अपमान का ध्यान दिलाया है-वह प्रणसनीय ही नहीं अपितु ससार के इतिहास में स्वर्णाक्षरो से लिखा जायगा।
"मावू के मन्दिरो पर सिरोही स्टेट द्वारा लगाया हुआ टैक्स टैक्म नही किन्तु कलंक है। यह टैक्स हमारी धार्मिक स्वाधीनता मे वाधक है तथा स्वाभिमान का घातक है " आपके इस पुनीत सन्देश से जनता मे क्रान्ति मच गई है और वह अब आप जैसे कर्मवीर नेता के साथ अपने पार्मिक अधिकारो के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार है। हमारे महावीर हीरोज़ को आप जैसे कर्मठ नेतानो पर अभिमान है। हम आपको विश्वास दिलाते है कि जाति और धर्म के प्रत्येक यज्ञ मे आपके निर्देश पर सदैव हर प्रकार का त्याग करने को तैयार रहेंगे।
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बड़े नक्षत्रजीवी
डा. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया एम० ए०, पी० एच० डी०,
खिरनीगेट, अलीगढ़
जिस प्रकार हिन्दू समाज में व्यक्ति के दिवगत होने पर परिजनो द्वारा श्राद्ध का प्रायोजन किया जाता है, उसी प्रकार सामाजिक कार्यकर्तानो के लिए मनीपी जगत में 'स्मृति-प्रथ का प्रकाशन दिया जाता है।
श्राद्ध में सज्जन को असन और कही कही पर बसन वेष्टित भी किया जाता है, किन्तु स्मृति ग्रन्थ में प्राय प्रेरणा का इजेक्शन भरा जाता है । यहाँ लालाजी ने अपने जीवन के पचास वर्ष-समाज, जाति, तथा धर्म के उत्कर्ष में खपा दिए, यही रहस्य-- उद्घाटित होता है।
प्रत्येक अस्तित्व का महत्त्व उसके प्रभाव मे उत्थित हुमा करता है । जव लालाजी कार्यरत रहे बहुतो ने उनकी योजनामो के प्रति सदिच्छा व्यक्त की किन्तु अनेक ऐसे भी पाए गए जिन्होने अनिच्छा अभिव्यक्ति की । आज वे सभी मिलकर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को दुहाई देते है-यह जगत की, जीवन की विलक्षण विडम्बना है।
समाज की सेवा करना एक व्यसन हो गया है। जो व्यक्ति व्यसन के वशीभूत होकर कुछ करते है मेरे दृष्टिकोण से वह काम किसी काम का नही मात्र ढेर है लेकिन जो इससे मुक्त होकर कुछ नव्य किन्तु भव्य कार्य-प्रणालियो की स्थापना कर प्राणी मात्र का उपकार करते है वह श्रमसफल बनाता है।
मुझे जहाँ तक पता लगा लालाजी अपने काल और क्षेत्र के अनुसार अपने को ढालकर जिस तन्मयता, कर्मठता और सहनशीलता से सफलता की स्थापना कर सके है वह उनका समग्न तन्त्र-तत्व और मन्त्र-महत्त्व वस्तुत श्लाघनीय है।
लालाजी नक्षत्री जीव थे। जिस प्रकार नक्षत्र अधेरे से अन्त तक जूझता रहता है, लालाजी हरदम हर बुराइयो से झगडते रहे । सत्याग्रही की सदा विजय हुआ करती है । लालाजी सत्याग्रही थे। इसीलिए उन्हें अपने प्रत्येक प्रयास मे सफलता प्राप्त हुई । लालाजी महान थे, घे वेमिसाल थे, साकार अनन्वय अलकार थे।
श्रीमान लाला तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ निकालकर उनकी समूची सेवाओ, भावनामो और कामनाओ को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया है, प्रसन्नता की बात है।
ऐसे सामाजिक कर्ता को मेरे करोड़ो प्रणाम पहुंचे, यही कहकर अपनी श्रद्धाञ्जलि सम्मिलित करने जा रहा हूँ। १४]
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श्रीमान देशभक्त, कर्मवीर
लाला तनसुखराय के प्रति
श्री राजेन्द्र कुमार 'कुमरेश' श्रायुर्वेदाचार्य चन्देरी (मध्य प्रदेश)
देशभक्त तुममे स्वदेश का था अनुपम अनुराग । सदा राष्ट्र के लिए हृदय मे जाग रही थी माग |
श्रागे बढकर स्वतन्त्रता के लिए किया सग्राम | किया दिखावा कभी न तुमने चाहा कभी न नाम ॥
सह न सके तुम कही धर्म का किंचित् भी अपमान ! लगा दिए अवसर आने पर अपने तन-मन-प्राण ||
सदा रूढियों के विरुद्ध तुम करते रहे प्रचार ! नित कुरीतियो की छाती पर करते रहे प्रहार |
अलख जगाते रहे जागरण का स्व-जाति मे मौन । धर्मं समाज स्वदेश हितैपी तुमसा साधक कौन ||
कर्मवीर यश अाकांक्षी तुम्हें न था अभिमान । होता रहे स-शक्त देश यह था उर मे अरमान ॥
है कर्मठ ! सेवक समाज के याद तुम्हारी आय । श्रद्धाञ्जलि लो भ्राज हमारी लाला तनसुख राय ॥
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जैन जाति दया के लिए खास प्रसिद्ध है, और दया के लिए हजारो रुपया खर्च करती हैं । जैनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चेहरे व नाम से भी जाना जाता है । जैनी अधिक शान्ति प्रिय हैं ।
श्री माटोरोय फिल्ड सा० कलेक्टर
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बोलो जवाहरलाल
ताराचन्द 'प्रेमी
सदस्य नगरपालिका, फिरोजपुर धरती का वेटा धरती की नैय्या, लाया भवर से निकाल । किसके सहारे छोडा है प्यारे, बोलो जवाहरलाल || रोती है माता विन तक बेटा, सामो मे पाके समाजा। रोती हे गगा रोती हे जमुना, पाजा हिमालय के राजा ॥ खोकर के तुमको भूखा ये नगा, इन्सा, हुआ है पामाल । किसके सहारे छोडा हे प्यारे, वोलो जवाहरलाल ।। विश्वास इतना तुम पर निछावर, जीवन के अनमोल मोती। स्वरूप रानी के पुष्प विकसित, कमला के नैनो की ज्योती।। पाया वा दिल तूने कितना निराला, जैसे ये सागर विशाल । किसके सहारे छोडा है प्यारे, बोलो जवाहरलाल |
मेरी एक मेंट
लगभग आठ वर्ष पूर्व की बात है दिल्ली दरियागज मे वीर सेवा मन्दिर के भवन का शिलान्यास साहू शान्तीप्रसादजी के करकमलो से होने वाला था साहू जी का पालम हवाई अड्डे पर स्वागत करने वालो मे ला० तनसुखरायजी, ला० राजकिशनजी, बा० छोटेलालजी कलकत्ता, तथा मै "ताराचन्द प्रेमी" चार व्यक्ति स्वागतार्थ उपस्थित थे । ला० तनसुखराय जी के परिचय मे आने का मेरे लिए यह प्रथम अवसर था पीर सेवा मन्दिर के इस शिलान्यास समारोह में मुझे भी एक गीत पढना था, मेरे गीत के पश्चात् लालाजी ने गदगद होकर मुझ से कहा था कि प्रेमीजी, आपने तो जादू कर दिया, फिर तो मुझे अनेक बार उनके सम्पर्क में आना पड़ा। उनके व्यक्तित्व को बहुत समीप से देखने का मौका मिला। समाज सुधार के लिए मैंने उनके हृदय मे एक वे-मिसाल तडप देखी । अस्वस्थ होते हुए भी, लालाजी हर समय सामाजिक गतिविधि के लिए चिन्तित रहते । जबकि कभी मैं उनसे मिलता वह एक वात अवश्य कहते कि पुण्य से तुम्हे कला का वरदान मिला है। इस कला का उपयोग अधिक से अधिक धर्म और समाज-सेवा मे होना चाहिए।
२२ जनवरी १९६३ को अस्वस्थ होते हुए भी लालाजी मेरी पुत्री के विवाह मे फिरोजपुरझिरका पधारे । दिल्ली से बाहर जाने की सम्भवत यह अन्तिम यात्रा थी। फिर मैं समय-समय पर अनेक बार उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी समाचार लेता रहा । उनका स्वास्थ्य गिरता ही गया और एक दिन सुना कि लालाजी अब नहीं रहे, हृदय को बडा आघात पहुंचा। मैं कहूँगा कि ला. तनसुखरायजी का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक सेवाओ का एक इतिहास रहा है, वह चले गए उनकी सेवाएं अमर रहेगी।
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श्री तनसुखरायजी
- क्रांतिकारी नेता
श्री शीलचन्द्र जैन 'शास्त्री ' सू० पूर्व अध्यक्ष नगरपालिका, मवाना (मेरठ)
जैन समाज मे फैली हुई कुरीतियों को दूर करने मे जितना सहयोग लाला तनसुखरायजी का रहा है उतना कर्मठ सहयोग जैन समाज उत्थान के सिलसिले मे बहुत ही कम लोगो का मिला है।
दिगम्बर श्वेताम्बर एव स्थानक वासी सम्प्रदायो को एकता के सूत्र मे बांधने का लाला जी का प्रयास जैन समाज के इतिहास मे अक्षुण्ण बना रहेगा । लालाजी का दिल हमेशा जैन समाज उत्थान के लिए लालायित रहता था । महगाव काड, प्रावू पहाड, एव दस्सा पूजा अधिकार के प्रान्दोलन को घर-घर तक पहुंचाने का श्रेय स्व० लाला तनसुखरायजी को ही है ।
अपने स्वास्थ्य की कुछ परवा न करते हुए भी देश, समाज की जो कुछ सेवाए उन्होने की है उनका अवलोकन, उनका त्याग, कार्य-कुशलता, कठोर परिश्रम एव परोपकार भावना से आका जा सकता है। समाज मे जो कुछ भी आज सुधार दिखाई दे रहा है उसका श्रेय माननीय लालाजी को ही है । हमारी उनके लिए सच्ची श्रद्धाञ्जलि तभी हो सकती है : जब हम उनके किए हुए अधूरे कामो को सलग्नता के साथ पूरा कर सकेगे ।
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मिलनसार और प्रेमी सज्जन
श्री रघुवीरसिहजी जैन कोठीवाला श्री जैन शिक्षा बोर्ड, कूचा सेठ, दिल्ली
ला० तनसुखराय जैन एक कर्मठ कार्यकर्ता थे । प्रापका कार्यक्षेत्र काग्रेस और जैन समाज रही। मेरा आप से परिचय लगभग ३० वर्ष से था । आप हसमुख, मिलनसार और प्रेमी सज्जन थे । श्रीमती लेखबती जैन के चुनाव को लेकर आपका काग्रेस में विवाद प्रारम्भ हुग्रा जिसका अत तिलक बीमा कम्पनी खुलने से हुआ ।
आपने अपने जीवन काल मे अनेक आन्दोलन उठाए उन्हे सही मोड़ दिए, सफलता आपका लक्ष्य रहा । अग्रसेन जयती, वनस्पति घी, आबू का कर, उनमे मुख्य थे 1
tree जीवन का अधिक समय जैन परिपद मे वीता, वास्तव मे श्राप उसके प्राण रहे । आपके कार्य की यह विशेषता रही यदि आपने महसूस किया कि किसी भी कार्य छोड़ने के उसमें प्रगति होगी तो आपने उसको सहर्प दूसरे को सौप दिया, सामाजिक कार्य मे श्रापने कभी स्वार्थ का समावेश नही किया ।
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प्रतिष्ठित समाज-सेवक
देशभक्त श्री दौलतराम गुप्ता
लक्ष्मी निवास, रोहतक
लाला तनसुखराय जैन १९२७ से पहिले
सम्माननीय लाला दौलतराम जी गुप्ता रोहतक से बाहर रहे थे, वह जव रोहतक
| पजाब के प्रतिष्ठित समाज सेवक और कट्टर मे आये तो पहले भारत बीमा कम्पनी तदनन्तर
| देशभक्त है । आपके साथ लालाजी ने लक्ष्मी बीमा कम्पनी से रोहतक मे कार्यवाहक
| समाज-सेवा का कार्य प्रारम्भ किया । आपके हुए थे, १९२७-२८ मे में जिला काग्रेस कमेटी
| हार्दिक उद्गार इस बात के प्रतीक है कि का अध्यक्ष था, तो वह मेरे सम्पर्क मे आये, और
। लाला जी मे समाज-सेवा के भाव प्रारम्भ से वह काग्रेस आन्दोलन मे पूर्णरूपेण वा अन्य राज- ही कितने अधिक थे जो समय आने पर नैतिक सस्थानो (नौजवान भारत सभा सरीखी) | विकसित होते हुए उच्चकोटि पर पहुंच गये। मे अपना योगदान देने लगे, तनसुखरायजी मे कार्य करने की बड़ी लगन एवम् अथाह उत्साह था, और पूरी क्षमता थी। १९३० मे मेरे साथ ही एक ही दिन पकडे गये, एक साथ ही हम पर अभियोग लगा और कारावास भेज दिये गये, हम दोनो साथ-साथ ही रोहतक, लाहोर, केन्द्रीय जेल एव मुलतान गये, कारावास में रहे, फिर साथ ही छूटे। तव हम मे वह सहयोग सहवास मित्रता में परिणत हो गया १६३२ मे हमने गाधीजी के आह्वान पर रोहतक में जिला हरिजन सेवक सघ स्थापित किया । मै और वह उसके अध्यक्ष एव मत्री १९३४ तक रहे । हमने यहाँ १९३२ मे हरिजन छात्रो के लिए एक छात्रावास भी स्थापित किया, जो अब भी अपनी बिल्डिंग में चालू है । १९३३ मे रोहतक जिले मे वाढ पाई थी, हरिजनो की उससे बडी हानि हुई थी। उसकी कुछ क्षति पूर्ति के लिए हमने भरसक प्रयत्न किया था, मै तनसुखराय जी स्वर्गवासी ला. त्रिलोकासत जी और ला० श्राशाराम जी लाहोर जाकर भी कुछ धनराशि ल. सके थे और यथाशक्ति हरिजनो के कष्ट निवारणार्थ कार्य कर सके थे, इस सब कार्य मे तनसुखराय का बड़ा योगदान था। इसके पश्चात् वह दिल्ली चले गये और वहा उनके लिए सार्वजनिक सेवामी का विस्तृत क्षेत्र था-हमारा जन कल्याण कामो मे साथ तो छूट गया, परन्तु हमारी मित्रता उनके अन्तिम दिनो तक गहरी बनी रही। मैं अधिक स्थान न लेकर अपने प्यारे तनसुखराय जी की पुण्य स्मृति मे अपनी श्रद्धा के पुष्प भेट करता हूँ।
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नवयुवकों के प्रेरणा-स्रोत
___ श्री सुल्तान सिंह जैन एम०ए० मंत्री प्र०भा०वि० जन परिषद्-शाखा, शामली (उ० प्र०)
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है"विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यो भरो कि याद जो करे सभी। हुई न यो सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिये, मरा नही वही कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु-प्रवृति है कि आप आप ही घरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।" उपरोक्त पद मे गुप्तजी ने स्पष्ट रूप से अकित कर दिया है कि विश्व मे उन्ही लोगो का जीना और मरना सफल है जो दूसरो के लिए नीते-मरते है। जब हम लाला तनसुखरायजी के जीवन को उक्त पद की कसौटी पर परखते हैं तो वह वावन तोले पाव रत्ती सहीउतरता है।
यह बात किसी से छिपी नही है कि लालाजी एक पुराने, तपे हुए, कर्मठ, अनुभवी, निस्वार्थ, कर्तव्य-परायण, नम्र एव लगनशील समाज-सेवक थे। निःसन्देह उनका अविकाश जीवन समाज-सेवा, राष्ट्र-सेवा तथा जन-कल्याण में व्यतीत हुआ था।
लाला तनसुखरायनी की प्रतिमा सर्वतोमुखी थी। सभी विपयो में उनकी अबाध गति थी। यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाये तो ज्ञात होगा कि वे गुदडी के लाल थे, क्योकि वे छिप-छिपे वे सभी कार्य करते रहते थे जो कि महान व्यक्ति को करने चाहिए । किन्तु उनकी कभी भी यह आकाक्षा नहीं रही कि किसी भी काम के करने से उन्हें ख्याति प्राप्त होगी और लोग उन्हे महान विभूति के रूप में पूजेंगे।
जब हम लालाजी के समूचे जीवन पर दृष्टिपात करते है तो वह हमे चहुंमुखी पल्लवित एवं पुष्पित दृष्टिगोचर होता है । इसका प्रमुख कारण है कि उनका कर्तव्य-क्षेत्र ही वहुमुखी था। उन्होने जीवन-पर्यन्त सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्रो मे निस्वार्थरूप से जी-जान से सेवायें की थी। उनके जीवन की कुछ झलकियाँ देखिए -
राजनैतिक सेवाएं -सन् १९१९ मे जिन दिनो लालाजी रेलवे-विभाग में नौकरी कर रहे थे, उन्ही दिनो असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। मापने सरकारी नौकरी की चिन्ता न को और तुरन्त ही स्वदेशी वस्तुओ एव वस्त्रो को अपनाने की दृढ प्रतिज्ञा कर ली। सन् १९२१ शेरे पजाव लाला लाजपतराय जी की प्रेरणा से आपने सरकारी नौकरी को तिलाजली दे दी,
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सन् १९२२ मे स्वदेशी वस्तुग्रो के प्रचारार्थ श्रापने समिति बनाकर अनेकानेक लोगो को स्वदेशी वस्त्र तथा वस्तुनो को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया एवं उनसे दृढ प्रतिज्ञायें कराई । सन् १९२२-२४ मे श्राप अपनी जन्मस्थली रोहतक मे आकर रहने लगे थे और वही पर कर्मठ काग्रेसी कार्यकर्त्ता के रूप मे कार्य करने लगे थे । १९२५ ई० मे आपने खादी-प्रचार का बीडा उठाया था श्रीर तत्सम्बन्धी एक समिति की स्थापना की थी ।
I
लाला तनसुखराय की राजनीतिक गतिविधि यही समाप्त नही हो जाती है वरन् १९२६ मैं वे पंजाब की क्रान्तिकारी सोसाइटी - " नौजवान भारत सभा" के सक्रिय सदस्य बने थे । यही नही, १६२७ मे आप पजाव मे "मजदूर-किसान सभा " के प्रान्तीय सम्मेलन के प्रधान मन्त्री निर्वाचित किये गये थे । १६२८ में आपको पजाब प्रान्तीय काग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी परिषद् का सदस्य चुना गया था । सन् १९२६ मे इण्डियन नेशनल काग्रेस के लाहौर में होने वाले वार्षिक धिवेशन में आपको पजाब से प्रान्तीय प्रतिनिधि के रूप मे भेजा गया था। वहाँ पर भापने स्वय सेवको के कप्तान के रूप मे जो-जो सेवाएं की थी, उनकी सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी ।
सन् १९३० में जब पुन असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब आपने रोहतक जिले मे सत्याग्रहियों की भारी भरती की थी। आप ही ने उनके रहन-सहन, खाने-पीने आदि का कार्य सुचारूप से कुशलतापूर्वक निभाया था । प्रस्तुत आन्दोलन-कार्य मे भाग लेने के कारण आपको & मास का कठोर कारावास भुगतना पडा ।
सन् १७४० मे श्राप जिला-मण्डल, देहली के प्रधान मन्त्री तथा १६४१ में अध्यक्ष निर्वाचित किये गये थे । सन् १९४२ के "भारत छोडो" प्रान्दोलन के अवसर पर आपने जेल जाने वाले वन्धुनो के कुटुम्बियो की भरसक सहायता एव सेवा की थी। तभी आपने एक सोसायटी की स्थापना कर जेल-मन्त्रियों की पैरवी करने में सक्रिय भाग लिया था । सन् १९५८ मे यद्यपि आप अस्वस्थ रहने लगे थे, किन्तु फिर भी आपको दरियागज दिल्ली काग्रेस मण्डल कमेटी का सक्रिय सदस्य चुना गया था । यह सब कुछ लालाजी की राष्ट्रसेवा एव राष्ट्रभक्ति के परिणामस्वरूप ही तो ।
धार्मिक एवं सामाजिक सेवायें यह कहने अथवा लिखने की बात नही कि लाला तनसुखरायजी ने बडी धार्मिक सेवाएं की है। नि सन्देह शैशव काल से ही उन्हे धर्म से अगाव प्रेम था । उनकी मनोवृत्ति प्रारम्भ से ही धार्मिक कार्यों की ओर अनायास
जाती थी ।
प्रवृत हो
-
सन् १९०८ मे जब लालाजी केवल नो वर्ष ही थे, तब ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का पजाब मे विहार करते हुए मुल्तान में आगमन हुआ । लालाजी ब्रह्मचारीजी के पास रहते थे और उन्ही की सेवा में रत रहते थे । सन् १९३४ में आप लक्ष्मी बीमा कम्पनी के मैनेजर होकर दिल्ली आये । इसी वर्ष अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् का अधिवेशन दिल्ली
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अधिवेशन बडा सफल रहा। तभी आपके परिपद का मन्त्री चुना गया
में हुआ और आप उसकी स्वागत समिति के प्रधान मन्त्री चुने गये । आपके सप्रयत्नो से वह और आप उस पद पर निरन्तर सन् १९३८ तक प्रारूढ रहे । अपने मन्त्रित्व काल मे उन्होने परिषद् का प्रचार एवं उन्नति करने मे अपनी घोर से कुछ न उठा रखा । सन् १९३६ मे भापने जैन कोआपरेटिव बैंक एव जैन कल्व की स्थापना की और उसी वर्ष वीर सेवा मन्दिर" मे मनाई जाने वाली 'वीरशासन जयन्ती' के आप सभापति बनाये गये । उसी वर्ष ग्राप निवखेडा (मध्य भारत ) में भीलो की एक कान्फ्रेंस के सभापति वनकर गये और वहाँ पर आपके व्यक्तित्व एव धार्मिक प्रेम से प्रभावित होकर ५००० भीलो ने मास न खाने की दृढ प्रतिज्ञा की ।
सन् १९४० मे आप मुजफ्फरनगर में होने वाले परिषद् के अधिवेशन मे सभापति बनकर गये थे । सन् १९४१ मे जब सरकार ने दिल्ली की मस्जिद के सम्मुख जैनियो के जलूस के वा वजने पर रोक लगा दी थी तब श्रापने एक बडा आन्दोलन प्रारम्भ करके सरकार से टक्कर ली और उसमे भारी सफलता प्राप्त की। यही नही, सिकन्द्राबाद ( उ० प्र०) नामक नगर मे जब जैनियो के उत्सव मे कुछ उत्पादियो ने रंग मे भग मे कर दिया था, तब आपके ही प्रयास से उत्पातियो को लम्बी-लम्बी सजाएँ भुगतनी पड़ी थी। इसी वर्ष जब आप धावू पर्वत पर वहां के मन्दिरो के दर्शनार्थं गये थे, तब सिरोही स्टेट द्वारा यात्रियों से भारी कर (टैक्स) वसूल किया जाता था । आपने उस टैक्स का डटकर घोर विरोध किया और कहा - "यह जैनियो पर टैक्स नही वरन् उन पर कलक है। इतना ही नही हमारी स्वाधीनता तथा स्वाभिमान पर कठोर प्रहार है ।" आपके इन प्रेरणात्मक शब्दो को सुनकर जैन समाज जागृत हो उठा और उस टैक्स को समाप्त कराके ही शान्ति की बासुरी बजाई ।
आपने दिगम्बर जैन पोलिटेक्निकल कॉलेज, बडीत का अपने कर-कमलो द्वारा शिलान्यास करके जैन नवयुवको को तकनीकी शिक्षा देने की विशाल योजना का श्रीगणेश किया। जिस समय भदैनी घाट पर स्थिति स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी के भवन को गंगा नदी के थपेड़े जर्जर कर रहे थे, तथा विशाल जैन मन्दिर की दीवारें डगडगाने लगी थी, तब लालाजी के प्रयास एवं प्रथक परिश्रम के द्वारा सरकार ने उसके उद्धार के लिए पर्याप्त धनराशि देकर सहायता की थी ।
लालाजी चरित्र चक्रवर्ती श्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज के परम भक्त थे । माप अनेक बार उनके दर्शनार्थं जहां कही भी वे होते थे, वही पहुंचा करते थे ।
उपरोक्त धार्मिक कार्यों के अतिरिक्त लालाजी ने वनस्पति घी निषेद्ध कमेटी, अखिल भारतवर्षीय मानव धर्म (ह, यूकोनिटेरियन) सम्मेलन, अग्रवाल महासभा, वैश्य कान्फ्रेंस, वैदय महासभा, हरिजन आश्रम की स्थापना, मारवाडी सम्मेलन कलकत्ता, सेवा समितियां, बम्बई जीव,
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दया मण्डली, भारतीय वैजिटेरियन सोसायटी प्रादि अनेकानेक संस्थाओ की सक्रिय, नि स्वार्थरूप से सेवा की है।
लालाजी जो भी कार्य करते थे, उसको सम्पन्न करने मे आप तन-मन-धन से जुट जाते थे और पाशातीत सफलता प्राप्त करते थे।
६४ वर्ष की आयु मे लालाजी का देहावसान हो गया; परन्तु अपने जन्मकाल मे उन्होने जो-जो भी राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक कार्य किए है , वे किसी भी व्यक्ति से भुलाये नही जा सकते है ; अपितु भावी नागरिको के जीवन को दीपशिखा की भाति सदैव आलोकित करते रहेगे और उनके जीवन की पतवार के समान सिद्ध होगे। ' अन्त में, यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि वे जैन समाज के ही क्या, वैश्य वर्ण के महान् सेवक, सफल कार्यकर्ता, नव युवको के प्रेरक, जैन-परिपद् की अडिग शिला एव मानवता के सच्चे पुजारी थे।
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तनसुखरायजी को शुभाशीर्वाद
श्री दयाशंकर ज्योतिषी
८५, मुन्नालाल स्ट्रीट, कानपुर विधिदे बडाई, वाहुवल वीर्य विक्रम को,
ज्ञानमान युक्त वजरगवली वल दे। शकर दे सकल सुफल मनकामना को,
जेतो भूमि वैभव सुरेश सो सकल दे । राम रमणीयता दे कृष्ण कमनीयता दे,
अम्बिका भवानी शत्रु साहिनी को दल दे। राजो जैन वंश अवतस तनसुखराय,
धन दें धनेश श्रीगणेश पुत्र फल दें।
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समाज सुधारक
लाला तनसुखराय जी से मेरा परिचय दस्सा पूजा अधिकार कान्फ्रेंस के अवसर पर हुआ । उसके पश्चात् हमारे सम्बन्ध वढते ही गए और उनके प्रेम और प्रयत्न ने मुझे कांधला (जिला मुजफ्फरनगर) से दिल्ली बुला लिया । मैंने भाई साहब को बहुत निकट से देखा है । वे चोटी के 'आर्गे नाइजर' तो थे ही, उससे अधिक भी बहुत कुछ थे ।
डॉ० नन्द किशोरजी ७, बरियागंज, दिल्ली
डा० नन्दकिशोरजी लालाजी के साथियो मे से है जिन्हे लालाजी की पैनी दृष्टि ने परखा और अपने साथ रख लिया 1 वे उत्तम कार्यकर्त्ताओं को प्रोत्साहन देते थे। इसी के फलस्वरूप महगाँव काण्ड श्रावू श्रान्दोलन आदि कामो मे लालाजी को श्राशातीत सफलता मिली । डा० नन्दकिशोरजी के उद्गार प्रशसनीय है । जो इस बात को वता रहे है कि लालाजी कितने प्रतिथिपरायण थे ।
सन् १९४२ मे जबकि वे जैन मित्र मण्डल दिल्ली के प्रधान मन्त्री थे, उन्होने महावीर जयन्ती महोत्सव को सर्वप्रथम वह रूप दिया जिसकी नकल अब भी की जाती है । वह प्रथम ऐतिहासिक उत्सव था जिसमे जैन पंडितो और गधर्वो के अतिरिक्त दिगम्बर और श्वेताम्बर साधुओ के भाषण हुए थे और पार्लियामेंट के जैन तथा जैनेतर सदस्यों ने भाग लिया था । श्रावू के प्रसिद्ध जैन मन्दिरो मे प्रवेश करते समय जैन धर्म अनुयाइयो से कर लिए जाने को वह जैन समाज का अपमान समझते थे और उक्त कर से भक्ति के लिए सन् १९४२ में ब्यावर मे उनकी प्रधानता में एक विशाल कान्फ्रेस हुई थी । उन्हें जैन धर्म और जैन समाज से कितना प्रेम था । यह इससे विदित है कि तिलक इन्शोरेस कम्पनी से ( जिसके वह मैनेजिंग डायरेक्टर थे) वेतन पाने वाले कई चोटी के कर्मचारी अपना काफी समय जैन समाज के सुधार कार्यों मे लगाते थे । वे अपने साथियो पर पूर्ण विश्वास करते थे। और सदैव उन्हें आगे बढाने का प्रयत्न करते थे । उनका दस्तरखान सदैव सबके लिए विछा रहता था । ये शब्द मैने भावुकतावश नहीं लिखे है बल्कि मैने जो लिखा है वह सब स्वयं देखा है ।
יו
जैन क्षेत्र के अतिरिक्त जेनेतर क्षेत्र मे भी उनकी मान्यता थी। तभी तो सन् १६५४ मे
दिल्ली में होने वाले हरिजन मन्दिर प्रवेश अधिवेशन मे जब चाहा जो अशोभनीय था तो लाला तनसुखराय ने अग्रसेन दल के के द्वारो पर खड़ी कर दी ।
परिषद् विरोधियो ने वह कहना स्वयसेवको को दीवार कान्फ्रेस
जिस कदर कार्य उन्होने जैन समाज के लिए किया यदि किसी अन्य समाज मे कोई व्यक्ति इतना कार्य करता तो उसका नाम घर्म स्थानो और समाज के भवनों में स्वर्ण अक्षरों में लिखा - [ १०३
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होता । परन्तु अपना समाज व्यक्ति को सेवा और योग्यता के द्वारा नहीं बल्कि पैसे के गज से नापता है और हमारे धर्म स्थानो और समाज भवनो में उन्ही गृहस्थो के नाम के पत्थर और फोट लगाये जाते है जो उस नाप में पूरे उतरे । • प्रत्येक व्यक्ति की कुछ निजी कमिया, आकाक्षाये और विवशताये होती है जो उसके द्वारा किए गए कार्यों को या तो पूर्णरूप से प्रकाश में आने में बाधक होती है या उनका श्रेय उल्टे या सीधे तौर से दूसरो को पहुंच जाता है।
कुछ भी हो, दस्सा पूजा अधिकार, बालविवाह विरोध, हरिजन मन्दिर प्रवेश, पाबू मन्दिर टैक्स विरोध इत्यादि क्रान्तिकारी आन्दोलनो मे उन्होने प्रमुख कार्य किया था और उनके द्वारा की गई सेवाये भुलाई जाना सम्भव नहीं है । वे कहा करते थे मै परिषद का एक सिपाही हूँ और जैन समाज का तुच्छ सेवक और यही उनकी महानता थी।
यद्यपि विधि के विधान के अनुसार वे हमे सदव को छोड़कर चले गये है परन्तु उनकी , पवित्र याद हम कभी न भूल सकेंगे।
तू न होगा तो तेरी याद रहेगी।
नेकी कर दरिया में डाल
पं० परमेष्ठीदासजी जैन, न्यायतीर्थ
मालिक जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर (झांसी) परिषद के मन्त्री ला तनसुखराय जी जैन तो परिषद की सफलता को अपनी मुट्ठी मे लिए फिरते थे। उनके रहते हुए कभी कही कोई अव्यवस्था, गड़बडी या • परिषद के प्रभुत्व को डिगाने वाला कार्य हो ही नहीं सकता। उनके कार्यो, त्याग और उदारता
को देखकर मेरा दृढ निश्चय हो गया है कि वे परिषद के प्राण है । समाज अभी उनके त्याग को नही जान सकी है। उनका त्याग बीज के बलिदान की भाँति है, जिसका बलिदान मिट्टी में मिलना किसी को नही दिखाई देता, किन्तु उसके फल ही दिखाई देते है। इसी प्रकार समाज को यह नही मालूम कि लालाजी परिषद के लिए चुपचाप कितना बलिदान करते रहते है, किन्तु परिषद की उत्तरोत्तर सफलता देखकर ही हम सब सन्तुष्ट होते रहते है।
____मै जहां तक मालूम कर सका हूँ, ला. तनसुखरायजी परिषद के लिए अपना तन-मन लगाये हुए थे। मगर वे किसी को अपनी सेवा ज्ञात नहीं होने देते थे।
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लगनशील लालाजी
श्री गुलाबचंद पांड्या भोपाल (म०प्र०)
श्री गुलावचदजी पाड्या भोपाल जैन समाज के सुयोग्य सेवा भावी कार्यकर्ता है । और सामाजिक कार्यों मे सदा अग्रसर रहते है | आपका लालाजी के प्रति बड़ा प्रेम रहा है।
लाला तनसुखरायजी का जन्म सन् १८६६ ई० में० दि० जैन अग्रवाल लाला जोहरीमल जी के यहाँ हुआ | आपकी माता ने आपने बडे ही धार्मिक सस्कार बचपन से ही ऐसे डाले कि लालाजी जीवन पर्यन्त देश, धर्म-समाज की बड़ी भारी लगन से सेवा करते रहे । जैन समाज के महान विद्वान पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी से इनको सेवा करने की प्रेरणा प्राप्त हुई मे बचपन से ही लाला जी के प्रेरणाप्रद लेख जैन पत्रो में पढता रहा मैने देखा - जब भी जैन समाज के किसी भी कार्य में चाहे वह सामाजिक हो चाहे धार्मिक किसी भी प्रकार की रुकावट या शिथिलता भाई फौरन लालाजी का प्रेरणाप्रद बुलेटिन पत्रो मे आ जाता। आपको ये पसन्द ही नही था कि हमारा देश गुलाम रहे। इसीलिए आप गांधीजी के असहयोग आन्दोलन मै सन् १९३० ई० मे कूद पड़े । आपने अपनी सर्विस से त्यागपत्र दे दिया । आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया, फलस्वरूप प्रापको ६ मास का कारावास भुगतना पडा । आप काग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता रहे । पजाब कार्यकारिणी के सदस्य, मन्त्री श्रादि कई पदो पर रहे । दि० जैन परिपद के तो आप प्राण ही थे । आप ही के कारण कई अधिवेशन सफल हुए । श्राप निज की बीमा कम्पनी के डायरेक्टर थे । इसकी भोपाल मे भी शाखा थी। मेरा श्राप से साक्षात्कार का अवसर तब आया जब आप कुछ वर्ष पूर्व ही लाला प्रेमचन्दजी कन्ट्रक्टर (लाला राजकृष्णजी) जैन दरियागंज दिल्ली के यहाँ ठहरे थे । उसी समय विश्व मे शाकाहार सम्मेलन काशी मे चल रहा था । भोपाल स्टेशन से एक स्पेशल पास हुई। हमें मिशन सचालक बाबू कामना प्रसाद के पत्र से ठीक समय मालूम हुआ । मैंने लाला जी से कहा स्टेशन चलना है । फोरन तैयार हो गए साथ में गए। भग्रेजी मे उन्होने जैन धर्म और शाकाहार पर विदेशी विद्वानो से खूब वार्तालाप किया । उस समय आपने मुझसे बातचीत के दौरान मे कहा था हमारी समाज ईसाई मिशनरियो के मुकावले धर्म प्रचार मे बहुत पीछे है । हमारा धर्म पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। जो विद्वान् इस पर मनन, अध्ययन एक बार करता है हीरे की तरह इसकी कद्र करता है । परन्तु हमारे प्रचार की कमी के कारण जैन धर्मरूपी कोहनूर हीरा सब को प्राप्त नही हो पाता । समाज दान देने के लक्ष्य मे थोडा सुधार करे तो यह काम सहज ही हो जाता है । लालाजी जैसे कर्मठ वीर लगनशील श्रात्मा का समाज मे पैदा होना बड़े गौरव वात थी। उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली अर्पितु हेतु यह स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन प्रशसनीय है। करता हूँ । समाज के युवक भाइयो का कर्त्तव्य
मै लालाजी के प्रति हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित कि लालाजी के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर;
है
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उत्साहपूर्वक जैन धर्म-अहिंसा धर्म का प्रचार, सामाजिक कुरीतियो का निवारण कर । आज दहेज प्रथा के कारण जैन समाज का आर्थिक ढाचा अस्त-व्यस्त होता जा रहा है। लालाजी ने परिपद के माध्यम से अन्तर्जातीय विवाह का भारी प्रचार किया । फलस्वरूप ग्राज सैंकड़ो श्रन्तर्जातीय विवाह हो चुके । इनको प्रोत्साहन देते रहने की आवश्यकता है । स्वर्गीय आत्मा को शान्ति लाभ हो, यही शुभकामना है ।
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लाला तनसुखरायजी की संक्षिप्त जीवन झांकी
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श्री सुरेश कुमार जैन
दिल्ली
लाला तनमुखराय जैन एक पुराने समाज सेवी, नम्र और लगनशील कार्यकर्ता थे । इनका अविवाण जीवन समाजसेवा और जन-कल्याण मे बोता । आपकी कार्यशैली बहुत श्राकर्षक थी और समाज के कठिन से कठिन कार्य करने में भी वे नही झिझकते थे ।
ला० तनमुखराय जी का जन्म सन् १८६६ में अग्रवाल दिगम्बर जैन घराने मे ला० जोहरीमल जी के यहाँ हुआ । इनके परदादा ला० छज्जूमलजी ने अपने पुत्र गनेशीलालजी माथ गदर के बाद सन् १६६५ मे रोहतक से मुलतान की ओर प्रयत्न किया । वहाँ जाकर उन्होंने सर्राफा और लेनदेन का काम शुरू किया । ला० छज्जूमलजी बहुत परोपकारी थे और उन्हे वैद्य का बहुत शौक था । गरीवां को दवा मुफ्त दिया करते थे और घर जाकर रोगियो का देखते थे । अल्पकाल में उन्होंने ख्याति प्राप्त की। सरकार मे भी इन्हें बहुत मान मिला। उन्हे सरकारी खजाने का खजानची बना दिया गया। इसके वाद सराफे और लेनदेन का काम बहुत समय तक इनके दादा व पिताजी भी करते रहे । १९१४ में इनके पिता ला० जौहरीमल सकुटुम्ब भटिण्डा (पटियाला) रहने लगे, और वहाँ व्यापार शुरू किया । भटिन्डा में श्री तनसुखरायजी ने १९१८ में सरकारी नौकरी की और गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के कारण सन् १९२१ सरकारी नौकरी छोडकर राजनैतिक क्षेत्र में कूद पड़े ।
सन् १९०८ मे ब्रह्मचारी श्रीतलप्रसादजी मुलतान मे पधारे। ला० सनमुखरायजी की बचपन से ही धार्मिक मनोवृति थी । जब तक ब्रह्मचारीजी मुलतान मे रहे, वे अपना अधिक समय उनकी सेवा मे बिताते रहे । तबसे जीवनपर्यन्त लालाजी की धर्म और सामाजिक कामां में रागन बराबर बनी रही ।
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सन् १९१४ मे आपके पिता ला जौहरीमलजी भटिण्डा से पटियाला मे रहने लगे। उन दिनो पजाब मे सेवा समितियो का बहुत प्रचार था । श्री तनसुखरायजी भी वहाँ को सेवा समिति के एक स्वय-सेवक बने । उनके उत्साह और सेवा कार्य की सराहना सबने की और वहां की जनता उन्हे बहुत चाहने लगी।
__ सन् १९१८ मे रेलवे के दफ्तर में गवर्नमेट की मुलाजमत में प्रवेश किया। सादगी व स्वदेशी कपड़ो से वचपन से ही प्रेम था। गवर्नमेट मुलाजमत होने हुए भी स्वदेशी वस्तुप्रो का प्रयोग व स्वदेशी वस्त्रो को धारण करने की प्रतिज्ञा कर ली और राजनैतिक कार्यों में दिलचस्पी लेते रहे।
__ सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलन में मेरे-पजाव ला लाजपतरायजी के आदेश पर गवर्नमेट मुलाजमत को त्याग कर राजनैतिक क्षेत्र मे पाये । आपने ला लाजपतरायजी के साथ तिलक स्वराज्य फण्ड एकत्रित करने में काफी काम किया। प्राप पर ला० लाजपतरायजी का बहुत प्रेम था।
१९२२ में स्वदेशी वस्तु के प्रचारार्थ समिति बनाकर सैकड़ो लोगो ने स्वदेशी कपडा तथा वस्तुओ को धारण करने का प्रण कराया।
१९२३-२४ मे आप अपने जन्म-स्थान रोहतक मे आ गये और काग्रेस के कार्य में हिस्सा लेने लगे, कुछ दिनो मे वहाँ के अच्छे काग्रेसी कार्यकर्तामो मे लालाजी की गिनती होने लगी।
१९२५ में खादी प्रचार समिति तथा हिन्दी प्रचार समिति का कार्य किया।
१९२६ मे नौजवान भारत सभा जो कि पजाब की क्रान्तिकारी सोसायटी थी, उसके सदस्य बने और सन् २७ मे मजदूर किस न सभा का पजाब प्रान्तीय सम्मेलन किया, जिसके प्रधानमन्त्री बने । उसके कारण सरकार की कडी निगाह हो गई और दो साल तक सी आई.डी. इनके पीछे लगी रही।
१९२८ मे पनाव प्रान्तीय काग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गये और १९२६ के लाहौर काग्रेस अधिवेशन मे आपको प्रतिनिधि चुनकर भेजा गया। इस अधिवेशन मे मापने स्वयसेवको के कप्तान बनकर बड़ी सेवा की।
१९३० का असहयोग आन्दोलन मे आपने बहुत सक्रिय कार्य किया, रोहतक जिले में सत्याग्रहियो की भरती, उनके खाने-पीने रहने व धन एकत्रित करने का सारा भार उन पर ही था । आन्दोलन में हिस्सा लेने के कारण आपको ९ मास कारावास में भी रहना पड़ा।
१९३१-३२ मे हरिजन-उद्धार का कार्य जोरो से किया और हरिजन विद्याथियो के लिए आश्रम की नीव डाली, जिसका बहुत सारा खर्चा आप अपने पास से करते थे।
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१९३३ में रोहतक जिले मे बहुत जोरो के साथ बाढ आई। इस समय बाढ पीडितो के लिए एक रिलीफ कमेटी बनाकर कपडा, श्रौपधि व धन सहायता की, जिसके मत्री आप थे ।
१९३४ में शुरू में श्राप लक्ष्मी बीमा कम्पनी के मैनेजर होकर दिल्ली चले भायें और दिल्ली आने पर श्राप सेवा कार्यों में भाग लेने लगे। उसी साल दिल्ली में अखिल भारत दिगम्बर जैन परिषद का अधिवेशन कराया, जोकि एक बहुत सफल अधिवेशन था । उसको स्वागत समिति के प्रधान मन्त्री थाप थे । प्र० भा० दि० जैन परिषद के आप मत्री भी चुने गए। सन् ३४ के बाद सन् ३५-३६-३७-३८ मे प्र० भा० दि० जैन परिषद का कार्य बहुत जोरो से किया और सारे भारत में धूम मचादी और उन दिनो सतना खडवा अ० भा० दि० जैन परिषद के अधिवेशन, इतिहास मे अपना विशेष स्थान रखते है ।
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सन् ३१ मे जैन को-आपरेटिव बैक तथा जैन क्लब की स्थापना की और उसी साल सरसावा में वीर सेवा मंदिर की भोर से मनाये जाने वाले वीर शासन जयन्ती के सभापति बन कर गये। वहीं श्रापने अनेकात पत्र के दो साल के घाटे की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और दो वर्ष तक उस पत्र का घाटा पूरा किया। उसी साल निबखेडा ( मध्य भारत मे भीलो की एक कान्फ्रेंस में प्रधान बन कर गये । वहाँ के ५००० भीलो ने मास न खाने की प्रतिज्ञा प्रापकी प्रेरणा से ली थी ।
सन् ४० में जिलामण्डल देहली के प्रधानमन्त्री चुने गये। उसी साल मुजफ्फरनगर में जिला दिगम्बर जैन कान्फ्रेस के सभापति बनकर गये। जिस समय जापान ने कलकत्ते पर कमजारी की और वहाँ से हमारे मारवाडी भाई कलकत्ता छोडकर अपने देश आ रहे थे उस समय मारवाडी रिलीफ सोसायटी दिल्ली के मंत्री पद पर रहकर सेवा कार्य किया ।
सन् ४१ मे नई दिल्ली कांग्रेस कमेटी के प्रधान चुने गये । गवर्नमेंट ने मस्जिद के भागे जैनियो के जुलूस के बाजो पर पाबन्दी लगा दी थी। अभी तक जैनियो के जुलूस के बाजे मस्जिद के आगे बराबर बजते थे । इस अधिकार के लिए आपने आन्दोलन प्रारम्भ किया और सफलता प्राप्त की । इस आन्दोलन के मत्री आप थे । सिकन्द्राबाद यू० पी० मे कुछ उत्पातियो ने जैन उत्सव में बाधा पहुँचाई | आपने वहाँ जाकर उत्सव को सफल बनाया और जिन्होने बाधा डाली थी उन्हे सजा दिलवाई। उसी वर्ष बडौत के दिगम्बर जैन इण्टर कालेज का शिलान्यास आपके द्वारा हुआ । उसी साल श्राप श्राबू पर्वत पर दर्शनार्थं गये । वहाँ यात्रियो पर टोल टैक्स लगता था । उसके विरुद्ध आपने भारत व्यापी आन्दोलन प्रारम्भ किया और बढे संघर्ष के बाद उसमें सफलता मिली। इसी वर्ष व्यावर जैन कान्फ्रेस के प्रधान बन कर गये ।
सन् ४२-४३ मे काग्रेस का भारत छोडो आन्दोलन प्रारम्भ हुआ आपने उसमे जेल जाने वाले भाइयो के कुटुम्बियों की सहायता की और एक सोसायटी बनाकर उन भाइयो की पैरवी की तथा सक्रिय भाग लिया ।
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सन् ४४-४५ मे वनस्पति घी निपैध कमेटी के पद पर रहते हुए, आपने आन्दोलन किया और हजारो आदमियो के हस्ताक्षर कराकर, सरकार के पास भेजा।
सन ४६ में अखिल भारतवर्षीय मानव धर्म (ह्य मेनिटेरियन) सम्मेलन जिसकी अध्यक्षता श्रीमती रुकमणि देवी अरुण्डेल ने की थी, उस सम्मेलन के प्रधानमत्री धनकर उसे सफल बनाने का कार्य किया।
सन् ४७-४८ मे अग्नवाल महासभा, वैश्य कान्फेस व वैश्य महासभात्तथा मारवाडी सम्मेलन कलकत्ता के कार्य को देहली बढ़ाकर उसका सचालन किया।
सन् ४१-५०-५१ मे अग्रवाल महासभा को अधिक गति दी। उसका अधिवेशन भरवालो के उत्पति स्थान अमरोहा में हुमा, उसके प्रधान श्री कमलनयनजी वजाज बम्बई थे। उस अधिवेशन को सफल बनाने में प्रमुख भाग लिया। अ०भा० अग्रवाल महासभा के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए।
सन् ५३-५४ मे म० भारतीय अग्रवाल सभा के अध्यक्ष का कार्य किया। इसी वर्ष बम्बई जीव-दया मण्डली के कार्य का दिल्ली मे विशेष प्रचार किया- ओर इस काम को बढ़ाया। साथ ही 'रविदास' जन्म उत्सव की स्वागत समिति के चेयरमैन पद पर रहकर उस उत्सव को सफल बनाया।
सन् ५५ मे भारत की वेजिटेरियन सोसायटी द्वारा शाकाहार भोजन का प्रचार किया।
सन् ५६ में प्र० मा० दि० जैन परिषद के देवगड अधिवेशन मे आपको प्रधानमन्त्री बनाया गया।
सन् ५८ मे दरियागज देहली कांग्रेस मण्डल कमेटी के सदस्य चुने गये ।
सन् ५८ से अब तक आप अस्वस्थ रहते हुए भी बराबर धार्मिक, सामाजिक कार्यों में यथाशक्ति भाग लेते रहते है । इस प्रकार आपका पूरा जीवन सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक कार्यो मे ही व्यतीत हुआ। पाप समाज के कर्मठ कार्यकर्ता थे । भारत जैन महामण्डल के कार्यों में दिलचस्पी लेते रहे और उस काम को वढाने मे प्रयत्नशील रहे।
१४ जुलाई, १९६३ को ६४ वर्ष की अवस्था मे पापका स्वर्गवास हो गया । जिससे समाज का एक तेजस्वी नक्षत्र उठ गया। लालाजी के उत्तम कार्यों की स्मृति सदी जनता के मानस पलट पर बनी रहेगी।
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कर्मठ सेवा-भावी कार्यकर्ता
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श्री रतनलाल जैन
"बिजनौर
श्री तनसुखराय जी से मेरा परिचय सन्
वाबू रतनलालजी जैन Ex MLA परिषद १९३४ में देहली के भा० दि० जैन परिषद के
के सस्थापको मे से है। समाज और देश सेवा अधिवेशन मे हुआ था। उस समय स्वागत
की ओर आपकी स्वाभाविक रुचि है। कारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। उस
त्याग और सेवा की मूर्तिमान ज्योति है। अधिवेशन के सभापति स्वर्गीय ला० सुमेरचन्द
दृढ कर्मठ, साहसी और निरखे हुए समाज जी एडवोकेट थे । उस अधिवेशन का कार्य बडी
के ऐसे रत्न है जिन पर जैन समाज को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ था। उस अधिवेशन
| गौरव है। आपसे युवको और तरुणो को ' में उनकी कार्यदक्षता देखकर परिपक्ष ने उन्हे
वडा प्रकाश मिलता है । लालाजी के सम्बन्ध
मे लिखा गया आपका सस्मरण रोचक ' मन्त्री और मुझे प्रधान मन्त्री बनाया था।
और पठनीय है। श्री तनसुखराय जी ने पूरे सप्ताह के साथ परिषद के कार्य को आगे बढाया। उस समय वे देहली स्थित लक्ष्मी इन्श्योरेन्स कम्पनी के मैनेजर व सर्वेसर्वा थे । श्री अयोध्याप्रसादजी गोपलीय वधी कोमलप्रसादजी उनके साथ उपरोक्त कम्पनी में कार्य करते थे। इन दोनो सज्जनो ने सहयोग से परिषद के कार्य की प्रगति को बडे वेग के साथ बढाया ।
उस समय ग्वालियर राज्य के अन्तर्गत महगांव काह हुमा । यहा जैनियो की पूज्य प्रतिमाओ का घोर अपमान किया गया। इसके विरोध में परिपद ने आन्दोलन प्रारम्भ किया। उस आन्दोलन के वेग को तीन करके भारतव्यापी बना दिया । स्थान-स्थान पर जल्से हुए, भाई तनसुखरायजी ने मेरे साथ महगाव मादि स्थानो का दौरा किया। इस आन्दोलन ने जैन समाज में नया जीवन व स्फूर्ति उत्पन्न कर दी। इस युग में पहला अवसर था कि जब जैन समाज को अपनी संघ शक्ति का भान हुआ । ग्वालियर राज्य का शासन डोल गया और उसने जैन समाज से समझौता किया। वे १९४० तक मेरे साथ सहमन्त्री रहे । इस काल मे सतना व खडवा के मधिवेशन बड़े महत्व के हुए । महगाव काड के विरोध में सफलता एव खडवा आदि अधिवेशनो की सफलता का श्रेय भाई तनसुखराय जी को है।
सन् १९४० में बडीत अधिवेशन मे मेरे सभापति हो जाने एव तत्पश्चात् असहयोग आन्दोलन मे मेरे कारावास चले जाने पर भाई तनसुखराय जी ने परिषद के प्रधान मन्त्री के पद को सम्भाला और उसके कार्य को बड़ी योग्यता के साथ सचालन किया। उनकी सेवायो को देखकर बड़ौत जैन समाज ने परिषद अधिवेशन के शुभ अवसर पर उनसे बड़ौत जैन कालिज की नीव रखवाई। ११० ]
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परिषद ने अपने प्रारम्भिक जीवन में अपने कार्यकर्ताओ के अथक परिश्रम से पुरानी, सदियो से ग्रस्त जैन समाज को उनसे मुक्त किया और नवीन स्फूर्ति प्रदान की जिसके कारण जैन धर्मानुयायो जातियो मे अन्तर्जातीय विवाहो को प्रचलित करके छोटी-छोटी उपजातियों के ' जीवन की रक्षा को जा सकी, मरण भोज श्रादि कुत्सित प्रथाओ को दूर किया । विवाहो में एक रोज की बारात व सामूहिक विवादो को प्रचलित करके जैन समाज की अपव्यय से रक्षा की। जिस दस्सा पूजा (विनैकवार ) के मामले मे प्रतिक्रियावादी जैनो ने जैनदस्सो को जिन पूजा से वचित करके प्रात स्मरणीय प० गोपालदास जी वरया आदि समाज-सुधारको का अपमान व बहिष्कार किया था उस दस्सा पूजा को जैन समाज से मान्यता दिलाई। श्रद्धा व शुद्धता पूर्वक जाने वाले हरिजनो के लिए जैन मन्दिर के द्वार खुलवाकर जैन धर्म की उदारता का परिचय दिया । जैन समाज को प्रगतिशील व उदार बनाने का बहुत कुछ श्रेय भाई तनसुखराय जी को है ।
देहली में परिषद का द्वितीय अधिवेशन लाल मन्दिर के मैदान में साहू श्रेयासप्रसाद जी की अध्यक्षता मे हुआ था । सभामण्डप जैन जनता से खचाखच भरा हुआ था सात भाठ हजार जनता थी । रात्रि का समय था । हरिजन मन्दिर प्रवेश का प्रस्ताव रखा जा रहा था । उस समय प्रतिक्रियावादियो का एक समूह हुल्लड़ मचाता हुआ सभा मे घुसा और मच के पास जाकर प० परमेष्ठीदास जी प्रस्तावक को खीचकर मच से गिरा दिया, जल्से में गड़वड मच गई। परिषद के कार्यकर्त्ताओ को भी सभामण्डप मे आना पड़ा। रात्रि के ११ बजे श्री राजेन्द्रकुमारजी की कोठी पर परिपद के नेता व कार्यकर्तागण एकत्रित हुए, सभा मे प्रतिक्रियावादियो द्वारा किये गये हुल्लड व अधिवेशन में पास होने वाले प्रस्तावो पर विचार विनिमय हुआ । कुछ कार्यकर्ताओ ने कहा कि प्रतिक्रियावादियो के झगडे से बचने के लिए यह अच्छा होगा कि हम जल्सा नयी देहली के जैन मन्दिर में करके हरिजन मन्दिर प्रवेश का प्रस्ताव पास कर लें । इस पर हम दोनो (भाई तनसुखरायजी व मैंने ) ने कहा कि यदि निश्चित स्थान व पडाल को छोडकर नयी देहली के जैन मन्दिर मे जलसा करके हरिजन मन्दिर प्रवेश वाला प्रस्ताव पास करलें, तो उसका कोई महत्व नही होगा, जनता यही कहेगी कि हरिजन वाला प्रस्ताव फेल हो गया । मत जल्सा लाल मन्दिर के मैदान मे निश्चित पडाल व निश्चित समय पर ही होना चाहिए, उसके प्रबन्ध की जिम्मेदारी हम दोनो ने ली । श्री तनसुखराय जी ने उसी रात को १०० स्वयसेवको का प्रबन्ध किया और अगले. दिन निश्चित स्थान व पडाल को निश्चित समय पर परिषद अधिवेशन को हरिजन मन्दिर प्रवेश - आदि प्रस्तावो को पास कराकर अधिवेशन को सफल बनाया ।
श्री तनसुखरायजी बड़े उत्साही, साहसी, वीर व लगनशील थे। कार्य करने की क्षमता उनमें अपूर्व थी। वे वडे मेहमान निवाज (अतिथि सत्कार ) थे। अतिथियो का सत्कार करते थे । कोई दिन ही ऐसा व्यतीत होता होगा जबकि उनके यहा कोई न कोई अतिथि न ठहरा हो । ऐसे प्रेमी कार्यकर्ता के निधन से जो क्षति जैन समाज मे हुई है उसकी पूर्ति निकट भविष्य मे होना कठिन ही प्रतीत होती है।
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लालाजी एक संस्था थे (मधुर स्मृति)
श्री यशपाल जैन ७८, दरियागंज, दिल्ली
भाई साहब तनसुखरायजी से मेरी पहली भेट कब और कहा हुई थी, याद नही आता3B लेकिन एक प्रसग आज भी मेरे स्मृति-पलट पर यथावत अकित है। उन दिनो वे 'तिलक वीमा कम्पनी' का संचालन कर रहे थे और उनका कार्यालय नई दिल्ली में प्रोडियन के पास किसी इमारत मे था । भाई अयोध्याप्रसाद गोयलीय उनके साथ काम करते रहे थे। उस समय का उनका वैभव और तेजस्विता पाजाभी भूले नही भूलती। पर सबसे बड़ी बात जिसने मुझे अपनी और खीचा, यह था कि वैभव के बीच होते हुए भी वे उस सारे ठाठ-बाट से ऊपर थे । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका अन्तर मानवीय मूल्यो से परिपूर्ण था।
सन् १९४६ के बाद मुझे उनके निकट सम्पर्क में आने का अवसर मिला और मैंने उनके जीवन के विभिन्न पहलुओ को देखा । जैन समाज में उनसे अधिक धनी-मानी व्यक्ति थे, लेकिन उनको.जोमान प्राप्त था, वह बहुत ही कम लोगो को उपलब्ध हो सका। उनकी सामाजिक सेवामओ ने उन्हे व्यक्ति से अधिक सस्था का रूप दे दिया था। अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिपद के वे भनेक वर्षों तक महामन्त्री रहे थे, लेकिन सच बात यह है कि वे परिपद के प्राण थे। न जाने कितने वर्षों तक उन्होंने इस सस्था को अपने पसीने से सीचा और अपने परिपक्वानुभव से उसे गति दी। बहुत-सी प्रवृतिया उसके अन्तर्गत चलाई । परिषद के अतिरिक्त और भी बहुत से लोकापयोगी कार्य उनके द्वारा सम्पादित हुए ।
समाज-सेवा की उनकी लौ कभी मन्द नही पड़ी। उल्टे उत्तरोत्तर तीव्र होती गई। मुझे याद “माता है, अपने अन्तिम दिनों में जवकि उनका शरीर साथ नहीं दे रहा था, वे बैजीटेरियन सोसायटी को लेकर कई योजनाएं बना रहे थे । कुछ साहित्य प्रकाशन की भी बात थी।
इन सारी प्रवृतियो के-पीछे उनकी एक ही भावना थी और वह यह कि हमारा भारतीय समाज शुद्ध और प्रबुद्ध-बने- समाज की मूलभूत ईकाई मानव है और वह मानते थे कि यदि मानव का जीवन परिष्कृत हो जाय तो.समाज.अपने आप सुपर जायेगा । वे मूलतः धार्मिक व्यक्ति थे, और उनकी माव्यता.थी कि,मानव का परिप्कार धर्म के आधार पर ही हो सकता है। लेकिन स्मरण रहे कि उनका धर्म रूढियो से वधा धर्म नहीं था। वे व्यापक धर्म में आस्था रखते थे, अर्थात् वह मानते थे कि मनुष्य को सच बोलना चाहिए, सचाई का जीवन जीना चाहिए, अहिंसा का पालन करना चाहिए, सयम से रहना चाहिए, आदि-आदि । इस प्रकार उनके लिए धर्म का ११]
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वास्तविक अर्थ था चरित्र की ऊचाई। उनका स्वय का जीवन वडा उदार था और उनको इस अमोघ गुण के सामने मेरा मस्तष्क बार-बार श्रद्धा से नत होता है ।
वे वणिक कुल में पैदा हुए थे, लेकिन वे वणिक नही वही बने। उन्होने बड़े-बड़े पदो पर पर कार्य किया । उन्हें जीवन मे एक-से-एक बढकर सुविधाएँ प्राप्त की। यदि इनके स्थान पर दूसरा होता तो लखपति बन सकता था, लेकिन वे लखपति तो क्या, हजार पति भी नही बने । जिनकी आस्था मानवीय मूल्यो मे होता है, वे धन के प्रति आसक्ति नही रखते और घन बिना आसक्ति के इकट्ठा हो नही सकता ।
उन जैसा साहसी व्यक्ति तो आज के युग में मुश्किल से मिल सकेगा । उन्हे जो बात ठीक लगती थी, उसे कहने मे वह कभी नही हिचकिचाते थे । उन्हे आजीवन इस बात की चिन्ता नही हुई कि उनकी बात से कोई बुरा मानेगा। जो ठीक लगा, उसे उन्होने साफ-साफ कहा । चूकि उनकी बात मे दुर्भावना नही होती थी, इसलिए उनकी कटु-से-कटु बात भी किसी को चोट नही पहुँचाती थी ।
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परिश्रमशील तो वे हृद दर्जे के थे । उच्चे स्थान पर पहुँच कर प्राय. व्यक्ति श्रम से अपने को बचाने लगता है और दूसरे के श्रम का लाभ लेना चाहता है, लेकिन भाई साहब मे ये बातें नही थी । वे स्वय इतना परिश्रम करते थे कि कोई युवक भी उनके परिश्रम को देखकर लज्जा अनुभव कर सकता था । श्रम उनके जीवन का प्रमुख अग वन गया था इतना कि वे उससे एक पल भी छुटकारा नही पा सकते थे ।
समाज सेवा के अतिरिक्त राजनीति में भी उनका भारी योगदान रहा । कुछ समय तक उन्होने राजनीति में सक्रिय भाग लिया । स्वाधीनता सग्राम की छोटी वडी सभी प्रवृतियो मे मदद की, जीवन के अन्तिम क्षण तक आदतन खादी पहनी, लेकिन जब उन्होंने देखा कि राजनीति मे ग्राडम्बर का समावेश आरम्भ हो गया है तो उन्होने थोडा पीछे हटना अच्छा समझा। फिर भी उनसे जो कुछ बना, बरावर करते रहे । पदो के लिए जनके मन मे मोह न था । वे चाहते तो किसी भी बड़े-से-बड़े पद पर पहुँच सकते थे। लेकिन चाहते तब न । वे मूक सेवक थे और उनके जीवन का लक्ष्य नि स्वार्थ भाव से सेवा करना था ।
वे अच्छे वक्ता एव लेखक भी थे। उनकी एक बडी विशेषता यह थी कि वे जो कुछ कहते थे, नाप-तौल कर कहते थे । शब्दो का आडम्बर उन्हे प्रिय न था । यही बात उनके लिखने के वारे थी । उन्हे जो कुछ कहना होता था, थोडे से शब्दो मे कह देते थे । इसलिए उनकी भाषा वडी गठी और मजी हुई होती थी। उनके विचार वडे स्पष्ट थे, इस वजह से उनकी भापा और शैली भी स्पष्ट थी ।
भाईसाहब ने लम्बी बीमारी पाई, पर वे उनसे पराभूत नही हुए। मुझे याद है, वे नित्य नियम से सवेरे राजघाट पर टहलने जाया करते थे। बीमारी ने जब उन्हें श्रणक्त कर दिया तब
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भी उन्होने साहस नही खोया । वे बार-बार कहा करते कि मे जल्दी ही ठीक हो जाऊँगा श्रौर पहले की तरह राजघाट घूमने आया करूगा । हुआ भी ऐसा ही । ज्योही उनकी तबियत सभलने लगी, वे रिक्शा में राजघाट आने लगे और बाद मे उन्होने पैदल चलना भी शुरू कर दिया, लेकिन कौन जानता था कि वह बुझते दीपक की अन्तिम चमक थी ।
भाईसाहब चले गये, पर आज भी यह नही लगता कि वे हमारे बीच नही है। उनका हसमुख चेहरा, मधुर बाते, अच्छे कार्यों के लिए उनकी लगन और न जाने क्या-क्या बातें सामने लाती है । वे जीवन-भर समाज को देते रहे, लेने की चाह उन्होने कभी नही की । यथायंत उनका अन्तर भरा-पूरा था ।
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हमारा परम सौभाग्य था कि उन जैसा व्यक्ति हमारे बीच श्राया । उनको खोकर आज हम बडी रिक्तता अनुभव करते है । उनकी प्रेरणाए हमारा मार्ग-दर्शन करती रहे, ऐसी प्रभु से प्रार्थना है ।
मैं उनकी स्मृति में अपनी विनम्र श्रद्धाजलि प्रर्पित करता हूँ ।
अहिंसा के प्रेमी और पशुधन के रक्षक
भगवान महावीर ने उस समय राज वैभव और ऐश्वर्य को लात मारकर जैनेश्वरी दीक्षा स्वीकार की जब कि रूढिभक्त धर्म के नाम पर पशुओ को यज्ञ की घघकती हुई अग्नि मे स्वर्ग प्राप्ति के लिए बलिदान कर देते थे । उन्होने अहिंसा का बिगुल बजाया और प्राणीमात्र की रक्षा का संदेश दिया । आज भोजन और विटामन के नाम पर पशुओ का वडी निर्दयता के साथ वध किया जा रहा है । देश की समृद्धि का मूल स्रोत गोधन का ह्रास हो रहा है। श्राज देश को अहिंसा की बड़ी आवश्यकता है । पशु धन की रक्षा करना प्रत्येक का कर्तव्य है । लालाजी ने इस सम्बन्ध मे महत्वपूर्ण कार्य किया, शाकाहार को प्रोत्साहन दिया और अहिंसा धर्म का प्रचार किया । मैं Sara का ध्यान इसोर प्राकर्षित करना चाहता हूं कि वे पशुधन की रक्षा करें। लालाजी के प्रति मैं अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ ।
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माननीय श्री जयन्तीलाल, मानकर सचालक, जीवदया हा मिनी लीग, बम्बई
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लालाजी एक योद्धा
युधकरत्न श्री सत्यंधर कुमार सेठी
उज्जैन
लाला तनसुखरायजी जैन का स्मृति-ग्रन्थ
। प० सत्यन्धरकुमार जी सेठी कुशलनिकालकर दि० जैन समाज ने एक निस्वार्थ
| व्यवसायी और निर्भीक वक्ता है। मिशनरी एव कर्मठ कार्यकर्ता के प्रति अपनी श्रद्धा का
| भावना से अोतप्रोत जिनशासन के अनन्य परिचय दिया है। लाला तनसुखरायजी जैन का | भक्त है । जैन मिशन के सक्रिय कार्यकर्ता नाम उन पुरुषों की श्रेणी मे ले सकते है
| है। वे समाज के ऐसे तेजस्वी उदीयमान जिन्होंने देश, धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए | नक्षत्र हैं जिन पर समाज को गर्व है। अपने आपको अर्पित कर दिया है । लालाजी का जन्म एक वैश्य परिवार में हुआ था, लेकिन वे यही तक सीमित नही रहे । वे राष्ट्र और समाज के एक लाइले पुत्र माने जाते थे।
सामाजिक क्षेत्र के पहले लालाजी का जीवन राष्ट्रीय क्षेत्र मे अधिक विकसित हुआ। सन् १९१८ मे लालाजी सरकारी नौकरी करते थे । ज्योही पूज्य महात्माजी के नेतृत्व मे ब्रिटिश गवर्नमेट के खिलाफ असहयोग आन्दोलन छिडा, लालाजी इससे प्रभावित हुए और वे नौकरी छोडकर निर्भीक सेनानी की तरह असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े । यह लालाजी का पहला महान् त्याग था। उस वक्त ऐसा करना ब्रिटिश सरकार की दृष्टि मे गहरा अपराध था । लालाजी प्रारम्भ से ही कर्मठ और निर्भीक कार्यकर्ता थे। आपकी कार्यशंली से बड़े-बड़े देश-नेता भी प्रभावित थे। इसलिए थोडे से समय मे ही लालाजी देशनायक प० जवाहरलाल नेहरू व लाला लाजपतरायजी के सपर्क मे आ गये । और आपने डटकर राष्ट्रीय क्षेत्र में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया । वडे-बडे क्रान्तिकारी नेताओं का ध्यान भी आपकी तरफ गया। वे चाहते थे कि लाला स्नसुखरायजी हमारा साथ दें। उस वक्त पजाव मे नौजवान भारत सभा एक क्रान्तिकारी सस्था थी जिस पर सरकार की कड़ी दृष्टि रहती थी। आप उसके सदस्य बने जिससे विटिग सरकार की दो वर्ष तक आपके ऊपर वडी दृष्टि रही। और अन्त मे सन् १९३० मे आपको कारावास का मेहमान बनना पड़ा।
इसके बाद आपने एक नही अनेको आन्दोलनो मे भाग लिया, और देश को आजादी मिली। यहाँ तक आप राष्ट्रीय क्षेत्र मे अवाधरूप से कार्य करते रहे जिनमे हरिजन उद्धार हरिजनो के बच्चो के लिए आश्रम बनवाना, रोहतक जिले मे वाढ पीडितो की सहायता करना व कराना। खादी प्रचार समिति व हिन्दी प्रचार समिति प्रादि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ११६ ]
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इसके साथ-साथ आपका धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र शून्य नहीं रहा । आप राजनैतिक क्षेत्र के योद्धा थे। फिर भी आपकी आत्मा धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र से भी प्रभावित थी । अत. आपने राजनैतिक क्षेत्र में काम करते हुए भी सामाजिक क्षेत्र व धार्मिक क्षेत्र को गौरव नही दिया। सामाजिक क्षेत्र में लालाजी ने कई उल्लेखनीय सेवायें की है जिनके कारण जैनत्त्व चमका और उसकी सस्कृति का सरक्षण हुआ। लालाजी ने जैन समाज की चहुंमुखी प्रगति में योग दिया। बडे-बडे सामाजिक आन्दोलन किए । लेकिन दुख है कि जैन समाज ने उनके साथ पूर्ण सहयोग नहीं दिया , और कुछ रूनि भक्त लोग तो अन्त तक लालाजी के विचारो का विरोध करते ही रहे लालाजी को जैन समाज मे कई वार कठिनाइयो का सामना करना पड़ा है। फिर भी वे अडिग भाव से डटे रहे । वे जानते थे जैन समाज अभी बहुत पिछड़ा हुआ समाज है । वह धर्म क्या है यह भी नहीं जानता। और समाज वैसे ऊंचा उठ सकता है इसका भी विचार नहीं करता । लालाजी ने सक्षिप्त रूप मे यह समझ लिया था कि जैन धर्म एक मानवतावादी धर्म है जहाँ प्राणीमात्र को अपना विकास करने का अवसर दिया गया है। धर्म-जाति वर्ण का कोई स्थान आता नहीं । धर्म तो वस्तुत. स्वभाव है।
लालाजी के विचारो से कुछ बुद्धिजीवी लोग अवश्य प्रभावित हुए, उन्होने एक अखिलभारतीय परिपद के नाम से सगठन किया। और उसकी वागडोर लालाजी के हाथ मे सौप दी। लालाजी उसके महामन्त्री रहे । आपके मन्त्रित्व मे परिपद के कई अधिवेशन महत्त्वपूर्ण रहे।
लालाजी जिस काम को अपने हाथ में लेते उससे वे क्यो पीछे नहीं जाते और न हटते। सामाजिक क्षेत्र में काम करते हुए भी उन्होने कई आन्दोलन ऐसे किये जिनमे दूसरा व्यक्ति सफल नहीं हो सकता था। जैसे महगाव काण्ड प्रावू मदिर टैक्स।
इसके अलावा लालाजी की और भी कई सार्वजनिक सेवाये है, जैसे जैन कोप्रॉपरेटिव बैंक वजन क्लब की स्थापना । नीमखेडा मे ५००० भीलो से मास छुडवाना, मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी शाखा दिल्ली के मन्त्री पद पर रह कर मारवाटी भाइयो की अपूर्व सेवा करना, भारत छोडो आन्दोलन मे जेल जाने वाले भाइयो के कुटुम्बियो को मदद करवाना, बनस्पति घी निपेष आन्दोलन करना, अखिल भारतवीय मानव धर्म सम्मेलन के प्रधान मन्त्री बनकर उसे सफल बनाना आदि-आदि।
____ लालाजी की ये सेवायें आज भी मूलरूप ले जीवित है और वे हमे प्रेरणा देती है । लालाजी वास्तव में प्रेरणा के स्रोत थे। जैन युवको का कर्तव्य है कि वे लालाजी के जीवन से प्रेरणा ले और जिन कार्यों से उन्हे रुचि थी उनको पूर्ण करने का प्रयल करें। लालाजी सामाजिक रूढियो के कट्टर विरोधी थे । समाज में प्राज भी कई रूढ़ियां ऐसी है जिनसे समाज जर्जरित हो रहा है जिनमे दहेज प्रथा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रथा ने समाज मे इतना घर कर लिया है कि फलस्वरूप समाज की कई अवोध बच्चियो को इस प्रथा के नाम पर अश्रु बहाने पड़ रहे है। क्या समाज हितपी युवक ध्यान देंगे, और इसके विरोध में अपना कदम वढावेंगे। लालाजी आज भी हमको याद आते है । और कभी-कभी हम सोचते है कि यदि लालाजी पाज होते तो वे कभी भी इस प्रथा को नही पनपने देते।
वास्तव मे लालाजी एक कट्टर वीर योद्धा थे। जिनके सामने श्रद्धा से अपने आप सर नमित हो जाता है।
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आन्दोलनकारी लालाजी
श्री बलभद्र जैन
भागरा
लाला तनसुखराय समाज के उन गिने-चुने । ५० बलभद्रजी जैन समाज के ऐसे नव- | मार्वजनिक कार्यकर्ताओ मे से थे, जिनकी
पीढी के विद्वान् है जो कलम और वाणी सूझ-बूझ, कार्य-क्षमता और लगन पर किसी
दोनो के धनी है। पिछले दो वर्षों से भारतसमाज को गर्व हो सकता है। उनका सारा
गौरव आचार्य रल देशभूषणजी महाराज जीवन सार्वजनिक-सेवा मे ही वीता। राष्ट्र-सेवा
के सानिध्य में रह कर आपने अच्छी कीर्ति के क्षेत्र मे उतर कर उन्होने अपने सार्वजनिक
प्राप्त की है। इससे आपका यश बढा जीवन का प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्हे है। हम आशा करते है कि समाज ऐसे कई बार कारावास का दण्ड भोगना पड़ा।
प्रचारकीय भावना सम्पन्न के विद्वानो को किन्तु जीवन के अन्त तक उन्होने राष्ट्र-सेवा
| सहयोग देकर उनसे यथोचित लाभ उठावे । के व्रत से मुंह नही मोडा।
वे प्रगतिशील विचारो के समर्थक थे। रुढिवादिता से उन्हे घृणा थी। वे समाज का नव निर्माण करने के हामी थे । वे चाहते थे कि समाज धर्म और सस्कृति के पुरातन प्रादर्शो पर कायम रह कर अपने कदम युग के साथ बढाये । सकीर्णताओ और निरर्थक बन्धनो मे जकडकर समाज की प्रगति को जिन मान्यताप्रो ने अवरुद्ध कर दिया है उन मान्यताओ को पुरातनता की दुहाई देकर कायम रखना वे कभी स्वीकार नही कर सके । रूढिगत मान्यताओ के पुनर्मूल्याकन और उपयोगितावाद की नीव पर उनके पुनरुद्धार में उनकी गहरी आस्था थी।
उनके काम करने का अपना एक ढग था । वे जन-मानस को आन्दोलित करने मे कुशल थे। सघर्षों को स्वस्थ रूप देना, आन्दोलनो को सचालन करना, विषम परिस्थितियो मे अविचल रह कर सूझ-बूझ से काम लेना ये उनकी अपनी विशेषताएं थी। और इसे मानने मे वे वास्तविक नेता कहे जा सकते है। आन्दोलन प्रारम्भ करने से पूर्व वे उसके परिणामो पर भली-भाति विचार करते थे । उसकी रूपरेखा बनाते समय भली-भाति निरीक्षण कर लेते थे कि छिद्र तो नही रह गया। तब वे समाज मे फीलर फेक कर समाज के मानस मे एक परिस्पन्द पैदा करते थे। धीरे-धीरे समाज की चेतना उबुद्ध करके वे उस पर छा जाते थे। तब वे अनिवार्य समाज के लिए । इस प्रकार का ढग उनके प्रान्दोलन करने का । इसीलिए उन्होने जो आन्दोलन उठाया, उसमे पूर्णत सफल हुए। जिस कार्य को भी उठाया, उसीको एक आन्दोलन का रूप दे दिया और समाज के मानस को उस पर विचार करने, उससे प्रभावित होने और उसमे सक्रिय सहयोग देने को विवश कर दिया। यदि उन्हे आन्दोलनकर्ता कहा जाय तो उनका सही चित्र सामने आ सकता है।
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भा० दि० जैन परिषद में जीवन नही था। लालाजी मन्त्री चुने गये और परिषद चमक उठी। उसका विगत चैतन्य लोट पाया । लोग आश्चर्य से देखने लगे। कैसा है यह नादू और इसका जादूगर, जिसने जादूगर की छडी लगाते ही मुर्दो में जान फूक दौ; सोई नसो मे रक्त प्रवाहित होने लगा और मुर्दे जानवारो से भी बाजी मारने लगे। लालाजी के मन्त्रित्व-काल में परिषद सही अर्थों में प्रगतिशील विचारो की एक प्रतिनिधि सस्था थी। परिपद को खड़ा करने में लालाजी को जो कुर्बानियाँ देनी पड़ी, उसका सही मूल्याकन समाज ने कभी नहीं किया, यह इतिहास की एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। किन्तु लालाजी के मन पर इसका कभी प्रभाव नही पडा।
आबू का जैन मन्दिर शिल्प और स्थापत्य कला का वे-जोड, अनुपम नमूना माना जाता है। वह पर्यटको का आकर्षण केन्द्र है। सिरोही स्टेट ने वहाँ जाने वाले यात्रियो पर टैक्स लगा दिया। यह असह्य अन्याय था । इसके विरुद्ध लालाजी ने आवाज उठाई। जनता के मन में जो विरोध घुमड रहा था, उसे आन्दोलन का रूप दिया। यह आन्दोलन जनता का आन्दोलन बन गया। सिरोही स्टेट को घुटने टेकने पडे और टैक्स हटाना पड़ा।
पशु-रक्षा-आन्दोलन, दहेज प्रथा विरोधी आन्दोलन, दहेज प्रदर्शन विरोधी आन्दोलन, मरण भोज विरोधी आन्दोलन, सामूहिक विवाह आन्दोलन आदि अनेको आन्दोलन का नेतृत्व करके लालाजी ने अपनी जीवन कार्य-शक्ति का परिचय दिया। वास्तव में लालाजी का जीवन सघर्षों का जीवन रहा है और उन्होने रचनात्मक प्रतिभा और जीवित नेतृत्व से समाज को जीवन-दान दिया है। क्या समाज निर्माण से उनका योगदान किसी भी अर्थ में कम महत्त्वपूर्ण है ?
मरण जीवन का अनिवार्य परिणाम है । किन्तु जन-सेवा करके जिन्होने अपने जीवन को सफल किया है, उनका मरण शोक नही; गौरव का विषय बन जाता है । लालाजी आज हमारे बीच नहीं है, किन्तु उन्होंने अपने जीवन को जन-जन की सेवा मे समर्पित करके सार्थक किया था। उनका जीवन उद्देश्यपूर्ण था। इसलिए उनका मरण भी गौरवशाली और स्मरणीय बन गया है।
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सामाजिक व धार्मिक सेवायें
ज्योतिष रत्न पं० रामलाल जैन
पचररन, ललितपुर
स्वर्गीय लालाजी के जीवन का प्रत्येक क्षण सस्मरणीय है तथा देश, जाति, समाज और धर्मानुराग से अोतप्रोत है । विदेश तथा सामाजिक सेवामो के लिए अपने जीवन का प्रभावक चमत्कार हमे दे गये है जो जीवन में प्रकाश का काम करता रहेगा।
१ देश-भक्ति के वे बडे उपासक रहे है अपना जीवन स्वदेशी गाढे के कपड़ो से साधारणतया बिताते रहे । न कभी शौकीनी व शृगार की भावना रही, न कभी सिनेमा, नाच, तमाशे और विलासप्रियता के जाल मे वे फसे, जेल भी गये, सब कुछ त्याग किया। बलिदान अपने जीवन का देशभक्ति मे अर्पण किया । लालाजी का जीवन, निरभिमानता, सात्विक, सदाचार और सद्विचारो में व्यतीत हुआ है।
वे हमे अपने देश भक्त, कर्मवीर, सादा और सात्विक जीवन व्यतीत करने का सन्देश दे गये है ।
२. सामाजिक-सेवा- लालाजी की सर्वोपरि कही जा सकती है। उन्होने समाज के सगठन, एकता पर बडा भारी प्रयत्न किया और उसमें सफल भी हुए परन्तु दुर्भाग्यवश अवसर पाने पर भी प्रा० दि० जैन महासभा, सघ और परिपद का एकीकरण न हो सका परिषद जैसी प्रगतिशील सुधार सस्था का भी जीवन बलिदान कर देने पर भी एकमात्र महासभा की छत्रछाया मे ही रहना स्वीकार कर लिया। साहू शान्तिप्रसादजी जैसे धनकुवेर, उदारमना उत्साही के बार-बार प्रेरणा देने पर भी समाज का भाग्य जाग्रत न हो सका और आज भी सन्निवेश की दशा में पड़ा है। हमारे समाज-सेवी, कर्मवीर ने इस दुराग्रह और कदाग्रह की परवाह नहीं की और कार्यक्षेत्र को उत्साहपूर्ण आगे बढाया । १० हजार सदस्यो की सख्या बा. लालचन्दजी एडवोकेट के नेतृत्व में सतना अधिवेशन के बाद कर सगठन कार्य किया प्रान्तीय के लिए साहूजी के अतुल धनराशि से सुसगठित कार्य किया, परिषद द्वारा स्वीकृत प्ररतावो को कार्यान्वित करने के लिए अपने साथियो के सहयोग से पूर्ण सफलता प्राप्त की। कुछ नाम जैसे मरण भोज की कुप्रथा का जनाजा निकाला गया, जैन धर्म पतितोद्धारक निरावाध सिद्ध है प्रत्येक प्राणी-शक्ति अनुसार अपनी योग्यता से उससे लाभ ले सका है। अत किसी को मारना, दुर्व्यवहार करना किसी भी सूरत मे ठीक नहीं है । इसमे लालाजी व उनके साथियो को कटुतर अपमान के उन्मुख अनेक प्रयत्न किये गये परन्तु लालाजी का यह दृश्य देखने व स्मरण करने योग्य है । ऐसा मालूम पडता था मानो सीना ताने सिकन्दर बादशाह पा रहा है। मानापमान की पर्वाह न करके हताश न हुए और साथियो को सान्त्वना दिलाकर आगे बढ़ने मे अग्रसर हुए, सिकन्दराबाद रथोत्सव मे अपमान का चकनाचूर किया । देहली महावीर जयन्ती के अवसर पर जब जलूस के १२० ]
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डिक्टेटर लालाजी थे, सरकार के अनुचित प्रतिरोध पर दृढता से सामना कर सफलता प्राप्त की ।
(ग) महगाव काण्ड नगा नाच धर्म-विरोधी श्राततायियो द्वारा ग्वालियर स्टेट मे हुआ । जैन मन्दिर मे प्रतिमाओ की चोरी, शास्त्रो का अग्निकाण्ड आदि होने तथा सूबेलाल जैन की मृत्यु आदि से जैन समाज क्षुब्ध हो उठा और उसकी बागडोर हमारे स्व० लालाजी ने सभाली । दर्शको और योग्य वकीलो, वैरिस्टरो के जाने का ताता वाघ दिया फलत स्टेट सरकार ग्वालियर भयभीत होकर थर्रा गई और हमारी शानदार विजय हुई। स्टेट के इतिहास में यह मौलिक उदाहरण लालाजी छोड़ गये थे ।
(घ) श्राबू का प्रान्दोलन - सिरोही स्टेट में हिन्दू व जैन मन्दिरो पर टैक्स देना पडता था । ऐसे दुराग्रह का विरोध करने के लिए ला० तनसुखरायजी ने अपनी सारी शक्ति श्रीर उसका त्याग कर सत्याग्रह की तैयारी की, दौरा किया। जगह-जगह थैलिया, मानपत्र मिले उत्साह बढता गया, आखिर सफलता लेकर ही लौटे। ऐसे एक नही सैकडो उदाहरण है जिन्हे इस साथी ने प्राणपण से साथ किया ।
(च) परिपद अधिवेशन झांसी, सतना, खडवा, देहली, भेलसा आदि की सफलता का पूर्ण श्रेय लालाजी को है जो जैन इतिहास मे सदा उल्लेखनीय रहेगे । उन्होने अपने जीवन मे क्रान्ति से आलिंगन करना ध्येय समझा । श्राँधी नाई, श्रोले बरसे, खूव तिरस्कार हुआ पर वीरात्मा इनकी परवाह नही करते हैं सफलता आलिंगन ही करती रही ।
हमे समाज सेवा में लालाजी की लगन, उत्साह, धैर्य का अनुसरण करना चाहिए । अथक परिश्रम करने पर भी हताश नही होना चाहिए । धुन का पक्का रहकर समाज सेवा मे दत्तचित्त रहना चाहिए -- यह सिखा गए है ।
धार्मिक जीवन - लालाजी धार्मिक सेवा में जैसे अग्रसर रहते थे वैसा ही उनका आचरण रहा है । कभी नाचरग, खेल-तमाशा रेडियो पर गाना सुनना सिनेमा देखने के वे विरोधी रहे है । खान-पान सात्विक एव शाकाहारी होना, सादा धार्मिक जीवन व्यतीत करना । सामाजिक कार्य अन्तिम जीवन से बहुत पूर्व करने लग गये थे । यही कारण था कि श्री शान्तिसागरजी प्राचार्य के अनन्य भक्त थे और भी अनेक गुणगाथाएं है जिन्हे लेख बढ जाने से विराम देना ही उचित समझा ।
लालाजी की धर्मपत्नी उनके विरह से दुखी है परन्तु उनमे भी लालाजी के समान गुण विद्यमान है। वे महिला समाज की जाग्रति तथा जैन महिलाश्रम देहली की सेवा तन-मन-धन से करेंगी और स्व० आत्मा का प्राशीर्वाद पाकर उनके चरण चिन्हो पर चलकर लालाजी के नाम को अमर बनाकर उनके पदचिह्नों पर चलेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
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कर्मठ समाज सेवी
श्री मोतीलाल जैन 'विजय' अमर सेवा समिति, कटनी ( म०प्र०)
राष्ट्रीय कार्यो मे जैन समाज कभी पीछे नही रहा और न रहेगा यह वान निर्विवाद है । इतिहास साक्षी है, राणा प्रताप को हृदय से चाहने वाले नर-रत्न भामाशाह ने अार्थिक दृष्ट्या विपत्ति थाने पर सारा वैभव तथा कोप महाराणा के कर कमलो मे सांप दिया था। मानवता की सेवा, सभी बन्धुओ मे एकत्व तथा ममत्व की भावना जागृत करना, सगठन तथा ममाज सेवा का व्रत, निरीह, दुखी एव कपटापन्न व्यक्तियो को सहायता प्रभृति कुछ ऐसे मानवीय कर्म हैं जिनमें हाथ बंटाकर समाज सेवी, कर्मठ तथा लगनशील व्यक्ति अवश्य हो रुचि लेता है । परतन्त्र भारत मे राष्ट्रीय भावनाओं को पल्लवित एव पुष्पित करने तथा स्वतन्त्रता का जयघोष करने वाले राष्ट्रीय नेताओं की हुकार को जन-जन तक पहुचाने में लालाजी सर्वप्रथम एव अग्रमर रहा करते थे ।
राष्ट्र-सेवी महान संगठन – लालाजी मे देश-प्रेम तथा सेवा भाव कूट-कूटकर भरा था । राष्ट्र भक्ति को सर्वोपरि मानकर यासकीय सेवा को छोड आप गांधीजी के असहयोग प्रान्दोलन मे सम्मिलित हो राजनैतिक जीवन व्यतीत करने लगे थे । स्वदेशी वस्तु प्रचार, खादी प्रचार, हिन्दी प्रचार, प्रभृति समितियो का नयोजन, नौजवान भारत मभा, मजदूर किसान सभा - सम्मेलन, हरिजनोद्वार, वाड - पीड़ितों की महायता जैसे अनेक ज्वलन्त उदाहरण है जिनसे लालाजी की मगठन शक्ति का परिचय मिलता है। लाला लाजपतराय तथा जनता के हृदयमम्राट प० नेहरू जैमे अग्रणी नेताश्री का स्नेह व सक्रिय साथ मे लालाजी ने विभिन्न जिलों में प्रभूत स्याति अर्जित की थी। उनका स्वभाव अत्यन्त मृदुल, सरल तथा निष्कपट था ।
शाकाहार का प्रचार उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है। सच्चे काग्रेस सेवक के रूप मे उन्होने जन्मस्थान रोहतक तथा भटिण्डा, एव अधिकाश समय भारत की राजधानी देहली में दिया था । सन् १९४१ मे नई दिल्ली काग्रेम समिति का प्रधान चुना जाना इस बात का द्योतक है कि उनमे अपूर्व सगठन शक्ति थी ।
महान समाज सेवक मच्चे स्वतन्त्रता सग्रामी होने के साथ ही लालाजी मे वर्म तथा जाति की उन्नति की भावना अपने उदारमना माता-पिता से वरोहर के रूप में मिली थी। इस युग के दि० जैन समाज के निर्माता, प्र० शीतलप्रसादजी तथा वैरिस्टर चम्पतरायजी जैसे क्रान्तिकारियों तथा समस्त भारत के आध्यात्मिक सन्त श्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज का प्रभाव आपके हृदय पर पडा । तदनुमार श्रापने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज तथा जैन धर्म मे व्याप्त रूढियाँ, वाद-विवाद, समस्याए और उनका समाधान ही अपना ध्येय वना लिया था । राष्ट्रीय संगठनो मे जहां वे अत्यन्त निपुण थे, जातीय संगठन में उतने ही
परिषद के माध्यम से जैन
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निष्णात | अहिंसा का प्रचार माँसाहारियो को माँस की दुरुपयोगिता सहीरूप से समझाकर मास का त्याग कराना जैसा कठिन कार्य, महावीर जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश दिलाने का प्रयास, वस्त्र औषधि का वाढ पीडितो के लिए निजी व्यय, धार्मिक कार्यो मे पूर्ण श्रभिरुचि, मिलावट विरोधी कान्फ्रेंस (सभा) का सगठन, वाराणसी स्थित भदैनीघाट के शासन की सहायता से कार्य, दिगम्बर जैन कालेज वडोत की उन्नति मे रुचि जैसे अनेक कार्य है जिनमें लाला तनसुखरायजी हृदय से कार्य करते थे तथा उनकी सफलता के लिए दिन-रात व्यस्त रहते थे ।
युवकों के पथ-प्रदर्शक
अखिल भा० दि० जैन परिपद, भारत जैन महामण्डल, वैश्य कान्फ्रेस, अग्रवाल सभा,
प्रेरणा, उत्साह तथा लगन माध्यम से सदैव देते रहते
भारत शाकाहारी परिषद के आप परम हितैषी थे। जैन नवयुवको मे की प्रेरणा आप 'जैन मित्र' आदि पत्रो तथा उपरिलिखित परिपदों के थे । उन्होने अपने ६४ बसन्तो के प्रारम्भिक वसन्त क्रान्तिकारी के रूप में बिताए थे । सत्य को सत्य कहते हुए भी यदि अग्रेजो ने वर्वरता का परिचय दिया तो हमारे स्वतन्त्रता प्रेमी नवयुवक मस्तक ऊँचा ही किए रहे है । उन्ही तरुणो मे लालाजी भी थे ।
महात्मा गाँधी के श्राह्वान मात्र पर भारत के कितने ही युवक असहयोग आन्दोलन सम्मिलित हो गए थे । लालाजी मे धार्मिक सस्कार बाल्यावस्था से ही थे प्रत. धर्म व जाति के नाम पर अत्याचार वे देख नही सकते थे । चावू पर्वत पर टोल टैक्स का वन्द करवाना, दिल्ली स्थित मस्जिद के आगे से जुलूस के बाजो के ले जाने की मनाही पर न्यायिक जांच करवाना, कोई भी सामाजिक आपत्ति आने पर भारतव्यापी समर्थन लेकर उसका सही निर्णय कराना -- इन सब सामाजिक कार्यों में वे आगे रहते थे ।
विगत दिनो मे जैन समाज पर हुए अत्याचारो जवलपुर मे दि० जैन मन्दिर, जैन बन्धुओ की दूकानो पर आक्रमण, खाजियाघाना मे जैन मूत्तियों के सिर उतारा जाना, पुरलिया ( १० वगाल) मे स्व० १०८ मुनि चन्द्रसागरजी के शव के साथ दुव्र्व्यवहार आदि का उल्लेख करते हुए लालाजी जैनमित्र के श्रावण सुदी ६ वी० स० २४८८ के ग्रक मे नवयुवको से अपने हृदय की टीस "जैन समाज, चेत" इस शीर्षक मे इस प्रकार व्यक्त करते हैं-- "जैन समाज के नवयुवको ! समाज का भविष्य बनाने वालो ! तुम्हें क्या हो गया ? क्या नही रहा और स्वाभिमान नही जहा जो धर्म पर कुठाराघात चुपके चुपके सहन कर रहे हो और जोश नही आता । मुझे यह कहने मे जरा भी सकोच नही कि यदि हमने करवट न बदली तो भारत देश जीवित नर-नारियो का देश न रहकर केवल पहाडो नदियों तथा शहरो मे खड़ी गगन चुम्बी अट्टालिकाओ का एक देश रह जाएगा। देव, शास्त्र, गुरु की रक्षा का प्रश्न जैन समाज के लिए आज एक बडी चिन्ता का विषय है ।"
तुम्हारी रंगो में खून
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जैन समाज में संगठन का प्रभाव उन्हे सदा खलता रही। उनके विचार इसी लेख में आगे इस प्रकार है-'जैन समाज के अखिल भारतवीय सस्थाओं के पदाधिकारियो, विद्वानो, त्यागियो और समाज के प्रमुख महानुभावो से मेरा नम्र निवेदन है कि वह समय को पहचानें
और एकचित्त होकर समाज का सगठन बनायें । यदि समाज सगठित हो गई तो आपका धर्म सुरक्षित रह सकेगा, यदि अब भी न चेते तो फिर कुछ न होगा। "फिर पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ॥"
___ लालाजी जैन समाज के भारत व्यापी सगठन को मक्रिय रूप देना चाहते थे जो उनके जीवित रहते न हो सका । समाज-सेवा तथा धर्म-प्रेम उनकी नस-नस मे हिलोरे लेता था। उनके हृदय की भावना का सुन्दर दर्शन, एक लेख "जैन समाज के संगठन का रूप कैसा हो" मे होता है
__"अ. भा० दि० जन महासभा, परिपद और भा० दि.जैन संघ अपने-अपने ढग से अपने-अपने उद्देश्यो का अपने-अपने मे प्रचार कर रहे है । परन्तु दु ख इस बात का है कि समाज या धर्म पर जब कोई सकट पाता है तो एक-दूसरे के मुह की तरफ झांकते है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतवर्ष मे दि० जैन समाज का कोई एक प्लेटफार्म नही, कोई एक नेता नही और न ही तमाम समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली समिति ही है।"
उन्ही के आगे ये शब्द है-"मेरा यह मुझाव है कि तमाम भारतवर्ष के दि० जैन समाज का एक प्लेट फार्म हो, एक आवाज हो और प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सयुक्त दि० जैन समिति बनायी जानी चाहिए, जो कि तमाम समाज का नेतृत्व करे । इस समिति में सभी प्र०भा० दि० जैन सस्थानो के दो-दो चार-चार प्रतिनिधित्व सस्थानो की कार्यकारिणी द्वारा चुनकर भेजे हुए सज्जनो को सयुक्त समिति का सदस्य बनाया जाय ।
___ इस प्रकार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' की सर्वोच्च भावना से किये गये राष्ट्रीय, सामाजिक, राजनैतिक अथवा धार्मिक कार्य लालाजी की सच्ची निशानी है। वे अहिंसावादी, शाकाहार के पोपक तथा अपने लेखो के माध्यम से युवक, वृद्ध, नारियो सभी को सहज एव सुकर मार्ग दर्शन देते थे। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ, राष्ट्र, समाज तथा धर्म-सेवी महानर कोहमारी भावपूर्ण श्रद्धाजलि !!
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स्मृतियां और श्रद्धांजलि
श्री श्यामलाल पांडवीय
मुरार, ग्वालियर
जैन समाज के अमूल्य रत्न वावू तनसुखराय जैन से मेरा सम्बन्ध गत ३० साल अर्थात सन् ३५ से उनकी मृत्यु तक रहा है। समाज भूला नही होगा जव आज से ३० वर्ष पूर्व सन् १९३५ मे भूतपूर्व ग्वालियर् राज्य मे जैन धर्म और जैन समाज पर एक वडा सकट आकर उपस्थित हो गया जो महगाव काण्ड के नाम से सारा जैन समाज परिचित है। महगाव के जैनियो द्वारा जिन भगवान का रथ तथा समोशरण माधव जयन्ती के लिए माधव महाराज की तसवीर को बिठाकर निकालने के लिए देने से इन्कार कर दिया था और उस पर से क्रुद्ध होकर जैन मन्दिर की प्रतिमाओ का खण्डित किया गया था और जैन धर्म तथा जैन शास्त्रो का अपमान किया गया था जैनियो का वहा रहना कठिन हो गया था। मैं उन दिनो ग्वालियर राज्य
जैन ऐसोसिएशन का मन्त्री था । दि. जैन परिपद के दिल्ली अधिवेशन मे इस प्रश्न को लेकर दिल्ली अधिवेशन मे सहायता करने की मांग लेकर गया था अधिवेशन का अन्तिम दिन था, अधिवेशन समाप्त होने जा रहा था। मैने सब परिस्थिति रखकर इस सकट में सहायता करने की मांग की पर सब सुनकर रह गये । अधिवेशन खतम हो गया है अब क्या हो सकता है आगे इसे देखेंगे। मैं निराश हो गया आँखे डबडबा आई कि राजा के डर से कोई सहायता करने का साहस नहीं कर रहा है। इतने में एक तेजस्वी युवक अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहिने चेहरे पर मुस्कान तेजस्वी रूप तपक कर सामने आ गया और पूछने लगा कहिये क्या सकट है। यही थे वावू तनसुखराय और यही था मेरा सन् १९३५ मे इस प्रसग को लेकर मेरा सर्वप्रथम परिचय और तब से मृत्यु दिन तक हम वरावर साथी और मित्र बने रहे।
लाला तनसुखराय ने सारी हालत सुनकर जोर देकर कहा कि हमको सहायता करनी चाहिए और करेंगे। कभी पीछे नही हटेंगे और इसके विरोध मे परिषद का प्रस्ताव कराया और महगाव काण्ड का आन्दोलन चलाकर सारी जिम्मेदारी ले ली और अन्त तक बड़ी लगन और शक्ति से इसको सफल बनाया।
लाला तनसुखराय के प्रयल से परिपद ने भारत-व्यापी जोरदार प्रान्दोलन उठाया। फलस्वरूप सारे देश मे जैन समाज में आग लग गई। जगह-जगह पैर महगांव काण्ड विरोधी दिवस मनाया गया, विरोध मे जलूस निकाले गये और प्रस्ताव पास किये जाकर ग्वालियर राज्य तथा भारत सरकार को भेजे गये । जैन समाज मे यह पहला अवसर था जब उसने संगठित होकर अपनी शक्ति का परिचय दिया। इस अत्याचार के प्रतिकार करने के इस प्रयास से राज्य का आसन डोल गया। इसकी सफलता का सारा श्रेय तनसुखराय को ही है। वे यदि आगे बढकर इसको अपने हाथ मे नही लेते तो न जाने जैन धर्म और जैनियो पर वहां क्या बीतती। १२५ ]
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बात यही पर समाप्त नहीं हुई। ग्वालियर सरकार ने चिढकर जैनियो पर मुकदमा चलाया जिसकी पैरवी का परिपद की ओर से सारा प्रबन्ध तथा व्यय उठाकर सफलता प्राप्त करने में भी बाबू तनसुखराय का ही प्रयत्न था। श्री दलीपसिंह वकील को तो कई महीनो तक निरन्तर वहां रहना पडा । लाला श्यामलाल गवर्नमेट एडवोकेट, वावू लालचन्दजी आदि वकीलो की सहायता और सहयोग आपके ही सप्रयत्नो का फल था इस प्रान्त के आसपास इससे जैनियो की काफी धाक वैठी, उनकी प्रतिष्ठा बढी और फिर किसी को जैन मन्दिर, जैन धर्म और जैनियो को अपमानित करने का हौसला नहीं हुआ। इस क्षेत्र तथा उसके आस-पास के क्षेत्र की जैन जनता उन्हे सदा वाद करती रहेगी। उनकी बाद वह कभी नही भूल सकेगी। वावू तनसुखराय को इस सम्बन्ध मे अनेको वार आना-जाना पडा, व्यवमाय की हानि उठानी पडी, कष्ट भी उठाना पडा पर मैने न कभी उत्साह मे कमी पाई और न थकान । ऐसे कर्तव्यपरायण वावूजी का असमय उठ जाना समाज की महान् क्षति है जो पूरी नही हो सकती। मुझे महगाव काण्ड के सम्बन्ध मे पूरे दो साल तक उनके साथ काम करने और साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा । उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि उन जैसे कर्मठ, क्रियाशील और उत्साही नेतृत्व प्रदान करने वाले व्यक्ति समाज में बहुत कम होगे। खेद इस बात का है कि समाज उनकी योग्यता और क्षमता का पूरा लाभ नही उठा सका । वे आज से तीस वर्ष पहिले दि० जैन परिपद में पाये और उसको काफी बल प्रदान किया ।
वह किसी भी परिस्थिति से न घवराते थे और न हार मानते थे। साहू श्रेयासप्रसादजी जैन की अध्यक्षता में होने वाले दिल्ली अधिवेशन में रात्रि को जब ललितपुर के वा. परमेश्वरीदास जैन मन्दिरो मे हरिजन प्रवेश का प्रभाव प्रस्तुत कर रहे थे तव प्रतिक्रियावादियो के झुण्ड ने जल्से मे घुसकर पण्डितजी को धक्का देकर मच से गिरा दिया और हुल्लड मचाकर जल्सा छिन्न-भिन्न कर दिया और ऐसी परिस्थिति बन गई कि परिपद के नेताओ को भी जल्सा छोड़कर जाना पड़ा। तव बावू तनसुखराय ने हिम्मत नहीं हारी। रात्रि
को घूम-फिर कर स्वयसेवको का प्रवन्ध किया और दूसरे दिन उसी स्थान पर उसी मण्डप मे , दिन के समय शान के साथ हरिजनो का मन्दिर मे प्रवेश का प्रस्ताव पास कराकर ही छोडा । • परिषद की शक्ति और वढी और प्रतिक्रियावादियो के साहस ढीले पड गये।
सन् १९३४ मे दिल्ली अधिवेशन मे वे परिपद के प्रधान मन्त्री चुने गये । सन् १९३५३६-३७-३८ इन चार मालो मे परिपद के कार्यो को इतनी गति दी कि परिपद का प्रभाव देश• च्यापी हो गया । सतना और खडवा के सफल अधिवेशनो ने परिपद में एक नई जीवन-शक्ति की। परिषद का कार्य उन्होने खूब बढ़ाया और मरते दम तक परिपद के हर कार्य मे वे सदा सहायक रहे।
जैन समाज की ओर परिषद को उनके न रहने से काफी हानि उठानी पड़ी है । परिपद के कार्य को आगे बढ़ाने में उन्होने उनका सदा साथ दिया। उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में बडा योगदान देकर जैनियो का मस्तक कचा किया है। काग्रेस के एक कर्मठ कार्यकर्ता ये १२६ ]
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और काग्रेस मे उनकी काफी प्रतिष्ठा थी। उनकी प्रतिभा चौमुखी थी, गजव की काम करने की शक्ति, सूझ-बूझ, कठिनाई मे रास्ता निकालने की वुद्धि सदा मुस्कराता चेहरा, काम करने की लगन, सदा उनकी याद दिलाती रहेगी।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मैं मध्यभारत का मन्त्री वना । मेरे लम्बे मन्त्रिकाल मे भी मेरा उनका सहयोग सार्वजनिक कार्यों मे वरावर रहता रहा। भारत के इस सपूत और जैन समाज के योग्य नेता के समय मे उठ जाने से जो क्षति हुई है वह सहज मे पूरी होने वाली नही है । मै उनके प्रति अपनी नम्र श्रद्धाजलि इस अवसर पर भेंट करके अपने को धन्य मानता हूँ । उनकी स्मृतियाँ मेरे हृदय पटल पर सदा श्रकित रहेंगी जो मुझे प्रेरणा देती रहेगी ।
परिषद् के प्रमुख संस्थापक
जैनविम्व प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर देहली में ता० २६ जनवरी सन् १९२३ को श्री मा० दि० जैन महासभा का अधिवेशन श्री खण्डेलवाल सभा के मण्डप मे हो रहा था । श्रीमान् साहू जुगमन्दिरदासजी ने "जैन गजट" के उपसम्पादक के लिए स्व० वावू चम्पतरायणी वैरिस्टर का नाम पेश किया । इसका समर्थन डा० निर्मलकुमारजी ने किया, किन्तु कुछ सज्जनो ने माननीय वैरिस्टरजी (जो महासभा के सभापति पद को सुशोभित कर चुके थे और उन्होने अपने सभापतित्व मे महासभा की श्लाघनीय सेवाए की थी) को अयोग्य शब्द कहे, जिनसे झलकता था कि वे बैरिस्टरजी को जैनधर्म का अश्रद्धालु, प्रमाणित कर रहे है । इस अयोग्य वर्ताव से अनेक जनो का मन महासभा के प्रविवेशन में सम्मिलित होने से उदास हो गया ।। इसी कारण वे लोग रात को महासभा की सबजेक्ट कमेटी में सम्मिलित न होकर सामाजिकउन्नति तथा धर्म प्रचार के लिए एक अन्य सगठन का विचार करने में लग गये। इन सज्जनो की दूसरे दिन २७ जनवरी को सभा हुई। इस दिन की कार्यवाही 'जैनमित्र' वर्ष २४, अक १४, पृष्ठ १९४ पर जो प्रकाशित हुई थी, वह इस प्रकार है
दिगम्बर जैन परिषद की स्थापना
देहली मे ता० २७ जनवरी सन् १९२३ ई० को राय साहव बाबू प्यारेलालजी वकील देहली के डेरे मे एक जल्सा होकर निश्चित हुआ था कि इस जल्से के सभापति रायबहादुर ताजिरुल्मुल्क सेठ मणिकचन्दजी झालरापाटन सर्वसम्मिति से निर्वाचित किए जायें। सेठ साहब ने सभापति का आसन ग्रहण किया, तत्पश्चात् निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से निर्णीत हुए :
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न० १ - दि० जैन धर्म के प्रचार और जैन समाज की उन्नति के उद्देश्य से भारतवर्षीय दि० जैन परिषद नाम की सस्था स्थापित की जाये ।
न० २ - रायबहादुर ताजिरुल्मुल्क सेठ मणिकचन्दजी इस परिषद के सभापति निर्वाचित किये जावें । श्रीयुत बैरिस्टर चम्पतराय मन्त्री श्रौर श्रीयुत रतनलालजी BALL.B. बिजनौर नौर बाबू अजितप्रसादजी वकील लखनऊ सहमन्त्री और श्रीयुत ला० देवीदास ( सभापति स्थानीय जैनसभा लखनऊ ) कोषाध्यक्ष नियत किये जावे |
न० ३ - इस परिषद का एक पाक्षिक मुखपत्र हिन्दी भाषा मे "वीर" नाम से प्रकाशित किया जावे | निम्नलिखित महाशयो ने इस परिषद का सदस्य होना स्वीकार किया और सूची पर हस्ताक्षर कर दिये ।
नामावली
१. जैनधर्मं भूषण, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, २ ब्रह्मचारी छोटेलालजी भरतपुर, ३. रा० ब० सेठ माणिकचन्दजी सेठी झालरापाटन, ४ बा० चम्पतराय जैन बैरिस्टर एट-ला हरदोई, ५. बा० ज्योतिप्रसाद जैन स० "जेनप्रदीप" देवबन्द, ६. रा० ब० ला० द्वारिकाप्रसादजी रईस नहटौर, ७ ला० शिखरचन्द मार्फत ला० देवीदास मदनलाल गोटेवाले लखनऊ, ८ रायबहादुर ला० सुल्तानसिंह दिल्ली, ६. सुमतलालजी मन्त्री, स्याद्वाद महाविद्यालय काशी, १०. बा० फतहचन्दजी जौहरी चौक लखनऊ, ११ ला० बरातीलालजी जैन यहियागज लखनऊ, १२. ला० जुगल किशोर मार्फत ला० वशीधर कुन्दलाल यहियागज लखनऊ, १३. ला० मगलसेन मार्फत ला० बद्रीदास छेदीलाल चौक लखनऊ, १४. ला० सुन्दरलाल गोटेवाला चौक लखनऊ, १५ महेन्द्रजी, सम्पादक " जैसवाल जैन" नागरा, १६. रामस्वरूप भारतीय जारखी आगरा, १७. बा० कपूरचन्द जैन मालिक महावीर प्रेस आगरा, १५. श्री चिरजीलाल जैन बी० ए० हेडमास्टर त्रिलोकचन्द हाई स्कूल इन्दौर, ११ केशरलाल अजमेरी मालिक केशरलाल सुन्दरलाल त्रिपोलिया बाजार जयपुर, २० गेदीलाल गगवाल मार्फत केशरलाल सुन्दरलाल त्रिपोलिया बाजार जयपुर, २१ मोहनलाल जैन मार्फत केशरलाल सुन्दरलाल त्रिपोलिया बाजार जयपुर, २२. रघुनाथसहाय जैन, झांसी, २३ बाबूलाल जैन टूडला, २४ ५० जुगल किशोरजी सरसावा जि० सहारनपुर, २५. डा० भागीरथप्रसाद फैजाबाद, २६. रामचन्द जैन, बी० ए०, बी० एस० जालन्धर, २७ जम्बूप्रसाद देवबन्द, २८. बालमुकन्द जैन बी० ए० मार्फत सर सेठ हुकमचन्द इन्दौर, २६. हीरालालजी जैन एम० ए० एल-एल०-बी रिसर्च स्कालर प्रयाग, ३० जमुनाप्रसाद जैन बी० ए० जैनहोस्टल प्रयाग, ३१ वैद्यरत्न पं० मित्रसेन अजमेर, ३२, बलवीरचन्द्र जैन मुजफ्फरनगर, ३३. धर्मचन्द जैन डीग (भरतपुर), ३४ कपूरचन्द जैन डीग (भरतपुर), ३५. केशवदेव रेजावाला जैनी डीग (भरतपुर), ३६ सोनपाल छोटेलाल जैन डीग (भरतपुर), ३७. कमनलाल जैन कामा (भरतपुर) ३८. श्रीचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर, ३६. विशम्भर - दासजी लाहोर, ४०. मुन्नीलाल माणिकचन्द्र कलकत्ता, ४१. ला० भ्रमरचन्द जैन जसवन्तनगर,
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४२ राजाराम जैन कुरावली, ४३ मनोहरलाल जैन अम्बाला, ४४ विश्वम्भरदास गार्गीय झांसी, ४५. न्यामतसिंह सेक्रेटरी डि० बो० हिसार, ४६. चेतनदास हेडमास्टर मथुरा, ४७. बद्रीदास जैन वकील विजनौर, ४८. शकरलाल वैद्य मुरादावाद, ४६. माईदयाल जैन हिन्दू कालिन देहली, ५०. सी. एस० मलिनाथ सं० "जैन गजट" मद्रास, ५१ अनूपसिंह जैन सदर बाजार देहली, ५२ कमकुमार जैन वोडिंग इन्दौर, ५३ कपूरचन्द जैन वोडिंग इन्दौर, ५४. ब्रजभूषणलाल जैन हरौिदी, एटा, ५५. प्रादीश्वरलाल जैन देहली, ५६. दलीपसिंह खजान्ची ताता वैक हापुड, ५७. प्यारेलाल कासलीवाल, वी० ए० कौंसिलर जयपुर, ५८ चन्दमलजी रायबहादुर अजमेर, ५६ सेठ ताराचन्दजी नसीराबाद, ६०. सुमेरचन्द सेक्रेटरी जैन सभा शिमला, ६१. लटूरमल जैन कोसी, ६२ कुन्दनलाल हेडमास्टर भरतपुर, ६३. खेतीलाल कामा, ६४. मानमल काशलीवाल ७८, क्लाइव स्ट्रीट कलकत्ता, ६५. लछमनलाल मुन्शीराय जयपुर, ६६ दुलीचन्द परवार कलकत्ता, ६७ श्यामलाल पाढमीय मुरार ग्वालियर, ६८ अतरसेन जैन मेरठ, ६६ फूलचन्द जैन विल्सी जि० वदायू, ७० बद्रीप्रसाद जैन, जैन कम्पनी मथुरा, ७१. सुगनचन्द जैन आगरा, ७२. सुगनचन्द जैन घीयामण्डी मथुरा, ७३ रा०व० मोतीसागर जज लाहौर, ७४. रायसाहब वा० पार्श्वदास, दिल्ली, ७५ कन्हैयालालजी मथुरा, ७६ गुलावचन्द सेठ की कोठी मथुरा, ७७ रतनलाल जैन डीग भरतपुर, ७८. मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, ७६. यादव दाजीवा श्रावणे वर्धा, ८० रघुनन्दनप्रसाद साहू अमरोहा, ८१. चन्द्रलाल जैन फीरोजपुर, १२, कामताप्रसाद जैन देहली, ८३ शिवनारायणलाल जैन जसवन्त नगर, २४ जनेन्द्रकुमार जैन नागपुर, ८५ उत्तमचन्द जैन मेरठ शहर, १६ नेमीचन्द जैन मुरादाबाद, ८७ हीरालाल जैन प्रेसीडेंट जैन समाज शिमला, ८८. ज्योतिपरल जियालाल
जैन फर्क खनगर, ८६. अहंदास पानीपत, ६० नैनीदास वाइस प्रेसीडेंट जैनसमा शिमला, ६१ बख्तावरसिंह रोहतक, ९२ सिंघाई वशीलाल पन्नालाल अमरावती, ९३. शम्भूदयाल चादनी चौक देहली, ९४. ऋषभदास वी०ए० वकील मेरठ ।
__ ये देश के भिन्न-भिन्न स्थानो के ९४ जन प्रमुख व्यक्तियो के हस्ताक्षर है जिन्होंने परिषद की स्थापना की थी। इनमे सबसे उपर स्व० ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के हस्ताक्षर है। अत जैन समाज की प्रगतिशील भा० दि. जैन परिपद के आद्य संस्थापक श्रद्धेय ब्रह्मचारीजी थे।
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तरुण-गीत
श्री राजेन्द्र कुमार जैन 'कुमरेश'
आयुर्वेदाचार्य, बिलराम (एटा) तरुण | प्राज अपने जीवन मे, जीवन का वह राग सुना दे।
सुप्त-शक्ति के कण-कण मे उठ | एक प्रज्वलित आग जगा दे ।। धधक क्रान्ति की ज्वाला जाए, महाप्रलय का करके स्वागत । जिससे तन्द्रा का धर्पण हो, जागे यह चेतनता प्रबनत ॥ प्राण विवशता के बधन का, खण्ड खण्ड करदे वह उद्गम । अग अग की दृढ़ता तेरी निर्मापित कर दे नव जीवन ॥
स्वय, सत्य-शिव-सुन्दर-सा हो, जन जनमे अनुराग जगादे ।
तरुण I आज अपने जीवन मे जीवन का वह राग सुना दे । तेरा विजयनाद सुन कॉप भूधर सागर-नभ-तारक-बल । रवि मण्डल भू-मण्डल काँपे, कांपे सुरगण-युत प्राखण्डल ।। नव परिवर्तन का पुनीत यह गूंज उठे सब ओर धोर रव । तेरी तनिक हुकार श्रवण कर काँप यह ब्रह्माण्ड चराचर ॥
तू अपनी ध्वनि से मृतको के भी मृत-से-मृत प्राण जगा दे।
तरुण | आज अपने जीवन में जीवन का वह राग सुना दे। तेरी अविचल गति का यह क्रम पद-मदित कर दे पामरता । जडता की कड़ियाँ कट जाएँ, पाजाए यह ध्येय अमरता ॥ हृदतल की तड़फन मे नूतन जागृत हो वह विकट महानल । जिसमे भस्मसात् हो जाए अत्याचार पाप कायर दल ॥
तेरा खोलित रक्त विश्व कण-कण से अशुभ विराग भगा दे ।
तरुण | आज अपने जीवन मे जीवन का वह राग सुना दे। अपने सुख को होम निरन्तर, तू भू पर समता बिखरा दे। जिसमे लय अभिमान अधम हो, ऐसी शुचि ममता बरसा दे। सत्य-प्रेम की प्राभा से हो अन्तर्धान पाप की छाया । रूढि, मोह, प्रज्ञान, पुरातन भ्रम, सब हो सुपने की माया ॥
तू प्रबुद्ध हो, सावधान हो, स्वय जाग कर जगतजगा दे। तरुण प्राज अपने जीवन मे जीवन का वह राग सुना दे।
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श्रद्धेय ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी की जीवन-झांकी
पं० परमेष्ठी दासजी 'न्यायतीर्थ
ललितपुर (भानी)
ब्रह्मचारीजी की प्रतिमा सर्वतोमुखी थी। इस युग के समाज निर्माण तथा इसके ममी क्षेत्रो मे ब्रह्मचारीजी की प्रमुख साधना और उनकी व्यापक दृष्टि थी। राजमार्ग के चौराहे पर प्रतिष्ठित उनके कीर्तिस्तभ की प्रकाश-रश्मियो में वस्तुत जैन समाज की पिछली पर्व शताब्दी का इतिहास सन्निहित है।
ब्रह्मचारीजी जैन समाज के उन दैदीप्यमान रलो में से है जिन्होने जैन धर्म की बड़ी सेवा की। एक लेख २४ मई सन् १८६६ ई. के हिन्दी जैन गजट में प्रकाशित हुआ था। उस लेख का कुछ अंश निम्न प्रकार है:
ए जैनी पडितो । यह जैन धर्म आपके ही प्राधीन है। इसकी रक्षा कीजिये, योति फैलाइये । सोतो को जगाइये । और तन, मन, धन से परोपकार और शुद्धाचार लाने की कोशिश कीजिये जिससे आपका यह लोक और परलोक दोनो सुधरे।
१८ वर्ष की आयुवाले उदीयमान समाजोद्धारक श्री शीतलप्रसादजी के ये लेखाश धर्मप्रचार और समाज-सेवा के सूत्र थे। स्वनामधन्य सेठ माणिकचदजी के सम्पर्क से आपके मन में समाजसेवा के भाव जागृत हुए। सेठजी सच्चे कार्यकर्ताओ के पारखी थे। अापने वैरागी जिनधर्मभक्त और सच्चे समाजसेवी श्री ब्रह्मचारीजी को अपने यहां बम्बई में रह्न के लिए आग्रह किया। श्री ब्रह्मचारीजी ने उनके पास रहकर उनको धार्मिक कार्यों और समाज-सेवा के लिए उकसाया और अपना सहयोग दिया। स्व० सेठजी ने वम्बई, सागली, आगरा, अहमदागद, शोलापुर, कोल्हापुर, लाहौर आदि स्थानो मे जैन वोडिंग हाउस सभा आदि जैनोपयोगी अनेक सस्थानो को स्थापित किया। इनमें अधिकतर स्व. ब्रह्मचारीजी का हाथ था। स्व० सेठजी प्रत्येक धार्मिक और सामाजिक कार्यो मे पूज्य ब्रह्मचारीजी से सम्मति लेते थे।
ब्रह्मचारीजी मे शुद्ध चरित्र पालन करने के भाव और संस्कार बाल्यकाल से ही होगये थे। ब्रह्मचारीजी के चरित्र मे धार्मिकता, जैनधर्म में लगन और चरित्रनिष्ठा को निर्माण करने की आधारशिला का न्यास आपके पितामह द्वारा रक्खा जा चुका था। इसको स्वाध्याय, सत्संग, और आत्म-मनन ने और बढाया। अत मे आपने ३२ वर्ष की आयु मे सन् १९११ ई० में मार्गशीर्ष मास मे श्री ऐलक पनालालजी के समक्ष शोलापुर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की। ब्रह्मचारीजी चरित्र के वडे पक्के थे। शुद्ध आहार, प्रासुक नल और शुद्धता के कट्टर पक्षपाती थे। त्रिकाल सामायिक ग्रन्थो के स्वाध्याय आदि दैनिकचर्या मे कभी कमी नहीं होने पाती।
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अध्यात्मरस में उनका अतरग रँगा था। उदारता, सहिष्णुता और विश्वकल्याण उनकी अपनी विशेषता थी। जैनो मे, अजनो मे, स्वदेश मे, विदेश मे जैनत्व की झलक भरने का प्रयत्न करना उनका मधुर संगीत बन गया था।
वे पडितो मे पडित थे और बालको मे विद्यार्थी । उदारता और कट्टरता का उनमें विलक्षण समन्वय था। पाटा हाथ का पिसा हो । मर्यादा के अन्दर हो । जल छना हुमा तथा शुद्ध हो। गृहस्थ की जैनधर्म मे नि शकित श्रद्धा हो। वही उनका आहार होना था। उनका आहार-विहार शास्त्रोक्त था। साथ ही उनका दृष्टिकोण उदार था। सुधारको मे वे उग्रतम सुधारक थे। कुरीतियो और लोक मूढतानो के लिए तो वे प्रलयकारी ज्वाला थे। जननी जाति के लिए उनका हृदय तडपता था ।
वे असाधारण मिशनरी थे।
जैन धर्म की छाया मे पाप भी आत्म-कल्याण करें। अजनो के लिए उनका यह पवित्र सन्देश था। इसी रटना से उन्होने अटक से लेकर कटक तक और कन्याकुमारी से लेकर रासकुमारी तक भ्रमण किया था । वौद्ध सस्कृति और साहित्य से निकट सम्पर्क स्थापित करने के लिए वे लका भी गए। जैनो मे ब्रह्मचारीजी एक मात्र ऐसे नेता थे जो जैनदूत बनकर स्व. लाला लाजपतरायजी से मिले और जैन समाज की सेवा के लिए तैयार कर सके । काग्रेस में भी उन्होने जैन त्यागियो के लिए स्थान प्राप्ति का प्रयत्न किया। शहरो मे नही देहातो मे भी उन्होने जागृति का मन्त्र फूका । आप अजैन विद्वानो के सामने एक सच्चे जैन मिशनरी की स्प्रिट से जा पहचते थे । आज पजाब विश्वविद्यालय के वाइसचासलर प्रो० दुल्लाद को प्रभावित कर विश्वविद्यालय मे जैन दर्शन प्रचार की जड जमाई जा रही है तो कल राधास्वामियो के 'साहब' जी को जैनदर्शन की खूबिया समझाने दयालबाग पहुंच रहे है।
ब्रह्मचारीजी बडे तीर्थोद्धारक थे। तीर्थों की रक्षा के लिए आपने बडा प्रयत्न किया। द्रव्यसग्रह और तत्त्वार्थसूत्र को वे जैनो की बाईबिल समझते थे। जहाँ जाते योग्य छात्रो को पढाते । इन ग्रन्थो का अधिक से अधिक प्रचार करते।
वे बड़े देशभक्त थे । राजनीति में उनके विचार काग्रेस के समर्थक थे। राष्ट्रीय महासभा के प्रत्येक अधिवेशन में वे शामिल होते थे।
धर्म-प्रचार और समाज विशेष सुधार के लिए ब्रह्मचारीजी की आज्ञाएँ वकीलो वैरिस्टरो विद्यार्थियो और नवयुवको मे विशेषरूप से केन्द्रित थी। इस क्षेत्र मे सदैव जागृत रह कर प्रचार करते थे।
वीर पत्र का भली प्रकार सम्पादन किया। जैनमित्र के तो प्राण ही थे। सनातनधर्म उन्होने शुरू करवाया । ब्रह्मचारीजी की साहित्य-सेवा अवर्णनीय है। आप प्रतिदिन बारह घन्टे लिखते रहते थे। ब्रह्मचारीजी द्वारा विभिन्न विषयो पर रचना किए गये स्वतन्त्र ग्रन्थो, भाषाटीकाप्रो और पुस्तको की संख्या लगभग ७७ है । १३२]
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आपकी लेखन शैली जैमी सरल और सरम हे वैसी मनमोहक भी है । आपने तारणसाहित्य का उद्धार किया । उनके 8 ग्रन्थो का सम्पादन कर तारण समाज का उद्धार किया । आपने बौद्ध साहित्य का भी अध्ययन किया । अपने जीवन मे अनुपम साहित्य लिखा । उनके ग्रन्थो को देखकर हिन्दी साहित्य परिषद जयपुर ने उनके सम्बन्ध मे लिखा । ब्रह्मचारी को जैन साहित्य का अत्यन्त विद्वान् रूढिवाद के निष्पक्ष आलोचक, समाज और साधु संस्थानो के विपय मे मौलिक विचार रखने वाला स्वीकार किया ।
वे अनेक सस्थाओ के संस्थापक और सचालक थे। उनके अनुपम कार्यों के कारण वे मूर्तिमान जागृत सस्था वन गये थे । यही कारण था कि २८ दिसम्बर १९१३ ई० को काशी मे पूज्य ब्रह्मचारीजी के सम्मान के लिए डा० हवन जैकोवी की अध्यक्षता मे 'जैन धर्मं भूपण' की पदवी से विभूषित किया गया । उन्होने सामाजिक सुधार के लिए भा० दि० जैन परिषद की स्थापना की। वे उन सुधारक थे। अपने पथ के पथिक थे किसी वहिष्कार की पर्वाह नही करते थे ।
इस वीसवी सदी मे विशाल जैनसंघ के प्रथम सयोजक के रूप मे हम उन्हे देखते है । इसके लिए उन्होने अनेक स्थानो पर अनेक परमार्थिक सस्थाएँ स्थापित की। वे समाज के श्रीमान विद्वानो और योग्य कार्यकर्ताओ से मिले और उनसे पृथक्-पृथक् कार्य लिए । महिलाओ को जागृत करने, उनकी जीवन साधनाओ की पूर्ति करने महिलाओ के जन्मसिद्ध अधिकारो की प्राप्ति के लिए उन्होने अपने मान-अपमान की भी परवा नही की । उन्होने अपनी जीवन-साधना से समाज मे अनेक स्थानो पर अनेक युवको और प्रादर्श महिलायो का निर्माण किया । उनके हृदयो मे वह मन्त्र फूका जो जीवन भर देश-समाज की सेवा करेंगे । जैन धर्म के प्रसार के लिए अपने जीवन की बाजी लगायेंगे ।
ब्रह्मचारीजी इस युग के समन्तभद्र थे जिनके हृदय मे सतत जैन शासक के प्रचार की अद्भुत लगन थी । आज ब्रह्मचारीजी नही है, पर उनका प्रादर्श सदैव समाज के सेवको को वल और प्रकाश देता रहेगा ।
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विद्यावारिधि
वैरिस्टर चम्पतराय जैन, बार एटला
श्री त्रिशला कुमारी जन वैरिस्टर चम्पतराय इस युग के महान पुरुपो में से थे। उन्होने इस मानव जीवन मे विश्व को अपने ज्ञान से नवीन पालोक और अपूर्व विचार शैली थी। मानव समाज वास्तविक मानवता को प्राप्त करे, यह आपके जीवन की माधना थी। वैरिस्टर साहब के जीवन के मध्याह्नकाल में जब उनका ज्ञान-सूर्य अपने प्रकाश और प्रताप की किरणो से ससार को आलोकित कर चुका था। बैरिस्टर साहब का कार्यकर्तामो के प्रति अगाध प्रेम था। बैरिस्टर साहब को अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा और अनवरत उद्योगो से जीवन की विविध साधनायो मे सफलता मिली थी। वे इस युग के धर्म सत्य के खोजियो और तुलनात्मक पद्धति के प्रवर्तको मे प्रमुख साधक थे। देश-विदेशो मे जैन धर्म प्रचार करने मे इस काल के अकलक वीर पे। अग्रेजी के जानकार जैन विद्वानो और जैन युवको के लिए धार्मिक श्रद्धा की सजीव मूर्ति थे। सोते हुए जैन समाज को जगाने तया उद्बोधन देने और स्वय कर्तव्य करने मे ही आपकी प्रवृत्ति थी। उनकी समाज-सेवा के भार को न हमारे पास योग्य तराजू है और न उनके प्रचुर साहित्य को ठीक-ठीक आंकने के लिए हमारे पास उपयुक्त मापदण्ड हे । जैन समाज में उनकी सम्मेदशिखर की रक्षा की कीर्ति और ससार मे उनका साहित्य-सूर्य कभी अस्त न होगा।
वे विश्व की विभूति थे । अपने जीवन में संसार के सभी देशो के विविध विद्वानो और विचारको से उनका सम्पर्क रहा।
हमारी पीढी ने स्वर्गीय वैरिटर चम्पतरायजी को एक सफल वैरिस्टर गम्भीर, विद्वान्, कुशल लेखक, प्रभावशाली वक्ता और पादरणीय नेता के रूप में पहचाना और सराहा । इम उनके कृतज्ञ है कि उन्होने समाज मे नये युग का आह्वान किया और विरोध को चुनौती दी। और सघर्ष से टक्कर ली। वह अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिपद के प्रमुख सस्थापक और मादि सभापति थे। परिपद की पतवार अपने समर्थ हाथो मे लेकर उन्होने न कभी तूफान की परवा की और न प्रलय की। इस अनुभव और उत्साह मे सदा तरुण रहे।
बैरिस्टर साहब का सर्व प्रधान गुण सम्यक् श्रद्धान था। वह जैनधर्म के मर्मज्ञ थे। पर उनकी मर्मज्ञता कोरे ज्ञान की प्रखर ज्वाला न वनकर श्रद्धा से ओत-प्रोत दीप-शिखा की तरह शान्त, स्निग्ध, स्थिर और रुचिर थी।
विद्यावारिधी बैरिस्टर चम्पतरायजी समाज के उन धर्मसेवियो मे से थे जिन्हे धर्म के उत्कर्ष की महान् चिन्ता थी । उनका दृष्टिकोण जैनधर्म को केवल भारतीय ही बनाये रखने का नहीं था। अपितु जगन्मान्य प्रात्मोद्धारक श्री वीर प्रभु की पवित्रतम वाणी को प्रत्येक जीव के हितार्थ देश-विदेशो में भी प्रसारित किया जाय । यही उनकी आन्तरिक भावना थी। यह उनकी १३४]
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बैरिस्टर चम्पतरायनी स्वनामधन्य वैरिस्टर चम्पतरायजी उच्चकोटि के विद्वान, समाज-सुधारक और जन सिद्धान्त के दिग्गज विद्वान थे। उन्होंने विदेशो मे जाकर जैन धर्म का माधुनिक ढग से प्रचार किया । वे यह अनुभव करते थे कि पाश्चात्य ससार तार्किक और वैज्ञानिक है उन्होने थोड़े ही समय मे पाशातीत उन्नति को है। वे बहुत जल्दी वस्तु के सही रूप को ग्रहण करने में सिद्धहस्त है । यदि ऐसे विद्वानो के सम्मुख जैनधर्म का मर्म रक्खा जाय तो उनकी आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलेगी और विश्व अहिंसात्मक भावनामो की ओर अग्रसर होगा। वैरिस्टर साहव इसी भावना से विदेशो मे गये और उन्होने जन्म भर जैन धर्म का प्रचार किया।
वैरिस्टर सा० ने अग्रेजी में जैन-साहित्य लिखकर मानव समाज की अपूर्व सेवा की है। उनका प्रभाव विदेशो मे खूव पडा । जहाँ भी वे गये उनका पूर्व सत्कार हुआ। जैन समाज के कई उदीयमान युवक उनसे इतने प्रभावित थे कि जैन-साहित्य और समाज की सेवा के लिए उन्होने जीवन में प्रशसनीय कार्य किया । ला० तनसुखरायजी के जीवन पर उनका अद्भुत प्रभाव पड़ा। जो उन्हे समाज-सेवा के मार्ग की ओर अग्रसर कर सका।
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केवल भावना ही नही थी बल्कि इसके लिए उन्होने यथा - शक्ति विदेशो में भ्रमण किया । फलत' वह वीर वाणी को विदेशो मे प्रसारित कर स्व कर्तव्य में सफल हुए ।
किसी भी धर्म का साहित्य हो उसे जीवित रखने मे सजीवनी के समान कार्य करता है । और जिस धर्म का साहित्य देशी-विदेशी कई भापात्रो में उपलब्ध हो वह धर्म शीघ्रातिशीघ्र विकास को प्राप्त हो जाता है । वैरिस्टर साहब ने इस भ्राग्ल भाषा के युग मे लगभग २० ग्रन्थ इस भाषा मे लिखे है । इतना ही नहीं ग्रपितु श्रापने अपनी प्रभावित वक्तृत्व शैली द्वारा देशविदेशो ने धर्म श्रवण कराकर विदेशियो को प्रभावित किया और अपना जीवन सफल
बनाया ।
आप बैरिस्टर होकर व विदेश भ्रमण करते हुए भी जैन सिद्धान्त के परम श्रद्धानी थे जिसे कि आजकल के शिक्षित विद्वानो मे बहुत कम देख पाते है । आपकी धर्मनिष्ठा और श्रात्मनिष्ठा सदैव स्थिरता रूप रही। यह सुनकर ग्राश्चर्य होता है कि आप रात्रि मे जल भी ग्रहण नही करते थे । अन्य नियम और स्वाध्यायादि तो आपकी दिनचर्या के साथी ही थे । आपका ज्ञान प्रापके परिणामों का सदा ही रक्षक रहा था। आप वास्तव मे सच्चे कर्मठ धर्मात्मा और जैन समाज के महान पुरुष थे ।
चारित्रमूर्ति श्रावक
वैरिस्टर साहब केवल धर्म तत्व के दार्शनिक विद्वान् या उसके श्रद्धालु भक्त मात्र ही न थे । उन्होने रत्नत्रय धर्म को अपने जीवन मे यथा सम्भव मूर्तिमान बनाने का उद्योग किया था । वे महान् थे । इसलिए नहीं कि उनको महान बनने की आकाक्षा थी । महत्वाकाक्षा कभी भी मनुष्य को महान् नही बनाती । त्यागवृत्ति और सेवा धर्म ही मनुष्य को ऊंचा उठाते है । बैरिस्टर साहब महान् हुए। क्योकि वह त्याग और सेवा धर्म को जानते और उस पर भ्रमल करते थे लखनऊ महासभा अधिवेशन के वे सभापति मनोतीत हुए, परन्तु उस पद को ग्रहण करने के पहले उन्होने स्थूल रूप मे पचारगुव्रत धारण किए ।
उन व्रतो का उन्होने यावज्जीवन पालन किया । विलायत मे भी वे व्रतो को धारण करने मे पूर्ण सावधानी रखते थे । लन्दन से दिए गए एक पत्र मे वे लिखते है
" शाम को मैं अपना भोजन स्वय बनाता हूँ । मेरे कमरो के पास ही एक छोटा-सा रसोईघर है । भोजन कमरो के किराये मे लगभग बीस पौढ प्रतिमास खर्च होता है । प्रात. में फल र मलाई लेता हू कभी-कभी चाय भी पी लेता हूँ । ६--४५ पर उठ बैठता हूँ और पौने
ठ बजे सामायक पर बैठ जाता हूँ। जिसमे मुझे ३५ मिनट लगते है । उसके बाद ही मैं ε के करीब फलाहार करता हूँ । उपरान्त पास के बगीचे मे घूमने चला जाता हूँ" । वहा से १२- ३० बजे लौटता हूँ | तब में खाना बनाता और खाता हू जिसमे रोटी और भाजी मुख्य होती है । दिन मे दो बजे से पाँच बजे तक लिखने मे समय विताता हूँ। और ६-३० अपनी शाम की
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व्यालु बनाकर खाता हूँ" । लोगो ने मुझसे कई बार पूछा है कि क्या विलायत मे एक व्रती श्रावकं का जीवन बिताना सम्भव है ? मुझे तो लगता है सब चीजें बाजार में मिलती है और यदि रसोईघर है तो मनचाहा बनाकर खाइए। इसमे दिक्कत ही क्या है ? रही बात मानसिक शान्ति और निराकुलता की सो भारत की अपेक्षा विलायत मे अधिक निराकुलता और शान्ति है । क्योकि यहा उनके विरोधी साघन ही नही है । यह सच है कि यहाँ के जीवन मे बहुत-सी लुभावनी बाते है । परन्तु थोडे वहुत यह बात तो सभी ठौर है ।
मनुष्य लुभावो मे पड़कर कहा नही गलती कर सकता ? वास्तव मे यह प्रश्न तो चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्बन्ध रखता है । यदि उसका क्षयोपशम है तो वाह्य निमित्त निरर्थक होगे । और चारित्रमोहनीय के उदय मे रहते हुए भी एक व्यक्ति वम्बई में भी भ्रष्ट हो सकता है । अत आठवी एव उससे न्यूनतम प्रतिभाओ के घाटी श्रावक विलायत में सानन्द रह सकता है । एक खूबी इस देश मे और है वह यह है कि यहाँ चीटियाँ और कीड़े-मकोडे प्रायः होते ही नही । अत हमे उनकी प्रारम्भजनित हिंसा का भी पाप नही लगता ।"
पूज्य वैरिस्टर साहब सयमी जीवन पालन करने मे कितने जागरुक थे । उनका प्रदर्श बरबस हमसे कह रहा है कि सयम का पालन करो । श्रावक हो तो श्रावक के भाठ मूल गुणो का पालन करो। मद्य, मास और मधु तथा पच उदुम्बर फल मत खाओ । पानी छानकर पियो । रात मे खाना मत खाभो ।
वॅरिस्टर साहब तो वहाँ भी दिन ही मे भोजन कर लेते थे । जहा सब ही प्राय रात्रि भोजी थे । वह अपने व्रतो मे खूव सावघान थे । एक दफा वह बहुत प्राप्त हो रवाना होने को थे । उनके मित्र नाश्ता लाये । भुकभुका हो चुका था। पौ फटने को 1 बैरिस्टर साहब ने कहा, अभी रात है, में नाश्ता नही करुगा। मित्र का आगह निरर्थक था । वैरिस्टर साहब के जीवन मे अपूर्व शान्ति का सिरजन उनकी परीक्षा प्रधानता के कारण ही हुआ । यदि उनकी प्रज्ञा सुवृत्ति न होती वह वस्तुस्थिति के परीक्षक न होने तो विलासता के गहरे गर्त से वह बाहर नही निकल सकते थे । उस पर भी वह शास्त्रों मे लिखी हुई प्रत्येक पक्ति को इसलिए ही नही स्वीकार कर सकते थे कि उस पर तीर्थंकर कथित होने की मुहर लग गई थी। वह उस वात को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसते थे । और जब उसे ठीक पाते थे तभी उसे मान्य करते थे । पूज्य वैरिस्टर साहब ने सन् १९२६ मे नार्वे (Norway) देश की यात्रा की । वहां उन्होने द्वा० ११ जोलाई १९२६ को अपनी प्राखो से वरावर रातदिन सूर्य को मकते पाया । वहा तीन-चार महीने तक मुतवातिर सूर्य अस्त नही होता । सर्वज्ञ का कथन इस प्रत्यक्ष के अविरुद्ध ही हो सकता है। वैरिस्टर साहब ने वहा का मनोरजन वर्णन लिखा है । रात ११॥ बजे सूर्य अस्ताचल रेखा को चूमने लगा । बारह बजते-बजते उसका श्रावे से ज्यादा भाग डूब गया । प भाग आखो के सामने रहा । श्राधी रात के पश्चात् सूर्यास्त होना बन्द हो गया । सूर्य का जो भाग नेत्रो के सामने था वह धीरे-धीरे ऊपर को उठने और निकलने
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लगा। डेढ बजे रात को पूरा सूर्य निकल आया था। चारो ओर धूप ही धूप थी। वह दृश्य देखते ही बनता था । इस प्राकृतिक दृश्य का तारतम्य जैन सिद्धान्त के कणानुयोग से कैसे बैठता है । यह बताने वाले साधन-सूत्र अभी प्रकाश मे नही आए है। बैरिस्टर साहव उन सर्वज्ञ प्रणीत सूत्रग्रन्थ को पाकर फूले न श्रधाते । वे राष्ट्रीयता के सच्चे पोपक थे । वीर की सिंह गर्जना उनमे थो । शान्ति का अर्थ दव्वूपन और अहिंसा से मतलव कायरता के नही । जैनधर्म के लिए स्वार्थत्याग और श्रात्म-बलिदान करने की आवश्यकता है। कोई अत्याचार करे तो उससे दवने की श्रावश्यकता नहीं । अन्याय को हटाने के लिए हमे धर्म रक्षा के लिए लड़ने-मरने को तैयार हो जाना चाहिए।
बैरिस्टर साहब ने जैन साहित्य की पूर्व सेवा की वे एक महान् धर्म प्रचारक और परीक्षा प्रधानी श्रावकरत्न थे । हमारा कर्तव्य है कि उनके पद चिन्हो पर चलकर धर्म को जीवन मे उतारे ।
बैरिस्टर साहब के कतिपय शिक्षा-प्रद श्रावेश
प्रत्येक जैन युवक जैन धर्म का ज्ञाता बने । शिक्षित जैनो मे जैनत्व की भावना पैदा हो।
जैन धर्म तो पारस पत्थर है जो लोहे के समान प्रशुद्ध जोव को शुद्ध स्वर्ण तुल्य बना सकता है।
जैनो की उपजातियों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध होना चाहिए | इससे कई लाभ है । जैन धर्म एक विज्ञान है। कारण कार्य सिद्धान्त पर अवलम्बित है । जैसा वोद्योगे वैसा काटोगे । परन्तु श्राज हम धर्मविज्ञान को भूल गये । वे धन, यश पुत्रके लिए मन्दिर नही जैन मन्दिर भिखारियो के लिए नही । मोक्षाभिलापियो के है धर्मशिक्षा और स्वाध्याय की पद्धति में सुधार होना चाहिए । नई पद्धति से वस्तु का स्वरूप समझने व जानने की जरूरत है। मुख्यतः सात तत्वो को जानने की जरूरत है। वैज्ञानिक शैली से पुस्तकें रची जानी चाहिए। श्रात्मज्ञान, न्याय, समाज शास्त्र, और इतिहास की नई पद्धति पर प्रतिपादन करना चाहिए ।
सीधे-सादे शब्दो मे युक्ति और प्रमाण के आधार पर आप गजट मे मैत्री प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ के खिलाफ कोई लेख प्रकट न हो।
विद्वानो को विद्वत्तापूर्वक लेख लिखने के लिए प्रेरणा करो । सम्पादकीय विद्वत्तापूर्ण हो । पहले समाज मे जैन सस्कृति मनुष्यमात्र के लिए आदर्श सस्कृति थी । और हर जगह जैनी मनुष्य के नेता थे । वही आदर्श आज हमारे सामने होना चाहिए। और after प्राचीन काल के समान ऊचा करना उचित है। तब पीछे चलेगी ।
हमको अपनी आवाज
दुनिया खुशी से हमारे
प्राचीन जैन तत्व की रक्षा कीजिए ।
समन्तभद्र स्वामी का अपने सामने प्रादर्ण रूप थे । जैन समाज को उन्नत बनाने के लिए ससार मे मुख शान्ति फैलाने के लिए जैन विश्व विद्यालय स्थापित करना आवश्यक है ।
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लालाजी के नेतृत्व में परिषद् का शानदार अधिवेशन
श्री पंचरत्नजी
आपके प्रधान मत्रित्वकाल मे परिषद के तीन अधिवेशन हुए। तीनो ही अधिवेशन बहुत ही शानदार ढग से सम्पन्न हुए। जिसमे हजारो की संख्या में देश के विभिन्न भागो से जन कार्यकर्ता और समाज सेवी सम्मलित हुए। उन्ही अधिवेशनो में एक सतना अधिवेशन किस प्रकार सम्पन्न हुआ उसका दिग्दर्शक आपके सामने है। परिपद् की जन्मभर सेवा करने वाले पडित रामलालजी पचरत्न उस समय प्रचारक थे उनकी ही क्लम से आँखो देखा हाल अधिवेशन का इस प्रकार है।
सतना अधिवेशन
परिपद अधिवेशन का निमंत्रण सतना से आया था परन्तु कारण विशेप से १ सप्ताह बाद पत्र मिला कि जो निमंत्रण सतना मे परिषद् अधिवेशन का दिया गया था उसे कैन्सिल कर दिया जाय प्रादि।
अव मैं बाहर से आकर प्रधान मत्री परिपद् लाला सनसुखरायजी से मिला तो कहने लगे वर्ष अधिवेशन का समाप्त होने वाला है । निमत्रण सतना का आया था पर न मालूम क्यो इन्कार करते हैं । आप बिस्तर न खोलें और तुरन्त सतना जाकर व्यवस्था करें और कारण ज्ञात करें मैं उसी क्षण सतना को रवाना हो गया अगले दिन दोपहर के समय सतना पहुंचा मालूम हुआ कि श्री मदिरजी मे मीटिंग हो रही है मैं वहां पहुंचा । लोगो से मिला । लोगो ने कहा कि पब्जी सतना मे रथ ५० वर्ष से निकला नहीं है । श्री महाराजा रीवा नरेश ने बडी कठिनता से इस वर्ष रथ निकालने की आज्ञा दी है हम लोग ठाठबाट व प्रभावना के साथ जैन रथ निकालना चाहते है। यह भी समाज ने निश्चय किया था कि दि० जैन परिपद् को निमत्रित भेज दिया जाए। निमत्रए गया भी, परन्तु जब हम लोग सिवनी रथ मांगने गये जो कि बडा सुन्दर बना हुआ है वहाँ के समाज ने कहा कि अगर तुम रथोत्सव पर जन महासभा को निमत्रण करते हो तो हम रथ देने को तैयार हैं अन्यथा नहीं इस मजदूरी को देखते हुए हम जवानी स्वीकृति दे पाये हैं । इसी सवध मै आज मीटिंग थी। मीटिंग के निश्चयानुसार निमत्रण महासभा को भेजना स्वीकार किया गया है और यह निमत्रण है जो भेजा जा रहा है । मैंने माघ घटे परिषद् के सवध मे जोगीला भाषण दिया । फल यह हुआ कि परिषद् को भी निमत्रण दे दो। दोनो के एकीकरण होने का श्रेय सतना को प्राप्त होगा। मैंने कहा रही रथ की बात सो पन्जी कह ही रहे हैं कि मेरी जिम्मेवारी है हम रथ का प्रवन्ध कर देंगे। निमत्रण परिषद् को पुन लिखा गया। यह मुझे दिया गया। महासभा का निमंत्रण जो डाक मे डालना था वह भी लिया और वापिस होकर तार द्वारा सूचन्ग निमत्रण की दी। वहाँ से तार द्वारा जैन मित्र, सदेश आदि को खबर कर दी गई। अगले अक मित्र सदेश मे "परिपद्
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अधिवेशन सतना मे होगा" ऐसा समाचार पढा गया । शीघ्र ही कार्यसमिति द्वारा योजना प्रकाशित की गई ।
दिल्ली से फिर सतना प्रबन्ध करने आया तो लोगो ने कहा परिषद् का निमत्रण स्वीकारता का मित्र, वीर में प्रकाशित हो गया है । महासभा का कोई जिक्र नही प्राया । मैने कहा मैं उस दिन डाकखाने गया तो सोचने के वाद निश्चय किया कि एक म्यान में दो तलवारे नही श्रा सकती इस वर्ष परिषद् का अधिवेशन सतना मे हो जाने दो, दूसरी वार महासभा का । इस कारण दूसरा पत्र मैने नही डाला था । कुछ लोगो ने अच्छा कुछ ने बुरा भी कहा । परिषद् के सम्बन्ध मे मदिरजी मे अच्छा प्रभाव डाला । स्वागत समिति का निर्माण किया ।
श्री दयाचन्द धर्मदास को सभापति, उपसभापति क्रमश बनाया। तैयारिया होनी शुरू हो गई । महाराजा' रीवा नरेश से सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रमुख दरवारी लोगो के साथ मैं भी गया । सबने गिन्नी भेट की । मैने श्रीफल और सवा रुपया भेंट कर श्राशीर्वादात्मक श्लोक पढा महाराजा मेरी थोर देख कर प्रसन्न हुए ।
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मेरा परिचय होने के पश्चात् मैने कहा । राजन् ? श्रापके राज्य सतना मे श्राल इडिया दि० जैन परिषद् का अधिवेशन होना चाहता है । असेवली के बडे-बडे नेतागरण आपके राज्य मे पधारेंगे । स्टेट का प्रवन्ध जिनके हाथ मे है उनके पधारने की भी आशा है । महाराजा ने प्रसन्न होकर सतना की राजकोठी खाली करने के लिए कर्मचारियो से कहा । यह भी कहा कि श्रागन्तुक अतिथियों को किसी प्रकार का कप्ट न हो। वे यहां से वुरी भावना लेकर न जावे । सोने-चादी की दो कुर्सी भी भिजवाने के लिए कहा तथा ऊंट, हाथी, घोडे आदि जिस-जिस सामान की जरूरत हो मैं स्वीकृति देता हूँ परन्तु प्रतिथियो को रच मात्र भी कष्ट का अनुभव न हो यह ध्यान रहे । मैने कहा राजन् ! मैं तो आपको पधारने का निमंत्रण देने आया हूँ । महाराजा सा० ने कहा कि मैं जरूर अधिवेशन मे आऊंगा । तुरन्त समाचार पत्रो मे दिये गए। राज्य की ओर से तैयारियाँ शानदार होने लगी तहलका मच गया । विशाल सुन्दर मडप बनाया गया । नाटक का भी प्रबन्ध किया गया । सुन्दर बाजार सजाया गया । तोरण मडप बनाया गया । राजसी ठाठ किया गया । यह चर्चा अ०जैनो मे भी फैली कि जैन रथ मे नग्न मूर्ति निकाली जायगी । ब्राह्मणो ने घोर विरोध किया कि ऐसा नही होने देंगे | हम जेल भर देंगे। तब उन्होने ओझा ( एक जाति होती है जो यत्र-मंत्र मे प्रवीण होती है। जो अपने मत्र बल से रथ को तोड देती है। ऐसा कई जगह हुआ भी है) को बुलाया और जैन के विरोध में नाना तैयारिया होने लगी यह खबर जैन समाज सतना को मिली सब बडे चितित हुए मुझे बुलाया सब हाल कहा ? मैंने कहा चिंता की कोई बात नही है जाकर उस घोभा से कह दो कि हमारे यहा बडे भारी मत्र तत्र वादी विद्वान पधारे हुए है उन्होने कहा कि आपका वडा लडका मरणासन्न है जाकर खबर लो देव की बात कि उनके पास इस विषय का तार आया और वह चला गया तथा उसका बड़ा बेटा मर भी गया उसने थाने से इन्कार कर दिया सकट टला लोगो मे मेरा अत्यधिक विश्वास बढा खूब सम्मान दिया ।
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लोगो ने कहा प० जी यह सी० पी० प्रान्त है परिपद् के विरोध मे काफी लोग है । आगन्तुको की संख्या थोडी होगी तो क्या शोभा होगी। मैंने कहा चिंता की कोई बात नही है देखते रहिये मैं क्या - क्या प्रबन्ध करता हूँ जगह-जगह गया यहाँ प्रचार किया कि श्रौमा द्वारा जैन रथ रोका जायगा जैन विद्वान रथ चलायेंगे योभा को कीला जाएगा यह दृश्य जैन प्रभावना की दृष्टि से देखने योग्य होगा काफी तादाद मे लोग पधारेंगे। यह चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और बेशुमार श्रादमी आ गया रथ जैसी भीड हो गई. महाराजा रीवा नरेश के अन्तर्गत अन्य राजाओ से भी मिला, उन्होने भी आने का वचन दिया खाने पीने ठहरने आदि की पूर्ण व्यवस्था की गई राजसी प्रवन्ध किया गया। इधर अधिवेशन के दिन निकट आने पर श्री अयोध्या प्रसाद जी गोयलीय सतना था गये मैंने स्वागत समिति मे प्रस्ताव रक्खा कि सभापति अविवेशन ट्रेन से आयेंगे अत इलाहाबाद मे सभापति महोदय और साथ ही नेताओ का स्वागत होना चाहिए अपना प्रवन्व वहाँ होना चाहिए गोलीय जी और में इलाहावाद गये वहा पर कैलाशचन्दजी से मिलकर उन्हें निमंत्रण देकर सभापति का स्टेशन पर शानदार स्वागत किया गया भोजन व्यवस्था की गई इसी तरह मार्ग मे कई जगह व्यवस्था की गई। यह सब प्रवन्ध मैंने ही किया सतना स्टेशन पर मखमल तथा तूस के फ पर से सभापति को लाया गया उस पर फूल मालाओ से वेप्टिन जयकारों के नारी से सभापति का सम्मान किया गया । सभापति महोदय को सोने के हौदे में हाथी पर बैठाया गया। महिला परियद् की सभा नेत्री श्री लेखावती जी को दूसरे हाथी पर ऐसे ४ हाथी कई ऊंट कई घुड सवार बैंड बाजे वगियो द्वारा शहर मे जुलूस निकाला गया मार्ग मे हर जैन घर पर हाथी को खड़ा किया गया वहाँ सभापति का सम्मान हुआ अशर्फी रुपया श्रीफल भेट किये गये दृश्य देखने योग्य था । जिस समय सभापति वा० लालचन्द जी अपना वक्तव्य दे रहे थे । खबर मिली कि महाराजा पधार रहे है खलबली मच गई सतना निवासी लोगो ने कहा महाराज रीवां नरेश पधार रहे है भाषण बन्द कर देना चाहिए और उनके बैठने का प्रवन्ध खास होना चाहिए ।
मैने कहा - आने दो प्राखिर सारे भारत का सभापति भाषण दे रहा है महाराजा भी सुनेंगे आखिर सभापति अधिवेशन के बरावर मे कुर्सी डालकर सम्मान से उन्हे विठाया गया और सम्मानित किया गया परन्तु वे बैठे नही मखमल के फर्श पर बैठे, भाषण पञ्चात् उन्हें उच्च स्तर पर बिठाकर प्रो० हीरालाल जी ने सुसज्जित भाषण दिया और अध्यक्ष महोदय ने जैन सिद्धांत के खास २ ग्रथ महाराजा को भेट किये महाराजा को अभिनन्दन पत्र भेट किया गया जिसका उत्तर महाराजा ने थोडे शब्दो मे महत्वपूर्ण दिया और कहा - "आज हम लोगो का भाग्य है कि इतनी दूर २ से राज्य मे अतिथि पधारे है उन्हें कोई कष्ट न इस बात का ध्यान राज्य निवासियों को रखना चाहिए। राज्य प्रबन्ध तथा समाज की ओर से सब प्रकार का प्रवन्ध था परिषद् के इतिहास सतना का अधिवेशन अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
शाही अधिवेशन कराने में मैंने जो प्रबन्ध किया वह सब प्र० मंत्री परिषद् ला० तनसुखराय जी का ही प्रवन्ध कहा जा सकता है ।
(शेप पृष्ठ १५१ पर) [ १४१
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जैन और हिन्दू
बहुश्रुत विद्वान् डा० ज्योति प्रसाद जैन M.A. Ph. D. लखनऊ
"प्रसिद्ध ऐतिहास और बहुश्रुत विद्वान डा० ज्योति प्रसादजी ने हमारे विशेष श्राग्रह पर 'जैन और हिन्दू' सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया है । जिसमे आपने उन प्रचलित सभी मान्यताओं का खंडन किया है। जिनके आधार पर कतिपय कानिद जैनो को हिन्दू समझते हैं। राष्ट्रनायक स्व० पं० जवाहरलालजी नेहरू ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'डिस्कवरी ग्राफ इण्डिया' में लिखा है कि जैन धर्म और बौद्ध धर्म निश्चय से न हिन्दू धर्म है और न वैदिक धर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष मे हुआ और वे भारतीय जीवन सस्कृति एवं दार्शनिक चिन्तन के अविभाज्य अंग रहे हैं। जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म भारतीय विचारधारा एव सभ्यता का शत प्रतिशत उपज है तथापि उनमे से कोई हिन्दू नहीं है ।"
"विद्वान लेखक ने अनेक प्रमाणो के आधार पर इसी बात को सिद्ध किया है जो पठनीय एवं तर्कसम्मत और यथार्थ है ।"
क्या जैन हिन्दू है ? अथवा, क्या जैनी हिन्दू नही है ? -- यह एक ही प्रश्न के दो पहलू है, और यह प्रश्न प्राधुनिक युग के प्रारभ रह रह कर उठता रहा है । सन् १९५०५५ के बीच तो सन् ५१ की भारतीय जन गणना, तदनन्तर हरिजनमदिर प्रवेश बिल एव प्रान्दोलन तथा भारतीय भिखारी अधिनियम श्रादि को लेकर इस प्रश्न ने पर्याप्त तीव्र वाद विवाद का रूप ले लिया था ।
स्वय जैनो मे इस विषय में दो पक्ष रहे है -- एक तो स्वय को हिन्दू परम्परा से पृथक् एव स्वतंत्र घोषित करता रहा है और दूसरा अपने आपको हिन्दू समाज का अग मानने मे कोई आपत्ति नही अनुभव करता । इसी प्रकार तथाकथित हिन्दुमो मे भी दो पक्ष रहे है जिनमें से एक तो जैनो को अपने से पृथक् एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय मानता रहा है और दूसरा उन्हें हिन्दू समाज का ही एक अग घोषित करने मे तत्पर दिखाई दिया है । वास्तव मे यह प्रश्न उतना तास्विक नही जितना कि वह ऐतिहासिक है ।
जैन या जैनी 'जिन' के उपासक या अनुयायी है । जिन जिनेन्द्र, जिनेश या जिनेश्वर उन महंतु केवलियो को कहते है जिन्होने श्रमपूर्वक तपश्चरणादि रूप श्रात्मशोधन की प्रक्रियाओ द्वारा मनुष्य जन्म मे हो परमात्मपद प्राप्त कर लिया है। उनमे से जो समार के समस्त प्राणियो के हितसुख के लिए धर्मतीर्थं की स्थापना करते है वह तीर्थंकर कहलाते हैं। इन तीर्थंकरो द्वारा आचरित प्रतिपादित एव प्रचारित धर्म ही जैन धर्म है और उसके अनुयायी जैन या जैनी
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कहलाते है। विभिन्न समयो एव प्रदेशो मे वे भ्रमण, व्रात्य, निम्रन्य, श्रावक, सराक, सरावगी या सरामोगी, सेवरगान, समानी, सेवड़े, भावडे, भव्य, अनेकान्ती, स्याद्वादी आदि विभिन्न नामो से भी प्रसिद्ध रहे है।
आधुनिक युग मे लगभग सौ-सवासौ वर्ष पर्यन्त गभीर अध्ययन, शोषखोज, अनुसधान, अन्वेषण और गवेपण के परिणाम स्वरूप प्राच्यविदो, प्ररातत्त्वज्ञो, इतिहासज्ञो एवं इतिहासकारो तथा भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और कला के विशेषज्ञो ने यह तथ्य मान्य कर लिया है कि जैनधर्म भारतवर्ष का एक शुद्ध भारतीय, सर्वथा स्वतन्त्र एव अत्यन्त प्राचीन धर्म है उसकी परम्परा कदाचित वैदिक अथवा ब्राह्मणीय परम्परा से भी अधिक प्राचीन है। उसका अपना स्वतन्त्र तत्त्वज्ञान है, स्वतन्त्र दर्शन है, स्वतन्त्र अनुश्रुतिएं एव परपराएं है, विशिष्ट प्राचार विचार एव उपासना पद्धति है, जीवन और उसके लक्ष्य सम्बधी विशिष्ट दृष्टिकोण है, अपने स्वतन्त्र देवालय एव तीर्थस्थल है, विशिष्ट पर्व त्यौहार हैं, विविध विषयक एव विभिन्न भाषा विषयक विपुल साहित्य है तथा उच्चकोटि की विविध एव प्रचुर कलाकृतियाँ है । इस प्रकार एक सुस्पष्ट एवं सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित यह जैनधर्म भारतवर्ष की श्रमण नामक प्राय सर्वप्राचीन सास्कृतिक एव धार्मिक परम्परा का प्रागऐतिहासिक काल से ही सजीव प्रतिनिधित्व करता पाया है।
___ इस सम्बन्ध मे कतिपय विशिष्ट विद्वानो के मन्तव्य दृष्टव्य है (देखिए हमारी पुस्तकजैनिज्म दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन) यथा . प्रो. जयचन्द विद्यालकार-"जैनो के इस विश्वास को कि उनका धर्म अत्यन्त प्राचीन है और महावीर के पूर्व अन्य २३ तीर्थकर हो चुके थे भ्रमपूर्ण और निराधार कहना तथा उन समस्त पूर्ववर्ती तीर्थड्रो को काल्पनिक एव अनैतिहासिक मान लेना न तो न्यायसगत ही है और न उचित ही। भारतवर्ष का प्रारभिक इतिहास उतना ही जैन है जितना कि वह अपने आपको वेदो का अनुयायो कहने वालो का है।' (वही पृ० १६) इसी विद्वान तथा डा काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार अथर्ववेद आदि मे उल्लिखित व्रात्य अथवा प्रब्राह्मणीय क्षत्रिय जैन धर्म के अनुयायी थे। (वही पृ० १७) डा. राधाकृष्णन के अनुसार जैन धर्म वर्षमान अथवा पार्श्वनाथ के भी बहुत पूर्व प्रचलित था (वही पृ० २०), तथा यह कि यजुर्वेद मे ऋपम, अजितनाय और अरिष्टनेमि, इन तीर्थवरो का नामोल्लेख है, ऋग्वेदादि के यह उल्लेख तमाम, ऋषभादि, विशिष्ट जैन तो तीर्थडूरो के ही है और भागवतपुराण से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि ऋषभदेव ही जैनधर्म के प्रवर्तक थे (वही, पृ० ४१-४२) ।
प्रो० पाजिटर, रहोड, एडकिन्स, प्रोल्डहम आदि विद्वानो का मत है कि वैदिक एवं हिन्दू पौराणिक साहित्य के असुर, राक्षस आदि जैन ही थे। और डा. हरिसत्य भट्टाचार्य का कहना है कि जैन और ब्राह्मणीय, दोनो परम्परामो के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से आधुनिक युग के कतिपय विद्वानो का यह साग्रह मत है कि वैदिक परम्परा के अनुयायियो ने राक्षसो को
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प्रत्यधिक निन्दा, भर्त्सना की है उसका कारण यही है कि वे जैन थे, यह कि बाल्मीकि रामायण मे राक्षस जाति का जैसा वर्णन है उससे स्पष्ट है कि वे जैनो के अतिरिक्त अन्य कोई हो ही नही सकते और रामायण के रचयिता ने उनका जो वीभत्स चित्रण किया है वह धार्मिक विद्वेष से प्रेरित होकर ही किया है (वही, पृ० २६, २७, ३०) अन्य अनेक प्रख्यात विद्वानो ने जैनधर्म और उसके अनुयायियो को स्वतन्त्र सत्ता वैदिक परम्परा के ब्राह्मण (या हिन्दू) धर्म और उसके अनुयायियो के उदय से पूर्व से चली भाई निश्चित की है, कुछ ने सिन्धु घाटी की प्रागैतिहासिक सभ्यता मे भी जैनधर्म के उस समय प्रचलित रहने के चिन्ह लक्ष्य किये है | (वही, पृ० ३६ श्रादि ) । उसके ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म की कोई शाखा या उपसम्प्रदाय होने का प्रायः सभी विद्वानो ने सबल प्रतिवाद किया है ।
श्रव 'हिन्दू' शब्द को ले । प्रथम तो यह शब्द भारतीय है ही नही, विदेशी है और अपेक्षाकृत पर्याप्त अर्वाचीन है । इतिहासकाल मे सर्वप्रथम जो विदेशी जाति भारतवर्ष श्रीर भारतीयो के स्पष्ट सम्पर्क मे श्रायी वह फारसदेश के निवासी ईरानी थे । छठी शताब्दी ईसा पूर्व मे ईरान के शाहदारा ने भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमान्त पर आक्रमण किया था और उसके कुछ भाग को उसने अपने राज्य मे मिला लिया था तथा उसे उसकी एक क्षेत्रयी ( सूबा) बना दिया था । उस काल मे वर्तमान अफगानिस्तान भी भारतवर्ष का ही अग समझा जाता था । ईरानी लोग सिन्धु नद के उस पार के प्रदेश को भारत ही समझते थे, इस पार का समस्त प्रदेश उनके लिये चिरकाल तक अज्ञात बना रहा। ईरानी भाषा में 'स' को 'ह' हो जाता है, अतएव वह लोग सिन्ध नदी को दरियाए हिन्द कहते थे और उस समरत प्रदेश को मुल्के हिन्द, तथा उसके निवासियो एव भाषा को हिन्दी या हिन्दवी कहते थे । उनका यह सूवा भी हिन्द की त्रयी ( क्षत्री ) कहलाता था और उनकी सेना का भी एक अग हिन्दी सेना था ।
रानियो के द्वार से ही यूनानियो को सर्वप्रथम इस देश का ज्ञान हुआ और ईसा पूर्व ३२६ मे सिकन्दर महान के श्राक्रमण द्वारा उसके साथ उनका प्रत्यक्ष सम्पर्क हुआ । यूनानी लोग 'ह' का उच्चारण नही कर पाते थे । उन्होने ईरानियो के 'हिन्द' को 'इन्ड' कर दिया। वह हिन्द (सिन्धु) नदी को 'इन्डस' कहने लगे और उसके तटवर्ती उस हिन्द (सिध) प्रदेश या देश को इन्डिया इन्डिका कहने लगे। जब सिंघ नदी के इस पार के प्रदेश से उनका परिचय हुआ तो पूरे भारत देश को भी वे उसी नाम से पुकारने लगे । रोम देश के निवासियो ने भी यूनानियो
भी भारतवर्ष का सूचन
का ही अनुकरण किया और कालान्तर मे यूरोप की अन्य सब भाषाओ मे इन्ड, इन्डि, इन्डे, इन्डियेन, इन्डीस, इन्डिया आदि विभिन्न रूपो मे हुआ जो सब एक ही मूल यूनानी शब्द की पर्याय है । इस प्रकार अग्रेजी मे भारतवर्ष के लिए इन्डिया और भारतीय विशेपण के लिए इन्डियन तथा इन्डो शब्द प्रचलित हुए ।
चीनियो को भारतवर्ष की स्पष्ट जानकारी सर्वप्रथम उत्तरवर्ती हानवश के सम्राट वृति के समय में हुई बताई जाती है
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दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व मे और उस काल के एक चीनी
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महाराष्ट्र केशरी श्री गाडगिल के साथ +
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ग्रन्थ मे उसका सर्वप्रथम उल्लेख हुमा बताया जाता है। उसमे सिन्धुनद के लिए 'शिन्तु' शब्द प्रयुक्त हुआ है और यहाँ के निवासियो के लिए 'युप्रान्तु' अथवा 'यिन्तु', कालान्तर मे 'ध्यान्तु'शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
सातवी शताब्दी ई. से मुसलमान अरब इस देश मे आने प्रारम्भ हुए और वे ईरानियो के आक्रमण से इमे 'हिन्द' और इसके निवासियो को पहले हिन्द कहने लगे। दसवी शताब्दी के अन्त मे अफगानिस्तान को केन्द्र बनाकर तुर्क मुसलमानो का साम्राज्य स्थापित हुआ और वे गजनी के सुलतानो के रूप में भारतवर्ष पर लुटेरे आक्रमण करने लगे। तुर्की का मूलस्थान चीन की पश्चिमी सीमा पर था और भारत एव चीन के बीच यातायात प्राय उन्ही के देश मे होकर होता था। यह तुर्क लोग मुसलमान बनने के पूर्व चिरकाल तक बौद्धादि भारतीय धर्मों के अनुयायी रहे थे अतएव दसवी-ग्यारहवी शताब्दी मे जब वे भारतवर्ष के सम्पर्क में पाये तो चीनी, अरबी एव फारसी मित्र प्रभाव के कारण वे इस देश को हिन्दुस्तान, यहाँ के निवासियो को हिन्दू और यहाँ की भाषा को हिन्दवी कहने लगे। मध्यकाल के लगभग ७०० वर्ष के मुसलमानी शासन में ये शब्द प्राय व्यापक रूप से प्रचलित हो गये।
यह मुसलमान लोग समस्त मुसल्मानेतर भारतीयो को, जो कि यहाँ के प्राचीन निवासी ये सामान्यत स्थूल रूप से हिन्दू या अहले हनूद और उनके धर्म को हिन्दू मजहब कहते रहे है, वैसे उनके कोप मे काफिर, जिम्मी, बुतपरस्त, दोजखी आदि अन्य अनेक सुशब्द भी थे जिन्हें वे भारतीयो के लिए बहुधा प्रयुक्त करते थे, हिन्दू शब्द का एक अर्थ वे 'चोर' भी करते थे। ये कथित हिन्दू एक ही धर्म के अनुयायी है या एकाधिक परस्पर मे स्वतन्त्र धार्मिक परम्पराम्रो के अनुयायी है इसमे औसत मुसलमान की कोई दिलचस्पी नही थी, उसके लिए तो वे सब समान रूप से काफिर, बुतपरस्त, जाहिल और वेईमान थे। स्वय भारतीयो को भी उन्हें यह तथ्य जानने की मावश्यकता नहीं थी क्योकि उनके लिए प्राय सभी मुसलमान विधर्मी थे। किन्तु मुसलमानो मे जो उदार विद्वान और जिज्ञासु थे यदि उन्होने भारतीय समाज का कुछ गहरा अध्ययन किया था प्रशासकीय सयोगो से किन्ही ऐसे तथ्यों के सम्पर्क मे आए तो उन्होंने सहज ही यह भी लक्ष्य कर लिया कि इन कथित हिन्दुओ मे एक-दूसरे से स्वतन्त्र कई धार्मिक परम्पराएं है और अनुयायियो की पृथक पृथक सुसगठित समाणे है। ऐसे विद्वानो ने या दर्शको ने कथित हिन्दू समूह के बीच में जैनो की स्पष्ट सत्ता को बहुधा पहचान लिया। मुसलमान लेखको के समानी, तायसी, सयूरगान, सरापोगान, सेवडे आदि जिन्हे उन्होने ब्राह्मण धर्म के अनुयायियो से पृथक पृथक सूचित किया है जैन ही थे। अबुलफजल ने तो पाईने अकबरी मे जैन धर्म और उसके अनुयायियो का हिन्दू धर्म एव उसके अनुयायियो से सर्वथा स्वतन्त्र एक प्राचीन परम्परा के रूप में विस्तृत वर्णन किया है।
जब अग्रेज भारत मे आये तो उन्होने भी प्रारभिक मुसलमानो की भांति स्वभावतः तथा उन्ही का अनुकरण करते हुए, समस्त मुसलमानेतर भारतीयो (इण्डियन्स) को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दूइज्म समझा और कहा। किन्तु १८वी शती के अन्तिमपाद मे ही उन्होने भारतीय
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संस्कृति का गम्भीर अध्ययन एव अन्वैपण भी प्रारम्भ कर दिया था। और शीघ्र ही उन्हे यह स्पष्ट हो गया कि हिन्दुनो और उनके धर्म से स्वतन्त्र भी कुछ धर्म और उनके अनुयायी इस देश मे है, और वे भी प्राय उतने ही प्राचीन एव महत्वपूर्ण है भले ही वर्तमान में वे अत्यधिक अल्पसख्यक हो । १९वी गती के प्रारम्भ मे ही कोलवुक, दुवाय, टाड, फर्लाग, मेकेन्जी, विल्सन प्रादि प्राच्य विदी ने इस तथ्य को भली प्रकार समझ लिया था और प्रकाशित कर दिया था। फिर तो जमे जैसे अध्ययन वढता चला गया यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली गई । इन प्रारभिक प्राच्यविदो ने कई प्रसगो मे ब्राह्मणादि कथित हिन्दुओ के तीव्र जैन विद्वेप को भी लक्षित किया। १९वी शती के उत्तराध मे उत्तर भारत के अनेक नगरी मे जैनो के रथ यात्रा आदि धर्मोत्सवी का जो तीव्र विरोध कथित हिन्दुनो द्वारा हुआ वह भी सर्वविदित है । गत दर्शकों मे यह गांव, जवलपुर आदि मे जैनो पर जो साम्प्रदायिक अत्याचार हुए और वर्तमान में विजोलिया मे जो उत्पात चल रहे है उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । हिन्दू महासभा मे जैनो के स्वत्त्वों की सुरक्षा की व्यवस्था होती तो जैन महासभा की स्थापना की कदाचित आवश्यकता न होती। आर्यसमाज सस्थापक स्वामी दयानन्द ने जैन धर्म और जैनो का उन्हें हिन्दूविरोधी कहकर खडन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक सव या जनसघ मे भी वही सकीर्ण हिन्दू साम्प्रदायिक मनोवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । स्वामी करपात्री जो प्रादि वर्तमान कालीन हिन्दूधर्म नेता भी हिन्दू धर्म का अर्थ वैदिक धर्म अथवा उससे निसृत शंव वैष्णवादि सम्प्रदाय ही करते है । अंग्रेजी कोप ग्रन्णे मे भी हिन्दूइज्म (हिन्दू धर्म) का अर्थ ब्रह्मानिज्म (ब्राह्मण धर्म) ही किया गया है।
इस प्रकार मूल वैदिक धर्म तथा वैदिक परम्परा मे ही समय-समय पर उत्पन्न होते रहने वाले अनगिनत अवान्तर भेद प्रभेद, यथा याज्ञिक कर्मकाण्ड और औपनिषदिक अध्यात्मवाद, श्रीत और रमातं, साख्य-योग-वैशेपिक-न्याय-मीमासा-वेदान्त मादि तयार थित आस्तिक दर्शन और वाहस्परस-लोकायत वा चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन, भागवत एवं पाशुपत जैसे प्रारम्भिक पौराणिक सम्प्रदाय और जैव-गाक्त-वैष्णवादि उत्तरकालीन पौराणिक सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायो के भी अनेक उपसम्प्रदाय, पूर्वमध्यकालीन सिद्धो और जोगियो के पन्थ जिनमे तान्त्रिक, अघोरी और वाममार्गी भी सम्मिलित है, मध्यकालीन निर्गुण एवं सगुण सन्त परम्पराएं, आधुनिकयुगीन आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, राधास्वामी मत आदि तथा असख्य देवी-देवतामो की पूजा भक्ति जिनमे नाग, वृक्ष, ग्राम्यदेवता, वनदेवता, प्रादि भी सम्मिलित है, नाना प्रकार के अन्धविश्वास, जादू-टोना, इत्यादि-में से प्रत्येक भी और ये सब मिलकर भी 'हिन्दूधर्म' सना से मूचित होते हैं । इस हिन्दू धर्म की प्रमुख विशेषताएँ है ऋग्वेदादि ब्राह्मणीय वेदो को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, पालनकर्ता और हर्ता मानना, अवतारवाद मे आस्था रखना, वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एव ब्राह्मण का देवता तुत्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियो को व्यक्तिगत एव सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार करना, महाभारत, रामायण एव ब्राह्मणीय पुराणो को धर्मशास्त्र मानना, मृत पित्री का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान को पुण्य मानना, विशिष्ट देवतारो को हिंसक पशुवलि-कभी भी नरवलि भी देना, इत्यादि ।
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हिन्दू धर्म की इन बातो मे से एक भी वात ऐसी नहीं है जो जैन धर्म मे मान्य हो और न जैन धर्म का इस हिन्दू धर्म के उपरोक्त किसी भी भेद-प्रभेद, दर्शन, सम्प्रदाय, उपसम्प्रदाय आदि मे ही समावेश होता है । अतएव हिन्दू धर्म के अनुयायी हिन्दुप्रो का जैन धर्म के अनुयायी जैनो के साथ उसी प्रकार कोई एकत्व नहीं है जैसा कि बौद्धो पारसियो, यहूदियो, ईसाइयो, मुसलमानो, सिक्खो आदि के साथ नहीं है, यद्यपि एतद्देशीयता को एव सामाजिक सम्बन्धी एव ससर्गों की दृष्टि से उन सबकी अपेक्षा भारतवर्ष के जैन एव हिन्दू परस्पर मे सर्वाधिक निकट है । दोनो ही भारत मा के लाल है, दोनो के ही सम्बन्ध सर्वाधिक चिरकालीन है, इन दोनो मे से किसी के भी कभी भी कोई स्वदेश बाह्य (एक्स्ट्रा टेरिटोरियल) स्वार्थ नहीं रहे, जातीय, राष्ट्रीय, राजनैनिक एव भौगोलिक एकत्व दोनो का सदैव से अटूट रहा है, दोनो ही देश की समस्त सम्पत्ति-विपत्तियो मे समान रूप से भागी रहे है और उसके हित एव उत्कर्ष साधन मे समान रूप से साधक रहे है । कतिपय अपवाद्री को छोडकर इन दोनो मे परस्पर सौहार्द भी प्राय. बना ही रहा है।
इस वस्तुस्थिति को सभी विशेपज्ञ विद्वानो ने और राजनीतिज्ञो ने भी समझा है और मान्य किया है । प्रो. रामा स्वामी आयगर के शब्दो मे 'जैन धर्म बौद्ध धर्म अथवा ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) से निसृत तो है ही नहीं, वह भारतवर्ष का सर्वाधिक प्राचीन स्वदेशीय धर्म रहा है (जैन गजट, भा. १६, पृ २१६)। प्रो एफ. डबल्यू टामस के अनुसार 'जैन धर्म ने हिन्दू धर्म के बीच रहते हुए भी प्रारभ से वर्तमान पर्यन्त अपना पृथक एव स्वतन्त्र ससार अक्षुण्ण बनाए रखा है।" (लिगेसी आफ इडिया, पृ २१२) 'कल्चरल हेरिटेन आफ इडिया' सीरीज की प्रथम जिल्द (श्री रामकृष्ण शताब्दी ग्रन्थ) के पृ १८५-१८८ में भी जैन दर्शन का हिन्दू दर्शन जितना प्राचीन एव उससे स्वतत्र होना प्रतिपादित किया है। भारतीय न्यायालयो मे भी हिन्दू-जैन प्रश्न की मीमासा हो चुकी है । मद्राम हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज तया विधान सभा के सदस्य टी एन शेषागिरि अय्यर ने जैन धर्म के वैदिक धर्म जितना प्राचीन होने की सभावना व्यक्त करते हुए यह मत दिया था कि जैन लोग हिन्दू डिसेन्टर्म (हिन्दू धर्म से विरोध के कारण हिन्दुनो मे से ही निकले हुए सम्प्रदायी) नहीं है और यह कि वह इस बात को पूर्णतया प्रमाणित कर सकते है कि सभी जैनी वैश्य नहीं है अपितु उनमे सभी जातियो एव वर्गों के व्यक्ति है। मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जज (प्रधान न्यायाधीग) माननीय कुमारस्वामी शास्त्री के अनुसार "यदि इस प्रश्न का विवेचन किया जाए तो मेरा निर्णय यही होगा कि आधुनिक शोष खोज ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जैन लोग हिन्दू डिसेन्टर्स नहीं है, वल्कि यह कि जैन धर्म का उदय एव इतिहास उन स्मतियो एव टीका ग्रन्थो से बहुत पूर्व का है जिन्हें हिन्दू न्याय (कानून) एव व्यवहार का प्रमाणस्रोत मान्य किया जाता है .. . वस्तुत जैन धर्म उन वेदो की प्रमाणिकता को अमान्य करता है जो हिन्दू धर्म की आधारशिला है, और उन विविध सस्कारो की उपादेयता को भी, जिन्हे हिन्दू अत्यावश्यक मानते है, अस्वीकार करता है।" (आल इडिया लॉ रिपोर्टर, १९२७, मद्रास २२८) और वम्बई हाईकोर्ट के न्यायाधीश रॉगनेकर के निर्णयानुसार "यह वात सत्य है कि जैन जन वेदो के प्राप्तवाक्य होने की बात को अमान्य करते है और मृत व्यक्ति की आत्मा की मुक्ति के लिए किए जाने वाले अन्त्येष्टि सस्कारो,
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पितृतर्पण, श्राद्ध, पिण्डदान आदि से सम्बंधित ब्राह्ममणीय सिद्धान्तो का विरोध करते है । उनका ऐसा कोई विश्वाम नही है कि श्रीरम या दत्तक पुत्र पिता का प्रात्मिक हिन (पितृ उद्धार श्रादि ) करता है । अन्त्येष्टि के सवच मे भी ब्राह्मणीय हिन्दुओ से वे भिन्न है और शवदाह के उपरान्त ( हिन्दुओ की भाँति ) कोई क्रियाकर्म प्रादि नही करते। यह सत्य हैं, जैसा कि आधुनिक अनुसंधानो ने सिद्ध कर दिया है, कि इस देश मे जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के उदय के अथवा उसके हिन्दू धर्म में परिवर्तित होने के बहुत पूर्व में प्रचलित रहा है। यह भी सत्य हैं कि हिन्दुओ के साथ, जो कि इस देश मे बहुसस्यक रहे हैं, चिरकालीन निकट सम्पर्क के कारण जैनो ने अनेक प्रथाएँ और मस्कार भी जो ब्राह्मण धर्म से मविन है तथा जिनका हिन्दू लोग कट्टरता मे पालन करते है, अपना लिए है ।" (प्रान इडिया लॉ रिपोर्टर, १९३९, बम्बई ३७७ ). स्त्र प जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'डिस्कवरी ग्राफ इडिया' मे लिखा है कि "जैन धर्म और बौद्ध धर्म
निचय से न हिन्दू धर्म है और न वैदिक धर्म भी, तथापि उन दोनो का जन्म भारतवर्ष मे हुआ और वे भारतीय जीवन, सस्कृति एव दार्शनिक चिन्तन के अभिन्न श्रविभाज्य अग रहे हैं । भारतवर्ष का जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म भारतीय विचारधारा एव सभ्यता की शान -प्रतिशत उपज है, तथापि उनमे मे कोई भी हिन्दू नहीं है । अतएव भारतीय संस्कृति को हिन्दू मस्कृति कहना भ्रामक है ।"
ऐतिहासिक दृष्टि से भी, वेदी तथा वैदिक माहित्य में वेदविरोधी ब्रात्यां या श्रमणी को वेदानुयायियो - ब्राह्मणो यादि से पृथक सूचित किया है। अशोक के शिलालेखो (धरी गती ई० पू० ) मे भी श्रमणो और ब्राह्मणो का सुस्पप्ट पृथक-पृथक उल्लेख हैं । यूनानी लेखको ने भी ऐसा ही उल्लेख किया और खारवेल के शिलालेख में भी ऐसा ही किया गया । २री गती ई० पू० मे ब्राह्मण धर्म पुनरुद्धार के नेता पतन्जलि ने भी महाभाष्य मे श्रमणो एव ब्राह्मणो को दो स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धा एव विरोधी समुदायों के रूप मे कथन किया। महाभारत, रामायण, ब्राह्मणीय पुराणो, स्मृनियो आदि से भी यह पार्थक्य स्पष्ट है । ईस्वी सन् के प्रथम महस्राब्द मे स्वय भारतीय जनो मे इस विषय पर कभी कोई डाका, भ्रम या विवाद ही नही हुया कि जैन एव ब्राह्मणधर्मी एक हैं- यही लोकविश्वास था कि स्मरणानीत प्राचीन काल से दोनो परम्पराएं एकदूसरे से स्वतंत्र चली चार्ड है। मुसलमानो ने इस देश के निवामियों को जातीय दृष्टि से मामान्यतः हिन्दू कहा, किन्तु शीघ्र ही यह शब्द व वैष्णवादि ब्राह्मणधर्मियो के लिए ही प्राय प्रयुक्त करने लगे क्योकि उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया था कि उनके अतिरिक्त यहाँ एक तो जैन परम्परा है जिसके अनुयायी अपेक्षाकृत अत्पसख्यक हैं तथा अनेक बातो मे वाह्यत उक्त हिन्दुओ के ही मदृश भी हैं, वह एक भिन्न एव स्वतंत्र परम्परा है। मुगलकाल मे श्रकवर के समय से ही यह तथ्य सुस्पष्ट रूप में मान्य भी हुआ । अग्रेजो ने भी प्रारभ मे, मुसलमानो के अनुकरण से, सभी मुस्लिमनर भारतीयो को हिन्दू समझा किन्तु गीघ्र ही उन्होने भी कथित हिन्दुओ और जैनो की एक-दूसरे मे स्वतंत्र संज्ञाएं स्वीकार कर ली । सन् १८३१ मे ब्रिटिश शासन में भारतीयो की जनगणना लेने का क्रम भी चालू हुग्रा, मन् १८३१ में तो वह दणाब्दी जनगणना क्रम मुव्यवस्थित रूप से चालू हो गया। इन गणनाओ में १८३१ से १८४१ तक बराबर हिन्दुग्रो
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और जैनियो की सख्याएं पृथक्-पृथक् सूचित की गई । १५ अगस्त १९४७ को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ और सार्वजनिक नेताओं के नेतृत्व मे यहा स्वतन्त्र मर्वतन्त्र प्रजातन्त्र की स्थापना हुई । किन्तु १९४६ मे जो जनगणना अधिनियम पास किया गया उसमे यह नियम खग्वा गया कि जैनो को हिन्दुको अन्तर्गत ही परिगणित किया जाय - एक स्वतन्त्र समुदाय के रूप मे पृथकू नही । इस पर जैन समाज मे वडी हलचल मची । स्व० आचार्य शान्तिसागरजी ने कानून के विरोध मे आमरण अनशन ठान दिया, जैनो के अधिकारियों को स्मृतिपत्र दिए, उनके पास डेपुटेशन भेजे । फलस्वरूप राष्ट्रपति, प्रधान मन्त्री तथा अन्य केन्द्रीय मन्त्रियों ने जैनो को श्राश्वासन दिये कि उनकी उचित माग के साथ न्याय किया जाएगा।
जैनो की भाग थी कि उन्हे सदैव की भाति १६५१ की तथा उसके पश्चात् होने वाली जनगणनाओ मे एक स्वतन्त्र धार्मिक समाज के रूप मे उसकी पृथक् जनसख्या के साथ परिगणित किया जाय। उनका यह भी कहना था कि वे अपनी इस भाग को वापस लेने के लिए तैयार है यदि जनगणना मे किसी अन्य सम्प्रदाय या समुदाय की भी पृथक गणना न की जाय और समस्त नागरिको को मात्र भारतीय रूप में परिगणित किया जाय । ( देखिए हिन्दुस्थान टाइम्स ६-२-५०) ।
जैनो का डेपुटेशन अधिकारियो से ५ जनवरी १९५० को मिला। डेपुटेशन के नेता एस० जी० पाटिल थे। इस अवसर पर दिये गये स्मृति-पत्र मे हरिजन मन्दिर प्रवेश अधिनियम तथा बम्बई वैगर्स एक्ट को भी जैनो पर न लागू करने की मांग की। अधिकारियो ने जैनो की माग पर विचार विम किया और अन्त मे भारत के प्रधान मन्त्री नेहरूजी ने यह श्राश्वामन दिया कि भारत सरकार जैनो को एक स्वतन्त्र-पृथक धार्मिक समुदाय मानती है और उन्हें यह
भय करने की कोई श्रावश्यकता नही है कि वे हिन्दू समाज के अग मान लिए जाएंगे यद्यपि वे और हिन्दू अनेक वातो मे एक रहे है ।' (हि० टा० २-२-५० ) प्रधान मन्त्री के प्रमुख सचिव श्री ए० के० श्री एस० जी० पाटिल के नाम लिखे गये । ३१-१-५० के पत्र मे जैन बनाम हिन्दू सम्वन्धी सरकार की नीति एव वैधानिक स्थिति सुस्पष्ट कर दी गई है। शिक्षा मन्त्री मौलाना
अबुलकलाम प्राजाद ने भी श्री पाटिल को लिखे गये धरने पत्र मे उक्त आश्वासन की पुष्टि की और आशा व्यक्त की कि श्राचार्य शान्तिमागरजी अत्र अपना अनशन त्याग देंगे। यह भी लिखा कि अपनी स्पष्ट इच्छाओ के विरुद्ध कोई भी समूह किमी अन्य समुदाय मे सम्मिलित नही किया जाएगा। (वही, ६-२-५०) लोक सभा मे उपप्रधान मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने बलवन्तसिंह मेहता के प्रश्न के उत्तर में सूचित किया कि जनगणना मे धर्म वीक के अन्तर्गत हिन्दू और जैन पृथक-पृथक परिगणित किये जाएगे (वही, ८-२-५० ) ।
इसी बीच स्व० ला० तनसुखराय ने अखिल भारतीय जैन एमोगिएसन के मन्त्री के रूप मे उपरोक्त मेमोरेण्डम के औचित्य पर प्रापत्ति की (वही, ४-२-५० ) और अपने वक्तव्य मै उन्होने इस बात पर बल दिया कि शब्द हिन्दू जातीयता सूचक है, राजनैतिक, सामाजिक एव प्रार्थिक दृष्टियों ने जैन हिन्दुओ से पृथक नहीं है किन्तु उनको अपनी पृथक सस्कृति है ।
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कुछ लोगो ने जैनो के इस क्वचित यान्तरिक मतभेद का लाभ उठाया ग्राम जैनो का उपहास किया, उन पर लाछन लगाये, उनकी निन्दा र भर्त्सना की कि वे अपने श्रापको 'हिन्दूइज्म' से पृथक करना चाहते है, अल्पसख्यक करार दिये जाकर राजनैतिक अधिकार लेना चाहते है, पृथक विश्वविद्यालय की माग द्वारा इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में अपने धर्म का प्रचार किया चाहते है, इत्यादि ( ईवनिग न्यूज १४- ३ - ५० किन्ही फर्जी 'राइट एन्गिल' साहब का लेख) वीर अर्जुन (११-९-४९ ) श्रादि मे इसके पूर्व भी जैनो को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के विरुद्ध लेख निकल चुके पे कुछ पत्रो में इसके बाद भी निकले। इस प्रकार के लेख साम्प्रदायिक मनोवृति से प्रेरित होकर लिखे गए थे मोर बहुसख्यक वर्ग द्वारा उस जैन विद्वेपी सकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दिया गया था जिसे बीच-बीच मे यत्र-तत्र बहुसख्यको द्वारा जैनो पर किये गये धार्मिक अत्याचारो का श्रेय है। जिन विद्वानो, विशेपज्ञो, न्यायविदो एव राजनीतिज्ञो के मत इसी लेख में पहिले प्रगट किये जा चुके है वे प्राय उसी कथित हिन्दू धर्म के अनुयायी थे या है, किन्तु वे मनस्वी, निष्पक्ष और न्यायशील है- धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के नहीं । अल्पसख्यक समुदाय से बहुसख्यक समुदाय वैसे ही भय रहता है जो बहुसख्यको के सौहार्द एव सौभाग्य से दूर होता है, सख्या बल द्वारा दवा देने की मनोवृत्ति से नही ।
इन लेखो का एक असर यह हुआ कि कुछ जैनो ने, जिनमे स्व० ला० तनसुखराय प्रमुख थे, समाचारपत्रो मे अनेको देखो एव टिप्पणियो द्वारा कथित हिन्दुओ के इस भ्रम और श्राशका कि जैन हिन्दुओ से पृथक है का निवारण करने का भरसक प्रयत्न किया । इसकी शायद वैसी और उतनी श्रावश्यकता नही थी । १९५४ मे जब हरिजन मन्दिर प्रवेश प्रान्दोलन ने उग्ररूप धारण किया तब भी जैनो मे दो पक्ष से दीख पड़े और उस समय भी ला० तनसुखराय ने यही प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया कि जैन हिन्दुओ से पृथक नही है । सन् १९४६-५० से १९५४-५५ तक के विभिन्न समाचारपत्रो में इन विषयों से सम्बन्धित समाचारो, टिप्पणियो आदि की कटिंग्स वह एकत्रित करके छोड़ गये है । उनके श्रवलोकन से यही लगता है कि ला० तनसुखरायजी को यह आशका और भय था कि कही धर्म और संस्कृति संरक्षण के मोह के कारण जैनो ने स्वातन्त्र सग्राम मे जो धन-जन की प्रभूति प्राहुति दी है - अपनी सख्या के अनुपात से कही कि और देश को एव राष्ट्र की सर्वतोमुसी उन्नति मे जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है और कर रहे है कि उस पर पानी न फिर जाय । श्रौर फिर कुछ नेतागीरी का भी नशा होता है। वरना अपनी सत्ता का मोह होना, अपने स्वत्त्वो, परम्पराओ एव सस्कृति के सरक्षण मे प्रयत्नमान रहना तो कोई अपराध नही है - वह तो सर्वथा उचित एव श्रेष्ठ कर्तव्य है, केवल यह ध्यान रखना उचित है कि देश और राष्ट्र के महान हितो से कही कोई विरोध न हो और किमी अन्य समुदाय से किसी प्रकार का द्वप या वैमनस्य न हो, सहअस्तित्व का भाव ही प्रधान हो और समष्टि के बीच व्यष्टि भी निर्विरोध रूप से अपना सम्मानपूर्ण अस्तित्व बनाये रख सके ।
अस्तु, इस सम्पूर्ण विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि भले ही मूलत हिन्दू शब्द विदेशी हो. अर्वाचीन हो, देशपरक एव जातीयता सूचक हो, उसका रूढ अर्थ, जो अनेक कारणो
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से लोक प्रचलित हो गया है, एक धर्मपरम्परा विशेष के अनुयायी ही है और उनका धर्म हिन्दूधर्म है । हिन्दू और भारतीय- दोनो शव्द पर्यायवाची नही है। -कम कम भारत के भीतर नही है, भारत के बाहर तो भारतीय मुसलमानो को भी कभी-कभी हिन्दू कहा गया है। जिस प्रकार भारत के वौद्ध, सिक्ख, पारसी, ईसाई, मुसलमान, यहूदी, ब्रह्मसमाजी प्रादि भारतीय तो है किन्तु हिन्दू नहीं, उसी प्रकार जैन भी भारतीय तो है, बल्कि जितना भी पूर्णतया कोई अन्य समुदाय किसी भी दृष्टि से भारतीय हो सकता है उसमे कुछ अधिक है, तथापि वे जिन थथों मे आज हिन्दू शब्द रूढ हो गया है उन अर्थों मै हिन्दू नही है । नन्द का जो रूढ और प्रचलित श्रर्थं होता है वही मान्य किया जाता है-- किसी समय 'पाखण्ड' शब्द का अर्थ 'धर्म' होता था, किन्तु आज ढोग, झूठ और फरेव होता है, प्रत यदि आज किसी धर्म को पाखण्ड कह दिया जाय तो भारी उत्पात हो जाय। इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण दिए जा मकते हैं।
हिन्दू और जैन शब्दो के भी जो अर्थ लोक प्रचलित है जनसाधारण द्वारा समझे जाते हैं, उन्ही की दृष्टि से इस समस्या पर विचार किया जाना उचित है ।
(पृष्ठ १४१ का क्षेप)
रय वडी शान व प्रभावना के साथ सरे बाजार निकाला गया विरोधियों ने भी प्रशसा की ।
सतना का प्रविवेशन भी ला० तनसुत्र राय जी के प्रधान के मंत्रित्वकाल में सफलता से सम्पन्न हुआ । सफलता का विशेष श्रेय प्र० मत्री को तो है ही परन्तु तमाम मी० पी० वरार प्रान्त तथा व्देलखण्ड मे प्रचार सब मैंने ही किया ।
प्रो० हीरालाल जी एम० ए० एल० एल० वी नागपुर अधिवेनन के प्रत्यक्ष सुने गये थे उनका जुलूस १४ बैलो के रथ में निकाला गया । प्रवन्ध कार्य मे प० कमल कुमार और मैने विशेष सहयोग दिया ।
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विभिन्न विषयों पर लिखे गए
लाला जी के कतिपय लेखों की झलक
लाला तनसुखराय जी एक कर्मवीर समाजसेवी देशभक्त नेता थे। वे कुशल वक्ता भी थे। नई-नई सूझ आन्दोलन के धनी थे। यद्यपि वे कलम के धनी नहीं थे। वे कुशल नेता थे और न कोई ऐसे विशिष्ट विद्वान थे जो ग्रन्थो का निर्माण करते । परन्तु अपने विचारों को प्रकट करने के लिए वे लिखकर वोलकर जैसा भी अवसर प्राता सदैव तत्पर रहते। वे साहित्यकार तो थे नही न कवि न कोई प्रसिद्ध लेखक । परन्तु जैसे आम कविता मे तीन गुण पाए जाते हैं अक्षर मिताई पद ललिताई और अर्य की गभीरताई। थोडे अक्षर, पदो की सुन्दरता और अर्थ की गभीरता उसी प्रकार सुन्दर गद्य मे भी तीन गुणवृत्त है । लालाजी की रचना मे भी वे सभी गुण पाए जाते है जो एक प्रतिभा सम्पन्न प्रचारक मे होते है । उनकी रचना मे जीवन है, जोश है, प्रवाह और हृदय पर असर करने वाली तेजस्वी विचारधारा है। कतिपय लेखो से इस बात की सत्यता सिद्ध हो सकेगी। यह पाप स्वय अनुभव करेंगे।
रक्षाबन्धन
के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण
आज रक्षावन्धन अर्थात् सलोनो का दिन है 1 कोने कोने में राखियो की चहल-पहल दीख पड़ती है । वहिने भाइयो के घरो पर जाकर राखी बाघ कर अपने पवित्र प्रेम का प्रदर्शन करती है। रक्षा-बन्धन की महत्ता के अनेक धार्मिक कारण है। जैन दृष्टिकोण से इसका प्रारम्भ निम्न प्रकार है :-'माज से सहस्रो वर्ष पूर्व उज्जैन नगरी में धर्मप्रेमी राजा श्री वर्मा के वलि आदि चार जैन-धर्म-द्वेषी मन्त्री थे । एक समय नगर मे जव ७०० जैन मुनियो का सघ पाया, तव राजा के साथ दर्शनार्थ जाने वाले वे चारो मन्त्री मुनि श्रुत सागर से वाद-विवाद मे परास्त होकर वदले की इच्छा से लौटे । रात्रि को उन्होने मुनि श्रुतिसागर को मारने की इच्छा की। परन्तु वहाँ के देव द्वारा कीलित किए जाने पर वह हिल भी न सके। प्रान राजा ने यह देख कर क्रोधित हो उन्हे देश निकाला दे दिया। वे ही चारो मन्त्री वाद मे हस्तिनापुर के राजा पद्मराय के यहा भाकर मन्त्री बन गये और राजा को प्रसन्न कर उससे मुह मागी वस्तु पाने का वचन ले लिया। वही मुनि सब कुछ दिनो वाद विहार करते हुए वहाँ भाया । वलि ने राजा से सात दिन के लिए अपने वचनानुसार राज्य लेकर उन मुनियो के चारो ओर हाड, माम, चाम, ई घन आदि की अग्नि जलवा दी, ताकि वह मुनि दम घुट कर मर जावे । मुनि विष्णुकुमारजी पधराय के छोटे भाई भी थे, जिन्हें
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विक्रयाऋधि (प्राकृति बदलने की शक्ति) प्राप्त थी उन्हे यह वात जानकर बड़ा दुख हुआ। तत्कालं ही वह हस्तिनापुर बारह अगुल के ब्राह्मण का रूप धारण कर पहुंचे तथा राजा बलि को प्रसन्न कर उससे अपने पग से तीन पग पृथ्वी मांगने का वचन लिया। उन्होने अपनी अपूर्व शक्ति से ससार की समस्त पृथ्वी को तीन पग मे नाप कर राजा बलि को अत्यन्त लज्जित कर मुनि सघ की रक्षा कर उनको मृत्यु के मुख से वचाया। तभी से इस त्योहार का नाम रक्षाबन्धन पड़ा। यहाँ पर विचारणीय बात है मुनि विष्णुकुमार का रक्षाभाव जिसके उन्होने अपने ऊपर अधिक से अधिक कप्ट सह कर तथा मुनि पद के कर्तव्य को भी एक वार भूल कर (क्योकि जैन शास्त्रानुसार प्राय. जैन मुनि को प्राकृति बदलने व मांगने का अधिकार नही है) ७०० मुनियो के सघ की रक्षा की। उसी प्रकार हमारा भी कर्तव्य है कि हम हर प्रकार से अनेकानेक आपत्तियों सह कर भी दूसरो की, विशेपतया निर्वलो की, रक्षा करने मे अपने तन-मन-धन को लगा दे।
दीपावली
भ० महावीर का निर्वाण दिवस
भारतीय संस्कृति का समन्वय पर्व
भारत मां की गोद मे जब उसके लाडले लाल स्वच्छन्द किलोल करते होगे तव की दीपावली की वात जाने दीजिए । आज भी हम इस दुर्गन्धमय दूपित वातावरण मे जवकि निराकुल और स्वतत्र श्वास लेना दूभर हो रहा है, तब भी भारतीय अपनी माँ की जिस अविरल अविचल भक्ति से दीपदान द्वारा उपासना करते है वह ससार मे अलौकिक और अनुपम है ।
यो तो सात वार और नौ त्योहार भारत मे सदैव मनते रहे है और मनते रहेगे, मुहर्रम के दिन पहले भारतवासियो ने न देखे थे न सुने थे, [यह दुर्दिन तो परतन्त्र होने पर ही देखने को मिले है] परन्तु दीपावली महोत्सव सव त्योहारो का सम्राट है। इस उत्सव के मनाने मे हिन्दुओ की जिस निष्ठा, श्रद्धा और उत्साह का परिचय मिलता है वह अभूतपूर्व है।
दीपावली महोत्सव कार्तिक कृष्णा ३० को प्रत्येक भारतीय के हृदय पर प्रतिवर्ष एक प्रानन्द-सा बखेर कर चला जाता है। इसी पुण्यतिथि को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भारतलक्ष्मी सीता का अपहरण करने वाले राक्षसो का वध करके १४ वर्ष के पश्चात साकेत पधारे थे। साकेत निवासी अपने राम का आगमन सुनकर इसी पुण्यतिथि को मानन्द-विभोर हो उठे थे, उनका मन-मयूर नाचने लगा था। सरयू नदी, जो साकेत वासियो के अश्रुनो को लेकर वन-पर्वतो मे राम को ढूंढती फिरती थी, उसी राम के दर्शन पाकर अठखेलियां करती हुई जन-जन को यह संवाद सुनाने दौडी थी । भारत की खोई हुई निधि और लक्ष्मी को पाकर भारतवासियो ने जो महोत्सव किया था, दीपावलि उसी पुण्यतिथि की स्मारक है।
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इसी पावन तिथि को २४९१ वर्ष पूर्व विश्वोद्धारक भगवान महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था | इस अनुपम विभूति ने अपने आदर्श, त्याग, दुद्धर तपश्चर्या से जो उस समय लोक सेवा की थी । सत्रस्त भारत मे सुख-शाति की जो स्थापना की थी, उसी पवित्र स्मृति मे भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त होने पर यह दीपावली महोत्सव किया गया था। इसी रोज गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था और इसी रोज सुधारक शिरोमणि स्वामी दयानन्द स्वामी स्वर्गासीन हुए थे ।
अत दीपावली महोत्सव सनातन जैन और आर्य सभी लोगो का महान त्योहार है १ इस त्योहार के आने से महीनो पूर्व तैयारिया होने लगती है । बालक, युवा, वृद्ध सबके हृदय - कमल खिल जाते है । भारत की लक्ष्मी भारत मे ही रहे इसी भावना के वशीभूत होकर प्रत्येक हिन्दू नरनारी उसकी आराधना करते है । भगवान वह सुनहरा प्रभात न जाने कब दिखायेंगे जब हम अपनी भारत मा को परतन्त्रता के बन्धन से मुक्त करके उसके मस्तक पर दीपावली का मुकुट अभिषिक्त करेगे ।
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कथनी और करनी में समानता लाइये
भगवान महावीर का जन्म-दिन मनाने का उत्तम ढंग
किसी भी महापुरुष का जन्मोत्सव मनाने का सबसे उत्तम ढग क्या है ? बड़े-बड़े मेलो, उत्सवो और कार्यक्रमो इत्यादि का आयोजन श्रथवा महापुरुष की जीवनी, उसके उपदेशो इत्यादि के सम्बन्ध मे व्याख्यान, भाषया इत्यादि की व्याख्या । आमतौर पर हम इसी प्रकार महापुरुषो का जन्मोत्सव मनाते है |
किन्तु मेरे विचार मे एक अन्य ढग से भी इस प्रकार के जन्म दिन मनाये जा सकते है । यह ढंग है महापुरुषो के जिन विश्वासो मे हम श्रद्धा रखते है, उन्हें अपने जीवन में ढालने अथवा अपनाने की चेष्टा । किन्ही भी उत्सवो, मेलो इत्यादि के प्रयोजन से यह ढग किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण नही ।
आइये, आज जब हम भगवान् महावीर स्वामी का जन्मोत्सव मना रहे है, तब देखे कि इस दिशा मे क्या कुछ कर सकते है ।
हिसा
सबसे प्रथम हम अहिंसा को लेते है । श्राज जो देश और समाज उन्नत है, उनकी सफलता का मुख्य कारण यही है कि 'अहिंसा' मे हमारे समान श्रद्धा न रखते हुए और उसके
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अभिप्राय को पूरी तरह न समझते हुए भी इन लोगों ने अपने आचरण और व्यवहार में अनजाने ही अहिंसा को अपना लिया है। "मात्मन. प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत्" अर्थात् जो बातें, क्रियाएं और चेष्टाएं उन्हें प्रतिकूल प्रतीत होती हैं और दूसरो द्वारा किये गये जिस व्यवहार को वे अपने लिए पसन्द नहीं करते और अहितकर और दुःखदायी समझते हैं, उनका आवरण व दूनरों के प्रति नहीं करते । फलस्वरूप अपने चारो ओर के वातावरण के प्रेम में उनके हृदय डूबे हुए हैं। उस प्रेम-सने हृदय ने उन लोगों को दृढता से एक सूत्र मे पिरो दिया है। उनके मंगठन, शक्ति और उन्नति की नींव इस प्रकार अहिंसा पर स्थापित है। भगवान महावीर के जन्मोत्सव के अवसर पर हम यदि इस गुण को अपनानें, तो हमारा समाज भी वैसा ही शक्तिशाली बन सकता है।
सत्य
किसी काल में हमारा समाज अपनी सच्चाई के लिए विख्यात था। उस काल में मारे समाज को सर्वत्र प्रादर की दृष्टि से देखा जाता था। व्यक्ति, समाज और यहां तक कि दूर-दूर के देश तक हमारा विश्वास करते थे। इसका परिणाम वाणिज्य की वृद्धि, सबसे दन्पुल और मैत्री की भावना और हमारी सत्ता के अधिकाधिक शक्तिशाली हो जाने के रूप में हमें प्राप्त हुआ था। कालान्तर मे इस सत्य का ह्रास हो गया। फलस्वरूप हम अपनी पूर्व-स्थिति कापम नहीं रख सके । वाणिज्य, आपसी सम्बन्ध और सत्ता हर दृष्टि से हमें हानि उठानी पड़ी। विन्तु सत्य को पुन उसी दृढता से अपनाकर हम फिर अपने पुराने आदर और गौरव को प्राप्त करने हैं । आज जो देश और समाज उन्नत है, उनकी ओर दृष्टिपात करने पर यह बात सप्ट हो जाएगी कि वे सत्य को हमारी उपेक्षा अपने जीवन में अधिक दृढ़ता से अपनाये हुए हैं। उनका प्रत्येक सफलता के पीठ पीछे सच्चाई का छपा हाय है। स्वयं अपना प्राचीन गौरव हमे सत्य ने और प्रेरित करने वाला है। वीरता
यह बात हम प्रतिदिन अपनी आँखों से देखते हैं कि कमजोर और दुर्वल व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में पग-पग पर डगमगाता और पराजय का मुंह देखता है। यही बात सभाओं और राष्ट्रो पर भी लागू होती है । इसलिए उन्नति चाहने वाले व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निरन्तर अपनी शक्ति को बढ़ाने और अधिकाधिक बलवान बनाये रखने की चेप्या करते हैं, ये चेप्टाएं ही ऐसे व्यक्तियो, समाजो और राष्ट्रो को जीवन की दौड़ में पराजय से दूर रखती हैं। हमारे समाज की विगत पिछड़ी हुई स्थिति का कारण यही है कि अपने मापको बलवन बना रखने की इस होड़ में हम पिछड गये। इस दिशा में हमारा ध्यान नहीं रहा । यदि हम पुनः अपनी प्राचीन स्थिति को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें भगवान महावीर स्वामी के मुत्य उपदेव को भूलना नहीं चाहिए । यह उपदेश है : वीर और बलवान् बनो। स्वयं जीनी और दूसरे लोगों को जीने दो। अपनी शक्ति मौर वीरता को अन्य लोगों की सहायता और मलाई के काम में
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लायो । किसी पर अत्याचार करना पाप है । किन्तु किसी का अत्याचार सहना उममे भी बडा पाप है । इम महापाप को किसी भी दशा में स्वीकार न कगे। शुद्धि
आत्मा के प्रानन्द के लिए भीतर और बाहर सर्वत्र स्वच्छता आवश्यक है। उमी दया मे हृदय कल-कल निनाद करता हुआ किमी झरने के समान फूट पड़ता है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनो ही के लिए आन्तरिक और बाह्य स्वच्छता की आवश्यकता रहती है। स्वच्छता आनन्द की सृष्टि के अतिरिक्त नाना प्रकार के कला-कौगनी को जन्म देती है । इममे व्यक्ति समाज और राष्ट्र के प्राण मे नये-नये रम उत्पन्न होकर उनका स्वास्थ्य-गक्ति और सम्पन्नता वढ जाते है । जिम युग मे हमारे हमाज मे स्वच्छता को समुचित स्थान प्राप्त था, उस युग में कला-कौशल की दृष्टि से हम अत्यधिक सम्पन्न थे। हमारे प्राचीन देवालयो, मठो और विहारी से इस वान का अच्छा-खामा परिचय हम प्राप्त कर सकते है। आन्तरिक और वाह्य स्वच्छता के मम्वन्ध मे सही दृष्टिकोण के अभाव में हमारे कला-कोगली ने अपनी नित्य नूतनता और अमरना खो दी। वे प्राण और मज्ञा-शून्य होकर सहि मात्र रह गए । आज जब हम पुन उन्नति की दिशा मे अग्रमर है, तव स्वच्छता के सम्बन्ध मे हमें उमी दृष्टिकोण को अपनाना होगा, जो आनन्द और मौन्दर्य का मुप्टा है ।
इन्द्रिय-निग्रह
आज के भौतिकवादी युग की अशान्ति को यदि हम समाप्त करना चाहते है, यदि हमे निरन्तर भय और प्राशका का शिकार बने रहना अभीप्ट नहीं, तो हमे इन्द्रिय-निग्रह के महत्त्व को स्वीकार कर उसे अपनाना होगा। इन्द्रियो के मनमाने ढग पर पूरी छूट से खुल खेलने का इसके अतिरिक्त कोई परिणाम नही हो सकता कि हम शारीरिक और मानसिक रोगों से पीडित हो जाएं । रोग-ग्रस्त व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, अपितु अपने परिवार और चारों और के वातावरण के लिए भी पीडा और अशान्ति का कारण बन जाता है। इन्द्रियों की मनमानी से इस प्रकार हम अशान्ति और पीडा के ऐसे बवण्डर में फंस जाते है, जिनका उपचार मामान्य प्रौपधियो से होना सम्भव नही । एक रोग के बढ़ने पर दूसरा मिर उभाड लेता है, दूसरे के बाद तीसरे की वारी पा जाती है। इसी प्रकार यह चक्र चालू रहता है। आज के युग मे हम यही देख भी रहे है । प्राज ससार एक भीपण पीडा और अगान्ति में से गुजर रहा है। एक समस्या का ममाधान नहीं होता कि दूसरी मिर उभार कर खडी हो जाती है। फिर भी इन्द्रिय-निग्रह के महत्व को हम समझ नही पा रहे है । संसार मुखापेक्षी
इन उक्त विश्वासो मे हमारी चिरकाल से श्रद्धा और आस्था है । इसी दशा मे भगगन् महावीर स्वामी के शुभ जन्म-दिवम के अवसर पर यदि हम अपनी कथनी और करनी में तालमेल १५६ ]
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विठलाने अथवा समानता उत्पन्न करने की चेष्टा करें, तो जहाँ हमारा भरना और हमारे समाज का लाभ होगा वहाँ हम दूसरो के लिए भी हितकर हो सकेगे। हमारी प्राचीन सफलताओ से प्रभावित होकर सारा समार हमसे न जाने क्या मात्राएं लगाये बैठा है। वह सदैव प्रतीक्षा करता रहेगा अथवा हम उसकी शाशा की पूर्ति का साधन वन सकेगे, यह बात बहुत कुछ हमारी करनी पर निर्भर करती है ।
ढाई हजार वर्ष पूर्व का महान क्रांतिकारी
विश्वोद्धारक भ० महावीर
आज से तीन हजार वर्षं पूर्व के उस युग की तनिक कल्पना कीजिए, जिसमे वलिदानो का बोलवाना था । जिह्वा के रसास्वादन और उदरपूर्ति के लिए आज भी जीवो की हत्या की जाती है, किन्तु उस युग की बात और ही थी । सव इस प्रकार के कर्म धर्म के नाम पर किये जाते थे । धर्म के नाम पर घोडो और अन्य पशुओ को काट कर उनसे यज्ञ सम्पन्न किये जाते थे । नर बलि तक की प्रथा का उस युग मे प्रचलन था ।
मनुष्य और मनुष्य के बीच भीषण असमानता उस युग की एक अन्य वस्तु थी । मनुष्यो को विभिन्न श्रेणियो मे वांटा जा चुका था। इनमे दास और शुद्र जैसी कुछ ऐसी श्रेणिया भी थी, जिन्हे मनुष्य स्वीकार न कर पशुओ से भी बुरा समझा जाता था । इन लोगो से हर प्रकार का श्रम कराया जाता था और इसके बदले मे इनसे पूर्ण दुर्व्यवहार किया जाता था ।
स्त्री-जाति अर्थात् जननी और मा की दशा भी उस युग में निम्न स्थिति में थी । ब्राह्मण धर्म के प्रचार के साथ स्त्रियो की शिक्षा पर बन्धन लगा चुके थे । वेदादि की शिक्षा महिला वर्ग को नही दी जाती थी । उच्च शिक्षा के अभाव मे स्त्री जाति से शिक्षा का बीरे-धीरे लोप हो रहा था ।
इस अन्धकारपूर्ण युग का पूरा विवरण ऐतिहासिक छान-बीन मे उपलब्ध नही । तथापि उपरोक्त तथ्यो को सम्मुख रखते हुए स्थिति की भीषणता का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । इस अनुमान से यह बात स्पष्ट है कि हमारा समाज धीरे-धीरे पतन की दिशा मे अग्रसर हो रहा था ।
महान् क्रान्ति का जन्म
समाज को पतन के गर्त मे गिरने से बचाने के लिए एक महान् विभूति ने जन्म लिया । आकाश मे विजली की आभा सहसा ही प्रज्वलित हुई, जिसने सारे नभ मे एक क्षण के लिए
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प्रकाम कर दिया। मंसा के म महान् शान्निशरी का यह उन्न एक प्रनाला है। इन कानिकारी ने जिन अान्दोकगं उनान्न क्रिया, 8 बार में अनेकों युगों तक मार को नाय प्रदान करना रहा।
मावुनी गे रक्षा, दुष्टों का बिनाम और यमं की रक्षा के लिए आज ने दाई हज़ार वर्ष पूर्व जिन महापुन्य ने इन्म लिया, उनका नाम है भगगन नहावीर।
भगवान महावीर का जन्म एक गमधुन में हमारा मनुष्यों और भूमि पर गम कन्ना उनका कुन-धर्म था किन्नु देग और मसाज जी जो स्थिति उन मम्मुन्द्र ी, उसने उन्हें अवर कर टिग । बाह्य पत्रों को जानने के न्यान पर उनकी आमा नै अल आन्तकि आग में प्रगडिन कर एक ऐमा मागं टुंदनं । निश्चय क्रिग जिम बाग सारे गंमार का कल्या मम्भव हो सकता था। उन्होंने मान लिए गेम गर का नाम म्यिा, दो मंजर और अनरहो।
फरत्रव्य ३० व्यं की मायु ने नांग में मुंह मोड़कर ग्रानं जंगलों में गणि और वर्ष के कठोर नप के रचान उन मन्य नीबोन ने मन्न हो गए, जिमी नदिक लिए आर ग्लगील थे और बचपन में ही जिवके लिए भारले नन में अर्थता । अहिंसा का अपूर्व सन्देश
अहिमा की जो गति बद के युगों में युद्ध, ईया, गान्धी इत्यादि महाटगे ने बगाग, उमना नवरयन जगाने का मामाग्य नगगन महावीर न्गी को ही है । अहिमाई इम पूर्व मन्टेग का काम फैलाकर अपने पशुओं और मनुष्यों की बटि के कनुपिता कृष्ण को गंगा और गिमात्र को प्रेम की दृष्टि से देवनं की निक्षा मंना को ममी ।
समाज में फैली केंत्र-नीत्र की नावना र माग्ने जो कुटानात किय. उमगवानविन महन्त नो वर्ग-बिहीन समान की स्थापना के उन्नान युग में ही मनी-मार का सामना है। इस दिशा में भी एक नये गुन्ग का नाम र आने नागजिन ननुप्य नजान हैं। न कोई वर्ग वा व्यक्ति कंत्रा है और न कोई नोचा। न्नं ने ही यंत्र व्यक्ति की योग्यता प्रकट होती है । "प्रान्यवन् पई नषु गिना दान कर आने नाम कि जाति, रंगेन्द्र, देगनेट और अन्य प्राधिक नदी के नाम मनुष्यों गचा-नीच नहीं माना जा सकता । 13 मनुष्ग में मन्यना ने बग्नना आवश्यक है।
आ उन उपम में उन्नर्गन ही बी-जानि के पुन्पों में समान अधिकारी घोषणा की और उन्हें मान प्राति का पूर्व गिरी बाग। इन कार मात्र ग्य का जा चक्र महिमा के कारण दुर्वन्न होता जा रहा था, उसे पुनः पुष्ट बनाने की चेष्टा की गयी ।
लोक-कल्याण के लिए भगवान् महावीने जिम नाग-पुंज को गहिन निग, उसकी को धागएँ हैं। ये ग्राज नी हमारे जीवन-मार्गों को प्रकाचिन करती हैं। मन में कुछ १५.]
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महत्वपूर्ण इस प्रकार है : "अपने जीवन को सादा बनाओ, शारीरिक सुखो मे अपने आपको अधिक न फसाओ, साधना का जीवन हो वास्तविक जीवन है, बुराई से वचो क्योकि उसके बुरे परिणाम होते है", इत्यादि ।
आज के युग मे भगवान् महावीर के सन्देशो का महत्व
आज के अशान्ति और हिंसा से पूर्ण ससार मे भगवान महावीर के सन्देशो का वडा महत्व है | आज अपने विनाश की जिन तैयारियो मे ससार लगा हुआ है, उनको रोकने के लिए भगवान महावीर स्वामी का "श्रहंसा परमो धर्म " सन्देश रामवाण सिद्ध हो सकता है । यह हमे अपने झगडे आपस मे मिलकर निवटा लेने की प्रेरणा देता है । यह हमे परस्पर स्नेह करना सिखलाता है और इस प्रकार उन भीषण अणुशस्त्रो के प्रयोग से हमे रोकता है जिनके द्वारा ससार की भीषण हानि अथवा उसका सर्वेथा विनाश सम्भव है ।
एक नयी दिशा की ओर अग्रसर उस देश को भी ढाई हजार वर्ष पूर्व के महान् क्रातिकारी की प्रकाश किरणो की प्रत्यधिक श्रावश्यकता है। इनकी सहायता से हमारा मार्ग प्रकाशित रहेगा और नई दिशा की ओर अग्रसर होते हुए हम अधिक भूलें नही करेगे । भौतिक प्रगति के मार्ग की ओर अग्रसर होते हुए हम उस आध्यात्मिक पहलू को नही भुला सकेंगे, जो हमे सच्ची मनुष्यता, आपसी प्रेम और समानता की शिक्षा देता है ।
स्वयं अपने व्यक्तिगत जीवनो मे भी इन सन्देशो से एक ऐसी मधुरता उत्पन्न कर सकते है, जो हमारे जीवन, पारिवारिक वातावरण और समाज को श्रानन्द से परिपूर्ण कर सकती है । श्राज के परिवर्तित जीवन मे इस आनन्द का प्रभाव अत्यधिक खटकने वाली वस्तु है ।
आधुनिक शिक्षा
स्वावलम्बी और चरित्र परायण बनना ही शिक्षा का उद्देश्य है
एक समय था, शिक्षा का उद्देश्य प्रात्मा के सच्चे आभूषण सदाचार से अलकृत कर अपनी सन्तान को सच्चरित्र बनाना था । 'सच्चरित्रता' से तात्पर्य उस सकुचित सीमित क्षेत्र की परिधि से निकल कर 'विश्व बन्धुत्व' को भावना जागृत करना, उसका उचित हृदयाकन करना । जहाँ यह परमोत्तम भावना जगी, अकित हुई कि शेष सामयिक या अनुपगिक सद्व्यवहार अपने आप आ गये । परन्तु अव यह पवित्र उद्देश्य कथामात्र रह गया है, आज की शिक्षा केवल जीविकोपार्जन या स्वार्थ साधन मात्र के लिए रह गई है । अव सत्य का अनुभव होने लगा है। "भारत मे विश्व वन्धुत्व की भावना का हृदय में शिक्षा द्वारा प्रक्ति किया जाता था परन्तु भव तो जिनके बालक होते है उनके मा-बाप
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समाज को इस कटु
सिद्धान्त बालको के
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पहले ही गुरुजी से यह निवेदन कर देते है कि हमारे बालक को वह शिक्षा देना जिससे वह
आनन्द से रोटी खा सके। जिस देश मे बालको के पिता ऐसे विचार वाले हो वहाँ बालक विद्योपार्जन कर परोपकारी बनेगे, असम्भव है। आजकल शिक्षा का प्रयोजन केवल अर्थोपार्जन तथा कामसेवन मुख्य रह गया है। स्कूलो में धार्मिक शिक्षा का प्राय प्रभाव है। नागरिक बनने का कोई साधन नहीं। ऊपरी चमक-दमक मे ही सर्वस्व खो दिया।" वस्तुत शिक्षा का उद्देश्य जबतक धनार्जन-मात्र रहेगा, धार्मिक एव नैतिक विचारधारा को प्रमुख न बनाया जायगा तबतक हमारा बौद्धिक विकास नहीं, विनाश ही होगा। और यह विनाश भनाकाक्षित एव असामयिक होने से बहुत खटकने वाला होगा । सुदूर भविष्य मे, खटके या निकट भविष्य मै, खटकने वाला अवश्य हे। हमे चेतना होगा, और अपनी शिक्षा सस्थामो के पाठ्यक्रम को सर्वतोमुखी लाभदायक बनाना होगा जिसमे धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की प्रधानता होगी। इसके लिए अच्छा यह होता कि स्कूल और कालेज खोलने की अपेक्षा जहाँ कारोज तथा स्कूल है वहा जैन छात्रावास स्थापित किये जाए । छात्रो का खान-पान, दिनचर्या जैन सस्कृति के अनुसार बनाये रखने के लिए यह बहुत जरूरी हो गये है। जिन्होने प्रयाग विश्व-विद्यालय का जैन छात्रावास देखा है वे इस तथ्य को जानते है । बम्बई वाले सेठ श्री माणिकचन्दजी की भी यही योजना रहा करती थी पर उस समय न तो इतने स्कूल और कालेज थे और न किसी का ध्यान भी उस ओर अधिक गया। सबसे पहले तो आवश्यक है माता-पिता ध्यान दे । अपने बच्चो का खानपान शुद्ध रखे और जब पढने भेजे तब ऐसे ही विद्यालयो मे भेजे जिनके पास जैन सस्कृति को प्रोत्साहन दिये रहने वाले छात्रावास हो । आगे चलकर यही छात्र गृहस्थ होते है, पिता के पद पर पहुचते है और यह स्वाभाविक है कि जैसे सस्कार उनके होगे वैसे ही इनके बच्चो के भी होगे । प्रत यदि अच्छे सस्कारो की परम्परा चली तो वह अधिक करयाणकारी होगी, जैनधर्म की प्रचारक होगी।
पशु-हत्या बन्द करात्रो अन्यथा भारत देश तबाह हो जाएगा
भीषण पशु हत्या के कारण देश की समृद्धि नष्ट हो रही है । आज से ढाई हजार वर्ष पहले की बात है कि उस समय हमारे देश में पशुमो की घोर हत्या होती थी । धर्म के नाम पर जीवित पशुओ को हवन' कुन्डो की प्रज्वलित अग्नि मे डाल दिया जाता था। उस समय अज्ञानान्धकार, आडम्बर और प्रशान्ति का साम्राज्य था।
उस ही समय प्रात.स्मरणीय १००८ भगवान महावीर स्वामी का जन्म हुआ। १२ साल की कठिन तपस्या के बाद उन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होने अपने आत्मबल और और ज्ञान द्वारा अनुभव किया कि जब तक पशुओ की हत्या बन्द नही होगी तबतक ससार मे सुख और शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । उन्होने पशु-हत्या बन्द कराने का दृढ निश्चय किया । १६० ]
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जो लोग धर्म के नाम पर और जीभ के स्वाद के लिए जीवो की हत्या करते थे, उन्हे युक्तियो द्वारा तथा धर्म उपदेशो द्वारा समझाया था, उनकी अमृतवाणी का लोगो के हृदय पर गहरा प्रभाव पडा और उन्हे सही मार्ग दिखाई दिया और किसी भी प्रकार की हत्या न करने का प्रण लिया | भगवान महावीर स्वामी के पद उपदेशो से दुष्ट, दुराचारी और पापियों के हृदय के पट खुल गये । उन्हे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सब भगवान महावीर स्वामी की शरण मे प्राये और सब प्रकार के व्यसनो को त्यागने की प्रतिज्ञा की। चारो ओर सुख और शान्ति की लहर दौड गई । प्राणीमात्र ने सुख और शान्ति की सास ली ।
भारतवर्ष की दशा प्राज फिर वैसी ही है जैसी कि २५०० वर्ष पूर्व थी, आज देश मे अनुसन्धान के नाम पर विदेशो मे पशुओ की खाल, हड्डियाँ, तात यदि निर्यात व जीभ के स्वाद के लिए हजारो पशुओ की हत्या प्रतिदिन हो रही है। मॉस के कल्पित गुण बताकर उसके खाने और वूचडखाने खुलवाने का विचार सरकारी स्तर पर हो रहा है । इतिहास इस बात का साक्षी हैं कि इससे पहले भारतवर्ष मे किन्ही भी देशी या विदेशी शासको ने मास खाने और बूचड़खाने खुलवाने का प्रसार सरकारी स्तर पर नही किया । भारत सरकार के सामने मास उत्पादन की जो योजना इस समय है उसका ब्यौरा जो हमे प्राप्त हुआ है वह इस प्रकार है । कई करोड़ मन मास उत्पादन का प्रोग्राम है । प्राकडे प्रति हृदयविदारक है
समय
१६६१ से १६६६ तक
१९६६ से १९७१ तक
१९७२ से १९७६ तक
१६७६ से १६८१ तक
गोमास का उत्पादन | अन्य पशुओ के मास मनो मे
का उत्पादन
११८७५०००
३६३७५०००
६६५६२५००
७१२५००००
२१५३७५००
२५६७५०००
३२४६२५००
४४२७५०००
सर्व प्रकार के पशुओ के मास के उत्पादन का योग
३२४१२५००
६५०५००००
१०२०२५०००
११५५२५०००
मास बाज़ार रिपोर्ट १६५५ मे भारत सरकार ने बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, दिल्ली, कानपुर, हैदराबाद, लखनऊ, वगलौर, पटना, आगरा मे बूचडखाने खोलने की सिफारिश की है। देवनार (बम्बई) मे इसका श्रीगणेश होने वाला है । यदि देश की जनता ने इसके बन्द कराने का विरोध नही किया यो देश के सभी बड़े नगरो मे बूचडखाने खुल जायेंगे, असख्य पशुओ की प्रतिदिन हत्या हुआ करेगी और देश वरवाद हो जायगा । हमारे धर्मशास्त्रो मे लिखा है।
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यस्मिन् देशेभवेत् हिंसा, या पशूनाम नागसाम् ।
स
दुभिक्षादिभिनित्ये, अन्योपद्रव तथा ॥
"जिस देश मे निरापराध पशुओ की हत्या होती है, वह देश अकाल, महामारी और अन्य उपद्रवो से पीडित होकर नाश हो जाता है ।"
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भारत जैसे देश धर्मपरायण अहिंसाप्रिय देश मे जहा की जनता शाकाहारी हो और अहिसा को धार्मिक सिद्धान्त मानती हो, पशुहत्या और मास के व्यापारी को पाप समझती हो वहाँ मास खाने और बूचडखाने खुलवाने का सरकारी स्तर पर प्रयास करना उचित नहीं, इससे जनता के हृदयो पर गहरी ठेस पहुचती है ।
भारतवर्ष में इस समय जनता का राज्य कहा जाता है। भारतवासियो रामराज्य का स्वप्न देखनेवालो, अहिसा-प्रेमियो और दया धर्म के मानने वालो, जरा जागो और पशुहत्या को बन्द कराने के लिए जनमत तयार कराओ, घोर विरोध करो और देश को तबाही से बचानो।
१००८ भगवान महावीर स्वामी के अनुयायियो और अहिंसा धर्म के मानने वालो । पशुनो की घोर हत्या वन्द कराकर, देश को समृद्धिशाली सुख और शान्ति का धाम बनाइये और अहिंसा परमोधर्म का भाण्डा फहराइये ।
वध-योजना ६ घटे में ६०० भेड़-बकरियां ३०० गाय-बैल-भैस और १०० सुनरो का वध
विनाश के गर्त में
जिस देश मे कभी दूध की नदियाँ बहती थी प्राज उस देश के नन्हे-मुन्ने बच्चो के लिए पूरा दूध भी पर्याप्त नही । पशुधन जो कि भारतवर्ष की सबसे बडी सम्पत्ति मानी जाती थी उसके सर्वनाश के लिए भारतवर्ष में बडे-बडे बूचडखाने खोले जा रहे है और मास का प्रचार सरकारी स्तर पर हो रहा है ।
देश जब गुलाम था तो भारत की जनता ने सब प्रकार के कष्ट सहन किये और देश को स्वतन्त्र कराया । हजारो नवयुवको ने आजादी के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी और फासी के तस्तो पर लटक गए । सबके मन में यही उल्लास था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् रामराज्य स्थापित होगा । सबको पेटभर खाना और वदन ढाँपने को वस्त्र मिलने लगेगा। देश मे पशुधन की रक्षा होगी और दूध की नदियां बहेगी । परन्तु आज वह सब बातें स्वप्न हो गई है। खाद्य पदार्थों तथा वस्त्र के भाव दिन-प्रतिदिन तेज होते जा रहे है । भारत का पशुधन बहुत तेजी के साथ कम होता जा रहा है।
___ दुर्भाग्यवश स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश के कुछ राष्ट्रीय नेताओ के मस्तिष्क मे पश्चिमी सभ्यता ने घर कर लिया है वह हर कार्य को उसी दृष्टि से देखते है और विदेशो
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की नकल करके उनकी सलाह से देश को आगे ले जाने के लिए योजनाएं बनाते है और उनका सहयोग प्राप्त करते है । यह स्मरण रहे कि भारत देश धर्मपरायण ऋषि-मुनियो का देश रहा है । पश्चिमी सभ्यता, परम्पराये और वहा की योजनायें हमारे देश के अनुकूल नहीं । भारतवर्षं ने सत्य, अहिंसा और अध्यात्मिकवाद का पाठ ससार को पढाया है । सभ्यता मे सबसे ऊंचा सर्वश्रेष्ठ देश रहा है ।
इस समय एक और भ्राश्चर्यजनक बात हमारे राष्ट्रीय नेताओ के दिमाग मे घुम गई है। वह कहते है कि मास खाना बहुत लाभदायक है। भारत मे मनुष्यमात्र को प्रतिदिन इसका प्रयोग करना चाहिये । उसके लिए उनकी यह चेष्टा है कि भारत की जनता जो कि अधिकतर शाकाहारी है उनकी विचारधारा को प्रचार द्वारा बदल दिया जाय और उनकी रुचि मास खाने की ओर कराई जाय । इसी बात को ध्यान मे रखते हुए भारत सरकार द्वारा प्रकाशित सन् १९५६ की माँस रिपोर्ट में साफ तौर से मास खाने के लिए प्रचार करने और मास उत्पादन के लिए भारतवर्ष के बड़े वडे नगरो मे बड़े स्तर पर स्वयं चलित यन्त्रो से युक्त बूचडखाने खोलने की योजनाओ पर जोर दिया है । माँस उद्योग की बहुत प्रासा करते हुए उसे बढावा दिया है इसके अतिरिक्त भारत सरकार शिक्षा विभाग द्वारा मास के प्रयोग का प्रचार कर रही है ।
भारत सरकार, महाराष्ट्र सरकार और बम्बई कारपोरेशन चम्वूर के पास मुकाम देवनार (वम्बई ) मे एक बहुत वडा वूचडखाना शुरू कर रही है। इस वृचट खाने मे प्रतिदिन ६ घण्टे मे ६००० भेड़, बकरिया, ३०० गाय, बैल और भैसे और एक सौ सूअर काटे जाया करेंगे । सरकार इस वूचडखाने को उद्योगी ढग पर खोल रही है और उसका विचार पशुओ की हड्डियाँ - खून - जवान - खाल अतडिया और अन्य पशुओ का मास डब्बो में बन्द करके विदेशो मे निर्यात करने का है क्योकि विदेशो मे इसकी मांग बहुत अधिक है । वूचडखाने के काम करने का समय बढाया भी जा सकता है । यदि विदेशो मे पशुओ के मास और पशुओ के अन्य अगो की मान बढी उस समय पशुओ का वध और भी अधिक हुमा करेगा । कितने दुख की बात है। कि जनता का राज्य कहलाने वाली सरकार जनता की भावनाओ का ध्यान न करके उनके दिलो को ठेस पहुचाने के लिए गऊ तथा अन्य पशुओ का वध करेगी। इससे अधिक दुख पार्लियामेंट और विधान सभामो के उन सदस्यों पर है जो कि जनता के मतो से चुनकर वहा गये है और इस विषय मे मौन है ।
अग्रेजी राज्य मे सन् १९२१-२२ मे वरमा को गोमास भेजने के लिए रतौनानगर (पूर्वी मध्य प्रदेश) मे अग्रेजी सरकार ने एक वूचडखाना बनाने का निश्चय किया था। भारतवासियो ने इसका घोर विरोध किया तो अग्रेजी सरकार ने भारतवासियों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए वूचडखाने की योजनाओ को रद्द कर दिया । इसी प्रकार एक और समय को बात है, जबकि श्रग्रेजी सरकार ने सैनिको के लिए माँम उत्पादन के वास्ते लाहौर (पंजाब) के समीप तूचडखाना बनाने की योजना बनाई थी । वूचडखाना बनाने का काम भी शुरू गया
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था और उसका कुछ भाग भी बन चुका था । जनना के तीव्र विरोध पर अंग्रेजी सरकार को वह योजना परित्याग करनी पड़ी।
भारन मरकार को हमारी धार्मिक भावनाओ और परम्पराग्री का ध्यान रखकर कार्ड ऐमा कार्य नहीं करना चाहिए जिममे कि हमारे दिलो को चोट लगे । जनता की भावनाओं, मौलिक अधिकार और परम्परामो की रक्षा करना सरकार का प्रथम कर्तव्य है । इतिहास माक्षी है कि भारतवर्ष मे सभी देशी-विदेशी गामका ने भारतीय जनता की भावनायों की कमी उपेक्षा नहीं की और उनकी भावनामो का ध्यान रखते हुए गोमाम निर्यात करने का कभी माहम नहीं किया । यह ठीक है कि हम भारतीय है- भारतवर्ष हमारा है और हम देश की उन्नत देवना चाहने है परन्तु यह कदापि सहन न होगा कि भारतीय सस्कृति, परम्परा नप्ट हो रही हो और देश का पनन हो रहा हो और हम चुपचाप बैठे रहें । जनता की भावनाओं के विद्ध जो भी कार्य सरकार करती है वह अवैधानिक और अनियमिन है । भारतवामियो का कर्तव्य है कि देश का नाग होने से बचाए और जनमन मंग्रह करके मांस वाने के प्रचार और वृचड़खानी के बनाने की योजनाओं का विरोध करके बन्द करायें।
जैन एकता का मंच भारत जैन महामंडल को दृढ़ बनाइये
सम्पूर्ण जैन समाज एक अंडे के नीचे देश में राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति की लहर ने नव १६ गताब्दी के अन्त में वल पकड़ा तब उसका प्रभाव जैन-ममाज पर पड़ना स्वाभाविक था। उस काल में जन-मान ज्वेताम्बर-दिगम्बर, स्थानक वानी, तेरापथी और अनेक विभागो मे बंटने के उपरान्त छिन्न-भिन्न अवस्था में था। इन विभिन्न विभागों के आपसी मतभेद यद्यपि कुछ वार्मिक विधि-विधानों मात्र तक सीमित थे और अहिंमादि पचव्रत, पाराध्यदेव, तस्वनान आदि वातो मे समन्त विभागों में पूर्ण मतैक्य था, तथापि छोटे-छोटे मतभेदो पर बल देने और मनक्य की महत्वपूर्ण वाती पर ध्यान न देने के कारण जन-समाज दिन-प्रतिदिन भीण होकर आपस में बंटता जा रहा था।
राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति के उस युग मे जन-समाज की इस स्थिति की और कुछ व्यक्तियों का ध्यान आकृष्ट हुा । मसार के इतिहास मे वह एक क्रांति का युग था, जिसमें पिछड़ी हुई जातियाँ और समाजें अपनी उनीटी अांखों को खोलकर जागने की चेप्टा मै मंलग्न थीं। इस परिवर्तित परिस्थिति ने इन जैन वन्युमो को भागीरथ प्रयल कर जन-समाज की दिया परिवर्तित करने के लिए प्रेरित किया । जैन-ममाज को एकता के सूत्र में पिरोने के महान उद्देश्य और शामन १४ ]
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सम्वन्धी तथा अन्य कार्यो मे समस्त जैन समाज का प्रभावनाली प्रतिनिधित्व करने की दृष्टि ने किसी ऐसी सस्था की श्रावश्यकता अनुभव की गयी, जो इन कार्यों को सम्पन्न कर नये । फलस्वरूप आज से ६० वर्ष पूर्व भारत जैन महामण्डल की स्थापना की गयी ।
प्रारम्भिक कार्यकर्ताथो की अपूर्व लगन
कार्य की महानता और व्यापकता को दृष्टिगत रखते हुए यह स्पष्ट ही है कि यह को सरल काम नही था । इस कार्य मे अनेक रुकावटें थी । एक तो श्रग्रेज सरकार प्रत्येक वर्ग या क्षेत्र मे 'फूट डालो और राज्य करो" की नीति को श्रमल मे ला रही थी। दूसरे छोटे दायरे में जो प्रतिष्ठा और कोति प्राप्त हो सकती थी, वह विशाल और व्यापक क्षेत्र मे मिलने में कठिनाई थी । तीसरे, आपसी झगडो के चालु रहने मे कुछ लोगो का स्वार्थ था ।
इन समस्त विपरीत परिस्थितियो के होते हुए भी प्रारम्भिक कार्यकर्तायों ने बड़े उलाह निर्भीकता और लगन के साथ इस कार्य मे योग दिया । इन बाधाओं से वे निरान नही हुए और पूरी शक्ति से इस भागीरथ कार्य को पूरा करने मे जुट गये। इनमे में वैरिस्टर जे एन जैनी, बैरिस्टर चम्पतराय जी जैन, प्रो० के टी शाह, मानकचन्द जी वकील (खण्डचा), वा० शीतलप्रमाद जी, सूरजमल जी जैन (हरदा), वाडीलाल मोतीलाल माह मेठ प्रचलसह आदि के नाम स्वयं अक्षरों मे लिखे जाने के योग्य है । प्रारम्भ मे सभापति के पद पर श्रजितप्रमाद जी जैन (लगनऊ), नेठ माणकचन्द जे पी (बम्बई), गुलावचन्द जी ढहा प्रादि सज्जन रहे और मनिपद मल्हीपुर निनामी मास्टर चेतनदास जी ने सभाला ।
समस्त जैन समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली इम महान् सस्था के निर्माण में इनके बाद सबसे प्रमुख स्थान श्री चिरजीलाल वडजाते का है। अपनी मृत्यु के ममय श्री जे एल जैनी इस नन्ही सस्था को समाज की सेवा साधने के महान उद्देश्य को सम्मुख रन्वते हुए श्री चिरजीलाल जी को सांप गये । उस दिन के बाद श्राप माता के ममान इस सस्था का पालन करते या रहे हैं । आपकी नीति सदैव मितव्ययता से काम लेने और नाम के स्थान पर काम को महत्व देने की रही है। पदो की जिम्मेवारी अपने साथियो पर डाल कर ग्राप सदैव उनके पीछे रहने श्राये है। म चौज ने सस्था को अत्यधिक बल प्रदान कर अनेक नये कार्यकर्त्ता मन्या के लिये उत्पन्न कर दिये हैं ।
अभ्युदय का युग
१९४५ के बाद के काल को सस्था के श्रभ्युदय का युग रहा जाएगा। उस माल मे जैन समाज मे सस्था के लिए आकर्षण वटा 1 मेठ राजमल जी ललवाणी का सहयोग श्री निरंजीलाल जी इससे पूर्व ही प्राप्त कर चुके थे । १९४६ मे माह-परिवार का महयोग भी मन्या पो प्राप्त हो गया। इसके बाद जिन महान उद्योगपति, तपस्वियां श्रादि का सहयोग को मना उनमे से अमृतलाल, दलपतमाह, तपस्विनी शाताबाई, दानवीर मेट श्री मोहनदान से दुमट, वेठ लालचन्द जी हीराचन्द जी, बाबू तन्नमल जी जैन इत्यादि अनेक व्यक्ति सम्मिनित है।
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होने के कारण यह कार्य देर तक नही टाला जा सकता। आज नहीं तो कल हम इन सुझावो को स्वीकार करेंगे।
अपनी और अपने समाज की उन्नति के इच्छुक जैन-बन्धुओ से मेरा अनुरोध है कि वे समय की आवश्यकता को अनुभव करते हुए जैन एकता के प्रश्न मे अधिकाधिक दिलचस्पी ले और इस प्रकार भारत जैन महामण्डल के सदस्य वनकर उसके कार्यों का प्रसार करे।
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् के पिछले ३७ वर्ष
एक क्रान्तिकारी संस्था का उदय जैन समाज को जीर्ण-शीर्ण दशा और उसके सम्बन्ध मे जैन महासभा की शिथिल और स्थिति-पालक नीति को देखते हुए सन् १९२३ मे कुछ उत्साही सुधारको ने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिपद की स्थापना की । इस सस्था के मुख्य सस्थापको मे वैरिस्टर चम्पतराय जी, ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी, श्री अजितप्रसाद जी, श्री रतनलाल जी, साहू जुगमन्दरदास जी और श्री राजेन्द्रकुमार जी के नाम उल्लेखनीय है । इन व्यक्तियो ने जैन महासभा के झण्डे तले रहकर समाज-सुधार के कार्य को आगे बढाने का पूरा-पूरा प्रयल किया, किन्तु प्रतिक्रियावादी महासभा पर छा गये। उन्होने उक्त समाज-सुधारको पर "जाति-पात लोपक", "विधवा विवाह रचायक", "धर्म-भ्रप्ट" इत्यादि अनेक लाछन लगा कर उन्हे जैन महासभा से निकालना चाहा। साथ ही समाज में किसी प्रकार सुधार करने का भी इन प्रतिक्रियावादियो द्वारा का विरोध किया गया।
आज ३७ वर्ष बाद उस समय की स्थिति को समझना सरल नही । समय ने हमारे समाज के रूप मे क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये है । जिन बातो के विरोध में एक समय लाठिया इते निकाले गये थे और लोगो के गले मे रस्से डालकर उन्हे खीचा गया था, आज वही बातें रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी और अनुदार पक्ष तक को भी ऐसे रूप मे स्वीकार है, मानो किसी काल और स्थिति में उनका विरोध होना सभव ही नहीं हो । समय ने इन बातो को पाज सहज और स्वाभाविकता मे ला दिया है।
आइये, देखे किन बातो के कारण भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज के सस्थापको को "जाति-पात लोपक", "विधवा विवाह रचायक", "धर्म-भ्रष्ट" इत्यादि विशेपण दिये गये थे।
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धर्म-भ्रष्ट
प्रथम महायुद्ध के फलस्वरूप १९२३ के उस काल में भारत की जनता विदेशी के सम्पर्क मे मा चुकी थी। यह सम्पर्क युद्ध-काल मे फास और तुर्की इत्यादि रणक्षेत्रो मे स्थापित हुआ था । विदेशो की भौतिक उन्नति और शिक्षा का वहा जो प्रसार था, उसने भारतीय जनता को प्रभावित किया । इन बातो से आकर्षित होकर अधिकाधिक भारतीय शिक्षा प्राप्ति के लिए विदेशो मे जाने लगे । यह एक ऐसी सामयिक घटना थी, जिससे जैन समाज प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था । कुछ जैन भाई भी शिक्षा प्राप्ति के लिये विदेशो मे गये । वस ये यात्राएं ही समाज मे मीपण विवाद का विषय बन गयी । प्रतिक्रियावादी, रूढिवादी दल ने इस प्रकार की यात्रामो का विरोध किया। इसके विपरीत सुधारक दल ने विदेशो से प्राप्त की गयी शिक्षा के महत्व को समझते हुए इनका समर्थन किया।
आज ३७ वर्ष बाद यह वात विल्कुल स्पष्ट है कि सच्चाई किस पोर थी। आज रुढिवादी का घोर से घोर समर्थक ऐसा कोई समर्थ जैन परिवार नही, जिसकी सताने उद्योगो के प्रसार और और शिक्षा प्राप्ति के लिए विदेशो मे नही गयी हो। महासभा के समर्यको मे से बहुत से लोग स्वय अनेक वार विदेश-यात्रा पर जा चुके है। फिर भी १९२३ के उस काल मे महज विदेश-यात्रा का समर्थन करने के कारण सुधारक दल को "धर्म-भ्रष्ट" की सज्ञा दी गयी थी।
ऐसी ही एक अन्य वात मुद्रित अर्थात् छापेखाने द्वारा छपी हुई धार्मिक पुस्तको का प्रकाशन और वितरण की थी। रुढिवादी दल एकमात्र हस्तलिखित धार्मिक पुस्तको के पक्ष में था
और मुद्रित धार्मिक पुस्तको को वह धर्मविनाशकारी बतलाता था। इसके विपरीत सुधारक दल समय और परिस्थितियो के महत्व को समझते हुए अधिकाधिक जनता में धार्मिक पुस्तकों के प्रचार की दृष्टि से धार्मिक पुस्तको का मुद्रण और प्रकाशन आवश्यक मानता था। प्रतिक्रियावादी दल निजी गृहो तक मै मुद्रित धार्मिक पुस्तकें रखने के विरुद्ध था । ३७ वर्ष बाद भाज क्या स्थिति है ।
आज जैन मन्दिरो तक मे मुद्रित जैन-शास्त्र मिलते है। जैन-शास्त्री के मुद्रण के फलस्वरूप प्राज अनेको जन-परिवारो मे शास्त्र देखने को मिल रहे हैं । १९२३ से पूर्व केवल अत्यधिक सम्पन्न परिवारो और बड़े-बड़े मन्दिरो मे ही जैन-शास्त्र दृष्टिगोचर होते थे। जाति-पांत लोपक
१९३८ तक जैन दस्सायो एव विनेयकवारो को जिन मन्दिर मे पूजन के अधिकार प्राप्त नही थे। "सब मनुष्य समान है" भगवान महावीर स्वामी के इस उपदेश मे श्रद्धा रखने वाले जैन समाज तक मे अनेक पीढियो पुरानी किसी भूल के कारण वे भाई पूजन के अधिकार से वंचित थे । उन्हे दस्सा एव विनेयकवार इत्यादि नाम देकर नीच और अछूत जैसा समझा जाता था। परिपद के झण्डे तले सुधारवादी व्यक्तियो ने इस अन्याय का विरोध किया। सन् १९३८ के नवम्बर मास मे हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र मेले के अवसर पर श्री रतनलाल जी के सभापतित्व में परिपद सम्मेलन मे १६८ ]
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दिल्ली में होने वाले भा० दि० जैन परिषद अधिवेशन की एक झाँकी ( दायें से बायें )
उद्घाटनकर्ता - माननीय श्री श्री प्रकाश जी भूतपूर्व राज्यपाल, बम्बई अध्यक्ष -- साहू श्रेयासप्रसाद जी, बम्बई स्वागताध्यक्ष - श्री तनसुखराय जी जैन
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नाना की स्नेहमयी रश्मि रश्मि लालाजी को अत्यत प्यारी थो, उन्होने इसे अपने पास रखा । उनको इस पर अपरिमित स्नेह था। वह उनकी आशा की केन्द्र और स्नेह की विन्दु थी। खेद है उनकी छत्रच्छाया इस पर अधिक समय तक नही रह सकी। नाना के गौरव की प्रतीक प्रसन्नवदना रश्मि ।
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लालाजी बच्चो के बीच में अपना नैसर्गिक स्नेह
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दस्सा-पूजन अधिकार का प्रस्ताव पेश किया गया । प्रतिक्रियावादियो ने सैकड़ो की सख्या मे सम्मेलन स्थल मे पहुचकर तीन घन्टे तक लगातार हुल्लड मचाया और स्वयसेवको को मारा-पीटा । इस अवसर पर छुरे भी निकाले गये । किन्तु परिपद के नेताओ और स्वयसेवको के धैर्य और अहिंसामयी नीति की अत मे विजय हुई। उस सम्मेलन मे दस्सा-पूजन अधिकार जैन जनता ने स्वीकार कर लिया ।
जैन एकता को दृढ करने वाले इस महान कदम को "जाति-पात लोपक" का विशेषण दिया गया । किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रतिक्रियावादियो ने जो प्रभुत्व जैन समाज पर स्थापित कर लिया था, इस ऐतिहासिक कदम ने उसे नूर-चूर कर दिया । अनेक स्थानो मे दस्सा - पूजन करने लगे । इसने भी बडी बात यह हुई कि सुधार की भावना जैन-जगत मे घर कर गई इसी का यह परिणाम हुआ कि १९४१ मे झ सी में हुए परिपद के अधिवेशन मे मनोनीत सभापति सेठ वैजनाथ जी सरावगी ने अपना मत जब कुछ सुधारो के विरुद्ध प्रकट किया, तो जनता इस बात से भडक उठी । उसने तत्काल सुधारक श्री बालचन्द को सभापति चुनकर मच पर बिठा दिया ।
श्राज सभी व्यक्ति, रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी और अनुदार पक्ष नक, जैन दस्सानो और विनेयकवारो के पूजन अधिकार के समर्थक है । इस बात को समय के परिवर्तन और परिषद के सस्थापको के साहस और सूझबूझ का चमत्कार घोषित करने के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है ।
परिपद के कार्यकर्ताओ को उक्त विशेषण देने का एक अन्य कारण जैन समाज में होने वाले अन्तर्जातीय विवाह है । अब सभी जैन-बन्धु इस प्रकार के विवाहो मे कोई दोष नही समझते है और मैकडो अन्तर्जातीय विवाह हो रहे है, किन्तु ३७ वर्ष इस बात को जिह्वा पर लाना भी अनर्थं समझा जाता था । इस प्रकार के विवाह करने का साहस तो दूर ऐसी बात कहने वाले तक को "जाति-पाँत लोपक" की सज्ञा दी जाती थी। परिपद के कार्यकताओ ने इस प्रकार के दुष्तामो को अपने लिये स्वीकार करते हुए युगो मे समाज को जकड़ी हुई रूढियो और कुप्रथानो से उसे मुक्त कर दिया । पुरानी जजीर जर्जरित होकर एक-एक कर टूटने लगीं ।
परिपद के कार्यकर्ताओ के परिश्रम, प्रचार और साहस के फलस्वरूप जिन सामाजिक बुराइयो का अन्त हुना, उनमे मरण भोज की प्रथा प्रनुखतय है । महगाव काण्ड के सम्वन्ध मे अपूर्व, तीव्र एव प्रभावपूर्ण श्रान्दोलन चला कर मूर्तिया वरामद करायी और इस प्रकार जैन मंदिरो की रक्षा के सम्बन्ध मे भी इन लोगो ने जैन जनता को सावधान किया । इन घटनाओ से परिपव का लोपकात स्थान पर रक्षक रूप ही दृष्टिगोचर होता है ।
विधवा-विवाह रचायक
" किन्तु परिषद के कार्यकर्ताभो को सबसे अधिक दिलचस्प जो विशेषण दिया गया, वह विधवा विवाह रचायक है । परिपद के मच से विधवा विवाह का प्रचार कभी नही किया
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गया। इसकी वास्तविक कहानी से जो लोग परिचित है, वे इस विशेषण पर हँसे बिना नही रह सकते । वास्तविक घटना इस प्रकार है
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१६२७ मे सम्मेद शिखर पर बडा भारी जैन महोत्सव हुआ । लगभग १ लाख जैन जनता वहा उपस्थित थी। इस अवसर पर वही परिषद का अधिवेशन भी किया गया । परिषद के विरोधी प्रतिक्रियावादियो ने जनता और मुनिजन को भ्रम मे डालने और परिपद का विरोधी बनाने की दृष्टि से एक महान पड्यन्त्र रचा। उसकी श्रोर से जोरदार प्रचार किया गया कि परिपद विधवाविवाह की प्रचारक है ।
इस जोरदार प्रचार से जैन समाज मे बवण्डर खडा हो गया । परिषद के अनेक समर्थक
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वडा गये । परिपद मे दो विचारधाराए स्पष्ट दीखने लगी। एक पक्ष कहने लगा कि प्रतिक्रियावादियो के झूठे प्रारोप व प्रचार का प्रतिरोध करने की दृष्टि से विधवा-विवाह के विरुद्ध प्रस्ताव परिषद् पान करे । दूसरे पक्ष की सम्मति थी कि यदि इस प्रस्ताव को पास कर दिया गया तो सेतवाल, चतुर्थ, पंचम आदि जैन जातियो के लिए, जिसमे विधवा विवाह जारी है, परिषद का द्वार बद हो जायगा । परिपद उस दशा मे समस्त दिगम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि नही रह सकेगी ।
अन्त मे इसी पिछले पक्ष की बात स्वीकार हुई और सम्मेलन मे विधवा विवाह के विरुद्ध कोई प्रस्ताव पास नही किया गया । तथापि इस मिथ्या प्रचार से परिपद को कुछ काल के लिये भीषण धक्का पहुचा और कितने ही व्यक्ति उससे पृथक हो गये । आज भी परिषद की नीति इस प्रश्न के सम्बन्ध मे यही है । जिन जैन समाजो अथवा व्यक्तिगत परिवारो मे विधवा-विवाह प्रचलित है, परिपद उनका बहिष्कार करने के पक्ष मे नही । वह इस कदम को जैन एकता के प्रतिकूल समझती है ।
परिपद के पिछले ३७ वर्षो के कार्यो और उसकी सफलताओ का कच्चा चिट्ठा सक्षेप मे इस प्रकार यही है कि विरोधियो की गालियो और भाति भाति के नाम देने के बावजूद परिषद जैन समाज को एक सूत्र मे बाघने वाली मजबूत कडी सिद्ध हुई है । यह काम उसने अनेक सामयिक श्रान्दोलनो मे सहयोग देकर, कुप्रथाओ के विरुद्ध आवाज उठाकर, समस्त जैन-बन्धुप्रो के लिए समान अधिकारो की व्यवस्था कर और साहस और धीरज के साथ सत्य और श्रहिंसा की नीति पर डटे रहकर सम्पन्न किया है ।
सन् १९५० का दिल्ली मे रजत जयन्ती अधिवेशन एक ऐतिहासिक व महत्वपूर्ण था जिसमे कि हरिजन मन्दिर प्रवेश प्रस्ताव पास किया गया था। इस अधिवेशन के सभापति साहू श्रेयासप्रसाद जी थे । ज्योही यह प्रस्ताव मच पर प्राया प्रतिक्रियावादियो ने हुल्लड मचाकर मच पर धावा बोल दिया | परन्तु परिषद के कार्यकर्ता डटे रहे और अगले रोज खुले अधिवेशन मे शान के साथ यह प्रस्ताव पास हुआ और प्रतिक्रियावादियो को मुहकी खानी पडी ।
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नये सुधार कार्य
किन्तु सामाजिक कार्यों की कभी समाप्ति नहीं होती। यदि कार्यकर्तामो मे जागरूकता बनी रहे तो अनेक नये कार्य उपस्थित होते रहते है । काल और स्थान भी भनेक नये कार्यों की सृष्टि करता है । फलस्वरूप आज भी अनेक कार्य परिपद के सम्मुख है। पिछले ३७ वर्षों के समान यदि जैन जनता का परिपद को सहयोग प्राप्त होता रहा, तो इसमे सन्देह नही कि परिपद के कार्यकर्ता माज असंभव प्रतीत होने वाले अनेक कार्यों को अगले कुछ वर्षों मे उसी प्रकार सहज और सभव वना लेंगे, जिस प्रकार कि भूतकाल के अनेक कार्यों को सर्वथा स्वाभाविक बना देने मे उन्होने सफलता प्राप्त की है।
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देव-शास्त्र-गुरु
हमारे प्राराध्य मगलम् भगवान् वीरं मंगल गौतमी गणी।
मगलम् कुन्दकुन्दायो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ मगलमय भगवान महावीर स्वामी, उनकी वाणी-दिव्यध्वनि के विस्तारक गौतम गणघर, तथा वाणी को लिखित रूप देने वाले गुरु आचार्य कुन्दकुन्दादि तथा इन सबके द्वारा प्रचालित मगलमय जैनधर्म को साष्टाग नमस्कार करता हूँ जिसकी अमल विमल सुखद छाया मे हम भव-भव के सताप मेटते भा रहे है, जन्म-मरण के अनेको जन्माणित दुःखो का भार ढोते हुए भी इस मगलमय धर्म की शरण पाने से अपना सौभाग्य समझ रहे है। कठिन कार्यों के विपाक होने पर उनकी होली जला निर्वाण प्राप्त करने की आशा से निर्वाण के बाद भगवान को भी भूल जाने वाले हैं।
"तव पद मेरे हिय में मम तेरे पुनीत चरणो मे।
तबलो लीन रहे प्रभु | जबलो प्राप्ति न भुक्तिपद की हो ॥"
यह है वह परमपावन जैनधर्म-देव, शास्त्र, गुरु के द्वारा दिया गया एक अमोघ वरदान, जिसका आज हम दुरुपयोग कर रहे हैं ! 'पतित पावन' के 'भपावन' होने की प्राशका तथा मय दिखलाकर उसके मूल-देव, शास्त्र और गुरु को विकृत रूप दे रहे हैं। अब क्रमश एक-एक को ले लीजिए
देव
जिस वीतराग, परम दिगम्वर नाशादृष्टिधारी शान्तछवि के दर्शन से प्रात्मा मन्त्रमुग्ध हो जाता है, विश्व के विरोधी प्राणी वैरभाव छोड साथ-साथ विचरने लगते हैं, उस पवित्र देव को
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भाज हमने तमाशा बना रखा है । वीतराग कहे जाने वाले देव के चारो ओर सोने-चादी के ऐसे उपकरण परिग्रहो के ढेर लगा रखे है कि जगत के सरक्षण के भी सरक्षक की आवश्यकता पड जाती है । मन्दिर एक सेठ साहूकार की 'हवेली' सा दिखाई देता है। ऐसा सजाया जाता है कि मूर्ति की अपेक्षा वहा की सजावट मे ही मन व्यस्त हो जाता है। जैन समाज के पूज्य, भारत के
आध्यात्मिक सन्त पूज्य श्री वर्णीजी महाराज को भी इस त्रुटि का दर्शन हुआ, उन्होने कहा-"एक ऐसा मन्दिर नही देखा गया जो प्राणीमात्र को लाभ का कारण होता। मूर्ति निरावरण स्थान मे होनी चाहिए जिसका दर्शन प्रत्येक कर सके।' (वर्णी-वाणी पृष्ठ १५२) इसी व्यवस्था के प्रभाव का कारण है लोगो मे भगवान के प्रति हीनाधिक भाव की प्रतिष्ठा की जागृति
"चांदनपुर के महावीर | मेरी पीर हरो" भगवान के भक्त को भारत की राजधानी के महावीर पर भी या तो विश्वास नहीं है या है तो चादनपुर के महावीर से कम । क्या कारण है ? यही कि वहाँ जैसा ठाठ-बाट उसे वही नजर आता है प्रत वहाँ के महावीर को ज्यादा शक्तिशाली मानता है। अगर मन्दिर को आडम्बर रहित पाराधना का सादगीपूर्ण स्थान ही रहने दिया जाता तो यह सब बाते पैदा न होती।
शास्त्र
जब लोगो की दृष्टि बडी सकुचित थी, बुद्धि कूपमण्डूक थी, अत एक दिन था, जब कि छापाखाने के छपे शास्त्र पढना मना था। शास्त्र छापना पाप था । हस्तलिखित शास्त्र की ही पूजा होती थी। पर यह दकियानूसी ख्याल कब तक चलता ? कुछ विकसित बुद्धि के लोग सामने पाये और हजारो विरोधो के बाद भी जिन वाणी को प्रकाश मे लाये । उसी का फल श्री धवल सिद्धान्त जैसे पवित्र ग्रन्थ को दर्शनमात्र के लिए थे भाज घर-घर मे प्रवचन के लिए उपलब्ध है। 'गागर' का यह 'सागर' सबको सुलभ है । कुछ शास्त्र ऐसे भी हैं जिन पर समय-समय पर तत्कालीन अन्य विचारधारामो का प्रभाव पडता रहा है और इस प्रभाव के कारण उस एक ही प्रथ मे परस्पर विरोधी विचारधाराएं भी मिल जाती है । ऐसे विरोधी विचार इतिहास की दृष्टि से देखकर उनमे सामजस्य स्थापित किया जा सकता है । सत्य का निर्णय कर जो दूसरो के विचार हमारी संस्कृति मे, हमारे धर्म मे आ गये है उन्हे दूर किया जा सकता है। इस प्रवाह की ऐतिहासिक कारण सामगी से अनमिज्ञ, कुछ लोगो का एक प्रवाह चल पड़ा है। वह प्रवाह है नये शास्त्रकारो का जो अक्ल मे शून्य पर नकल मे बहुत तेज है । जो देखो वही अपनी बात को कहता है- और प्रमाणिकता के लिए दुहाई देता है
"अस्य ग्रन्थस्य कर्तार. सर्वज्ञ देवा तदुन्तर गन्थ कर्तार. श्री गणघर देवाः प्रतिगणधर देवा तेपा वचोऽनुसारमासाद्यामया शास्त्रमिदं प्रणीतम्"
"इस ग्रन्थ के मूल कर्ता सर्वज्ञ देव है, उनके पश्चात् गणधर देव, प्रतिगणधर देव है । बस उन्ही की वाणी का सार लेकर हमने इस शास्त्र की रचना की है।" थोडी देर को यह सही भी मान लिया जाय । पर माने तो कैसे ? शास्त्रो मे पाये जाने वाले परस्पर-विरोधी विचार क्या १७२]
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इस उक्ति के साधक है ? हमारे ग्राज के व्यक्तियो को यह श्राचार्य परम्परा चलाने के नाम पर शास्त्र रचना का रोग हो गया है। जनता भोली है जो सामने होता है वही उसको सर्वत्र प्रतीत होने लगता है, शास्त्र प्रकाशक और विक्रेता हजारो प्रतिया छापकर बेचकर अपना भण्डार भर लेते हैं । अपने को ठगते है, दूसरो को भी ठग लेते है । जैन समान के शास्त्र भण्डारो मे प्राचीन आचार्यो की विमल वाणी के अक्षय भण्डार भरे पड़े है, न उनके दर्शन होते है, न प्रकाशन होते है । नागौर श्रादि जैसे अनेको शास्त्र भण्डार दीमक का भोजन वन रहे है !
गुरु
देव, शास्त्र, गुरु का यह प्रकृत - विकृत रूप ग्राज चिन्ता का विषय बन गया है । परन्तु चिन्ता करने मात्र से तो काम नही होगा। काम करने से, उपाय निकालने से होगा । मेरा निवेदन यह है --
१ -- मन्दिरो को प्रजायबघर न बनाया जाय । नई-नई मूर्तियां न लगाई जावे और जहाँजहा मन्दिर हो वहीं नए-नए मन्दिरो का निर्माण न कराया जाए। प्राचीन जो मन्दिर हैं उनका जीर्णोद्धार कराया जाय, यत्र-तत्र जो प्रतिमाएँ पडी है उन्हें एक मुव्यस्थित जगह पर लाने का प्रयत्न किया जाए।
२ - शास्त्र प्रकाशन के पूर्व विद्वत्परिपद् मे भेजा जाए। सभी विद्वानों द्वारा निर्दोष कहे जाने पर ही प्रकाशित किया जाए। शास्त्रो मे जहाँ कही भी दूसरे धर्मो के प्रति कटाक्ष हों उन्हें दूर कर दिया जाए जिससे श्रोताश्री को शास्त्र श्रवण से सद्भावना ही प्राप्त हो । शास्त्री के श्राकारिक तथा शृगरिक वर्णनों को कम कर शास्त्रों के संक्षिप्त रूपान्तर प्रकाशित किये जावे जिससे लोग कम समय और कम पैसे मे जैनधर्म के मान को समझ सकेँ ।
३ - किसी प्रतिष्ठित विद्वान जैनाचार्य या उनके अभाव मे विद्वत्मण्डली तथा समाज के tarur लोगो के द्वारा विद्वत्ता तथा सदाचरण की परीक्षा करने पर ही कोई त्यागी, व्रती, प्रतिभाधारी तथा मुनि या प्राचार्य हो सके। कोई मुनि या क्षुल्लक गन्यमाता आदि के नाम पर न तो स्वय चन्दा करे न दूसरो से कराये। जो ऐसे काम में सहयोग दें उन्हें स्थानीय समाज दण्डित करे ।
ऐसे और भी अनेक सुझाव हो सकते है । पर इतना हो जाय तो भी पर्याप्त है ।
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राजस्थान नहर योजना और उसके प्रवर्तक
राजस्थान की प्यासी भूमि को शस्य श्यामला बनाने का एक मात्र साधन
अपने मित्र का महान् प्रशंसनीय कार्य भारत की इस पीढी के लोगो को एक स्वप्न तया एक मधुर कल्पना को साकार होते देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। राजस्थान के मरुस्थल प्रदेश में एक बडी नहर का निर्माण सभवत अव भी कुछ लोगो को एक मधुर कल्पना ही प्रतीत हो । सन् १९४८ मे जव उस समय की बीकानेर रियासत के एक मुख्य इन्जीनियर श्री कवरसन ने सबसे पहले यह विचार रखा तो वडे-बडे इन्जीनियरो और विशेषज्ञो को यह कोरी कल्पना ही लगी । लेकिन अब यह विचार कल्पना नही रहा। अब यह साकार रूप ले रहा है और केवल राजस्थान के लोगो के लिए ही नही बल्कि समस्त देश की जनता के लिए सुख-समृद्धि के द्वार खोल रहा है । राजस्थान नहर योजना में समस्त देश के साथ सकट को भी दूर करने की क्षमता है।
राजस्थान नहर योजना की प्रेरणा की कहानी वडी दिलचस्प है। देश के एक इलाके के लोगो को असीम कप्ट और दारुण दुख उठाते देख कर एक व्यक्ति के हृदय में उनके कप्ट दूर करने की भावना जाग उठी। उस व्यक्ति ने उनकी समस्या का समाधान निकाला और उसी समाधान ने समस्त देश की समृद्धि के द्वार खोल दिये।।
यह कहानी स्वय इस महान योजना के प्रवर्तक ने गब्दो मे व्यक्त की है -
"बहुत कम बारिश होने की वजह से इस इलाके के लोग फसलें नही उगा पाते, पानी जमीन के नीचे बहुत गहराई मे मिलता है और फिर भी यह पानी पीने तथा सिंचाई के लायक नही होता-पशुप्रो के लिए चारे की कमी और पीने के पानी की कमी- इन दैवी विपत्तियो के कारण इन लोगो के कप्ट और समस्त देश मे अन्न का अभाव-इन सब बातो से मुझे एक ऐसा रास्ता ढूंढ निकालने की प्रेरणा मिली जिससे यह सारा रेगिस्तान हरे-भरे खेतो से लहलहा उठे।"
लोगो की इन कठिन परिस्थितियो को देख कर श्री कवरसैन के मस्तिप्क में एक विचार पाया। इस विचार ने दृढ निश्चय का रूप ले लिया। वह दृढ निश्चय था देश के साधनो का जनता के कल्याण के लिए उपयोग और इस प्रकार देश की समृद्धि के लिए नया मार्ग प्रशस्त करना।
राजस्थान नहर योजना की कल्पना करने के दस वर्ष बाद आखिर एक दिन आया जब भारत के इतिहास मे एक नए परिच्छेद का आरम्भ हुमा । यह चिरस्मरणीय दिन तीस मार्च १९५८ था जब केन्द्रीय गृह मत्री श्री गोविन्दवल्लभ पन्त ने ससार की इस महानतम योजना की खुदाई के काम का समारम्भ किया।
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पहली दिसम्बर को श्री कवरसेन ने प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू के परामर्श
पर राजस्थान नहर योजना के प्रशासक का पद सभाल लिया । बाद में दिसम्बर १९५८ मे केन्द्रीय सिंचाई और विद्युत मंत्री के सभापतित्व मे एक उच्चस्तरीय निर्देश समिति स्थापित की गई । यह समिति सरकार की प्रमुख नीतिया निर्धारित करेगी । इसी समिति के अन्तर्गत राजस्थान नहर मण्डल की स्थापना हुई जिसके प्रधान श्री कवरसैन है । यह मण्डल राजरथान नहर योजना के समस्त कार्य को शीघ्रता तथा कुशलता के साथ पूरा कराएगा। इसके अतिरिक्त नहर योजना क्षेत्र के समस्त विकास कार्यों की जिम्मेदारी इसी मण्डल पर रहेगी । निर्देश समिति और मण्डल की स्थापना एक नई प्रणाली है जो इस महान् योजना के लिए भारत मे पहली बार अपनाई गई है।
राजस्थान नहर योजना
राजस्थान नहर ४२६ मील लम्बी होगी और इसका साढे अट्ठारह हजार घन फुट पानी सतलुज नदी पर बनाए गए हरिके बाघ से आएगा । अनुमान है जलाशय के वाघो के निर्माण व्यय को छोड़ इस योजना पर साढे ६६ करोड रुपए की लागत आएगी । श्रागा है योजना के पूर्ण हो जाने पर देश की अन्न की उपज मे वीस लाख टन वार्षिक की वृद्धि हो जाएगी, जिसका मूल्य कोई तीस करोड रुपया बैठता है ।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि राजस्थान नहर योजना ससार की एक बहुत वडी सिंचाई योजना होगी। अभी तक ससार मे कही भी इतनी बडी सिचाई योजना का कार्य हाथ मे नही लिया गया है । इस नहर मे से बहुत बडी सत्या मे रजवाहे और सिंचाई के लिए छोटी-छोटी नहरें निकलेगी। भारत और एशिया मे यह सबसे लम्बी नहर होगी ।
राजस्थान नहर योजना के लाभ
मुख्य नहर के निर्माण काल मे लगभग पचास हजार से अधिक लोगो को रोजगार मिलेगा । इसके अलावा नहर का निर्मारण हो जाने पर कृषि क्षेत्र में कोई पचास हजार परिवारो को काम मिल जाएगा | रेलवे, सडक निर्माण, समाज सेवा, व्यवसाय और उद्योग के क्षेत्र मे भी बहुत लोग काम पर लग जाएगे ।
जहाजरानी
इस समय राजस्थान के मरुस्थल प्रदेश मे सडके नाम को भी नही हैं, उचित सचार और परिवहन व्यवस्था स्थापित करने मे समय लगेगा, इसलिए नहर इतनी बडी बनाने का विचार है, जिसमे जहाज और वड़ी नौकाए चल सके। इससे नहर क्षेत्र मे वस्तिया वसाने और डाक-तार, रेल प्रादि के निर्माण के लिए लकडी काफी बडी मात्रा में हरिके वाघ से लाई जा सकेगी। उसके अलावा राजस्थान नहर की जहाजरानी, कृषि, श्रन्य पदार्थों तथा ऐसी ही अन्य चीजो को मण्डियो मे लाने का एक सस्ता साधन सिद्ध होगी ।
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पानी की सप्लाई
इस नहर से जैसलमेर और बीकानेर रियासत के नगरो को भी पानी दिया जा सकेगा । अधिक गहराई पर पानी पाया जाता है । रेगिस्तान को फैलने से रोकने में सहायक
उपरोक्त कुछ लाभो के अतिरिक्त इस क्षेत्र मे सिंचाई होने से उत्तर प्रदेश, पजाब और रेगिस्तान का विचार रुक जाएगा। टिड्डियो का राकट
इस क्षेत्र मे बस्तिया बस जाने और सेती होने से टिड्डियो का खतरा दूर हो जाएगा क्योकि टिििड्डया रेगिस्तान मे ही अधिक पनपती है। इस प्रकार टिड्डियो से अनाज की जो भारी हानि होती है वह बच जाएगी।
सभ्यता का विस्तार
शातिपूर्ण जीविकोपार्जन के साधन हो जाने से इस इलाके मे डाक्जनी से गुजारा करने वाले लोग भी सभ्य नागरिको की तरह स्थायी रूप से बस कर अपना जीवन वितायेगे।
अकाल का निवारण
रोती के स्थायी साधन हो जाने से अकाल का डर जो सदा बना रहता है, दूर हो जाएगा।
यह नहर राजस्थान के लिए वरदान सिद्ध होगी। जिसका मूर्तमान रूप आपके घनिष्ठ मित्र श्री कुवरसैन जी के मष्तिस्क मे आया।
वैश्य वर्ग साहस और उद्यम को अपने हृदय में स्थान दे "मेड इन इण्डिया" की साख को मजबूत करना हमारा नया नारा है
मनुष्य शरीर के साथ समाज की तुलना करते हुए हमारे प्राचीन शास्त्रकारो ने शरीर के भिन्न-भिन्न अगो मे से वैश्य वर्ग को उदर अर्थात् पंट की सज्ञा दी है। शरीर को जीवित और पुष्ट रखने के लिए उदर का कार्य भोजन को पचाकर मास, रक्त, मज्जा इत्यादि तैयार करने वाले विविध रस जुटाना है। पेट की यह क्रिया जितनी उत्तम होगी, शरीर का पोपण और उसकी १७६ ]
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रक्षा भी उतनी ही भली प्रकार हो सकेगी । यही स्थिति समाज के निर्माण मे वैश्य वर्ग की बतलाई गयी है ।
कृषिप्रधान प्राचीन अर्थ व्यवस्था मे वैश्य वग का महत्व यदि उक्त कथन से स्पष्ट है, तो वर्तमान युग की उद्योग-प्रधान अर्थ व्यवस्था मे इसमे और भी अधिक अभिवृद्धि हो जाने की बात सहज ही समझी जा सकती है । आज किसी भी समाज और देश की शक्ति, सम्पन्नता, सुरक्षा और गौरव उसके व्यापार-कार्य मे सलग्न व्यक्तियो अर्थात् वैश्य वर्ग की सफलताओ पर पूर्णतया निर्भर करते है ।
इस कथन के अभिप्राय को पूरी तरह समझने के लिए इस सम्बन्ध मे विस्तार से विचार आवश्यक है | तनिक सोचिए तो सही कि देश की जनता अपनी दैनिक विविव श्रावश्यकताओ अर्थात् भोजन, वस्त्र, वाहन और अन्य सामग्री की व्यवस्था के लिए किस वर्ग पर निर्भर है। स्पष्ट रूप से यह कार्य वैश्य वर्ग द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है । फिर विदेशी मुद्रा से देश के कोश को समृद्ध बनाने वाला और विदेशो को नाना प्रकार की प्रावश्यक वस्तुए प्रदान कर इस प्रकार देश के गौरव और शान को चार-चान्द लगाने वाला वर्ग कौन-सा है ? यह कार्य भी निर्यात व्यापार के लिए नाना प्रकार की वस्तुएँ तैयार कर वैश्य वर्ग सम्पन्न करता है । शान्तिकाल मे देश की इतनी महत्वपूर्ण सेवा करने के उपरान्त युद्धकाल मे देश की रक्षा का वास्तविक उत्तरदायित्व किस वर्ग पर है ? युद्ध के लिए शस्त्रास्त्रो, तोपो, टैंको, अरणु हथियारो, गोला-बारूद, विमानो, जलपोतो और वाहनो, विभिन्न परिधानो और अन्य सामग्री का निर्यात कौन करता है ? स्पष्ट रूप में यह कार्य भी वैश्य वर्ग द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। इस वर्ग द्वारा चलाए जाने वाले जो कलकारखाने शान्तिकाल मे विविध प्रकार की उपयोगी सामग्री तैयार करते है, वे ही युद्धकाल मे लडाई के उपयोग मे आने वाले विविध प्रकार के पदार्थों का निर्माण करते हैं ।
समाज की रीढ़ की हड्डी
ऐसी दशा मे समाज मे आज वैश्य वर्ग का वही स्थान है, जो शरीर मे रीढ की हड्डी का है। प्रत्येक समाज का सहारा अथवा प्राधार वैश्य वर्ग वन गया है। इसी नीव पर समाज का समूचा भवन खडा किया जाता है। अपने कार्य मे वैश्य वर्ग के निपुण और योग्य होने की दिशा मे समाज वडे-वडे भूचालो और तूफानो को सुगमता से फेल जाता है । दृढ प्राधार पर स्थापित इस प्रट्टालिका को कोई डगमगा नही सकता। इस प्रकार का समाज अथवा देग चिरकाल तक फलताफूलता रहता है । नीव पक्की होने के कारण ऐसे भवन का निरन्तर विस्तार सम्भव है। नयी मजिले वनती और वढती रहती है। पुरानी मजिलो को सुवार कर, उनका नित्य नया श्रृंगार करके, नयी-नयी समयोचित सुविधाओं का सदा विकास होता रहता है। इस प्रकार समाज चिरस्थायी रूप धारण कर लेता है ।
आज जो देश और समाजें उन्नत और स्थायी हैं, उनके इतिहास की मामूली-सो छानबीन करने से इस कथन की सत्यता का परिचय हम प्राप्त कर सकते है । इग्लंड लगभग दो नौ वर्ष
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तक सारे मसार पर राज्य करता रहा । वृटिंग साम्राज्य का उस काल मे इतना अधिक विस्तार था कि उसके बारे में यह बात कही जाती थी कि बृटिश साम्राज्य मे मूर्य कभी नहीं छिपता । सातो समुद्रो पर उसका गामन था । ब्रिटिश भक्ति के इस विस्तार का वास्तविक कारण उसका वणिक समाज अर्थात् वैश्य वर्ग ही था । माज ब्रिटेन की वह शक्ति नही रही, फिर भी "मेड इन इगलड" (डगलैंड में तैयार) इस शब्द का चमत्कार पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ है । मोटे से और सर्वथा पिछड़े जापान को ५० वर्ष मे भी कम समय में पूरव का उगता हुआ सूर्य विशेपण प्रदान करने वाला कौन था। निश्चित रूप में इसका श्रेय जापान के वैश्य वर्ग को प्राप्त है । अल्पसमय में अमाधारण उन्नति कर उन्होने जापान को इतना समर्थ बना दिया कि एक ओर तो वह जर्मनी, इगलंड आदि देशों की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को झेलने योग्य हो गया, दूसरी ओर स्स से टक्कर लेकर वह उसके दांत खट्टे कर सका । जापानी वैश्य वर्ग का यह चमत्कार था, जिसने उस पिछड़े हुए और पराजित देश की काया पलट दी । अाज ससार में सयुक्त राज्य अमरीका को प्रथम स्थान प्राप्त है । कौन नहीं जानता कि उसे यह पद दिलाने का श्रेय किसको है । अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए ब्रिटेन पर निर्भर रहने वाले इस पिछड़े हुए महाद्वीप को सौ वर्ष के कठोर परिश्रम के उपरान्त अमरीकी व्यापारिक वर्ग ने मसार में सबसे अग्रणी बना दिया है। आज मसार में सबसे अधिक उत्पादन इसी देश का है । अमरीकी व्यापारिक वर्ग इस स्थिति से संतुष्ट नहीं। अपने उत्सादन में और भी अधिक वृद्धि करने का उसका प्रयत्न चालू है।
हेमू और भामाशाह
वर्तमान युग के वन्य वर्ग की चमत्कारिक सफलताओं की कुछ झलकिया ये है। यदि हम अपने इतिहास की खोज करं, तो हमे अपने वन्य वर्ग की असाधारण देनो से पूर्ण अनेक कहानिया इतिहास के पन्नो मे छिपी हुई मिल जायेगी। भारतवर्ष को 'सोने की चिडिया' विशेषण किमने दिलाया था । नाना प्रकार की सामग्री ढो-ढोकर देश-विदेश की यात्रा करने वाले परिणक पुत्री के परिश्रम का ही यह परिणाम था। अपनी मेहनत से इन लोगो ने इतनी धन-सपदा अजित की कि इस देश का भडार लवालब भर गया। देश की यात्रा करने वाले विदेशियों की आँख इस धन को चमक से चौविया गयी और उन्होंने इस देश का यह नाम रख दिया।
अपने प्राचीन इतिहास की खोज करने पर हमे ऐसे अनेक युगो का परिचय मिल सकेगा जिनमे इस देश के व्यापारिक वर्ग ने दूर-दूर विदेशों में इस क्षेत्र का नाम उज्ज्वल किया। कई सहस्र वर्ष पूर्व भारतीय वस्त्रो की विक्री करने वाले व्यापारी मिन्न और उससे भी दूर के देशों में पहुँचे । भारतीय वस्त्र कला के नमूने प्रस्तुत कर उन्होंने भारत का नाम इन देशो मे चमकाया देश का कोप भरने के लिए ये लोग अपने साय विपुल सम्पदा भी लाए।
इसके बाद के युगों में भी विदेशों में वैश्य वर्ग का सम्बन्ध इसी प्रकार बना रहा । पूर्व मे बहुत दूर समुद्रो की वणिक पुत्री ने यात्राय की । इनके पूर्ण विवरण यद्यपि उपलब्ध नहीं और उनकी खोज का काम अप है, फिर भी जिन देशो में ये लोग गये वहा प्राप्त की गई सफलतामो के १७]
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स्मृति-चिह्न स्वरूप बहुत से खडहर और अन्य यादगारें विखरे हुए मिलते है । इनमे इन यात्रामो और वहा अजित यश और कीर्ति और साथ ही धन-सम्पदा उन सबका पता मिलता है।
मध्यकाल में देश के गौरव की चार-चाद लगाने वाले हेमू बनिए और भामागाह के नाम से कौन परिचित नहीं । उनकी स्मृति इतिहाम के पन्नो मे स्वर्णाक्षरो मे अकित है।
पतन का काल
किन्तु वैश्य वर्ग की यह स्थिति और गौरव सदैव इस रूप मे वने नहीं रहे। जब तक वैश्य समाज मे साहस और पराक्रम बना रहा, वह फलता-फूलता रहा और देश का दृढ आधार सिद्ध हुआ । किन्तु उसमे धीरे-धीरे शिथिलता आने लगी। इसका स्पष्ट चिह्न विदेश यात्रा पर लगने वाले प्रतिबध थे। फलस्वरूप वैश्य वर्ग की सम्पदा मर्जन करने की अपूर्व क्षमता समाप्त हो गयी । साहसपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने की उसकी वृत्ति पर रोक लग गई । यात्रामो के अभाव मे परिवहन व्यवस्था को अपने नियन्त्रण से रखकर उसमे निरन्तर सुधार करने की आवश्यकता नही रह गयी । फलस्वरूप इसके संगठित रूप का अन्त हो गया। विदेशी सम्पर्क के अभाव में ससार की व्यापारिक स्थिति मे होने वाले सामयिक परिवर्तनो का कोई ज्ञान वैश्य वर्ग को नही रहा । फलस्वरूप नये-नये समयानुकूल धन्धो और कला-कौशलो का प्रारभ नहीं किया जा सका। साथ ही पुरानो को नया रूप देना भी सभावित नहीं रहा । इस स्थिति के फलस्वरूप जिन कार्यों ने पहले काफी धन मिलता था, वे हानि अथवा कम लाभ के बन गये।
इन सब बातो का परिणाम यह हुआ कि वैश्य समाज ऐसे कार्यों मे सलग्न हो गया, जो अपेक्षाकृत कम जोखिम भरे थे। जमीदारी, साहूकारी और दलाली जैसे कुछ धन्धो तक ही उसने अपने आपको सीमित कर लिया । वृटिश शासनकाल मे यही स्थिति वैश्य समाज की थी। भारतीय समाज के लिए भी वैश्य वर्ग के पतन का यह काल गुलामी का काल सिद्ध हुआ। वैव्य वर्ग की गिरावट से सारे समाज के छिन्न-भिन्न हो जाने की बात उक्त उदाहरण से अधिक अन्य किसी बात से सप्ट नहीं होती। हमारी वर्तमान स्थिति
हमारी वर्तमान स्थिति और भी अधिक खराब है। देश के आजाद होने के बाद से ऊपर गिनाये रहे-सहे कार्य भी वैश्य समाज के हाथ से निकलते जा रहे हैं। कानून बनाकर जमीदारी की प्रथा समाप्त कर दी गई । ऋण देने की विविध प्रकार की राजकीय व्यवस्थाये अब तक की जा चुकी है । इनके फलस्वरूप साहूकारी का धन्वा भी लगभग समाप्त हो गया है । दलाली के बहुत से काम समाप्त हो चुके है । जो शेप है, उन पर भी नियन्त्रण लगा रहे है । इस प्रकार वैश्य समाज की स्थिति अब लगभग शोचनीय और दयनीय बन गयी है।
___ इसमे सन्देह नहीं कि हमारे समाज का यह चित्र काफी डरावना है। फिर भी इमे ऐसा नही स्वीकार किया जा सकता कि इससे हमारे साहस की समाप्ति होकर पूर्ण निराशा फैल
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जाए । वर्तमान स्थिति जो केवल हमे सजग और मावधान करती है। यदि वैश्य वर्ग ने अपनी गिथिलता का परित्याग नहीं किया तो निश्चय ही उसका विनाश और समाप्ति हो जाएगी। किन्तु इसके विपरीत यदि उसने अपनी चिर-निद्रा से जागकर साहस और उद्यम से भरा अपना पूर्व रूप धारण कर लिया, तो बहुत शीघ्र ही वह सारे ससार पर उसी तरह छा जाएगा जैसे कि ४ हजार या इससे भी अधिक समय पूर्व में लेकर प्राज से लगभग २ हजार वर्ष पूर्व तक वह मारी पृथ्वी पर छाया हुआ था । आवश्यकता केवल साहम और मूझ-बूझ से काम लेने की है।
यह कोई कोरी कल्पना नही । जिन थोडे मे भाइयो ने इन गुणो का परिचय दिया है, वे देश-विदेश में प्राणिक रूप मे अपनी कीति-ध्वजा फहराने में सफल हो चुके है। उनकी छोटीछोटी सफलताओ से हम भविष्य की महान झाकी का अनुमान आज भी लगा सकते है। अपने भविष्य का पूर्णरूपेण निर्माण हमारे अपने प्रयलो पर निर्भर.करता है । उत्तरदायित्व की महामता
हमारे प्रयलो की पूर्ण सफलता के लिए तीन बातों की जानकारी हमारे लिए आवश्यक है :-(१) वैश्य वर्ग का प्राचीन गौरव, (२) ममाज की रचना मे वैश्य वर्ग का महत्व और (३) वैश्य वर्ग के उत्तरदायित्व की महानता । प्रथम दो बातें जहा हमारे साहस और सूझ-बूझ को उकसाकर हमे आगे बढाने वाली है, वहा वैश्य वर्ग के उत्तरदायित्व की जानकारी हमे सही मार्ग पर अग्रसर होने में सहायक है। महत्व ज्यो-ज्यो वढता जाता है, उसके साथ ही व्यक्ति का उत्तरवायित्व भी अधिकाधिक होता चला जाता है। यदि इनका संतुलन बना रहे अर्थान् वढते हुए महत्व के साथ उत्तरदायित्व की भावना की वृद्धि न हो, तो कोई भी व्यक्ति वर्ग अथवा समाज उन्नति नही कर सकता।
आज जवकि वैश्य समाज नई दिशा की खोज मे सलग्न है, जवकि वह अग्रसर होने की वात सोच रहा है, उसमे उत्तरदायित्व की इस भावना का विकास भी आवश्यक है । व्यापार-कार्य सकट और जोखिम से पूर्ण कार्य है। वह अत्यधिक साहस और मूझ-बूझ की माग करता है। कोई भी व्यक्ति मरल मार्ग को अपनाकर इस धन्धे में लाभ नहीं कमा सकता । केवल तत्काल लाभ पर दृष्टि रखने से हमारा कार्य व्यापार मे नही चल सकता । सफल व्यापारी भविष्य और दूर भविष्य सभी पर नजर रखता है और उसका आचरण उसके अनुसार होता है । सभी दया मे वह देश-विदेश मे कीर्ति और सम्पदा का उपार्जन कर सकता है।
ऐशी दशा में हमारा वर्तमान नारा 'मेड इन इडिया' (भारत मे निर्मित) की साख को इस देश और विदेशो मे पुष्ट करना है। यदि हम इस कार्य मे सफल हो गए, तो शीघ्र ही ससार की मण्डियो मे हमारी तूती वजने लगेगी। इसके फलस्वरूप स्वय हमारा समाज और देश दोनो नव-स्फूर्ति प्राप्त कर अधिकाधिक दृढ होते चले जाएगे।
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नाइये महावोर जयंती पर राष्ट्र-निर्माण की प्रतिज्ञा करें
वात्सल्य और प्रभावना ग्रंग को फैलायें
यह सर्वविदित है कि जैन धर्म किसी एक व्यक्ति विशेष का नही अपितु उस हर व्यक्ति का है जो अपनी इन्द्रियो पर काबू पाकर सासारिक वासनाओ को जीत सके। उसे जिन (इन्द्रियो को जीतने वाला) या जैन कह सकते है ।
जैन धर्म एक सार्वभौमिक धर्म है और मनुष्य मात्र इसको अपना सकता है। यह आवश्यक नही कि वह किस जाति, सम्प्रदाय अथवा समाज से ताल्लुक रखता है, बल्कि जो उसके सिद्धातो मे विश्वास रखता है और उनका पूर्णरुपेण पालन करता है वह जैन है ।
आज यह किसी से छिपा नही है कि जैन धर्मानुयाइयो ने समय-समय पर अपनी वीरता व धर्म-परायणता के जो कार्य किए एव देश के निर्माण मे जो अद्वितीय भाग लिया उससे जैन समाज ही का नही वरन् भारत भर का मस्तिष्क ऊंचा हुआ है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक इसके प्रमाण मिलते है । इतिहास इसका साक्षी है ।
माना कि जैन धर्म एक हिंसक और सर्वपालक धर्म है किन्तु कायरता की भावनाओ वाला नही, वीरत्व की भावनाओ से पूर्ण उदार धर्म है । इसके प्रतिपालक और प्रवर्तक प्राय क्षत्री वीर ही हुए है जिन्होने सदैव जैन धर्म के मुख्य सिद्धातो को पाला । उनका दृढ विश्वास था कि किसी को सताना पाप है किन्तु किसी के द्वारा सताया जाना भी पाप है और इसी को कार्यान्वित भी किया। उन्होने सदियों तक भारत पर शासन किया किन्तु उनके शासनकाल मे किसी भी अन्य राष्ट्र और शासक की हिम्मत न हुई कि वह भारत पर आक्रमण कर सके । यही कारण है कि प्रान भी उनके शानदार कारनामे तथा नाम जिन्दा है ।
जीओ और जीने दो का सिद्धात मानव-जाति के लिए अमूल्य और एक नई रोशनी देने वाला है । यही कारण है कि हमारा देश ससार मे इस सिद्धात को पूरा करने मे अग्रणी रहा है । यही सिद्धात आज से बहुत समय पूर्व भगवान महावीर ने अपने सदेश में दिया और इस सिद्धात को प्रसारित करने के लिए विदेशो मे भी हमारे बडे-वडे पूर्वज गए ।
कडो वर्षों की दासता के वाद अपना देश स्वतन्त्र हुआ है । इस स्वातन्त्र्य प्रादोलन मे वही जैन समाज का श्रहिंसा सिद्धात एक शस्त्र था जिसे भारत के देशभक्त जैनो ने घर-घर पहुँचाने की भरसक कोशिश की । बापू और देश के अनेक उत्साही देश सेवको के सद्प्रयत्न से यह अहिंसा - अस्त्र कारगर हुआ । इसी अहिसा के प्रवर्तक और उद्घोपक प्रात स्मरणीय भगवान महावीर का जन्म दिवस इस वर्ष की २८ मई १९५३ को है । इस शुभ अवसर पर, जब कि हम
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स्वतन्त्र है, हमारा कर्तव्य क्या हो जाता है ? देखना अब यह है । केवल जलूस या जलसे मात्र से तो हमारे काम की इतिश्री नहीं हो जाती है अपितु एक जिम्मेदारी और भी वढ जाती है और वह है देश का नव-निर्माण। आइए, आज हम सव बैठकर इस पुनीत अवसर पर, जबकि भगवान महावीर स्वामी के जीवन-चरित्र से हमे एक नई रोशनी व प्रेरणा मिल रही है, प्रतिज्ञा करे कि हम देश का मान-स्तर ससार मे सर्वाधिक उचा करेंगे ताकि हिसा की वह ध्वजा ससार मे सर्वोन्नत होकर गर्व से लहराया करे।
भगवान महावीर और अहिसा
भगवान महावीर की अहिंसा का पाठ आज विश्व मे फैला हुआ है और इससे भी इकार नही किया जा सकता कि भारतीय स्वातत्र्य संग्राम मे इसी अहिंसा-शस्त्र की तीक्ष्ण धार के सम्मुख बृटिश साम्राज्य भी नही ठहर सका।
___ भगवान महावीर इसके प्रवर्तक थे । उनकी वाणी, मन और कर्म में अहिंसा की भावना व्याप्त थी जिसने ससार को एक कर्मशीलता और विश्ववन्धुत्व की प्रेरणा दी। निसन्देह जैन समाज उसी का अनुयायी है । हम चाहते हैं जैन समाज उनके पदचिह्नो पर चलकर मानवता की भावनानो और उनके सन्देशो का प्रतिपादन करे। अधिक विवाद मे न पड कर इतना ही कहना काफी होगा।
आज जैन समाज और अहिंसा के अनुयायी तीर्थकर भगवान महावीर का जन्म दिवस मना रहा है। यह वडी प्रसन्नता की बात है। उनके सन्देश की रोशनी मे देश की उन्नति हो, यह हमारी कामना है।
महावीर जयन्ती पर मरकारी सुट्टी न होने से कुछ विवाद-सा छिड गया है और जैन समाज ने इसके लिए भारत सरकार से माग की है। सरकार यदि सम्भव समझती है तो अवश्य ही इस ओर कदम उठाया जाना चाहिए ।
महावीर क्या थे
भगवान महावीर के विषय मे कुछ प्रमुख विद्वानो के कथन इस प्रकार है :
"भगवान महावीर अहिंसा के अवतार थे। उनकी पवित्रता ने ससार को जीत लिया था ।..... महावीर स्वामी का नाम यदि इस समय किसी भी सिद्धात के लिए पूजा जाता है तो वह अहिंसा है । • "प्रत्येक धर्म की उच्चता इसी बात मे है कि उम धर्म मे अहिंसा तत्व की प्रधानता हो । अहिंसा तत्व को यदि किसी ने अधिक से अधिक विकसित किया है तो वे महावीर स्वामी थे।"
-महात्मा गान्धी १८२]
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"वे महावीर अर्थात् महान विजयी इतिहास के सच्चे महापुरुष है । उद्धतता और हिंसा के नहीं किन्तु प्रेम और निराभिमानता के महावीर थे।"
--टी० एल० वास्वानी "प्राचीन भारत के निर्माता पुरुषो मे श्री महावीर स्वामी एक थे।"
-श्री विजयराघवानन "महावीर की शिक्षा ऐसी प्रतीत होती है मानो वे प्रात्मा की विजय ज्ञार्य हो । जिसने अन्तत इसी लोक मे स्वाधीनता और जीवन पा लिया हो। हजारो आदमी उनकी ओर टकटकी लगाये है । उनको वैसी पवित्रता और शाति की चाह है।"
-डा० अल्वेर्टो पाग्गी, जिनोवा (इटली) __ "ससार सागर में डूबते हुए मानवो ने अपने उद्धार के लिए पुकारा। इसका उत्तर महावीर ने जीव को उद्धार का मार्ग बतलाकर दिया। दुनिया मे ऐक्य और शाति चाहने वालो का ध्यान श्री महावीर का उदात्त शिक्षा की ओर आकर्षित हुए विना नही रह सकता।"
-डा. वाल्टर शूविंग "महावीर ने भारत में निर्वाण के इस सन्देश का घोप किया कि धर्म रिवाजमात्र नही बल्कि यथार्थता है। निर्वाण पद की प्राप्ति सम्प्रदाय के बाह्य सस्कारो के कर लेने से ही नही हो जाती बल्कि सच्चे धर्म का आश्रय लेने से ही होती है धर्म मनुष्यो के मध्य कोई भेदभाव नहीं उत्पन्न करता । कहने की आवश्यकता नहीं कि इस उपदेश ने जाति-भेद को दवा दिया और समस्त देश को जीत लिया।
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
जैन दर्शन बहुत ही ऊची पक्ति का है । इसके मुख्य तत्व विज्ञान शास्त्र के आधार पर रचे हुए है । ऐसा मेरा अनुमान ही नहीं, पूर्ण अनुभव है। ज्यो-ज्यो पदार्थ विज्ञान आगे बढ़ता जाता है, जैन धर्म के सिद्धातो को सिद्ध करता है और मे जैनियो को इस अनुकूलता का लाभ उठाने का अनुरोध करता हूँ।
अहिंसा सभ्यता का सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट दरजा है। यह निर्विवाद सिद्ध है और जबकि यह सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट दरजा जनधर्म का मूल है तो इसकी अोर सर्वाङ्ग सुन्दरता के साथ यह कितना पवित्र होगा, यह आप खुद ही समझ सकते है । जैनी लोग अहिंसा देवी के पूर्ण उपासक होते है और उनके आचार बहुत शुद्ध और प्रशसनीय होते है, उनके व्रत और सप्त व्यसन वगैरह बातो के जानने से मुझे बहत खुनी हुई और उनके चरित्र की तरफ मेरे दिल मे बहुत मादर उत्पन्न हुआ । जैन मुनियो के आचार देखने से मुझे वे प्रति कठिन जान पडते है लेकिन वे ऐसे तो पवित्र है कि हर एक के अन्त करण मे बहुत भक्तिभाव और आदर उत्पन्न करते है । ऐसे चरित्र से सर्व साधारण पर प्रभाव पड़ता है।
-डा० एल० पी० टेसोटोरो इटालियन
-धर्म देशणा से
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जैन समाज के संगठन कां रूप कैसा हो
एक मंच और प्रचार की आवश्यकता
सन् १८५७ के गदर के बाद कुछ वर्षों तक भारतवर्ष के हालत बहुत बिगड़े रहे। सारे देश मे प्रातक छाया रहा और जनता भयभीत रही, जिसके कारण सब कामो मे शिथिलता आ गई । धीरे-धीरे विदेशी शासको के पाव पूरी तरह भारतवर्ष मे जम गए तव जनता को भी कुछ चैन मिला | विदेशी शासको को भारतवर्ष में राज्य के कार्यों को चलाने के लिए क्लकों की जरूरत पडी । उन्होंने अपने डग की शिक्षा मिखाने के लिए स्कूल और कालेज खोले । विदेशियो की शिक्षा आचार-विचार, रहन-सहन और खान-पान मे और भारत की शिक्षा, सभ्यता, आचार-विचार, रहनसहन, और खान-पान मे बहुत अन्तर था ।
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कुछ ही दिनों वाद जनता ने अनुमान किया कि हमारे बच्चों में नैतिकता और वामिक सस्कारो की कमी होती जा रही है, जिसके बिना मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं। यदि इस ओर ध्यान न दिया तो हमारा पतन हो जाएगा। तमाम देश में एक ऐसी लहर दौडी कि भारतवर्ष की सव जातियो, समाजां और वर्गों ने नैतिक और धार्मिक संस्कार बच्चो मे पैदा करने के लिए अपना-अपना सगठन बनाकर उनमे नैतिकता और धर्म-शिक्षा का प्रचार करने के लिए विचार किया ।
जैन समाज में भी जागृति की लहर दौड़ी । सन् १८७५-७६ के लगभग जैन समाज के कुछ विवेकशील उत्साही और वर्म-प्रेमी नवयुवक विद्वानों का एक दल मैदान में आया जिनके हृदयो मे समान - सगठन और धर्म प्रचार की उत्कट भावना और तडप थी। उन्होंने समाज संगठन और धर्म-प्रचार का दृढ निश्चय कया जिनमे प० गोपालदास जी वर्रया - प० चुनीलालजी -- पं० मुकंदीराम जी मुरादाबाद, प० छेद्रालाल जी अलीगड - पं० प्यारेलाल जी अलीगढ़ और प० धन्ना लाल जी कासलीवाल के नाम विशेषकर उल्लेखनीय है । यह सब विद्वान अपनी-अपनी दिशाधो अपने-अपने ढंग से समाज सगठन और धर्म प्रचार का काम करने लगे । प० छेदालाल जी और प० प्यारेलालजी ने पाठशाला की स्थापना की और बहुत से विद्वान तैयार किए। अन्य विद्वान देश के चारो कोनो मे निकल पड़े, स्थान-स्थान पर घूमकर लोगों को इकट्ठा करना, सभायें बुलाना, भापरण व उपदेश देना और स्थानीय सभायं कायम करना मुख्य कार्य था। सैकडों स्थानो में सभायें बन गई । सभायं बनने के बाद लोगो के दिलो में भावना पैदा होना स्वाभाविक था कि समाज को संगठित किया जाय जिससे कि तमाम भारतवर्ष के दिगम्बर जैन समाज को एक सूत्र मे पिरीया जा सके और उसके द्वारा वर्म और समाज की उन्नति के उपाय तोचे जायें और ठोस कार्य किया । इन महानुभावी ने बडे उत्पाह और लगन के साथ काम किया जाय । बीच में बहुतसी अडचने आई पर हिम्मत नहीं हारी और अपना ध्येय पूरा करने मे जुटे रहे।
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पूरे बीस साल के अथक परिश्रम के बाद इनका मनोरथ सफल हुआ। श्री जम्वू स्वामी की निर्वाण भूमि चौरासी (मथुरा) मे कार्तिक के मेले के अवसर पर सगठन कार्य को मूर्त रूप देने के लिए उपयुक्त समय समझा गया और सन् १८६५ मेले के मौके पर दिगम्बर जैन सभा की नीव डाली गई।
इसका पहला अधिवेशन १८६६ मे माननीय राजा सेठ लक्षमणदास जी के सभापतित्व मे मथुरा मे बहुत शान के साथ हुआ । अधिवेशन मे जैन गजट को भी निकालने का निश्चय किया गया जिसका सम्पादक वावू सूरजभान जी वकील सहारनपुर को नियुक्त किया गया । महासभा के अधिवेशन का आयोजन भारत के विभिन्न स्थानो मे किया गया । हर स्थान मे महासभा के अधिवेशनो को अभूतपूर्व सफलता मिली। दि० जैन महासभा का कार्य बहुत व्यापक होता जा रहा था जिसका श्रेय राजा सेठ लक्षमणदास जी मथुरा, डिप्टी चम्पतराय जी कानपुर, सर सेठ हुकमचन्दजी इन्दौर, वावू निर्मलकुमारजी पारा, वैरिस्टर चम्पतरायजी, दानवीर साह सलेखचन्दजी नजीवावाद, तीर्थभक्त लाला देवीसहायजी फिरोजपुर, सेठ टीकमचन्दजी सोनी (अजमेर) और ला० जम्बूप्रसादजी रईस सहारनपुर को है।
सन् १९२०-२२ तक तो म० भ० दि० ज० महासभा का कार्य बहुत ठीक चलता रहा, सव कार्यकर्ता लगन और प्रेमपूर्वक उत्साह के साथ महासभा का कार्य करते रहे; बाद में प्रतिक्रियावादी (रूढिवादी) और सुधारक विचारधारा रखने वाले सुधारको का मुद्रित जिन शास्त्रो के प्रचार, नवयुवको को शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशो मे शिक्षा के लिए जाने देना, दस्सा विनफवारो का जिन मन्दिरो मे पूजा का समान अधिकार देने और समाज मे जैनो की विभिन्न जातियो मे अन्तर्जातीय विवाह करने के विपयो को लेकर सुधारक और रूढिवादियों के दो दल हो गए जिसके फलस्वरूप १९२३ मे दिल्ली की विम्ब प्रतिष्ठा के समय कुछ उत्साही सुधारक कार्यकर्तामो ने भारतवर्षीय दि० ज० परिपद की स्थापना कर दी, जिसके मुख्य सस्थापको मे बैरिस्टर चपतरायजी, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी, बाबू अजीतप्रसाद जी लखनऊ, बाबू रतनलाल जी बिजनौर और साहू जुगमन्दरदास जी नजीबाबाद के नाम उल्लेखनीय है ।
प्र० भा० दि० ज० परिषद के उत्साही कार्यकर्तामो ने बहुत सकटो का सामना करके बडे-बड़े कार्य धर्म और समाज की उन्नति के लिए किए। प्राज मुद्रित जैन शास्त्र प्रायः सभी मन्दिरो मे दिखाई पड़ते है। विदेश यात्रा पर किसी को कोई आपत्ति नही, दस्सा और विनेकवार भाइयो के लिए जैन मन्दिरो मे पूजा करने की कोई रोक-टोक नहीं है । जैनो के आपस मे अन्तर्जातीय विवाहो की कोई रुकावट नही ।
मेरा यह सुझाव है कि तमाम भारतवर्ष के दि. जैन समाज का एक प्लेटफार्म हो, आवाज और प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सयुक्त दि० जैन समिति बनाई जानी चाहिए जो कि तमाम समाज का नेतृत्व करे । इस समिति मे सभी अ०भा० दि० जैन सस्थाओ के दो-दो चारपार प्रतिनिधि उन संस्थानो की कार्यकारिणी द्वारा चुन कर भेजे हुओं को सयुक्त समिति का सदस्य बनाया जाए।
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देश की रक्षा और एकता के लिए जबकि भारतवर्ष के सभी सम्प्रदाय, जातियां और राजनैतिक दल एक प्लेटफार्म पर एकत्रित हो सकते है तो कोई कारण नही कि एक धर्म के मानने वाले दि० जैन भाई अपने धर्म और समाज की उन्नति और रक्षा के लिए क्यो नही एक प्लेटफार्म पर एकत्रित हो सकते ?
मुझे आशा है कि दि० जैन समाज के अग्रगण्य महानुभाव यदि इस ओर ध्यान देंगे तो अवश्य सफलता मिलेगी । श्रावकशिरोमणि साहू शातिप्रसादजी जैन - सर सेठ भागचन्दजी सोनी — जैनरत्न भैया साहब राजकुमार सिंह जी जो पहले से ही प्रयत्न कर रहे है उनसे मेरा नम्र निवेदन है कि वह अपने प्रयत्नो को चालू रखे । और एकता की योजना में उलट-फेर करके कोई न कोई नया रास्ता जरूर निकाले । इस समय समाज की परिस्थिति बड़ी गम्भीर तथा शोचनीय है, आप सब इसका सरक्षण करे ।
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邂
भगवान् महावीर
और उनके संदेश
ईसा पूर्व पाचवी - छठी शताब्दी में विदेह देश की राजधानी वैशाली ( वसाढ के निकट ) गडक नदी के तट पर क्षत्रिय कुण्डग्राम धौर ब्राह्मण कुण्डग्राम दो सुन्दर नगर स्थित थे । इन्ही दो नगरो मे से प्रथम नगर क्षत्रिय कुण्डग्राम मे ईसा से ५६६ वर्ष पूर्व, यहा के गणराजा सिद्धार्थ के घर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर का जन्म हुआ था ।
वैशाली का गणराज्य बहुत शक्तिशाली था । यहा गणसत्तात्मक राज्य की व्यवस्था प्रत्येक गण के चुने हुए नायको के सुपुर्द थी। यह 'गरण राज्य' कहे जाते थे । राजा तो नाम मात्र का होता था और वह राज्य का शासन सदैव गणनायको की सम्मति से ही करता था। उस समय चेटक वैशाली का बलशाली शासक था । वह ९ गण राज्यो का अधिनायक था । इन्ही चेटक की बहिन त्रिशला का विवाह कुण्डग्राम के गणराजा सिद्धार्थ से हुआ था ।
जन्म-समारोह
अपने घर पुत्र जन्म का समाचार पाकर सिद्धार्थ की खुशी का ठिकाना न रहा । पुत्रोत्पत्ति के हर्पं मे क्षत्रिय कुण्डग्राम मे दस दिन तक अपूर्व समारोह मनाया गया । कर माफ कर दिया गया, श्रमण सतो को दान मान से सम्मानित किया गया, श्रानन्द और उत्साह की सीमा न
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रही । सिद्धार्थ ने सबके समक्ष कहा, "भाइयो ! इस बालक के जन्म से हमारे कुल में वन-वान्य, सेना, घोड़े प्रादि की वृद्धि हुई है अतएव वालक का नाम 'वर्द्धमान' रखना ठीक होगा ।"
वर्द्धमान बचपन ही से बड़े वीर, वीर, गम्भीर और निर्भीक प्रकृति के थे । उनके बचपन की एक रोचक घटना है--एक वार वर्द्धमान अपने साथियों के साथ उद्यान मे कीड़ा कर रहे थे । इतने ही मे उनके साथियों ने देखा कि वृक्ष की जड़ में लिपटा हुआ एक सर्प फुंकर मार रहा है | यह देख वद्धमान के साथी धवड़ा गये । सबको अपने प्राणों की पड़ | परन्तु वीर बद्ध मान न डरे । वह अचल भाव से खड़े रहे और खेल ही खेल में उस सांप को अपने हाथ में पकड़ लिया। इसी प्रकार एक बार वर्द्धमान राजमहल मे बैठे हुए थे। नगर में अचानक कोलाहल मचने की आवाज कानों में पडी। पूछने पर विदित हुआ कि राजा का हाथी मतवाला होकर वन्धनमुक्त हो गया है और लोगों को दुख दे रहा है । इतना सुनते ही बद्ध मान तुरन्त घटनास्थल पर जा पहुँचे और हाथी पकड़ कर महावत के हवाले कर दिया। समय अपनी दृढ़ता और निर्भयता प्रदर्शित करने के कारण बद्ध मान 'महावीर' कहे जाने लगे ।
इसी प्रकार के अन्य संकटो के
हृदय द्रवित हो गया
वेद काल से चली आनेवाली विचारधाराओं का मन्थन महावीर ने गम्भीरतापूर्वक किया था । उनके जीवन पर इन विचारवाराओं का गहरा प्रभाव पड़ा था। मानव उत सम्य मायावी, वासनासक्त और वक्र हो गया था। हिंसा और वासना से अन्धा बना हुआ था। धर्म के नाम पर यज्ञ आदि मे मूक पशुओं की बलि दी जाती थी ।
भगवान महावीर ने देखा कि चारों ओर अज्ञान फैला है । निज स्वार्थ से लोग दूसरे जीवो की हिंसा कर रहे हैं । सब जगह दुख ही दुख फैला हुआ है । यह देख कर महावीर का कोमल हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने जग का कल्याण करने, उसमे सुख, शांति और समता भाव पैदा करने तथा सर्वप्रथम आत्मबल प्राप्त करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की ।
महावीर ने वस्त्रादि, आभूषणो, स्वादिष्ट भोजन, मित्र, बन्बु, धन आदि को सदा के लिये तिलाजलि देकर गृह त्याग दिया और ज्ञातृपंड उद्यान में जाकर पंचपुष्टि से क्यों गलौच कर ३० वर्ष की आयु मे नग्न दिगम्बर मुनि हो गये । लगभग १२ वर्ष तक उन्होंने घोर चर्या की। इस काल मे उन्हें भयंकर से भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा परन्तु, एक वीर योद्धा की भाति वे अपने कर्त्तव्य पथ से कभी विचलित न हुए ।
तपस्वी जीवन मे महावीर ने दूर-दूर तक भ्रमण किया और अनेक क्प्ट सहे । विहार मे राजगृह ( राजगिरि), चम्पा (भागलपुर), नहिया (मुंगेर), वैशाली ( वसाद) मिथिला (जनकपुर) आदि प्रदेशो मे घूमे । पूर्वी उत्तरप्रदेश के बनारस कौशाम्बी (कोमस) अगेव्या श्रावस्ती आदि स्थानों में गये तथा पश्चिमी बंगाल के लाढ (राव) आदि प्रदेशों में उन्होंने भ्रमण किया ।
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इस प्रकार १२ वर्ष की घोर साधना के बाद महावीर को जभियग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के तट पर स्थित एक पेत मे गाल वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न अवस्था मे बोव प्राप्त हुमा । महातपस्वी की कठोर तपस्या सफल हुई।
अहिंसा का उपदेश तदुपरान्त महावीर ने जनता मे मत्य, अहिमा प्राणीमात्र के प्रति प्रेम तथा अपरिग्रह का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। सर्वत्र महावीर के लोकोत्तर उपदेशो की चर्चा होने लगी। लोग दूर-दूर मे उनका उपदेश मुनने पाते। बहुतो ने उनके धर्म में दीक्षा ली। इनमे मगध, कोगल, विदेह आदि देशो के ११ कुलीन ब्राह्मण मुख्य थे। महावीर का प्रथम उपदेय था अहिंसा । उन्होंने कहा-"सब जीना चाहते हैं, सबको अपना जीवन प्रिय है, सब नुस्खी बनना चाहते हैं, अतएव किसी प्राणी को कप्ट पहुँचाना ठीक नहीं।"
___महावीर अहिंसा-पालन में बहुत आगे बढ़ जाते हैं और वे समस्त प्रकृति मे जीव का पारोपण कर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक की रक्षा का उपदेश देने हैं। इस प्रकार उनकी अहिंसक वृत्ति और विश्व-कल्याण की भावना चरम मीमा पर पहुंच जाती है महावीर ने जिस सर्वमुखी अहिंसा का उपदेश दिया था वह अहिमा केवल व्यक्तिपरक न थी वल्कि जगत के कल्याण के लिये उसका सामूहिक रूप से उपयोग हो सकता था।
भगवार महावीर का कहना था कि जो अधिकार पुस्प प्राप्त कर सकते हैं वही अधिकार स्त्रियों के लिये भी है । पुरुषो की भाति स्त्रिया श्राविका हो सकती हैं तथा श्रावको की भाति व्रत पाल सकती हैं । यदि पुरुष मुनि हो सकता है तो स्त्रिया भी प्रायिका हो सकती है यदि पुरुप तद्भव मोक्ष प्राप्त कर मकता है तो स्त्रिया भी परम्परागत मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। भगवान महावीर के समवगरण (सभा) मे जहा एक लाम्ब थावक थे वहा तीन लाख १८ हजार भाविकायें थी। उनके भिक्षुणी सघ में चन्दनवाला, राजमती तथा रानी चेलना के नाम उल्लेखनीय हैं । चन्दनवाला महावीर की प्रथम स्त्री गिप्या तथा सघ की अधिष्ठात्री थी। अपने संघ मे स्त्रियो को प्रमुख स्थान देकर महावीर ने स्त्री जाति के महत्व को स्वीकार किया था।
महावीर का धर्म महावीर का सौग-सादा उपदेश था कि प्रात्मदमन करो, अपने आपको पहिचानो और स्व-पर-कल्याण के लिये तप और त्यागमय जीवन बितायो। किसी जीव को न सतायो, झूठ न वोलो, जो एक बार कह दो उसे पूरा करो। आवश्यकता से अधिक वस्तु पर अपना अधिकार मत रखो, पर स्त्री को मा, वहिन और पुत्री के समान समझो तथा सम्पत्ति का यथायोग्य वटवारा होने के लिये धन को वटोर कर मत रखो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने आत्म-विकास, आत्म-अनुशासन और प्रात्मविजय पर ही जोर दिया है।
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जैन समाज के सामने एक समस्या
संगठन की आवश्यकता
इतिहास बताता है कि जैन समाज का भूतकाल अति उज्ज्वल और शानदार रहा है । "अहिंसा प्रेमी, सेवाभावी, दयालु और परोपकारी होने के कारण छोटे-से-छोटे गांव मे और बडे से वडे शहर में जैन धर्म के अनुयायी बहुत लोकप्रिय रहे है। जन साधारण को दिल्ली मे सदा जैन समाज और जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा और प्रेम रहा है ।
त्यागियो और मुनियो के लिए बहुत सन्मान रहा है। जिस भी स्थान में वे पधारते थे वहां की जनता उनका भव्य स्वागत करती थी, उनके प्रवचनो मे भाकर रस लेती थी । बडी रुचि से सुनती थी। शासको को दिल्ली मे भी जैन समाज धौर जैन धर्म के प्रति बहुत श्रद्धा थी ।
सच्चाई, ईमानदारी और लोकप्रिय होने के कारण जैन भाइयो को सरकारी दरवार मे अच्छे और ऊचे पदो पर नियुक्त किया जाता था । गाही खजानो का कार्य भार तो प्राय. कर जनो के हाथो मे रहा है। राजस्थान मे चिरकाल तक मन्त्री पदो और विश्वस्त स्थानो पर जैन भाई श्रारूढ रहे हैं । जैनी बडे-बडे सेनापति हुए हैं, दानवीर हुए हैं। घनकुवेर सेठ भामाशाह जिसने कि महाराणा प्रताप का आडे समय मे साथ दिया था और अपने घन के कोठे उनकी मदद के लिए खोल दिए थे जिससे महाराणा प्रताप ने मुगलो से बारह साल तक युद्ध लड़ा। दानवीर महाप्रतापी भामाशाह जैन ही तो थे । राजस्थान की चप्पा-चप्पा जमीन पर जैन वीरो की बहादुरी, दानवीरता, देशसेवा, स्वामिभक्ति और धर्मपरायणता की छाप अकित है । जैन धर्म के शास्त्रों के बड़े-बडे भडार राजस्थान मे हैं। राजस्थान मे गगनचुम्बी विशाल मंदिर भी बहुत हैं । ससार विख्यात आबू में दिलवाडा का जैन मन्दिर राजस्थान मे ही है। राजस्थान की ही बात क्या देहली और अन्य स्थानो मे भी हमारे पूर्वजो ने बहुत बडे-बडे कार्य किए हैं जो सदा अमर रहेगे और जैन समाज उन पर जितना गौरव करे थोडा है। यदि उन सब का वर्णन करे तो एक पोथा बन जाएगा ।
कितना आनन्द का समय था जबकि भारतवर्ष के जैन समाज मे संगठन था, बिरादरी एकता थी, प्राचार-विचार और खान-पान शुद्ध था, धर्म मे रुचि थी, पचायतो का मानता थी, विरादरी के बडे-बूढो का अदव - लिहाज था। किसी को मजाल नही थी कि बिरादरी के फैसले मे जरा इधर-उधर करे। भारतवर्ष मे देहली मुख्य स्थान माना जाता था। तमाम भारतवर्ष के जैन भाई देहली की जैन पंचायत और विरादरी की ओर निहारते थे और उन पर भरोसा करते थे । जो फैसले दिल्ली की पचायते या बिरादरी करती थी सारा जैन समाज उन सुझावो का पूरापूरा लाभ उठाता था। तमाम भारतवर्ष मे जैन भाइयो का आपस मे बहुत प्रेम था । कोई भी जैन भाई किसी स्थान से आता था तो वहाँ के भाई उसको देखकर बहुत प्रसन्न होते थे । उनके ठहरने और भोजन की व्यवस्था करते थे। किसी तरह उन्हें कष्ट नही होने देते थे। जैन बिरादरी का अन्य धर्मावलम्बियो समाजो - विरादरियो और जातियों से वडा मेल-जोल था और उन पर वडा प्रभाव था । सब एक-दूसरे के दुख-सुख मे काम आते थे । तीज-त्योहारो, मेले
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ठेलो और धार्मिक उत्सवो को सब मिलकर मनाते थे और सम्मिलित होकर पूर्णरूप से भाग लेते थे और उसे सफल बनाते थे। जनता में जैन समाज की वडी धाक थी। शामको को दिल्ली मे जैन धर्म के प्रति बहुत श्रद्वा थी और समाज के लिए सन्मान था।
आज ममाज की दुर्दगा देखकर रोना पाता है। तमाम भारतवर्ष मे समाज का नक्शा बदल गया है। स्थिति चिन्ताजनक और गोचनीय है। आपस मे वह प्रेम नही-समाज मे सगठन नही-विरादरी मे एकता नही-बडे बूढो का अदव-लिहाज नही। प्राचार-विचार ठीक नहीं । धर्म मे रुचि नहीं खान-पान मे शिथिलता आ गई है । कहाँ तक वताए, समाज का सारा ढाचा विगड गया है । हमारे सगठन न होने के कारण हमारे गुरुनो और देवस्थानो पर प्रहार हो रहे है । हमारी कला और संस्कृति को लोग नप्ट करने से भी नहीं चूकते। राज्य मे भी हमारी कोई सुनाई नही और वह प्रभाव नहीं । समाज का यह हाल है कि हर एक अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलाप रहे है।
महावीर जयंती और हमारा कर्तव्य
यह सर्वविदित है कि जैन धर्म का सम्बन्ध किसी एक व्यक्ति विशेप से नहीं, अपितु, हर उस व्यक्ति से है, जो अपनी इद्रियो पर काबू पाकर सासारिक वासनामो को जीत सके । इद्रियो के जीतने वाले को जिन या जैन कहते है ।
जैन धर्म एक सार्वभौमिक धर्म है, और मनुष्यमात्र इसको अपना सकता है। यह आवश्यक नही कि वह किस जाति, सम्प्रदाय अथवा समाज से सम्बन्ध रखता है, बल्कि जो व्यक्ति जैन धर्म के सिद्धान्त मे विश्वास रखता है और उनका पूर्णरूपेण पालन करता है वह जैन है।
ऐतिहासिक प्रमाण जैन धर्मानुयायियो ने समय समय पर अपनी गैरता और धर्मपरायणता के जो कार्य किये एव देश के निर्माण मे-जो अद्वितीय भाग लिया उससे जैन समाज का ही नही वरन् भारत भर का मस्तक ऊचा हुआ है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक इसके प्रमाण मिलते हैं। १९. ].
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इतिहास इसका साक्षी है। उन्होने मद्रास, विहार और राजस्थान आदि मे जिस वीरता के साथ भनुशासन प्रदगित किया वह अपनी एक निराली और शानदार छाप छोड गया है, जो हमारे लिये गर्व की वस्तु है । किन्तु सबसे अधिक गौरवशाली गाया, जो हमे इतिहास के पृष्ठो मे मिलती है, वह है सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की धर्मपरायणता और उसके शौर्य की जिमने सैल्यूकस को पछाडा ही नहीं, वरन् मदेव के लिये भारत पर हमला करने की भावना से उसका मुह मोड दिया।
कायरताशून्य हिसा जैन धर्म एक अहिंसक और सर्वपालक धर्म होते हुए भी कायरता की भावनामो वाला नहीं है । इसके विपरीत वह वीरत्व की भावनाओं से पूर्ण उदार धर्म है। इसके प्रतिपालक और प्रवर्तक प्राय क्षत्रिय वीर ही हुए है जिन्होने मर्दव जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्तो को पाला । जहाँ उनका यह दृट विश्वास था कि फिली को नताना पाप है वहाँ ये यह भी मानते थे कि किसी के द्वारा सताया जाना भी पाप है। मी गिद्धान्त को उन्होंने कार्यान्वित भी किया । उन्होने सदियो तक भारत पर गालन किया, जिन्तु उनके भागनकाल में किगी भी अन्य राष्ट्र और शासक की हिम्मत न हुई कि वह भारत पर आक्रमण कर सके । यही कारण है कि आज भी उनके शानदार कारनामे और नाम जिन्दा है।
जीयो और जीने दो "जीमा और जीने दो" का सिद्धान्त मानव जानि के लिये अमूल्य और एक नई रोशनी देने वाला है। यही कारण है कि हमारा भारत ससार में इस सिद्धान्त को पूरा करने में अग्रणी रहा है । यही सिद्धान्त आज मे बहुत ममय पूर्व भगवान महावीर ने अपने मदेश मे दिया और इसी सिद्धान्त को प्रमारित करने के लिये विदेशो में भी हमारे बडे-बडे पूर्वज गये जिसका प्रभाव और स्मृति माज भी विदेशों में शेप है जिसका प्रमाण इतिहास के पृष्ठो मे दृष्टिगोचर है।
वापू और हिसा सकडो वर्षों की दामता के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ है। इस स्वातन्त्र्य आन्दोलन में जैन समाज का वही अहिंसा-सिद्धान्त एक गस्त्र है जिसे भारत के देश-भक्तजनो ने घर-घर पहुचाने की भरमा कोशिश की । बापू और देश के अनेक उत्साही देश-सेवको के सतत प्रयल से यह अहिंसा-शस्त्र कारगर हुमा ।
हम प्रतिज्ञा करें इसी अहिमा के प्रवर्तक और उद्घोपक प्रात स्मरणीय भगवान महावीर का जन्म दिवस हम प्राज २८ मार्च, १९५३ को मना रहे है। देखना अव यह है कि इस शुभ अवसर पर, जब कि हम स्वतन्त्र है, हमारा कर्तव्य क्या हो जाता है ? केवल जलस या जलसे मात्र से तो हमारे काम की इतिश्री नही हो जाती है, अपितु एक जिम्मेदारी और भी बढ जाती है, और
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वह है देश के नव-निर्माण की। आइये आज हम सब बैठ कर इस पुनीत अवसर पर, जब कि भगवान महावीर स्वामी के जीवन चरित्र से हमे एक नई रोशनी और प्रेरणा मिल रही है, प्रतिज्ञा करे कि हम देश का मान स्तर ससार मे सर्वाधिक ऊंचा करेंगे, ताकि अहिंसा की वह ध्वजा ससार मे सर्वोन्नत होकर गर्व से लहराये ।
आज देश एक भयकर दौर मे से गुजर रहा है। देश को उत्साही, कर्मशील और ईमानदार व्यक्तियों की श्रावश्यकता है । यह कार्य हम कहा तक पूरा कर सकते हैं? यह हमे सोचना होगा । हमने श्रव तक हर कार्य मे प्रमुख भाग लिया है और हर आपत्ति का डट कर मुकाबला किया है। विशेषकर ऐसी हालत मे जब कि दहकती भाग में कूदने के लिये कोई तैयार नही होता था । किन्तु श्राज तो हमारा और भी अधिक कर्तव्य हो जाता है । इमी बात ने हमे श्राज तक जिन्दा रखा है । यह हमारे लिये एक मूल मन्त्र है ।
जेन भाइयो से अपील
अन्त मे मैं अपने भाइयो से एक अपील करूंगा कि केवल जैन परिवार मे उत्पन्न हो जाने से ही हम जैन नही हो जाते। हमे चाहिये कि हम जैनत्व के मुख्य चिन्ह, उमके आदर्शों और सिद्धान्तो का पालन न करे, तो मैं यह हरगिज मानने के लिये तैयार नही । मनुष्य उसके नाम व रग से नही पहचाना जाता, वल्कि वह उसके श्राचरणी और कर्तव्यों से पहचाना जाता है ।
मैं प्रार्थना करूंगा कि जो भाई अव तक अपने को इस घोर उदामीन समझते हैं, यागे श्रायें और इस पावन दिवस पर प्रतिज्ञा करे कि अपने खाली समय मे कुछ न कुछ समय जरूर भगवान महावीर के सदेव को कार्यान्वित करने के लिये देगे - जय जिनेन्द्र
महावीर जयन्ती पर देश के नवनिर्माण के लिये प्रतिज्ञा करें
यह सर्वविदित है कि जैन धर्म किसी एक व्यक्ति विशेष का नही अपितु उस हर व्यक्ति का है जो अपनी इन्द्रियों पर काबू पाकर सासारिक वासनाम्रो को जीत सके । उसे "जिन" (इन्द्रियो को जीतने वाला) या जैन कह सकते है ।
जैन धर्म एक सार्वजनिक धर्म है और मनुष्य मात्र इसको अपना सकता है । यह ease नही कि वह किस जाति, सम्प्रदाय अथवा समाज से ताल्लुक रखता है, बल्कि जो उसके सिद्धातों मे विश्वास रखता है श्रीर उनका पूर्णरूपेण पालन करता है वह जैन है ।
'जीओ और जीने दो' का सिद्धात मानव-जाति के लिये श्रमूल्य और एक नई रोगनी देने वाला है । यही कारण है हमारा भारत ससार मे इस सिद्धात को पूरा करने मे अग्रणी रहा है । यही सिद्धात श्राज से बहुत समय पूर्व भगवान महावीर ने अपने सदेश में दिया और इस
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सिद्धांत को प्रसारित करने के लिए विदेशो मे भी हमारे बड़े-बडे पूर्वज गये, जिसका प्रमाण इतिहास के पृष्ठ और पद चिन्ह बताते है ।
सैकडो वर्षों की दासता के बाद देश स्वतन्त्र हुआ है । इस स्वातंत्र्य आदोलन मे वही जैन समाज का अहिंसा - सिद्धात एक गस्त्र था, जिसे भारत के देशभक्त जैनो ने घर-घर पहुचाने की भरसक कोशिश की । इसी अहिंसा के प्रवर्तक और उद्घोपक प्रात स्मरणीय भगवान महावीर इस शुभ अवसर पर, जवकि हम स्वतन्त्र है, केवल जलूस मात्र से हमारे काम की इतिश्री नही हो जाती है । श्रपितु एक जिम्मेदारी और भी बढ जाती है, और वह है देश का नव-निर्माण । श्राइये आज हम सब बैठ कर इस पुनीत अवसर पर, जब कि भगवान महावीर स्वामी के जीवन चरित्र से हमे एक नई रोशनी और प्रेरणा मिल रही है, प्रतिज्ञा करे कि हम देश का मान स्तर ससार मे सर्वाधिक ऊचा करेंगे ताकि अहिंसा की वह ध्वजा ससार मे सर्वोन्नत होकर गर्व से लहराया करे । मैं प्रार्थना करूंगा कि जो भाई अब तक इस ओर अपने को अकर्मण्य अवस्था मे समझते है वे भागे आएं और और इस पावन दिवस पर प्रतिज्ञा करें कि वे अपने खाली समय मे कुछ-न-कुछ समय देकर जरूर भगवान महावीर के सदेश हेतु करेंगे ।
Report on the Marketing
of Meet
In India, 1955
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This state of affairs is inevitable because, though meat in cities and towns is consumed in considerable quantities, its trade is in the hands of numerous small butchers, who pay no heed whatsoever, to hygiene production of meat As the consumption of unfit or unwholesome meats must affect the health and reduce the life of a large cross section of the population, the first pressing necessity is to purge the country of a large number of small, scattered and highly insanitary and uncontrolled slaughter-houses spread all over and to construct modern Central Slaughter-houses, in all cities and big towns and lease the same for a period of five years, to one authority on certain conditions It is suggested that the scheme should be tried in the first instance, on an experi
say
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mental basis, at 9 centres, namely at Bombay, Calcutta, Delhi, Madras, Lucknow, Banglore, Hyderabad, Patna and Agra.
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PRODUCTION
The annual value of meat along with edible offals produced in India is estimated to be over 100 crores of rupees The Importance of the industry should not, however, be Judged merely from this figure. Meat is vitally important to the Indian population because their diet is deficient in first class proteins and these could easily be obtained from meat. Therefore from economic, nutritional and public health points of view, the meat industry is of considerable importance to the country and deserves a lot more attention that it has received in the past.
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CONSUMPTION
Meat has not yet received sufficient recognition as an important food item and has hitherto been regarded as a luxurty for the town dwellers. The nutritional importance of meat is also practically unknown. For these reasons, the per capita consumption of meat in the Indian Union is very low, hardly 3.2 Lb. In many foreign countries large sums are annualy spent on "Consumers education" and sustained and successful efforts are made to drive home successfully to the consumers the value of meat and its products. Happily, there is not the same prejudice in India today against meat eating, particularly mutton and goat flesh, as existed before. Efforts to increase production are unlikely to bear fruit if steps are not simultaneously taken to increase consumption.
It is, therefore, recommended that extensive propaganda may be carried out to educate the peoples as regards high nutritive and protective value of meat and on the advisability of its increased consumption in their daily diet.
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मानव-धर्म
१. दुखिया पनि कोई देखिये, देखत ही दुख होय ।
दुखिया रोइ पुकारि है-सब गुड माटी होय ।। २. तुलसी हाय गरीव की कवहुँ न निष्फल जाय।
मरी खाल की सांस सो, लोह भस्म हो जाय ।। ३. कवीरा सोई पीर है, जो आने पर पीर ।
जो परपीर न जानिये, सो काफिर बै-पीर । (१) हम विश्वप्रेम के पक्षपाती बने । (२) सत्य और अहिंसा के सिद्धान्त को अपना आदर्श मानें । (३) मानव समाज मे सद्-भावना और प्रेम उत्पन्न करें। (४) समस्त विश्व को एक परिवार मानकर आगे बढे । (५) आपस के वैमनस्य और द्वेप को इस महान आदर्श के लिए त्याग दें।
यह है उस सन्देश की कुछ पक्तिया जो ससार को अनादिकाल से प्रकाश देती आई है। जैन धर्म के २४वें तीर्थङ्कर प्रात स्मरणीय भगवान महावीर ने इस ज्योति से मानवता के एक बहुत बड़े भाग को जगमगा दिया। तब से अब तक विश्व को शान्ति के पथ पर ले जाने के लिए यह एक मार्ग सावित हुआ। अपने नफे के वास्ते, मत और का नुकसान कर ।
तेरा भी नुकसा होयगा, इस बात पर ध्यान कर ॥ खाना जो खा देखकर, पानी जो पी तो छानकर ।
या पाव को रख फूककर, और खौफ से गुजरान कर ॥ कलयुग नही करयुग है यह, या दिन को दे और रात ले।
क्या खूब सौंदा नकद है, इस हाथ दे और उस हाथ ले ॥
कठिनाईयां आदमी कठिनाइयो में पड़कर ही चमकता है। रत्न रगड़ा जाने पर ही रत्ल प्रतीत होता है । विरोध का उचित रीति से सामना करना प्रादमी के व्यक्तित्व को निखारता है।
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श्रम शरीर को और कठिनाइयां मस्तिष्क को बलवान बनानी है।
दुःस जीवन का सबसे बडा गुरु है । एक आसू दूर देखने की आखो को वह शक्ति दे देता है जो कोई दूरवीन भी नहीं दे सकती।
आज के सुख को, पुराने दुःख की याद मधुर बना देती है।
प्रकृति पशु, पक्षी, मनुष्य सभी पर दयालु है किसी का उससे विरोध तो है ही नही खतरा मोल लीजिए डरिए नही, बढे चलिये । आपकी केवल शुभ से भेट होगी।
धुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी चोट खा जाता है पर चोट खाकर रोता मूर्ख ही है।
जो व्यक्ति असफलतानी के कडवे धूट पीने को तैयार नहीं होता उसे सफलता का मधुर रस कभी पीने को नहीं मिलता। मूल्य सफलताओ का नही आपने उसकी प्राप्ति के लिए जो उद्योग किया है उसका है।
शुभ-कामना कुछ लोग शरीर के रोगी होते है, कुछ लोग दिमाग के, पर आज के वैज्ञानिक युग मे जितने दिमाग के रोगी होते है उनकी तुलना मे शरीर के रोगी कम ही होते है । आपको चारो
ओर जो रोगी ही रोगी दिखाई देते है उनमे से अधिकाश चाहे तो अच्छे हो सवाते हैं पर उनका मानसिक दृष्टिकोण उन्हे वीमार ही रखता है।
जो लोग दूसरो का भला चाहते है और जहा तक बनता है उनकी भलाई के लिए कुछ करते भी है, वे दूसरो के ही कण्ट वहन करने और कष्ट से मुक्त होने में मददगार नहीं होवे । इस विधि से वे अपने शरीर और आत्मा को भी स्वस्थ रखते है मदद एक ऐसी दवा है जो लेने और देने वाले दोनो को ही फायदा पहुंचाती है यदि आप दूसरो की भलाई के काम में अपने को भूल जाये तो रोग स्वय जाने की ओर प्रवृक्त होते है, दूसरो की भलाई से जो सन्तोप प्राप्त होता है वह हमारी कल्पना को बनाता है और स्वस्थ कल्पना करने वालो को भी स्वस्थ ही देखती है।
भलाई करने का आनन्द मन को उत्साहित अवस्था में रखता है और वह उत्साह सारे अवसादो को दूर कर शरीर को सम्पादित अवस्था में रखता है। उपकार-रत व्यक्ति का इह खुशी से चमकता रहता है । उसकी मुख मुद्रा उसके मात्म-विश्वास और उसकी आत्मा की उच्चता को प्रकट करती है । खुदगर्ज का चेहरा उतरा, दवा हुया रहता है और उस पर धुआं-सा उडता रहता है उसके चेहरे पर उसके मन की मलीनता स्पष्ट रहती है।
अपने सम्बन्ध में विचार करते रहना रोगो को बनाये रखने का अचूक उपाय है। यह भी एक तरह की स्वार्थ परायणता ही है। प्रादमी अपने ही लाभ की ही सोचता रहता है।
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दूसरे की भलाई की ओर ध्यान ही नही जाता। लोगो की शुभकाक्षा गौर आशीर्वाद रोग के दूर करने के लिए रसायन का काम करते है और जो यह रसायन लोगो की सहायता कर प्राप्त करता रहता है और वह इनके जीवनदायक गुण का स्पष्ट अनुभव करता है ।
तरह से लुटने वाले
दुनिया मे कष्टो की कमी नही है । कठिनाई, कष्ट - परीक्षा और दुख आते ही रहते है पर जो लोग दुख की कल्पना करते रहते हैं वे अपने कप्टो को आसानी से दूना भारी बना लेते हैं यदि उनको कही विपरीत अवस्था या निराशा से सामना करना पडता है तो वे सोचने लगते है कि उनका ही वेडा गर्क होने वाला है । भाग्य उनके विरुद्ध है और वे हर है । इस तरह वे अपने को दुर्दशाग्रस्त समझने लगते है । जिसकी छाया उनके साथ रहने वालो पर पड़ने लगती है । जीवन उनके लिए एक वोझा वन जाता है। यह अवस्था बुरी है पर वदली जा सकती है उन्हे अपनी विचारधारा को बदलने के लिए कठिन प्रयत्न करना पडेगा । हमे अपने शारीरिक और मानसिक शक्ति का अपव्यय और दुरुपयोग करने का कोई अधिकार नही है ।
कई बार घर की परेशानी शरीर मे जोक की तरह लिपट जाती है और जीवन-रक्त को ही चूसती रहती है । किसी-किसी के लिए पाप का पश्चाताप जलाता रहता है और उनके शरीर को क्षीण और मस्तिष्क को विकृत करता रहता है । कुछ लोग अतृप्त आकाक्षाचो से पीडित रहते है । पीडित वासना उन्हें गुमराह रखती है । आत्मा उन्हें धिक्कारती रहती है । उन्हें लगता है कि अपने पर से उनका वश छूट गया है । अपनी आखो मे ही वे गिर जाते है । जीवन में उन्हे किसी सफलता की कोई आशा नही रह जाती ।
पाप और रोग में कार्य और कारण का सम्बन्ध है । यदि विचार गलत है तो यह उनका स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए कि श्राप शरीर मे वे आरामी महसूस करें जिसके शरीर को रोग ने जर्जर बना दिया है उन्हें एक ही नुकसान नही होता कि उनका शरीर अशक्त हो जाता है । शारीरिक दु ख तो वे आसानी से सह लेते है । पर मानसिक दुख उन्हे अधिक परेशान करते है |
अशुभ कल्पना रोग को तो बढा ही देती है । वह रोग को जन्म भी देती है लोग जन्म भर बीमार रहते है । यह चिररोगी भी यदि अपने दिमाग को स्वस्थ होने के काम मे लगा
तो स्वस्थ हो सकती है । कुछ लोगो की यह धारणा होती है कि जरा-सी ठण्डक लगी और वे बीमार पडे और वे ठण्डक लगते ही वीमार पड भी जाते है क्योकि वे इसकी आशा करते है कि बहुतो की तो ऐसे रोग से जिमका कारण काल्पनिक हुआ करता है मृत्यु ही हो जाती है ।
सदा अपने लिए शुभ चिन्तन ही कीजिए । कल्पना को कभी गुमराह नही होने दीजिए ।
माता
श्राते ही उपकार याद हे माता तेरा । हो जाता मन मुग्ध, भक्ति भावो का प्रेरा । तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावे । जी होता है, तुझे उठाकर शीश चढावें ।
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ईश्वरोपासना
सब मिल के आज जय कहो श्री वीर प्रभू की। मस्तक झुका कर जय कहो श्री वीर प्रभु की ॥ १॥ विघ्नो का नाश होता है लेने से नाम के । माला सदा जपते रहो श्री वीर प्रभु की ॥२॥ ज्ञानी बनो दानी बनो बलवान भी बनो । अकलक सम वनकर करो जय वीर प्रभू की ॥ ३ ॥
होकर स्वतंत्र धर्म की रक्षा सदा करो । निर्भय बनो और जय करो श्री वीर प्रभू की ॥४॥
तुझको भी अगर मोक्ष की इच्छा हुई ए 'दास' । उस वाणी पर श्रद्धा करो श्री वीर प्रभू की ॥५॥
प्रार्थना
ऐ वीतराग स्वामी, मैं हू गुलाम' तेरा । आठो पहर जबा पे रहता है नाम तेरा ॥ १ ॥
रहता है मुझको हर सुबह शाम तेरा । जपता हू तेरी माला लेता हू नाम तेरा ॥२॥
हर गुल" मे देखता हू जलवानुमा मे तुमको | बुलबुल की है जवा पै शीरी कलाम तेरा ॥ ३ ॥ यह बात मुझको हासिल तहरीर से हुई है । जिसमे दया भरी है वो है कलाम तेरा ॥४॥
•
६
कोई है तुझ पे माइल' कोई है तुझ पे मफ्तू ' । शैदाई हो रहा है हर खासो ग्राम तेरा ||५||
दिल प्राइना बनाया जिसने खुदी मिटा कर । वो देखता है दिल में दर्शन सुदाम तेरा ॥ ६ ॥
है 'दास' 'तुझ पे माइल कल्याणकारी भगवन् ।
जादू भरा सुना है जब से कलाम तेरा ||७||
१ सेवक २ फूल ३ चमकता हुआ ४ ठण्डा ५-६ मिटा हुआ ७ प्रेमी ८ हमेशा ।
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स्तुति
ऐ वीतराग स्वामी वेशक तू लामका है । लेकिन हमारे दिल के अन्दर तेरा निशा है ॥ १ ॥
ये है जमीन किसकी किसका यह आस्मा है । तू है जहा का मालिक तेरा ही यह जहा है ||२|
सहरा मे है चमन मे गुलशन मे है खिजा मे । ऐ वीतराग स्वामी मस्कन तेरा कहा ॥३॥ भाखो मे है कि दिल मे या है मेरी नजर मे । मैं क्या बताऊ तुझको तेरा
निशा कहा है ||४||
हर शे मे तेरे जलवे ऐसे बसे हुए है । हम देखते हैं तुझको नज़रो से गो निहार है ॥५॥
ऐ दीनबन्धु भगवन हामी है तू दया का । दुनियां में जब सुनहरी सिक्का तेरा रखा है ॥६॥
ऐ 'दास' क्या बताऊ जिनराज का मै तुल्वा । वोह अपना शहशाह है वो अपना हुक्मरा है ||७
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भगवान महावीर
विषम दु.ख की ज्वालाओ से जला हुआ था जब ससार । दानव वन, मानव था करता श्रवलान पर अत्याचार | शूद्र-जनो का सुन पडता था ससति तल मे हाहाकार | धर्म नाम पर होता था नित पशुओ का भीपण सहार ॥
प्रकृति प्रकम्पित होकर अपने गिन-गिन अश्रु वहाती थी । मानवता रोती थी केवल दानवता हँस पाती थी । कर्मकाण्ड का जाल बिछाकर दम्भी मौज उडाते थे । नीति न्याय गला घोटकर न्यायी पीसे जाते थे ।
१ जंगल २ बाग ३ पतझड़ ४ मकान ५ वस्तु ६ छुपा हुआ ।
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जातिवाद ने छीन लिये थे शूद्र-जनो के सब अधिकार । मानुपता से वचित मानव फिरता था वस मनुजाकार ॥ उमी समय इस पृथ्वीतल पर तुमने लिया पुण्य अवतार । राजपाट तज पुनः जगत का करने लगे सतत् उद्वार ।।
ललनायं तेरे चरणो मे तेरे स्वागत पुष्प चढानी थी। उत्सुकता से पावन-पय में बढकर पुण्य कमाती थी।
द्रम्लेच्छ सव ही में तुमने मातृ भाव दरसाया था। अन्यायों की होली करके नव-जीवन मरसाया था।
गिह-गर्जना सुनकर तेरी हुए पराजित अत्याचार । मानुपता मिखलाई तूने है मानवता के शृङ्गार ।। कोरी कर्म-काण्डता विघटी, हुआ मूक पशु-वलि सहार। फूले ये जो अन्यायो से पछताते अव वारम्बार ।। अनेकान्त की अद्भुत शंली सव जग को दिखलाई थी। धर्म-समन्वय करके सत्र की मौलिकता दिखलाई थी। सम्प्रदाय के द्वन्दु भगाकर निज पर भेद मिटाया था। आध्यात्मिकता सिखा जगत की आनन्द पाठ पढ़ाया था । जनमत की परवाह न करके जगहित को दिखलाई राह । हुआ विरोध तुम्हारा लेकिन घटा न उससे कुछ उत्साह ॥ अन्त विजय-लक्ष्मी ने डारी कण्ठ तुम्हारे वर-वरमाल । 'जिन' कहलाये, गत्रु नशाये, गावें अब तक सब गुण माल ।।
दुखियो को गोदी मे लेकर तुम्ही खिलाने वाले थे। प्यासो को सुधाम्बु निज कर से तुम्ही पिलाने वाले थे । मुर्दो मे भरकर नव जीवन, तुम्ही जिलाने वाले थे। अन्यायो की पकड़ जड़ो को, तुम्ही हिलाने वाले थे ।।
महावीर थे वर्धमान तुम, सन्मति-नायक जगदाधार । सत्पथ दर्शक विश्व प्रेममय दया-अहिंसा के अवतार ।। प्रमुदित होकर मुझे सिखाभो सेवा पर होना बलिदान । मिट जाऊं पर मिटे न मेरा सेवामय उत्सर्ग महान ॥
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प्रार्थना
महावीर
स्वामी
भासरा तेरा
है ।
कि गुमकरदा' मंजिल का तू रहनुमा है ॥ १ ॥
तू है केवल ज्ञानी तु ही जानता है । मुकद्दर मे जो कुछ कि लिक्खा हुआ है ॥२॥
तू मालिक है अपना तू का है अपना । है सहारा तेरा है ॥३॥ तेरा वसीला
किनारे से हमको लगादे ए स्वामी । तू कस्तिए उम्मीद का नाखुदा है ||४||
गरज द्वेष से है न है राग से कुछ । तेरा शीशए दिल खुदी से सफा है ||५||
मुजस्सिम है तू शाने वहदत का पुतला । मेरा हुन साचे मे गोया ढला है ||६||
न होगी कभी भूल कर जीव हिंसा । दया का सबक हमको तूने दिया है ॥७॥
करम कर तू मुझ पे में हू 'दास' तेरा । यह दस्तवस्ता मेरी इल्तजा है ||५||
हृदय की तान
हृदय मे गूंजे ऐसी तान ।
न्याय मार्ग से नही डरें हमे, अनुत्साह को नही घरें हम, प्राणी मात्र से प्रेम करें हम, करें देश उत्थान, हृदय मे गूजे ऐसी तान
दीनो के सब दुख दूर हो, कार्य क्षेत्र मे सुजूर हो, अन्यायी के लिए क्रूर हो, रक्खें अपनी तान; हृदय मे गूंजे ऐसी तान ।
१ भूला हुआ २ बताने वाला
३ मल्लाह
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कायर वचन न मुख से बोले, ज्ञान सुधा रस घट-घट घोले । सत्य तुला मे सव कुछ तोलें, जब तक तन में प्रान ।
हृदय मे गूजे ऐसी तान। निर्वल कही न समझे जावे, जग में कभी न दीन कहावे, विघ्न करोडो सिर पर आवे, मेले सव शुभ जान ।
हृदय मे गूजे ऐसी तान।
क्यो कर हो कल्यान
मुझे दो ऐसा वर भगवान |टेक॥ सुख-दुख मे ना धर्म को भूलू और न घबराऊ । जुल्मो-सितम चाहे जितने हो, कभी न भय खाऊ ॥
भले ही तन से निकले जान ।
मेरे तन से दुश्मन तक का, कभी न हो अपकार । वालक वृद्ध युवा सबका ही, पूर्ण करू सत्कार ।।
इसी मे समझू अपनी शान । देश के हित में मरना सीखू, देश के हित जीना। तीरो तुफग भी इसपै वरस, अडादऊ सीना ॥
देश का सह न सकू अपमान । चाहे जान भले ही जावे, छूटे कभी न धर्म । देश-जाति की सेवा करना, समझू अपना कर्म ।।
यही है वीरों की पहिचान । भारत मे से कलह ईर्पा, फूट का निकले बीज । इसने भारत गारत करके, वना दिया है नीच ।। -
गुजादू मधुर प्रेम की तान। यह नरभव कही व्यर्थ न जावे, सोच-समझ ए 'दास' । मोक्ष मिलन की इच्छा है तो कर्मों का कर नाश ।।
तभी होगा तेरा कल्याण ।
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फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने
जिन धर्म का डका आलम मे वजवा दिया वीर जिनेश्वर ने। सुख-शाति से रहना दुनिया को सिखला दिया वीर जिनेश्वर ने ॥१॥
अपना गौरव अपना जलवा दिखला दिया वीर जिनेश्वर ने । हा मृग केहरि को एक जगह विठला दिया वीर जिनेश्वर ने ।।२।।
यज्ञो मे गूगे मूक पशू जव लाखो मारे जाते थे । हिंसा से बढकर पाप नही फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥३॥
जब जीव हुए थे धर्मभ्रष्ट तव पापो की वन आई थी।
चुगल से इनके जीवो को छुड़वा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥४॥ मिथ्यात्व का खण्डन कर डाला अभिमान का मर्दन कर डाला। गौतम जैसे गणधर को परचा लिया वीर जिनेश्वर ने ॥१॥
हृदय मे जिनके राग-द्वेष की अग्नि सदा ही जलती थी। जग तजो द्वेप तब मोक्ष मिले फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥६॥
ऐ 'दास' हकीकत दुनिया की दम भर में हुई सब हमको प्रया । जो राज था आखों-आखो मे समझा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥७॥
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स्वार्थ
खिल-खिल कलियां मन को हरती, मन्द-मन्द मुसकाती है। अपनी सुन्दर छटा दिखा कर, मौरो को ललचाती है।। देख ऊपरी सुन्दरता को, भौरे नही ललचते है। मधु पाकर ही मधुप मनोहर, कलियो को मा छलते है ।
कैसा सुन्दर मधुर स्वार्थ है, मीठा रस इसमे रहता। स्वार्थ हेतु कट जाय शीश भी, तो भी नर इसको गहता ।। प्यारे भाई ! स्वार्थ-प्रस्त नर, सविवाद के योग्य नहीं। दुख-ही-दुख है स्वार्थ समर में, सुख की मात्रा कही नही ।।
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हमारी हस्ती
अबम' अपनी हस्ती पै फूला हुआ है।
जिएगा हमेशा न कोई जिया है ॥१॥ है दो माम पर जिन्दगानी वार' की। कि एक आ रहा दूसग जारहा है ॥२॥
किए जा किए जा भलाई किए जा।
कि स्तवा भलाई का सबमे बड़ा है ।। तेरे कर्म ही तुमको कर देंगे स्वा। मगन अपने दिल मे नू क्या हो रहा है ॥४॥
न मानूम कव कूब हो जाए तेरा ।
गनीमत समझ मास जो आ रहा है ॥५॥ न दुनियाए हूँमें कभी दिल लगाना । कि इसकी मोहलत नवैदे जा है ॥३॥
फना हो न, जिनको मिले वो मसरंत ।
यही दिल का मतलब यही मुद्दा है || महावीर भगवान ने दिल लगायो । कि पापो का अपना यही खू बहा है ||
मिटाये से ऐ 'दार' क्योकर मिटे वो। मुकहर में अपने जो लिक्खा हुआ है III
जन-धर्म सर्वथा स्वतन्त्र है । मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है। और इसलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्व बान का, धर्म पद्धति का अध्ययन करने वालो के लिए वह बड़े महत्व की वस्तु है।
-डा. हमन नकोबी
१व्यर्थ २ इन्सान । ३ वदनाम ४ कमीनी ५ पैगाम ६ मौत ७ मिटना ८ खुशी ६ प्रायश्चित २०४ ]
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उपदेशामृत
कर्म तू जैसा करेगा वैसा साथ अपने कुछ न लाया है
फल
न ले
जव मिटाकर अपनी हस्ती सुर्मा ग्रहले आलम की निगाहो मे समा जाएगा
वन जाएगा तू ।
वुल्ल' सेकारू शिफत क्या खाक फल पाएगा तू । साथ दौलत के जमी मे दफन हो जाएगा तू ॥३॥
६
चार दिन की जिन्दगी पर मुश्ते खाक नशे बातिल की तरह दुनिया से
पाएगा तू ।
जाएगा तू ॥ १ ॥
इक तेरे ऐमाल ही जायेंगे तेरे साथ-साथ । और क्या इसके सिवा दुनिया से ले जाएगा तू ॥४॥
प्राखिरत की लाज गर चाहे तो नेकी मालोदौलत सब यही पर छोड कर
१ कंजूस २ खजाना ३ तरह ४ गडना म दोस्त ६ फना होने वाली दुनिया ।
तू ॥२॥
जैसी करनी वैसी भरनी यह मसल काम गर अच्छा करेगा अच्छा फल
०००
इतना गरूर । मिट जाएगा तू ॥१५॥
ये जो है महवाब तेरे सब बनी के यार है । दारे फानी से अकेला ही फकत जाएगा तू ॥७॥
कर सदा । जाएगा तु ॥ ६॥
दौलतो हशमत मे हरगिज 'दास' मत कीजो घमंड | श्रालमे फानी से खाली हाथ ही जाएगा
॥९॥
मशहूर है ।
पाएगा हू ||५||
५ कर्म ६ मुट्ठी भर ७ मिट्टी के पुतले, बुलबुले
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साज़-हस्ती
हस आया है फकत दो-चार दाने के लिए। बागे पालम मे हवा दो दिन की खाने के लिए ॥१॥
है श्री जिनराज की बानी सुनाने के लिए। याद कर लो शौक से तुम इसको गाने के लिए ॥२॥
जैनियो के दिल में होगा जव कही पैदा सरूर' । साजेहस्ती२ चाहिए कौमी तराने के लिए ॥३॥
दूर हो जिससे स्याहवस्ती हमारी कौम की। हाथ मे हो ज्ञान की मशाल जलाने के लिए ॥४॥
राजनीति का सबक भी सीख लो ऐ जैनियो। जग में अपना कदम आगे बढाने के लिए ॥५॥
पाए है क्या इसलिए दुनिया मे हम ऐ दोस्तो। खुबार होने ठोकरें गैरो की खाने के लिए ॥६॥
जीव हो जाएगा कालिव से जुदा जब देखना। लाश ही रह जाएगी वाकी जलाने के लिए ॥७॥
न्यामते दुनिया खिलाते थे जो पौरो को कभी। दर-बदर फिरते है अब वह दाने-दाने के लिए ॥८॥
चादरे गुलम् पै जिन्हे मुश्किल से कल आती थी नीद । ढूढते है ईट वो तकिया लगाने के लिए ॥६॥
मिस्ले महमा 'दास' इस दुनिया मे रहना चाहिए। तू जो पाया है यहा आया है जाने के लिए ॥१०॥
१ नशा २दिल का साज ३ जातिय ज्ञान ४ बदनसीबी ५ मशाल ६ शरीर ७ दुनिया. मच्छी वस्तु फूलो की सेज ।
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जिगर की आग
तरक्की' धर्म की और देश की रोने रुलाने से। नही बुझती जिगर की आग दो मासू वहाने से ॥१॥
न लेते थे जो दम भर चैन औरो को मिटाने से। उन्हे भी एक दिन लगना पडा अपने ठिकाने से ॥२॥
निशार तक भी नही मिलता जहा मे आज तक उनका। जिन्हे मानन्द मिलता था जफा ओ जौर ढाने से ||३||
दुखे दिल से जो निकली प्राह तुझको फूक डालेगी। सितमगर बाज मा मजलूमो वैकस के सताने से ॥४॥
जो खुद ही गदिशे तकदीर से वर्वाद फिरते है। भला क्या फैज़ पाएगा कोई उनको सताने से ।।५।।
कठिन है धर्म की मजिलप मगर हिम्मत न हारो तुम । यू ही चलते रहे तो लग ही जानोगे ठिकाने से ॥६॥
घसी है जिनके रग-रग मे मोहब्बत मुल्कोमिल्लत की। नही वोह चूकते ऐ 'दास' अपना सर कटाने से ॥७
राग मालकोप जिया जग धोके की टाटी ॥ टेक ॥ झूठा उद्यम लोग करत है जिसमे निश दिन घाटी। जास वूझ कर अडे बने हो पोखिन बाधी पाटी। निकल जायंगे प्राण छिनक मे पडेनी माटी। 'दौलतराम समझ नर अपने दिल की खोल कपाटी।
१ उन्नति २ चिह्न ३ पाप करने वाले ४ मान जा ५ निर्वल ७ भलाई ८ राह (मार्ग)।
किस्मत का फेर
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प्यारा है वतन अपना
जलीलो स्वार होकर भी न बदला गर चलन अपना। तो खो बैठेगे हाथो से किसी दिन हम वतन अपना ॥१॥
फना हो जाएगे, मिट जाएंगे इसको बचाएंगे । कि हमको स्वर्ग से बढकर प्यारा है वतन अपना ।।२।।
मिटा जिस रोज भारत, कुल जमाने में अधेरा है । कि सारे विश्व की शोभा बढाता है वतन अपना ।।३।।
न पहना माज तक हमने विदेशी कोई भी कपडा। तमन्ना है कि बादेमर्गदेशी हो कफन अपना ॥४॥
उधर बेदाद' गैरो की, इधर आपस के झगडे है । विधाता दूर भी होगा कभी रजोमहन अपना ॥५॥
बनाया भावमी जिनको सिखाया बोलना जिनको । हमारे सामने ही खोलते है वो दहन' अपना ॥५॥
मगर अब भी खबर इसकी न ली ऐ 'दास' यारो ने । खिला की नज्ज हो जाएगा इकदिन यह चमन अपना ।।६।।
साफ प्रकट है कि भारतवर्ष का अघ पतन जैनधर्म के अहिंसा सिद्धान्त के कारण नहीं समा था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरो में लिखे जागे योग्य है और भारतवर्ष के ह्रास का मुख्य कारण प्रापसी प्रतिस्पर्धामय अनक्यता है जिसकी नीव शकराचार्य के जमाने मे डाली गई थी।
मि. रेवरेन्ड जे० स्टीवेन्सन
१ मरने के बाद २ जुल्म ३ दुख, तकलीफ ४ मुह ५ पतझड । २०८ ]
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हिन्दोस्तां हमारा
क्या पूछते हो हमसे नामोनिशा' हमारा ? मालिक है हम जमी के है आस्मा हमारा ॥१॥
भारत पै जान देगा इक इक जवा हमारा ।
ऐ चर्ख ले रहा है क्या इम्तहां हमारा ? ॥२॥ लडते है हक की खातिर हक है हमारा हामी । हम पासवारे हक है हक पास्वा हमारा ||३||
दुश्मन की सारी शेखी अब खाक मे मिलादो।
देखें तो क्या करेगा दौरे जमा हमारा ॥४॥ क्या जिक्र मालो जर का तन और मन से अपने । बहरे वतन है हाजिर खुरखोकला हमारा ॥५॥
बागे जहा मे खिलकर दिखलाऐ रग क्योकर ।
दुश्मन बना हुआ है खुद बागवा हमारा ॥६॥ ए 'दास' हो न जाए बरबाद अपनी मेहनत । सम्याद की नजर मे है आशिया हमारा ॥७॥
विद्या जीवन की दिशा है, जिसे पाकर मनुष्य अपने इष्ट स्थान पर नहीं पहुंच पाता। चरित्र जीवन की गति है । सही दिशा मिल जाने पर भी गति-हीन व्यक्ति इष्ट स्थान पर नही पहुँच पाता । सही दिशा और सही गति दोनो मिलें, तव काम बनता है।
__ सेवा का सबसे पहला कदम अपनी जीवन-शुद्धि है। यह आत्म-सेवा है, जिसके बिना जन-सेवा बन नही सकती।
१ चिन्ह २ आसमान ३ न्याय, सच्चाई ४ तरफदार ५ ससार-चक्र ६ देश के खातिर ७ छोटे-बडे ८ वाग का माली ९ वुलवुल का पकड़ने वाला।
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श्राखो से देखते हो कुछ तो खवर लो अपने
भारत-दुर्दशा
क्या दुर्दशा' वतन की । उजडे हुए चमन की ॥१॥
फाकाकशी' से लाखो वे मौत मर रहे है । farat हुई है हालत व किस कदर वतन की ॥२॥ "श्नकलक" "वीर" जैसे पैदा हुए यही पर | यू स्वर्ग से है बढकर भूमी मेरे वतन की ||३||
तीरो तुफग 3 का अव हरगिज न गम करेंगे । लेगे जान देकर हम श्रावरू* वतन की ॥४॥ अपनी जिन्दगी का । करें वतन की ||५||
सबसे बडा यही है फर्ज हमले से दुश्मनो के रक्षा
तेरी चिता र्प मेला हर साल ही लगेगा । ऐ 'दास' जान देकर शोभा बढा वतन की ॥ ६ ॥
वीर प्रतिज्ञा
हम अपनी जिन्दगानी धर्म की खातिर मिटा देगे । अगर आया कोई मौका ये जलवा भी दिखा देगे ||१||
जो है सरगार दौलत मे, जो है मखमूर हशमत मे । यही अशखाश इक दिन कुछ न कुछ करके दिखा देंगे ||२||
7.
हमारे नौजवां जैनी नही हटने के पीछे श्रव । बनाकर संगठन अपना कदम आगे बढा देगे ||३||
रहा गर सगठन अपना, रहा गर दम मे दम अपना । किसी दिन देखना कलियुग मे हम सतयुग दिखा देंगे ||२||
वो गालिया भी हमको देगा तो भी सुन लेंगे । दिले दुश्मन पं यूं तेगे करम अपनी चला देंगे ||५|
समझ रक्खा है क्या ऐ 'दास' अपने नाल-ए-दिल को । जमी का जिक्र ही क्या आसमां तक को हिला देंगे || ६ ||
१ वुरी हालत २ भूखे मरना ३ तमचा ४ इज्जत ।
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श्री वीर की अमली जयन्ती
श्री वीर की जयन्ती अमली मनानी होगी । तकलीद' उनकी हमको करके बतानी होगी ॥१॥ एकान्तम्रम तपस्सुवरे जड से उखाड़ फेंके । सत्यार्थियो की हरजा सगति बनानी होगी ॥२॥ फिर्को की वन्दिशो मे बरबाद हो चुके है । मत-पथ की अटक हठ खुद ही हटानी होगी ॥३॥ मठ मन्दिरो की बढ़ती मूढो की वेष पूजा । इन रूडियो में फंसती जनता बचानी होगी ॥४॥ सिद्धान्त-तस्व-निर्णय गुण गण का चढ़ाना । उपयोग शक्ति अपनी इनमें लगानी होगी ॥ ५॥
सब जीव मोक्ष सुख के हकदार है बराबर । यह साम्यवाद शिक्षा पढनी-पढानी होगी ॥ ६ ॥
छीने न प्राण-सत्ता कोई प्रमाद-वश से । जीवो की, यह व्यवस्था हमको जमानी होगी ।। ७ ।। परतंत्र बधनो से सब मुक्त हो रहेगे । भारत-वसुन्धरा की सेवा बजानी होगी ॥८॥
है वीर-धर्म-शासन पुण्यार्थ क्रान्तिकारी । घर-घर में ज्योति 'सेठी' इसकी जगानी होगी । ६॥
विद्या का फल मस्तिष्क-विकार है, किन्तु है प्राथमिक । उसका चरम फल प्रात्म-विकास है। मस्तिष्क-विकास परित्र-विकास के मध्य से ही प्रात्म-विकाम तक पहुंच जाता है, इसलिए चरित्र-विकास दोनो के बीच की कडी है।
१ अनुकूल प्रवृत्ति २ पक्षपात ३ जगह-जगह ४ जाति उपजातियो के बन्धनो में।
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२१२ ]
समाज सम्बोधन
दुर्भाग्य जैन समाज, तेरा, क्या दशा यह हो गई । कुछ भी नही अवशेष, गुण- गरिमा सभी तो खो गई । शिक्षा उठी, दीक्षा उठी, विद्याभिरुचि जाती रही । अज्ञान दुव्र्व्यसनादि से मरणोन्मुखी काया हुई ||
वह सत्यता, समुदारता तुझमे नजर पड़ती नही । दृढता नही, क्षमता नही, कृतविज्ञता कुछ भी नहीं ॥ सब धर्मनिष्ठा उठ गई, कुछ स्वाभिमान रहा नही | भुजबल नही, तप बल नही, पौरुप नही, साहस नही ॥
क्या पूर्वजो का रक्त, श्रव तेरी नसो में है कही ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नही । ठडा हुआ उत्साह सारा, श्रात्मवल जाता रहा । उत्थान की चर्चा नही, अब पतन ही भाता रहा ॥
पूर्वज हमारे कौन थे ? वे कृत्य क्या-क्या कर गये ? किन-किन उपायो से कठिन भव सिन्धु को भी तर गये ? रखते थे कितना प्रेम वे निज धर्म-देश-समाज से ?
परहित मे क्यो सलग्न थे, मतलब न या कुछ स्वार्थ से ?
क्या तत्व खोजा था उन्होने श्रात्म जीवन के लिये ? किस मार्ग पर चलते थे वे अपनी समुन्नति के लिये ? इत्यादि बातो का नही तव व्यक्तियो को ध्यान है ।
वे मोह - निद्रा मे पडे, उनको न अपना ज्ञान है ॥
सर्वस्व यो खोकर हुआ तू दीन, हीन, अनाथ है । कैसा पतन तेरा हुआ, तू रूढियो का दास है ॥ ये प्राणहारि-पिशाचिनी, क्यो जाल में इनके फँसा ।
पिण्ड तु इनसे छुडा, यदि चाहता अब भी जिया ||
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जिस आत्मबल को तू भुला बैठा उसे रख ज्ञान में । क्या शक्तिशाली ऐक्य है, यह भी सदा रख ध्यान मे ॥ निज पूर्वजो का स्मरण कर, कर्तव्य पर आरूढ हो ।
बन स्वावलम्बी गुण-ग्राहक कप्ट मे न अधीर न हो ।।
सदृष्टि-ज्ञान-चरित्र का सुप्रचार हो जग मे सदा । यह धर्म है, उद्देश है, इससे न विचलित हो कदा ॥ 'युगवीर' वन यदि स्वपरहित मे लीन तू हो जायगा ।
तो याद रख, सब दुख-सकट शीघ्र ही मिट जायगा ।।
साधु-विवेक
असाधु वस्त्र रंगाते, मन न रंगाते, कपट-जाल नित रचते है । हाथ ! सुमरनी पेट कतरनी, परधन-वनिता तकते है ।। पापा पर की खबर नही, परमार्थिक बातें करते है । ऐसे ठगिया साधु जगत की, गली-गली मे फिरते है।
साधु राग, द्वेप जिनके नहिं मन मे, प्रायः विपिन बिचरने है। क्रोध, मान, मायादिक तज कर, पच महाव्रत धरते हैं। ज्ञान-ध्यान मे लीन चित्त, विपयो मे नही भटकते है ।
वे है साघु, पुनीत, हितपी, तारक जो खुद तरते है ॥
वास्कोडिगामा द्वारा किये गये उल्लेखो से यह बात पूर्ण रूप से विदित हो जाती है कि, मालाबार प्रान्त के समुद्री किनारे पर उस समय जो वस्ती थी वह न कभी हिंसा करती थी, इतना ही नही किन्तु समुद्र के किनारे पर रहने पर भी माम मच्छी प्रादि के माहार को निपिद्ध ही माननी थी । इस वस्तु स्थिति से अनुमान होता है कि वह प्रणा जैनधर्मी ही होनी चाहिए, जिसका प्रभाव तमाम प्रजा पर पूर्ण रूप से पटा था। इसके उपरात जैनधर्म के सम्बन्ध मे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय के अनेक उल्लेख मि. कोल बुक की डायरी में पाये जाते है।
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२१४ ]
जैन सम्बोधन
जनियो । किस घुन में हो तुम क्या खबर कुछ भी नही । हो रहा ससार मे क्या, ध्यान कुछ इस पर नही ! म्लेच्छ और अनार्य जिनको, तुम बताते थे कभी; देख लो किस रंग मे है, आज वे मानव सभी ॥ १ ॥
और अपनी भी अवस्था का मिलान पूर्व थी वह क्या ? हुई अव क्या ? है कहाँ वह ज्ञान-गौरव, राज्य-वैभव आपका ? वह कहाँ वहु ऋद्ध्यलकृत तप, विनाशक पाप का ?२ ॥
करो जरा । विचार करो जरा ॥
वृष अहिंसा आपका वह उठ गया किस लोक में ? प्रेम पावन आपका सव, जा वसा किस थोक मे ? है कहाँ वह सत्यता, मृदुता, सरलता आपकी ? वह दयामय दृष्टि और परार्थपरता सात्विकी १३ ॥
पूर्वजो के धैर्य-शौर्योदार्य-गुण, तुम मे कहाँ ? है कहीं वह वीरता, निर्भीकता, साहस महा ? बाहुबल को क्या हुआ ? रणरग- कौशल है कहाँ ? हो कहा स्वाधीनता, दौर्बल्य शासन हो जहाँ १४ ||
वे विमान कहाँ गये ? कुछ याद है उनकी कथा ? बैठ जिनमे पूर्वजो को, गगन पथ भी सुगम था ? है कहाँ निर्वाह प्रण का ? और वह दृढता कहाँ ? शीलता जाती रही, दु.शीलता फैली यहाँ ? ५||
उठ गई सब तत्व चर्चा, क्या प्रकृति बदली सभी
स्वप्न भी, निज अभ्युदय का, जो नही श्राता कभी ! खो गया गुण-ग्राम सारा, धर्मधन सब लुट गया ! श्रख तो खोलो जरा देखो सवेरा हो गया || ६ ||
धर्म-निष्ठर पर बिराजी, रूढियाँ श्राकर यहाँ, धर्म ही के वेष में, जो कर रही शासन महा । थी बनाई तुम्ही ने ये, निज सुभीते के लिए, बन गये पर अब तुम्ही, इनकी गुलामी के लिए ॥७॥
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देखिये, मैदाने उन्नति में कुलाचे भर रहे, कौन हैं, निज तेज से विस्मित सवो को कर रहे ? नव नवाविष्कार प्रतिदिन, कौन कर दिखला रहे ?
देव दुष्कर कार्य विद्य त-शक्ति से करवा रहे ?||
हो रहा गुणगान किनके, यह कला-कौशल्य का ? बज रहा है दुन्दुभी, विज्ञान-साहस शौर्य का? कौन है ये वन रहे, विद्या-विशारद आजकल ?
नीतिविद, सतकर्म शिक्षक, पथ-प्रदर्शक आजकल ?।।
सोचिये, ये है वही, कहते जिन्हे तुम नीच थे, धर्मशून्य असभ्य कह कर आप बनते ऊंच थे। सद्विचाराचार के जो, पात्र भी न गिने गये,
नहा डाला उसी दम यदि, कभी इनसे छू गये ॥१०॥
अनवरत उद्योग से औ, आत्मवल विस्तार से, अभ्युदय इनका हुआ है, प्रवल एक्य विचार से । स्वावलम्बन से इन्हे जो, सफलता अनुपम मिली, शोक ! उसको देख करके, सीख तुमने कुछ न ली ॥११॥
मात्म-बल गौरव गवाया, भूल शिथिलाचार मे, फंस गये हो वेतरह तुम, जाति-भेद-विचार में। साथ ही अपरीतियो का जाल है भारी पडा;
हो रहा है कर्मबन्धन से भी यह बन्धन कड़ा ॥१२॥
तोड़ यह बन्धन सकल, स्वातन्त्र्यवल दिखलाइये; लुप्त गौरव जो हुआ, उसको पुन. प्रकटाइये । पूर्वजो को कीति को वट्टा लगाना क्या भला ?
सच तो यो है, व मरना ऐसे जीवन से भला ॥१३॥
जातिया, अपनी समुन्नति-हेतु सब चचल हुई; पर न आया जोश तुम मे, क्या रगें ठिठरा गई ? पुरुष हो, पुरुषार्य करना, क्या तुम्हे आता नहीं ?
पुरुष-मन पुरुषार्थ से, हरगिज न धवराता कही ॥१४॥
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जो न याता हो तुम्हे वह दूसरो से सीख लो ;
अनुकरण कहते किसे, जापानियों से सीख लो । देखकर इतिहास जग के, कुछ करो शिक्षा ग्रहण, हो न जिससे व्यर्थ ही ससार मे जीवन-मरण || १५ ||
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छोड दो सकीर्णता, समुदारता धारण करो, पूर्वजो का स्मरण कर, कर्तव्य का पालन करो । श्रात्मवल पर जैन वीरो हो खड़े बढ़ते रहो ; हो न ले उद्धार जब तक, 'युग प्रताप' बने रहो ||१६||
प्रार्थना
हृदय हो प्रभु, ऐसा वलवान । विपदाएँ घनघोर घटा सी, उमडें चहुँ दिशि आन । पर्वत - ऊपर पतित विन्दु-सी, झेलू मन सुख मान ॥ १ ॥
असफल होकर सहस बार भी, मन को करूं न म्लान । लक्ष गुणित उत्साह घार कर, करूं कार्य प्रण ठान | ॥२॥
पूर्ण श्रात्म कर्तव्य करूं या, खुद होऊँ वलिदान । सन्मुख ज्वलित अग्नि भी लखकर, ह" न शका ठान ॥३॥
करो स्तवन परिहास करो था, यह ससार प्रजान । सत्य मार्ग को इच न छोड़, भय नही लाऊँ ध्यान ॥४॥
विकसित नरम रवरूप करूँ निज, वल का अतुल निधान । तनवल धनबल तृणवत समझ, घई नही अभिमान ||५||
(3)
जो जितना अधिक नियन्त्रणहीन होता है, वह उतना ही अधिक अपने आस-पास मर्यादा
का जाल बुनता है | हमारा घर साफ-सुथरा होगा तो पडोसी को उससे दुर्गन्ध नही मिलेगी । हम अहिंसक रहेगे तो पडोसी को हमारी ओर से क्लेश नही होगा ।
दूसरो को कष्ट न हो इसलिए हम अहिंसक रहे, अहिंसा का यह सही मार्ग नही है ।
हमारे मन मे किसी को कष्ट देने की भावना ही न हो ।
मैत्री, प्रमोद, करुणा र माध्यस्थ अहिंसा की चार भावनाये हैं।
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हृदयोद्गार कव पायगा वह दिन कि बनू साधु विहारी ॥टेक॥ दुनिया मे कोई चीज मुझे थिर नही पाती,
और मायु मेरी यो ही तो है बीतती जाती। मस्तक पै खडी मौन, वह सब ही को है भाती, राजा हो, चाहे राणा हो, हो रक भिखारी ॥१॥ कब०
सपत्ति है दुनिया की वह दुनिया में रहेगी, काया न चले साथ, वह पावक मे दहेगी। इक ईट भी फिर हाथ से हगिज़ न उठेगी,
वगला हो चाहे कोठी हो, हो महल अटारी ।।२।। कव. बैठा है कोई मस्त ही, मसनद को लगाये, मागे है कोई भीख फटा वस्त्र विछाये । अधा है कोई, कोई, बधिर हाथ कटाये, व्यसनी है कोई मस्त, कोई भक्त पुजारी ॥३॥ कव.
खेले है कई खेल, धरे रूप घनेरे; स्थावर मे सो मे भी किये जाय न सेरे। होते ही रहे है यो सदा शाम सवेरे,
चक्कर मे घुमाता है सदा कर्म मदारी ॥४॥ कब० सब ही से मैं रक्खू गा सदा दिल की सफाई, हिन्दू हो, मुसलमान हो, हो जैन ईसाई । मिल-मिल के गले बाँटेगे हम प्रीति मिठाई, आपस मे चलेगी न कभी द्वेष-कटारी ॥५॥ कव०
सर्वस्व लगाके मैं करूं देश की सेवा, घर-घर पे मै जा-जा के रखू ज्ञान का मेला । दुखो का सभी जीवो के हो जायगा छेवा,
भारत मे न देखू गा कोई मूर्ख-अनारी ॥६॥ कब जीवो को प्रमादो से कभी मै न सताल, करनी के विषय देव है, अब न लुभाऊ । ज्ञानी हू सदा ज्ञान की मैं ज्योति जगाऊँ, समता मे रहूगा मैं सदा शुद्ध-विचारी ॥७॥ कब०
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सफल जन्म मत झिझको, मत दहलामो, यदि बनना महामना है। जो नही किया वह 'पर' है, कर लिया वही 'अपना' है। दो दिन का जीवन-मेला, फिर खडहर-सी नीरवतायश-अपयश बस, दो ही है, बाकी सारा सपना है ॥ दो पुण्य-पाप रेखाये, दोनो ही जग की दासी । है एक मृत्यु सी : घातक, दूसरी सुहृद् माता-सी ॥ जो ग्रहण पुण्य को करता, मणिमाला उसके पडती । अपनाता जो पापो को, उसकी गर्दन में फांसी ।। इस शब्द कोष में केवल, है 'आज' न मिलना 'कल' है । 'कल' पर जो रहता है वह, निरुपाय और निवल है । यह पराक्रमी-मानव है, जो 'कल' को 'भाज' बनाकरक्षणभगुर विश्व-सदन मे, करता निज जन्म सफल है।
वीर निर्वाण
फिर सरसता जग उठी है प्राण में सचरित होकर । मानसर मे भर रहा है कौन यह जीवन निरन्तर ?
फिर नया सा हो रहा है रोम-रोम प्रदीप्त प्रमुदित ।
बज, उठेगी उल्लसित हो आज हत्तत्री कदाचित । लग रहा है और कुछ ही-माज मुझको दिव्य जीवन । आज मानो लहलहाया-हो शतोमुख विश्व-उपवन ।।
प्राण के प्रत्येक कण में प्राप्त-व्याप्त नवीनता है।
मग्न हो, जयकेतु बन, फहरा रही स्वाधीनता है ।। हाँ, इसलिये . मानन्द है सर्वत्र खग-नर-देव-घर । आज पाया है महाप्रभु–'वीर' ने निर्वाण गुरुतर ॥
पावश्यक हिंसा को अहिंसा मानना चिन्तन का दोष है । हिंसा आखिर हिंसा है। यह दूसरी बात है कि आवश्यक हिंसा से वचना कठिन है । गृहस्थी सकल्पी हिंसा का त्यागी होता है।
आत्म-तोष का एकमात्र मार्ग प्रात्म-सयम है। दोनो का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। प्राणी सयम और इन्द्रिय सयम दो प्रकार का है। २१८]
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नवयुवकों से नम्र निवेदन
कौम की खातिर खुशी से सर कटाना चाहिये । मर्द मैदा बनके दुनिया को दिखाना चाहिये ॥१॥
अपने रुख से परद-ए गफलत उठाना चाहिये। तालिवानेदीद' को जलवा दिखाना चाहिये ॥ २॥
राग से मतलव न जिसको वास्ता हो देश से । उसके आगे हमको अपना सर झुकाना चाहिये ॥३॥
इक दया ही धर्म है ले जायगा जो मोक्ष मे । जैन का यह फलसफा सबको सिखाना चाहिये ।।४।।
धर्म से अपने पतित जो हो चुका हो दोस्तो ! फिर नये सर से उसे जैनी बनाना चाहिये ॥५॥
खाकसारी की दलील इससे कोई वढकर नहीं। कीनो वुगजो हसद दिल से मिटाना चाहिये ॥६॥
देखते हैं आजकल गैरो को हम सीनासिपर । ऐ जैनियो मैदान में तुमको भी आना चाहिए ।। ७ ॥
जा रहे है अपने भाई गैर की आगोश में । शर्म की जा है, उन्हें अपना बनाना चाहिये ॥८॥
काटती है 'दास' क्योकर पाप के बन्धन को वे। जैन की तलवार का जौहर दिखाना चाहिये ॥९॥
मात्मा का पतन न हो इसलिए हिंसा न करें, यह है अहिंसा का सही मार्ग ! कष्ट का बधाव तो स्वय हो जाता है।
१. देखने के इच्छुक २. धर्म, तालीम ३. नम्रता ४-५-६ दूसरे से जलना ७ गोद ।
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करो कुछ काम दुनिया में अहिंसा धर्म का हर घर मे गर प्रचार हो जाए। तो प्यारा स्वर्ग से बढकर यही ससार हो जाए ॥ १ ॥
करो वो काम दुनिया मे कि पर-उपकार हो जाए। तुम्हारे साथ औरो का भी वेडा पार हो जाए ॥ २ ॥
जो प्यासा है लहू का, फ्यो न वोह गमस्वार हो जाए। रवा दुनिया मे पर-उपकार को जब धार हो जाए ॥ ३ ॥
न जख्मी हो कोई उससे न वोह तलवार हो जाए । मगर फिर भी जो निकले मुह से दिल के पार हो जाए ॥४॥
अहिंसा धर्म की रगीनियो' में बूए उल्फत है। ये वो मय है पिए जो उम्र भर सरशार हो जाए ।।५।।
अगर औरो के दौगम को अपना दर्दोगम समझें । अहिंसा धर्म की नय्या भवर से पार हो जाए ।। ६॥
रह ऐ 'दास' माथे पर न फिर टीका गुलामी का । अगर भारत हमारा नीद से वेदार' हो जाए ।। ७ ।।
धर्म एक प्रवाह है । सम्प्रदाय उमका बांध है । बांध का पानी सिंचाई और अन्य कार्यों के लिए उपयोगी होता है। वैसे ही सम्प्रदाय से धर्म सर्वत्र प्रवाहित होता है । इसके विपरीत सम्प्रदायो मे कट्टरता, सकीर्णता पा जावे, तो यह केवल स्वार्थ-सिद्धि का अग वनकर कल्याण के स्थान पर हानिकारक और प्रापसी सघर्प पैदा करने वाला हो जाता है ।
शोपण का द्वार खुला रखकर दान करने वाले की अपेक्षा अदानी बहुत श्रेष्ठ है, चाहे वह एक कोडी भी न दे।
__ मनुष्य अपनी गलती को नहीं देखता, दूसरे की गलती को देखने के लिए सहस्राक्ष बन जाता है । अपनी गलती देखने के लिए जो प्रांखें है, उनको भी मूद लेता है।
१ खूबिया २ शराब ३ बेहोशी ४ जागना । २२०1
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धनिक सम्बोधन
भारत के धनिको ! किस धुन में, पडे हुए हो तुम वैकार ? अपने हित की खबर नही, या नही समझते जग व्यवहार ? अन्धकार कितना स्वदेश में, छाया देखो प्रांख उघार । बिलबिलाट करते हैं कितने, सहते निश दिन कष्ट अपार ॥
कितने वस्त्रहीन फिरते है, क्षुत्पीडित है कितने हाय ! धर्म-कर्म सब बेच दिया है, कितनो ने होकर असहाय !! जो भारत या गुरु देशो का, महामान्य, सत्कर्म प्रधान । गौरवहीन हुम्रा वह, वन कर पराधीन, सहता अपमान ॥
क्या यह दशा देख भारत की, तुम्हे न भ्राता सोच-विचार । देखा करो इसी विधि क्या तुम, पडे-पडे दुख-पारावार ॥ धनिक हुए जिसके घन से क्या, योग्य न पूछो उसकी बात ! गोद पले जिसकी क्या उस पर देखोगे होते उत्पात !!
भारतवर्षं तुम्हारा, तुम हो भारत के सत्पुत्र उदार । फिर क्यो देश-विपत्ति न हरते करते इसका वेडा पार ॥ पश्चिम के घनिको को देखो, करते है वे क्या दिन-रात । और करो जापान देश के, धनिको पर कुछ दृष्टिनिपात ||
लेकर उनसे सबक स्वधन का, करो देश उन्नति-हिव त्याग । दो प्रोत्साहन उन्हें जिन्हे है, देशोन्नति से कुछ अनुराग ॥ शिल्पकला विज्ञान सीखने, युवको को भेजी परदेश | कला - सुनिक्षालय खुलवाकर, मेटो सब जनता के क्लेश ||
कार्य-कुशल विद्वानो से रख प्रेम, समझ उनका व्यवहार । उनके द्वारा करो देश मे, वहु उपयोगी कार्य प्रसार ॥ भारत हित सस्थायें खोलो, ग्राम-ग्राम मै कर सुविचार । करो सुलभ साधन वे जिनसे उन्नत हो अपना व्यापार ॥
चक्कर मे विलासप्रियता के, फँस मत भूलो अपना देश | प्रचुर विदेशी व्यवहारो से करो न अपना देश विदेश | लोक दिखावे के कामो मे होने दो नहि शक्ति-विनाश । व्यर्थ व्ययो को छोड, लगो तुम, भारत का करने सुविकाश ॥
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वैर-विरोध, पक्षपातादिक, ईर्पा, घृणा सकल दुष्कार । रह न सकें भारत मे ऐसा, यरल करो तुम धन समुदार। शिक्षा का विस्तार करो यो, रहे न अनपढ कोई शेप ।।
सब पढलिख कर चतुर वनें प्रो, समझे हित-अनहित सविशेष ॥ करें देग उत्थान सभी मिल, फिर स्वराज्य मिलना क्यो दूर? पैदा हो 'युगवीर' देश मे, तब क्यो रहे दशा दुस्ख-पूर ॥ प्रवल उठे उन्नति-तरग तब, देखें सब भारत-उत्कर्ष । धुल जावे सब दोप कालिमा, मुखपूर्वक दिन कटें सहर्ष ॥
धर्म-स्थिति निवेदन
कहाँ वह जनधर्म भगवान ! जाने जग को सत्य सुझायो, टालि अटल अजान । वस्तु-तत्व पै कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान ।। कहाँ० ॥
साम्यवाद को प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान ।
नीच ऊँच निरधनी-धनी पै, नाकी दृष्टि समान ।। कहाँ० ॥ देवतुल्य चाण्डाल बतायो, जो है समवित वान । शूद्र, म्लेच्छ, पशुहू ने पायो, समवशरण में स्थान । कहाँ० ॥
सती-दाह, गिरिपात, जीव वलि, माशासन मद-पान ।
देव मूढता प्रादि मेटि सब, कियो जगत कल्यान । कहाँ०॥ कट्टर वैरी ह जाकी-क्षमा, दयामय वान । हठ तजि, कियो अनेक मतन को, सामजस्य-विधान ।। कहाँ० ॥
अब तो रुप भयो कछु औरहि, सकहिं न हम पहिचान । समता-सत्य-प्रेम ने इक सग, यातें कियो पयान ॥ कहाँ० ।।
जीवन सरस भी है, नीरस भी है । सुख भी है, दुख भी है । सुख कुछ भी है, कुछ भी नही है । नीरस को सरस, दु ख को मुख, कुछ भी नहीं को सब बनाने वाला कलाकार है।
पदार्थ प्राप्ति पर जो मानन्द मिलता है, वह तो क्षणिक होता है ।"किन्तु वस्तुनिरपेक्ष मानन्द ही स्थायी होता है। २२२ ]
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उपदेशिक ढाला
(देशी - जब वक्त पड़ा तब कोई नहीं)
अब मोह नीद से उठ चेतन, क्यू भूल रहा जोबन धन मे । तेरे सुख के साथी मात-पिता, सुत-वाघव सोच जरा मन मे ॥
नर जन्म अमूल्य मिला तुझको, क्यो सोय रहा सुख चैनन में । कर ले अव तो सत्सग जरा, समझाय रहे गुरु सैनन मे ॥१॥
तेरा कुटुम्ब कवीला स्वारथ का, विन स्वास्थ देत दगा खिन में । यह चाँदनी चेतन दो दिन की, बिन काम लुभाय रहा किन में ॥२॥
दिन खेल-कूद मे खोय दिया, नही धर्मं किया बालापन में । प्रभु का गुन गान किया न कभी, विपया वश हो भर जोवन मे || ३ ||
हय हाथी ऊपर केल करा, रग-रेल करा चढ स्यदन मे । चरचा तन केशर चन्दन में, नहीं चित्त दिया गुरु वन्दन मे ||४|| अव वृद्ध भया कच श्वेत भया, कफ वाय मे घेर लिया छिन में । तेरी डगमग नाडी डोल रही, मनु कम्पन वाय हुआ तन मे ||५||
गये रावण विक्रम भोज वली, प्रजली मनु होरी फागन मे । उस मौज का खोज रहा न रती, नर तू मूली किस वागन मे ||६|| दया धर्म का संग्रह तू कर ले, घर ले गुरु शिक्षा कानन मे । कहा सोहन उत्तम धर्म यही, जिन आगम वेद पुरानन मे ||७||
लोग सयम को निषेधात्मक मानते है, पर वह जीवन का सर्वोपरि क्रियात्मक पक्ष है ।
जिसकी चाह नही है, उसकी राह सामने है और जिसकी चाह है, उसकी राह नही है । मान का मनुष्य विपर्यय की दुनिया में जी रहा है । चाह सुख की है, कार्य दु.ख के हो रहे है ।
सुख का हेतु अभाव भी नही है और प्रति भाव भी नही है । सुख का हेतु स्वभाव है ।
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नीच और अछूत
नाली के मैले पानी से मे बोला हहराय, हौले वह रे नीच कही तू मुझ पर उचट न जाय ।
'भला महाशय' कह पानी ने भरी एक मुसकान, बहता चला गया गाता सा एक मनोहर गान ॥
एक दिवस में गया नहाने किसी नदी के तीर, ज्योही जल ग्रञ्जलि मे लेकर मलने लगा शरीर ।
त्योही जल वोला में ही हू उस नाली का नीर; लज्जित हुआ, काठ मारा सा मेरा सकल शरीर ॥ २ ॥
संतुलन तोडी मुँह मे डाली वह बोली मुसकाय, श्रह महाशय । बढी हुई मे नाली का जल पाय ।
फिर क्यो मुझ अछूत को मुँह मे देते, हो महाराज सुन कर उसके बोल हुई हा ! मुझको भारी लाज ॥ ३॥
खाने को बैठा भोजन मे ज्योही डाला हाथ; त्योही भोजन बोल उठा चट विकट हँसी के साथ ।
11
नाली का जल हम सबने किया एक दिन पान, अतः नीच हम सभी हुए फिर क्यो खाते श्रीमान ॥ ४ ॥
एक दिवस नभ में प्रभ्रो की देखी खूब जमात; जिससे फडक उठा हर्षित हो मेरा सारा गात ।
1
यो गाने लगा कि आनो अहो | सुहृद घन वृन्द । बरसो, शस्य बढाओ, जिससे हो हमको श्रानन्द || ५ ||
वे बोले, हे बन्धु, सभी हम है अछूत श्री नीच; क्योकि पनाली के जल कण भी है हम सबके बीच ।
कही अछूतो मे ही जाकर बरसेंगे जी खोल, उनके शस्य बढेगे, होगा उनको हर्ष अतोल ॥ ६ ॥
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मै बोला, मे भूला था, तब नही मुझे था ज्ञान; नीच - ऊंच भाई-भाई है भारत की सन्तान ।
होगा दोनो विना न दोनों का कुछ भी विस्तार, अव न करूंगा उनसे कोई कभी बुरा व्यवहार ॥ ७ ॥
वे बोले यह सुमति आपकी करे हिन्द का त्राण, उनके हिन्दू रहने मे है भारत का कल्याण ।
उनका प्रव न निरादर करना, बनना भ्रात, उदार, भेदभाव मत रखना उनसे करना मन से प्यार ॥ ८ ॥
क्रान्ति-पथे
तोडो मृदुल वल्लकी के ये सिसक-सिसक रोते से तार, दूर करो सगीत कुण्ड से कृत्रिम फूलो का गार
भूलो कोमल, स्फीत-स्नेह-स्वर भूलो क्रीडा का व्यापार, हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियो का अभिनय आगार ।
भैरव शखनाद की गूज फिर-फिर वीरोचित ललकार, मुरझाए हृदयो मे फिर से उठे गगन भेदी हुकार ।
धधक उठे अन्तस्तल मे फिर क्रान्ति गोतिका की झकारविह्वल, विकल, विवश पागल हो नाच उठे उन्मद ससार ।
दीप्त हो उठे उरस्थली मे भाशा की ज्वाला साकार, नस-नस में उद्दण्ड हो उठे नवयोवन रस का सचार |
तोडो वाद्य, छोड दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार, प्रागे है अव युद्ध क्षेत्र- फिर, उसके आगे कारागार ।
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व्रती समाज की कल्पना जितनी दुरुह है, उतनी व्रत ही नही लेता, पहले वह विवेक को जगाता है। कठिनाइया झेलने की क्षमता पैदा करता है। प्रवाह के फिर वह व्रत लेता है ।
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सी सुखद है। व्रत लेने वाला कोरा श्रद्धा और सकल्प को दृढ़ करता है । प्रतिकूल चलने का साहस लाता है;
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चेतावनी
चैत चतुर नर कहै तन सतगुरु, किस विधि तू ललचाना है। तन धन यौवन सर्व कुटुम्बी, एक दिवस तज जाना है। चे० ॥१॥ मोह माया को बडो जाल है, जिसमे तू लोभाना है। काल आहेरी चोट पाकरी, ताक रह्यो नीशाना है। चे० ॥२॥ काल अनादि रो तू ही रे भटक्यो, तो पिण अन्त न माना है। चार दिना की देख चादनी, जिसमे तू लोभाना है। चे० ॥३॥ पूर्व भवरा पुण्य योग थी, नरकी देही पाना है। मास सवा नौ रहा गर्भ मे, उन्ध मुख झूलाना है। चे० ॥४॥
मल-मूत्र की अशुचि कोथली, माहे साकड दोना है। रुधिर शुक्रनो माहार अपवित्र, प्रथम पड़े ते लीना है। चे० ॥५] ऊट क्रोड सुई सार की, ताती कर चोभाना है। तिण सू प्रष्ट गुणी वेदना गर्भ में, देख्या दुख प्रसमाना है । चे० ॥६॥ बालपणो थे खेल गंवायो, यौवन मे गर्वाना है। भष्ट प्रहर कीधो मद मस्ती, खोटी लाग लगाना है । चे०॥७॥
रगी चगी राखत देही, टेढी चाल चलाना है। पाठ प्रहर कीधो घर धन्धो, लग रहा पार्तध्याना है । चे० ॥८॥ मात-पिता-सुत बहिन-भाणजी, तिरिया सू दिल लीना है। वे नही तेरे तू नही उनका, स्वार्थ लगी सगीना है । चे० ॥६॥ अर्थ अनर्थ करी धन मेल्यो, घणा सू बैर बंधाना है। लक्ष्मी तो तेरे लार न चलसी, यहां की यहा रह जाना है । चे० ॥१०॥
ऊचा-ऊंचा महल चिणाया, कर घना कारखाना है। घडी एक राखत नहि घर में, चालत जाय मशाना है । चे० ॥११॥ धर्म सेती द्वेप न धरना, परभव सेती डरना है। चित्त प्रापनो देख मुसाफिर, करनी सेती तरना है । चे० ॥१२॥
छिन-छिन में तेरी आयु घटत है, अञ्जली जैसे झरना है। कोडो यत्न करे बहुतेरा, तो पिण एक दिन मरना है। घे० ॥१३॥
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जैन धर्म की प्राचीनता
इस धर्म की प्राचीनता के चिह्न मिलते जा रहे । उपलब्ध मथुरा-स्तूप और उदय-गिरी बतला रहे ।।
प्राचीनता इसकी जगत भर कर रहा स्वीकार है।
इस धर्म का ही इस दिशा मे गत ऋणी ससार है ॥१॥ हाँ जब न पृथ्वी पर कहीं भी बौद्ध-वैदिक धर्म थे। कल्याण-प्रद सर्वज्ञ तब इस धर्म के शुभ कर्म थे।
जितने पुराने जैन मन्दिर आज मिलते है यहाँ ।
उतने पुराने बोलिये अन्यत्र मिलते है कहाँ ॥२॥ था राष्ट्र-धर्म कभी यही सिद्धान्त अति अभिराम थे। वलवान थे, वरदान थे, गुणधाम थे, शिवधाम थे ।।
इस धर्म का ही मुख्यत ध्रुव केन्द्र भारतवर्ष था।
यह शान में विज्ञान में सबमे प्रथम उत्कर्ष था ॥३॥ चमका न धर्मादित्य केवल सर्व हिन्दुस्तान मे । फैली प्रभा दूरस्थ इसकी एगिया यूनान मे॥
कार्थेज-अफ्रीका तथा मिश्रादि रोम फिनीशिया ।
जाकर वहाँ तक भी सदैव निवास जनो ने किया ॥४॥ - जग के पुरातन वेद भी अस्तित्व इसका मानते । इतिहासवेत्ता धर्म की प्राचीनता को जानते ॥
जो बौद्धमत से जैनियो की मानते उत्पत्ति को । निष्पक्ष हो देखे तनिक इतिहास की सम्पत्ति को ॥५॥
रत्नत्रय अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है । मानवजीवन की सफलता रत्नत्रय के पाने में है।
• पहले-पहल बुराई करते घृणा होती है, दूसरी सकोच, तीसरी वाद निःसंकोचता मा जाती है और चौथी बार ये साहस बढ़ जाता हैं।
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हम और हमारे पूर्वज जैसे हमारे पूज्य थे उनकी न हम में गन्ध है। रहते हुए सम्बन्ध भी उनसे न अब सम्बन्ध है । वे कौन थे क्या कर गये इसको भुलाया सर्वथा। आडम्बरो ने प्राण' तो हमको लुभाया सर्वथा ॥१॥ उनकी कथाओं पर कभी विश्वास भी आता नही। उनका सुखद वह नाम भी अब कान को भाता नही ।। उनके अलौकिक कार्य को हम आज मिथ्या मानते । अपने हिताहित को तनिक भी हम नही पहचानते ॥२॥ पूर्वज प्रबल रणवीर थे तो आज हम गृहवीर है । वे क्षीर थे विख्यात तो हम आज खारे नीर है। जीवन बिताते थे सकल अपना परम पुरुषार्थ मे। हम भी बिताते आज जीवन को यहाँ पर-स्वार्थ मे ।।३।। वे चाहते थे लोक में सबका सतत उपकार हो। हम चाहते है एकदम सबका महासहार हो । उनके सदा इच्छा रही नित दूसरे उन्नत बने । लिप्सा हमारी है यही नित दूसरे अवनत बने ॥४॥ वे थे जगत के रत्न अनुपम हम न पद की धूल है। वे फूल थे मकरन्दयुत पर हम न किंशुक फूल है ॥
लोक्य के वे चन्द्रमा थे पर न हम नक्षत्र है। पूर्वज हमारे प्रेम से पुजते रहे सर्वत्र है ॥५॥
विचार के अनुरूप ही आचार बनता है अथवा विचार ही स्वय आचार का रूप लेता है।
आचार-शुद्धि की आवश्यकता है, उनके लिए विचार-क्रान्ति चाहिए। उसके लिए सही दिशा मे गति, और गति के लिए जागरण अपेक्षित है ।
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लाला तनसुखराय जी को ये कविताये और भजन अत्यत प्रिय थे । वे इन कवितामो से प्रकाश ग्रहण करते थे। उन्होने अपने हाथ से लिखकर इन सब कविताओ को बड़े प्रेम से सजोकर रक्खा था। २३०॥
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सद्धर्म सन्देश
मन्दाकिनी दया की जिसने यहाँ बहाई, हिंसा कठोरता की, कीचड़ थी धो बहाई । समता-सुमित्रता का ऐसा अमृत पिलाया, द्वषादि रोग भागे, मद का पता न पाया। उस ही महान प्रभु के, तुम हो सभी उपासक, उस वीर धीर जिनके सद्धर्म के प्रचारक । अतएव तुम भी वैसे बनने का ध्यान रक्खो, आवर्ण भी उसी का, आँखो के आगे रक्खो ।। सकीर्णता हटामो, दिल को बड़ा बनामो,निज कार्य-क्षेत्र की प्रव, सीमा को कुछ वढामो। सब ही को अपना समझो, सबको सुखी बनादो, औरो के हेतु अपने, प्रिय प्राण भी लगा दो। ऊंचा उदार पावन, सुख-शाति पूर्ण प्यारा । यह धर्म वृक्ष सवका, निजका नहीं तुम्हारा ।। रोको न तुम किसी को, छाया मे बैठने दो । कुल जाति कोई भी हो, सताप मेटने दो। जो चाहता हो अपना, कल्याण मित्र ! करना जगदेक बन्धु जिनकी, पूजा पवित्र करना। दिल खोल करके उसको, करने दो कोई भी हो, फलते है भाव सबके, कुल-जाति कोई भी हो। सतुष्टि शाति सच्ची, होती है ऐसी जिससे,ऐहिक-क्षुधा पिपासा, रहती है फिर नजिससे। वह है प्रसाद प्रभु का, पुस्तक-स्वरूप इसको, सुख चाहते सभी है, चखने दो चाहे जिसको । यूरुप अमेरिकादिक, सारे ही देश वाले, अधिकारी इसके सब है, मानव सफेद काले। अतएव कर सके वे, उपभोग जिस तरह से, यह बाँट दीजिए उन, सबको ही उस तरह से ।। ऐ धर्मरल धनिको । भगवान की प्रमानत, हो सावधान सुन लो, करना नहीं खयानत। दे दो प्रसन्न मन से, यह वक्त आ गया है, इस ओर सब जगत का, अव ध्यान जा रहा है। कर्तव्य का समय है, निश्चित हो न बैठो, थोथी बडाइयो मे, उन्मत्त हो न ऐंठो। सद्धर्म का सदेशा, प्रत्येक नारि-नर मे; सर्वस्व भी लगा कर फैला दो विश्व भर मै॥
प्रार्थना मुझे है स्वामी उस बल की दरकार । पड़ी खडी हो अमित अडचने, आड़ी अटल अपार ।
तो भी कभी निराश निगोडी, पटक न पावे द्वार ।। मुझे० ।।
सारा ही
ससार करे यदि, दुर्व्यवहार-प्रहार। . हटे न तो भी सत्य मार्ग-गत, श्रद्धा किमी प्रकार ।। मुझे० ॥
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२३२ ]
धन-वैभव की जिस श्रांधी से, अस्थिर सब संसार ।
उससे भी न कभी डिग पावे, मन वन जाय पहार || मुझे० ॥ असफलता की चोटो से नहि, दिल मे पडे दरार ।
अधिकाधिक उत्साहित होऊ, मानू कभी न हार ॥ मुझे० ॥ दुख-दरिद्रता - कृत अति श्रम से तन होवे बेकार ।
तो भी कभी निरुद्यम हो नहि, बैठूं जगदाधार । मुझे० ॥ जिसके प्रागे तन वल धन बल, तृणवत तुच्छ असार । महावीर जिन ! वही मनोबल, महामहिम सुखकार | मुझे० ॥
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समाज
पाठक अहिसा धर्म पर स्थित धर्म की भोत है । करना दया जी मात्र पर यह जैन धर्म पुनीत है ||
निज की दशा उल्लेख मे यह लेखनी बन कर्कशा ।
कैसे लिखे निज की घृणा मय दुखप्रद हा दुर्दशा ||१||
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जैसा अहिसा धर्म निज वक्तव्य मे रहता यहाँ । वैसा अहिंसा धर्म हा । कर्तव्य मे रहता कहाँ ? जल छानने मे बस समक्ष रक्खा महिला धर्म है । करते कुठाराघात नर पर हाय । कैसा कर्म है ॥२॥
श्रीमान् होकर हम अविद्या अन्धता के दास है ।
परमार्थ से प्रति दूर होकर स्वार्थता के पास है || निज पूजते है पीर पैगम्बर कुगुरु हित जान के ।
श्रद्धा हटी निज धर्म से मिथ्यात्व मग को मान के || ३ ||
उपहास मस्तक का हुआ जिससे न समझे तत्व को । हटग्राहिता धारण करे छोडा धवल सम्यक्त्व को ॥ होकर कलकी धर्म को हमने कलकित कर दिया |
वर्ण अनुपम में सदा को पाप अकित कर दिया ॥४॥
हम-सी अधम सन्तान से सद्धर्म- दीपक बुझ चला ।
श्रावक न होते और कुछ होते तभी होता भला ॥
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हत रूढियो को धर्म का रूपक बनाया आज है।
फमकर उसीमे जाति भी अब हो रही मुहताज है ॥५॥ हा | न्याय-नीति नियम नशाकर घोर हटधर्मी बने। परिणत किया जिन धर्म को सन्ताप शापो मे सने । सुनते न क्यो कहते यदपि उत्थान की निज वार्ता ।
भावी समुन्नति के लिए मन में न नेक उदारता || सोये बहुत हे वन्धुओ । अब शीघ्र ही जागो, उठो। अज्ञान निद्रा मोह कल्मष द्वेष को त्यागो उठो । इससे अधिक कुछ और मुझको आपसे कहना नही ।
श्रम से हमारी जाति उन्नति शीघ्र पा सकती सही ॥७॥
पूज्य पिता की जय जय जय जय जय महाघोप से गूजी, दशा दिशाये विश्व महान । पुण्य नीद से चकित इन्द्र ने, सुना श्री जिनवर का गान ॥ दिग्गज कॅप और दिगपालो ने, गुण-गौरव गान किये। पुण्यवान सर सेठ हुकमचन्द, युग-युग सौ-सौ वर्ष जिये । नेत्रहीन दीपक दिखलावे, जगमग दीपक वाले को। और पंगु यदि छूना चाहे, रजत ज्योति उजियाले को । नम के तारे गिन जाने का, पूर्ण हो सके यदि विज्ञान । तो शायद कोई कर पाये, पूज्य पिताश्री का गुणगान ।। किन्तु स्वय की लौह लेखनी, पर मेरा अधिकार नहीं। मही पूर्ण होगी यश गाथा, मौन रहूं स्वीकार नही ।। रोम-रोम पुलकित है मेरा, मेरा मुझे अपना भी भान । गाजे अपनी हृदय वीन पर, पूज्य पिताश्री का यशगान ।। त्याग किया जिसने इस जग मे, उसकी कीर्ति ध्वजा फहरी। राग और वैराग सभी ले, जिनकी जयति व्वजा लहरी ।। महिमामय कर्तव्यशील, औदार्य दुन्दुभी बाज रही। सहनशीलता, गुणग्राहकता गजारूढ हो गाज रही।
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नीतिकुशल चारित्रवान्, निर्भीक साहसी और विनीत । उत्साही अभिमान रहित, गम्भीर विवेकी और पुनीत ॥
धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, सब एक साथ तुमने सावे । साम दाम और दण्ड भेद से, जन समूह रक्ता बाँबे ॥
पुण्ययोग सब शुभ कर्मों के, तव चरणों पर न्यौछावर । और विब्द की धवल कीति सब, तुम्हे रिझाये त्याग प्रवर ॥
भरत चक्रवर्ती-सा वैभव, पाकर भी तुम अमल धवल । और उन्ही से पचम युग में, पत होन जल भिन्न कमल ||
श्री दीनो के प्राण, पीड़ितों के रक्षक, बावार महान । जैन जाति के मेरुदण्ड, यो विद्वद्गुण के मित्र प्रधान ||
अन्न, वस्त्र, प्रोपधि, चिक्षा के मुक्तहस्त दानी विद्वान | धर्मं दिवाकर श्री कुल भूषण, मूनिमान आदर्श महान ||
हम छोटे बालक सब तेरे, fast और निर्भीक रह रहे
श्रीचरणो की छाया में | इन्द्रजाल-सी माया मे ॥
तव प्रसाद मे हीरा भैया, होरा सम है ज्योतिर्मान । और हमारे छोटे भैया, भी उनमे ही कीरतिवान ॥
श्रात्म-ज्योति की जगी दीपिका, कचन-सी आभा पाकर । आत्मलीन हो गई आत्मा, प्रेमामृत धन बरसाकर ॥
आज प्रार्थना करते हम सब यह प्राणीप हमें भी दो । तेरे पदचिन्हों पर चल दें, हममें इतना बल भर दो ॥
प्रभु से इतनी विनय हमारी, व्येय तुम्हारा प्राप्त तुम्हे । तुमसी घवल कीर्ति श्री गरिमा, धर्म भाव हो प्राप्त हमे ॥
अवनि और अंवर तक छाये, इस गुण या गाथा की जय । गगन गुंजा दें हम सब मिलकर पूज्य पिता की जय जय जय ॥
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धर्म जो कि पुस्तको, मन्दिगे और मठो मे बन्द है, उसे जीवन मे लाना होगा। बिना जीवन में उतारे केवल ग्रास्तिकवाद को दुहाई देने मात्र से क्या होने वाला है ।
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महापुरुष जो विपत्ति में धर्य क्षमा रखते ऊँचे बन । जगत्प्रलोभन देख नहीं होते चचल मन ॥ सभा भूमि में वचन कुशल है गौरवशाली। युद्ध-भूमि में दिखलाते वीरता निराली ।।
सदाचार सन्याय पर मरने को तैयार है।
महापुरुष वे ही यहां ईश्वर के अवतार है ।। सम्पति पाई हर्ष नही पर माया मन मे। आई अगर विपत्ति क्षीणता नही वदन में ॥ सत्तू पावें कभी-कभी या मोदक पावे । पर घबरावें नही, नही मन मे इतरावे ।
ऐसी जिनकी रीति है पुरुष सदा वे धन्य है । उन समान सौभाग्य तो कभी न पाते अन्य है ।
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स्वदेश सन्देश महावीर के अनुयायी प्रिय पुत्र हमारे-श्वेताम्बर, टूढिया, दिगम्वर-पथी सारे । उठो सवेरा हो गया, दो निद्रा को त्याग, कुक्कु बांग लगा चुका, लगा वोलने काग ।
अंधेरा गत हुआ। उदयाचल पर बाल-सूर्य की लाली छाई; उपा सुन्दरी महो, जगाने तुमको आई। मन्द-मन्द बहने लगा, प्रात मलय-समीर,सभी जातियां है खडी, उन्नति-नद के तीर ।
लगाने डुबकियां ॥ उठो उठो इस तरह कहाँ तक पडे रहोगे, कुटिल काल की कडी धमकियां अरे । सहोगे। मेरे प्यारो । सिंह से, बनो न कायर स्यार, तन्द्रामय-जीवन बिता, बनो न भारत भार ।
शीघ्र शय्या तजो॥ मत इसकी परवाह करो क्या कौन कहेगा, तथा सहायक कौन, हमारे सग रहेगा। क्या चिंता तुम हो वही, जिसकी शक्ति अनत, जिसका आदि मिला नही, और न होगा अत।
अटल सिद्धान्त है।
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यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेगे आकर किन्तु शीघ्र ही भाग जायेगे धक्के खाकर । यदपि मिलेगे मार्ग मे, तुमको कितने शूल, पग रखते बन जायेंगे वे सबके सब फूल ।
यही आश्चर्य है ।
युद्ध स्वार्थ अथवा असत्य से करना होगा, जीने ही के लिए, तुम्हे अव मरना होगा। नव न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह, अव न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह ।
देह ममता तजो॥
सुनो-सुनो ! जो प्राज, कही साहस तुम हारे, डूबोगे यो, नही लगोगे कभी किनारे । तन-मन-धन से देश हित, करो प्रमाद विसार; सबके मग मिलकर सहो, भूख-प्यास या मार।
पुनः मानन्द भी॥ पिछड गये हो बहुत, लड रहे हो मापस मे, पकड़-पकड रूढियाँ, घोलते हो विष रस में । ऐसा ही करते रहो, तो विनाश है पास, वस भविष्य मे देयगा, तव-परिचय इतिहास ।
एक मृत जाति कह ॥
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लेखनी
हे लेखनी निर्भीक लिख दे कोम की असली दणा । प्रत्येक मानव रूढ़ियो के जाल मे कैसा फैसा ? करनी पडेगी बन्धु कृत्यो की तुझे मालोचना। प्रियवर हमारे क्या कहेगे यह न मन में सोचना ॥१॥
प्रिय सत्य लिखने में तुझे परमेश पति का भय नहीं। ध्रुव सत्य से डरकर कभी होती जगत में जय नहीं। लज्जा-विवश यदि दोप हम कहते नहीं तो भूल है।
भीषण तनिक-सी भूल वह सर्वत्र अवनति मूल है ॥२॥ जव तक न दोपो की कड़ी आलोचना की जायगी। तव तक न यह नर जाति अपना पथ-प्रदर्शक पायगी ।। कर्तव्य घश करना पडे जो कार्य इस समार मे। वह कार्य कर आधार प्रभु कर्तव्य पारावार मै ॥३॥
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समाज सम्बोधन * जैन कौम अपना तू सगठन बनाकर । अब सुर्खरू भी होजा वदनाम हो हुआ कर ॥१॥
जुल्मोसितम के बदले लाजिम है ये दया कर । हो रोग दूर जिससे ऐसी कोई दवा कर ॥ २ ॥
दिल से खुदी मिटाकर दिल आइना बनाकर । किस्मत हमें दिखा दे बिगड़ी हुई वनाकार ॥ ३ ॥
जब हम कहेगे तुमको तुम वीर के भगत हो । इस कौम का दिखा दो इक सगठन बना कर ॥४॥
पीछे हटो न हरगिज कुरबान जान कर दो। मैदाने मार्फत मे रक्खो कदम जमा कर ॥५॥
क्या देखते हो आमो उठो कमर को कसके।
खिदमत करो वतन की अव खूब मन लगाकर ॥६॥ लुत्फोकरम के बदले जुल्मोसितम न करना । क्या खाक पाओगे सुख औरो का दिल दुखा कर ।। ७ ॥
ऐ 'दास' आरजू है घर-घर मे हो उजाला । कर दो जहाँ मे रोगन मन का दिया जला कर ॥ ८ ॥
हृदयोद्बोधन
हृदय तू मेरा कहना मान । सबसे बन्धुभाव रख मन मे, तज अनुचित अभिमान । नीच न समझ किसी नर को तू, नीच कर्म जिय जान ||१|| भाव-भेष-भापा-भोजन हो भाइयन के सामान । इनको एक विवेक युक्त कर, हो तेरा उत्थान ॥२॥ क्या जीना जो निज हित जीना, शूकर-स्वान-समान । कर पावे यदि देश हेतु कछु, तो तू है धीमान ॥३॥
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आपस की फूट इस दर्जा तेरी हालत ऐ कोम गिर रही है। कागज की नाव गोया पानी पै तिर रही है। तकदीर आज तेरी क्यो तुझसे फिर रही है। सुख-शान्ती के बदले प्राफत मे घिर रही है ॥
तेरे ही दम कदम से थी रोशनी जहाँ में।
तू क्या थी कह सके ये 1 ताकत नही जबा में ॥ १॥ ऐसा भी एक दिन था तू लाखो पे थी भारी। अफसोस आज खुद ही तू बन गई भिखारी ।। सीने पं तेरे हरदम चलती है गम की पारी। लुत्को अदा के बदले सीखी सितम शारी।
हाथो से खुद तू अपने बरबाद हो रही है।
सेजो को छोडकर तू काटो पै सो रही है ॥२॥ आपस की फूट तुझको बरबाद कर रही है । मैदान जीतकर तू खुद आप हर रही है ।। ससार की हवस में नाहक तू मर रही है। जुर्मो गुनाह की गठरी क्यो सर पे धर रही है।
गफलत का परदा अपनी आखो से अब उठा दे।
शाने कुहन का जलवा इक बार फिर दिखा दे ॥३॥ औरो की तरह तू भी दुनिया में नाम करले । जो काम कल है करना, वोह आज काम करले ॥ मरना पडेगा आखिर गो इन्तजाम करले । भक्ति दिखा के अपनी मालिक को राम करले।
गफलत की नीद मे क्यो मदहोश हो रही है।
काटे तू अपनी राह में खुद माप बो रही है ॥ ४ ॥ खोल प्रांख देख गाफिल दुनिया की क्या है हालत ? हर कौम की तमन्ना हासिल हो जाहो' हशमत ॥ हर शख्श के लवो पर जिके हुसूलेरफमत | तुझको मगर नही है पर्वाए नंगोजिल्लत ॥
ऐ कौम होश मे आ कुछ नाम कर जहा मैं ।
जो काम मोक्ष के हो, वोह काम कर जहा मैं ॥५॥ १. रुत्वा २. शान ३. बुलन्दी का हासिल करना ४.'बदनामी। २३८]
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हुनर अपने दिखाओ तुम अजीज़ो' कीनो वुगजो हसद' दिल से मिटानो तुम । खुशी से कौम की खातिर लहू अपना बहामओ तुम ॥ १ ॥
जो भूखे मर रहे है कुछ इन्हें खाना खिलानो तुम ।
मुईने वेकसा होकर न इतना जुल्म ढामो तुम ।। २ ।। करो कुछ दीन की भी फिक्र ऐ दौलत के मतवालो। न पीकर वाद-ए पिन्दा' कि खुद को भूल जानो तुम ॥३॥
सखी, जय्याज, दानी, रहमदिल हो नेक खसलत हो ।
जो रखते हो हुनर मैदान में आकर दिखामो तुम ॥ ४ ॥ जरा तो रहम खामो वेकसो की हो जारी पर। खुदा के वास्ते जुल्मोसितम इतने न ढाओ तुम ।। ५ ।।
तसाहुल५ से तुम्हारे हो गये बेधर्म जो लाखो।
करो तदबीर कुछ ऐसी उन्हे अपना बनाओ तुम ॥ ६ ॥ तुम्हारे दिल मे गर हुब्बे वतन का जोश बाकी है । बनाकर संगठन अपना हमे भी तो दिखाओ तुम ॥ ७ ।।
मसल मशहूर है ऐ दास 'दास' यह सारे जमाने मे। दुवारा फिर गिनो गर गिनते-गिनते भूल जाओ तुम ।। ८ ।।
इस धर्म को बचा दो ऐ जैन नौजवानो काहिलपना हटा दो, । उट्ठो कमर को कसके आगे कदम बढा दो ॥ १॥
निकलक की तरह तुम मजहब 4 सीखो मरना,
गैरो के आक्रमण से इस धर्म को बचा दो ॥२॥ ऐ सेठ साहूकारो ऊँची दुकान वालो, परचार धर्म का हो कुछ घन को भी लुटा दो ॥३॥
तुम सगठन बनामो छोडो निफाक अपना,
हम एक हो गए है औरो को यह दिखा दो ॥ ४ ॥ १. प्यारो २. दूसरो से द्वेष-भाव ३. गरीवो के मददगार ४. गफलत की शराव ५. लापरवाही । ६ हमला ७ फूट ।
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सन्तान वीर होकर नामर्द बन रहे हो, होते हैं वीर कैसे आलम को यह दिखा दो ॥ ५ ॥
मशगूल ' ऐश में हो टुक ध्यान दो इधर भी, भूखे जो मर रहे है खाना इन्हें खिला दो ॥ ६ ॥
बिगडे हुए तुम्हारे सब काम ठीक होगे, हाँ धर्म पर तुम अपना तन-मन ये सब मिटा दो ॥ ७ ॥
मुस्लिम जो हो रहे है प्यारे तुम्हारे भाई, फिर फिक्र अपना करना पहले इन्हे बच्चा दो ॥ ८ ॥
यह फर्ज है तुम्हारा यह धर्म है तुम्हारा, सबको सबक दया का ऐ जैनियो सिखा दो ॥ ६ ॥
ऐ वीर । 'दास' की अब अन्तिम विनय यही है,
तुम बेकसो की सेवा करना मुझे सिखादो ॥ १० ॥
咖
जल जाये प्राणो की श्री गायक ! गा ऐसा
अधिकार
ममता, मिट जाये जग का अनुराग । गायन, घधक उठे जो ऐसी
आग ||
कम्पित मन दृढता को पाए जाए सुप्त उस स्वराग मे लय हो, करदू - मैं
अपने
भर जाए कायरता मन की— नाहरता मानवता उत्सुक मन होकर - निर्मित करे
क्षेम रहे, या प्रलय मचे, या — विश्व
पर स्वतंत्र बन जाने का हो- -मन
१. मस्त २. ऐशो-आराम ।
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पाए
भविष्य
हृदय भी जाग ।
प्राणो का त्याग ॥
विकसित हो अभिलाषाएँ भी और छेड़-छेड़ ! बस मेरे गायक वही सुरीली
कर
सन्मान |
महान ||
अलौकिक सुखप्रद - ज्ञान । मोहक तान ||
उठे हाहाकार । मेरे भव्य - विचार |
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वाणी, आकृति, और क्रिया से हो बस, प्रगट यही उद्गार | नही चाहिये मुझे पराया-मिल जाये मेरा अधिकार ॥
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वन्दे वीरम्
पुण्य दिवस है आज वीर प्रभु ने अवतार लिया था। दुख-विश्व के साथ एक गुस्तर उपकार किया था। कठिन कार्य नेतृत्व-लोकहित को स्वीकार किया था। मन्त्र अहिसा का जगती को करुणावार दिया था। है जिसके नेतृत्व काल की अब तक हम पर छाया । 'हम उनके' यह कहने भर का गौरव हमने पाया । यदि हम उनके पथ पर चलते तो मिट जाती माया । रहता नही कभी भी यह मन सुख के हित ललचाया । वह विभूति | जिनका दर्शन है सबको मगलकारी । जिनकी शान्ति-मुखाकृति से तर जाते पापाचारी ॥ नाम मात्र जिनका अ-व्यर्थ कहलाता सकटहारी । अभय लोक का वासी वनता वीर-नाम व्यापारी ।। बन्दनीय बह अखिल विश्व के माया-मोह विजेता । सर्व शक्ति-शाली परमेश्वर ! जग के अनुपम नेता ।। सीमा-हीन ज्ञान के वल पर, है अणु-मणु के वेता। गाते जिनकी सतत् महत्ता मुनि सुर-गण अधिनेता ।। हृदय उन्ही के चिन्तन मे अव भक्ति युक्त होकर हम । बदल वासना-पूर्ण विश्व का यह मिथ्या कार्यक्रम ।। तभी वेदना-वह्नि स्वत ही, हो जावेगी उपशम । मत प्रेम से कहो निरन्तर सुख-कर बन्दे वीरम् ।
छोटे भिखारियो के लिए तो सरकार भिखारी-विल बना देगी, पर मै पूछना है कि इन बडे भिखारियो का सरकार क्या करेगी? जव चुनाव आते है, तब ये बडं भिखारी घर-घर डोलते है-"लामो वोट और लो नोट "
मैं चाहता हूँ, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के सद्विचारो का समादर करे । ममस्त धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखे । उदार बनेंगे तो पाएंगे, सकुचित बनेंगे तो खोयेगे।
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अतीत-स्मृति
इन सूखे हाडो के भीतर भरी धधकती-ज्वाला । जिसे शान्त करने समर्थ है नही असित धनमाला ।। इस भग्नावशेप की रज में समुत्थान की आशारखती है अस्तित्व, किन्तु है नही देखने वाला ।।
माना, प्राज हुए है कायर त्याग पूर्वजो की कृति । स्वर्ग अतीत, कला-कौशल, बल, हुमा सभी कुछ विस्मृति। पर फिर भी अवशिष्ट भाग मे भी इच्छित जीवन है
वह क्या ? यही कि मन मे खेले नित अतीत की स्मृति ।। पतन मार्ग से विमुख, सुपथ में अग्रणीयता देकर । मानवीयता के सुपात्र मे अमर-अमिय-रस को भर॥ कर सकती नूतन-उमगमय ज्योति-राशि पालोकितभूल न जाएं यदि हम अपने पूर्वगुणी-जन का स्वर ॥
वह थे, हाँ । सन्तान उन्ही की हम भी आज कहाते । पर कितना चरणानुसरण कर कीर्तिराशि अपनाते । 'कुछ भी नही ।' इसी उत्तर मे केन्द्रित सारी चेष्टा~काश | याद भी रख सकते तो इतना नही लजाते ।
घर के धन्ना सेठ है वीर वही कुछ दुनिया मे, जो देश के हित मर जाते है। रहते है हमेशा बीह जिन्दा, जो धर्म पै जान गंवाते है ॥ १॥ कुढता है कोई तो कुढने दो, जलता है अगर तो जलने दो। जो भाई हमारे गाफिल है, सोते से हम उनको जगाते है ।। २ ॥ वो घर के धन्ना सेठ मही, बलवान सही, धनवान सही। लेकिन ये बताए तो कोई कुछ कौम के भी काम आते है ॥३॥ अपनो मे मोहब्वत रखते है गैरो से नही कुछ वैर हमे ।। मिल जुल के रहो ससार मे तुम पैगाम ये सबको सुनाते है ॥४॥ ऐ 'दास' न कर गम कुछ इसका, जलने से न गरो के घबरा।। हम अपने बिछुडे भटको को सोने से अपने लगाते है ॥ ५ ॥
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तेरी आयु में कमती पड़े
रोज पल छिन की
तेरी आयु मे कमती पडे, रोज पल दिन को, रोज पल छिन की।
करना सो करले आज खवर नहीं कल की। तून गर्भ मास मे निश दिन कप्ट सहे था । ऊपर को पैर नीचे तेरा शीश रहे था । तेरे आस-पास मल और मूत्र बहे था। पडा घोर नरक मे तू राम ही राम कहे था ।। मै सदा करूगा भजन विपत कर हल की। तेरी आयु मे कमती पडे रोज पल छिन को ।।
फिर घरती मे आये छूटा उस दुख है। धुट्टी और दूधी लगा पौवने मुख से ॥ सठ मोहे नीद मे भूल फूल गया सुख मे। नोति विमुख हुए कर रहा राम के दुख से। हुई खेल-कूद मे वाल अवस्था हलकी ।
तेरी आयु मे कमती पडे रोज पस छिन को। फिर तरुन अवस्था हुई, वीरेतन जागी ।
और मोह में प्रधा हा नार अनुरागी॥ नही बोये दिल के दाग बना ना वेदागी। सब कोल वैन गया भूल हुए नर भागी।। तेने रतन जवानी खोई वरावर खल की। तेरी मायु में कमती पडे रोज पल छिन की।
फिर तरुन अवस्या गई वुढापा माया । सब इन्द्री निवल हुई नुकड गई काया। फिर सुत दारा मजा वाहिर विडवाया ॥ कहे शीशराम मल मल के हाय पद्धताया। जब मरन लगा तब सुमरनी छलकी । तेरी आयु मे कमती पडे रोज पल छिन को ।।
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महगांव आन्दोलन
श्री श्यामलाल पांडवीय
मुरार, ग्वालियर जिस महगाव काड ने सारे जैन समाज को झकझोर दिया था और जिसके विरोध में सारे समाज ने अपने भेदभाव भूलकर संगठित होने का परिचय दिया था, वह महगाव काड क्या है और उसमें स्वर्गीय लाला तनसुखराय का कितना और क्या योगदान रहा है ? उसकी जानकारी दिये अपने बिना उनका स्मृति ग्रथ अधूरा ही रहेगा यह घटना सन् १९३५ की है ।
पुराने ग्वालियर राज्य मे महगाव एक छोटा सा नगर है, वहा पर थोड़े से घर जैनियो के है और एक जैन मन्दिर है। वहा पर कुछ सम्प्रदायवादी हिन्दू तथा जैन धर्मद्वेषियो को जैन मन्दिर का होना बहुत खटकता था । अतः वे सदा धार्मिक विद्वेष के कारण उनके धर्म-पालन में सदा अडचने डालते रहते थे। उनका विरोध करके हर प्रकार से उनको तग किया जाता था। सन् १९३५ मे यहा पर तहसील का मुकाम होने के कारण कुछ सम्प्रदायवादी अधिकारियो द्वारा उनको समर्थन मिल जाने के कारण उनके जनविद्वेष को और बल मिलने लगा। स्वर्गीय महाराज माधवराव की जयन्ती राज्य भर में मनाई जाती थी। जैनियो से हमेशा सबसे अधिक चन्दा लिया जाता था, जिसको वे दे दिया करते थे और कभी उनको इसकी कोई शिकायत नहीं रही। इस हालत मे भी जबकि उनसे सख्ती से ज्यादा चन्दा वसूल कर लिया जाता था ।
__सन् १९३५ की माधव जयन्ती पर जो २ नवम्बर को होनी थी, इस अवसर पर किये जाने वाले रडी के नाच के लिए जैनियो ने चन्दा देने से इन्कार कर दिया। इस पर साम्प्रदायिक अधिकारी भी कूद गये। जैनधर्म द्वेषियो ने जो पहले से धर्मद्वेप रखते थे, अधिकारियो को उकसाने और भडकाने लगे। सयोग से तहसीलदार और जुडीशियल आफिसर उस दिन महगाव नहीं थे। नायब तहसीलदार इचार्ज था। नायब तहसीलदार और थानेदार ने माधव जयन्ती मनाने के लिये स्वर्गीय महाराजा का चित्र बैठाकर निकालने के लिये मन्दिर का विमान, समोशरण और सिंहासन जिसका उपयोग केवल जिनेन्द्र भगवान के लिये ही किया जाता है उन सबको मागा। जैनियो ने अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार कि भगवान की ये वस्तुये किसी व्यवितगत उपयोग के लिये नहीं लाई जा सकती, देने से अपनी असमर्थता प्रकट की। इस पर जैनियो को बहुत बुराभला कहा और बुरी-बुरी गालिया दी। यह भी धमकी दी कि देख लेगे तुम्हारे मन्दिर और समाज को, उसकी जरूरत ही नहीं रक्खेगे । उस साल माधव जयन्ती का जुलूस सदा की भांति जैनियो के चबूतरे पर भी नहीं ठहरा । नी लोग, जब चबूतरे पर जब जुलूस ठहरता था तो स्वर्गीय महाराजा के चित्र की प्रारती तथा इत्रपान क्यिा करते थे। इस घटना पर जैनो का जो अपमान किया गया था उस समय यह किसी ने नहीं सोचा था कि जैन मन्दिर (धर्मस्थान) को भी अपमानित और भ्रप्ट किया जायगा। २४४ ]
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जयन्ती उत्सव के दूसरे दिन ( ३ नवम्बर १९३५ ) की रात को किसी समय जैन मंदिर
मे घुसकर सबकी सब २७ मूर्तिया वहा से उठा ली गई जिनमे कई मूर्तिया वजन मे बहुत भारी थी । जैन शास्त्र जलाये गये और मन्दिर के भीतर पाखाना - पेशाब करके धर्मस्थान को अपवित्र किया गया । कीमती माल चादी की छडिया प्रादि कोई नही उठाई, सब पड़ा छोड गये । कीमती कपडे न ले गये और न जलाये गये । जलाये तो केवल धर्मग्रथ ही जलाये । यह सब सुनियोजित धर्म का अपमान और धर्मस्थान भ्रप्ट करने का पडयन्त्र था जिसकी पुष्टि इससे भी होती है कि बिल्कुल तडके ही उन धर्मद्वेषिषो ने जैनियो को आकर यह तानाजनी करना शुरू कर दिया कि जानो मन्दिर को जाकर देखो, क्या हो गया। इस प्रकार हमी उडाना शुरू कर दिया। जैनी कुछ समझ नही पाये । पर जब मन्दिर को सवेरे पूजा-दर्शन को खोला तो यह दृश्य देकर स्तब्ध रह गए और तब धर्म षियो द्वारा किए गये उपहास और कही गई बातो का अर्थ समझ मे
आया ।
सब से पहले इटावा के जैनो को महगाव के जैनियो ने खबर दी और उन्होंने जैन महासभा को न्याय प्राप्त करने एव सहायता के लिये लिखा । इसके बाद महगाव के जैन पचो ने ग्वालियर दिगम्बर जैन ऐसोसियेशन को अपना यह मामला बतलाकर सहायता मागी । ग्वालियर दिगम्बर जैन ऐसोसियेशन ने राज्य के उच्च अधिकारियो से मिलकर मूर्तियो के सुराग के लिये सो० आई० डी० की नियुक्ति कराई । महगाव पुलिस के सब इन्सपेक्टर का तबादला कराया । दरवार कौसिल मे पूरा विवरण देने वाला एक मेमोरेन्डम भेजकर न्याय की माग की। सर्वसाधारण की जानकारी के लिये पूरा विवरण प्रकाशित किया गया । मूर्तियो की बरामदगी तथा मुलजिमो की गिरफ्तारी के लिये २०० रुपये का इनाम सरकारी गजट में निकलवाया गया । नियुक्ति सी० आई० डी० द्वारा प्रयत्न कराकर मूर्तिया बरामद कराई गई जिनमे दो पीतल की छोटी मूर्तियो को छोडकर शेष २५ मूर्तिया ३०० रुपये मल्लाहो देकर वरामद हुई। ऐसोसियेशन के तत्कालीन उत्साही मन्त्री श्री श्यामलाल पाडवीय ने मौके पर पहुंचकर जैनो को धीरज वधाया । कितनी ही बार जा जाकर अपने समक्ष साक्षिया कराई, सबूत इकट्ठा किया । पाडवीयजी को जहर देने का असफल प्रयत्न किया गया जिससे वे रास्ते से दूर कर दिये जायें। यह सब प्रयत्न करने पर भी कुछ हो नही पा रहा था और राज्य के भय से बड़े-बडे श्रीमान इसकी सहायता करने मे राज्य विरोध का खतरा लेना नही चाहते थे। इधर ग्वालियर राज्य इसको साधारण चोरी का रूप देकर इसको समाप्त कर देना चाहता था। यही नही उस चोरी मे एक जैनी को भी शामिल किया गया और मारपीट करके उससे व उसकी स्त्री इकवाल भी करा लिया गया । स्थिति जटिल बनती जा रही थी। पुलिस ने प्रतिवाद करके यह आरोप भी लगाया कि यह एक राज्यविरोधी व्यक्ति का धार्मिक अपमान का रंग देकर राज्य को बदनाम करने का प्रयत्न है । यह इशारा दि० जैन एसोसियेशन ग्वालियर के मन्त्री के प्रति था ।
श्री श्यामलाल पाण्डवीय ने इस काण्ड को दिगम्बर जैन परिषद के दिल्ली अधिवेशन के अवसर पर दिल्ली जाकर परिपद के सामने रखा। वहा भी ठण्डे रूप मे ही लिया जाने लगा पर स्वर्गीय दावू तनसुखराय जैन का अन्तरमानस धर्म के इस अपमान से विकल हो उठा और
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यान के साथ पास किया और उन भाइयों के वास्तविक अधिकार को देने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया । १९३८ में हस्तिनापुर मे जो परिषद का अधिवेशन हुआ और उसमे दस्सा पूजन श्रधिकार प्रस्ताव रक्खा गया तो कितनी उथल-पुथल हुई । उसका सक्षिप्त विवरण प्रकट करते हैं जिनमे भावी कार्यकर्ता समझें कि श्रेष्ठ सुधारको को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पडता है।
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श्री हस्तिनापुर क्षेत्र पर अखिल भारतवर्षीय दि० जैन परिषद की भोर में कान्फेस ४ तारीख से प्रारम्भ हुई । इम माल विशेपनीर से जनता कान्फ्रेंस के कारण पिछले साल से दुगुनी थाई थी । वीर सेवक सघ रोहतक, प्रेममण्डल गोहाना, सेवा सघ छपरौली, जैन स्कूल astत, जैन सेवकमण्डल वडीत, जैन कालिज एसोसियेशन मेरठ, जैन यगमेन्स एमोसियेशन मिला व न्यू देहली श्रादि वालिटियर कोरो के २०० स्वयंसेवकों के अतिरिक्त और बहुत सो कोरे आई थी । कान्फ्रेंस मे हर रोज ३ हजार में लगाकर ४ हजार तक जनता रहती थी ।
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चार तारीख को परिपद् की कान्फेस नियमित रूप से प्रारम्भ हुई। प्रातः ही कई सौ श्रादमियो की उपस्थिति मे प्रभात फेरी हुई। दोपहर को एक बजे बा० उलफतराय जी इजीनियर मेरठ के हाथो झण्डा फहराया गया और उन्ही के सभापतित्व मे कान्फ्रेंस प्रारम्भ हुई जिसमे पण्डित शीलचन्द जी न्यायतीर्थ के मंगलाचरण पश्चात् वा० उग्रसेनजी हैडमास्टर ने स्वागत तथा कान्फ्रेंस का उद्देश्य बताया। जैन श्रनाय श्राश्रम छपरोली और वडीत आदि की भजन मण्डलियो के भजनो के पचात् कान्फ्रेंस के मन्त्री मास्टर उग्रमेनजी ने परिषद् परीक्षा बोर्ड के आए हुए सन्देश पढकर सुनाये । उसके बाद भाई कोणलप्रसाद जी दहली ने परिषद् की नीति तथा अब तक की सेवाओ पर और धागे के प्रोग्राम पर प्रकाश डाला | वाद मे पण्डित शीलचन्दजी ने जैन धर्म की उदारता और जैन जाति की मकीर्णता पर सामयिक भाषण दिया । मास्टर उग्रसेनजी की कुछ मामयिक अपील तथा भजनो के उपरान्त शाम को ४ || वजे सभा ममाप्त हुई |
पश्चात् रात को सात बजे से फिर कान्फ्रेंस की दूसरी बैठक मनोनीत सभापति (जो समय पर आ नहीं सके थे) वा० रतनलालजी एम० एल० मी० विजनौर के सभापतित्व मे प्रारम्भ हुई । मास्टर शिवरामसिंह जी के भजन और पण्डित श्रीलचन्दजी के मंगलाचरण के पञ्चात् वा० रतनलालजी का सभापति की हैमियत से व्याख्यान हुभ्रा । पच्चात् श्रीमती लेखवतीजी का परिपद् के अधिक से अधिक मदस्य वनने तथा शाखायें स्थापित करने का प्रस्ताव पेश हुआ और उम पर व्याख्यान हुआ । उसके बाद स्वामी कर्मानन्दजी ने प्रस्ताव के समर्थन में एक व्याख्यान दिया इसके बाद श्री भन्नूलालजी जौहरी की कविता हुई और ग्राज की कार्यवाही समाप्त हुई ।
ता० ५ को फिर प्रभात फेरी हुई और दोपहर को १२|| वजे से मास्टर शिवरामसिंह जी रोहतक के भजनो तथा प० गोलचन्दजी न्यायतीर्थं खतौली के मंगलाचरण के साथ कान्फ्रेंस की कार्यवाही श्रारम्भ हुई। श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय ने वस्सा पूजाधिकार वाला प्रस्ताव प्रोजस्वी भाषण के बाद पेश किया। अखिल भारतवर्षीय दि० जैन परिषद् ने अपने खण्डवा अधिवेशन मैं दस्सा पूजाधिकार का जो प्रस्ताव पास किया है उसे यह हस्तिनापुर क्षेत्र को जैन कान सम्मानित और घाटर की दृष्टि से देखती हुई सहारनपुर मोहल्ला चौधरान, वडीत, कान्ला, गोहाना, धामपुर, नजीमाबाद, सिकन्दरपुर कला, शामली, अलीगंज, बड़ागांव, पानीपत, बिजनौर
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सोनीपत, गगेरु, मल्हीपुर, शाहदरा, देहली करौलवाग, रोहतक, बुलन्दशहर, करनाल भरभरे, गढ़ीपुख्ता, सिकन्दरपुर, वडसू, रमाला आदि की जैन पचायती की भी सराहना की गई जिन्होंने अपने यहां दस्से भाइयो को पूजा-प्रक्षाल का अधिकार देने की उदारता दिखलाई है । साथ ही अन्य स्थानो की जैन पचायतो के लिए निश्चय करती है कि वे भी अपने यहा के दस्सा भाइयो को पूजा-प्रक्षाल करने के लिये उत्साहित करके जैन धर्म के प्राचीन आदर्श को उपस्थित करे । प्रस्ताव पेश होते समय पडाल मे तकरीवन ४ हजार पादमी मौजूद थे । स्थितिपालक दल के कई विद्वान भी स्टेज पर बैठे हुए थे। परन्तु प्रस्ताव ऐसे शब्दो तथा ऐसी सामाजिक स्थिति का बखान करते हुए पेश किया गया कि कोई भी उसके विरोध मे नही बोल सका और जनता तकरीबन डेढ घन्टे तक मन्त्र-मुग्ध की नाई सुनती रहती । इसके पश्चात् प्रस्ताव का समर्थन करने के लिये जब वा० बलवीरचन्द जी एडवोकेट मुजफ्फरनगर खडे हुए तो ३० या ३५ मादमियो ने जो कि कान्फेस मे केवल दगा ही करने आये थे, हल्ला मचाया और उनके साथ स्थितिपालक विद्वान भी उठकर चले गये।
पश्चात् वा. लालचन्दजी एडवोकेट आदि के पुरजोर समर्थनो के वाद केवल २० के विरोध से प्रस्ताव पास हुआ । पश्चात् झण्डा गीत होकर सारे वाजार मे श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय के नेतृत्व मे भजन गाता हुआ जुलूस सारे मेले मे धूमा । रात को फिर कान्झ स की बैठक हुई। भजनो और पडित शीलचन्द के मगलाचरण और स्वामी कर्मानन्दजी के भाषण के पश्चात् श्री गोयलीयजी का जैन जाति के महान् पुरुषो के जीवन पर सामायिक और जोशीला व्याख्यान हुमा, बाद को कौशलप्रसादजी जैन ने वीर के लिये अपील की और सभा समाप्त हुई।
चार तारीख को परिषद् को कान्फेस नियमित रूप से प्रारम्भ हुई। प्रात ही कई सौ आदमियो को उपस्थिति से प्रभात कान्फ्रेस शुरू हुई। सबसे पहिले भजन मोर मगलाचरण के वाद प० ताराचन्दजी न्यायतीर्थ का व्याख्यान हुमा । पश्चात् मास्टर उग्रसेनजी तथा सभापति जी आदि के बाद कान्फेस समाप्त की गई ।
कमनीय कामना पापाचार न एक भी जग मे, होवे कही भी कभी, बूढे, वाल, युवा, तथा युवति हो, धार्मिक-प्रेमी सभी । पृथ्वी का हर एक मर्त्य पशु से, साक्षात् वने देवता, पावे पामर पापमूर्ति जगती, स्वर्लोक से श्रेष्ठता ।
* * * * मुझे तो प्रणुवम और उद्जनवम जितने प्रलयकारी नहीं लगते, उतनी प्रलयकारी लगती है-चरित्रहीनता, विचारो की सकीर्णता । बम तो उन अपवित्र विचारो का फलितार्थ-माप है।
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दूध-घी मिलावट कान्फ्रेंस
स्वास्थ्य के लिए शुद्ध खानपान की आवश्यकता है। पर जिम देश मे घी-दूध की नदियाँ वहती थी आज वहाँ के निवासियो को शुद्ध वस्तु का मिलना दुर्लभ हो गया है। लालाजी ने इस बात का अनुभव किया और २१-२२ फरवरी १९४१ को दिल्ली में श्री से० गान्तिदासजी आसकरण, मेम्बर कौसिल आफ स्टेट की अध्यक्षता मे दूध-घी मिलावट कान्फ्रेंस की जिसका सक्षिप्त विवरण आपके सामने प्रस्तुत करते है। इससे आप भली प्रकार समझ सकेगे कि इस कान्फ्रेस का कितना प्रभावशाली असर हुआ ।
भारतवर्ष कृषिप्रधान देश है। यहा की ६० प्रतिशत जनता गावो मे रहती है और पशुपालन यहा का मुख्य व्यवसाय है। एक समय था जब भारत मे पशुपालन धर्म समझा जाता था और एक ही गृहस्थ लाखो की संख्या में पशु रखता था। यहा दूध-घी की नदिया वहती थीं। प्रत्येक गृहस्थ चाहे वह अमीर है चाहे गरीव, पर्याप्त मात्रा मे दूध, घी और अन्न से परिपूर्ण रहता था। कृपि से बहुत अन्न उत्पन्न होता था और पशुओ की अधिकता के कारण दूध-घी बहुत होता था। यहा के नर-नारी दूध-घी के सेवन में वलवान और बुद्धिमान होते थे। देश मे हनुमान, भीम, महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे पराक्रमी और बलवान हुए है, जिन्होंने अपने वन में हायियो तक को पछाड़ दिया था।
___ पहले की बात जाने दीजिये, अब भी जब तक हमे शुद्ध दूध और घी मिलता रहा हमारे देश मे राममूर्ति जैसे वलवान हुए है । क्या यह सच नहीं है कि गत १६१४ के महायुद्ध मे ताकत में भारत की फौजें दुनिया की पारी फांजी से बढ-चढकर थी। यह सव यहा के दूध-धी का ही प्रभाव था। हम देखते हैं कि हम नवयुवको से हमारे बूढे अव भी अधिक बलवान हैं। हम दिन-दिन क्यो कमजोर होते जा रहे है ? हमने बूटो को कहते सुना है कि जब हम जवान थे ५० और ६० मील पैदल चल मकत थे । किन्तु खेद है कि पान ऐसा नवयुवक शायद ही कोई हो।
आज भारत के चारो और भयानक युद्ध हो रहा है । एक देश दूसरे देश को निगले जा रहा है। जो अधिक शक्तिशाली है उसी का आज जीवन समझा जा रहा है। और इस भयानक युद्ध की लपटं किसी भी समय भारत मे आ सकती है। हमे आतताइयों का चारी और से भय है । तब क्या हमे निर्वल होकर, दूसरो के पाँवो नीचे दबकर, कुत्तं की मौत मर जाना शोभा दंगा? क्या आपने कभी सोचा कि आज हमारे देश के नवयुवको का म्वास्थ्य क्यो दिन-दिन खराव होता जा रहा है ? क्यो नित्य नई बीमारिया पैदा हो रही है और निर्वल होने के कारण क्यो हमे चारों ओर से सताया जा रहा है । इसका केवल एक कारण है कि हमे शुद्ध दूध और घी खाने को नहीं मिलता । जहा दूसरे देशों में युवको के स्वास्थ्य का इतना ध्यान रखा जाता है वहा हमारे देश में दुर्भाग्यवश नवयुवकों के स्वास्थ्य को खराव करने वाली नई-नई चीज २५० ]
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का प्रचार बढ़ रहा है। आज हमे अधिक से अधिक मूल्य पर भी शुद्ध दूध और घी मिलना असम्भव सा हो गया है।
दूध मे पाऊडर और घी मे वनस्पति तेल की मिलावट से आज शुद्ध दूध व घी नहीं मिल रहा है । पहले तो यह पाऊडर और वनस्पति तेल विदेशो से आता था किन्तु दुर्भाग्यवश आज वनस्पति तेल की भारत में भी कई मिलें बन गई है, जिससे घी के व्यापारी और दलाल शुद्ध घी मे वनस्पति तेल (जो जमाने या अन्य प्रयोगो से धी जैसा बन जाता है) आसानी से मिला सकते है।
वनस्पति घी के सस्ता होने के कारण उसे शुद्ध घी मे मिला कर वेचने से व्यापारियो को बहुत अधिक लाभ होता है । डाक्टरो के कथन के अनुसार वनस्पति घी असली घी का कभी स्थान नहीं ले सकता। वनस्पति घी धीरे-धीरे मनुष्य में भयानक रोगो को उत्पन्न कर देता है। वनस्पति घी की शुद्ध घी में मिलावट के कारण जनता अब वनस्पति घी को ही अधिक खरीदने लग गई है, क्योकि जनता को शुद्ध घी कह कर मिलावटी घी बहुत अधिक मूल्य में दिया जाता है । इससे उनके स्वास्थ पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है । यदि वनस्पति घी का इसी प्रकार प्रचार वढता रहा तो पशुओ की कोई आवश्यकता नहीं रह जायगी और भारत से पशु-धन नष्ट हो जायेगे । दूध-धी-माखन मे मिलावट के कारण हालत बहुत बुरी हो गई है । इस अवस्था को देखते हुए देहली में अ. भा. दूध-धी-माखन मिलावट निषेध कान्फ्रेस २१, २२ फरवरी को करने का आयोजन किया गया है । इस आन्दोलन से सव बडे-बडे नेताओ और महात्मा गाधीजी की भी महानुभूति है। इस कान्फ्रेस में देश के बडे-बड़े नेताओ के पधारने की आशा है।
अ०भा० दूध-घी-मक्खन मिलावट निषेध सम्मेलन
अध्यक्ष
श्री सेठ शांतिदास प्राशकरणजी - श्री सेठ शान्तिदासजी माशकरण, मेम्वर कौसिल आफ स्टेट बम्बई के सभापतित्व में बडी सफलतापूर्वक हो गया । सभापति जी ने अपना व्याख्यान अग्रेजी मे दिया था जिसका सार निम्न प्रकार है --- सभ्य गृहस्थो।
__ मै अपना वक्तव्य अग्रेजी मे पढ़ना चाहता था किन्तु स्वायतकारिणी की सूचना और जनता की सहूलियत के लिये मै अपने कुछ भाव हिन्दी में भी आपके सन्मुख रख रहा हूँ। ..... मेरी भाषा गुजराती है, अत हिन्दी पढ़ने में कोई त्रुटि हो तो क्षमा करे।
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आज के सम्मेलन का अध्यक्ष होने का मान आपने मुझको दिया इसके लिये मैं आपका प्राभार मानता हू । आपके महकार से यह कार्य सफल होगा, ऐमा मेग विष्वाम है।
मेरा प्राज के प्रश्न के बारे मे वक्तव्य अग्रेजी मे आपके मामने पेश हो चुका है। इससे आपको मालूम होगा कि यह प्रश्न मारे भारतवर्ष की शारीरिक और आर्थिक उन्नति के लिये कितने महत्व का है । प्राज अपने देश में पूरे दाम देते हुए भी शुद्ध दूध-धी इत्यादि मिलना कठिन हो गया है और मिलावट के द्वारा घोखवाजी चल गई है। इसका मूल कारण यही है कि अपने देश मे शुद्ध दूध-धी की उत्पत्ति कम है और माग अधिक है । उत्पत्ति कम होने का कारण दूध-धी देने वाले पशुओ की सख्या कम और नस्ल खराव होना है। संख्या कम होने के कई कारणो में देश के अच्छे दूध देने वाले पशुओ का नाग मुग्न्य कारण है । यदि दूध देने वाले पशुओ की या वन्द की जाय और उनकी नम्ल उत्तरोत्तर अधिक दूध देने वाली होने लगे तव देश की शुद्ध दूधघी की आवश्यकता पूरी हो सकती है । और फिर मिलावट म्वय ही रुक जायगी। आज देश की यह हालत है कि दूध-घी जैमी पोपक बुराक न मिलने में जनता का स्वास्थ्य विगडता जा रहा है । देश को जिस समय प्रात्मरक्षा के लिये स्वस्थ नवयुवको की आवश्यकता है उस समय दूधघी आदि पोपक खुराक की अपूर्णता से जनता निर्वल हो रही है। इस बात को सरकार और जनता को सोचना चाहिये और इसका इलाज करना चाहिये ।
देश मे वनम्पति घी और स्कीम मिल्क पाइडर इत्यादि चीजों की मिलावट से शुद्ध दूध-धी का मिलना मुश्किल हो रहा है । इतना ही नही, गावो में किसानो और पशुओ की दयनीय दगा होती जा रही है । शुद्ध घी के व्यापार के कम होने के कारण गाव वालों को लस्सी तक, जो उनकी दैनिक खुराक थी, मिलना कठिन हो गया है। यदि ऐसी परिस्थिति रही तो जनता की शारीरिक और प्रार्थिक स्थिति बहुत बगव हो जायगी और कृपि को बहुत नुकसान होगा। वनस्पति घी इत्यादि के उद्योग करने वाले मज्जन भी दूध-घी के इस प्रकार के अप्रमाणिक व्यापार को नहीं चाहते । शुद्ध वनस्पति घी बनाने वालो को चाहिये कि वह इस सम्मेलन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये मम्मेलन का पूरा साथ दे । वनस्पति घी समझकर ही लोग लेवें, इसमे वाधा डालने का सम्मेलन का उद्देश्य नहीं है, लेकिन शुद्ध घी मे धनस्पति घी इत्यादि की मिलावट को रोकना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है ।
पजाव सरकार ने इम विषय मे जो वनस्पति घी मे रग डालने का कानून बनाया है वह अभिनन्दनीय है । इसी ढग पर जिस-जिस प्रान्त में वनस्पति घी वनता हो वहा विना कानून भी वहा की वनस्पति घी की मिलो के मालिक वनरपति घी को इस प्रकार बना दें जिससे साधारण जनता शुद्ध घी और वनस्पति घी को पहिचान सके और जिससे वनस्पति घी का शुद्ध घी में मिलना असम्भव हो जावे, तब ही उनके लिये वह शोभा का स्थान होगा। हमारे स्वास्थ्य का नाश
ऋपि-मुनियों का भारत आज धी-दूध के लिये तरस रहा है और उसके एवज मे मक्खन निकला हुआ दूध तथा वनस्पति घी खाने को वाध्य हो रहा है । यह सब कलयुग का चमत्कार ही २५२ ]
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मममना चाहिये, अन्यथा जिस भारत मे घी-दूध की नदिया बहती थी दमी भारत में यह अनहोनी वयोकर होती ?
जिस वस्तु मे स्वास्थ्य का इतना गहरा सम्पर्क है, जब वही शुद्ध नही मिल पाती, तब स्वास्थ्य के लिए नित नई योजनाएं बनाना और देश का करोडो रुपया व्यय करना बेकार है। वृक्ष की जड को ही जब दीमक खाए जा रही हो तब फूल-पत्तियो की रक्षा के लिए उपाय सोचना कुछ बुद्धिमत्ता नही ।
हम अपने बच्चो को दूध समझ कर पिला रहे है, मगर मक्खन निकला हुआ । घी समझ कर हम वनस्पति तेल खा रहे है। गोया दही के बदले कपाम खाई जा रही है।
क्या विशेषज्ञो और डाक्टरों ने यह निर्णय दे दिया है कि वनस्पति तेल और मक्वन निकला हुआ दूध असल जैसे ही लाभदायक है, यदि ऐसा है तो गवर्नमेंट को यह घोषणा कर देनी चाहिए ताकि जनता इतनी सस्ती चीज बहुमूल्य देकर न खरीदे और बेचारे गरीब व्यर्थ की परेशानी में न पडे और यदि यह पदार्थं उतने उपयोगी नहीं है तो असल और नकल मे पहचान हो सके, सरकार को ऐसा प्रबन्ध कर देना चाहिए ।
अफीम-गाजा चरस शराव पर सरकार की ओर से प्रतिवन्ध है, लायमेन्स है जिसे समूची जनता कभी उपयोग मे नहीं लाना चाहती। पर जो समूची जनता के गले मे जाने अनजाने उतारे जा रहे है ऐसे अहितकर पदार्थों पर कोई लायसेन्स या प्रतिवन्ध नही । उन्हें दिन दहाडे असली मे मिलाकर या उसका रूप देकर हमारे गले मे उतारा जा रहा है । और हमारी सरकार का ध्यान इस ओर तनिक भी नही है ।
वनस्पति घी और मक्खन निकले हुए दूध के प्रचार से शुद्ध बेचने वाले मिलावट करने को वाध्य हो गए है । जब मार्केट मे खरीदार को दुकानदार पर विश्वास न रहा तब दुकानदार असली वस्तु बेचकर कम्पटीशन मे कैसे खड़ा रह सकता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि मार्केट मे शुद्ध बेचने वाले को खरीदार नही मिलते और खरीदार को प्रसली माल नही मिलता। इन नकली पदार्थों ने ग्राहक को अविश्वासी और दुकानदार को बेईमान बना दिया है।
हम तो कहते है कि वनस्पति तेल और मक्खन निकला हुआ दूध बेचना सर्वथा वन्द कर दिया जाय पर दुर्भाग्य से ऐसा न हो सके तो इनमे भिन्नता अवश्य कर दी जाय । जो इन्हे उपयोग मे लाना चाहे वे इन्हें उपयोग मे लाएँ । पर जो असली खरीदना चाहे उन्हे पूरी
कीमत देने पर भी यह वस्तुएं न भेड़ दी जाए इसका समुचित प्रबन्ध होना चाहिये ।
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लोगो मे जितना भाव उपासना का है, उतना आचरण-शुद्धि का नहीं । पर आचरण शुद्धि के विना उपासना का महत्व कितना होगा ?
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कुशल व्यवसायी
तिलक बीमा कम्पनी की अपूर्व सफलता
लाला तनसुखराय जैन एक प्रसिद्ध समाजसेवी और देशभक्त कार्यकर्ता ही न थे, बल्कि कुशल व्यवसायी भी थे । यूरोप मे वैज्ञानिक ढंग से व्यवसाय का भी सचालन किया गया। नएनए व्यापार के साधनो को अपनाया गया । फलस्वरूप व्यवसाय का क्षेत्र अधिक व्यापक हुआ
र समृद्धि का विशेष सूत्रपान हुआ । आधुनिक व्यापारो मे बीमा व्यवसाय भी ऐसा ही एक महत्वपूर्ण व्यवसाय है । सहयोग और वृद्धावस्था में एकमात्र सहारा देने के लिए यह एक उत्तम सूझ है । भारतवर्ष मे जब इसका प्रारंभ हुआ तब इतनी विशेष रुचि जनता मे नही थी परन्तु अव प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति इसके महत्व को समझना है। और अपना बीमा कराना आवश्यक समझता है ।
इस व्यवसाय में छाने वाले व्यक्ति मे अनेक गुणो की ऐसी आवश्यकता है जो अपने प्रभाव, वाणी और धैर्य के वल पर व्यक्ति का मन मोह ले और बरबस उसे अपनी और प्राकर्षित करने के लिए बाध्य कर दे । ला० तनसुखराय जी कर्मठ थे । वाणी के धनी थे । और अनवरत कार्यं मे तब तक लगे रहते थे जब तक सफलता न मिल जाए। वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे । परापेक्षी और दूसरो का सहारा लेने वाले नही थे । स्वावलम्बी, साहसी और कर्तव्यनिष्ठ थे । उन्होने राष्ट्रीय भावना से श्रोत-प्रोत होकर स्वनाम धन्य महामनीषी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पुण्य स्मृति मे 'तिलक बीमा कम्पनी' की स्थापना की। उन्होने सस्था का कार्य इस प्रकार बुद्धिमानी, विवेकशीलता और सहयोग से प्रारम्भ किया कि थोड़े ही समय मे सस्था की आशातीत उन्नति हुई। इससे मूलबन बढ गया । उसकी प्रतिष्ठा चोगुनी हो गयी। सभी प्रमुख व्यवसायी पुरुषो का ध्यान इसकी और प्राकर्षित हो गया । इस सस्था को उन्नत बनाने का श्रेय लालाजी को और उनके कर्तव्यपरायण सहयोगियों को ही है । सस्था की एक वर्ष की प्रगति का दिग्दर्शन करना श्रावश्यक है जिससे विदित होता है कि लालाजी कितने सूझ-बूझ और कर्मवीर, साहसी - पुरुष
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तिलक बीमा कम्पनी के लिये लोकमत क्या कहता है
तिलक बीमा कम्पनी भारत की प्रसिद्ध प्रगतिशील राष्ट्रीय कम्पनी है। उसकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट हमे समालोचनार्थ प्राप्त हुई है। उसके देखने से प्रकट होता है कि उक्त कपनी १० लाख के मूलधन से स्थापित हुई है । ३० जून सन् ३८ को इसका प्रथम वर्षं बडी सफलतपूर्वकपूर्ण हुआ है ।
यह कम्पनी एक उच्च आदर्श और लोकहित के सन्देश को लेकर कार्य क्षेत्र में उतरी है, उसका मूल उद्देश्य भारत की प्रार्थिक स्थिति को वैज्ञानिक ढंग से उन्नत करना तथा भारत की बढती हुई बेकारी को दूर करना है ।
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[हमे लिखते हुए हर्ष होता है कि हमारे जैन समाज के उत्साही कार्यकर्ता ताला तनसुखरायजी जैन ने गत वर्ष १० लाख के मूलवन से तिलक बीमा कम्पनी लिमिटेड की स्थापना की थी और वह प्रगतिशील कम्पनी प्राशातीत उन्नति करती हुई देश के और समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी बन रही है। हमारी अभिन्नापा है, जैन समाज के प्रत्येक व्यक्ति का इसको सहयोग प्राप्त हो ताकि और भी इसी तरह की उद्योगशील कमनिया खुलकर मनाज की वेकारी दूर करने में समर्थ हो सके । यहा हम कुछ कम्पनी के सम्बन्ध में अन्य सहयोगियो की सम्मति देते है जिससे प्रगट होगा कि अपनी यह कम्पनी कितनी तेजी से उन्नति करती हुई जनता की विश्वासभाजन बन गई है।
--सम्पादक नामित्र "भारत की प्रसिद्ध प्रगतिशील राष्ट्रीय तिलक बीमा कम्पनी की प्रथम वार्षिक रिपोर्ट हमे समालोचनार्थ प्राप्त हुई है । यह कम्पनी भारत-विभूति लोकमान्य तिलक की पवित्र स्मृति मे १० लाख के मूलधन से स्थापित हुई है । ३० जून सन् ३८ को इसका प्रयन वर्ष सफलतानी को लेकर पूर्ण हुआ है । यो तो भारत में और भी देशी-विदेशीय वीमा कम्मनिया कार्य कर रही है, किन्तु तिलक बीमा कम्पनी कुछ उच्च आदर्श और लोकहित के कार्य को लेकर इस क्षेत्र में उनरी है । उसका मूल उद्देश्य भारत की प्रार्थिक स्थिति को वैज्ञानिक उग में उन्नन करना तया भारत की बढती हुई बेकारी को दूर करना है।'
-नवभारत (नागपुर) "तिलक वीमा कम्पनी अपने प्रथम वर्ष मे ही पचासो पुरानी कम्पनियो को पीछे छोड़ कर पूरी कामयाबी के साथ आगे आयी है। प्रारम्भ से ही कम्पनी को भारत के प्रतिप्नि धनकुबेरो, व्यापारियो और बीमा-विशेषज्ञों का सहयोग प्राप्त रहा है। यही कारण है कि उक्त कम्पनी इस एक वर्ष मे ४०२४०० के शेअर्स वेत्र चुकी है। कहा जाता है कि वह बहुत चीत्र शेअर्स की विक्री वन्द कर देगी।"
-सवित्र दरवार (देहली) "यह भारत की एक उदीयमान राष्ट्रीय वीमा कम्पनी है। इसने अपने पहले ही वर्ष में ११ लाख ४३ हजार का विजनिस प्राप्त करके आश्चर्यजनक उन्नति की है। इतने अल्प सम्य मे इतनी सफलता प्राप्त करने का सारा श्रेय हमारे एक जैन बन्धु को है, इसका हमें गर्व है। देहली के बाबू तनसुखरायजी जैन जो इसके मैनेजिंग डायरेक्टर है, वडे ही परित्रनी और उत्साही हैं। आप इस कम्पनी को भारत को एक आदर्श वीमा कम्पनी बनाने की चेष्टा कर रहे है। आप को सफलता प्राप्त हो यही भावना है।"
--चीर सन्देन (नगरा) "तिलक बीमा कम्पनी ने निहायत कम अखराजात पर यह मव कान किया है। कम्पनी के डायरेक्टरो मे बेहतरीन कारोवारी अमहाब शामिल है। हमें उम्मीद है कि कम्पनी
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बहुत जल्द तरक्की करेगी।"
-मिलाप उर्दू (लाहौर) .... • यह लाला तनसुखराय जैन मैनेजिंग डायरेक्टर कम्पनी की मजकूर कोशिशो और काबलियत का नतीजा है कि कम्पनी को पहले ही साल मे ४० हजार रु० प्रीमियम की आमदनी हुई है।
--वीर इण्डिया उर्दू (देहली) ___".... 'कम्पनी के हिस्से हिन्दुस्तान भर मे हर तबके के लोगो मे फरोख्त हुए है, जिससे इसकी हरदिलमजीजी और सरगर्मी का इजहार होता है।"
-तेज उर्दू (देहली) ..... ..... यह बात काबिले फसा है कि कम्पनी को ११ लाख ४३ हजार रुपये का बिजनिस मौसूल हुआ है । मैनेजिंग एजेट स ने अपना तमाम कमीशन (जिसके वह मुहायदे की रूह से हकदार थे) कम्पनी को छोड़ दिया है।"
--प्रताप उर्दू (लाहौर) "वह वक्त दूर नहीं जबकि स्वर्गीय भगवान तिलक के आशीर्वाद से कम्पनी हिन्दुस्तान की बेहतरीन इन्शोरेन्स कम्पनियो में शुमार होगी।"
-~-वतन उर्दू (देहली)
वीर सेवा मंदिर साहित्य अनुसधान को एक आदर्श सस्था
वीर सेवा मन्दिर समाज की एक जीवित सस्था है। इसके द्वारा साहित्य निर्माण अनुसंधान और प्राचीन साहित्य को नवीन ढग से सम्पादन करना इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य हुआ है । इसी सस्था की ओर से वीर शासन दिवस मनाना प्रारम्भ हुमा । १३ जोलाई १९३८ को वीर शासन जयन्ती उत्सव पर जो लालाजी ने भापण दिया वह उत्साह और जोश से परिपूर्ण है। आपने जिन कार्यों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया प्रान भी वे कार्य उतने ही महत्वपूर्ण है जितने पहले थे। आत्मीय बन्धुभो और बहनो।
___ मैं सिपाही हूँ और सिपाही ही बना रहना चाहता हूँ। मै बोलना बहुत कम जानता हूँ, फिर भी मुझे बोलना पड रहा है, मानो बन्दूक से ग्रामोफोन का काम लिया जा रहा है। मेरी इच्छा है कि जब आपने मुझे इस पद पर प्रतिष्ठित किया है, नव अपना सेवक समझकर मुझसे कुछ सेवा भी लीजिये । मैं यह जानता हूँ कि मेरे पास पैसा और विद्वत्ता नहीं है, मगर साहस, २५६ ]
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उत्साह, आत्म-विश्वास और कार्य शक्ति की मेरे पास कमी नही है । जो सेवा आप मेरे सुपुर्द करेंगे उसे बजा लाने मे मै अपना गौरव समझ गा ।
जिस रोज वीर प्रभु ने सतप्त ससार मे उपदेशामृत की वर्षा की थी। आज उसी मुबारिक दिन पर इकट्ठे होकर हमे विचार परामर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुप्रा है, ससार के कल्याण के लिये वीर प्रभु ने जो दिव्य उपदेश दिया था, उसका प्रसार साहित्य, उपदेशो और रात्रि-पाठशालाओ द्वारा किया जा सकता है ।
युग मे नवीन ढंग से
१ - साहित्य देश और समाज के पीठ की रीढ की हड्डी है । जिस समाज का साहित्य जितना अधिक विकसित, अनुपम और विशाल होगा, वह समाज भी उतना ही उन्नत होगा । हमारे पूर्व प्राचार्यो और विद्वानो ने साहित्य निर्माण मे काफी मफलता प्राप्त की है । हमारे भण्डारो मे मोतियो से तोले जाने योग्य ग्रथ भरे पडे हैं । हमे अब इस नये अपने साहित्य को प्रकाश मे लाने की आवश्यकता है । प्रत्येक भाषा मे आधुनिक लेखन और प्रकाशन कला से परिपूर्ण साधारण से लेकर उच्च कोटि के विद्वानों तक उनकी बुद्धि और विषय के अनुसार हमारा साहित्य पहुंचना चाहिये । अर्थात् जो पत्र-पत्रिकाओ को चाव से पढ़ते है उनके लिये हमे साहित्यिक पत्र प्रकाशित करने चाहिये । और जो साधारण पढे-लिखे है उनके लिये छोटेछोटे सरल भाषा मे ट्रेक्ट छपाने चाहिये । और जो अव्ययनशील विद्वान् है, उनके योग्य खोज और मनपूर्वक लिखे हुए ग्रंथो का प्रबन्ध करना चाहिये ।
यद्यपि इसके लिये हमारे समाज की कई महान् आत्माये और सस्थाये प्रयत्नशील है किन्तु उचित प्रोत्साहन, सहयोग और सामूहिक शक्ति के प्रभाव के कारण जमा चाहिये वैसा कार्य नही हो रहा है। वीर सेवा मन्दिर का भी इसी लिये जन्म हुआ है, और हर्ष है कि समाज के प्रसिद्ध विद्वान् १० जुगलकिशोरजी ने इसके लिये अपना तन, मन, धन सब कुछ समर्पित कर दिया है। यदि समाज इस सस्था को अपना सहयोग पूर्णरूपेण प्रदान करे, तो यह साहित्य - निर्माण की वेजोड़ सस्था बन सकती है ।
२ - जैन धर्म के प्रसार के लिये साहित्य के अलावा ऐसे विद्वानो की भी आवश्यकता है, जो भिन्न-भिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किये हुए हो और जो राज्य सभाओं और सार्वबनिक जल्सो मे जैनधर्म के प्रति जनता मे श्रद्धा एव भादर बढा सकें और जैन धर्म पर किये गये आक्षेपो का उत्तर दे सके। साथ ही जैनधर्म के प्रति फैलाये गये भ्रमो को दूर कर सके । ऐसे विद्वान् हमारे वर्तमान विद्यालयो से नही मिल सकते। इसके लिये हमे और मैं देख रहा हूँ कि वीर सेवा मन्दिर इस घोर प्रयत्नशील है ।
पृथक् प्रबन्ध करना होगा
३ - जैनेतरो मे जैनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कराने का तीसरा तरीका यह है कि गाव - गाव मे रात्रि - पाठशालायें खोली जाएँ और उनमे इस प्रकार के शिक्षक रखे जायें, जिनके हृदय जैनधर्म के प्रचार के लिये बेचैन हो ।
मैंने आपके सामने कोई नवीन बात नही कही है। जैनधर्म के प्रचार के लिये ऐसे कितने ही कार्य हमारे पूर्वजो ने किये हैं और वर्तमान मे कर रहे है । श्रसगठित
र अव्यवस्थित ढग
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के
कारण हम उचित सफलता प्राप्त नही कर सके है । यदि सामूहिक शक्ति के बल पर व्यवस्थित रूप से उक्त कार्य करे तो निश्चय ही जैनधर्म का दिन दुगना रात चौगुना प्रचार हो सकता है।
यह जमाना व्याख्यानो का नही है कुछ कर गुजरने का है, इसलिये मै चन्द शब्दो मे अपने मनोभाव आपके सामने रख कर बैठ रहा हूँ । अब आप यह निर्णय कीजिये कि जैनधर्म की उन्नति के लिये कौन-कौन सी बाते आवश्यक है । केवल निर्णय हो न कीजिये बल्कि उसे अमली जामा पहनाने की भी योजना बनाइये और उसमे जो सेवा आप मेरे योग्य समझे मुझे दीजिये और जो कार्य प्राप कर सके उसकी जिम्मेदारी प्राप भी सहर्ष लीजिये, मेरा यही आप से अनुरोध है ।
लालाजी का परोपकारी कार्य उद्योगशाला
व्र० सीतलप्रसादजी
ता०८ को देहली मे आकर तिलक इश्योरेन्स कम्पनी नई देहली मे लाला तनसुखरायजी के पास ठहरे। लाला जौहरीमलजी व पन्नालालजी मिले। दोनो बडे मिलनसार सज्जन है। लाला तनसुखरायजी की तरफ से भोजन व निवासस्थान पाते हुए १० छात्र उद्योग-धन्धा सीखते हैं, उनके नामादि इस प्रकार है-
१-- करतूरचन्द परवार --- दमोह ( २० ) हिन्दी मिडिल पासव - कॉमर्शियल प्रेस मे कम्पोजिंग कार्य सीखते है ।
२ - लक्ष्मीचन्द परवार - बीना (२०) विशारद प० ख० -- उद्योगशाला मे टेलरिंग कार्य सीखते है ।
३ – स्वरूप चन्द जैन परवार - खुरई (१८) प्रवेशिका तृ० - टेलरिंग । ४ --- फूलचन्द कठनेरा - सिरोज (१८) हिन्दी इग्लिश छठी - टेलरिंग । ५ - फुलचन्द ए० परवार - लागौन (१९) शास्त्री प्र० ख० - टेलरिंग । ६ -- छोटेलाल गोलापूर्व - दमोह (२०) विशारद द्वि० - टेलरिंग । ७--- कामताप्रसाद परवार - दमोह (२२) शास्त्री प्र० ख० - टेलरिंग । ८- बाबूराव जैन परवार- मुगावली (१९) मैट्रिक – टाइपराइटिंग शोर्ट राइटिंग | E---गुट्टू लाल परवार भोपाल ( १७ ) हिन्दी पाचवी - घडीसाजी |
१०- उदयचन्द परवार – खिमलासा ( २० ) विशारद तृ०, आयुर्वेदाध्ययन ।
इन छात्रो को एकत्र कर रात्रि को धर्मोपदेश दिया व यह सूचना दी कि इन सब छात्रो को नियम से किसी धर्मशास्त्र मे वार्षिक परीक्षा देनी चाहिए व नाठवे दिन सभा करके भाषण देना सीखना चाहिए । लालाजी का यह परोपकार सराहनीय है । बा० अयोध्याप्रसादजी गोलीय ने प्रेरणा की कि वे साप्ताहिक सभा व धार्मिक परीक्षा का नियम करावे । परिषद का दफ्तर देखा । अभी तक करीब ५००० सभासद हुए है तो भी फीस की रकम ३५० ) के करीब आई है । उद्योगशाला का कार्य प्रशसनीय है ।
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राजस्थानी भाइयों की अपूर्व सेवा
सम्पादक विश्वमित्र आप जैन समाज तथा वैश्य परस्पर सहायक सभा के सुविख्यात नेता है। कलकत्ता तथा रगून आदि से मारवाड़ तथा राजपूताना की ओर जाने वाले यात्रियो की सेवा में बहुत प्रयत्नशील है । इस बारे मे आप रेलवे के उच्च अधिकारियो से भी मिल चुके है जिसके फलस्वरूप यात्रियो के लिए बहुत सी सुविधाएं प्राप्त हो गई हैं। रेलवे के स्थानीय अधिकारी श्री मदनलालजी, स्टेशन मास्टर, श्री गौरीरामजी गार्ड, तथा श्री मगलसैन जी, टी. ऐन. ऐल रिवाड़ी ने, जो सहायता तथा सेवाएं प्रदान की है, वे प्रशसनीय है। बीकानेर राज्य ने भी यात्रियो की सुविधार्थ अपने यहा से श्री विरधीचन्दजी नाजिम, श्री शिवकृष्णजी पेशकार, श्री जगन्नाथ जी गिरदावर, तथा श्री सूरजमल जी संक्रेटरी सरदारशहर को यहां भेजा हुआ है, जिनके सहयोग से यात्रियो को बड़ा लाभ हो रहा है । लाला तनसुखराय जैन, डाक्टर हरस्वरूप जी, मा० लक्ष्मीनारायणजी, श्री महावीरप्रसादजी जैन, आई ए आदि उत्साही कार्य-कायो के साथ तथा तिलक बीमा कम्पनी के स्टाफ के साथ प्रतिदिन स्टेशन पर अपना बहुत सा समय देकर यात्रियो की सब प्रकार की सुविधामो का पूरा-पूरा ध्यान रख रहे हैं ।
कलकत्ता व रगून आदि से जो लोग युद्ध के भय से भा रहे है, उनमें से अधिकतर लोग राजपूताना तथा मारवाड की ओर जा रहे हैं, इसी कारण वीकानेर राज्य अपने यहा आने वाले यात्रियो की सुविधाओ के लिए बहुत प्रयत्नशील है । ता० २७ दिसम्बर की शाम को बीकानेर के प्रधान मंत्री राजा मानधातासिंह जी स्वय देहली स्टेशन पर पधारे और वहा पर यात्रियो की सेवा में तत्पर लाला ननसुखराय जैन, सेठ बेनीप्रसाद जी, मास्टर लक्ष्मीनारायण, डाक्टर हरस्वरुप आदि उत्साही कार्यकर्ताओ से भेट की और बड़ी देर तक समस्त प्रबन्ध का निरीक्षण तथा वार्तालाप करते रहे । यहां के कार्य को बहुत प्रशसा की। उन्होंने यह भी पूर्ण विश्वास दिलाया कि बीकानेर राज्य समस्त यात्रियो की सुविधामो का पूरा ध्यान रख रहा है। इन यात्रियो के किसी भी सामान पर कोई नवीन या अधिक चु गी नही लगाई गई है। जिन ग्रामो मे वे लोग ठहर रहे है, वहां पर रक्षार्थ सैनिको का विशेप प्रवन्ध कर दिया गया है, ताकि लूट-मार प्रादि को मभावना न रहे।
प्रधान मत्री महोदय ने यह भी बताया कि आगे का दौरा समाप्त करके वह २ जनवरी को फिर देहली पधारेंगे । यदि बीच में यात्रियों की किसी ऐसी कठिनाइयो का पता चले, जिनको राज्य दूर सके तो वह उस समय उन्हे वता दी जाय । उन्हें दूर करने का पूरा प्रयल करेंगे।
x x x x श्रद्धा और तर्क, जीवन के दो पहलू है। जीवन मे दोनो की अपेक्षा है । व्यावहारिक जीवन मे भी न केवल श्रद्धा काम देती है और न केवल तर्क। दोनो का समन्वित रूप ही जीवन को समुन्नत बनाने में सहायक होता है। अत तर्क के साथ श्रद्धा की भूमिका होनी चाहिए और श्रद्धा भी तर्क की कसौटी पर कसी होनी चाहिए ।
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अग्रसेन जयन्ती महोत्सव
रायजादा गूजरमलजी मोदी
लालाजी की सेवा की प्रवृत्ति जैन समाज तक ही सीमित नही रही, उन्होने विभिन्न क्षेत्रो मे प्रवेश करके अपनी श्रात्मिक भावना को अधिक उज्ज्वल बनाया । १९४९ मे देहली मे महाराजा अग्रसेन जयन्ती का सफल आयोजन करके एक ऐसा इलाघनीय कार्य किया जिसकी याद सदैव बनी रहेगी । देहली के वैश्य भाई जयती के अवसर पर जलूस निकालने मे हिचकिचाते | परंतु आपने साहस और मात्म-विश्वास से काम लेकर जलूस की प्रायोजना की जिसके फलस्वरूप ऐसा जुलूस निकला जो देहली के वैश्य भाइयो के इतिहास में श्रद्वितीय मिसाल रहेगी । आपने अग्रसेन जयन्ती में पास हुए प्रस्तावो को कार्य रूप में परिणत किया और नगरोहे से खुदाई कर जो सामग्री प्राप्त की वह अग्रवाल जाति के इतिहास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
दीवान हाल मे श्री महाराज अग्रसेन का जयन्ती समारोह उत्तर भारत के प्रसिद्ध मिलमालिक रायजादा सेठ गुजरमल जी मोदी (बेगमाबाद) के सभापतित्व मे अग्रवाल वैश्य समाज के जातीय उत्सव के रूप मे मनाया गया। सभा की कार्यवाही सभापतिजी के स्वागत तथा मगलगान से प्रारम्भ हुई । हाल खचाखच भरा हुआ था । देवियां भी एक अच्छी सख्या मे उपस्थित थी । प्राय आधा दर्जन देहली की वैश्य सरथाओ द्वारा सभापतिजी को मानपत्र दिए गए, जिनका उत्तर देते हुए सभापतिजी ने अग्रवाल जाति की वर्तमान अवस्था का दिग्दर्शन कराते हुए एक सुन्दर भाषण दिया । प० रामचन्द्रजी देहलवी ने सार्वभौमिक उद्देश्यो और अग्रवाल जाति से उनके सम्बन्ध की चर्चा करते हुए बहुत ही सुन्दर और महत्वपूर्ण भाषण दिया ।
अग्रवाल-कुल- प्रवर्तक महाराज अग्रसेनजी के जीवन के इतिहास की आवश्यकता को बतलाते हुए श्री तनसुखरायजी जैन ने कहा कि अगरोहा श्री अग्रसेनजी महाराज के विशाल राज्य की राजधानी थी । प्रत्येक प्राणी उनके राज्य मे सुखी था। अगरोहा उस समय स्वर्गस्थान समझा जाता था । उस समय आपस मे इतना प्रेम था कि कोई भाई अपने श्रापको गरीब नही समझता था । हरियाना प्रात मे दूध की नदियाँ बहती थी। किसी समाज या देश का इतिहास उसकी पीठ की रीढ की हड्डी है । जिस समाज का साहित्य अधिक विकसित और विशाल होगा, वह समाज उतना ही उन्नत होगा । किन्तु श्रग्रवाल-कुल- प्रवर्तक महाराज अग्रसेनजी के जीवन का इस समय तक कोई पूर्ण इतिहास नही बन सका है। इसका मुख्य कारण यह है कि अगरोहे के खण्डहरो मे जो सामग्री भरी पडी है, उसकी अभी तक छानवीन नही हुई है । जिस जाति के शूरवीरो का इतिहास प्रकाश मे नही प्राता, उस जाति के नवयुवक शूरवीर नही हो सकते । जो लोग यह कहते हैं कि अग्रवाल बनिये है, कायर है, इनका तो पेशा सिर्फ दुकानदारी है, वह बहादुर नही हो सकते, उनको बताने के लिए आवश्यक है कि श्री अग्रसेनजी महाराज की एक मपूर्ण जीवनी प्रकाशित हो, ताकि उस जीवनी के पढ़ने से हमारे नौजवानो के खून मे जोश आए और
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दिल मे इच्छा हो कि हम भी शूरवीर वने । श्री यमेनजी महाराज की जीवनी प्रकाश में लाने के लिए सबसे पहले हमे अगरोहे की खुदाई का कार्य अपने हाथो मे लेना चाहिए । वहाँ की चुदाई से हमे उनकी जीवनी के लिए बहुत कुछ मसाला मिल सकता है । इसके लिए उत्साही कार्यकर्तामो की जरूरत है, जो इस कार्य को पूरा करने की प्रतिज्ञा लें। जब इतिहास पूर्ण हो जावे तव उसके सस्ते सस्करण छपवाये जावे, जिसमे प्रत्येक भाई उनके जीवन का हाल पढ़ सके। जो अग्रवाल जाति मे विद्वान है, उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे इस कार्य को सफल बनावें । दानी महानुभावों को चाहिए कि वह इस कार्य के लिए दिल खोलकर दान दें। मुझे आशा है कि बहुत गीघ्र ही कार्य प्रारभ हो जाएगा और प्रत्येक अग्रवाल भाई इसमे सहयोग देगा।
___ उत्सव की शान में चार चांद लगाने वाले श्री जगन्नाथजी गुप्त के व्यायाम के खेली को और विशेपकर छाती पर पत्थर तुडवाने को उपस्थित लोगो ने बहुत सराहा ।
सभा मे चार महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुए, जिनका तात्पर्य निम्न है -
१-देहली नगर मे एक विशाल वैश्य भवन की स्थापना हो, जिसमें वैश्य वालको को औद्योगिक शिक्षा देने, शारीरिक उन्नति करने तथा वैश्य भाडयो के ठहरने का उत्तम प्रबन्ध होगा। इसके अतिरिक्त इस भवन के निर्माण का मुख्य उद्देश्य अप्रवाल जाति की आवाज को अपने प्लेटस फार्म द्वारा फैलाना होगा।
२-अगरोहा का, जो अग्नवाल जाति का कौनिनगर था, पुननिर्माण करना । वहाँ महाराज अपमेन का एक स्मारक वनवाना तथा अग्रवाल वस्ती को वसाना है ।
३-भारत सरकार से यह प्रार्थना की गई कि वह महाराज अग्रसेन के जन्म दिवस की प्रमाणित छुट्टी घोपित करे।
४-भारत सरकार से यह भी प्रार्थना की गई है कि वह वैश्य समाज के युवको को फौज व पुलिस आदि मे उचित स्थान दे।
सभा मे भवन निर्माण के लिए जो अपील की गई, उसका वडा सुन्दर प्रभाव पडा तथा एक अच्छी राशि में रुपया देने व भवन के कमरे आदि वनवाने के वायदे हुए। मभा रात्रि के ११ बजे समाप्त हुई।
रायजादा सेठ गूजरमलजी मोदी को देहली के प्रमुख वैश्य नागरिको की ओर से एक प्रीतिभोज भी दिया गया, जिसने नगर के गण गान्य व्यक्ति उपस्थित थे। मभा मै लाला विश्नस्वरूप कोल मर्चेण्ट, १० मक्खनलाल जैन, लाला अानन्दप्रिय, वैरिस्टर श्रीरामजी आदि के भाषण
युवको | तुम पुन धधक उठो, जो तुम्हारे उन्नति मार्ग में निरोधक होगा वही जलेगा, कारण कि तुम भन्द कोयले की भांति हो और समय पर खूब भमक सक्ते हो।
बच्चो | तुम अव विलासिता का त्याग करके कुर्बानी करना सीखो और अपना सर्वस्व समाज के उत्थान में लगा दो। तुम्हारे दस बेटे हो ये फले-फूले और समाज के काम पावें।
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सभापति का भाषण जातीय संगठन के लिए अपील
रायजादा श्री गुजरमलजी मोदी ने सभापति पद के भाषण देते हुए कहा-अग्रवाल जाति के इतिहास पर अभी तक बहुत कम साहित्य लिखा गया है और जिन सज्जनो ने इस सबध अनुसंधान किया भी है, खेद है उन लोगो को भी हमारी ओर से कोई सहायता नही दी गई । अखिल भारतीय मारवाडी अग्रवाल जातीय कोष वम्बई ने अग्रवाल जाति के सबध मे सक्षिप्त रूप में कुछ पुस्तकें प्रकाशित की है। प्रत्येक जाति के लिए यह आवश्यक है कि यदि वह जीवित रहना चाहती है तो अपने पूर्वजो के कार्यों को सुने सुनावे, जिससे उनकी आगामी सन्तान मे जोश पैदा हो और श्रापस मे जातीय सम्बन्ध अधिक दृढ हो, क्योंकि हर जाति को दृढ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी जाति मे एक लहर पैदा करे कि वह सब एक ही कुल की सतान है और एक ही रक्त से उनकी उत्पत्ति है। इसी उद्देश्य को ध्यान मे रखते हुए हम सब लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं, ताकि हमे फिर याद आ जाय कि हम सब एक ही कुल की सन्तान है और हम सब लोगो की उन्नति का रहस्य आपस मे प्रेम रखने पर निर्भर है ।
जातीय सगठन
समय के परिवर्तन से हमारा यह परिवार सैकडो मत-मतान्तरो मे विभाजित हो गया और कोई जैनी कहता
रक्त से सम्बन्धित है ।
इतनी भूल वढी कि
है और आज आपस मे उन भेदो से कोई अपने आपको सनातनी, समाजी है । विचार कुछ हो, लेकिन यह बात तो मानी हुई है कि हम सब एक ही इस कुल के सुपुत्र देश के प्रत्येक कोने-कोने मे आकर आवाद हुए, फिर इनमे एक सूत्रे के रहने वाले भाई दूसरे सूबे के रहने वाले भाई से अपने को अलग आज यह दशा है कि मारवाड मे बसने वाले अग्रवाल भाई अपने आपको मारवाडी और पजाव मे बसने वाले भाई अपने आपको पजावी कहने लगे ।
समझने लगे और
श्री अग्रसेन जी चरण कमलों में
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महाराज श्रद्धा के फूल
स्वागताध्यक्ष श्री तनसुखराय जैन
आज परमपितामह श्रद्धेय महाराजाधिराज श्री अग्रसैन जी महाराज का जयन्ती दिवस है । उस महापुरुप के पराक्रम और प्रताप से अग्रवाल जाति को धाक सारे देश पर जमी हुई थी । अगरोहा श्री अग्रसेन जी महाराज के विशाल राज्य की राजधानी थी । उनके राज्य मैं प्रत्येक प्राणीमात्र सुखी था । अगरोहा उन दिनो स्वर्गं समझा जाता था । प्रत्येक अग्रवाल उच्च प्रादशं रखता था । उनके आचार-विचार बहुत शुद्ध थे । उन पर निम्न श्लोक चरितार्थ होता था
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महाजनो येन गत स पन्थां अर्थात् महाजन जिस मार्ग से जाते है वही मार्ग ठीक है । उन्हें सब अपना पथप्रदर्शक समझते थे । पशुपालन, कृपि, लेन-देन और व्यापार-यह चार उनके धन्धे थे। पशुपालन और कृपि इन दोनो धन्धो की तो वागडोर इन अग्रवालो के ही हाथ में थी। उन दिनो चान्दी और सोने की वजाय पशुधन सबसे उत्तम माना जाता था। एक-एक महाजन के पाम ५०-५० हजार, ६०-६० हजार गाय-भैसे आदि दूध देने वाले पशु होते थे। वह लाखो बीघे जमीन के स्वामी होते थे । विशेपतया हमारा हरियाना प्रात तो दूध और घी के लिये देश भर में विख्यात था। इस प्रान्त मे दूध की नदिया वहती थी।
उस समय मे आपस मे इतना प्रेम था कि कोई भाई अपने आपको गरीव नहीं समझता था । इतना भ्रातृभाव था कि यदि कोई भाई नुकसान मे तथा किसी आपत्ति मे आ जाता था
और वह अगरोहे मे आ गया है तो प्रत्येक अग्रवाल उसको एक ईट और एक रुपया देकर अपने समान बना लेते थे । आपस मे बहुत सहानुभूति थी। देवियो का बना मान था और यदि कोई भाई किसी के द्वार पर अपनी लडकी का रिश्ता लेकर चला गया है तो लड के वाला भाई उसको अपना गौरव समझता था और सौभाग्य समझता था कि लक्ष्मी आ गई और पल्ला पसार कर कन्या का रिश्ता स्वीकार लेता था।
इस समय हमारी जाति की दशा बड़ी शोचनीय है । अग्रवालो के सामने अव जीवनमरण का प्रश्न उपस्थित हो गया है । हमारे भाइयो का पशुपालन और कृषि से ध्यान जाता रहा । लेन-देन और वाणिज्य भी एक प्रकार से सरकार के नए कानूनो के कारण नष्ट हो गया है। अब तो हमे सगठित होकर अपनी इस शोचनीय दशा पर विचार करना ही होगा कि हम किस प्रकार जीवित रह सकते है ?
अग्रवाल समाज मे शिक्षा की बहुत हो कमी है । वीसवी शताब्दी शिक्षा और सभ्यता का युग कहलाता है लेकिन हमारे अग्रवाल समाज मे अव भी शिक्षा का बहुत कम प्रचार है । आश्चर्य की बात है कि देश मे अव शिक्षा प्रदान करने वाली जितनी सस्थाए है वे अधिकतर हमारे ही जाति भाइयो के रुपयो से चलती है तो भी हम लोगो के वालको और नवयुवको की भारी सत्या शिक्षणालयो से पूरा लाभ नहीं उठाती। प्रत्येक देश और जाति की उन्नति शिक्षा पर ही निर्भर है। हमारी शिक्षा का प्रादर्श यही होना चाहिये कि हमारे नवयुवको का जीवन सादा और उनके विचार उच्च हो। अपने देश, अपने धर्म और अपनी जाति के लिए उनको अपने कर्तव्य का ज्ञान हो । शिक्षा के अभाव के कारण हमारे घरो तथा हमारी जाति मे सरहतरह की कुरीतिया फैली हुई है जो दिन पर दिन हमारे पतन का कारण बन रही है।
पाज हमारी जाति के नवयुवको के सामने रोटी और कपडे का सवाल है । दूसरी जातिया हमारी जाति को धनाढ्य समझते हुए हम पर ईयां करती है । किन्तु हमारे नवयुवको के अन्दर वेरोजगारी निरन्तर वटती जा रही है। बहुत ने अग्रवाल परिवार जिनके रात-दिन सदावत चलते थे, जो सैकडो गरीबो को गर्मी सर्दी से बचने के लिये क्पडा दिया करते थे उन
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परिवारो के नवयुवक नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते फिरते हैं। ऐसे भी कई उदाहरण मिलत है कि हमारी जाति के नवयुवक पेट की ज्वाला के वशीभूत होकर विधर्मी तक बन गए । क्या ऐसी अवस्था को देखकर पाज के पुण्य दिवस पर हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं है ? भारतवर्ष के व्यापार और कारखाने आदि का बहुत बडा भाग हमारे अग्रवालो के हाथ मे है। यदि यह वनी वर्ग थोडा सा भाग देकर अपनी जाति के बच्चों को अपना ले तो कोई कारण समझ में नहीं आता कि हमारे नवयुवक भी पारसी जाति के युवको से किसी तरह भी कम रहे । हमे पारसी जाति में इसका सवक लेना चाहिये । पारसियो ने अपनी जाति को इतना सगठित कर लिया है और वह अपने नवयुवको की पोर इतना ध्यान देते है कि प्रत्येक पारसी की प्रासन मासिक प्राय १०० २० वताई जाती है और उनमे कोई भी नवयुवक वेरोजगार नजर नहीं आता है।
जिला हिसार की तहसील फतेहाबाद एक ग्राम के रूप मे है और इसी स्थान पर उन्होंने अपना शेप जीवन व्यतीत किया । इसी म्यान से हम लोगो का विकास आरम्म हुमा । महाराज अग्रसैन की १८ रानिया थी । उनका पहला विवाह मगध नरेग महाराज कुमुद की पुत्री माधवी से हुआ, दूसरा विवाह चम्पावती के राजा धनपाल की कन्या त्रनपाला में हुआ, तीसरा विवाह परमार के राजा सुन्दरसेन की कन्या मुन्दरावनी से हुया तथा शेप रानिया महाराज कोलापुर की पुत्रिया थी। इन १८ महारानियों से १८ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके अलग-अलग गुरु थे । इन राजकुमारों की जो सन्तान हुई उनके गोत्र उन्ही राजकुमारों के गुरुमो के नाम से प्रचलित हुए। यह सब कुछ बतलाने में मेरा उद्देश्य यह है कि हम गैप सब बातो को ध्यान में न लाते हुए कि हमे किस धर्म में विश्वास है तथा किस जगह के रहने वाले है, केवल यह ध्यान में रखें कि हम तमाम अग्रवाल एक ही परिवार के है और आपस में एक-दूसरे को माई-भाई समझे। वैश्य भवन
मुझे यह बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि देहली जैसे स्थान में जो कि सब जातियो की कार्यवाहियो का केन्द्र है, हमारा कोई स्थायी प्रवन्ध नही, जहा हम आपम मे इकट्ठे होकर प्रेम-भाव वढा सके और हमारे बच्चे व्यायाम कर सकें तथा आपस मै मगठित हो सके, जिससे जाति मे इतनी नवित्त उत्पन्न हो जाब कि समार की कोई भी जाति हमे दवा न सके । क्या ही अच्छा हो कि आप लोग इस प्रकार का कोई भवन निर्माण कर सके, जिममें व्यायाम, दगल, लाठी और गतका प्रादि सिखलाने का प्रबन्ध हो जाए । यदि देहली वाले भाई इस प्रकार का कोई शुभसकल्प करेंगे तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि वाहर रहने वाले भाई भी इस शुभ कार्य में अवश्य हाय वढावेंगे।
आजकल वैसे तो वकारी चारो ओर ही फैल रही है, परन्तु वैश्य जाति विशेषकर इसका शिकार हो रही है, क्योकि वैश्य जाति के बच्चो मे दुर्भाग्य में यह सन्देह उत्पन्न कर दिया गया है कि वे कोई कार्य, जिसमे शारीरिक वन की आवश्यकता हो, नही कर सकते । यही कारण है कि हमारे बच्चे अभी तक उद्योग-धन्धो, मेकैनिकल लाइन तया फौज व पुलिस मे कोई भाग नही ले रहे है । मेरे विचार में वे कभी भी इतने कमजोर नहीं है, जैसा कि ख्याल किया जाता
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दानवीर सर सेठ श्री हुकमचदजी सा० इन्दौर की अध्यक्षता में भाषण देते हुए
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श्री अगनैन जयनी के अवसर पर करते हु
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अगरोह की बुढाई करवाने ममन
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है। यदि वे इन सब कार्यों में भाग लेना आरम्भ कर दे, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वे सब अभ्य जातियों से बाजी ले जा सकते है ।
आजकल जो जाति उन्नति करना चाहती है, उसके लिए आवश्यक है कि वह शक्तिशाली प्रेस की भी स्थापना करे। हमारा न कोई प्लेटफार्म है और न ही प्रेस ही है । जिन-जिन व्यक्तियो ने प्रेस चलाने का उद्योग भी किया और जातीय उन्नति के लिये प्रचार करना चाहा, उन्हे असफलता ही मिली। आज यदि हमारे किसी जातीय भाई का कोई पत्र' प्रकाशित होता है, तो वह इसलिये जीवित नही रहता कि उन्हें जाति की प्रोर से कोई विशेष सहायता नही मिलती है । इसलिए हमे आज से यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि हम अपने जातीय भाइयो के प्रेसो की पूरी-पूरी सहायता करेगे ताकि हमारे जातीय कष्ट प्रेसो द्वारा दूर करायें जा सकें तथा जाति के छोटे से छोटे कष्ट को प्रत्येक व्यक्ति के कानो तक पहुंचाया जा सके। मुझे यह बतलाने की कोई आवश्यकता नही कि हमारे जिन जातीय भाइयो के हाथ मे कोई भी कार्य है, उनकी सदैव यह इच्छा है कि वे जाति के नवयुवको की हर सम्भव सहायता कर सके । परन्तु इसमे सबसे बडी कठिनाई यह है कि ऐसी कोई सस्था नही कि जिसको वास्तव में सहायता की आवश्यकता हो और जो सहायता दे सकते है, उनका मिलाप करा सके। मुझे यह जानकर बड़ा हर्ष है कि 'वैश्य सहायक सभा देहली ने इस कार्य को करने का भार ले रखा है और वह जाति के नवयुवको को रोजगार दिलाने की हर प्रकार से सहायता कर रही है। यही नही वरन् इन्होने जाति के नवयुवको को भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे सिखलाने का कार्य भी आरम्भ किया हुआ है । मेरा विचार है कि यदि भाप सभा की सहायता करेंगे तो यह सभा धापके बच्चो को बहुत कुछ लाभप्रद सिद्ध होगी ।
एक आदर्श उपयोगी संस्था
भील श्राश्रम
राजेन्द्रप्रसाद जैन, इन्दौर
[लालाजी की सामाजिक कार्यों में विशेष रुचि थी । जैन समाज के कार्यों मे ही उन्हे उत्साह न था वरन् सेवा का कार्य करने का जब भी उन्हें अवसर मिला वे तत्काल उस कार्य प्रवृत हुए। गंगानगर प्रादर्श भील उद्योग आश्रम का उद्घाटन उनके हाथो से हुआ और उन्होने इस आश्रम मे विशेष रुचि प्रदर्शित की। इस सस्था का कुछ परिचय दिया जा रहा है ।]
भारत के मुख्य विभाग मालवा, राजपूताना तथा गुजरात प्रात के घनै बनो मे आधुनिक शहरो से दूर, विध्याचल, मरवली व सतपुडा भादि पर्वतश्रेणियो के मध्य मे करोडो की सख्या मे वसने वाली भील जाति की दयनीय दशा की ओर यदि दृष्टिपात किया जाय, तो कोई भी ऐसा सहृदय व्यक्ति न होगा जो आँसू न बहाये। उक्त जाति भारतवर्ष की सबसे प्राचीन जाति है । यह मानने में तो किसी को विरोध नहीं हो सकता । राजनीति, शिक्षा शिल्प, विद्या तथा व्यापार मे, इतिहास मे उक्त जाति का स्थान क्या रहा होगा, यह तो नही कहा जा सकता,
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परन्तु, वीरता, धौरता, रणकुशलता, देशप्रेम तथा बात के पक्के होने का प्रमाण आज भी इतिहास के पन्ने-पन्ने से मिल रहा है । कितनी ही बार हमारे राजाओ तथा राणामो की रक्षा इसी कौम के होनहारो ने अपने प्राण देकर भी की थी। कितनी ही बार स्वदेश-रक्षा के निमित्त इन्ही बहादुरो की तलवारे यवनो से लडी थी, कितनी ही शत्रुओ की आग बरसाने वाली तोपो का मुकाबला इन्ही रणबाकुरे सिपाहियो के तीरो, भालो और सनसनाते हुए वाणो ने किया था तथा कितनी ही बार इन्ही भील सरदारो ने देश के लिए अपने होनहार बच्चो को अर्पण कर दिया था। परन्तु कितने दुःख तथा शर्म की बात है कि हिन्दू धर्म के लिए प्राण देने वाली कौम के अनुयायी ही हिन्दू धर्म के मुख्य तीर्थ गौशाला के सहारक बने । गाय को मार कर अपने पेट की ज्वाला को शान्त करे ।। परन्तु इसमे उनका क्या दोष ' चे माज प्रशिक्षित है तब भी उन्हे सन्तोष है । उनके पास पहनने को कपडा नहीं, तो भी उन्हें परवाह नहीं। भगवान् ने उन्हें दुःख सहने की, गर्मी और सर्दी की तकलीफे बर्दाश्त करने की शक्ति दी है। आप उन्हे गुलाम बनाइये, मनचाहा काम उनसे लीजिये, सब कुछ बर्दाश्त करेंगे। वहा उन्हे अन्न न मिले न सही । घास-फूस-जगली कन्द-मूल पर गुजारा करेगे । परन्तु जब वह भी न मिले तो क्या करें? मज वर होकर उन्हें सब कुछ करना पड़ता है। खेती आदि के काम के लिए उनके पास गायें व बैल होते है, वे उन्ही को मार कर उनके मास से अपना उदर पोषण करते है। और इसके सिवाय चारा भी क्या ? जब उनके जानवरो को भी घास मिलना तक कठिन हो जाता है, तब मजबूरन उन्हें ऐसा करना होता है।
आज उन्हे यदि उचित रूप से शिक्षा दी जाए, गोमाता की महत्ता को उन्हें बताया जाए, हिसा तथा चोरी की बुराइयो को उनके सामने रखा जाए, धर्म, पुरुषार्थ, उद्योग-धधा, कृषि, व्यापार, परोपकार, सेवा तथा गोभक्ति की शिक्षा पुस्तकीय तथा व्यावहारिक रूप से देकर विश्वप्रेम का पाठ पढाया जाए, तो कोई ऐसी शक्ति नहीं जो उन्हे सुन्दर नागरिक बनमे से रोक सके । आज भील जाति चोरी, हिंसा, डकैती आदि बुराइयो के कारण विश्व मे बदनाम हो रही है । यदि यही बुराइयां उनसे दूर कर दी जाये तो वह दिन दूर नहीं जब वह फिर अपने प्राचीन गौरव की याद कर देश के लिए हर तरह की कुरबानी करने के लिए तैयार रहेंगे। देश के लिए जियेंगे और देश के लिए मरेगे।
इन्ही विचारो को लेकर मादर्श भील उद्योग प्राश्रम गगानगर का जन्म नीमखेडा स्टेट के चीफ ठाकुर गगासिंहजी द्वारा हुमा था। वैसे इस सस्था की उम्र अभी केवल ४॥ मास की है । परन्तु इस थोडे से समय में ही वह अपने कार्य में सफल हुई है। उस सफलता को देखकर कहा जा सकता है कि उपरोक्त संस्था को जनता का यदि कुछ भी सहयोग प्राप्त हुभा तो वह भारत की एक प्रादर्श सस्था प्रमाणित हो सकेगी।
गत २२ मार्च को सस्था का उद्घाटन श्रीमान लाला तनसुखरायणी जैना मैनेजिंग डायरेक्टर तिलक बीमा कम्पनी लिमिटेड न्यू देहली के कर कमलो द्वारा हुआ । और तब से प्राज तक जो कार्य सस्था ने किया उसका विवरण दिया जाता है।
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उद्घाटन से इस समय तक लगभग एक सौ विद्यार्थी (भील बालक) आश्रम में प्रविष्ट हो चुके है और इस समय कितने ही माता-पिता अपने बच्चो को पाश्रम में प्रविष्ट कराने के इच्छुक है। माता-पिताओं का बच्चो को आश्रम में दाखिल कराने को इच्छुक होना इस बात का द्योतक है कि उनके हृदय मे शिक्षा प्राप्त करने की कितनी उत्कण्ठा है। दूसरी बात यह भी है कि वे लोग अपने घर मे बच्चो को भर पेट भोजन नहीं दे सकते ।
शिक्षा-प्रविष्ट होते समय जो बालक, असभ्य, हिंसक तथा निरुद्यमी थे, वही बालक माज विनम्र, विनयशील, अहिंसक तथा सभ्यता के पुतले बने है । जिन्हें बोलने तक की तमीज नही थी, वही बालक आज मधुर कण्ठ से सुबह शाम भगवान की स्तुति करते तथा कन्नि से कठिन हिन्दी व सस्कृत के शब्दो का उच्चारण करते हैं ।
कृषि-विभाग के लिए भूमि -गंगासिंहजी द्वारा प्राश्रम को पाच सौ बीघा जमीन भेंट स्वरूप प्रदान की गई थी। उसी के कुछ भाग में खेती की जायगी और वालको को कृषि की शिक्षा सुन्दर तरीके से देने के साथ-साथ उमसे आश्रम की प्राधिक कठिनाई भी बहुत कुछ हल हो सकेगी।
गोशाला विभाग-आश्रम के ही अन्तर्गत एक गोशाला विभाग भी रखा गया है। जिसमें भील बालको को गो-भक्ति की शिक्षा देने के साथ-साथ सुन्दर सुडौल बैल भी तैयार किये जाएंगे।
१ उद्योगशील विभाग में इस समय पेपर इन्डस्ट्री का कार्य बड़ी सफलतापूर्वक चल रहा है। भील वालको द्वारा पेपर, ब्लाटिंग पेपर, राईटिंग पेपर तथा लिफाफे तयार किये गये है, जो कि शीघ्र ही वानार मै पा रहे हैं ।
२ बास की चि, चटाइया आदि बनाने का कार्य भी प्रारम्भ हो गया है।
३ रूई के सुन्दर खिलौने बनाने के लिए एक मद्रासी सज्जन आ गये है अत यह कार्य शीघ्र ही वालको को सिखाना प्रारम्भ कर दिया जायगा ।
कुछ कार्य और भी है जो कि इनमे पूर्ण सफलता मिलने पर प्रबन्धकों द्वारा प्रारम्भ किए जावेंगे।
इस समय सस्था स्टेट की न रह कर पूर्ण रूप से सार्वजनिक बन गई है। सदस्यो को पाजीवन, सहायक, सरक्षक तथा शुभचिन्तक मावि श्रेणियो मे वाटा गया है। १००१), १०१) तथा ५१) २० देने वाले सज्जन क्रमश सरक्षक, सहायक तथा शुभचिन्तक कहलाएंगे । अत माशा है कि जनता अधिक से अधिक संख्या में उक्त सस्था के सदस्य बनकर एक आवश्यक तथा उपयोगी सस्था को अपनाते हुए, धर्म तथा देशोपकार के काम में भाग लेगी।
विश्व-शान्ति और व्यक्ति की शान्ति, दो वस्तुएं नहीं है। प्रशान्ति का मूल कारण अनियन्त्रित लालसा है । लालसा से सग्रह, सग्रह से शोषण की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।
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आबू टैक्स विरोधी आन्दोलन
श्री विजय कुमारजन भारत की प्रत्यन्त कलापूर्ण और ससार की सर्वश्रेष्ठ स्थापत्य-कला की सुन्दर मूर्तिमान कृतियो मे मे पाबू के विशाल मनोज्ञ नयनाभिराम दर्शनीय मनोज्ञ मन्दिर हैं। इन अद्वितीय मन्दिरो का निर्माण वीरकेशरी वस्तुपाल और तेजपाल जैसे समर-धुरन्धर मन्त्रिप्रवरो ने कराया। सिरोही राज्य मे यह मन्दिर स्थित है। वहां के राजा ने इन मन्दिरो के दर्शनार्थ श्रद्धालु यात्रियो पर टैक्स लगा दिया । यह बडे कलक की बात थी जिसे कोई भी स्वाभिमानी मनुष्य सहन नहीं कर सकता था । पाबू का आन्दोलन कैसे शुरू हुआ और उसमे सफलता कैसे प्राप्त हुई-इस सम्बन्ध मे लालाजी ने लिखा है कि मार्च सन् १९४१ की बात है कि मैं गुरुदेव श्री पूज्य शान्तिविजय महाराज के दर्शनार्थ आबू गया। वहां पहुंचने पर जब राज्य की तरफ से मुडका टैक्स मांगा गया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि एक हिन्दू रियासत के मन्दिरो मे पूजा करने और देवदर्शन करने पर टैक्स कैसा ? जबकि यह टैक्स मन्दिर की भलाई अथवा यात्रियो को सुविधा पहुंचाने मे खर्च न होकर राज्य के कोष मे जाता है । उस समय तो मैंने टैक्स देकर दर्शन किए लेकिन मेरे आत्म-सम्मान को इससे भारी ठेस पहुंची। दिल्ली आने पर मैने इस टैक्स के विरोध में पान्दोलन शुरू किया । चूकि यह टैक्स हिन्दू मात्र को खल रहा था। मेरी अपील पर चारो तरफ से सहयोग का हाथ बढाया गया। जनवरी १९४२ मे ब्यावर मे एक महती जैन सभा बुलाई गई और उसमे इस टैक्स का विरोध करने के लिए आन्दोलन शुरू करने का निश्चय किया गया। जगह-जगह सभाएं हुई । और पान्दोलन जोरो के साथ चल पड़ा। सिरोही राज्य ने इस आन्दोलन को दबाने के लिए राज्य में रहने वाले जैनियो पर तरह-तरह की सख्तियां की । परन्तु इससे आन्दोलन को बल ही मिला। जून सन् ४२ मे एक शिष्ट-मन्डल सिरोही के दीवान से भी मिला परन्तु कोई सन्तोषजनक फल न हुआ। आन्दोलन बराबर चालू रहा लेकिन १९४२ का भगरत आन्दोलन शुरू होने पर हमारे बहुत से कार्यकर्ता इस इस तरफ झुक गये और बहुतो को जेल जाना पड़ा । उस समय इस आबू मन्दिर आन्दोलन को स्थगित करना ही उचित समझा गया क्योकि हमको पूर्ण विश्वास था कि देश को माजादी मिलने पर ये छोटे-मोटे टैक्स तो क्या हमारी सब समस्याएं हल हो जाएंगी।
सौभाग्य से देश की आजादी का सुनहरी दिन पाया। हमारी यह माग प्राबू मन्दिर मुडका टैक्स हटाने की माग भी परिवर्तित समय मे शीघ्र मान ली गई और महारानी साहिबा सिरोही ने उस मुडका टैक्स को सर्वथा हटाने के लिए घोषणा करदी । इस आन्दोलन की सफलता मे समस्त समाचारपत्रो, प्रमुख नेताओ विभिन्न स्थानो की पचायतो और अनेक उदीयमान कार्यकर्तामो का प्रमुख हाथ है जिन्होने इस आन्दोलन को अपनाकर हमारे कार्य मे पूर्ण सहयोग दिया । समस्त जनता का विशेष प्राभार है कि जिसने तन-मन-धन से सहायता कर आन्दोलन को सफल बनाया।
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इस आन्दोलन का विस्तृत विवरण इस प्रकार है.
आबू परिचय
राजपूताने की स्वर्ण-भूमि के अचल मे प्राचू पर्वत अपनी ऐतिहासिकता, धार्मिकता एव अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण गौरवपूर्ण स्थान रखता है । मध्यभारत की भूमि पर इसके शिखर सर्वोच्च माने जाते है । भाबू का सर्वोच्च शिखर ५६५० फुट ऊंचा है। कौन ऐसा मानव यात्री है जो आबू के अचल मे पहुँच कर इसकी हरियाली लताकुन्जो, सरोवर, ऊँचे-नीचे मार्गों और लता- पुप्पो से सुगन्धिन वातावरण पर मुग्ध होकर कुछ समय के लिए अपने को भूल न जाता हो । श्रावू यदि ऋषि - महात्माओ के लिए एकात भूमि है तो विलासप्रिय लोगो के प्रकृतिदत्त मनोरम क्रीडास्थली । दोनो के हो सामने यहा प्रकृति का भव्य एव विराट रूप उपस्थित होता है ।
धर्मप्रेमी हिन्दुओ के लिए प्रावू पर्वत शताब्दियों से पूर्व से ही ऋषियो के तपोवन के रूप मे पुण्य भूमि रहा है। यहाँ पर हिन्दू धर्म के महान ऋषियो ने अपनी योग साधनाएं पूर्ण की है। आबू पर्वत की व्युत्पत्ति के साथ हिन्दू धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । जब हम धार्मिक ग्रन्थो और पुराणो के पन्ने पलटते है तो स्थान-स्थान पर अबु द गिरि ( भाज का आबू) का उल्लेख मिलता है । श्राबू की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे पौराणिक उल्लेख इस प्रकार है :
दूध
प्राचीन काल मे ऋषि वशिष्ठजी यहाँ अन्य ऋपियो के साथ प्राश्रम बनाकर तपस्या करते थे । एक बार वशिष्ठजी की कामधेनु गौ वहा उत्तक ऋषि के खोदे हुए गड्ढे में गिर गई जिसमें कामधेनु के लिए निकलना असम्भव था । वशिष्ठजी उसे निकालने के प्रयत्न में थे । लेकिन कामधेनु तो स्वय कामधेनु थी उसने अपने से उस गड्ढे को भर दिया और स्वयं तर कर बाहर निकल आई। फिर भी इस दुर्घटना से वशिष्ठजी को अत्यन्त दुख हुआ और उन्होने उस गड्ढे को सदा के लिए भर देने के लिए पर्वतराज हिमाचल से प्रार्थना की। हिमाचल वशिष्ठजी की प्रार्थना पर अपने पुत्र नन्दिवर्धन को आज्ञा दी । वशिष्ठजी नन्दिवर्धन को द नामक सर्प के द्वारा ले प्राये और उस गड्ढे में स्थापित कर दिया जिसमे कामधेनु गिर गई थी । श्रवुद सर्प भी नन्दिवर्धन के नीचे रह गया । इसलिए इस पर्वत का नाम अर्बुद और नन्दिवर्धन दोनो एक साथ-साथ प्रचलित हुए । प्रर्बुद का अपना नाम आबू भाज भी प्रचलित है । । यह भी कहानी बहुत प्राचीन चली आ रही है कि श्राबू के नीचे रहने वाला अर्बुद सर्प छ. छ मास में जब करवट बदलता है तो आबू पर भूकम्प होता है । आजकल भी भूकम्प भावू पर बहुधा होता रहता है। और लोग इसका कारण इसी पुरानी कहानी के आधार पर बतलाते हैं ।
नन्दिवर्धन की प्रतिष्ठा के पश्चात् तो उस तपोवन भूमि का धार्मिक महत्व दिनप्रतिदिन बढता हो गया । श्रावू पर्वत धार्मिक दृष्टि से भारत की प्रमुख पुण्य भूमियो मे रहा है । और उस काल मे प्रमुख तपस्वियो महात्माओ और सन्नाटो को प्राबू के एकान्त प्राकृतिक सौन्दर्य और निर्जनता मे अपूर्व प्रात्म-सुख और शान्ति मिली है ।
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गुरु दत्तात्रेय भगवान ने प्रावू के सर्वोच्च शिखर गुरु युग को अपने पावन चरणो से पवित्र किया । गुरु शिखर नाम और गुफा मे गिला पर अकित चिह्न आज भी गुरु दत्तात्रय की स्मृतिस्वरूप आबू पर विद्यमान है । प्रतापी पाण्डवो के भी बनवासकाल मे कुछ समय रहने का पता हमे आबू पर्वत पर मिलता है। पाण्डव गुफाएं और भीम गुफाएं आज भी उनके नाम से प्रसिद्ध है। राजा नल की गुफा अचानक उस विदर्भ सम्राट की याद दिलाती है जिसने जुए मे राजपाट हार कर मुकुमारी दमयन्ती समेत वन-वन भटकना पड़ा जिसे चक्रवर्ती सम्राट हरिश्चन्द्र अपनी रानी शैव्या और पुत्र रोहिताश्व के साथ नगे पाव भटकते हुए प्रावू की गान्तिदायिनी उपत्यकामो मे गरण लेने से नहीं चूके। हरिश्चन्द्र गुफा पाज भी उनके नाम से प्रावू पर्वत पर विख्यात है।
नन्दिवर्धन की स्थापना के बाद तो प्रावू का सौन्दर्य और भी बढ गया। प्राचीनकाल मे कितने ही नपस्वियो ने यहा अपनी तप-साधनाएं सफल की। यहा के एकान्त प्राकृतिक सौन्दर्य मे उन्हें अपूर्व आत्ममुख और गान्ति मिलती थी। आज भावू पर जो पुण्य स्मृति-चिह्न पाये जाते है उनमे गुरु शिखर पर हमें गुरु दत्तात्रय का आश्रम मिलता है जहाँ उनके चरण चिह्न प्राज भी विद्यमान है । प्रतापी पाण्डवो ने भी आबू पर्वत पर निवास किया, उनकी रमणीय गुफाएं आज भी प्रावू मे देखने योग्य हैं ।
राजा नल की गुफामे जुए मे राजपाट हारे हुए उस विदर्भ सम्राट की याद दिलाती है जिसे रानी दमयन्ती समेत बन-बन ठोकरें खानी पड़ी।
उस पापकाल मे आबू के अचल में उन्होने अपनी कुछ दुर्भाग्य भरी रातें बिताई । ब्राह्मण को अपना राजपाट देकर दक्षिणा के चक्कर मे भटकते हुए राजा हरिश्चन्द्र भी दुर्दिनो मे पाबू को उपत्यका मे शरण लेने से न चूके ।
पौराणिक काल को छोडकर जब हम ऐतिहासिक काल में आते हैं तो प्रावू का इतिहास हमे राजपून नरेशो की वीरता और उनके पराक्रम से रजित दिखाई देता है । शहाबुद्दीन गोरी ने यही पाबू की घाटियो मे शिकस्त खाई थी। कितनी ही ऐतिहासिक लडाइयां आबू के अचल मे लड़ी गई थी। उनकी स्मृतियो के अनेको चिह्न हमे प्रावू मे दिखाई देते है। राजपूताने और मारवाड के समस्त क्षत्रिय राजामो के लिए प्राबू आकर्षण का केन्द्र रहा है। इसमे कोई सन्देह नही कि जहा ऋपियो और तपस्वियो ने भाव की गिरि-कन्दराओ मे अपनी योग-साधनाएं सफल की, वहा इन वीर क्षत्रिय नरेशो के लिए आव ग्रीष्मकाल मे अनोखा गान्ति-निवाम रहा है।
तुम पथिक बनकर पथ पर चलो, लेकिन पथ पर कब्जा मन करी | पथ पर चलो पर पथ के नाम पर वडी-बड़ी अट्टालिकाएं और महल खडे मत करो।
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ऐतिहासिक काल में बू
इसमे कोई सन्देह नही कि जहां भाव के एकान्त गिरि-कन्दराओ मे तपस्वी ईश्वरचिन्तन मे लीन रहते होगे, वहाँ इन क्षत्रिय नरेशो की सुन्दरी राजमहिपियाँ आवू के सरोवरो मे लहरो के साथ जल क्रीडा करती रही होगी, उनके नूपुरो की झकार और वसन्त के गीतो से, श्रावू के वनपथ और लताकु ज सगीतमय हो उठते होगे। उनके केशो और अगो से उठती हुई सुगन्ध से श्राव का वसन्त पवन गन्धमय रहता होगा | महारावल समरसिंह, महाराव लुभा, महाराजा तेजसंह, राणा लाखा और कु भा सरीखे प्रतापी नरेशो की वीर पत्नियाँ यहाँ अहर्निश विहार करती थी । उस समय भावू पर्वत स्वर्गभूमि था और नरेश इसी मे इन्द्र के नन्दनवन की कल्पना करते थे ।
लेकिन उस समय इस नन्दनवन तक पहुंचना कितना दुर्गम और साहस का काम था, उसकी कल्पना आज हम नही कर सकते । श्राबू के पर्वत शिखरों को दूर से देख लेना आसान था, लेकिन उन तक पहुँचकर वहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य का आनन्द प्राप्त करना दुर्लभ था। तभी तो ऐतिहासिक चिन्हो की खोज में भटकने वाले प्रसिद्ध ऐतिहासवेत्ता कर्नल टाड ने जब आबू को कठिन चढाइयो और दुर्गमताभ को पार कर आबू की प्रथम झलक पाई, तो लिखा है
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"It was nearly noon, when I cleared the path of Sitla Mata, and as the bluff head of mount Abu opend upon me, my heart beat with joy, as with the sage of Syracaus I exclaimed, "Eureka" अर्थात् "मध्याह्न के लगभग जव मैं शीतला माता के घाट से चला, और जब प्राबू के उच्च शिखर मेरे नेत्रो के सामने दृष्टिगोचर हुए, तो मेरा हृदय प्रसन्नता ने नाच उठा और सिराक्युस ऋषि के शब्दो मे मैंने हर्षातिरेक से दुहराया 'यूरेका' (जिसे खोजता था, उसे पा लिया) ।”
ऐसे थे आबू के दुर्गम पथ और उनकी बीहडता, जिन्हें पार कर किसी की खुशी का वारापार न रहता था । लेकिन उस व्यक्ति की कहानी प्रावृ के इतिहास से सम्बन्धित एक अमर प्रेम-कथा है, जिसे कर्नल टाड से पहले शायद प्रथम बार आबू पर चढने-उतरने के लिए १२ मार्ग बनाए । सम्भव है उसी के बनाए हुए मार्ग से चढकर कर्नल टाड बाबू की उच्चसम भूमि पर पहुँचे होगे । वह व्यक्ति रसियाबालम के नाम से विख्यात तात्रिक था और आबू की राजकन्या से प्रेम करता था । उसने चाहा कि राजकन्या के माता-पिता उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दें। लेकिन राजा और रानी किसी प्रकार भी राजकन्या का विवाह रसियावालम के साथ नही करना चाहते थे । रसियावालम की निरन्तर प्रेरणाओ और प्रार्थनाओ से आखिर राजा इस गतं पर राजकन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए कि वह सूर्यास्त के पश्चात्, प्रात मुर्गा बोलने से पूर्व ही, एक रात मे आबू पर चढने उतरने के लिए बारह मार्ग बना दे । राजा यह कार्य रसियाबालम की शक्ति से बाहर समझते थे लेकिन रसियाबालम ने राजा की शर्त स्वीकार
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करली श्रौर सूर्यास्त के पश्चात् अपनी मन्त्र शक्ति के बल से आबू पर्वत पर मार्ग निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। लेकिन रानी इस शर्त पर भी अपनी कन्या का विवाह रसियाबालम के साथ करने को तैयार न थी, और वे जानती थी । रसिया बालम समय की अवधि के भीतर प्रवश्य काम पूरा कर देगा, तब उन्हे लाचार होकर अपनी कन्या का विवाह उसके साथ करना होगा । उधर रसिया बालम ध्यानमग्न होकर अपनी सारी मन्त्र शक्ति से श्राबू पर मार्ग निर्माण का कार्य कर रहा था, यहाँ रानी ने उसे कर्त्तव्य च्युत करने का निश्चय किया । ज्योही रात्रि का तीसरा पहर समाप्त हुआ और मुर्गे के बोलने का समय निकट श्राया कि रानी ने अवधि समाप्त होने से पूर्व ही मुर्गा बोलने की आवाज लगा दी । रसियाबालम का कार्य पूर्ण ही होने को था कि मुर्गे की ध्वनि सुनकर एकदम निराशा का धक्का खाकर काम छोड़ बैठा, और इस प्रकार रानी के छल से अपनी शर्त पूर्ण करने में असफल हो गया । जब रसियाबालम को इस बात का पता चला कि उसके साथ रानी द्वारा छल किया गया है, तो उसने अपने श्राप से रानी और राजकन्या, दोनो को पत्थर का बना दिया और स्वयं विष खाकर वही मर गया । रसियाबालम की जो मूर्ति आबू मे स्थापित है, वह एक हाथ मे विष का प्याला लिए आज भी खडी दिखाई देती है । उसी के बगल मे राजकन्या की पाषाण मूर्ति है। रानी की मूर्ति तोड डाली गई है और उसके स्थान पर पत्थरो का ढेर देखने को मिलता है ।
यह है आलू के मार्गो की और उनके निर्माणकर्त्ता की दुखान्त प्रेम-कथा | आज भी आबू पर चढने के लिए बारह मार्ग बतलाए जाते है, कुछ पर आवागमन होता है, कुछ लुप्तप्राय हो गये है । प्रा किसी समय ऐसा ही प्रेमोन्मादक स्थान रहा है । आपको श्रावू पर्वत की भूमि के कण-कण मे ऐतिहासिक और धार्मिक रोमान्चकारी कहानियाँ भरी मिलेगी ।
आबू के कलासजंक
लेकिन घाबू जहाँ ऐतिहासिक काल के
राजा-महाराजाओ के लिए नन्दनवन और डास्थली रहा है, वहाँ उन्होने आबू मे अपनी धार्मिक भावनाओ को साकार रूप देने लिए अलौकिक शिल्प और कला की सृष्टि भी की है। उन्होने अपने काल की वैभवशाली शिल्प-कला के अमरचिन्हो के रूप मे मन्दिरो का निर्माण कराकर प्राबू के प्राकर्षण मे चार चाँद लगा दिए है । इस प्रकार आबू की यह कलापूर्णता सोने मे सुगन्ध की उपमा को सार्थक करती है । उन पराक्रमी नरेशो की महत्वकाक्षाओ और धार्मिक भावनाओ के प्रतीक, हमे श्राबू पर्वत पर मन्दिरो देवालयो, मूर्तियो, महलो और ध्वसावशेषो मे, शिला लेखो और ताम्रपात्रो के रूप मे जहाँ-तहा बिखरे मिलते है । हिन्दुओ और जैनो की सम्मिलित कला, धर्म और संस्कृति का यहाँ हमें एक साथ दर्शन होता है । जहाँ जैन महामन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल, तेजपाल ने सगमर्भर, शिल्पकला और धातुकला के उत्कृष्ट उदाहरणो के रूप मे विश्वविख्यात जैनमन्दिर निर्माण कराये, वहाँ हिन्दू सम्राटो मे मेवाड उदयपुर के राणाप्रो, चन्द्रावती चौहान के बरानो और सिरोही के तत्कालीन शासको ने भी समय-समय पर ऐतिहासिक कला दर्शक हिन्दू मन्दिर बनवाये । भावू पर्वत पर इन हिन्दू मन्दिरो, देवालयो और धार्मिक तीर्थस्थानो की सख्या सौ के लगभग है, जो जैनियो के स्थानो से तो कई गुणी अधिक है। इन हिन्दू मन्दिरो की निर्माणकला पर भी हमे
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जैनियो के मन्दिरो की शिल्पाला और धातुकला की छाप लगी दिखाई देती है । इस दृष्टि से आबू के हिन्दू-मन्दिरो मे जैसी धातु और पापाण की विशाल मूर्तियां है, वैसी भारत के शायद ही और किन्ही मन्दिरो मे पाई जाती हो। प्रमुख हिन्दू मन्दिर
अचलेश्वर महादेवजी का मन्दिर आबू का सबसे प्राचीन मन्दिर माना जाता है क्योकि आबू पर्वत के मधिष्ठाता देव, अचलेश्वर महादेवजी ही है। माबू के परमार भासक इन्हें अपना कुलदेवता मानते थे 1 वाद मे जव चौहानो का राज्य प्रावू पर हुआ तो वे भी इन्हे अपना कुलदेव मानने लगे। इस मन्दिर मे शिवलिंग नहीं, वरन् शिवजी के चरण का अंगूठा ही पूजा जाता है। मन्दिरो मे जो जिलहरी है, उसमे शिवजी के चरण का अगूठा ही स्थापित है। सामने दीवार में पार्वतीजी और पार्श्व मै ऋपियो और राजामो की मूर्तिया है। इसके गूढ़-मण्डप से अलग एक शिवलिंग पट है, जिसमे १०८ शिवलिंग बनाये गए है। इस मन्दिर का कई राजानो ने अपने-अपने समय में जीर्णोद्धार कराया और मूर्तियां भी स्थापित की। इसके जीणोद्वार का सदसे प्राचीन उल्लेख सवत १३४३ मे मिलता है। उस समय मेवाड़ के महारावल समरसिंह ने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर इन पर मोने का ध्वजदड चढाया और उनके शिलालेख में तपस्वियो के लिए भोजन और निवास की व्यवस्था कराने का भी उल्लेख मिलता है । मन्दिर के सामने नदीभगवान की एक विशालकाय पीतल की मूर्ति है, जिसकी पीठ पर खुदे हुए लेख के अनुसार वह स० १४६४ की बनी हुई मालूम होती है। मन्दिर की देहरी के बाहर बातु का एक त्रिमूल है, जिमे राणा लाखा, ठाकुर माडण और कुवर भादा ने सम्मिलित रूप से बनवाकर स्थापित कराया था। शकरजी का इतना विशाल त्रिशूल भारत के और क्सिी शिवालय में देखने को नहीं मिलता।
अचलेश्वर महादेवजी के मन्दिर के महाते मे और भी अनेक छोटे-छोटे हिन्दू मन्दिर है। इसी मन्दिर की वगल मे पवित्र मन्दाकिनी-फुड है, जो १०० फुट लम्बा और २४० फुट चौड़ा है । इतने विशाल कुड भारत में विरले ही देखने को मिलते है । कुण्ड के समीप ही परमार राजा धारावर्प की शक्ति के चिन्ह धनुप और पत्थर के तीन भैसे स्थापित है, जिन्हें वह एक ही वाण से वेध सकता था। मदाक्निी -कुण्ड के समीप ही सारणेश्वर महादेव के भी दर्शन होते हैं। इस मन्दिर में महाराव मानसिंह की पांचो रानियो सहित मूर्तिया स्थापित है, जिनमें वे शिवजी की आराधना करते हुए दिखाये गए हैं। कहा जाता है ये पाचो रानिग मृत्यु के पश्चात् राजा मानसिंह के साथ सती हुई थी। मन्दिर के आसपास ही भर्तृहरि-गुफा, रेवती-चुप्ड और मुगुभाश्रम दर्शनीय स्थान है। गुरुशिखर
ओरिया से वायव्य कोण मे गुरुशिखर आबू का सर्वोच्च अग है, जिसकी ऊँचाई समुद्र की सतह से ५६५० पुट है । परिश्रम की चढ़ाई के पदचात् उस निखर पर गुरु दत्रात्रेय के चरण
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एक शिला के ऊपर अकित मिलते है, जिनका स्पर्श आज भी धर्मप्राण हिन्दुओ मे कल्याणदायक माना जाता है । इसी स्थान पर एक वृहदाकार घण्टा लटकता है जिसका रव मीलो तक प्रावू की पर्वतश्रेणियो में गूजता है। रसियाबालम कुमारी कन्या
____ यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक मन्दिर जैन मन्दिरो के पार्श्व मे है। इसमे श्रीमाता, गणपति, महादेव और शेषशायी विष्णु भगवान के भी मन्दिर है। अम्बिकादेवी का मन्दिर
___ अम्बिकादेवी का मन्दिर अति प्राचीन गुफा मे है। कुछ यात्रीगण इन्हे अधरदेवी भी कहते है क्योकि इस मन्दिर तक ४५० सीढियां चढ़ने के बाद पहुंचना होता है। पार्श्व मे महादेवजी का भी मन्दिर है।
इसी प्रकार आबू पर्वत पर पापकटेश्वर महादेव, नखीतालाव, रघुनाथजी का मन्दिर, दुलेश्वरजी का मन्दिर, ज्वालादेवी, भद्रकाली, हृषिकेश आदि देवी-देवताओ के कितने ही देवीमन्दिर, देवालय तथा देवगुफाएं है। इसके अलावा तीर्थ-सरोवर, रामझरोखा, ऋषियो और तपस्वियो के आश्रम तथा गुफायें प्राकृतिक सौन्दर्य और धार्मिक दृष्टि से दर्शनीय है। साराश यह कि श्रावू पर्वत की भूमि का चप्पा-चप्पा देवताओ और ऋपियो की महिमा एवं धार्मिक वैभव से भरा पड़ा है । इसलिए हरएक धर्मप्रेमी हिन्दू पाबू तीर्थ मे अपने को पाकर कृतार्थ समझता है । जैन मन्दिरो मे धार्मिक कला-शिल्प
___कलादर्शन की दृष्टि से तो जैन मन्दिर अपनी उत्कृष्टता के लिए विश्वविख्यात है ही, जिनके अतिसूक्ष्म और कलापूर्ण शिल्प को देखकर विदेशी निर्माण-कला विशारद भी पाश्चर्यचकित रह जाते है, जिसकी सगमर्मर की कला की तुलना पर केवल ताजमहल ही आ सकता है । लेकिन कुछ बातो मे विशेपज्ञो ने इसे ताजमहल से भी बढकर बतलाया है। फिर इनकी धातुकला तो अद्वितीय है । इन मन्दिरो मे केवल जैन सस्कृति और जैन धर्म का ही चित्रण नही है, वरन् एक ऐतिहासिक युग की वेष-मूपा, रीति-रिवाज और अजन्ता तथा एल्लोरा की गुफाओ के समान भावविन्यास और नाट्यकला का सागोपाग चित्रण भी कलाशिल्प और पच्चीकारी मे देखने को मिलता है । मन्दिरो के विभिन्न चित्रलेखो मे हिन्दू दर्शको को हिन्दू-धर्म और संस्कृति की झलक भी देखने को मिलेगी, जिन्हे कि उन कुशल कलाशिल्पियो ने चित्रित किया है। श्रीकृष्ण भगवान के चरित्र और नरसिंह अवतार की कथाये इन मन्दिरो मै वडी सुन्दरता के साथ अकित की गई हैं। जिनकी कलापूर्णता देख वरवस मुग्ध होकर रह जाना पड़ता है। कला और अध्ययन की दृष्टि से तो इन मन्दिरो की कला का अध्ययन महीनो मे भी पूर्ण नही हो सकता । जैन महामन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल तेजपाल, आबू सरीखे पर्वत-शिखर पर अपनी धार्मिक महत्वकाक्षा, पराक्रम और वैभव के प्रतिरूप मे १६ करोड की धनराशि लगाकर इन अमर-चिन्हो का निर्माण कर गए है और हिन्दू-धर्म के प्रति उनको कैसी रुचि थी उसका भी परिचय वे देने से नहीं चूके । ऐसा है पाबू त हिन्दू-धर्म और संस्कृति का पुण्य प्रतीक ।
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आबू का माधुनिक रूप
आबू पर्वत पर बीसवी शताब्दी मे निर्माण की दृष्टि से जो परिवर्तन हुए है, उनसे भावू के वर्तमान स्वरूप मे आधुनिकता की एक नई छाप-सी लगी दिखाई देती है, और उसका महत्व भी अब कही अधिक बढ गया है। ब्रिटिश सरकार के आगमन और राजपूताना स्टेट की ऐजेन्सी की स्थापना से प्रावू राजपूताना और मध्यभारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गया है। इसी लिए आबू पर्वत पर जहा मन्दिर और देवालय है, वहाँ आधुनिक ढग के महाराजा जयपुर, जोधपुर, अलवर, सिरोही, बीकानेर, लिमडी, भरतपुर, धौलपुर, सीकर, जैसलमेर, खेत्री आदि के ग्रीष्मकालीन महल (Summer Palaces), और ऐजेन्ट टू दी गवर्नर-जनरल, रेजीडेन्सी, आदि की भव्य इमारतें भी है। क्रीडा, नौकाविहार और भ्रमण के आधुनिक साधन भी यहाँ प्रस्तुत है । जहां मन्दिरो के घण्टो और घडयालो की ध्वनि सुनाई देती है, वहाँ किसी क्लव से पियानो, वायलिन और यूरोपियन सगीत की भी ध्वनि पाप सुन सकते है। ग्रीष्म ऋतु मे तापमान अस्सी और नब्बे डिग्री के बीच रहने के कारण, गमिया बिताने के लिए तीर्थ-यात्रियों के अलावा बहुत-से सैलानी और मनोरजनप्रिय लोग भी यहां आते है। आज पावू तक पहुंचना उतना दुर्गम नही रहा है, बल्कि वहां तक पहुंचने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा जन जनता की २० हजार रुपये की सहायता से सन् १९२३ से पक्की मोटर की सडक वन गई है। इसलिए आजकल आबू दर्शन के लिए जाने वाले यात्री आबू के मार्ग की उप वीहडता और भयानकता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका कि सामना माज से सौ वर्ष पूर्व यात्रियो को करना पड़ता था। आबू का एक कलकित पहलू
लेकिन पावू की यात्रा का एक कलकित पहलू भी है जोकि आज पावू के दर्शनो के हेतु जाने वाली तीर्थयात्री जनता के लिए अभिशाप बन जाता है और इसके स्रष्टा है भाबू के शासक सिरोही राज्य के अधिकारी जो आबू के देव-मन्दिरो के दर्शनो के लिए यात्रियो से टैक्स वसूल कर इस धार्मिक तीर्थ को एक प्रकार से व्यापार और धार्मिक जनता के शोपण का साधन बनाए हुए है । पावू जाने वाले प्रत्येक यात्री को १ रु. २३ पैसे टैक्स सिरोही राज्य को देना पड़ता है, तव कही वह अपने इन धर्म-मन्दिरो की सीमा को छू सकता है और इस कर का सारा वोझ उस हिन्दू और जैन सद्गृहस्थ जनता पर पड़ता है, जोकि धार्मिक श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर तीर्थ यात्रा के हेतु यहां आती है ।
इस टैक्स की विशेषता यह है कि आज यह विना किसी आधार पर ही सिरोही राज्य द्वारा यात्रियो से वसूल किया जाता है । इस टैक्स की कहानी भी विचित्र है। प्रावू में जैन मन्दिरो के शिलालेखो को देखने से पता चलता है कि यहां के मन्दिरो की कलापूर्णता और सुन्दरता देखकर आज से पाच-छ सौ वर्ष पूर्व ही आबू के शासको को सम्भावना दिखाई दी थी कि कोई भी शासक इन मन्दिरो के दर्शन पर कर लगाकर अनुचित लाभ उठा सकता है, अथवा किसी ने उस समय इसी प्रकार अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न किया होगा। इसीलिये पावू के मन्दिरो पर किसी भी प्रकार का कर लेने का निषेध करते हुए ३ शिलालेख जैन मन्दिर
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विमलवसही में पाये जाते है । ये तीनो लेख चौहान नरेश महाराव लु भाजी के है जिनमें एक स. १३७२ का और दो स० १३७३ के है । इन तीनो शिलालेखो में महाराव लु भाजी ने प्राबू के यात्रियो और पूजाथियो से किसी प्रकार का कर वसूल करने का निषेध किया है, तथा अपने उत्तराधिकारियो के नाम भी वसीयत के रूप मे प्राज्ञा दी है कि वे भी भविष्य मे इन मन्दिरो के पूजार्थियो और यात्रियो से किसी प्रकार का कर वसूल न करे। इसी प्रकार का एक दूसरा शिलालेख जैन मन्दिर मे पित्तलहर में स० १३५० का विमलदेव के नाम का मिलता है, वह भी उपरोक्त प्राशय का है । महाराणा कुम्भा द्वारा जारी की गई आज्ञा भी १५०६ के शिलालेख में मिलती है, उन्होने भी इन मन्दिरो पर करो की माफी दी है। स० १४६७ का राउत राजघर का भी एक शिलालेख इसी सम्बन्ध मे पाया जाता है । इस प्रकार न्याय और धर्म की दृष्टि से आबू के मन्दिरो पर किसी प्रकार का लगान का अधिकार न तो सरकार को ही है और न ही सिरोही राज्य के शासको को ही, यदि वे अपने पूर्वजो की आज्ञाओ और इच्छाओ का कोई मूल्य समझते है ? इन फरमानो के बाद सवत १९३३ तक सिरोही के शासको द्वारा प्राबू के मन्दिर
और यात्रियो पर किसी भी प्रकार के कर का पता नहीं चलता । सवत १९३३ मे ही पहली बार आबू यात्रियो पर राहजनी के भय से आबू मार्ग पर चौकियो का प्रबन्ध किया गया, जहां से कि यात्रियो की रक्षा के हेतु राज्य के सिपाही यात्री-दलो के साथ-साथ आया-जाया करते थे। प्रत्येक चौकी पर यात्रियो से चौकियो का टैक्स लिया जाता था, जो सब मिलाकर पाठ आने था। लेकिन यही टैक्स पाच साल बाद सवत १९३८ मे बढा कर १९०२ आने ९ पाई कर दिया गया । इस प्रकार इन चौकियो के नाम पर सिरोही राज्य द्वारा पाबू के यात्रियो से यह धार्मिक कर लिया जाने लगा । लेकिन तब इस कर का उतना अन्यायपूर्ण रूप नही था, जितना कि वह आज है। उन दिनो यदि यात्रियो को मार्ग मे चोर और डाकुओ के कारण किसी प्रकार आर्थिक क्षति उठानी पडती थी, तो कहा जाता है कि उस समय राज्य उसका वाजिब मुआवजा भी देता था। यह टैक्स उस समय केवल रिशिकिशनजी से देलवाडा-अचलगढ के मार्ग पर ही लिया जाता था और यह क्रम सन् १९१७ तक उसी प्रकार जारी रहा।
सन् १९१८ मे जब आबू की कुछ भूमि ब्रिटिश सरकार द्वारा सिरोही राज्य से लीज पर ले ली गयी, और वहां ब्रिटिश सरकार के सैनिक तथा अधिकारी गण आने जाने लगे और मार्ग की देखरेख भी जब ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ मे ले ली, तो सिरोही राज्य के रिशिकिशनगढ से अचलगढ-देलवाडा के मार्ग पर से अपनी चौकियां हटा लेनी पड़ी। इन चौकियो के हट जाने से अब सिरोही के शासको के सामने यह प्रश्न खडा हुआ कि यह टैक्स वसूली आखिर अब किस प्रकार जारी रखी जाए। इसके लिए राज्य ने ता० २-६-१९१८ ई० को नया फरमान निकालकर इस कर को, अब अलग चौकियो द्वारा वसूल किये जाने का साधन न रहने के कारण बढाकर एक मुश्त १ रु० ३ पाने ९ पाई प्रति यात्री के हिसाब से रक्षा-कर के रूप में लगा दिया। साथ ही साथ यह सोचकर कि अग्रेज, सरकारी अफसर और कर्मचारी इस टैक्स पर बखेडा न उठावे, इसलिए सिरोही स्टेट ने इस कर-से समस्त यूरोपियनो, एग्लो इडियनो, राजपूताने के राजा-महाराजानो तथा उनके राजकुमारो को मुक्त कर दिया । ऐसे साधु-सन्यासियो और ब्राह्मणो २७६ ]
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पर यह कर अनिवार्य न रहा जिनके पास विल्कुल पैसा ही न हो और जो शपथ लेकर कह सकें कि हमारे पास पैसा नहीं है। सिरोही राज्य की प्रजा से भी यह कर आशिक रूप से लिया जाने लगा।
उपरोक्त सशोधनो के पश्चात् इस टैक्स का स्वरूप यह हो गया कि वह अव विशेष रूप से दर्शनार्थी और सद्गृहस्थ हिन्दू और जैन यात्रियो के ही ऊपर विशेप भार के साथ लागू हो गया क्योकि आमोद-प्रमोद के लिए जाने वाले कर से राजा-महाराजाओ, यूरोपियनो, ऐंग्लो इडियनो
और अधिकारियो को तो राज्य ने पहले ही मुक्त कर दिया था। फकीर, साधु और सन्यासियो से राज्य को आमदनी भी क्या हो सकती थी, इसलिए उनके साथ रियायत कर दी गई । अव फल यह है कि रक्षा-कर के नाम से यह कर विशेष रूप से देवालयो और मन्दिरो के हिन्दू और जैन यात्रियो के लिए लागू होकर आबू के मन्दिरो के व्यापार का एक कलकित उदाहरण वन गया है । १९२३ मे ब्रिटिश सरकार ने आबू के लिए एक पक्की सडक खराडी से प्राबू कैम्प तक वनवाई, जिसके निर्माण के लिए जैन जनता ने वीस हजार रुपए की सहायता दी। इस नवीन पक्के मार्ग के खुल जाने से प्राबू के लिए आवागमन की सुविधाएं अत्यधिक बढ गई और फलस्वरूप रिशिकिशनगढ से अचलगढ देलवाडा का मार्ग आवागमन की दृष्टि से प्राय बन्द-सा हो गया । ब्रिटिश सरकार ने सडक बनवाते समय वचन दिया था कि इस मार्ग के प्रवन्ध और मरम्मत के हेतु जनता से किमी प्रकार का कर न लिया जाएगा और वह स्वय ही इसका प्रवन्ध करेगी । लेकिन सिरोही राज्य को तो यात्रियो से टैक्स वसूल करना था। इसलिए (मुडका) की वसूली के लिए उसने अपनी चौकियां कायम कर दी।
जहाँ इम नये मार्ग के निर्माण से यात्रियो के लिए आवू का मार्ग सुगम और निरापद हो गया, और सिरोही राज्य से भी सारे प्रवन्ध और रक्षा की जिम्मेदारियां समाप्त हो गई, वहां यह अधार्मिक कर फिर भी यात्रियो के ऊपर लदा रहा । लेकिन सिरोही राज्य द्वारा दर्शनार्थी यात्रियो का शोषण इसी रक्षा कर तक ही सीमित नही रहा, वरन् इस नई सडक के बन जाने से ज्यो-ज्यो यात्रियो की संख्या मे वृद्धि हुई, लोगो मे मार्ग सुगम हो जाने से मादू तीर्थ की दर्शनलालसा वढी, त्यो-त्यों यह शोषण का स्रोत और भी लाभदायक होता गया। लेकिन यह टैक्स विडम्बनाए तब और बढ गयी जब नई पक्की सडक का लाभ उठा कर सिरोही राज्य ने मार्ग पर मोटरो, लारियो, तांगो, रिक्शामी और बैलगाडियो आदि के चलाने के लिए ठेकेदारी की प्रथा कायम कर दी और ठेकेदारो ने मोटी-मोटी रकमो पर ठेके देकर अपनी ओर से सवारियो के दुगने और चौगुने किराये बांधकर पैसा ऐठना शुरू कर दिया। राह टैक्स, कस्टमस् ड्यूटियां, नाकेदारी आदि टैक्सो का भी बाजार गर्म हो गया और अब भी आबू की धार्मिक महानता को अधिक से अधिक शोषण का साधन बनाने की सिरोही के शासको की मनोवृत्ति बढती ही चली जाती है।
आज इन टैक्सो और ठेकेदारी की प्रथा के कारण तीर्थयात्रियो के लिए आवू की यात्रा जितनी सुगम हुई, उतनी ही परेशानी और विडम्बनापूर्ण भी हो गई है। अपने ही मन्दिरो और तीयों के दर्शनो के मार्ग में राज्य की ओर से इस प्रकार के टैक्स और विडम्बनाए देखकर यात्री
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हृदय की धार्मिक भावनाओ को स्थान-स्थान पर जब अपमानपूर्ण ठेस लगती है, तो वह व्याकुल हो उठता और सोचने लगता है, कि उसके धर्म मे क्या इतनी भी ताकत नही कि वह अपने मन्दिरो के दर्शन स्वतंत्रतापूर्वक कर सके ? फिर इन टैक्सो का भार उन गरीब गृहस्थो पर तो और भी बुरी तरह पडता है, जो कोडी-कोडी जोडकर श्रावू पर्वत की तीर्थयात्रा और दर्शनो के
है ।
श्राव के समान तीर्थयात्रियो और देव दर्शन पर कर के उदाहरण भारत मे शायद ही कही देखने को मिले । हिन्दुओ के बडे-बडे तीर्थ और धार्मिक स्थान रियासतो मे है, जहा कि करोडो की सम्पत्ति है और लाखो यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थं आते है, लेकिन ऐसी घाघलेवाजी और करो के उदाहरण कही देखने को नहीं मिलते। हैदरावाद निजाम सरीखी मुस्लिम रियासत मे भी हिन्दू संस्कृति के अमर चिन्ह अजता और एल्लोरा की कलापूर्ण गुफाये है, जिन्हे लाखो यात्री और कलाप्रेमी देखने जाते हैं। लेकिन इस मुस्लिम रियासत मे भी इस प्रकार अनुचित ढंग के कर इन स्थानो पर नही है, जोकि एक वडी आय का साधन बनाए जा सकते हैं। इसके विपरीत यह रियासत प्रतिवर्षं इनकी रक्षा और प्रबन्ध कार्य मे हजारो रुपया खर्च करती है। अभी हाल ही मे अजता गुफा के चित्रो के रंग उखड चले थे, जिन्हे फिर से इस रियासत ने लाखो रुपया खर्च कर इटली आदि से कारीगर बुलवाकर रग करवाया है। यह भी नही कहा जा सकता कि
हा जैन तीर्थं नही है । रियासत मे जैनियो का कुन्तलगिरि सरीखा प्रसिद्ध तीर्थं भी विद्यमान है जिसकी यात्रा के लिए भारतवर्ष से लाखो जैन यात्री प्रति वर्ष प्राते है । रियासत ने जैन यात्रियो hot सुविधार्थ मोटर का पक्का मार्ग भी कुन्तलगिरि तक बनाया है और अभी हाल ही मे इस जैन तीर्थं मे पानी के अभाव को दूर करने के लिए हजारो रुपया खर्च कर विशाल तालाव और ट्यूववेल्सका प्रबन्ध किया गया है। लेकिन दूसरी ओर आवू सरीखे प्रसिद्ध हिन्दू और जैन तीर्थं के प्रति सिरोही सरीखी हिन्दू रियासत का यह रवैया है।
धार्मिक अधिकारो का प्रश्न
यह सर्प का युग है और चहुँमुखी क्रान्ति के थपेडे प्रत्येक समाज को प्रान्दोलित कर रहे है । आज की जनता हर दिशा मे क्रान्ति, परिवर्तन और स्वतन्त्रता चाहती है । जन स्वतंत्रता के साथ साथ हरएक मनुष्य आज अपनी धार्मिक स्वतंत्रता भी चाहता है और भावू सरीखा टैक्स किसी भी धर्म के लिए श्रपमान का कारण हो सकता है । यह परिवर्तन का युग है। दुनिया आज एक वडे टेढे मोड से गुजर रही है। इस सघर्पकाल मे हरएक अपने धर्म और अधिकारो की रक्षा मे सतत् रूप से प्रयत्नशील है, क्योकि ग्राज समस्त धार्मिक और नागरिक अधिकारो के लिए एक खतरा मा हो गया है। धर्म की कच्ची दीवारे आज भूकम्प के से वेग से ढह रही है । चिर पुरातन रूढियो और सस्कारो का अन्त हो रहा है। इस परिवर्तन के युग मे जो भी जाति अपने धर्म तथा अधिकारो की रक्षा कर सकेगी, उन्ही के अधिकारो का आने वाले युग मे मान होगा । आज जो अनुचित टैक्स और वन्धन चाहे वे हमारे धर्म पर हो या हमारे सामाजिक अथवा व्यक्तिगत अधिकारो पर, यदि हम आज उन्हे न तोड सके, तो वे श्रागे चलकर या तो हमारे
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अस्तित्व को ही समाप्त कर देंगे, अथवा वे इतने कठोर और भयानक हो सकते है कि हम चिरकाल तक उनसे मुक्ति न पा सके।
आबू-तीर्थ के सम्बन्ध मे आज जैन-समाज चैतन्य हुआ है । उसने इन करो के विरुद्ध आन्दोलन उठाया है और जैनियो के इस आन्दोलन और विरोध के पीछे केवल जन-मन्दिरो का ही नही, वरन् हिन्दुओ और जैनियो के सयुक्त तीर्थ का हित निहित है। आबू पर्वत पर हिन्दुओ के धार्मिक स्थान और देवालय, जैनियो के मन्दिरो से कहीं अधिक ही है और वे अपनी ममता के कारण हिन्दू धर्म में एक विशिष्ट स्थान रखते है। आवू-तीर्थ के टैक्सो के साथ जहा कुछ लाख जैनियो का सम्बन्ध है, वहा भारत की एक सबसे बडी शक्तिशाली और बहुसंख्यक जाति के करोड़ो हिन्दुओ का भी निकट सम्बन्ध है। आबू मन्दिरो के करो के विरोध में उठाये गये आन्दोलन के प्रवर्तको ने हिन्दू-सस्थानो और उनके नेतामो की ओर सहयोग के लिए हाथ बढाया है । वे इसे हिन्दुओ और जैनियो का सगठित मोर्चा बनाना चाहते है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि पावू हिन्दू और और जैनो का सयुक्त तीर्थस्थान है।
श्री आबू तीर्थ टैक्स विरोधी कांफ्रेस
यहाँ तारीख २४-२५-२६ को श्री प्रावू मन्दिर टैक्स विरोधी कान्फ्रेन्स कर्मवीर लाला तनसुखरायजी जैन देहली वालो की अध्यक्षता मे करने का निश्चय किया गया है | उक्त काफेन्स को कैसे सफल बनाया जाय इस सम्बन्ध में विचार करने के लिए नागरिको की एक मीटिंग ता. २८ को श्री महावीर प्रेस मे बुलाई गई । दिगम्बर, श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी तीनो सम्प्रदायो के करीव २८-३० आदमी इकट्ठे हुए । सर्वानुमति से निम्न कार्रवाई हुई -
ता. २४-२५-२६ जनवरी को उक्त कान्फ्रेन्स का अधिवेशन बुलाया जाय !
निम्न पदाधिकारियो का चुनाव हुआ :प्रध्यक्ष
कर्मवीर लाला तनसुखरायजी स्वागताध्यक्ष
रा व सेठ चम्पालालजी साहब के सुपुत्र श्रीमान
वा० तोतालालजी सा. रानीवाले उपाध्यक्ष
श्रीमान सेठ शकरलालजी सा० मुणोत
, उदयचन्दजी सा. कास्टिया स्वागत मत्री
, पन्नालालजी सा जैन वी ए, एल-एल.वी वकील
, मोतीलालजी सा. हालाखण्डी उपमत्री
, जवरीलालजी कास्टिया , चम्पालालजी जैन
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सयोजक -
" चिमनसिंह जी लोढा कोपाध्यक्ष
" मूलचन्दजी सा० मुणोत स्वागताध्यक्ष
। मानमलजी गोदा " शोभाचन्दजी भारिल्ल , पुखराजजी खनाची ॥ जतनमलजी भडारी ॥ इन्दरचन्दजी गगवाल " मुलुकराजजी जैन बी. ए, एल-एल वी
, गान्तिलालजी सेठ आदि ३५ सज्जनो की स्वागत समिति वनाई गई।
उपस्थित सभी सज्जनो ने पूर्ण उत्साह से सेवा देने का वचन फरमाया ! स्वागत समिति ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है !
ता० १-१-४२ को स्वागत समिति की दूसरी मीटिंग होगी जिसमे सव कमेटियो का चुनाव होगा।
थी सेठ शकरलालजी मुणीत, मोतीलालजी हालाखण्डी, जवरीलालजी कास्टिया आदि का उत्साह स्तुत्य है ?
बहुत शीघ्र पडाल तथा प्रचार कार्य प्रारम्भ होने वाला है ?
इन्ही तारीखो मै श्री प्रोसवाल जैन होस्टल के छात्रो के लिए फी उपयोगार्थ बनाये हुए श्री घसूलालजी स्मारक भवन का उद्घाटन धूमधाम से होगा। साथ ही प्रवेशोत्सव, अखण्ड जैन कान्फ्रेन्स तथा कवि-सम्मेलन एव व्याख्यान प्रतियोगिता आदि अनेक आयोजन किये जायेंगे।
___ श्रीमती लेखवती जैन, प० जुगलकिशोरजी मुखत्यार, ५० दरवारीलालजी महात्मा, भगवानदीनजी, वा. जैनेन्द्र कुमारजी, श्री धर्मचन्दजी सुराणा वी ए, एल-एल. वी वकील सिरोही, श्री ताराचन्दजी दोपी आदि जैन सज्जनो के पधारने की सम्भावना है ।
सम्भवत इस अवसर पर वीरपुत्र प्रानन्दसागर जी महाराज भी पधार जावेगे।
प्रत्येक श्री सघ को चाहिए कि इस अवसर पर अपने यहां के प्रतिनिधियो को इस पुण्य कार्य मे भाग लेने अवश्य भेजे । यह टैक्स नही हमारे लिए भारी कलक है । इससे मुक्त होने का प्रयत्न करना प्रत्येक जैन का धर्म है।
सयोजक-चिमनसिंह लोढा "यह युग सगठन का युग है । इस जगत मे वही समाज जीवित रह सकता है जो सगठित, बलवान और शक्तिशाली होगा । माज हम इस जगह जिस उत्तम कार्य के लिये एकत्रित हुए है, वह चीज उन महापुरुपो की बनवाई हुई है जिन्होने आबू पर्वत के आस-पास की दिलवाडा की भूमि पर करोड़ो रुपये का सोना और चादी विछाकर अपनी तलवार के बल पर जगत विख्यात २८० ]
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जागृति के अगदुन रचनामधन्य गेट गाणिकपद जी गव्हेरी बम्बई
शाकाहागे कान्फेन्स के अवसर पर
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श्राबू टॅक्स विरोधी आन्दोलन के अध्यक्ष रूप मे
लाला तनसुखराय जी
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बिरला मंदिर मे
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मन्दिर बनवाये थे । हमारा धर्म और कर्तव्य है कि हम उनके बनाये हुए स्मारको को कायम रखने के लिए हर प्रकार का त्याग करे। यह हमारे लिए सुवर्ण अवसर है । यदि हम सगठित होफर कुछ कर गये तो जन-जाति का गौरव बढेगा । यदि हमने कुछ नहीं किया तो आने वाली सताने हमे धिक्कारेंगी, कहेगी कि हमारे पूर्वजो से अपने मन्दिरो की भी रक्षा न हो सकी ।" इन शब्दो के साथ अखिल भारतीय प्रावू टैक्स विरोधी सम्मेलन के सभापति लाला तनसुखराय जैन ने अपना प्रभावशाली भापण समाप्त किया ।
टैक्स का विरोध करते हुए आपने कहा-पावू के जैन मन्दिरो के विषय मे समाचारपत्रो मे काफी प्रकाश डाला जा चुका है। आज तो यही निर्णय करना है कि क्या हम इसी तरह से इन मन्दिरो पर प्रतिदिन नए-नए टैक्स देते रहे और एक दिन ऐसा आए कि टैक्स तथा वन्धन इस कदर बढ जावे कि साधारण भाइयो को इन मन्दिरो मे पूजन-प्रक्षाल तो क्या दर्शन करना भी दुर्लभ हो जाये ?"
उपाय--सत्याग्रह आखिरी सीढी इन अनुचित टैक्सो को कैसे दूर कराया जाय, इसके विषय मे मैं अपने विचार समाचारपत्रो मे पहले प्रकट कर चुका हूँ। मेरे पास बहुत से पत्र आये जिनमे मेरे भाइयो ने सत्याग्रह करने की सम्मति दी है । इस विषय में मेरी सम्मति यह है कि सबसे प्रथम आवश्यक है कि तमाम सम्प्रदायो के जैनो की एक शक्तिशाली समिति बनाई जाय जो इस काम को अपने हाथ से ले। इसके द्वारा स्थान-स्थान पर स्थानीय समितिया बनाई जाये ताकि काम सुचारु रूप से प्रारम्भ किया जाय । इसके पश्चात् समाज के धनी-मानी महानुभावो का एक डेपुटेशन राज्य के अधिकारियो से मिले और उनसे प्रार्थना करे कि वह अनुचित टैक्सो को कम करे । यदि डेपुटेशन को सफलता न हो तो फिर सारे देश में इसका आन्दोलन किया जाए और एक दिन नियत करके विरोधी सभायें की जाये । उस दिन प्रस्ताव पास किये जाये और उनकी प्रति रियासत तथा सरकार के पास भेजी जायें। यदि इससे भी कुछ सफलता न हो तो फिर अन्तिम योजना सत्याग्रह की रह जाती है जिसके लिये मेरे मित्रो ने भी हैदराबाद के आर्य सत्याग्रह का उदाहरण देकर, हमे भी उसका अनुकरण करने के लिये लिखा है। परन्तु हमे इसमे जल्दी नहीं करनी चाह्येि । हैदरावाद तथा भागलपुर के मोर्चा का जिक्र एव उनकी सफलता के साधनो पर प्रकाश डालते हुए, अन्त में पापने संगठन की शक्ति पर बल दिया।
सम्मेलन की कार्यवाही पावू मुडका विरोधी यह सम्मेलन गत २३ जनवरी सन् १९४२ को बडे उत्साह से व्यावर मे हो गया । श्री तनसुखराय जैन (देहली) सभापति थे । वहाँ आपका शानदार जुलूस निकला । रात को व दूसरे दिन कार्यवाही हुई। इस सम्मेलन मे श्रीमती लेखावती जैन भूतपूर्व एम० एल० ए० (पजाव), श्री अजितप्रसाद जैन, सेठ हीरालाल जी काला, ला. हेमचन्द्र जी जैन, डाक्टर नन्दलाल आदि जैन नेतानो के भाषण हुए । निम्न चार प्रस्ताव पास किये गये ।
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स्थायी विरोध समिति का निर्णय यह सम्मेलन प्राबू (देलवाडा) के विश्वविख्यात जैन मन्दिरो के यात्रियो एव दर्शनार्थियो पर लगे हुए मुडका टैक्स को हटाने के कार्य के हेतु एक स्टैडिग कमेटी की योजना करता है । इसके सदस्यो की सख्या ५१ सदस्यो तक होगी और इसके सभापति श्री तनसुखराय जी जैन रहेगे । इसके दो मन्त्री रहेगे जिनमे एक प्रधान मन्त्री व दूसरे कार्यालय मन्त्री होगे । इसका आफिस सभापति व कमेटी को इस विषय मे पूर्ण अधिकार व स्वतन्त्रता देती है।
स्वीकृत प्रस्ताव इस जरिये को हटाइये
आबू मुडका विरोधी यह सम्मेलन महसूस करता है कि पाबू (देलवाडा) पर स्थित विश्व विख्यात जैन मन्दिरो के यात्रियो एव दर्शनार्थियो से मुडका के रूप मे जो कर लिया जाता है वह कलकित है और उसकी उपयोगिता भी नहीं है क्योकि इस मुंडका का जो रूप कुछ वर्षों पहले चौकी व बोलावे का था, वह अब नहीं रहा है। इसको सिर्फ जजिया ही कहा जा सकता है। क्योकि सिरोही राज्य ने इसको अपनी आय का एक जरिया बना लिया है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है । यह विशेष रूप से जैनो की धार्मिक स्वतन्त्रता का घातक है यद्यपि यह हर कीम, हर जाति व हर विचार के लोगो से लिया जाता है । इसलिये यह कान्फ्रेस सिरोही नरेश से सानुरोध निवेदन करती है कि इस अपमानजनक एव धर्मघातक टैक्स को हटावे।
मुनिमण्डल से नेतृत्व का अनुरोध यह सम्मेलन अनुभव करता है कि जैन समाज मे मुनि-मण्डल का एक विशिष्ट स्थान और अद्वितीय प्रभाव है। इसलिये यह सम्मेलन उनसे सविनय प्रार्थना करता है कि वे प्राबू मन्दिर टक्स हटाने में सक्रिय भाग लेकर इसे सफल बनाने में सहयोग दे ।
अध्यक्ष का ओजस्वी भाषण ब्यावर २३ जनवरी । आज रात को दिल्ली अहमदाबाद एक्सप्रेस से पाबू मन्दिर टैक्स विरोधी सम्मेलन के सभापति लाला तनसुखराय जी जैन यहाँ पहुच गये । ११ बजे की ठिठुरती सरदी में भी सम्मेलन के अधिकारियो और जैन भाइयो ने आपका स्वागत किया। आपके साथ श्रीमती लेखवती जैन, लाला हेमचन्द्र जैन चेयरमैन मर्केण्टाइल एसोसिएशन देहली, ला. रत्नलाल जन मत्री जैन प्रेम सभा, डा० नन्दकिशोर आफिस सेक्रेटरी भ० भा० जैन परिषद् प्रादि भी आये है।
इन अनुचित टैक्सो को कैसे दूर कराया जाय ? मेरे पास बहुत से पत्र आये है जिनमें मेरे भाइयो ने सत्याग्रह करने की सम्पति दी है। मैं जबानी जमा खर्च पर विश्वास नही करता मैं तो कार्य को कार्यरूप में परिणित करना चाहता हूँ। किसी बड़े काम करने के लिये सबसे २५२]
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पहले साहस, उत्साह और संगठन को आवश्यकता है । मैं तो समाज और देश का सिपाही हूँ तथा पाप महानुभावो की आज्ञा से आया हूँ ! आप निर्णय करके बताइये मुझसे क्या सेवा चाहते हैं। टैक्सो के हटवाने के लिये क्या करना है ?
इस विषय मे मेरी सम्मति यह है कि तमाम सम्प्रदायो के जैनो की एक शक्तिशाली समिति बनाई जाय जो इस काम को अपने हाथ मे ले। इसके द्वारा स्थान-स्थान पर स्थानीय समितिया बनाई जाय, ताकि काम सुचारू रूप से किया जाय । विना संगठन के कोई काम सफल नहीं हो सकता। इकके पश्चात् समाज के धनी मानी महानुभावो का एक डेपुटेगन राज्य के अधिकारियो से मिले और उनसे प्रार्थना करे कि वह अनुचित टैक्सो को कम करे
जगह-जगह स्वागत
ता० २३ जनवरी सन् ४२ को श्री लाला तनसुखरायजी जैन प्रात काल अहमदावाद एक्सप्रेस से अपने मित्र तथा प्रतिनिधि श्रीमती लेखवती जैन, एक्स एम एल. ए श्री. हेमचन्द्र जी जैन चेयरमेन मर्केन्टाइल एसोशियेशन देहली, श्री अजीतप्रसाद जी जैन सुपुत्र लाला महावीर प्रसादजी ठेकेदार देहली, श्री लाला रललाल जी जैन मत्री जैन मित्रमडल, श्री आदीश्वरप्रसाद जी जैन एम ए, डा. नदकिशोर जी, ५० रामलाल जी आदि के साथ रवाना हुए। देहली पर प्रापकी विदाई वडे जोर-शोर के साथ हुई मानो कोई वीर किसी युद्ध मे लड़ाई के लिए जा रहा हो । आपको फूलहारो के साथ विदा किया गया।
जयपुर पहुंचते ही यहा के तमाम जैन भाइयो ने आपका शानदार स्वागत किया और सवने यह काफेन्स अच्छी तरह सफल हो इसकी खूब चर्चा की। यहा से गाडी किशनगढ पहुंची। यहा पर भी पहिले ही से आपके स्वागत की अच्छी तैयारी कर रखी थी। गाडी पहुंचते ही सारा प्लेटफार्म जयनारो से गूज उठा । फूलो के हार, चाय प्रादि के साथ आपका स्वागत किया गया। फोटो भी लिये गये । किशनगढ से गाडी अजमेर पहुंची । यहा पर भी फूलहारो से आपका स्वागत किया गया। रात को करीव १२ बजे भाप व्यावर पहुंचे । इस कर्डक सर्दी में इस कान्फ्रेन्स के सयोजक थी. चिमनसिंह जी लोढा, श्री० मोतीलालजी हालाखण्डी आदि स्वागत कारिणी के
य व दूसरे जैन भाइयो ने भापका बहुत बढिया स्वागत किया। प्रात काल १० बजे लालाजी का शानदार जुलूस स्टेशन से निकाला गया। जुलूस व्यावर के मुख्य मुख्य बाजारो मे होता हुआ मेवाडी दरवाजे के पास सेठ कुन्दनमलजी लालचन्दजी की बगीची में समाप्त हुआ । रास्ते मे पचासो जगह पान-सुपारी-फूल आदि से आपका स्वागत किया गया व फोटो आदि का भी प्रवन्ध किया गया।
रात्रि को ठीक ७॥ गजे पडाल मे भावू मन्दिर टैक्स विरोधी कान्स का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । प्रथम मगलाचरण के बाद स्वागताध्यम श्रीमान् सेठ तोतालालजी सा० रानीवाले
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का व्याख्यान हुआ। पश्चात इस सभा के सभापति कर्मवीर लाना तनसुखरायजी का सारगमित व्याख्यान हुआ। इसके बाद अखण्ड जैन परिपद् के स्वागताध्यक्ष श्री० सेठ हीरालाल जी काला का भाषण हुमा और फिर इस परिषद् के सभापति उत्साही श्रीमान् हेमचन्द्रजी जन चेयरमेन मर्कन्टाइल एसोसियेशन देहली का व्याख्यान हुआ। डा० नन्दकिशोर सा० ने जैन समाज के अलग-अलग फिरकावदी व जैन समाज की दुर्दशा के ऊपर बडा ही सारगर्भित भाषण दिया । अन्त मे प. रामलालजी का जोशीला व्याख्यान होकर आज की कार्यवाही समाप्त हुई।
प्रात काल ठीक ६ वजे समापतिजी के स्थान सब्जेक्ट कमेटी की मिटिंग हुई जिसमे चार प्रस्ताव पेश हुए और उनके ऊपर चर्चा की गई। दोपहर को पडाल मे खुला अधिवेशन
हुआ।
प्रारम्भ में मगलाचरण के बाद बाहर के पाए हुए करीव १५० सदेश सुनाये गए । इन सदेशो को देखते हुए कहा जा सकता है कि जनता की सहानुभूति अधिक से अधिक दिखाई देती है। इसमे जैन व जैनेतर बडे-बडे धनीमानी व विद्वानों के सदेश है। प्रस्तावको ने प्रस्ताव पेश किये और उनके ऊपर जोशिले व्याख्यानो के द्वारा उनका अच्छा विवेचन किया इसी प्रकार समर्थक व अनुमोदको ने भी खूब जोरदार भाषणों के द्वारा विवेचन किया। तमाम प्रस्ताव सर्वानुमत से पास हुए । प्रस्ताव अन्यत्र प्रकाशित किए गए है। इसमे श्रीमती लेखवती जैन, पुखराज जी सिंधी, डॉ. नन्दलालजी, धर्मचन्दजी सुराणा, राजमलजी लोढा सपादक जैन ध्वज मजमेर, १० रामकुमार जी, ५० रामलाल जी, चिमनसिंह जी लोढा, देवीचन्दजी जैन, मुकुट बिहारीलाल जी भार्गव आदि के बहुत ही मनोहर व्याख्यान हुए।'
ब्यावर का भाषण
जो स्यादवाद् मयक के प्रतिभा मई छवि धाम है। जो रिद्ध सिद्ध प्रकाणदायक बदनीय ललाम है ।। नित प्रात तिनके स्मरण से होता अपूर्व ललाम है।
उन महावीर जिनेश को श्रद्धा समेत प्रणाम है । यादरणीय बन्धुप्रो तथा माताओ और बहनो।
इस समय जैन जाति की दशा अति शोचनीय है । हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम अपने देश मे अपना व्यक्तित्व कायम नही रख सकते । युद्ध भारत के द्वार पर आ गया है। संसार की स्थिति डांवाडोल है, इस समय प्रत्येक कार्य को बहुत सोच-समझकर करने की प्रत्यत आवश्यकता है। आज हम इस बात पर विचार करने के लिए एकत्रित हुए है कि हम जाति के पान, गान तथा अपने पूर्वजों के बनाए हुए धर्मस्थानो और स्मारको को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।
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उन वोगे की सतान जिन्होंने भारत भूमि पर राज्य किया है और निम्न्दर जैसे वीर राजा को जो यूनान से योरोन को फतह करता हुआ ईरान पर विजय पाकर भारत को पराजित करना चाहता था, भारत से खदेड भगाया था। क्या आज वह जाति इस कदर नपुंसक हो गई है। कि वह अपने पूर्वजो के बनाये हुए धर्मस्थान, देवालय तथा स्मारकों की भी रक्षा नहीं कर सकती । यदि यही दशा रही तो एक दिन आयेगा कि हमारे अपने-अपने नगर और ग्राम के मन्दिरों तथा धर्मस्यानो का भी यही हाल होगा । कोई भी शक्तिवान अनुचित रूप से हमारे मन्दिरों और धर्मस्थानो पर कब्जा कर लेगा और कहेगा कि इतना टैक्स या पैसा दोगे तो फिर दर्शनों की काज्ञा मिलेगी । इम समय हमारे सामने श्रावू रोड पर दिलवाड़ा के जैन मन्दिरों का उदाहरण उपस्थित है ।
Mia के जैन मन्दिरो के विषय में समाचारपत्रों में काफी प्रकाश डाला जा चुका है। आज तो यही निर्णय करना है कि क्या हम इसी तरह ने इन मन्दिरों पर प्रतिदिन नए-नए टैक्स देते रहे और एक दिन ऐसा आए कि टैक्स तथा वन्वन इस कदर बढ़ जायें कि तावारण भाइयों को इन मन्दिरो मे पूजन-प्रक्षाल तो क्या दर्शन करना भी दुर्लभ हो जाय। मेरा अपना यह अनुमान है कि आबू रोड पर जो इस प्रकार टैक्स बढ़ा है सब हमारे असगठन, लापरवाही और दब्बू नीति के कारण बढा है | यदि अब भी इस ओर ध्यान न दिया गया तो भय है कि हम कहीं इससे भी बिल्कुल हाय न धो बैठें जैसा कि इन मन्दिरो के साथ जो गाव लगे हुए थे उनका इन मन्दिरों के साथ आज कुछ भी सवव नही दीख पडता ।
इन अनुचित टैक्सो को कैसे दूर कराया जाय, इसके विषय में मैं अपने विचार समाचार पत्रों में पहले प्रकट कर चुका हूँ । मेरे पास बहुत मे पत्र आए हैं जिनमे मेरे भाइयों ने सत्याग्रह करने की सम्मति दी है। मैं जवानी जमा-खर्च पर विश्वास नही करने वाला, मैं तो कार्य को कार्य रूप में परिणत करना चाहता हूँ और मेरा पूर्ण विश्वास कि ससार में कोई बात असम्भव नहीं है । परन्तु किसी बड़े काम करने के लिए सबसे पहले साहस, उत्साह और संगठन की आवश्यकता है । मैं तो ममाज और देश का एक सिपाही हूँ । आप महानुभावो की आज्ञा से आया हूँ । आप निर्णय करके बताइए मुझसे क्या सेवा चाहते है। टैक्सों को हटवाने के लिए क्या करना है ।
इस विषय मे मे सम्मति यह है कि सबसे प्रथम आवश्यक है कि तमाम सम्प्रदायों के जैनो की एक शक्तिशाली समिति बनाई जाय जो इम काम को अपने हाथ में ले । इनके द्वारा स्थान-स्थान पर स्थानीय समितिया बनाई जायें ताकि काम सुचार रूप ने प्रारम्भ किया जाय । बिना सगठन के कोई काम सफल नही हो सकता । इसके पश्चात् समाज के धनी-मानी महानुभाव का एक डेपुटेशन राज्य के अधिकारियो से मिले और उनसे प्रार्थना करे कि वह अनुचित टैक्सों को कम करें। यदि डेपुटेशन को सफलता न हो तो फिर सारे देश में इसका आन्दोलन किया जाए और एक दिन नियत करके विरोधी सभाए की जाय। उस दिन प्रस्ताव पान किए जायें और उनकी प्रति रियासत तया सरकार के उच्च अधिकारियो के पास भेजी जायें।
यदि इमसे भी कुछ सफलता न हो तो फिर अन्तिम योजना नत्याग्रह की रह जाती है [ २८५
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जिसके लिये मेरे बहुत से मित्रो ने भी हैदराबाद के श्रार्य सत्याग्रह का उदाहरण देकर, हमे भी उसका अनुकरण करने के लिए लिखा है । परन्तु हमे इसमें जल्दी नही करनी चाहिए । सत्याग्रह कोई साधारण सा काम नही है । आर्यसमाज ने हैदराबाद के सत्याग्रह को किस प्रकार परिश्रम करके सफल बनाया था आप सबके सामने है। हजारो वीरो ने अपने आपको प्रसन्नता के साथ सत्याग्रह कार्य के लिए पेश किया, श्रार्यसमाजी भाइयो ने लाखो रुपया दान देकर आन्दोलन मे जान डाली, सर्वप्रथम आर्य समाज के सर्वमान्य नेता श्री नारायण स्वामी जी महाराज धर्म की रक्षार्थ हैदराबाद के सत्याग्रह में गए । गुरुकुल और कालेजो के विद्यार्थी सब कुछ छोडकर सत्याग्रह में सम्मिलित हुए । इन सबसे अधिक सफलता की कुञ्जी यह थी कि श्रार्यसमाज के चोटी के नेता और धनिक वर्ग स्त्रय सत्याग्रह का नेतृत्व करके जेल जा रहे थे । इन उच्च कोटि के महानुभावो जेल जाने का प्रभाव रियासत तथा जनता पर पडा । जनता ने दिल खोलकर जन और धन से सहयोग दिया । अत मे रियासत को हार माननी पडी ।
हिंदू महासभा का भागलपुर का मोर्चा तो कल की ही बात है हिंदू महासभा के प्रधान वीर सावरकरजी से लेकर सारे हिन्दू नेता अपने अधिकारो की रक्षार्थं भागलपुर में जा डटे, जिनमे ब्रिटिश सरकार के कृपापात्र सर और राजा भी सम्मिलित है, अपने अधिकारो के प्रश्न जीवन-मरण की समस्या समझकर वहा गिरफ्तार हो गए। हिन्दू नेताम्रो के इस त्याग ने सारे भारत की सस्थाओ की सहानुभूति प्राप्त कर ली और बिहार गवर्नर के इस कार्य की सारे भारत मे निन्दा हुई । क्या जैन समाज के पास यह सब तय्यारी है ? मै तो यह समझता हूँ कि धर्म स्थान तथा देवालय की रक्षा करना उतना पुण्य का कार्य है जितना कि अपनी तरफ से चैतालय या देवालय बनवाना | जैन समाज धर्म क्रिया पालन करने मे बहुत ही प्रतिष्ठित है । हमारी जाति का साधुवर्ग यदि इस ओर थोडा-सा ध्यान दे देगा तो मुझे आशा है कि इस कार्य की सफलता में कोई देर न लगेगी । जैन समाज ने आज तक कोई ऐसा मोर्चा नही लिया है। हम आज महाराज सिरोही से अपने जन्मदिन धार्मिक अधिकार मागते है, यदि जैन समाज का साधुवर्ग, धनी तथा सरकार के कृपा पात्र भी अपने धार्मिक अधिकारो की रक्षार्थं एक प्लेटफार्म पर एकत्रित होकर धर्म पर सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो तो सत्याग्रह का नाम लेना चाहिए ।
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जैन समाज इस समय तक दब्बू नीति से काम लेती रही है, मुझे मालूम है कि कई बार जैन समाज ने सरकार तथा रियासतो मे अपने अधिकार मनवाने के लिए धन के बल से काम लिया है और मुह मागा रुपया लुटाया है। उसका ही यह कारण है कि हरएक के मुह मे पानी ना जाता है और वह समझता है जैन समाज एक तीर्थभक्त समाज है । इसलिए जिनके भी राज्य या सीमा मे कोई जैन तीर्थं या धर्मस्थान होता है वह उसको कमाई का साधन बनाना चाहता है। और जितना धन जैन समाज से लूटा जाता है लूटता है । भला इनसे कोई पूछे कि इसमे इनका क्या लगा है । हमारे पूर्वजो ने अपने धन और बल से मन्दिरो को बनवाया था फिर यह किस कारण हमे तग करते है । हमने माना कि जैन समाज मे बडे-बडे धनाढ्य है और वह झगडे मे न पडकर अपने रुपये के बल से काम निकालना ज्यादा अच्छा समझते है परंतु इससे वहुत बडी हानि
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हुई है। जैन समाज अपने अधिकारों को भूल गया, स्वाभिमान जाता रहा, शक्ति क्षीण हो गई, रगो मे से वीरता का रक्त लुप्त हो गया। जिसके वीरो से ससार कपकपाता था, जिस जाति के वीरो ने जैन धर्म की ध्वजा ससार भर मे फैहराई थी आज वह जाति नपुसक और कायर कहलाए और उसके धर्म को घृणा की दृष्टि से देखा जाय, कितने खेद की बात है।
किसी समय मे जैन वीर और महात्मा के नाम से पुकारे जाते थे आज उनको बनिया और वकाल मे नाम से पुकारते है । वास्तव मे जैन धर्म वीरो का धर्म था। राजपूतो और क्षत्रियों ने इसे अपनाया था । जितने भी हमारे तीर्थकर हुए है लगभग सभी राजपूत या क्षत्रिय वश से ही उत्सन्न हुए है । पहले समय मे जैनो का केवल एक घधा व्यापार ही नहीं था, जैनियो मै सेनापति, राजा-महाराजा, चक्रवर्ती राजा और कोपाध्यक्ष हो चुके है । श्री भामाशाह जैसे धनकुवैर और चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे वीरो का नाम आज तक ससार मे विख्यात है और गौरव के साथ लिया जाता है । यह जैन समाज के नर रल थे ।
यह युग सगठन का युग हे । इस युग मे वही ममाज जीवित रह सकता है जो सगठित, वलवान और गक्तिगाली होगा । आज हम इस जगह जिस उतम कार्य के लिए एकत्रित हुए है, वह चीज उन महापुरुषो की बनवाई हुई है जिन्होने पावू पर्वत के आस-पास की दिलवाडा की भूमि पर करोडो रुपए का मोना और चादी विछाकर अपनी तलवार के बल पर जगत विख्यात मदिर बनवाये थे । हमारा धर्म और कर्तव्य है कि हम उनके बनाए हुए स्मारक को कायम रखने के लिए हर प्रकार का त्याग करे । यह हमारे लिए वर्ण अवसर है । यदि हम सगठित होकर कुछ कर गए तो जैन जाति का गौरव वढेगा यदि हमने कुछ नहीं किया तो आने वाली सताने हमे धिक्कारेगी, कहेंगे कि हमारे पूर्वजो से अपने मदिरो की भी रक्षा न हो सकी। इस कान्फ्रेंस मे प्रण करो कि तन, मन, धन से इस कार्य को पूरा करेगे। मुझे पूर्ण आशा है कि हमे अवश्य सफलता मिलेगी।
अन्त मे आप महानुभावो का में अत्यन्त आभार मानता हूँ कि आप सवने मुझे यह मान दिया जिसके कारण आपके दर्शनी का लाभ हुा । हम सवका यहा एकत्र होना तभी सफल होगा जवकि हम इस अवसर पर तमाम साम्प्रदायिक भेदभावो को दूर करके एक शक्तिशाली समिति का निर्माण करें जो सारे देश मे सगठन के कार्य को अपने हाथ मे ले । इस समिति के बनने से तमाम कार्य पूर्ण हो जायेगे । मै आशा करता हूँ कि आप अवश्य मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगे और इस कार्य को सफल बनाने मे प्रयत्नशील होगे ।
दुर्भाग्य जैन समाज तेरा क्या दशा यह हो गई। कुछ भी नही अवशेष, गुण-गरिमा सभी तो खो गई ।। क्या पूर्वजो का रक्त प्रव तेरी नसो मे है कही ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नही । पूर्वज हमारे कौन थे, वे कृत्य क्या-क्या कर गये । किन-किन उपायो से कठिन भवसिंधु को भी तर गए ।।
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धार्मिक शिल्पकला
भारत मे कलाशिल्प की दृष्टि से जिन स्थानो को प्रधानता दी जाती है आबू की शिल्पकला को उनमे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । कई विशेषताओ के कारण तो भावू की कला को सर्वोत्तम भी कहा जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता कर्नल टाड के मतानुसार यदि ताजमहल की शिल्पकला के मुकाविले कला यदि कही पाई जाती है, तो वह धावू मे। कई दृष्टियो से तो भावू के जैन मन्दिरो की शिल्पकला ताजमहल की कला से भी आगे बढ गई है ।
श्राबू को कलात्मक रूप देने मे वहा प्राकृतिक सौन्दर्य का बहुत बडा हाथ है, जहा नरेशो ने वहा के प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होकर उसे अपना ग्रीष्म निवास और डास्थल बनाया, वहा वे अपनी धार्मिक भावनाओ के स्मृति स्वरूप ऐसी कलापूर्ण कृतियों के निर्माण का लोभ भी सवरण न कर सके । उन्होने शिल्पकला के भ्रमर चिन्हो का निर्माण कराकर श्राबू के तीर्थ के श्राकर्षण मे चार चाद लगा दिये है । इस प्रकार भावू का यह कलासोन्दर्य सोने में सुगन्ध की उपमा का काम कर रहा है। इन पराक्रमी नरेशो की धार्मिक भावनाओं के चिन्ह हमे आबू पर्वत पर स्थित सुन्दर मन्दिरो, मूर्तियो, महलो, जलाशयों और ताम्रपत्री तथा शिला लेखो मे जहा तहा बिखरे मिलते है, और इनमे हमे जैन तथा हिन्दू धर्म की मिलीजुली कला, धर्म और संस्कृति का अपूर्व एकीकरण दिखाई देता है । अनेको शैव्य और वैष्णव मन्दिरो मे हमे जैन मन्दिरो की शिल्पकला और धातुकला की छाप दिखाई देती है । क्या मूर्तिकला और क्या निर्माणकला की विशालता और भव्यता की दृष्टि से यहा के हिन्दू मन्दिरो की मूर्तिया सारे भारत के मन्दिरो से अपना एक विशेष महत्त्व रखती है। इन मन्दिरो और मूर्तियो के निर्माता मेवाड और उदयपुर के राणा, चक्रवर्ती चौहान के वशज तथा बाद मे सिरोही तत्कालीन शासक हैं ।
लेकिन अपनी जिस श्रेष्ठ शिल्पकला के लिए आबू तीर्थ भारत मे ही नही वरन् सारे ससार मे प्रसिद्ध है, वह शिल्पकला वहा के उन जैन मन्दिरों में पाई जाती है जिन्हे कि जैन महामन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल, तेजपाल ने आबू सरीखे पर्वत शिखर पर अपनी धार्मिक महत्वाकाक्षा, पराक्रम और वैभव के प्रतिरूप मे करोडो रुपये की धनराशि व्यय कर बनवाया यह जैन मंदिर विमलबसहि, लूणवसहि, पित्तलहर और खरतरवसहि नाम से प्रसिद्ध है । वह मदिर सवत् ११०८ और सवत् १३५० के बीच मे बने है । इनके निर्माण मे दो सौ वर्ष से ऊपर का समय व्यतीत हुआ, इतने लम्बे वर्षो का प्रकय परिश्रम इन जैन महामत्रियो की निर्माण कला की और अत्यन्त गभीर और धेयंपूर्ण लगन का उत्कृष्ट उदाहरण है । जहा ताजमहल सरीखी श्रेष्ठ कृति मुगल सम्राट के बीस वर्ष के परिश्रम का परिणाम है, वहा इन मन्दिरो के निर्माण मे इतनेइतने अधिक समय का लग जाना इसलिए ठीक मालूम होता है, जब हम इन मन्दिरो की विशालता और उन मूर्तियो तथा खम्भों को देखते है जो एक ही पापाण के है और प्रभग है । तब यह वात कल्पना से परे की ही दिखाई देती है कि इस पाच हजार फुट की ऊँचाई पर इतनी बडी-बडी शिलाये और निर्माण की इतनी सामग्री किस परिश्रम के साथ यहा तक चढाकर लाई गई होगी ।
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और उस समय प्राव पवंत के मार्ग जब कहीं अधिक वीहड़ और अगम्य थे। आज जो दर्शक पनको सड़या के द्वारा इन मन्दिरो के फला-दर्शन हेतु जाते है, वे उस दुर्गमता की कल्पना नही कर सकते। इसलिए ताजमहल के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमे इस परिश्रम पौर पगन्यता का भी ध्यान रखना होगा । दूसरी दृष्टि से ताजमहल जहा मुगल सम्राट के पत्नीप्रेम की स्मृति का प्रतीक है, और एक सम्राट के शक्ति, घन और प्रभाव में निर्मित वस्तु वहां पाबू फे यह जैन मंदिर उन जैन मनियो को पवित्र पार्मिक महत्वाकाक्षा और उनके एक सीमित यल-भय के प्रतीक है। नीलिए नहा-जहा वाजमहल के निर्माण मे शाहजहा की शासन सत्ता ने भाग लिया, पहा मन्दिरो के निर्माण में हजारो शिल्पियो और मजदूरो की पवित्र धार्मिक भावना ने मान लिया है, जिनके यश वे वपों तफ अयक भाव से प्रावू पर कलासर्जना करते रहे । उनके सामने पूजी का वह लोभ न या, जो ताजमहल के निर्माता कलाशिल्पियो के सामने । पहा पर उन पलाशिल्पियो ने जी सोल कर अपनी कलासर्जना की प्यास बुझाई और वे उसे परम सीमा तक पहुंचा देने में सफल हुए है । उनके अतिसूक्ष्म और विराट कलाचित्र को देखकर विदेशी निर्माणकला विचारर भी दग रह जाते है । संगमरमर की कला का निखार यहा ही देखने में आता है। अध्ययन की दृष्टि में देखने पर हमे इन जैन मन्दिरो मे जैन धर्म की संस्कृति का इतिहास एक प्रकार से बरे आफपंक ढग से सचित्र और सजीवता के साथ लिखा हुआ दिखाई देता है। हम नवमं गम्मन्धी भावनाओ पोर आचार-विचारो और उसके विकास की वारीक वातो को पाज के मन्दिरी पो में स्पष्ट रूप से अकित देख सकते है । यही नहीं वरन् एक ऐतिहासिक युग पी बंपरा, रीति-रिवाज और लोकरुचि की सागोपाग झलक इन मन्दिरो में दिखाई देती है। प्रजन्ता चौर एल्लोरा की गुफाओ के समान हम नाट्य, नस्य और संगीत तथा भावविन्यास का विगद चित्रण पाते है, जो अध्ययन की दृष्टि से एक विश्वविद्यालय का काम दे सकता है। मूर्तिकला और धातुकला का भी चरम विकास इन मदिरो मे देखने को मिलता है । मदिरो मे भिन्न-भिन्न तीर्यकरी और मुनियो को जो मूर्तिया है वे आकार प्रकार में काफी विशाल है। एकएक मूर्ति कई-फर मन वजनी है, ऐसे वजन की विशाल मूर्तिया भारत के बहुत ही कम मन्दिरो में पाई जा सकती है।
इन मदिरों में जैन धर्म और सस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से जहा आप अक्षय भण्डार भरा पाएंगे, वहा पापको जैन और हिन्दू धर्म की मिलीजुली संस्कृति की भी झलक विभिन्न चिनालेसो में देखने को मिलेगी। इससे पता चलता है उस काल के निर्माता किस प्रकार अपने समकालीन हिन्दू धर्म और सस्कृति से प्रभावित थे और किस प्रकार समवगों की भावना का एकीकरण था। इन मदिरो के बीच मे श्रीकृष्ण भगवान के चरित्र की कथाएँ, नरसिंह अवतार की कथा और महाभारत काल की कथाएं वडी सुन्दरता के साथ भकित पाते है जिनकी पूर्णता पर दर्शक घरबस मुग्ध हो जाते हैं।
मेरी दृष्टि मे वह धर्म ही नहीं जो अपने जीवन को सुधारने के लिए इस जीवन को मक्लिप्ट बनाये विगाड़े । वस्तुत धर्म की कसौटी अगला जीवन नही, यही जीवन है।
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सामयिक आवश्यक अपोल
व्यवस्थित ढग से अ. भा० आबू मन्दिर टैक्स विरोधी आन्दोलन को सफलतापूर्वक चलते हुऐ आज लगभग चार माह व्यतीत हो गये । पर कमेटी के कार्यकर्ताओ ने आजतक कभी भी समाज के समक्ष धन प्राप्ति के लिये अपील नहीं की और न भविष्य मे ऐसा विचार ही है कि सार्वजनिक अपील की जाय क्योकि कमेटी के कार्यकर्ता इस बात को अच्छी तरह जानते व समझते है कि ऐसा करने से हमारी सारी शक्ति इस ओर लग जाएगी जिससे समय का व्यर्थ दुरुपयोग होगा । लेकिन यह सभी भाई महसूस करते है कि यह कार्य महान् है और अर्थाभाव के कारण उसे हरगिज सफलता न मिल सकेगी । इसी बात को ध्यान में रखते हुए मारवाड के जिन-जिन स्थानो मे मै डेपुटेशन के साथ गया वहा के भाइयो ने बिना अपील किए ही मुझे थैलियां भेट की
और पाश्वासन दिया कि आवश्यकता पड़ने पर हम और भी अधिक आर्थिक सहायता प्रापको देंगे। इसके अतिरिक्त और भी कई जगह के दानियो एव इस आन्दोलन से प्रेम रखने वाले महानुभावो की ओर से हमे बिना अपील किए रुपयो की प्राप्ति हुई है। इसलिए यह निःसकोच कहा जा सकता है कि समाज माबू आन्दोलन की सार्थकता को समझने लग गया है। प्रस्तु घनिक वर्ग स्वय इस ओर ध्यान देकर प्राबू पान्दोलन को सफल बनायेगे ही परन्तु इस समय जिस जरूरत को अधिक महसूस कर रहे है वह जरूरत है उत्साही युवको के सहयोग की जो एक बार धर्म और समाज की मान-मर्यादा की रक्षा हेतु तथा इस जग को जीतने के लिये अपने सर्वस्व की बाजी लगावे। समाज के उत्साही युवको के अलावा हम अपने समाज के विद्वानो, विद्यार्थियो और वकीलो से भी जोरदार अपील करेंगे कि ग्रीष्मावकाश मे सभी भाई अपने-अपने इलाके में पाबू आन्दोलन के प्रचार का अगर बीडा उठा ले तो एक बारगी जो कार्य वेतनभोगी प्रचारको से होना असम्भव है उसे आप लोग सम्भव करके दिखा सकते है।
हैदराबाद सत्याग्रह के समय प्रार्य समाज के छोटे-छोटे बच्चो से लेकर बड़े-बूढ़ो तक ने अपने को उस आन्दोलन मे अर्पण कर दिया था उनके सामने सिर्फ एक ही लक्ष्य था और वह था. मार्य धर्म और उसकी संस्कृति की रक्षा । कई आर्य भाइयो ने तो हैदराबाद की बलिवेदी पर अपने अमूल्य जीवन को अर्पण कर दिया था उस समय उनकी सारी शक्ति उसी ओर लगी हुई थी । ऐशो-आराम को उस वक्त उन्होने ताक मे रख दिया था और हैदराबाद की ओर चल पड़े थे और उन्होने अपने त्याग तथा बलिदानी भावों से एक बार ससार को दिखा दिया था कि पार्यो मे अभी अपने पूर्वजो का रक्ताश मौजूद है । फिर क्या बात है कि हमारे ही पूर्वजो के बनवाये विशाल एवं दर्शनीय मन्दिर तथा उनमें विराजमान सागोपाग सौम्य मूर्तियो के दर्शनो पर सिरोही की स्वेच्छाचारी सरकार मनमाना टैक्स हर यात्री पर चाहे वह दिगम्बर, श्वेताम्वर हो या कि हिन्दू हो वसूल कर उसे ऐश-परस्ती मे खर्च करे। उसे क्या अधिकार है कि जैनो के स्वत्वो को अपहरण कर अपनी मनमानी चलाये और टैक्स बढ़ाती रहे।
जिस दिन से प्राबू पान्दोलन का श्रीगणेश हुमा और जैसे-जैसे यह आन्दोलन अधिक उग्न और व्यापक होकर जैन समाज की सीमा को लांघ कर सर्वव्यापी बना तब से हमे कुचलने २९. ]
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के लिए सिरोही स्टेट के निरकुश अधिकारियो ने जैन जनता पर अधिकाधिक अत्याचार करने की घृणित नीति को प्रस्तयार कर लिया है और वे बरावर वार पर वार करते ही चले जा रहे हैं ।
जैन समाज के बच्चे-बच्चे को यह जान कर महान् दुःख होगा कि भावू भन्दोलन के कुचलने के हेतु अभी अभी जावाल के जैन मंदिर में स्थित श्री नेमीनाथ की सांगोपांग भव्य एवं सुन्दर मूर्ति के टुकड़े टुकड़े राज्य के अधिकारियो ने अपने सहयोगियों से करवा डाले और मंदिरजी के सामने एक भैसा कटवाकर उसके रक्त से मंदिर की दीवारों सुखं करदीं। क्या इस प्रकार के अपमानजनक अत्याचार को जैन समाज सहन कर लेगा और चुपचाप मूर्तियों का अपमान होते देखता रहेगा ?
आये दिन जैन समाज की उदासीनता से तो यही पता चलता है कि वे कुछ कर सकने मे अपने को सर्वथा असमर्थ पाते है । हम अहिंसक जरूर हैं पर क्या हमें इस प्रकार के निरन्तर होने वाले अत्याचारो के निराकरण के लिये खून का घूंट पी कर चुपचाप बैठे रहना चाहिए ? वह तो अपने स्वत्वो की रक्षा के हेतु करने की इजाजत देती है फिर क्या कारण है कि हमारे दिनो में स्वत्व प्राप्ति के हेतु किसी प्रकार मी उथल-पुथल नहीं मचती ।
जैन समाज को यह जान कर अतीव श्राश्चर्य होगा कि ऑ श्रोंदोलन का साथ अ० मा० हिन्दू महासभा, प्र० भा० हिन्दू धर्म सेवा संघ कलकत्ता, भारत सेवाश्रमं कलकता, बंगाल प्रातीय आर्य प्रतिनिधि सभा, संन्यास आश्रम गया, कन्या गुरुकुल भैंसावल, कन्या गुरुकुल खानपुर, शुद्धि संभा श्रीगरा, श्रद्धानन्द दलितोद्धार सभा देहली, भार्यसमाज हैदराबाद, दयानन्द साल्वेसनं मिशन होशियारपुर, श्रार्य प्रतिनिधि सभा श्रंजमेर, हिंदू सभा अजमेर, हिंदू सभा भोपाल, वनिता विश्राम आश्रम देहली, हिंदू सभा चांदखाली ( वगाल), सी० पी० हिंदू सभा, यू० पी० हिंदू सभी, श्रार्योपदेशक संभों लाहौर, श्री श्रद्धानन्द अनाथाश्रम अजमेर, गुरुद्वारा शिरोमणि सभा अमृतसर, राजस्थान प्रा० हिंदू सभा अजमेर, भार्य प्रतिनिधि सभा करांची, बिहार हिंदू सभा पटनों, प्रताप संभा उदयपुर, अॅ० भा० शुद्धि सँभा देहली आदि कई जैनेतर सभाएँ भारत में अपनी मान-मर्यादा के हेतु तथा स्वत्व संरक्षण के लिए प्रचार कर रही हैं और उपरोक्त सभी संस्थाओं का सहयोग हमें प्राप्त है । पर अफसोस है कि सोती हुई जैन कौम के कानों में जू तक नही रेंगती | समाचार-पत्रों में कितनी ही मर्तबा लिखा गया कि जगह जगह आदू मंदिर टैक्स विरोधी शाखायें सभायें स्थापित करें ब्यावर मे पीसंवृंदा प्रस्ताव का समर्थन करके सिरोही स्टेट भेज दे पर दो ढाई सौ स्थानो के अतिरिक्त अन्य स्थानों से प्रस्ताव पास कराकर नही भेजे गये । जैन समाज की इस उदासीनता को देखकर दुख होता है कि क्या दरअसल में इस संघर्ष के जमाने मे दुनिया के पर्दे से जैन समाज का अस्तित्व नष्ट जायगा । इस सम्वन्ध मे डेपुटेशन बनाकर जगह-जगह दौरा किया | इस सम्बन्ध मे लगातार नांदोलन चलता रहा। डेपुटेशन कई बार दीवान साहब से मिला परन्तु मंदिरों के दर्शनों से प्राप्त हुई श्रांय का लोभ वे भी न रोक सके । किन्तु जनता की प्रबल माँग और जैन समाज के जागृत हो जाने के कारण वे सब अधिकारी यह भी अनुभव करने लगे कि यह टैक्स लेकर हमें जनता के साथ अन्याय कर रहे हैं । १९४२ में देश
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की पाजादी के लिए किए गए 'भारत छोडों ऐतिहासिक पादोलन के कारण कार्यकर्ताओं का ध्यान देश की स्वतत्रता की ओर लग गया और आंदोलन बन्द करना पड़ा।
ज्योही देश स्वतत्र हुमा महारानी साहिवा सिरोही ने जनता की न्यायपूर्ण माग को स्वीकार कर लिया और जैन समाज के मस्तक के ऊपर लगे हुए कलक को धो डाला गया।
__इस आदोलन की सफलता में उन सभी पत्रों, सामाजिक सस्थामी, हिन्दू और पायें समाज के प्रमुख विद्वानो, नेतामो और जैन समाज से सभी सम्प्रदायों के प्रमुख महानुभावो का हादिक सहयोग रहा जिनके प्रताप और सहयोग के कारण सफलता प्राप्त हुई। सफलता में मुस्य श्रेय समाज के त्याग को है, समाज ने तन-मन-धन से इस आदोलन में पूर्ण सहयोग प्रदान किया। फलस्वरूप सफलता का मुकुट समाज के मस्तक पर सुशोभित हुमा । किसी कवि ने उचित ही कहा हैवीर और शक्तिशाली पुरुषों को होने वाले अन्याय के विरोध में पूर्ण भक्तिगाली आवाज उठानी पाहिए। और तब तक गांति से नहीं बैठना चाहिए जब तक सफलता पैर को घूमने के लिए अग्रसर न हो उठे। वही सम्यक्दृष्टि जीव है जो घन की गक्ति, तलवार की शक्ति और विचार शक्ति के रहते हुए अन्याय को न तो सहन करता है और न दूसरो पर अन्याय करता है।
यही जैन धर्म की शिक्षा है जिसका उत्तम पुरुष पालन करते है। इस आंदोलन से ममाज के युवको को शिक्षा लेनी चाहिए और अन्याय के विरोध में आवाज उठानी चाहिये।
मफलता उनका स्वागत करेगी।
पाबूटक्स विरोधी आन्दोलन के अवसर पर ब्यावर मे अध्यक्षपद
पर सुशोभित होते हुए।
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स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनीघाट और उसका जीर्णोद्वार
पूज्य न्यायाचार्य श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णी
श्रद्धेय पूज्य वर्णोजी अध्यात्मज्ञान के भडार थे । विद्वानो के अनन्य प्रेमी और धार्मिक शिक्षा के प्रचार में आपकी अपूर्व रुचि थी । उन्होने अपने जीवन में १०० से अधिक शिक्षण संस्थाएं स्थापित कराई। उनका सभी वर्ग के स्त्री-पुरुषो पर श्रद्भुत प्रभाव पड़ता था । स्याद्वाद महाविद्यालय तो उनके लिए पुत्र के समान था जिसका सरक्षण जीवन पर्यन्त करते रहे। जब गंगाजी की प्रबलधारा विद्यालय के भवन को भस्मसात करने लगी और उस पर बने हुए भ० पार्श्वनाथ के जिनमन्दिर तथा विद्यालय के सुन्दर भवन को खतरा हो गया तो उनसे देखा न गया और इसके लिए उन्होने अथक परिश्रम किया । जब उन्हे लाला तनसुखरायजी का पता चला कि उनके मित्र चीफ इंजीनियर पद पर सुशोभित है तो उन्होने इस सम्बंध में कई महत्वपूर्ण पत्र लालाजी को लिखे जिनमे विद्यालय की रक्षा का भाव स्पष्ट है। लालाजी ने और इजीनियर साहब ने इस सम्बन्ध मे जो उल्लेखनीय प्रयत्न किया वह उनकी स्वर्णाक्षरो मे लिखने योग्य प्रशंसनीय सेवा है। इसका सारा श्रेय वर्णीजी को है जिनकी भक्ति से प्रेरित होकर भदैनीघाट का पुननिर्माण हुआ । वर्णीजी के अभाव से देश का एक दैदीप्यमान लोकप्रिय मार्गदर्शक आध्यात्मिक रत्न aiगया जिसकी पूर्ति होना कठिन है ।
प्राए हुए पत्रो मे से वर्णीजी का एक पत्र अविकल दे रहे है ।
त्याग यात्र हो पत्र प्राया आप का परिश्रम जोर्ट के अब में अत्यन्त स्ताध्य है यदि इंजिनियर साहब कैसे यू.पी वाली - घार इसी वर्ष वन जाता - परन्तु मोल नहीं प्रारम्भ हो जावें फिर " ही जविगाह में आप को कोटिशः प्राशीर्वाद देते हैं जो आप में इसपूर्व काम किया- कलकत्ते से अमी उत्तर नहीं आया-खाय निर जन्म रहे जंगल कहीं जाने अपने को भ्रमणपर रहना चाहिए
५. भूतक
वैशाललहिदू ༩༢༠༥༢
गोश धर्ती
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आदर्श सामूहिक विवाह
- श्री गोकुलप्रसाद जैन, दिल्ली आदर्श विवाह योजना की समाज में बडी आवश्यकता है। यह प्रथा नामधारी सिक्खो और दूसरे सम्प्रदायो मे बहुत समय से प्रचलित है। परन्तु जैन समाज में इस आदर्श प्रथा को लाने का श्रेय बैरिस्टर जमुनाप्रसादजी को है 1 द्रोणगिरि पचकल्याण के अवसर पर मै गया था वहां १६ विवाह योग्य वर-बधू बने ।
जब उनके विवाह का आयोजन किया गया तो प्रतिक्रिया विचारधारा वाले व्यक्तियो ने इसका खुलकर विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि यह कार्य मेले में सम्पन्न हो । परन्तु बैरिस्टर साहब इस कार्य के लिए तत्पर थे। जैन मिशन के कार्यकर्ताओ ने इस कार्य मे पूर्ण सहयोग प्रदान किया और मेले के वाहर जगल की मनोरम भूमि मे १६ विवाह सानन्द सम्पन्न हुए । लाखों स्त्री-पुरुष बिना आमन्त्रण दिये वहां पहुंच गये। उनकी शोभा-यात्रा बडी सुन्दर ढग से पढी। मेले मे आये हुए स्त्री-पुरुषो ने इस कार्य मे पूर्ण सहयोग प्रदान किया। धीरे-धीरे यह प्रथा समस्त मध्य भारत मे फैल गई। देहली में भी परिषद के तत्वावधान मे चार विवाह सामूहिक रूप से सम्पन्न हुए। केन्द्रीय लोकसभा के अध्यक्ष श्री प्रायगर साहब ने सभी को सुन्दर आशीर्वाद दिया और इस प्रथा को प्रोत्साहन देने के लिए जनता से अपील की । ला० तनसुखरायजी को भी इस कार्य में विशेष रुचि थी। उन्होने इस आन्दोलन को प्रोत्साहन देने मे बडी सहायता प्रदान की । इस आन्दोलन का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है ।
समाज मे आदर्श विवाहो की प्रथा को योजनाबद्ध रूप से चलाने का सम्पूर्ण श्रेय जैन समाज के मान्य नेता स्व० बैरिस्टर जमनाप्रसादजी को रहा है। आप ही इसके प्रवर्तक थे और आपने ही जीवन पर्यन्त इसे सफल नेतृत्व प्रदान किया। मध्य प्रदेश मे आपकी छत्रछाया मे इस प्रकार के हजारो विवाह सम्पन्न हुए है।
__ प्रचलित विवाह रूप की इसी बुराइयो ने हमारे मान्य नेता श्री जमनाप्रसादजी को सामूहिक आदर्श विवाह पद्धति चलाने के लिए प्रेरित किया था। वैवाहिक कार्यों के सुधार का सर्वप्रथम प्रयास तो वैरिस्टर चम्पतरायजी ने किया था जिसमे उन्होने अनेक प्रचलित रूढियो को तोडा था। समाज में और भी स्थान-स्थान पर ऐसे विवाह होते आये है जिसमे समाज ने दहेज और फिजूलखर्ची के जुए को उतार फेका था। परिवर्तित परिस्थिति और सामाजिक जागरण ने हमें बहुत कुछ सिखा दिया है। व्यवस्थित रूप से सामूहिक आदर्श विवाह योजना को समाज मे प्रचलित करने का सारा श्रेय समाज और परिषद के स्वर्गीय नेता सन्मार्ग प्रवर्तक बैरिस्टर जमनाप्रसादजी कलरैया (नागपुर) को है। उन्होने परिषद के जबलपुर अधिवेशन के अवसर पर सर्वप्रथम इस योजना को कार्यान्वित किया था। घोर विरोध का सामना करने हुए भी जिस महान कार्य का उन्होने बीडा उठाया था, उसमे वे लगे रहे और इसे पूर्ण सफल बनाया।
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........ दिल्ली में सामूहिक विवाह का एक दृश्य । माननीय प्रायंगर सा की अध्यक्षता में
पं० शीलचन्दजी शास्त्री गृहस्थाचार्य का कार्य करते हुए : इस योजना को सफल बनाने और इसे कार्य-रूप में परिणत करने का बहुत कुछ श्रेय स्व० वैरिस्टर साहब के अनन्य सहयोगी सेठ गोमालालजी सागरवालो को है जिन्होंने इस योजना का सफल नेतृत्व करके इसे सफलतर और सफलतम बनाया। इन्ही महानुभावो के सततप्रयासो से आन बुन्देलखण्ड और मध्यप्रदेश में हजारो आदर्श विवाह हो चुके है।
वैरिस्टर साहब ने अपने जीवन मे स्थान-स्थान परजारो आदर्श विवाहो का आयोजन कराया । मादर्श विवाह हमारे लिए इसलिए प्रावश्यक है कि हम विवाहो के अवसर पर होने वाले अपव्यय, वाह्याडम्बर और अनावश्यक रूढियो और रीति-रिवाजी से चल सकें । समाज में घनी-निर्धन, ग्रामीण, नागरिक आदि सभी गृहस्थों को समान स्तर पर लाया जा सके तथा अनेकानेक वर्तमान कुरीतियों से मुक्ति प्राप्त की जा सके । इस योजना के मूल में एक ही प्रेरणा गतिशील है कि आर्थिक विपन्नता के कारण आज जो व्यक्ति अविवाहित रह पाते हैं या कि जिनके विवाह सम्बन्ध अनेक कठिनाइयो के बाद विलम्ब से होते है, उन्हें राहत मिल
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सके । इसे जितना कम से कम खर्चीला बनाया जा सके, उतनी ही अधिक इसकी उपावेयता बढ़ेगी । सबके लिए अनुकरणीय यह इसलिए है कि जो व्यक्ति चाहे व्यक्तिगत रूप से अधिक व्यय भी कर सकते हो वे यदि आगे आकर इस प्रकार के आदर्श स्थापित करेंगे जिससे कि अनुकरण-प्रिय निरीह निर्धन जनता उन पर चल सके तो समाज इस हीनावस्था से निकल सकेगी।
स्व० बैरिस्टर साहब और उनके सहयोगियों के चिर प्रयत्नशील रहने कारण आज समाज में इस योजना का बड़ा स्वागत हुआ और सामूहिक रूप से सम्पन्न होने वाले इन आदर्श विवाहो का व्यापक प्रचार हुआ । समाज ने इन विवाहो की आवश्यकता, सुरुचिपूर्णता और सुविधात्मकता को हृदयगम किया और इस पर अपनी मान्यता की छाप भी लगा दी ।
बैरिस्टर साहब ने प्रायः सभी प्रमुख धार्मिक और सामाजिक उत्सवो पर, मेलो श्रादि में सामूहिक प्रादर्श विवाहो की योजना कराई । अन्य विशेष अवसरों पर भी इस प्रकार के प्रायोजन कराये जिनमे एक ही साथ एक ही मण्डप में, एक ही समय एक ही व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक वर-वधुओ का शास्त्रोक्त विधि-विधान सहित पाणिग्रहण सस्कार हुआ।
बैरिस्टर साहब इस प्रकार के प्रगतिशीलता के कार्यों मे सदा आगे रहे हैं। परिषद ने १९५६ मे अपने देवगढ अधिवेशन के अवसर पर सामूहिक आदर्श विवाह योजना के बारे मे पूर्ण विचार-विमर्श के पश्चात् एक प्रस्ताव पास किया था और इसे कार्यान्वित करने के लिए जो समिति बनाई गई थी उनके कार्यों का सम्पूर्ण भार उसके मन्त्री श्री जमनाप्रसादजी को ही सौपा गया था । यो तो इस योजना का व्यापक प्रचार हुआ है किन्तु इस कार्य मे बडी सावधानी के साथ अग्रसर होने की आवश्यकता है। प्रायः समाज-सुधार के नाम पर ढोगी, बेईमान, ठग
रघूर्त अपनी दुकानें कायम कर लेते है । उनसे बचने की आवश्यकता है ताकि वे इस योजना के मूल उद्देश्यो और वास्तविकता को ही नष्ट न कर दे। बेरिस्टर साहब के जीवनव्यापी सतत् प्रयन्नो और प्रथक परिश्रम से समाज ने आदर्श विवाहो की मौलिक महत्ता को तो स्वीकार किया ही, साथ ही इस योजना को सफल बनाकर इसकी व्यावहारिकता और उपादेयता को भी सिद्ध कर दिया ।
आज हमारा मान्य नेता तो हमारे बीच नही है जो हमारा मार्ग-दर्शन कर हमें रास्ता दिखाता चले । किन्तु उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग और स्थापित मिशन हमारे सन्मुख है जिस पर हमे चलना है और समाज को चलाना है । स्व० बैरिस्टर साहब की यही सच्ची स्मृति होगी और यही वास्तविक श्रद्धाजलि ।
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जो सब कुछ जानकर भी अपने-आपको नही जानता, वह अविद्वान है। विद्वान् वही है, जो दूसरो को जानने से पूर्व अपने-आपको भली भाँति जान ले ।
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विश्व का शाकाहार आन्दोलन
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श्री सन्मतिकुमार जैन सत्तर वर्प से भी अधिक समय से मैं शाकाहारी हू । शाकाहार के लाभ के विषय मे | कुछ कहना नहीं चाहता । इसके परिणाम से जनता सुपरिचित हैं ।
-সাল এনভি ব্য। सन् १९१७ मे लन्दन के शाकाहारी समाज के सत्रहवे वार्षिकोत्सव के अवसर पर जार्ज वर्नार्डशा ने अपने सन्देश में कहा था
मुझे अपनी आस्था का श्रेय मिल सका या नही इस सम्बन्ध मे आप अपनी धारणा स्वय निश्चित कीजिएगा । मैं इसे आस्था कहता हू-क्योकि आज हम भौतिकवादी दृष्टि से शिक्षित इस युग मे शरीरविज्ञान पर आधारित जो युक्तियाँ प्रस्तुत करते है उनमें मेरा तनिक भी समादर नही । प्रामाणिक मनोविज्ञान के विकसित होने पर हम अधिशरीर क्रियाविज्ञान तक पहुच सकेंगे और तब हम स्वजाति भक्षण के प्रति नैसर्गिक विद्रोह की विश्वासजनक ढंग से व्याख्या कर सकेंगे।
यदि वचपन मे मुझे अकेला छोड दिया जाता तो मैंने अपने जीवन में कभी भी मास भक्षण न किया होता।
मेरे जैसा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति शव भक्षण नहीं करता। यह वात सर्वथा स्पष्ट है कि मनुष्य शाकाहार से दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।
लन्दन के सुप्रसिद्ध नाट्यकार वर्नार्ड शा जीवन भर शाकाहारी रहे । उन्होने अपने जीवन मे कभी भी मास, मछली, अन्डे को स्वीकार नही किया । एक बार वे किसी भोज में आमन्त्रित थे। उनके भोजन में शाकाहार का ही प्रवध किया गया था । किसी व्यक्ति ने उनके सामने मासाहार का भोजन परोसना चाहा तो उन्होने तत्काल मना कर दिया और कहा मैं अपने शरीर को कवस्तान नहीं बनाना चाहता हू । प्रकृति ने अन्न, फल, मेवा, दूध आदि सर्वोत्तम पदार्थ उत्पन्न किए है, मैं इन्हे छोड़कर मांसाहार कदापि नही कर सकता । दीर्घायु, निरोग शरीर, थात स्वभाव, कर्तव्यशील प्रकृति, हसमुख वदन और सात्विक विचार जो मेरे अन्दर आये है उसका प्रमुख कारण शाकाहार है। मै शाकाहार को ही जीवन के लिए पावश्यक समझताहूं। विश्ववन्ध महात्मा गांधीजी ने अपने जीवन में कभी भी मासाहार नही किया। उन्होंने अपनी माताजी के समक्ष जैन साधु बेचर स्वामी से तीन प्रतिज्ञाये ली। मांस, मदिरा और पर-स्त्री सेवन का त्याग। इन प्रतिज्ञापो के कारण उनका जीवन अहिंसा सस्कृति से ओतप्रोत हो गया । वे जब वैरिस्टरी के शिक्षण के लिए विलायत गए तो शाकाहारी आन्दोलन में उन्होने विशेप रुचि दिखाई। विदेशो के वयोवृद्ध शाकाहारी विद्वानो के बीच मै नवयुवक गांधीजी अध्यक्षता करते थे और उनका शाकाहार के कारण विगेप सम्मान था । उस समय लन्दन मे कई गाकाहारी सस्थानो की नीव रखी गई। गाकाहार
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आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। एक बार गाधीजी के बड़े पुत्र बीमार हुए । डाक्टरों ने उन्हे मन्डे का शोरवा देने का प्रस्ताव किया । गाबीजी ने कहा मैं कदापि अपने पुत्र को भडे का शोरवा नही दूगा। उनसे किसी ने कहा गाय का दूध उसके बच्चे का आहार है होने तत्काल दूध का त्याग कर दिया । जब उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो उनसे कहा गया कि पाप बकरी का दूध प्रयोग में लाइए । उन्होने बकरी के दूध को स्वीकार कर लिया । गाधीजी अहिंसा के अवतार थे। उन्होने अहिसा प्रचार के कार्य मे अनुपम कार्य किये। सात्विक आहार-विहार पर वे अधिक जोर देते थे। भारतवर्ष की सस्कृति और सभ्यता धर्मप्रधान रही है । धर्म में अहिंसा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसलिए कहा है :
धम्मो मगल मुक्किट, अहिसा सयमी तपो,
देवापि तस्स णम स्यति, जस्य धम्मे सयामणे । ' धर्म लोक मे उत्कृष्ट मगल है । और वह अहिंसा सयम और तप है। देवता भी उसको प्रणाम करते है जिसके हृदय मे हिसा का वास है।
भारतवर्ष मे धर्म की बड़ी प्रधान थी। सभी मनुष्यो का आहार-विहार साविक था। जब से विदेशियो का भारत मे पाना हुआ यहा मासाहार बढ गया। सात सौ वर्ष मुसलमानो के रहने से और दो सौ वर्ष अग्रेजो के रहने से भारतीयता का रूप-रग बदल गया। पाश्चात्य सस्कृति का इतना अत्यधिक असर हुआ कि आज भारत सरकार मासाहार के लिए बड़ा प्रयल कर रही है । करोड़ो रुपयो की लागत से नए-नए कसाईखाने स्थापित कर रही है।
मुर्गी पालन को प्रोत्साहन देकर अनेक स्थानो पर विशाल केन्द्र स्थापित किए जा रहे है। भारत से करोड़ो रुपये के प्रतिवर्ष चमडे और पशुओ के शरीर के विभिन्न अग विदेशो में भेजे जा रहे है । ऐसी परिस्थिति मे कोई भी विवेकी भारत सरकार को अहिंसा सस्कृति पर विश्वास करने वाला नहीं मान सकता । आवश्यकता है, देश में पशुधन की वृद्धि की जाय और सघन खेती को प्रोत्साहन दिया जाय तभी अन्न की समस्या सुलझ सकती है ।
__शाकाहार स्वास्थ्य के लिए अत्यत लाभदायक है। यह देखकर विदेशी विद्वानो, डाक्टरो और दूसरे विचारको ने अनुभव किया कि मासाहार तामस और अनेक रोगो को उत्पन्न करने वाला है। क्यो न जीवन मे शाकाहार को प्रोत्साहन दिया जाय । उन्होने इसका अनुभव किया और स्वय शाकाहारी रहने का वृढ सकल्प किया । उन्होंने इस सम्बन्ध में शाकाहारी सोसायटिया स्थापित की और इस प्रकार का साहित्य निर्माण किया जिसके पढने से स्पष्ट प्रकट होता है, शाकाहार जीवन को शक्ति, बल और कर्तव्य की ओर प्रेरित करता है। प्रकार पाश्चात्य देशो मे अनेक Vegetarian Society कायम हुई । फलस्वरूप शाकाहार का प्रचार किया। ससार के कोने-कोने मे ऐसी सोसाइटियाँ है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रचार के विविध साधनों द्वारा प्रचार करती है। ऐसी सोसायटियो मे लन्दन और मैनचेस्टर की प्रसिद्ध सोसायटिया है जो बहुत प्राचीन है । विविध रीति से शाकाहार का विश्व मे प्रचार करती है। प्राणी-रक्षा के सम्बन्ध में प्रयत्न करती है। २९८ ]
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प्रनि वर्ष ४ अक्टूबर को प्राणीरक्षक दिवस के नाम से इसे मनाते है। यह १९२८ मे प्रारम्भ हुआ । सन्त फासिस जो जीवो के प्रति वडा प्रेम करते थे उन्होंने यह दिवस प्राणीरक्षक दिवस के नाम से मनाना प्रारम्भ कराया। उनका विचार था हमे पशु, के प्रति शुभ भावनाए रखनी चाहिए । उनकी रक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
___ न्यूजीलैंड मे इस दिन को विशेष उत्साह से मनाते है और ससार के सभी लोग इस प्राणी रक्षक दिवस को मनाकर जीवधारियो के प्रति करुणा का भाव प्रकट करते है । वे इसे एक सप्ताह तक मनाते है । और यह विश्व मे प्राणीरक्षक सप्ताह के रूप मे बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इसलिए व्याख्यानो, रेडियो, वार्तालाप, म्यूजिक लालटेन, प्रेस, पत्र और दूसरे साधनो द्वारा शिक्षा विभाग के सहयोग से मनाते है।
___ इस सप्ताह के मनाने का प्रयोजन देश के नौनिहाल बालको के हृदय मे जीवों के प्रति करुणा और दया का भाव जानवरो के प्रति पैदा करना है ताकि वे उदार, दयावान और जीवरक्षक बर्ने । न्यूजीलैंड में एक सोसायटी है जिमका नाम
World Weak For Animals Campaign N 17 Bellvedere Street Epsom है।
विश्व शाकाहारी सम्मेलन का १७वा अधिवेशन भारत की राजधानी देहनी मे हुमा । उसके सयोजक ला० तनसुखराय थे। विश्व के विविध भागो से ३५० के करीव प्राए हुए प्रतिनिषियो ने इस अधिवेशन में भाग लिया। शाकाहार आन्दोलन ब्रिटेन और पश्चिमी देशो मे बडी तेजी के साथ फैल रहा है। क्योकि लन्दन और दूसरे शहरो मैं इस पान्दोलन को आधुनिक ढग और वैज्ञानिक रीति से सचालन किया जा रहा है। मैंचेस्टर लन्दन की वैजिटेरियन सोसायटी इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य कर रही है। विश्व-अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी सम्मेलन का प्रारम्भ १९१० में शुरू हो गया था। इस सस्था से विश्व की समस्त शाकाहारी सोसायटियो का सम्बन्ध है । और यह परस्पर सहयोग और एकता के आधार पर चलाई जा रही है। इसके संगठन में । इस सस्था की शक्ति बढी है।
____World Vegetarian Congress का १८वा अधिवेशन २७ अगस्त से ४ सितम्बर १९६५ तक लन्दन मे होने का निश्चय हुआ है। जिस स्थान पर अधिवेशन होगा वह लन्दन का प्रमुख केन्द्र है। और उसका ऐतिहासिक महत्व है। यह स्थान Syanwick है। शाकाहारी सम्मेलन की कार्यकारिणी परिषद् मे हालैन्ड, हेग और चैकोस्लेविया प्रमुख रुचि रखने वाले सदस्य है । प्रत्येक प्रतिनिधि की फीस ३) स्टलिंग है । इस अधिवेशन को वहा कराने का सारा श्रेय ब्रिटेन शाकाहारी आन्दोलन (British Vegetarian Youth Morement) को हे जिसके प्रयत्न से यह अधिवेशन वहा किया जा रहा है।
पिछला जो १७वा अधिवेशन दिल्ली मे हुआ उस सम्बन्ध मे देश के विविध भागो से गण्यमान्य राज्याधिकारियों, नेताओं, विद्वानो, सामाजिक कार्यकर्तामो के पत्र-सदेश प्राप्त हुए जिनमै " इस आन्दोलन की प्रशसा की गई थी। और प्रोत्साहन देते हुए लिखा था। इसी प्रकार विदेशी
[ २६९
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की शाकाहारी सोसायटियो ने अत्यन्त सुन्दर अब्दो में प्रेरणादायक स्फूर्तिवत शब्द लिने जिन्हे पढ़ने पर प्रतीत होता है कि यदि शक्तिशाली और व्यवस्थित ढग से शाकाहारी आन्दोलन चलाया जाय तो निःसदेह सफलता प्राप्त हो सकती है। | प्रिय बन्धु,
आपका कृपापत्र प्राप्त हुआ । धन्यवाद !
आपने अपने जीवन मे जो अनेक जन-कल्याण के कार्य किये उनमे शाकाहार की महत्ता प्रचारित करने का आपका यह सकल्प सर्वश्रेष्ठ है । इस पुनीत लोकोपकारी शुभ कार्य में मेरा पूर्ण सहयोग आपको निरन्तर उपलब्ध होता रहेगा।
भारत ससार का अनेक क्षेत्रो मे गुरू माना जाता रहा है। आज हमे अपने उस गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए सासारिक कल्याण के ऐसे शुभ कार्यों में अधिकाधिक योग प्रदान करना ही चाहिए जिससे प्राधुनिक मनुष्य का मस्तिष्क सन्तुलित होकर अध्यात्मवाद की ओर अग्रसर हो सके।
निरामिप पाहार के प्रचार, वृद्धि और शिक्षण के अतिरिक्त राजधानी मे सम्मानित विदेशी अतिथियो के लिए किसी ऐसे विश्रामग्रह की भी योजना बनानी होगी जहाँ वे विशुद्ध भारतीय संस्कृति के अनुरूप भाकाहार का आनन्द ले सकें। आप मुझे अपने समाज के सरक्षण सदस्यो मे महपं मम्मिलित कर सकते हैं।
आपका शुभचिन्तक,
रामनाथ कालिया भारतवर्ष में कई सोसायटिया इस सम्बन्ध में प्रशसनीय कार्य कर रही है। उनमे The Bombay Humanitarian League मुख्य है जिसकी स्थापना वम्बई मे श्रीमान माननीय दयालकार श्री लालूभाई जव्हेरी ने की थी जिसका प्रधान कार्यालय १४६, जौहरी बाजार बम्बई न० २ में है। आजकल जिसके प्रमुख संचालक श्रीमान् सेठ जयन्तीलालजी मानकर साहव है।
इसी प्रकार दूसरी सोसायटी-भारत वेजिटेरियन सोसायटी, ११६ सुन्दरनगर, नई दिल्ली में है जिसके सेक्रेटरी श्री अमृतलालजी जिन्दल है । इसी प्रकार बम्बई, सौराष्ट्र और आंध्र प्रदेश मे कई पिंजरापोल सोसायटिया है जो पशुरक्षा का महत्वपूर्ण कार्य करती है। रीवा, सतना, मध्यप्रदेश से शाकाहारी त्रैमासिक पत्र का प्रकाशन होता है जिसके सम्पादक श्री पन्नालालजी है जो शाकाहार के सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य कर रहे है।
पावश्यक हो कि शाकाहार पशुरक्षा, गोरक्षा, जीवदया सम्बन्धी आन्दोलन विभिन्न प्रांतो में उत्साही कार्यकर्तामो द्वारा मिलकर संगठित होकर चलाया जाय ताकि वैज्ञानिक ढग मे । इसका संचालन हो और सही रूप से पूर्ण सफलता मिल सके। जैन समाज के उदीयमान युवक श्री प्रेमचन्दजी जैना वाच कम्पनी ने दि० जैन लाल मदिरजी पर अहिंसा प्रचार ममिति स्थापित की है। जिसने प्रशसनीय कार्य किया है तथा जो उत्तम काम कर रही है। ३०० 1
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लाला तनसुखरायजी ने भी भारत वेजिटेरियन सोमायटी नामक मम्या खोली थी। और उसीके माध्यम से यह अधिवेशन करवाया और विदेशी शाकाहार से रचि रखने वाले अतिथियो को आमत्रित किया। इसमे कोई सदेह नही लालाजी की इस कार्य में विशेष रुचि थी। उन्होने प्रयल भी किया। परतु पूर्ण सहयोग का प्रभाव और योग्य हाथो मे न सांपने के कारण इस सस्था का कार्यक्षेत्र केवल कागजो मे ही रह गया । और उनके स्वर्गवास के पश्चात समाप्त हो गई । आवश्यकता है जैन समाज के उत्साही कर्मशील सपन्न युवक इस कार्य को अपने हाथो मे ले और पूर्ण रुचि के साथ इसका सचालन करे तो मानव जाति का अकथनीय उपकार हो । इस समय विश्व में एक वडा सघर्प चल रहा है । मासाहार, मछली, अन्डो का उत्पादन इतनी दूतगति से बढ रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। किसी समय पशुओ का वध धर्म के नाम । पर होता था, अव उदर पूर्ति के नाम पर होता है। परन्तु आज विटामिन शक्तिवर्धक तत्वो के नाम पर होता है । जैनो मे जो विशुद्ध शाकाहारी है कतिपय नवयुवको के मस्तिष्क में भी यह दूषित विचारधारा विना बुलाए तेजी से आ रही है। कुछ अडे भी इस प्रकार के होते है जिनमे जीव पैदा होने का सभावना नही होती। तो उम सम्बन्ध मे तक किया जाता है उनके खाने मे क्या दोष है ? इसी प्रकार का प्रश्न मुझसे माननीय प्रधान मत्री जी के एक उच्चपदासीन सेक्रेटरी ने उस समय किया जब मै अमेरीकन राष्ट्रपति श्री प्राइजन होवर को भारत पधाग्ने पर Key of Knowledge भेंट करने के लिए गया था। मैने उत्तर दिया श्रीमान जी! हम आपकी विचारधारा को स्वीकार नहीं कर सकते । कुछ स्त्रिया भी ऐसी होती है जिनके सन्तान नहीं होती। तो क्या हम उन्हे निर्जीव कहे । जव मैने यह उत्तर दिया तो वे मेरी ओर देखने लगे और कहा नि सदेह शाकाहारी भोजन मर्वश्रेष्ठ है। मैं इसकी प्रशसा करता हूँ। मुझे भी शाकाहार के सम्बन्ध मे कुछ उत्तम साहित्य दीजिए । फिर उन्हे कुछ साहित्य भेंट दिया गया। -
कहने का साराश है कि शाकाहार के प्रचार की वडी आवश्यकता है । प्रचार की तीव्रता के कारण निन्दनीक घृणास्पद मासाहार की वृद्धि हो रही है जिसका सामना करना युवको को चुनौती - दे रहा है कि वे उस चुनौती को स्वीकार करे और विरोध मे शक्तिशाली आन्दोलन उठावे ।
विदेशो मे जहाँ मासाहार की बड़ी प्रचुरता है रेगिस्तान मे नग्वलिस्तान की तरह कुछ विशिष्ट शक्तिशाली पुरुषो और महिलामो द्वारा यह आन्दोलन चलाया जा रहा है । वे इस सम्बन्ध मे निर्भीकता से कार्य करते है । और माधुनिक प्रचार के साधनो को अपनाकर शाकाहार का प्रचार तेजी से कर रहे है। आपको यह जानकर अत्यत प्रमन्नता होगी कि विदेशो मे बीस हजार स्त्री-पुरुष शाकाहारी आन्दोलन के सदस्य है जो गाकाहार पर निर्भर है। उन्होने इस सम्बन्ध मे घोषणाए की है कि शाकाहारी निरोग और स्वस्य रहता है। उसमे ऐमे सक्रामक रोगो का समावेश नहीं हो पाता, जिन रोगो से मसित वह पशु होता है जिसका मासाहार काम मे लिया जाता है । अनेक वीमारिया मासाहार के त्याग के साथ उनकी समाप्त हो गई ।
मासाहार मनुप्य की खुराक नहीं है । गाकाहार, अन्न, फल, दूध प्रादि ही मनुष्य की सच्ची खुराक है । इस सम्बन्ध मे उत्तम साहित्य भी प्रकाशित किया गया है जिसकी सूची, सस्थामो के नाम उनके सचालक और इस सम्बन्ध मे आवश्यक वातो का परिचय मग देने का
[ ३०१
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विचार है। कुछ उनी विदेशी के लिये हैं जिससे हमारे देश के नाइयों में इस सम्बन्ध में उमाह ही इस प प्र करें।
उबन्दिन में The Dabhn Vegetarian Society है, विकी स्थापना डा० दोहरी हनी ने की है, जो वहीं गए हैं। यह संदेश, ड, ईने, अजवायना, साक्ष्य कीका, आलिया,जान और ब्रिटि दोनों में उतर रही है । Evening Mail Erening Herald और दुका
बीच बढ़ा रही है।
यह संन्या विवि उसे कार की श्रीमान देती है जिन्हें नारी बनाने की विधि मुख्य है । Ir. Florence, Gomiley से शह भोजन का Natural Pure Dis: कहते है गर्व से जितार करते हैं । इस संग ने २३,६०५६३ से अधिक व्यक्तियों के
में
काम
है।
इसी प्रकार The American Hamare Association है हम संग की स्थापना १८ में हुई इनका उद्देश्य पशुओं पर सूरा न होने देना, त्रों के कारी कार्य करता, पशुरक्षाका कार्य करना, शाकाहार का प्रचार करना इसका उद्देश्य है। इन कार्यालय 896 Pennsylvania, Street, Denver 3, Cold. U.S.A.
यह पत्र, यान्तों, जिनकी विधि है । २१ वर्षकी
इन्स्य ज्ञापत्र भरना होता है सि जीवन नरहरी रहने का संकल्प करना पड़ता है। अति सोमायी है, उमनियम है मंत्र नहीं है । क्योंकि गाय होता है। नतिविना उहुंच लिया है। जबकि मां अन्य पूर्व विद्यानि भी नहीं है । उभिएरहन
आदि उनके विनाश
से होता है।
शुद्ध
है।
उन
न है। forest में
छहारा नहीं करना चाहिए जिन्हें कि है ।
अति: London Vegetarian Society के है. oि Bertrand
मानों द्वारा धाकाहार का प्रचार मकता है । बने के लिए
P. Allinson 3 R. A. S.,
और न Ronaldlightcver है। जिन्होंने द्वारा जीवन इस कार्य में गाडि | यह एक डाक्टर हैं। उनके पुत्र भी इस महा ज्वान करते है । उनी प्रकार :
Dr. D. P. Allinson Advocate हैं, जिन्होंने शुरक्षा यात्री निशा को दूर करने का किया है।
London Ww C. I. है ।
30 ].
होने 81 Lams Conduit Sreet"
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इसी प्रकार आस्ट्रेलिया के प्रोफेसर Jahanes Ude ने अपने यहा प्रशसनीय कार्य किया है । शाकाहार, अहिंसा प्रचार के सम्बन्ध में आपका कार्य शानदार रहा है । इनके इस कार्य मैं कई कठिनाइया आायी परन्तु इन्होने इसकी कुछ भी परवाह नही की ।
डा० Hugorio इसके अध्यक्ष है। श्री Evelin Guzeda सेक्रेटरी है। Mr Wiluram जो पत्र और प्रदर्शनी द्वारा शाकाहार का प्रचार करते हैं ।
Osterric Chister vegeteriarbund Wiem I Rethawsplate 1 Halbstock B इसका प्रधान कार्यालय है ।
विदेशो मे श्रहिसा की अभिरुचि
जनता मे निरामिष भोजन की प्रवृत्ति बढ़ाने के प्रादर्श कार्य को "भारत वेजीटेरियन सोसायटी दिल्ली" बहुत समय से कर रही है। इस सोसायटी के सयोजक लाला तनसुखराय जैन ने एक पत्र लदन की फ्रेड्स वेजीटेरियन सोसायटी को बम्बई मे होने वाली वर्ल्ड वेजीटेरियन काग्रेस मे अपने प्रतिनिधि भेजने का निमन्त्रण भेजा था। उसके उत्तर मे उपर्युक्त संस्था के मंत्री टी० लेन के पत्र का कुछ भाग देते है, जिससे उनको प्रतिभास हो जाएगा कि विदेशा मे भी जीवो की हिंसा न करने की कितनी अभिरुचि है, "जैनियो और वोद्धमतानुयायियो मे जो जीवो के हिंसा न करने की परम्परा चली आ रही है उसका हम हृदय से आदर करते हैं । हमे श्रागा है कि वर्ल्ड वैजीटेरियन काग्रेस को पूरी सफलता मिलेगी । निरामिष प्रहार की प्रवृत्ति तथा अहिसा आन्दोलन विश्वभर मे फैलना चाहिए, इससे प्राणियो मे पारस्परिक सहयोग और सहायता की भावना फैलेगी । विश्व के मानव तथा पशुओ के वध को रोकने के लिए पश्चिमीय देश पूर्वीय देशो के नेतृत्व की ओर निहार रहे है। विश्व मे युद्ध न फैले, इसके लिए भारत बहुत काम कर रहा है। हमें आशा है। कि आप अहिसा और निरामिष भोजन की पद्धति को ससार के बहुभाग मे बढाने की प्रवृत्ति को जारी रक्खेगे ।"
०
विदेशो मे शाकाहार के सम्बन्ध मे जो साहित्य प्रकट हुआ है उसकी सूची प्रकाशित कर रहे है । आशा है आप उससे लाभ उठावेंगे, और शाकाहार का प्रचार करेंगे ।
आचार्यश्री विहार करते हुए जा रहे थे, मार्ग मे एक विशाल आम्रवृक्ष श्रा गया । सन्तो ने उनका ध्यान उधर आकृष्ट करते हुए कहा - यह वृक्ष बहुत वडा हे ।
आचार्यश्री ने भी उसे देखा और गम्भीरता से कहने लगे-एक मूल में ही कितनी शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकल जाती है। धर्म-सम्प्रदाय भी इसी प्रकार एक मूल में से निकली हुई शाखाएं होती है । परन्तु इनकी यह विशेषता है कि इनमें परस्पर कोई झगड़ा नही है, जबकि सम्प्रदायो मे नाना प्रकार के झगडे चलते रहते है । गाखाएं वृक्ष की शोभा है । उसी प्रकार सम्प्रदायो को भी धर्म-वृक्ष की शोभा बनना चाहिए ।
[ ३०३
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LONDON VEGETARIAN SOCIETY.
List of Books Health Giving Dishes Dr M Bircher-Benner Complete Vegetraian Recipe Book Ivan Baker Diet Reform Cook Book Vivien Quick Standard Vegetarian Cookery Ivan Baker Good Cakes, Bread & Biscuits Ambrose Heath 100 Ways of Cooking Without Meat Lettice Pither Meatless Dishes C. Herman Senn Dishes Without Meat Ambrose Heath Egg Dishes Mary Ball Food for Health J. & J. E Thompson Vegetarian Recipes Ivan Baker 63 Meatless Meals Bridget Amies Cakes, Scones, Biscuits & Fancies Bridget Amies Menusper Festive Occasions Bridget Amies 75 Vegetarian Savouries Ivan Baker Vegetarianism for Beginners Maud Baines 100 Meatless Recipes Hotel Menus & Recipes for Seven Days Ivan Baker Vegetarian Recipes Without Dairy Produce Margaret Rawls Of Cottage & Cream Cheses Florence Daniel Salads for All Seasons London Health Centre Meatless Meals for The Times
Free Leaflets
Savoury Egg Dishes Avis Level Spring Menus & Meals Avis Lever Quickly Made Savouries Beatrice James DIET
10/6 Health, Diet & Commonsense C. Scott 208]
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Food Values At a Glance V. G Plimmer
Sensible Food For All Edgar Saxon
"Eat Nature's Food and Live Long Dr J. Oldfield
Dear Housewives Doris Grant
Your Daily Bread Doris Grant
Your Diet in Health & Disease H. Benjamin How to Eat for Health Stanley Lief
Health in the Home Essays
Simple and Attractive Food Reform Edgar Saxon
Fruit Dishes & Raw Vegetables Dr. M. Bircher Benner Honest Bread B. T Fraser & C L Thomson Fruit and Vegetable Juices Bridget Amies Commonsense Vegetarianism H. Benjamin Vital Vegetables Leslie Powell What to Eat for Health (Various) Food Values Chart Bridget Amies Crude Black Molasses Cyril Scott Culinary & Medicinal Herbs H M.S.O
Raw Food in Health & Disease Dr. R. Bircher
do
A Simple Guide to Healthy Food London Health Centre Bread The Whole-Wheat Way to Health The Biological Value of Protems H H Jones Vitamins and Vegetarianism Dr. F Wokes Rational Diet A. E Druitt
Free Leaflet
How to Be a Vegetarian
Health and Disease, Naturopathy, etc. Everybody's Guide to Nature Cure H. Benjamin Natural Therapy Dr E K Ledermann Herbal Remedies Mary Thorne Quelch Magic, Myth and Medicine Harry Clements A Apple A Day H M. Irwin
Better Sight Without Glasses H. Benjamin
8/6
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Attacking and Arresting Arthritis F A. Robinson Health in the Home Essays The Heart J. C. Thomson Cause and Cure of Disease R. Park Yunnie Health From British Wild Herbs Home Cures for Common Ailments Dugald Simple Nature Cure Treatment of Gastric-Duodenal
Ulcerations Russell Sneddon Attack Your Rheumatism Russell Sneddon Home Treatment of Asthma Russell Sneddon The Water Cure at Home Kenneth Trueman Crude Black Molasses Cyril Scott The Bach Remedies Repertory F. J. Wheeler Hydrotherapy A. C Barthels Digestive Troubles G Dewar Appendicitis J. C. Thomson Constipation Dr. Josiah Oldfield Constipation Edgar Saxon Nature Cure in A Nutshell Tom W. Moule Diabetes : Its Cause and Treatment Dr. A. Gold The Raw Food Treatment of Cancer & Other Diseases
Dr. K Nolfi Diet As A Factor in Cancer Causation Dr. M. Beddow Bayly 6d. Diet and High Blood Pressure Dr. B P Allinson
6d. The Conquest of Rheumatism Dr B. P Allinson The Cause and Cure of Catarrh Dr. B. P Allinson
3d. Diet in Relation to Health and Disease Dr. M. Beddow Bayly 3d.
Free Leaflet
The Problen of Pernicious Anaemia Dr. M. Beddow Bayly.
Maternity and Children's Diet Having A Baby Easily Margaret Brady
9/6 Children's Health and Happiness Margaret Brady
8/6 [ 90€
3d.
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Your Child and Diet Dr C. V. Pink & H F. Rathbone Aids to a Vegan Diet for Children Kathleen Mayo Vegetarianism in the Nursery Dr. C V. Pink Good Food for Growing Children London Health Centre Diet in Pregnancy Dr. C. V. Pink
Free Pamphlet
Mother, Child and Diet Dr. C V. Pink
THE LAND Gardening Without Digging A. Guest Food and Famine H H Jones The Manuring of Soils On No-Animal Lines H Valentine
Davis A Vegetarian Looks at the World Peter Freeman Can Britain Feed Herself on Home-Produced Foods
H, H. Jones
GENERAL Food for the Golden Age Frank Wilson The Recovery of Culture Dr H B Stevens The Golden Feast Roy Walker Sait and his Circle S Winsten Design for Happiness John O'Connell Recollections and Essays Leo Tolstoy These We Have Not Loved Rev V A Holmes-Gore Commonsense Vegetarianism Harry Benjamin The Truth About Vaccination & Immunization L. Loat. On Behalf of the Creatures J. Todd Ferrier Systems of Feeding Alfred H. Haffenden On the Vegetable System of Diet P B. Shelley A Vindication of Natural Diet.P B Shelley Bread and Peace Roy Walker Ethics of Diet Howard Williams
18/
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________________ Vegetarian Handbook (a Handboom of facilities for Vegetarians including lists of Guest Houses, Health, Food Stores, etc) 11Vegan Trade List 1954. (a list of Commercial products of non-animal origin) Song of Supper Dr. P. A. Scholes Vegetarianism and Medicine, Science, Poetry, Sport, Literature, Economics, Temperance and Religious Thought (a book of quotations) Was The Master A Vegetarian Rev. V. A. Holmes-Gore The Bible and Vegetarianism Geoffrey L. Rudd The Advantages of Vegetarian Diet Gen. Bramwell Booth 2d. Free Leaflets Why Not Be A Vegetarian? Vegetarians and Vaccination Dr. Douglas Latto Vegetarianism and the Growing Boy W. A. Sibly Vegetarian Diet for Dogs and Cats J. de Bairacli Levy My Botanic Book (a booklet for children) Periodicals Vegetarian News London Vegetarian Society (quarterly) Annual sub. i e. postage The Vegetarian The Vegetarian Society, Manchester (bi-monthly) World Forum Geoffrey L. Rudd, Ltd. (quarterly) The Vegan The Vegan Society (quarterly) The Farmer F. Fewman Turner (quarterly) Postage To all orders please add postage as follows : For books up to 2- in price >> >> from 2/1d. to 5/" , 5/1d. to 7/6d. 6. , 7/7d. to 10/>> 10/1d. to 15- 8d. fus]
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जैन कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड नई दिल्ली
रायसाहब ला० जोतिप्रसावजी जैन
माज से लगभग २५ वर्ष पूर्व जब इस बैंक की स्थापना हुई उस समय जनता की आर्थिक हालत बहुत कमजोर थी। देश मे चीजो के भाव एक दम गिर गये थे और इस डिफ्लेशन ने समाज के सभी वर्गों को भारी कठिनाई में डाल दिया था। क्या किसान, क्या मजदूर, क्या व्यापारी पर क्या कर्मचारी-सभी आर्थिक सकट मे थे । पास-पास के गांवो में लोग रोजगार
और नौकरी की खोज में दिल्ली पा रहे थे। उस समय हमारे भाइयो को व्यापार के लिए धन की आवश्यकता थी। लोगो को कम ब्याज पर रुपया मिलना बहुत ही कठिन काम था । इन कठिन परिस्थितियो में इस बैंक की स्थापना करने का श्रेय स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी को है।
दिनांक २० सितम्बर, १९३६ को जैन भाइयो की एक साधारण सभा में स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी की योजना को स्वीकार किया गया और जैन को-ओपरेटिव बैंक लि. नई दिल्ली के नाम से इस सहकारी संस्था की स्थापना हुई। यह खुशी की बात है कि लालाजी ने जिस पौध को लगाया था वह मब मुन्दर वृक्ष बन चुका है जिससे हम सभी लाभ उठा रहे है। अतः हम अपने संस्थापक प्रधान को उनके इस महान सेवा-कार्य के लिए अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करते है।
पहले दिन इस वैक के २१ सदस्य बने जिनके हिस्सो की पूजी ५५६ रुपये पी। सहकारी विभाग की ओर से बैंक का रजिस्ट्रेशन १६-२-१९४० को स्वीकृत हुआ और लगभग दो साल की कोशिशो के बाद भी इसकी सदस्य संख्या ३६ तक ही पहुंची। इसके आठ वर्ष के पश्चात् भी वैक की सदस्य सख्या १०१ से धागे न बढ़ सकी।
इस आन्दोलन तथा संस्था के प्रति जन समाज मे एक नया विश्वास पैदा होने के कारण फिक्सड डिपोजिट की रकम मे अपूर्व वृद्धि हुई जब कि ३० जून, १९५६ तक फिक्सड डिपोजिट की जो रकम केवल २॥ हजार रुपये तक थी, वह वढते-वढते अब एक लाख २० हजार रुपये तक पहुंच चुकी है।
वैक इस समय यद्यपि शहर के बीच मै है किन्तु दिल्ली की आवादियों दूर-दूर तक फैली होने के कारण सदस्यो को माने जाने की बड़ी कठिनाई होती है। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रश्न भी होते है जिन्हे स्थानीय व्यक्ति भली प्रकार हल कर सकते है। इसलिए हम इस सुझाव पर भी विचार कर रहे है कि नगर के विभिन्न क्षेत्रो मे बैंक की शाखाएं और क्षेत्रीय समितियों बनाई जाएँ जिनसे निकट सम्पर्क बना रहे और आने-जाने की वर्तमान असुविधा भी दूर हो जाय ।
इस बैंक द्वारा जनता का विशेष लाभ हो रहा है। मैं इसके संस्थापक के प्रति अत्यन्त मनुग्रहीत हूँ।
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आध्यात्म और विज्ञान
श्री तनसुखराय जैन, दिल्ली प्राध्यात्म प्रवाह .... इस बीसवी शताब्दी के महान क्रान्तिकारी युग मे मानव समाज सुख-शान्ति-समृद्धि और मानन्द के स्थान पर विनाश, भय, स्वार्थ और ईर्ष्या के भयानक जलते हुए बारूद के विनाशकारी अग्निरूप पर्वत पर बैठा है। न मालूम किस समय अग्नि की जलती हुई चिनगारी उस बारूद के ढेर पर लग जाए और विनाश रूपी राक्षस का मुंह खुल जाए।
समस्त मानव जाति की सास्कृतिक धरोहर जो युगो से बड़े सभाल और बलिदानों के बाद अब तक सुरक्षित रह सकी है वह किसी भी समय थोडे से कुरुचिमय प्रयल से विनाश के अग्निकुण्ड में समाप्त हो सकती है।
__माज के विज्ञान ने मानव-जाति के हाथो मे विनाश की ऐसी शक्ति भस्मासुर के समान दे रक्खी है जो उसका विनाश करके शान्त हो सकती है। ऐसी भयानक परिस्थिति में मनुष्य को विवेक और आध्यात्मिक शक्ति के बल पर ही अपनी रक्षा करनी चाहिए । विज्ञान की मानव जाति को बड़ी आवश्यकता है । उसी प्रकार आध्यात्मिक शक्ति की। दोनो के मेल से मनुष्य सच्ची सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सकता है । आध्यात्मिक शक्ति का उद्देश्य मनुष्य मे सद् प्रवृत्तियो को जगाना है, प्राध्यात्मिक गुणो का विकास करना है, उत्साह, प्रात्मविश्वास धैर्य, कर्तव्य-परायणता चरित्र-निर्माण और लोकसेवा की भावना उत्पन्न करना है। अन्याय के विरोध में शक्तिशाली मनोबल की आवश्यकता है । आत्मविश्वास जगाना है और मस्तिष्क में इस प्रकार के भाव जगाना है कि जो कुछ शक्ति हमे प्राप्त हुई है उसका सदुपयोग हो, दुरुपयोग न हो । सदुपयोग से विनाश से बच सकते है, सुख-समृद्धि की ओर बढ़ सकते है। एक-दूसरे के कार्यों में सहायक हो सकते है। बिना आधारक के विज्ञान अपने आविष्कृत अस्त्र-शस्त्रो से समस्त मानव जाति को ध्वस करने के लिए समर्थ है । ज्योही मस्तिष्क में थोड़ी-सी प्रतिहिंसा की भावना उत्पन्न हुई त्योही मानव महास्वार्थी बनकर विध्वस करने के लिए तत्पर हो गया। इसलिए आवश्यक है कि वैज्ञानिक
आविष्कारो का उपयोग सही ढग से हो । विध्वसकारी अस्त्र-शस्त्रो पर नियत्रण हो । विज्ञान का वास्तविक लाभ उठाया जाए। उसका उद्देश्य जनहित हो । यह कार्य अध्यात्म शक्ति के बल पर ही होगा । इसलिए विज्ञान और अध्यात्म का मेल हो । यह बात प्राचार्य विनोबा भावे जैसे मुनि भी पुकार-पुकार कर कह रहे है। और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष माननीय कोठारीजी से वैज्ञानिक अपने लेखो और भाषणो के द्वारा जन-साधारण को समझा रहे है । सामाजिक बुराइयो का अन्त अध्यात्म शक्ति से होगा। विकास और उत्थान का मार्ग विज्ञान से ही होगा | इसलिए लाला तनसुखरायजी ने एक आध्या- त्मिक समाज कायम करने की रूपरेखा बनाई-और उसका प्रचार किया परन्तु योग्य प्रचारको और कार्यकर्तामो के अभाव मे इस समाज की स्थापना से जुनून साधारण को लाभ नहीं होगा। उनके विचार पठनीय और मननीय है।
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यदि सच्चे अर्थो मे प्राध्यात्मिक जागरण हो और अध्यात्म शक्ति द्वारा मानव के सद्भाव और विवेक को एक सूत्र में पिरो दिया जाए तो हम निश्चय ही वर्तमान समाज से कही अधिक श्रेष्ठ और उत्तम समाज की स्थापना कर सकते हैं।
__भौतिक विज्ञान के असीम उत्कर्प और यान्त्रिक एव औद्योगिक सुधारो के प्रचण्ड विस्तार के बल पर पाश्चात्य संस्कृति हमे इस विनाश काल में भी यही भुलावा दे रही है कि मानव जाति पूर्ण समृद्धि के युग मे खडी है । इसमे सदेह नहीं है कि यान्त्रिक संस्कृति ने जिन शक्तियो को जन्म दिया है वे दोनो तरह की है। उत्कर्ष करने वाली और विध्वसक। यह सस्कृति जलती हुई मशाल अथवा धधकती अग्नि के समान है-मशाल मार्ग भी वर्शाती है और घरो मे आग भी लगाती है-सच तो यह है मशाल अथवा अग्नि का उपयोग करने वाले मानव पर यह दोनो कार्य निर्भर है । वैज्ञानिक सस्कृतिक का भी यही हाल है । मनुष्य की नैतिक धुद्धि तथा ज्ञान के नष्ट और भ्रष्ट होने से ही समूचे विश्व के समूल नष्ट होने की आशका पैदा हुई है । मानव की आत्मा मे दोष-पूर्ण प्रवृत्तियो की वजह से आज मानव-मानव के सम्बन्ध बिगड़े हुए है क्या सामाजिक सम्बन्ध, क्या दैनिक जीवन के सम्बन्ध, क्या राष्ट्रो के बीच के सम्बन्ध-सभी दोषपूर्ण बने है । यह नितान्त आवश्यक है कि मानव अपनी आत्मा को शुद्ध करके और अपने में परिवर्तन करके सामाजिक, दैनिक तथा राष्ट्रीय सम्बन्धो में भी सुधार करे, क्योकि विश्व के सब प्रकार के सम्बन्धो का जन्म आत्मा से ही होता है-व्यक्ति ही उनका कारण है। कुछ व्यक्ति ही दल, वर्ग-सगठन, या पक्ष-सगठन करके राजनैतिक सत्ता हस्तगत करते है, समाज पर नियंत्रण रखते है और सत्ता के लिए स्पर्धा की राजनीति को जन्म देते हुए वास्तविक जन-कल्याण के मार्ग में बाधा डालते है-अतएव आध्यात्मिक शक्तियो का आह्वान करने वाली सत्प्रवृत्तियाँ ही भविष्य के प्रलयकारी सघर्ष से मनुष्य को मुक्त करा सकती हैं।
इसी अध्यात्म धारा को प्रवाहित करने के लिए अध्यात्म समाज की स्थापना हुई है। इस मच से आध्यात्मिक विचारो का प्रचार करने मे हम सबके सहयोग की अपेक्षा करते है। अध्यात्म समाज
(३) उसकी सद्भाव और विवेक की उच्चतम भावना का विकास किया जाए, तो कोई कारण नहीं है हम वर्तमान समाज की अपेक्षा एक अच्छे और उन्ध समाज की रचना न कर सकें।
(२) यदि सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय जागरण तो मनुष्य मे अध्यात्म भाव जगाकर।
मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ। ज्ञानदर्शन वाला हूँ। परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है । मैं सप्त प्रकार के भय से निर्मुक्त हूँ। सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय और निशक होता है । शुद्ध आत्मज्ञान का अभिलाषी पुरुष बडा मात्म-विश्वासी, सरल-हृदय, कर्तव्य-परायण और अपने पर का कल्याण करने वाला होता है । उसे भौतिक ऐश्वर्य मोह मे नही डाल सक्ते । सोने-चादी के टुकड़े उसे रचमात्र में प्रलोभन नहीं दे सकते । उसके सामने शुद्ध प्रारमतत्व की प्राप्ति का लक्ष्य होता है। परिकल्पना
१ चिन्तन और आस्था का युग । २ आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत निष्ठावान मानव । ३. करुणा, त्याग तथा कर्तव्यपरायणता की भावना से युक्त मानव ।
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४. सेवा और परस्पर सहयोग का भाव ।
५. विकृति की भावनाओं के स्थान पर सुकृति के भावो की विषय । नव-निर्माण के चार पथ
जागरण ।
आव्यात्मिक शक्ति के सहारे क्या हो सकता है ?
१. आध्यात्मिक मान्यताओं की शक्ति समान की भौतिक प्रवृत्तियों पर अधिकार पाकर मानव समाज को मुन्नी और समृद्ध बना सकती हैं ।
२. अनेक परिवर्तनो के बावजूद प्राध्यात्मिक भावनाएं युगों तक अपनी प्रभुता कायम रख कर मनुष्य को विवेकशील और निष्ठावान बना सकती हैं ।
३. सादा जीवन और नैतिकता मनुष्य को समस्त क्षेत्र स्वार्थों से ऊपर उठाकर राष्ट्र और समान के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बना सकता है।
४. करुणा, सहिष्णुता तथा समस्त जीवों पर दयाभाव मनुष्य को दंग और समाज के लिए रचनात्मक कार्यों की ओर प्रवृत्त कर सकता है।
५. कर्त्तव्यपरायण, निष्ठावान, विवेकशील और आध्यात्मिक भावनाओं से युक्त मानव से ही अहिंसात्मक और सहयोगी समाज की स्थापना हो सकती है। क्या नही हो सकता ?
१. परम्परा के सम्पूर्ण विनाश से नवनिर्माण नही हो सकता ।
२. क्षुद्र ग्रह और स्वार्थी के संघ में मुखी और समृद्ध समाज की स्थापना नहीं हो
सकती ।
१. दैनिक जीवन में अपने-अपने अहंकार की संतुष्टि के लिए स्वार्थ के संघर्ष का अन्त। २. सात्विक प्रवृत्तियों के प्रस्फुरण के लिए सहयोगमूलक अयं व्यवस्था की स्थापना । ३. सत्ता के स्थान पर सेवा का मार्ग ।
४. शुद्ध और सात्विक जीवन और विचारों द्वारा परस्पर सहयोग तथा सेवाभाव का
३. भौतिकवाद मनुष्य को रचनात्मक कार्य की ओर प्रवृत्त नहीं कर सकता ।
८. विज्ञान की टी हुई क्रूरता मनुष्य को परस्पर सेवा तथा सहयोग के मार्ग पर नहीं ले जा सकती ।
५. करुणा और सहिष्णुता के अभाव में एक मुखी और समृद्ध समाज की स्थापना नहीं हो सकती ।
क्या हो सकता है ?
१. वाघ्यात्मिक अथवा वैचारिक स्थिर मूल्यों की शक्ति समाज को भौतिक प्रवृति पर अधिकार पाकर मानव समाज को सुखी और समृद्ध बना सकती है ।
२. अनेक परिवर्तनों के बावजूद आध्यात्मिक मान्यताएं युगों तक अपनी प्रभुता कायम रख कर मनुष्य की विवेकशील और निष्ठावान बना सकती हैं |
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शिक्षा प्रेय और श्रेय का मार्ग है -. :- -------
उसकी वास्तविक उपलब्धि विनय, श्रम और साधना से प्राप्त होती है। प्राचीन भारत में प्राचार्य शिष्यो के लिए दीक्षात के समय अमूल्य लाभकारी उपदेश देते थे। 'तैत्तिरीयोपनिषद' के अनुशासन मे इसी श्रेयधुद्धि निषेधविहीन विधायक के सकल्प का उदात्त स्वर है। इस उपदेश के पढने से छात्रो में पूज्यबुद्धि और शिवसकल्प जागे, राष्ट्र, मानवता उनके पुरुषार्थ से लाभान्वित हो और वे स्वय जीवन की सर्वोच्च सार्थकता उपार्जित करें। दीक्षांत के समय शिष्यों को प्राचार्य का उपदेश
सत्यं वद : धर्म चर । स्वाध्यायान्मा प्रमद । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्याय-प्रवचनाभ्या न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथि देवो भव । राष्ट्रदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माक सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि । नो इतराणि । श्रद्धया देयम् । अश्रद्धया देयम् । श्रिया देयम् । हिया देयम् । भिया देयम् । सविदा देयम् । अथ। यदि ते कर्म विचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा । वा स्यात् । ये तत्र ब्राह्मणा समशिन. । युक्ता आयुक्ता । अलूक्षा धर्मकामा स्यु । यथा ते तत्र वर्तेरन् तथा तत्र वर्तथा.। एष आदेश । एप उपदेश. । एपा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमुचंतदुपास्यम् । भो. स्नातका. एवम् एतत् मनसि । दृढ़े निधाय युप्मामि सदा सच्छीले।
समुदाचारे च वर्तितव्यम् । सत्य बोलो । धर्म का आचरण करो। स्वाध्याय मे प्रमाद मत करो। सत्य की उपेक्षा मत करो। धर्म की उपेक्षा मत करो। कल्याण और कुशलता की उपेक्षा मत करो। समृद्धि की
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उपेक्षा मत करो । ज्ञान को ग्रहण करने और प्रन्यो को ज्ञान का दान करने मे प्रमाद मत करो।
___ माता को देवता समझो । पिता को देवता समझो। प्राचार्य को देवता समझो । प्रतिथि की देवंती समझो । राष्ट्र को देवता समझो।
जो अच्छे कर्म है उन्हीं का सेवन करो, अन्यो का नहीं। हमारे जो आचरण तुम्हे अनिय लंगते हो उन्ही का अनुकरण करो, अन्यो का नही।
श्रद्धापूर्वक दान दो। प्रश्रद्धा से दान मत दो । सम्पत्ति के अनुसार दान दो । शालीनता और लज्जापूर्वक दान दो । भय से दान दो । सहानुभूति से दान दो।
और यदि तुम्हे कभी कर्म के सम्बन्ध में सन्देह हो, या आचरण के सम्बन्ध में सन्देह हो, तो जो विचारशील, न्यायपरायण, योग्य, निष्ठावान, सहृदय, धर्मप्रेमी ब्राह्मण हो, विशिष्ट प्रसंग में वे जैसा आचरण करे उस प्रसंग में तुम भी वैसा ही आचरण करो।
यही आदेश है । यही उपदेश है । यही वैद और उपनिषद है । यही सीख है।
इस प्रकार साधना करो। इसी प्रकार साधना करो। औ स्नातको, इसे अपने मन में दढ़तापूर्वक धारणा करो और सदैव सदाचार और सद्व्यवहार का आचरण करो। राणाप्रताप और भामाशाह
स्व० फलचन्द पुष्पेन्दु भारतभूमि में त्याग भौर नि.स्वार्थ भावना से कार्य करने को विशेष महत्व दिया है इसलिए हमारे देश में दानवीर और लोकसेवी पुरुषो का विशेष सम्मान किया जाता है।
महाराणा प्रताप और देशभक्त भामाशाह का युधको के हृदय में विशेष मान है क्योकि दोनो ने मातृभूमि के रक्षा के लिए अगणित कठिनाइयाँ उठायी। उनका आदर्श सदैव भारतीयो को मार्गदर्शन करता रहेगा। उदीयमान युवक पुष्पेन्दु की यह कविता प्रत्यत रोचक और नवयुधको के लिए मार्गदर्शक है । खेद है कि यह कला असमय मे ही कुम्हला गई। उनकी कविता उनकी स्मृति सदैव याद दिलाती रहेगी।
कहता हूँ कहानी कि एक देशभक्त की, राणा प्रतापसिंह व अकवर के वक्त की। जिसने रखी थी लान भारतीय रक्त की, जिसने अशक्त-सी स्वतत्रता सशक्त की।
चीरो में चीर भामाशाह दानवीर था,
राणा प्रतापसिंह का बूढ़ा वजीर था । ताजिंदगी जिसने न मनाई थी दिवाली, दुश्मन से खेलता रहा जो खून की होली। ऐसे प्रतापसिंह की दुखपूर्ण जिन्दगी, झाँकी गई थी पाग में या मौत मे पगी।
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पर मातृभूमि के लिए, मेवाड़ के लिए,
वर्वाद था आरावली पहाड के लिए । राणा प्रताप के तो मुट्ठी भर जवान थे, दुश्मन तथा गद्दार जमी आसमान थे। दुर्भाग्य से सेना की रसद भी समाप्त थी, बहुँ भोर निराशा-ही-निराशा व्याप्त थी।
लगता था मातृभूमि पर हो जायगा कब्जा,
सबने कहा प्रताप जा दुश्मन को सर झुका । संकट के समय जैन ऐन वक्त पं आया, पाकर प्रतापसिंह को निज शीश झुकाया। सोना व रजत-रत्न का वह ढेर लगाया, जिससे प्रताप ने कि शत्रु भार भगाया ।
वीरो मे वीर भामाशाह दानवीर या,
राणा प्रतापसिंह का बूढा वजीर पा॥ तादादे-जायदाद का सुनियेगा हाल तक, मलती कुमुक उसी से ठीक बारह साल तक । होती रसद पच्चीस हजार फौज के लिए, जाटों व गूजरो हितार्थ-मौज के लिए ॥
वीरो में वीर भामाशाह दानवीर था,
राणा प्रतापसिंह का बूढा वजीर था ।। दुहरा रहा इतिहास मान हू-ब-हू गाथा, मुक-झुक रहा राष्ट्रीयता के वास्ते माया । सीमा का हर जवान अब राणा प्रताप है, बेटा हरएक हिन्द का दुश्मन का बाप है ।।
दंगे लहू हिमालया पहाड के लिए,
उजड़ें स्थय कि चीन के उनाड़ के लिए ।। अंगार भी वरसाएगे, बरसाएंगे सोना, पत्थर पै पटक दें चलो चीनी का खिलौना। बारूद बने मोढ़नी बारूद बिछौना, सोकर जगा है देवा का प्रत्येक ही कोना ।
सोना वरस रहा है गरीबोअमीर से, निश्चित बचेगा राष्ट्र सिर्फ दानवीर से ॥
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भारतीय एकत्व की भावना
व्योहार राजेन्द्र सिंह सेठियाकुज, जबलपुर
भारतीय एकत्व की भावना का आधार एक ब्रह्म की भावना है जोकि सब जगत में व्याप्त है । इसी के प्रश रूप सारे जगत् के प्राणी है । वह सारा जगत् उसी एक ब्रह्म का विस्तृत रूप है । भिन्न-भिन्न देव उसी एक तत्व के विभिन्न रूप हैं। ऋग्वेद मे इस भावना के समर्थन मे अनेक मंत्र मिलते है।
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एक एवाग्नि बहुधा समिद्ध एक सूर्यो विश्व अनु प्रभूव । एकैवोषा सर्वम् इद विभात्येकंवा इद वि बभूव सर्वम् ॥ ( दाशदार)
इसी का समर्थन हमे उपनिषदों में भी मिलता है जिनमें कहा गया है कि एक ही देव अनेक वर्ण होकर बहुत शक्तियो के योग से अनेक रूप हो जाता है।
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ऍको वर्णो बहुधा शक्ति योगात् । वर्णाननेकान्त् निहितार्थी दघाति ॥
आगे चलकर इतिहास और पुराणो ने इसी भावना को लेकर शिव, विष्णु प्रादि देवताओ की एकता का प्रतिपादन किया तथा प्राणी मात्र की एकता की स्थापना की । कर्मों के विभाग के आधार पर वर्णों का विभाजन हुआ किन्तु उनकी एकता पर ही समाज प्राधारित रहा । महाभारत मे एक स्थान पर कहा गया है कि सभी वर्ण ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण ही है ।
सर्वे वर्णब्राह्मणा ब्रह्मजाश्च ।
भागवत धर्म के उदय होने पर भी उसी को और धागे बढाया गया । ईश्वर के एक नाम के आधार पर उसके सभी उपासको और जातियो की एकता का प्रतिपादन किया किरातहूपान्धपुलिन्द वुल्कसा आभीरुकथा यवना चेत्वे च पापा मदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति तस्मै भविषक्तिम ।
खसादय ।
पुराणो मे समग्र देश की एकता की भावना भी विकसित हुई। वैसे तो उसका मूल्य हमें ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त मे मिलता है जिसमे कहा गया है कि यह भूमि हमारी माता है और हम उसके पुत्र है
--
माता भूमि पुत्रो ग्रह प्रथिव्या. ।
किन्तु भारत देश का स्पष्ट नाम पुराणो मे ही मिलता है। की प्रशसा करते हुए कहा गया है कि हे भारत भूमि तुम धन्य हो - इस
गाते है
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विष्णुपुराण मे इस देश प्रकार देवता भी गीत
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गायन्ति देवा किल गीतकानि धन्याऽस्तुते भारत भूमिभागे।
इसी प्रकार महाभारत में भी भारत भूमि का उल्लेख आया है। उत्तर में हिमालय और पूर्व-पश्चिम मे समुद्रो से घिरी हुई भारत भूमि की कल्पना बहुत पहले से एकता की भावना की पुष्टि करती आ रही है। पुराणो में जिन सम्राटो का वर्णन है वे हिमालय से लेकर सिन्धु तट तक दिग्विजय करके समस्त भारत पर अपना राज्य स्थापित करते थे। कालिदास ने भी ऐसे सम्राटो का वर्णन किया है जोकि समुद्र तक पृथ्वी पर राज्य करते थे -
आ समुद्र क्षितीसता रघूणाम् रघुवश । - वैसे वेदो में भी राजसूय यज्ञ के अवसर पर यही कामना की जाती है कि हम हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के एकछत्र सम्राट् है । इस प्रकार समग्र देश की एक ही भावना की परम्परा बहुत प्राचीन काल से हमारे धर्म की अगभूत होकर चली आती है। हम भारत की किसी भी नदी में स्नान करें किन्तु भारत की सभी प्रमुख नदियो का नाम स्मरण कर उन सवका जल उसमे सम्मिलित किया जाता है और एक मन्त्र पढा जाता है -
गगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती ।
नर्मदेसिंधु कावेरी चले स्मिन् सन्निधिम कुरु ।। ___ इसी प्रकार देश के सप्त पर्वतो और सप्त महापुरियो का स्मरण किया जाता हैअयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काञ्ची, भवन्तिका। यह प्रथा भी हमारी राष्ट्रीय एकता को सिद्ध. करती है कि राज्याभिषेक के समय भारत की समो पवित्र नदियो का जल मगाफर उनसे राजा का अभिषेक किया जाता था। महाभारत और रामायण में उल्लेख है कि रामचन्द्रजी के तथा युधिष्ठिर के अभिषेक के लिये सभी पवित्र नदियो का जल मगाया गया था। उस समय समस्त भारत के राजामो को निमत्रित किया गया था
प्राच्येदीच्या प्रतीच्याश्च दाक्षिणत्माश्च भूमिपा । त्मेच्छाश्चायश्चिये चान्ये वन शैल निवासिन ।
(रामायण, अयोध्या० ३-२५) इसका उल्लेख रामचरितमानस में भी पाया है कि जब चित्रकूट मे रामचन्द्रजी ने राज्य स्वीकार नहीं किया तब भरतजी ने पूछा कि उस जल का क्या किया जावे
देव देव अभिषेक हित गुरु अनुसासनु पाइ।
आनेउ सब तीरथ सलिलु तेहि कह काह रजाइ । गुरु की आज्ञा से वह जल कूप मे रखा गयाभरत कूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।
मध्यकाल में भारत की एकता खंडित हो कर वह विभिन्न राज्यो मे विभक्त हो गया। उस समय आपसी मतभेद के कारण हमारे देश की एकता छिन्न-भिन्न हो गयी। उस समय भी एकता के उपासक हमारे कवियो ने अपने देश की एकता का वोय कराके उमे फिर से स्थापित
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किया । वीरगाथा -काल में भी पृथ्वीराज को उल्लास दिखाने वाले महाकवि चन्दरबरदाई, मध्यकाल
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में गोस्वामी तुलसीदास तथा अन्त मे महाकवि भूषण की देश की एकता की भावना सबसे अधिक मुखरित हुई है । चन्दरबरदाई ने अनेक स्थानो पर "पृथ्वीराज रासो" में हिन्दुस्तान का उल्लेब कर उसकी एकता जागृत की है।
"विनयपत्रिका" और "कवितावली" में तो स्पष्ट रूप से उन्होने भारत भूमि मे जन्म होने का अभिमान प्रगट किया है—
गो० तुलसीदासजी ने रामचरितमानस मे जन्मभूमि की महिमा का वर्णन किया है :जन्म भूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिशि सरयू वह पावनि ॥ अति प्रिय मोहिं यहा के वासी । मम धामदा पुरी सुखरासी ॥
यह भारत खड पुनीत सुरसरि थल भलो तेरी कुमति काचर कल्प बल्ली चहति है विष
( विनय पत्रिका )
भक्ति भारत भूमि भले कुलजन्म समाज शरीर भलो लहिके । आदि ( कवितावली )
सगति भली । कल फली ॥
इस प्रकार भूषण ने हिन्दू धर्म और हिन्दुस्तान का उल्लेख कर शिवाजी को उत्साह . दिलाया था । सत कवियो को देश की एकता का बोध तो उतना नही था जितना कि उसमे निवास करने वाले जातियो और धर्मों की एकता का बोध था । कबीरदास और नानक आदि कवियो ने ant की एकता के लिए बहुत बडा काम किया। गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है
हिन्दू तुरुक कहां ते आए दिल महि सोच विचार कवादे दादूदयाल ने एकता का प्रतिपादन करते हुए कहा है---
दूनो भाई नैन हैं दूनो भाई कान । दूनो भाई बैन हैं हिन्दू मुसलमान ॥
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कबीरदास ने तो एक ईश्वर की एकता के आधार पर सव वर्णों और जातियो की एकता स्थापित की -
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किनि एह राम चलाई । भिसक दोजख किति पाई ||
अग्रेजी राज्य की स्थापना से हमारे देश की पराधीनता पूर्ण हुई किन्तु देश एक राजछत्र के अन्तर्गत प्राया । विदेशी राज्य के साथ विदेशी राष्ट्रीयता भी हमारे देश में भाई और उससे प्रेरित होकर हमारे नेताओ ने विदेशी राज्य के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ किये । इनके साथ ही अपने देश की दुर्दशा पर कवियो का ध्यान आकर्षित हुआ । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सबसे पहले भारत की दुर्दशा पर आसू बहाये
एक देव एक मल मूतर एक चाप एक गूदा । एक ज्योति ते सब जग उपजा को बाह्मन को सूदा ||
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आवहु सब मिलकर रोबहु भारत भाई । हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
(भारत दुर्दशा) इस समय के अन्य कवियो ने भी राष्ट्रीय एकता की ज्योति जगाई । सर्वश्री बालमुकुन्द गुप्त तथा प्रतापनारायण मिश्र ने भी इस ज्योति के जागरण मै योगदान दिया। बाद में उसी परम्परा को श्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिह उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी तथा श्रीधर पाठक ने देशात्म बोध की कविताएं लिखकर देश का ध्यान उसकी एकता और अखडता के प्रति आकर्षित किया
नीलाम्बर परिधान हरित पट यह सुन्दर है । सूर्य चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है। नदियाँ प्रेम प्रवाह फूल तारे मडन हैं। बदी जन खग वृन्द शेषफन सिहासन है। करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस देश की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।। त्रिशूलजी की कविताओ ने भी राष्ट्रीयता की लहर वहा दी -
सुरसरि सलिलसुधा से सिंचित मलय समीर सजारिन । सुषमा सब सुरपुर की सजिल करते सुर गुणगान ।
जयति भारत जय हिन्दुस्तान ।। पुण्य पुज पावन पृथ्वी पर घीर वीरवर धर्म धुरन्धर । सत्य अहिंसा दया सरोवर मुक्ति मुक्ति की खान ।
जयति भारत जय हिन्दुस्तान ॥ वर्तमान युग में राष्ट्रीयता की भावना सबसे पहले बगाल मे उदित हुई क्योकि वही विदेशी राज्य का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। श्री बकिमचन्द्र के "प्रानन्द मठ" उपन्यास में ही हमारे राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम् का उद्घोष हुआ था। उसमे उन्होने कहा था -
द्वित्रिंश कोटि कठ कल कल निनाद कराले। ज्यो-ज्यो राष्ट्रीयता की भावना बढी इसका रूप हो गया -
त्रिश कोटि कठ कल कल निनाद कराले । श्री विजेन्द्रलाल राय ने अपने नाटको में राष्ट्रीयता से भरे गीतो को पिरोया । उन्होंने एक गीत में गाया है :
वग आभार जननि आभार धात्री आभार देश । भागे चल कर वह गीत इस रूप में बदल गया .
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भारत आभार जननि आभार धात्री आभार देश। उनके गीतो मे सम्पूर्ण भारत की एकता की भावना मुखरित हुई -
जे दिन सुनील जलधि होई ते उठिले जननी भारतवर्ष ।
उठिल विश्वेसे कि कलरव से कि मा भक्ति से कि मा हर्प।
श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कवितामो मे राष्ट्रीय एकता की भावना और अधिक स्पष्ट और गहन हो उठी है :
मातृ मन्दिर पुण्य अगन कर महोज्ज्वल आज है।
जय नरोत्तम पुरुष सत्य जय तपरूपी राज है। उन्होने उसी गीत मे समग्र भारतवासियो को आह्वान किया :
ऐश दुर्जय गक्ति सम्पद मुक्त बंध समाज है।
ऐग जानी ऐश की नाग भारत लाज है ॥ आगे चलकर भारत के वीर धर्म को भी जाग्रत किया .
ऐश तेजः सूर्य उज्ज्वल कीति अन्तर माझ है ।
वीर धर्म पुण्य कर्मे विश्व हृदये राज है। एक दूसरे गीत में उन्होंने भारत की मेरी सारे ससार में बजाने का आह्वान किया है :
देश देश नन्दित करि मन्द्रित तव भेरी।
आसिल सव वीर वृन्द आसन तव घेरी ॥ भारत की सव जातियों और प्रान्तो की एकता की भावना हमारे राष्ट्र-गीतो मे "जनमन" मे जितनी प्रबल है उतनी कही नही ।
जुग जुग तव आह्वान प्रचरित सुन उदार तव वाणी। हिन्दू वौद्ध सिक्ख जैन पारसिक मुसलमान क्रिस्टानो।
पूरव पश्चिम आसे । तव सिहासन पासे ।
उन्होने 'मानव तीर्थ' नामक कविता में माता के अभिषेक के लिए सभी देशवासियो को एकत्व होने का आह्वान किया गया है .
आओ ब्राह्मण श्रुतिकर निजमान गहो सभी का हाथ । आयो पार्तत हटायो सवही तव अपमान अश्राद्य ।। मम अभिपेके करो तुम त्वारा,
मंगल घट यह धरा है भरा। सकल स्पर्ग से पुनीत करके तीर्थ सुनीरे,
भारत मानव सागर तट के निर्मल तीरे-तीरे। २.]
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हे मम , वित्त पुण्य सुतीर्थ मे जागो धीरे धीरे । भारत मानव सागर तट के निर्मल तीरे तीरे॥ अहो आर्य जन हे अनार्य गण हिन्दू हे मुसलमान ।
आओ आओ हे अग्रेजों भाओ हे क्रिस्तान ॥
इस प्रकार भारत की राष्ट्रीय एकता की वाणी युग-युग से मुखरित होती चली मा रही है, आज भी मुखारित हो रही है और युगान्त तक मुखरित होती रहेगी।
मेवाड़ोद्धारक भामाशाह
श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय
डालमियानगर, बिहार "स्वाधीनता की लीलास्थली वीरप्रसवा मेवाड़-भूमि के इतिहास में भामाशाह का नाम स्वर्णाक्षरो में अकित है। जब वीरकेशरी राणा प्रताप निराश होकर सिन्ध की ओर जाने लगे तो भामाशाह ने अगणित सम्पत्ति राणा के चरणो मे लाकर अर्पित कर देश-भक्ति का अनुपम । उदाहरण प्रस्तुत किया। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के कारण मेवाड़ भूमि का उद्धार हुमा, इसलिए आज भी भामाशाह मेवाड़ोद्धारक के नाम से प्रसिद्ध है । लेखनी के धनी श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय ने बहुत ही सुन्दर ढग से भामाशाह का चरित्र प्रस्तुत किया है । भामाशाह का त्यागपूर्ण आदर्श देश के सकट के समय मे हम सबके लिए अनुकरणीय है।"
स्वाधीनता की लीलास्थली वीर-प्रसवा मेवाड़ भूमि के इतिहास मै भामाशाह का नाम स्वरक्षिसे-मे मकित है । हल्दीघाटी का युद्ध कैसा भयानक हुआ, यह पाठको ने मेवाड़ के इतिहास मे-पढा होगा। इसी युद्ध मे राणा प्रताप की ओर से वीर भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द भी लडा था । २१ हजार राजपूतो ने असत्य यवन-सेना के साथ युद्ध करके स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी, किन्तु दुर्भाग्य कि वे मेवाड को यवनो द्वारा पददलित,होने से न बचा सके । समस्त सेवाड़ पर यवनो का आतक छा गया। युद्ध-परित्याग करने पर राणाप्रताप मेवाड़ का पुनरुद्धार करने की प्रबल आकाक्षा को लिए हुए वीरान जगलो मे भटकते फिरते थे। उनके ऐशो- आराम में पलने योग्य बच्चे भोजन के लिए उनके चारो तरफ रोते रहते थे। उनके रहने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न था । अत्याचारी-मुगलो के आक्रमणो के कारण बना बनाया भोजन राणाजी को पाच वार -छोडना पड़ा था। इतने पर भी आन पर मर मिटने वाले समर केसरी प्रताप विच.लित.नही हुए। वह अपने पुत्रो और सम्वन्धियो को प्रसन्नवापूर्वक रणक्षेत्र में अपने साथ रहते हुए.देखकर यही कहा करते थे कि राजपूतो का जन्म ही इसीलिए होता है। परन्तु उस पर्वतजैसे स्थिर मनुष्य को भी मापत्तियो के तीव्र थपेड़ों ने विचलित कर दिया। एक समय पंगती अन्न के माटे की रोटियाँ बनाई गई ,और प्रत्येक के भाग में एक-एक रोटी-पाधी उस समय के लिए और आधी दूसरे समय के लिए-आई। राणा प्रताप राजनैतिक पेचीदा उलझनों को
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सुलझाने में व्यस्त थे, मातृभूमि की परतत्रता के दुख से दुखी होकर गर्म निश्वास छोड़ रहे थे कि इतने मे लड़की के हृदयभेदी चीत्कार ने उन्हे चौका दिया । बात यह हुई कि एक जगली बिल्ली लड़की की रक्खी हुई रोटी उठा ले गई जिससे मारे भूख के वह चिल्लाने लगी। ऐसी-ऐसी अनेक आपत्तियो से घिरे हुए, शत्रु के प्रवाह को रोकने में असमर्थ होने के कारण, वीर चूडामणि प्रताप मेवाड़ छोडने को जब उद्यत हुए तब भामाशाह राणाजी के स्वदेश निर्वासन के विचार को सुनकर रो उठा।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भामाशाह कुम्भलमेर की प्रजा को लेकर मालवे मे रामपुर की ओर चला गया था, वहा भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने मालवे पर चढाई करके २५ लाख रुपये तथा २० हजार प्रशफियों दण्डस्वरूप वसूल की। इस सकट-अवस्था में उस वीर ने देशभक्ति तथा स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर, कर्नल जैम्स टाड के कथनानुसार, राणा प्रताप को जो धन भेट किया था वह इतना था कि २५ हजार सैनिको का १२ वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के सम्बन्ध मे भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने लिखा है :
जा धन के हित नारि तनं पति, पूत तर्ज पितु शीलहि सोई। भाई सो भाई लगे रिपु से पुनि, मित्रता मित्र तजे दुख जोई। ता धन को बनियां है गिन्यो न, वियो बुख देश के भारत होई। स्वारय पार्य तुम्हारी ई है, तुमरे सम और न या जग कोई ॥
देशभक्त भामाशाह का यह कैसा अपूर्व स्वार्थत्याग है । जिस धन के लिए औरगजेब ने अपने पिता को कैद कर लिया, अपने भाई को निर्दयतापूर्वक मरवा डाला, जिस धन के लिए बनवीर ने अपने भतीजे-मेवाड़ के उत्तराधिकारी बालक उदयसिह-को मरवा डालने के अनेक प्रयत्न किये, जिस धन के लिए मारवाड के कई राजाओ ने अपने पिता और भाइयो का सहार किया, जिस धन के लिए लोगो ने मान बेचा, धर्म बेचा, कुल-गौरव बेचा साथ ही देश की स्वतत्रता बेची, वही धन भामाशाह ने देशोद्वार के लिए प्रताप को अर्पण कर दिया। भामाशाह का यह अनोखा त्याग धन-लोलुप मनुष्यो की बलात् पाँखे खोलकर उन्हे देश-भक्ति का पाठ पढ़ाता है।
__ भामाशाह का जन्म कावडया सज्ञक मोसवाल जैन कुल में हुमा था। इनके पिता का नाम भारमल था। महाराणा सागा ने भारमल को वि० स० १६१० ई०स० १५५३ में अलबर से बुलाकर रणथम्भौर का किलेदार नियत किया था। पीछे से जब हाड़ा सूरजमल बूंदवाला वहा का किलेदार नियत हुआ, उस समय भी बहुत-सा काम भारमल के ही हाथ में था। वह महाराणा उदयसिंह के प्रधान पद पर प्रतिष्ठित था। भारमल के स्वर्गवास होने पर राणा प्रताप ने भामाशाह को अपना मत्री नियत किया था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब भामाशाह मालवे की ओर चला गया था तब उसकी अनुपस्थिति मे रामा सहाणी महाराणा के प्रधान का कार्य करने लगा था। भामाशाह के पाने पर रामा ने प्रधान का कार्य-भार लेकर पुनः भामाशाह को सौप दिया। उसी समय किसी कवि का कहा गया प्राचीन पद्य इस प्रकार है -
भामौ परषानो करे, रामौ कोधो रद्द । ३२२ ]
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भामाशाह के दिए हुए रुपयो का सहारा पाकर राणा प्रताप ने फिर बिखरी हुई शक्ति को बटोर कर रण-भेरी वजादी जिसे सुनते ही शत्रुओ के हृदय दहल गए, कायरों के प्राणपखेरू उड गए, अकबर के होश-हवास जाते रहे। राणाजी और वीर भामाशाह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर जगह-जगह आक्रमण करते हुए यवनो द्वारा विजित मेवाड़ को पुनः अपने अधिकार मे करने लगे । ५० झाबरमल्लजी शर्मा सम्पादक दैनिक 'हिन्दू ससार' ने लिखा है :"इन पावो मे भी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराणा को खूब अवसर मिला और उससे बडे प्रसन्न हुए। महाराणा ने भामाशाह के भाई ताराचन्द को मालवे भेज दिया था, उसे शहवाजा ने जा घेरा । ताराचन्द उसके साथ वीरता से लडाई करता हुआ वसी के पास पहुंचा और वहा घायल होने के कारण वेहोश होकर गिर पड़ा । वसी का राव साईदास नेवड़ा घायल ताराचन्द को उठाकर अपने किले मे ले गया और वहां उसकी अच्छी परिचर्या की। इसी प्रकार महाराणा अपने प्रबल पराकान्त वीरो की सहायता से बरावर आक्रमण करते रहे और सवत् १६४३ तक उनका चित्तौड़ और माण्डलगढ़ को छोडकर समस्त मेवाड़ पर फिर से अधिकार हो गया । इस विजय में महाराणा की साहस प्रधान वीरता के साथ भामाशाह की उदार सहायता और राजपूत सैनिको का प्रात्म-वलिदान ही मुख्य कारण था । आज भामाशाह नहीं हैं किन्तु उनकी उदारता का बखान सर्वत्र वडे गौरव के साथ किया जाता है।"
प्राय साढे तीन सौ वर्ष होने को भाये, भामाशाह के वंशज आज भी भामाशाह के नाम पर सम्मान पा रहे है। मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वशज को पंचायत और अन्य विशेष उपलक्षो में सर्वप्रथम गौरव दिया जाता है । समय के उलट-फेर अथवा कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वशज आज मेवाड़ के दीवान-पद पर नहीं है और न धन का बल ही उनके पास रह गया है। इसलिये धन की पूजा के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता, धनशक्ति-सम्पन्न उनकी जाति-विरादरी के अन्य लोगो को अखरती है। किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भामाशाह के नाम का गौरव ही ढाल बनकर उनकी रक्षा कर रहा है । भामाशाह के वंशजो की परम्परागत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सवत् १९१२ में तत्सामयिक उदयपुराधीश महाराणा सरूपसिंह को एक आज्ञापत्र निकालना पडा था जिसकी नकल ज्यो की त्यो इस प्रकार है :
'श्री रामोजयति श्री गणेशजीप्रसादात् श्रीएकलिंगजी प्रसादात्
भाले का निशान (सही) स्वस्तिश्री उदयपुर सुमसुयाने महाराजाधिराज महाराणाजी श्री सरूपसिंघ जो आदेशात् कावडया जैचन्द कुनणे वीरचन्दक्स्य अप्र थारा वडा वासा भामो कावड़यो ई राजम्हे सामघ्रकासु काम चाकरी करी जी की मरजाद कुठसूइया है म्हाजना की जातम्हे बावनी त्या चौका को जीमण वा सोग पूजा होवे जीम्हे यह लथ पहेली तलक थारे होती हो सो अगला नगर सेठ वेणीदास करसो कर्यों पर वेदर्याफत तलक थारे नही करवा दोदो अवारू थारी सालसी दीखी सो नगे करीअर न्यात म्हे हक्सर मालम हुई सो अब तलाक माफक दसतुर के थे थारो कराड्या जाजो मागासु थारा हुकुम करदीययो है सो पेली तलक थारे होवेगा। प्रवानगी म्हेता सेरसीष संवत् १९१२ जेठसुद १५ वुधो।'
[३२३
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उनका अभिप्राय यही है कि- "भामाशाह के मुख्य वंशघर की यह प्रतिफा चली श्रांती रही, किं जब महाजनों में समस्त जाति समुदाय को भोजन आदि होता, तब सबसे प्रथम के तिलक किया जाता था, परन्तु पीछे से महाजनों ने उसके वहाँ वालों के तिलक करना बन्द करे दियां, तवं महाराणा स्वरूपसिह ने उनके कुल की अच्छी सेवा का स्मरंग कर इस विषय की जाँच कराई और आज्ञा दी कि महाजनों की जाति में बावनी ( सारी जाति का भोजन) च का भोजन व मिहपूजा में पहिले के अनुसार निलकं भामाशाह के मुख्य बंगंधर के ही किंग जायें । इम विषय का एक परवानी वि० म० १२१२ ज्येष्ठ मुदी १५ को जयचन्द कुनै वीरचन्द कांवडियों के नाम कर दिया, तब से भामागाह के मुख्य वंांवर के तिलक होने लगा ।"
"फिर महाजनो ने महाराणा की उक्त आज्ञा का पालन न किया, जिसने वर्तमान महाराणा साहब के समय वि० म० १९५२ कार्तिक मुद्री १२ को मुकदमा होकर उनके तिलक किए जाने की आज्ञा दी गई।"
are भामाग्राह ! तुम धन्य हो !! आज प्रायः साढ़े तीन नौ वर्ष मे तुम इस संसार में नहीं हो परन्तु वहां के बच्चे-बच्चे की जवान पर तुम्हारे पत्रित्र नाम की छाप लगी हुई हैं। जिसे देश के लिए तुमने इतना बड़ा प्रात्म-त्याग किया था, वह मेवाड़ पुनः अपनी स्वाधीनता प्राय: खो बैठा है । परन्तु फिर भी वहां तुम्हारा गुणगान होता रहता है। तुमने अपनी अजीत से स्वयं को ही नहीं किन्तु समस्त जन-जाति का सर्वया मस्तक ऊंचा कर दिया है । निःसन्देह वह दिन धनिकं समान के वन-कुबेरी में भामाशाह जैये मद्भावों का उच्च होगा ।
जिस नर-रत्न का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके चरित्र, दान आदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिको की चिरकाल से यही वारणा रही है किन्तु हाल में रायबहादुर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचन्द जो ग्रोमा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में "महाराणा प्रताप की सम्पत्ति" शीर्षक के नीचे महाराणा के निराश होकर मेवाड़ छोड़ने और भामागाह के रुपये दे देने पर फिर लड़ाई के लिए तैयारी करने की प्रसिद्ध घटना को असत्य ठहराया है।
इस विषय में आपकों युक्ति का सार 'त्याग-भूमि' के गब्दी में इस प्रकार है :
"महाराणा कुम्भा और सागा आदि द्वारा उपानित अतुल सम्पत्ति अभी तक मोजूड थी, वादशाह अकबर इसे अभी तक नं ले पाया था । यदि यह सम्पत्ति न होतो तो जहाँगीर मे सन्धि होने के बाद महाराणा अमरसिंह उसे इतने अमूल्य रत्न कैसे देता ? आगे आनेवाले महाराणा जगतसिंह तथा राजसिंह आदि महादानं किस तरह देते हैं और राजसमुंद्रादि अनेक बृहत्-व्यय-साध्य कार्ये किंस तरह सम्पन्न होत ? इसलिए उसे समय भामाशाह ने अपनी तरफ में न देकर भिन्नभिन्नं सुरक्षित राज- कोषों से रुपया लाकर दिया 1
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इस पर त्याग-भूमि के विद्वान् समालोचक श्री हंसजी ने लिखा है।
" निस्सन्देह इस युक्ति का उत्तर देना कठिन है, परन्तुं मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को भी अपने खजानों का ज्ञान न हो, यह मानने की स्वभावतः किसी का दिन तैयार न होंगों । ऐसा मान लेना महाराणा प्रताप की धासून कुशलता और साधारण नौनिमत्ती से इन्कार म्स्ला है। दूसरा सवाल यह है कि यदि भामाशाह ने अपनी उपार्जित सम्पत्ति न देकर केवल रोकोवा
ई२४ ]
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की ही सम्पत्ति दी होती तो उसका और उसके वश का, इतना सम्मान, जिसका उल्लेख श्री प्रोझा जी ने पु. ७८८ पर किया है, हमें बहुत समव नही दखता । एक खणाची का यह तो साधारण सा कर्तव्य है कि वह आवश्यकता पड़ने पर कोष से रुपया लाकर दे ।। केवल इतने मात्र से उसके वशधरो की यह प्रतिष्ठा (महाजन जाति-भोज'मैं अक्सर पर पहले उसको तिलक किया जाए) प्रारम्भ हो जाय, यह'कुछ बहुत अधिक युक्तिसगत मालूम नहीं होता."
इस पालोचना मैं ओझाजी की युक्ति के विरुद्ध जो कल्पना की गई है वह बहुत कुछ ठीक जान पड़ती है। इसके सिवाय, मै इतना और भी कहना चाहता हूँ कि यदि श्री मोमाजी का यह लिखना ठीक भी मान लिया जाय कि "महाराणा कुम्भा और सांगा आदि द्वारा उपार्जित अतुल सम्पत्ति प्रताप के समय तक सुरक्षित थी-वह खर्च नही हुई थी, तो वह सपत्ति चित्तौड़ थी, यह उदयपुर के कुछ गुप्त खजानो मे ही सुरक्षित रही होगी। भले ही अकबर कोउन खजानो का पता न चल सका हो, परन्तु इन दोनो स्थानो पर अकबर का अधिकार तो पूरा हो गया था और ये स्थान अकवर की फौज से बराबर घिरे रहते थे, तब युद्ध के समय इन गुप्त खजानो से अतुल सपत्ति का बाहर निकाला जाना कैसे सभव हो सकता था। और इसलिए हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब प्रताप के पास पैसा नही रहा तब भामाशाह ने देश-हित के लिए अपने पास सेखुद के उपार्जन किये हुए द्रव्य से भारी सहायता देकर प्रताप का यह अर्थ-कष्ट दूर किया है। यही ठीक जंचता है । रही अमरसिंह और जगतसिंह द्वारा होने वाले खर्वो की बात, वे सब तो चित्तोड तथा उदयपुर के पुन हस्तगत करने के बाद ही हुए हैं और उनका उक्त गुप्त खजानो की सम्पत्ति से होना सभव है, तब उनके आधार पर भामाशाह की उस सामयिक विपुल सहायता तथा भारी स्वार्थ-त्याग पर कैसे आपत्ति की जा सकती है । अतः इस विषय मे प्रोझाजी का कथन कुछ अधिक युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता। और यही ठीक है कि भामाशाह के इस अपूर्व त्याग की बदौलत ही उस समय मेवाड़ का उद्धार हुमा जिन व्रतों के पालन करने पर बापू विशेष जोर देते थे । और इसीलिए आज भी भामाशाह मेवाडोद्धारक के नाम से प्रसिद्ध है।
एकादश-व्रत
जिन व्रतों के पालन पर बापू विशेष जोर देते थे अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असग्रह । शरीरश्रम अस्त्राद सर्वत्र भयवर्जन ॥ सर्वधर्मी समानत्व स्वदेशी स्पर्शभावना। ही एकादश सेवावी नम्रत्वे व्रतनिश्चये ॥
वापू के प्रिय भजन
.
१.
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे; परदुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।
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२६]
सकल लोकमा सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे, वाच काच मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे । समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे, जिल्हा थकी असत्य न बोले, परवन नव झाले हाथ रे । मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना मनमा रे; रामनामशु ताली लागी, सकल तीरथ तेना तनमा रे | वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे; भणे नरसंयो तेनू दरसन करता कुल एकतेर तार्या रे ।
: २ .
हरि तुम हरो जन की भीर ।
द्रौपदी की लाज राखी, तुम बढ़ायो चीर । भक्त कारण रूप नरहरि धर्यो आप शरीर । हरिनकश्यप मार लीन्हो घर्यो नाहिन धीर । वूडते गजराज राख्यो, कियो बाहर नीर । दास मीरा लाल गिरधर, दुख जहां तहा पीर ॥ : ३ यदि तोर डाक सुने केउ ना आसे एकला चलो, एकला चलो, यदि केउ कथा ना काय, ओरे ओरे ओो अभागा यदि सवाई थाके सुख फिराये, सवाई करे भयतवे परान खुले
तवे एकला चलो रे. एकला चलो रे !
2
श्रो, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला वोलो रे यदि सवाई फिरे जाय, भोरे, चोरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जावार काले केउ फिरे ना जायतव पथेर काटा
जो, तुई रक्त यदि आलो न यदि भातु बादले तवे बच्चानले
माखा चरन तले एकला दलो रे । घरे मोरे, ओरे, श्री अभागा, आधार राते दुआर देय बरे
-
. ४ :
राम-सदन
थापन वुकेर पाजर ज्वालिये निये एकल चलो रे ! - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥ जिन्हके कपट दभ नहि माया | तिन्हके हृदय बसहु रघुराया ।।
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सबके प्रिय सबके हितकारी । दुख-सुख सरिस प्रशसा गारी ॥ कहइ सत्य प्रिय वचन विचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥ तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाही । राम बसहु तिनके मन माही | जननी सम जानहि पर नारी । धन पराय विषते विष भारी | जे हरषह पर सम्पति देखी। दुखित होहिं परविपति बिसेखी ॥ जिन्हहिं राम तुम प्रान पियारे । तिन्हके मन सुभ सदन तुम्हारे |
स्वामि सखा पितु मातु गुरू, जिन्हके सब तुम तात । मन-मन्दिर तिन्हके बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात ॥
एकादा व्रत
१. सत्य -- सत्य ही परमेश्वर है । सत्य- आग्रह, सत्य- विचार, सत्य-वारणी और सत्यकर्म ये सब उसके अग है । जहाँ सत्य है, वहाँ शुद्ध ज्ञान है । जहाँ शुद्ध ज्ञान है, वहीं श्रानन्द ही हो सकता है ।
२ अहिंसा - सत्य ही परमेश्वर है । उसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन, अहिंसा है। बगैर अहिसा के सत्य की खोज असम्भव है ।
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३ ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ब्रह्म की - सत्य की सम्बन्ध रखने वाला श्राचार। इस मूल अर्थ मे से सर्वेन्द्रिय-सयम का केवल जननेन्द्रिय-सयम के अधूरे अर्थ को तो हमे भूल जाना चाहिए ।
खोज मे चर्या, अर्थात् उससे विशेष अर्थ निकलता है ।
४. अस्वाद - मनुष्य जब तक जीभ के रसो को न जीते तबतक ब्रह्मचर्य का पालन प्रति कठिन है। भोजन केवल शरीर-पोषण के लिए हो, स्वाद या भोग के लिए न हो ।
५ श्रस्तेय ( चोरी न करना) – दूसरे की चीज को उसकी इजाजत के बिना लेना तो चोरी है ही, लेकिन मनुष्य अपनी कम से कम जरूरत के अलावा जो कुछ लेता या सग्रह करता है, वह भी चोरी ही है ।
६ परिग्रह- सच्चे सुधार की निशानी परिग्रह- वृद्धि नही बल्कि विचार और इच्छापूर्वक परिग्रह कम करना उसकी निशानी है । ज्यो- ज्यो परिग्रह कम होता है, सुख और सच्चा सन्तोष बढ़ता है, सेवा-शक्ति बढती है ।
७. श्रभय - जो सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-बिरादरी से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से डरे, न बीमारी या मौत से डरे, न किसी के बुरा मानने से डरे ।
८. अस्पृश्यता निवारण - छुआछूत हिन्दू धर्म का अग नही है; इतना ही नही, बल्कि उसमें घुसी हुई सड़न है, बहम है, पाप है और उसका निवारण करना प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, कर्तव्य है ।
९ शरीरश्रम — जिनका शरीर काम कर सकता है, उन स्त्री-पुरुषो को अपना रोजमर्रा का सभी काम, जो खुद कर लेने लायक हो, खुद ही कर लेना चाहिए और बिना कारण दूसरो से सेवा न लेनी चाहिए ।
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जो खुद मेहनत न करे, उन्हे-खाने का हक ही क्या है?
१०. सर्वधर्म समभाव-जितनी इज्जत हम अपने धर्म को करते है, उतनी ही इज्जत हमें दूसरोके धर्स की भी करनी चाहिए । जहाँ यह वृत्ति है, वहाँ एक-दूसरे के धर्म का विरोध हो ही नहीं सकता, न.परधर्मी को अपने धर्म में लाने की कोशिश ही हो सकती है, बल्कि हमेशा प्रार्थना यही की जानी चाहिए कि सब धर्मो मे पाये जाने वाले दोष दूर हो।
११. स्वदेशी अपने आस-पास रहने वालो की सेवा मे श्रोत-प्रोत हो जाना स्वदेशी-धर्म है। जो निकट वालो की सेवा छोड़कर दूर।वालो की सेवा करने को दौडता है, वह स्वदेशी को भग करता है।
रचनात्मक कार्यक्रम
(गांधीजी के शब्दो में) रचनात्मक कार्यक्रम को सत्य और अहिंसात्मक साधनो द्वारा पूर्ण स्वराज्य की स्वना कहा जा सकता है । .... उसके एक-एक अग पर विचार करे।
१ कौमी एकता-एकता का मतलब सिर्फ राजनैतिक एकता नही है"सच्चे मानी तो • है वह दिली दोस्ती जो तोडे न टूटे । इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन, वे किसी भी धर्म के मानने वाले हो, अपने को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, सभी कौमो का नुमाइदा समझे।
२. अस्पृश्यता निवारण-हरिजनो के मामले मे तो हरेक-हिन्दू को यह समझना चाहिए कि हरिजनो का काम उसका अपना काम है।
३. मद्य-निशेष-अफीम, शराब, वगैरा चीजो के व्यसन मे फंसे हुए अपने करोडो भाईबहनो के भविष्य को सरकार की मेहरवानी या मरजी पर झूलता नहीं छोड़ सकते।"इन व्यसनो के पजे मे फंसे हुए लोगो को छुड़ाने के उपाय निकालने होगे।
४. खादी-खादी का मतलब है देश के सभी लोगो की आर्थिक स्वतन्त्रता और 'समानता का आरम्भ । 'खादी मे जो चीजे समाई हुई है, उन सब के साथ खादी कने-अपनाना चाहिए । खादी का एक मतलब यह है कि हम में से हरेक को सम्पूर्ण स्वदेशी की भावना बढ़ानी और टिकानी चाहिए।
५.दूसरे ग्रामोद्योग-हाथ से पीसना, हाथ से कूटना और पछोरना; साचुन बनाना, कागज बनाना, दियासलाई वनाना, चमड़ा कमाना, तेल पेरना और इस तरह के दूसरे सामाजिक जीवन के लिए जरूरी और महत्व के-धन्यो के बिना गावो की आर्थिक रखना सम्पूर्ण नही हो सकती।
६.. गांवो की सफाई- देश में जगह-जगह सुहावने- और मनभावने, छोटे-छोटे गावो के -बहले हमे धूरे-जैसे गाव देखने को मिलते है।" : हमारा फर्ज हो जाता है कि गावो को सब तरह से सफाई के नमूने बनावे । R ]
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७ बुनियादी तालीम-बुनियादी तालीम हिन्दुस्तान के तमाम बच्ची को, वे गावो के रहने वाले हो या बहरो के, हिन्दुस्तान के सभी श्रेष्ठ तत्वो के साथ जोड देती है। यह तालीम वालक के मन और शरीर दोनो का विकास करती है।
८. प्रौढ़-शिक्षा-बड़ी उम्र के अपने देशवासियो को जवानी यानी सीधी बातचीत द्वारा सच्ची राजनैतिक शिक्षा दी जाय ।
९. स्त्रियां-स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुप ने अपने को उसका स्वामी माना है । काग्रेस वालो का यह खास कर्तव्य है कि वे हिन्दुस्तान की स्त्रियो को इस गिरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उठावे।
१० आरोग्य के नियमो जी शिक्षा- हमारे देश की दूसरे देशों से वढी-चठी मृत्युसंख्या का ज्यादातर कारण निश्चय ही वह गरीवी है, जो देशवासियों के शरीरो को कुरेदकर खा रही है, लेकिन अगर उनको तन्दुरुस्ती के नियमो की ठीक-ठीक तालीम दी जाय तो उसमे बहुत कमी की जा सकती है।
जब वीमार पडे तब अच्छे होने के लिए अपने साधनो की मर्यादा के अनुमार प्राकृतिक चिकित्सा करें।
११ प्रान्तीय भाषाएं - हिन्दुस्तान की महान् भापायो की अवगणना की वजह से हिन्दुस्तान को जो वेहद नुकसान हुआ है, उसका कोई अन्दाजा हम नहीं कर सकते ।...'जव तक जन-साधारण को अपनी वोली मे लडाई के हर पहलू व कदम को अच्छी तरह से नहीं समझाया जाता तब तक उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे उसमे हाथ वटावे ।।
१२ राष्ट्रभाषा-समूचे हिन्दुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हमको भारतीय भाषामो मे से एक ऐसी भापा की जरूरत है, जिसे आज ज्यादा-से-ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हो और बाकी के लोग जिने झट सीख सकें, और वह भाषा हिन्दी (हिन्दुस्तानी) ही हो सकती है।
१३ आर्थिक समानता--प्रार्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूजी और मजदूरो के बीच के झगड़ो को हमेशा के लिए मिटा देना। अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को जुद राजी खुशी से छोडकर और सबके कल्याण के लिए सबो के मिलकर बरतने को तैयार न होगे तो यह तय समझिये कि हमारे मुरक मै हिसक और खूखार क्रान्ति हुए विना नहीं रहेगी।
१४ किसान-स्वराज्य की इमारत एक जवस्दस्त चीज है, जिन बनाने में अस्मी करोड़ हाथो का काम है । इन बनाने वालो मे किसानो की तादाद सबसे बडी है। सच तो यह है कि स्वराज्य की इमारत बनाने वालो मे ज्यादातर (करीब ८० फी-सदी) वे ही लोग है, इसलिए असल मे किसान ही काग्रेस है, ऐसी हालत पैदा होना चाहिए।
१५ मनदूर-अहमदावाद के मजदूर-सघ का नमूना नमूचे हिन्दुस्तान के लिए अनुकरणीय है, क्योकि वह गुद्ध अहिंसा की बुनियाद पर खड़ा है।" मेरा वस चने तो
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हिन्दुस्तान को सब मजदूर-संस्थानो का सचालन प्रहमदावाद के मजदूर-सघ की नीति पर करूं।
१६ आदिवासी-आदिवासियो की सेवा भी रचनात्मक कार्यक्रम का एक प्रग है ।... समूचे हिन्दुस्तान मे आदिवासियो की आबादी दो करोड़ है । ..... उनके लिए कई सेवक काम कर रहे है । फिर भी अभी उनकी संख्या काफी नहीं है।
१७. कुण्ठ-रोगी-यह एक बदनाम शब्द है। फिर भी हम मे जो सबसे श्रेष्ठ या बढ़े-चढे है, उन्ही की तरह कुष्ठ-रोगी भी हमारे समाज के अग है ।। पर हकीकत यह है कि जिन कुष्ठ-रोगियो की सार-संभाल की ज्यादा जरूरत है, उन्ही की हमारे यहाँ जान-बूझकर उपेक्षा की जाती है।
१८ विद्यार्थी-विद्यार्थी भविष्य की प्राशा है। ... इन्ही नौजवान स्त्रियों और पुरुषो मे से तो राष्ट्र के भावी नेता तैयार होने वाले है। विद्यार्थियो को दलवन्दी वाली राजनीति में कभी शामिल नहीं होना चाहिए। उन्हे राजनैतिक हड़ताले नही करनी चाहिए । सव विद्यार्थियो को सेवा की खातिर शास्त्रीय तरीके से कातना चाहिए। अपने पहने-मोढने के लिए वे हमेशा खादी का इस्तेमाल करे।
१९. गोसेवा-गोरक्षा मुझे बहुत प्रिय है । मुझसे कोई पूछे कि हिन्दू-धर्म का वड़े-सेबड़ा बाह्य स्वरूप क्या है, तो मैं गोरक्षा बताऊंगा। मुझे वर्षों से दीख रहा है कि हम इस धर्म को भूल गये है। दुनिया मे ऐसा कोई देश मैने कही नहीं देखा जहा गाय के वश की हिन्दुस्तान जैसी लावारिस हालत हो।
रायचंद भाई के कुछ संस्मरण
महात्मा गांधी ["राष्ट्रपिता गाधीजी ने सत्य और हिसा का मगलमय सदेश विश्व के लिए देकर नवयुग का सूत्रपात किया। वे युगप्रवर्तक थे । मानवजाति का उन्होने अपरिमित उपकार किया। उनके जीवन पर किन-किन महापुरुषो की छाप है, यह जानना भी आवश्यक है । उन्होने श्री मद्रायचद भाई के सस्मरण लिखते समय यह बात स्वीकार की है कि मेरे ऊपर तीन पुरुषो ने गहरी छाप डाली है । टालस्टाय, रस्किन और रायचद भाई । टालस्टाय ने अपनी पुस्तको द्वारा
और उनके साथ थोडे पत्र-व्यवहार से; रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट' जिसका गुजराती अनुवाद मैने 'सर्वोदय' रक्खा है । और रायचद भाई ने अपने गाढ़ परिचय से मेरी शकामो का समाधान किया, इससे मुझे शाति मिली। हिन्दू धर्म में मुझे जो चाहिए वह मिल सकता है ऐसा मन को विश्वास हुआ। इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिए, इसका पाठक लोग कुछ अनुमान कर सकते है ।" रायचद भाई के सस्मरण उन्होने स्वय लिखे है । जिसे पढकर प्राप भली प्रकार जान सकेंगे कि गांधीजी के मन मे अहिंसा की विशेष प्रीति कैसे वढी ? इसलिए पूरा लेख यहाँ अविकल दिया जा रहा है ।]
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जिनके पवित्र सस्मरण लिखना प्रारम्भ करता हू, उन स्वर्गीय श्रीमद् रायचन्द की माज जन्म तिथि है | कार्तिक पूर्णिमा ( सवत् १९२४) को उनका जन्म हुआ था । मै कुछ यहा श्रीमद् रायचंद का जीवनचरित्र नही लिख रहा हू । यह कार्य मेरी शक्ति के बाहर है। मेरे पास सामग्री भी नही । उनका यदि मुझे जीवनचरित्र लिखना हो तो मुझे चाहिए कि मै उनकी जन्मभूमि ववाणी प्राबदर मे कुछ समय बिताऊ, उनके रहने का मकान देखू, उनके खेलने-कूदने के स्थान देखू, उनके बाल - मित्रो से मिलू, उनकी पाठशाला मे जाऊ, उनके मित्रो, अनुयायियो और सगे-संबंधियो से मिलू, और उनसे जानने योग्य बातें जानकर ही फिर कही लिखना प्रारम्भ करू । परन्तु इनमे से मुझे किसी भी बात का परिचय नहीं ।
इतना ही नही, मुझे लिखने की अपनी शक्ति और योग्यता के विषयों में भी शंका है। मुझे याद है मैने कई बार ये विचार प्रकट किए है कि अवकाश मिलने पर उनके सस्मरण लिखू गा । एक शिष्य ने जिनके लिए मुझे बहुत मान है, ये विचार सुने और मुख्यरूप से यहाँ उन्ही के सन्तोष के लिए यह लिखा है । श्रीमद् रायचन्द को मैं 'रायचन्द भाई' अथवा 'कवि' कहकर प्रेम और मानपूर्वक सम्बोधन करता था । उनके संस्मरण लिखकर उनका रहस्य मुमुक्षु श्रो के समक्ष रखना मुझे अच्छा लगता है। इस समय तो मेरा प्रयास केवल मित्र के सतोष के लिए है । उनके सस्मरणों पर न्याय देने के लिए मुझे जैनमार्गों का अच्छा परिचय होना चाहिए, मै स्वीकार करता हू कि वह मुझे नही है । इसलिए मै अपना दृष्टि- बिन्दु प्रत्यत सकुचित रखूंगा । उनके जिन सस्मरणो की मेरे ऊपर छाप पडी है, उनके नोट्स और उनसे जो मुझे शिक्षा मिली है, इस समय उसे ही लिखकर मे सतोष मानूगा । मुझे आशा है कि उनसे जो लाभ मुझे मिला है वह या वैसा ही लाभ उन सस्मरणो के पाठक मुमुक्षुभो को भी मिलेगा ।
'मुमुक्ष' शब्द का मैने यहाँ जानबूझकर प्रयोग किया है । सब प्रकार के पाठको के लिए यह पर्याप्त नही ।
मेरे ऊपर तीन पुरुषो ने गहरी छाप डाली है-- टालस्टाय, रस्किन और रायचंद भाई । टालस्टाय ने अपनी पुस्तको द्वारा और उनके साथ थोडे पत्रव्यवहार से, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट' से जिसका गुजराती अनुवाद मैने 'सर्वोदय' रक्खा है, और रायचन्द भाई ने अपने साथ गाठ परिचय से । जब मुझे हिन्दू धर्म मे शका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचन्द भाई थे । सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रीका में मै कुछ क्रिश्चियन सज्जनो के विशेष सम्पर्क मे श्राया । उनका जीवन स्वच्छ था । वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियो को क्रिश्चियन होने के लिए समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा श्रीर उनका सम्बन्ध व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था तो भी उन्होने मेरी आत्मा के कल्याण के लिए चिन्ता करना शुरू कर दिया। उस समय मै अपना एक ही कर्त्तव्य समझ सका कि जब तक मैं हिन्दू धर्म के रहस्य को पूरी तौर से न जान लू और उससे मेरी आत्मा को भसतोष न हो जाए, तब तक मुझे अपना कुलधर्म कभी न छोडना चाहिए । इसलिए मैने हिन्दू धर्म और अन्य धर्मों की पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दी। क्रिश्चियन और मुसलमानी पुस्तके पढी । विलायत के अग्रेज मित्रो के साथ पत्रव्यवहार किया। उनके समक्ष अपनी शंकायें रखी तथा हिन्दुस्तान मे जिनके
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ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी, उनके पत्रव्यवहार किया । उनमे रायचद भाई मुख्य थे। उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। उनके प्रति मान भी था, इसलिए उनसे जो मिल सके उसे लेने का मैने विचार किया । उसका फल यह हुआ कि मुझे शाति मिली । हिन्दू धर्म में मुझे जो चाहिए वह मिल सकता है, ऐसा मन को विश्वास हुआ । मेरी इस स्थिति के जवाबदार रायचन्द भाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिए, इसका पाठक लोग कुछ अनुमान कर सकते है।
इतना होने पर भी मैने उन्हे धर्मगुरु नही माना । धर्मगुरु की तो मैं खोज किया ही करता हूं, और अबतक मुझे सबके विपय में यही जवाब मिला है कि 'ये नही ।' ऐसा सम्पूर्ण गुरू प्राप्त करने के लिए तो अधिकार चाहिए, वह मैं कहाँ से लाऊ ?
प्रथम भेंट रायचन्द भाई के साथ मेरी भेट जोलाई सन् १८९१ मे उस दिन रुई जब मैं विलायत से बम्बई वापस आया । इन दिनो समुद्र में तूफान आया करता है, इस कारण जहाज रात को देरी से पहुंचा । मैं डाक्टर-बैरिस्टर-और अब रगून के प्रख्यात झवेरी प्राणजीवनदास मेहता के घर उतरा था। रायचन्द भाई उनके बड़े भाई के जमाई होते थे। डाक्टर साहब ने ही परिचय कराया। उनके दूसरे बडे भाई झवेरी रेवाशकर जगजीवनदाम की पहिचान भी उसी दिन हुई। डाक्टर साहब ने रायचन्द भाई को 'कवि' कहकर परिचय कराया और कहा-'कवि होते हुए भी
आप हमारे साथ व्यापार मे है, आप ज्ञानी और शतावधानी हैं। किसी ने सूचना दी कि मै उन्हे कुछ शब्द सुनाऊ, और वे शब्द चाहे किसी भी भाषा के हो, जिस क्रम से मै बोलू गा उसी क्रम से वे दुहरा जावेगे । मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुमा । मै तो उस समय जवान और विलायत से लौटा था, मुझे भाषाज्ञान का भी अभिमान था। मुझे विलायत की हवा भी कुछ कम न लगी थी। उन दिनो विलायत से पाया मानो आकाश से उतरा। मैने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया, और अलग-अलग भाषाओ के शब्द पहले मैंने लिख लिए---क्योकि मुझे वह क्रम कहाँ याद रहने वाला था और बाद में उन शब्दो को मैं बाच गया। उसी क्रम से रायवन्द भाई ने धीरे से एक के बाद एक शब्द कह सुनाए । मैं राजी हुआ, चकित हुआ और कवि की स्मरण-शक्ति के विषय मे मेरा उच्च विचार हुआ । विलायत की हवा कम पड़ने के लिए यह सुन्दर अनुभव हुआ कहा जा सकता है।
कवि को अग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल न था । उस समय उनकी उमर पच्चीस से अधिक न थी । गुजराती पाठशाला में भी उन्होने थोडा ही अभ्यास किया था। फिर भी इतनी शक्ति, इतना ज्ञान और आस-पास से इतना उनका मान । इससे मैं मोहित हुआ । स्मरणशक्ति पाठशाला में नहीं बिकती, और ज्ञान भी पाठशाला के बाहर, यदि इच्छा हो जिज्ञासा हो-तो मिलता है, तथा मान पाने के लिए विलायत अथवा कही भी नहीं जाना पडता; परन्तु गुण को मान चाहिए तो मिलता है-यह पदार्थ-पाठ मुझे बम्बई उतरते ही मिला ।
कवि के साथ यह परिचय बहुल भागे वढा । स्मरण शक्ति बहुत लोगो की तीन होती है, इसमे आचार्य की कुछ बात नहीं । शास्त्र-ज्ञान भी बहुतो में पाया जाता है। परन्तु यदि वे ३३२ ]
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लोग सस्कारी न हो तो उनके पास फूटी कौडी भी नही मिलती। जहां सस्कार अच्छे होते है, वही स्मरण शक्ति और शास्त्रज्ञान का सम्बन्ध शोभित होता है, और जगत को शोभित करता है। कवि सस्कारी ज्ञानी थे ।
वैराग्य
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवेगे, क्यारे थईशु बाह्यान्तर निग्रंथ जो, सर्व सबधनु वधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरणु कब महत्पुरुप ने पथ जी ? सर्वभाव प्रौदासीन्य वृत्तिकरी, मात्र देहे ते सयमहेतु होय जो, अन्य कारणे अन्य कy कल्पे नहि, देहे पण किचित् मूर्छा नवजोय जो ॥
अपूर्व
रामचन्द भाई की १८ वर्ष की उमर के निकले हुए अपूर्व उद्गारो की ये पहली दो कडिया है । जो वैराग्य इन कडियो में छलक रहा है, वह मैंने उनके दो वर्ष के गाढ परिचय से प्रत्येक क्षण मे उनमे देखा है। उनके लेखो की एक प्रसाधारणता यह है कि उन्होने स्वय जो धनुभव किया वही लिखा है । उसमे कही भी कृत्रिमता नहीं। दूसरे के ऊपर छाप डालने के लिए उन्होने एक लाइन भी लिखी हो यह मैंने नही देखा। उनके पास हमेशा कोई-न-कोई धर्मपुस्तक और एक फोरी कापी पडी ही रहती थी । इस कापी मे वे अपने मन मे जो विचार आते उन्हें लिख लेते थे । ये विचार कमी गद्य मे और कभी पद्य में होते थे इसी तरह 'अपूर्व अवसर' आदि पद भी लिखा हुआ होना चाहिए ।
खाते, बैठते, सोते और प्रत्येक क्रिया करते हुए उनमे वैराग्य तो होता ही था । किसी समय उन्हे इस जगत के किसी भी वैभव पर मोह हुआ हो यह मैंने नही देखा ।
उनका रहन-सहन में प्रादरपूर्वक परन्तु सूक्ष्मता से देखता था। भोजन मे जो मिले बे उसीसे सतुष्ट रहते थे । उनकी पोशाक सादी थी । कुर्ता, अगरखा, खेस, सिल्क का दुपट्टा और और धोती यही उनकी पोशाक थी तथा ये भी कुछ बहुत साफ या इस्तरी किए हुए रहते हो, यह मुझे याद नही । जमीन पर बैठना और कुर्सी पर बैठना उन्हें दोनो ही समान थे । सामान्य रीति से अपनी दुकान में वे गद्दी पर बैठते थे ।
उनकी चाल धीमी थी, और देखनेवाला समझ सकता था कि चलते हुए भी वे अपने विचार मे मग्न हैं । प्राख मे उनकी चमत्कार था । वे अत्यन्त तेजस्वी थे । विह्वलता जरा भी न थी । आँख मे एकाग्रता चित्रित थी । चेहरा गोलाकार, होठ पतले, नाक न नोकदार और न चपटी, शरीर दुर्बल, कद मध्यम, वर्ण श्याम, और देखने मे वे शान्तिमूर्ति थे। उनके कठ मे इतना अधिक माधुर्य था कि उन्हें सुनने वाले थकते न थे, उनका चेहरा हसमुख और प्रफुल्लित था । उसके ऊपर अतरानद की छाया थी । भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हे अपने विचार प्रगट करते समय कभी कोई शब्द ढूढना पडा हो, यह मुझे याद नही । पत्र लिखने बैठते तो शायद ही शब्द बदलते हुए मैंने उन्हें देखा होगा | फिर भी पढने वाले को यह मालूम न होता था कि कही विचार अपूर्ण है अथवा वाक्यरचना त्रुटित है, अथवा शब्दो के चुनाव में कमी है ।
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।। । यह वर्णन सयमी के विषय में सभव है । बाह्याडम्बर से मनुष्य वीतरागी नही हो सकता । वीतरागता मारमा की प्रसादी है । यह अनेक जन्मो के प्रयत्न से मिल सकती है, ऐसा हर मनुष्य अनुभव कर सकता है । रागो को निकालने का प्रयत्न करने वाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है। यह गग-रहित दशा कवि की स्वाभाविक थी, ऐसी मेरे ऊपर छाप पडी थी।
मोक्ष की प्रथम पीढी वीतरागता है । जब तक जगत की एक भी वस्तु मे मन रमा है तब तक मोक्ष की बात कैसे अच्छी लग सकती है । अथवा अच्छी लगती भी तो केवल कानो को ही-ठीक वैसे ही जैसे कि हमे अर्थ के समझे बिना किसी सगीत का केवल स्वर ही अच्छा लगता है। ऐसी केवल कर्ण-प्रिय क्रीड़ा में से मोक्ष का अनुसरण करने वाले आचरण के पाने में बहुत समय बीत जाता है । आतर वैराग्य के बिना मोक्ष की लगन नही होती। ऐसे वैराग्य की लगन कवि में थी।
व्यापारी जीवन • "वणिक तेहतु नाम जेह जूळू नव बोले, वणिक तेहनु नाम, तोल मोछु नव तोले ।
वणिक तेहनु नाम बापे बोल्यु ते पाले, वणिक तेहनु नाम व्याज सहित धनवाले । ., विवेक तोल ए वणिकनु सुलतान तोल ए शाव छे, बेपार चुके जो वाणीमो,
दुख दावानल थाह छ।"
-सामलभट्ट सामान्य मान्यता ऐसी है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दोनो अलग-अलग विरोधी वस्तुए है । व्यापार मे धर्म को घुसेड़ना पागलपन है। ऐसा करने से दोनो बिगड जाते है । यह मान्यता यदि मिथ्या न हो तो अपने भाग्य में केवल निराशा ही लिखी है। -क्योकि ऐसी एक भी वस्तु नहीं, ऐसा एक भी व्यवहार नही जिससे हम धर्म को अलग
रख सकें। • धार्मिक मनुष्य का धर्म उसके प्रत्येक कार्य मे झलकना ही चाहिये, यह रायचन्द भाई
ने अपने जीवन मे बताया था। धर्म कुछ एकादशी के दिन ही, पyषण मे ही, ईद के दिन ही, या , रविवार के दिन ही पालना चाहिए, अथवा उसका पालन मदिरो मे, देरासरो में, और मस्जिदो
मे ही होता है और दूकान या दरबार मे नही होता, ऐसा कोई नियम नही। इतना ही नहीं, .परन्तु यह कहना धर्म को न समझने के बराबर है, यह रायचन्द भाई कहते, मानते और अपने आधार में बताते थे।
बनिया उसे कहते हैं जो कभी झूठ नही बोलता, बनिया उसे कहते है जो कम नही • तौलता। बनिया उसका नाम है जो अपने पिता का वचन निभाता है, बनिया उसका नाम है जो ब्याज सहिय मूलधन चुकाता है । बनिये की तौल विवेक है, साहू सुलतान की तौल का होता है। यदि बनिया अपने बनिष को चूक माय तो ससार की वित्ति बढ जाय ।
--अनुवादक
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उनका व्यापार हीरे-जवाहरात का था। वे श्री रेवाशकर जगजीवन झवेरी के साक्षी थे । साथ मे वे कपडे की दुकान भी चलाते थे । अपने व्यवहार मे सम्पूर्ण प्रकार से वे प्रमाणिकता. बताते थे, ऐसी उन्होने मेरे ऊपर छाप डाली थी। वे जब सौदा करते तो मैं कभी अनायास ही उपस्थित रहता। उनकी वात स्पप्ट और एक ही होती थी। 'चालाकी' सरीखी कोई वस्तु उनमें मै न देखता था। दूसरे की चालाकी वे तुरन्त ताड जाते थे, वह उन्हे असा मालूम होती थी। ऐसे समय उनकी प्रकुटि भी चढ जाती और प्रांखो में लाली आ जाती, यह मैं देखता था।
धर्मकुशल लोग व्यापार-कुशल नहीं होते, इस वहम को रायचन्द भाई ने मिथ्या सिद्ध करके बताया था। अपने व्यापार मे वे पूरी सावधानी और होशियारी बताते थे। हीरेजवाहरात की परीक्षा वे बहुत बारीकी से कर सकते थे । यद्यपि अग्रेजी का ज्ञान उन्हे न था फिर भी पेरिस वगैरह के अपने आइतियो की चिट्ठियो और तारो के मर्म को वे फौरन समझ जाते थे और उनको कला समझने में उन्हें देर न लगती। उनके जो तर्क होते थे, वे अधिकाश सच्चे ही निकलते थे।
इतनी सावधानी और होशियारी होने पर भी वे व्यापार की उद्विग्नता प्रयवा चिन्ता न रखते थे। दुकान मे बैठे हुए भी जब अपना काम समाप्त हो जाता तो उनके पास पड़ी हुई धार्मिक पुस्तक अथवा कापी, जिसमे वे अपने उद्गार लिखते थे, खुल जाती थी। मेरे जैसे जिज्ञासु तो उनके पास रोज आते ही रहते थे और उनके साय धर्म-चर्चा करने में हिचकते न थे । 'व्यापार के समय मे व्यापार और धर्म के समय मे धर्म, अर्थात् एक समय में एक ही काम होना चाहिए, इस सामान्य लोगो के सुन्दर नियम का कवि पालन न किरते थे। वे शतावधानी होकर इसका पालन न करें तो यह हो सकता है, परन्तु यदि और लोग इसका उल्लघन करने लगें तो जैसे दो घोड़ो पर सवारी करने वाला गिरता है, वैसे ही वे भी अवश्य गिरते । सम्पूर्ण धार्मिक और वीतरागी पुरुष भी जिस क्रिया को जिस समय करता हो, उसमे ही लीन हो जाय, यह योग्य हैइतना ही नहीं परन्तु उसे यही शोभा देता है । यह उसके योग की निशानी है । इसमे धर्म है। व्यापार अथवा इसी तरह की जो कोई अन्य किया करना हो तो उसमे भी पूर्ण एकाग्रता होनी ही चाहिए। अन्तरंग मे आत्मचिन्तन तो मुमुक्षु मे उसके श्वास की तरह सतत चलना ही चाहिए। उससे वह एक क्षण भर भी वचित नही रहता । परन्तु इस तरह मात्म-चिन्तन करते हुए भी जो कुछ बह बाह्य कार्य करता हो वह उसमे तन्मय रहता है।
मैं यह नही कहना चाहता कि कवि ऐसा न करते थे। ऊपर मै कह चुका है कि अपने व्यापार मे वे पूरी सावधानी रखते थे। ऐसा होने पर भी मेरे ऊपर ऐसी छाप जरूर पडी है कि कवि ने अपने शरीर से आवश्यकता से अधिक काम लिया है । यह योग की अपूर्णता तो नही हो. सकती ? यद्यपि कर्तव्य करते हुए शरीर तक भी समर्पण कर देना यह नीति है, परन्तु शक्ति से मधिक बोझ उठाकर उसे कर्तव्य समझना यह राग है । ऐसा अत्यत सूक्ष्म राय कवि में था, यह मुझे अनुभव हुआ।
बहुत बार परमार्थ दृष्टि से मनुष्य शक्ति से अधिक काम लेता है और बाद में उसे पूरा करने में उसे कष्ट सहना पडता है। इसे हम गुण समझते हैं और इसकी प्रशसा करते हैं।
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परन्तु परमार्थ धर्म-दृष्टि से देखने से इस तरह किए हुए काम में सूक्ष्म मूर्छा का होना बहुत सम्भव है।
यदि हम इस जगत में केवल निमित्त मात्र ही है. यदि यह शरीर हमे भाड़े मिला है, और उस मार्ग से हमे तुरन्त मोक्ष-साधन करना चाहिये, यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्ग मे जो विघ्न आते हो उनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए, यही पारमार्थिक दृष्टि है, दूसरी नहीं।
जो दलीलें मैने ऊपर दी है, उन्हे ही किसी दूसरे प्रकार से रायचन्द भाई अपनी चमत्कारिक भाषा मे मुझे सुना गये थे। ऐसा होने पर भी उन्होने कैसी-कैसी व्याधिया उठाई कि जिसके फलस्वरूप उन्हे सख्त बीमारी भोगनी पडी।
रायचन्द भाई को भी परोपकार के कारण मोह ने क्षण भर के लिए घेर लिया था, यदि मेरी यह मान्यता ठीक हो तो 'प्रकृति पाति भूतानि निग्रह कि करिष्यति' यह श्लोकार्य यहा ठीक बैठता है, और इसका अर्थ भी इतना ही है । कोई इच्छापूर्वक वर्ताव करने के लिए उपयुक्त कृष्ण-वचन का उपयोग करते है, परन्तु वह तो सर्वथा दुरुपयोग है। रायचन्द भाई की प्रकृति उन्हे बलात्कार गहरे पानी में ले गई । ऐसे कार्य को दोपरूप से भी लगभग सम्पूर्ण आत्माओ मे ही माना जा सकता है । हम सामान्य मनुष्य तो परोपकारी कार्य के पीछे अवश्य पागल बन जाते है, तभी उसे कदाचित पूरा कर पाते है । इस विषय को इतना ही लिखकर समाप्त करते है ।
यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक मनुष्य इतने भोले होते है कि उन्हे सब कोई ठग सकता है । उन्हे दुनिया की वातो की कुछ भी खबर नहीं पड़ती। यदि यह वात ठीक हो तो कृष्णचन्द और रामचन्द दोनो अवतारो को केवल समारी मनुष्यो में ही गिनना चाहिए । कवि कहते थे कि जिसे शुद्धज्ञान है उसका ठगा जाना असम्भव होना चाहिए । मनुष्य धार्मिक अर्थात् नीतिमान होने पर भी कदाचित ज्ञानी न हो परन्तु मोक्ष के लिए नीति और अनुभव ज्ञान का सुसगम होना चाहिए। जिसे अनुभव ज्ञान हो गया है, उसके पास पाखड निम ही नही सकता। अहिंसा के सानिध्य मे हिसा वद हो जाती है । जहा सरलता प्रकागित होती है वहाँ छलरूपी प्रधकार नष्ट हो जाता है । ज्ञानवान और धर्मवान यदि कपटी को देखे तो उसे फौरन पहिचान लेता है, और उसका हृदय दया से आई हो जाता है । जिसने आत्म को प्रत्यक्ष देख लिया, वह दूसरे को पहिचाने विना कसे रह सकता है ? कवि के सम्बन्ध मे यह नियम हमेशा ठीक पड़ता था, यह मै नही कह सकता। कोई-कोई धर्म के नाम पर उन्हें ठग भी लेते थे। ऐसे उदाहरण नियम की अपूर्णता सिद्ध नही करते, परन्तु ये शुद्धज्ञान की ही दुर्वलता सिद्ध करते है।
इस तरह के अपवाद होते हुए भी व्यवहारकुशलता और धर्म-परायणता का सुन्दर मेल जितना मैने कवि मे देखा है, उतना किसी दूसरे में देखने में नही पाया।
धर्म
रायचन्द भाई के धर्म का विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि धर्म का उन्होने क्या स्वरूप समझाया था।
धर्म का अर्थ मत-मतान्तर नही । धर्म को अर्थशास्त्री के नाम से कही जाने वाली
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पुस्तको को पढ़ जाना, कठस्थ कर लेना, अथवा उनमे जो कुछ कहा है, उसे मानना भी नहीं है।
धर्म प्रात्मा का गुण है और वह मनुष्य जाति मे दृश्य अथवा अदृश्य रूप से मौजूद है । धर्म से हम मनुष्य जीवन का कर्तव्य समझ सकते है । धर्म द्वारा हम दूसरे जीवो के साथ अपना सच्चा सम्बन्ध पहचान सकते है । यह स्पष्ट है कि जब तक हम अपने को न पहचान ले, तब तक यह सब कभी भी नहीं हो सकता । इसलिए धर्म वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने आपको स्वय पहिचान सकते है।
यह साधन हमे जहा कही मिले, वही से प्राप्त करना चाहिए । फिर भले ही वह भारत वर्ष मे मिले, चाहे यूरोप से पाए या अरवस्तान से आए । इन साधनो का सामान्य स्वरूप समस्त धर्मशास्त्रो में एक ही सा है । इस बात को वह कह सकता है जिसने भिन्न-भिन्न शास्त्रो का अभ्यास किया है । ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता कि असत्य बोलना चाहिये प्रथवा असत्य आचरण करना चाहिए । हिंसा करना किसी भी शास्त्र में नहीं बताया । समस्त शास्त्रो का दोहन करते हुए शकराचार्य ने कहा है-'ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या' । उसी बात को कुरानशरीफ मे दूसरी तरह कहा है कि ईश्वर एक ही है और वही है, उसके विना और दूसरा कुछ नही । वाइविल में कहा है, कि मैं और मेरा पिता एक ही है । ये सब एक ही वस्तु के रूपातर है। परन्तु इस एक ही सत्य के स्पष्ट करने मे अपूर्ण मनुष्यो ने अपने भिन्न-भिन्न दृष्टि-विन्दुओ को काम में लाकर हमारे लिए मोहजाल रच दिया है, उसमे से हमे बाहर निकलना है। हम अपूर्ण है और अपने से कम अपूर्ण की मदद लेकर आगे बढ़ते हैं और अन्त मे न जाने अमुक हद तक जाकर ऐसा मान लेते है कि आगे रास्ता ही नहीं है, परन्तु वास्तव में ऐसी वात नहीं है । अमुक हद के बाद शास्त्र मदद नहीं करते, परन्तु अनुभव करता है । इसलिए रायचन्द भाई ने कहा है :
ए पद श्री सर्व दीठु ध्यानमा, कही शवया नही ते पद श्रीभगवत जो एह परमपदप्राप्तिनु कयु व्यान मे, गजावगर पणहाल मनोरथ रूपलो । इसलिए अन्त मे तो आत्मा को मोक्ष देने वाली आस्मा ही है।
इस शुद्ध सत्य का निरूपण रायचन्द भाई ने अनेक प्रकारो से अपने लेखो मे किया है। रायचन्द भाई ने बहुत-सी धर्मपुस्तको का अच्छा अभ्यास किया था। उन्हे संस्कृत और मागधी भाषा के समझने मे जरा भी मुश्किल न पडती थी। उन्होने वेदान्त का अभ्यास किया था, इसी प्रकार मागवत और गीताजीका भी उन्होने अभ्यास किया था। जैन पुस्तके तो जितनी भी उनके हाथ मे पाती, वे वाच जाते थे। उनके वाचने और ग्रहण करने की शक्ति प्रगाव थी। पुस्तक का एक बार का वाचन उन पुस्तको के रहस्य जानने के लिए उन्हें काफी था। कुरान, जदप्रवेस्ता आदि पुस्तकें भी वे अनुवाद के जरिये पढ गए थे।
वे मुझसे कहते थे कि उनका पक्षपात जैनधर्म की ओर था। उनकी मान्यता थी कि -जिनमगा मे पात्मज्ञान की पराकाष्ठा है, मुझे उनका यह विचार बता देना आवश्यक है। इस विषय मे अपना मत देने के लिए मैं अपने को विल्कुल अनधिकारी समझता है ।
- परन्तु रायचन्द भाई का दूसरे धर्मों के प्रति अनादर न था, बल्कि वेदान्त के प्रति
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पक्षपात भी था । वेदाती को तो कवि वेदांती ही मालूम पड़ते थे । मेरे साथ चर्चा करते समय मुझे उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी खास धर्म का अवलंबन लेना चाहिए । मुझे अपना ही आचार-विचार पालने के लिए उन्होने कहा । मुझे कौन सी पुस्तकें वाचनी चाहिये, यह प्रश्न उठने पर, उन्होने मेरी वृत्ति और मेरे बचपन के संस्कार देखकर मुझे गीताजी वाँचने के लिए उत्तेजित किया, और दूसरी पुस्तको मे पंचीकरण, मणिरत्नमाला, योगवासिष्ठ का वैराग्य प्रकरण, काव्यदोहन पहला, और अपनी मोक्षमाला वाचने के लिए कहा।
रायचन्द भाई बहुत बार कहा करते थे कि भिन्न-भिन्न धर्म तो एक तरह के वाड़े है और उनमें मनुष्य घिर जाता है। जिसने मोक्ष प्राप्ति ही पुरुषार्थ मान लिया है, उसे अपने माथे पर किसी भी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नहीं।
सूतर आवे त्यम तुं रहे, ज्यम त्यम करिने हरीने लहे___ जैसे पाखाका यह सूत्र था वैसे ही रायचन्द भाई का भी था। धार्मिक झगड़ो से वे हमेशा अवे रहते थे—उनमे वे शायद ही कभी पड़ते थे। वे समस्त धर्मो की खूवियां पूरी तरह से देखते और उन्हे उन धर्मावलम्बियो के सामने रखते थे । दक्षिण अफ्रीका के पत्रव्यवहार में भी मैने यही वस्तु उनसे प्राप्त की।
मैं स्वय तो यह मानने वाला हूँ कि समस्त धर्म उस धर्म के भक्तो की दृष्टि से सम्पूर्ण है, और दूसरो की दृष्टि से अपूर्ण है । स्वतत्र रूप से विचार करने से सव धर्म परिपूर्ण है। अमुक हद के बाद सब शास्त्र वन्धन रूप मालूम पड़ते हैं । परन्तु यह तो गुणातीत की अवस्था हुई। रायचन्द भाई की दृष्टि से विचार करते हैं तो किसी को अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं । सब अपने-अपने धर्म मे रह कर अपनी स्वतन्त्रता-मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। क्योकि मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ सर्वाश से राग-द्वेप रहित होना ही है।
*परिशिष्ट इस प्रकरण में एक विषय का विचार नहीं हुआ। उसे पाठको के समक्ष रख देना उचित समझता है। कुछ लोग कहते हैं कि श्रीमद् पच्चीसवे तीर्थ कर हो गए हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि उन्होने मोक्ष प्राप्त कर लिया है। मैं समझता हूं कि ये दोनो ही मान्यताए अयोग्य हैं। इन बातो को मानने वाले या तो श्रीमद् को ही नही पहचानत, अथवा तीर्थ कर या मुक्त पुरुप की वे व्याख्या ही दूसरी करते हैं। अपने प्रियतम के लिए भी हम सत्य को हल्का अथवा सस्ता नही कर देते हैं। मोक्ष अमूल्य वस्तु है। मोक्ष प्रात्मा की अन्तिम स्थिति है । मोक्ष बहुत महंगी वस्तु है। उसे प्राप्त करने मे, जितना
जैसे सूत निकलता है वैसे ही तू कर । जैसे बने तैसे हरि को प्राप्त कर ।
*'श्रीमद् रायचन्द' का गाधीजी द्वारा लिखा हुआ प्रस्तावना का वह अंश जो उक्त सस्मरणो से अलग है और उनके वाद लिग गया है।
-अनुवादक
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प्रयत्न समुद्र के किनारे बैठकर एक सीक लेकर उसके ऊपर एक-एक वू द चढ़ा-चढ़ाकर समुद्र को खाली करने वाले को करना पडता है और धीरज रखना पड़ता है। उससे भी विशेष प्रयत्न करने वाले को करना पड़ता है और धीरज रखना पड़ता है। उससे भी विशेष प्रयत्न करने की श्रावश्यकता है । इस मोक्ष का सम्पूर्ण वर्णन असम्भव है। तीर्थ कर को मोक्ष के पहले की विभूतिया सहज ही प्राप्त होती है । इस देह मे मुक्त पुरुष को रोगादि कभी भी नहीं होते । निर्विकारी शरीर में रोग नही होता। राग के बिना रोग नहीं होता । जहा विकार है वहा राग रहता ही है, और जहां राग है वहा मोक्ष भी सम्भव नही । मुक्त पुरुष के योग्य वीतरागता या तीर्थंकर की विभूतिया श्रीमद् को प्राप्त नही हुई थी । परन्तु सामान्य मनुष्य की अपेक्षा श्रीमद् की वीतरागता और विभूतियां बहुत अधिक थी, इसलिये हम उन्हें लौकिक भाषा में वीतराग और विभूतिमान कहते है । परन्तु मुक्त पुरुष के लिए मानी हुई वीतरागता और तीर्थ कर की विभूतियो को श्रीमद् न पहुँच सके थे, यह मेरा दृढमत है। यह कुछ मे एक महान और पूज्य व्यक्ति के दोष बताने के लिए नही लिखता । परन्तु उन्हे और सत्य को न्याय देने के लिए लिखता हू । यदि हम ससारी जीव हैं तो श्रीमद् प्रसारी थे । हमे यदि अनेक योनियो में भटकना पडेगा तो श्रीमद् का शायद एक ही जन्म बस होगा । हम शायद मोक्ष से दूर भागते होगे तो श्रीमद् वायुवेग से मोक्ष की और से जा रहे थे । यह कुछ थोड़ा पुरुषार्थं नही । यह होने पर भी मुझे कहना होगा कि श्रीमद् ने जिस अपूर्व पद का स्वय सुन्दर वर्णन किया है, उसे वे प्राप्त न कर सके थे। उन्होंने ही स्वयं कहा है कि उनके प्रवास में उन्हें सहारा का मरुस्थल बीच में भा गया और उसका पार करना बाकी रह गया । परन्तु श्रीमद् रायचन्द असाधारण व्यक्ति थे । उनके लेख उनके अनुभव के 'बिन्दु के समान है । उनके पढने वाले, विचारने वाले और तदनुसार आचरण करने वालो को मोक्ष सुलभ होगा, उनकी कथायें मन्द पडेंगी, और वे देह का मोह छोडकर भात्मार्थी बनेंगे ।
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इसके ऊपर से पाठक देखेंगे कि श्रीमद् के लेख अधिकारी के लिए ही योग्य है । सब पाठक तो उसमे रस नही ले सकते । टीकाकार को उसकी टीका का कारण मिलेगा । परन्तु श्रद्धावान तो उसमे से रस ही लूटेगा । उनके लेखो मे सत् नितर रहा है, यह मुझे हमेशा भास हुआ है। उन्होने अपना ज्ञान बताने के लिए एक भी अक्षर नहीं लिखा। लेखक का अभिप्राय पाठको को अपने आत्मानन्द मे सहयोगी बनाने का था। जिसे आत्मक्लेश दूर करना है, जो अपना कर्तव्य जानने के लिए उत्सुक है, उसे श्रीमद् के लेखो मे से बहुत कुछ मिलेगा, ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले ही कोई हिन्दू धर्म का अनुयायी हो या अन्य किसी दूसरे धर्म का ।
न्याय और दलवन्दी, ये दो विरोधी दिशाएं है, एक व्यक्ति एक साथ दो दिशाओ मे चलना चाहे, इससे बड़ी मूल और क्या हो सकती है !
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महात्मा गांधी के २७ प्रश्नों का समाधान
श्रीमद् रायचन्दजी प्रश्न (१)-प्रात्मा क्या है ? क्या वह कुछ करती है ? और उसे कर्म दुख देता है
या नही?
उत्तर-(१) जैसे घट-पट आदि जड़ वस्तुयें है, उसी तरह आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु है। घट-पट आदि अनित्य है-त्रिकाल मे एक ही स्वरूप से स्थिरतापूर्वक रह सकने वाली नही है । आत्मा एक स्वरूप से त्रिकाल में स्थिर रह सकने वाला नित्य पदार्थ है। जिस पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी सयोग से न हो सकती हो वह पदार्थ नित्य होता है । प्रात्मा किसी भी सयोग से उत्पन्न हो सकती है, ऐसा मालूम नहीं होता । क्योकि जड़ के चाहे कितने भी सयोग क्यो न करो तो भी उससे चेतन की उत्पत्ति नही हो सकती। जो धर्म जिस पदार्थ मे नही होता, उस प्रकार के बहुत से पदार्थो के इकट्ठे करने से भी उसमे जो धर्म नही है वह धर्म उत्पन्न नहीं हो सकता । जो घट-पट आदि पदार्थ हैं, उनमे ज्ञानस्वरूप देखने में नहीं आता। उस प्रकार के पदार्थों का यदि परिणामांतरपूर्वक संयोग किया हो अथवा सयोग हुआ हो, तो भी वह उसी तरह की जाति का होता है, अर्थात् यह जड़स्वरूप ही होता है, नानस्वरूप नहीं होता। तो फिर उस तरह के पदार्थ के सयोग होने पर आत्मा अथवा जिसे जानी पुरुष मुख्य 'ज्ञानस्वरूप लक्षणयुक्त' कहते हैं, उस प्रकार के (घट-पट आदि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश) पदार्थ से किसी तरह उत्पन्न हो सकने योग्य नही । 'ज्ञानस्वरूप' यह प्रात्मा का मुख्य लक्षण है, और जह का मुख्य लक्षण 'उसके प्रभावरूप' है। उन दोनो का अनादि सहज स्वभाव है। ये, तथा इसी तरह के दूसरे हजारो प्रमाण प्रात्मा को 'नित्य' प्रतिपादन कर सकते हैं तथा उसका विगेप विचार करने पर नित्य रूप से सहज रूप आत्मा अनुभव में भी आता है । इस कारण मुख-दुख आदि भोगने वाले उससे निवृत्त होने वाले, विचार करने वाले, प्रेरणा करने वाले इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानता से अनुभव में आते है, ऐमी वह आत्मा मुख्य चेतन (ज्ञान) लक्षण मे युक्त है और उस भाव से (स्थिति से) वह सव काल मे रह सकने वाला 'नित्य पदार्थ है । ऐमा मानने मे कोई भी दोप अथवा वाधा मालूम नहीं होती, बल्कि इमसे सत्य के स्वीकार करने म्प-गुण की ही प्राप्ति होती है।
यह प्रश्न तथा तुम्हारे दूसरे बहुत मे प्रश्न इस तरह के है कि जिनमे विशेप लिखने, कहने और समझाने की पावश्यकता है। उन प्रश्नों का उस प्रकार में उत्तर लिखा जाना हाल में कठिन होने से प्रथम तुम्हे पदर्शन समुच्चय ग्रन्थ भेजा था, जिसके बाँचने और विचार करने मे तुम्हें किसी भी अंश मे समावान हो, और इस पत्र से भी कुछ विशेष अश मे ममाधान हो सकना संभव है। क्योकि इस सम्बन्ध मे अनेक प्रश्न उठ सकते है जिनके फिर-फिर समाधान होने मे, विचार करने से समाधान होगा।
(२) ज्ञान दशा में अपने स्वरूप मे यथार्थ वोध मे उत्पन्न हुई दशा में वह
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आत्मा निज भाव का अर्थात् गन, दर्शन (यथा-स्थित निश्चय) और सहज-समाधि परिणाम का कर्ता है; अजान दशा में क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि प्रकृतियो का कर्म है, और उस भाव के फल भोक्ता होने से प्रसगवश घट-पट आदि पदार्थों का निमित्त रूप से कर्ता है। अर्थात् घट पट आदि पदार्थों का मूल द्रव्यो का वह कर्ता नहीं, परन्तु उसे किसी आकार में लाने रूप क्रिया काही कर्ता है। यह जो पीछे की दशा कही है, जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है, वेदान्त दर्शन उसे 'भ्रान्ति' कहता है, और दूसरे दर्शन भी इसी से मिलते-जुलते इसी प्रकार के शब्द कहते है। वास्तविक विचार करने से आत्मा घट-पट प्रादि का तथा क्रोध आदि का कर्ता नही हो सकती, है-वह केवल निजस्वरूप ज्ञान-परिणाम का ही कर्ता है-ऐसा स्पष्ट समझ मे आता है।
• (३) अज्ञानभाव से किए हुए कर्म प्रारम्भकाल से बीजरूप होकर समय का योग पाकर फलरूप वृक्ष के परिणाम से परिणमते है, अर्थात् उन कर्मों को आत्मा को भोगना पंडता है । जैसे अग्नि के स्पर्श से उष्णता का सम्बन्ध होता है और वह उसका स्वाभाविक वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही आत्मा को कोष आदि भाव के कर्तापने से जन्म, जरा, मरण प्रादि वेदनारूप परिणाम होता है । इस बात का तुम विशेषरूप से विचार करना और उस सम्बन्ध में यदि कोई प्रश्न हो तो लिखना । क्योकि इस बात को समझकर उससे निवृत्त होने रूप कार्य करने पर जीव को मोक्ष दशा प्राप्त होती है।
प्रश्न (२)-ईश्वर क्या है । वह जगत का कर्ता है, क्या वह सच है ?
उत्तर-(१) हम-तुम कर्म-बन्धन मैं फसे रहने वाले जीव हैं। उस जीव का सहज स्वरूप अर्यात कमरहितपना-मात्र एक आत्मा स्वरूप जो स्वरूप है, वही ईश्वरपना है। जिसमे ज्ञान प्रादि ऐश्वर्य है वह ईश्वर कहे जाने योग्य है और वह ईश्वरपना आत्मा का सहज स्वरूप है। जो स्वरूप कर्म के कारण मालूम नही होता, परन्तु उस कारण को अन्य स्वरूप जानकर जव प्रात्मा की ओर दृष्टि होती है, तभी अनुकर्म से सर्वशता प्रादि ऐश्वर्य उसी प्रात्मा-मे मालूम होता है । और इससे विशेष ऐश्वयंयुक्त कोई पदार्थ-कोई भी पदार्थ ईश्वर नही है इस प्रकार का निश्चय से मेरा अभिप्राय है।
(२) वह जगत का कर्ता नही है अर्थात् परमाणु आकाश आदि पदार्थ नित्य ही होने सभव है, वे किसी भी वस्तु मे से बनने सभव नहीं। कदाचित ऐसा माने कि वे ईश्वर मे से बने है तो यह बात भी योग्य मालूम नहीं होती, क्योकि यदि ईश्वर को चेतन मानें तो फिर उससे आकाश वगैरह फैसे उत्पन्न हो सकते है ? क्योकि चेतन से उड़ की उत्पत्ति कभी सभव ही नहीं होती। यदि ईश्वर को जड़ माना जाय तो वह सहज ही अनैश्वर्यवान ठहरता है तथा उससे जीवरूप चेतन पदार्थ की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती । यदि ईश्वर को जड और चेतन उभयरूप माने तो फिर जगत भी जड चेतन उभयरूप होना चाहिये । फिर तो यह उमका ही दूसरा नाम ईश्वर रखकर सतोष रखने जैसा होता है । तथा जगत का नाम ईश्वर रखकर सतोप रख लेने की अपेक्षा जगत को जगत कहना ही विशेष योग्य है । कदाचित परमाणु, आदि को नित्य मानें और ईश्वर को कर्म आदि के फल देने वाला माने, तो भी यह वात सिद्ध होती हुई नहीं मालूम होती। इस 'वपय पर षट्दर्शन समुच्चय मे श्रेष्ठ प्रमाण दिये है।
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प्रश्न ( ३ ) - मोक्ष क्या है ?
उत्तर- जिस क्रोध श्रादि श्रज्ञानाभाव में देह आदि मे आत्मा को प्रतिबन्ध है, उससे सर्वथा निवृत्ति होना -- मुक्ति होना- उसे ज्ञानियों ने मोक्ष पद कहा है । उसका थोडा मा विचार करने मे वह प्रमाणभूत मालूम होता है ।
प्रश्न ( ४ ) - मोक्ष मिलेगा या नही ? क्या यह इसी देह मे निश्चित रूप से जाना जा मकता है ?
उत्तर -- जैसे यदि एक रस्सी के बहुत से वन्धनों से हाथ वाघ दिया गया हो, और उनमे से क्रम-क्रम से ज्यो-ज्यों बन्धन खुलते जाते है त्यो त्यो उस वन्धन की निवृत्ति का अनुभव होता है, और वह रस्सी बलहीन होकर स्वतन्त्रभाव को प्राप्त होती है, ऐसा मालूम होता है, अनुभव में आता है, उसी तरह श्रात्मा को अज्ञानभाव के अनेक परिणाम रूप बन्धन का समागम लगा हुआ है, वह बन्धन ज्योज्यो छूटता जाता है, त्यो त्यो मोक्ष का अनुभव होता है । और जब उसको अत्यन्त अल्पता हो जाती है तब सहज ही श्रात्मा में निजभाव प्रकाणित होकर अज्ञानभावरूप बन्धन से छूट सकने का अवसर श्राता है, इस प्रकार स्पष्ट अनुभव होता है तथा सम्पूर्ण श्रात्माभाव समस्त अज्ञान आदि भाव से निवृत होकर इसी देह मे रहने पर भी आत्मा को प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्ध से केवल अपनी मिन्नता ही अनुभव में प्राती है, अर्थात् मोक्ष-पद इस देह में भी अनुभव मे थाने योग्य है ।
प्रश्न ( ५ ) – ऐसा पढ़ने मे आया है कि मनुष्य देह छोडने के बाद कर्म के अनुसार जानवरो मे जन्म लेता है; वह पत्थर और वृक्ष भी हो सकता है, क्या यह ठीक है ?
उत्तर - देह छोड़ने के बाद उपार्जित कर्म के अनुसार ही जीव की गति होती है, इससे वह तिर्य च ( जानवर ) भी होता है; और पृथ्वीकाय ग्रर्थात् पृथ्वीरूप शरीर भी धारण करता है और वाकी को दूसरी चार इन्द्रियो के विना भी जीव को कर्म के भोगने का प्रसंग आता है, परन्तु वह सर्वथा पत्थर अथवा पृथ्वी ही हो जाता है, यह वात नहीं है । वह पत्थर रूप काया धारण करता है और उसमे भी अव्यक्त भाव से जीब, जीवरूप से ही रहता है। वहां दूसरी चार इन्द्रियो का अव्यक्त (अप्रगट) पनाह होने से वह पृथ्वीकाय रूप जीव कहे जाने योग्य है । क्रम-क्रम से हो उस कर्म को भोग कर जीव निवृत्त होता है । उस समय केवल पत्थर का दल परमाणु रूप से रहता है, परन्तु उसमें जीव का मम्बन्ध चला भाता है, इसलिए उसे आहार आदि सजा नही होती । अर्थात् जीव सर्वथा जड़-पत्थर हो जाता है, यह बात नही है । कर्म की विपमता से चार इन्द्रियो का अव्यक्त समागम होकर केवल एक स्पर्ग हम इन्द्रिय रूप से जीव को जिस कर्म से देह का समागम होता है, उस कर्म के भोगते हुए वह पृथ्वी आदि में जन्म लेता है, परन्तु वह सर्वथा पृथ्वी रूप अथवा पत्थर रूप नही हो जाता, जानवर होते समय सर्वथा जानवर भी नही हो जाता। जो देह है वह जीव का बेपधारीपना है, स्वरूपपना नही है ।
प्रश्नोत्तर ( ६-७ ) -- इसमे छठे प्रश्न का भी समाधान आ गया है।
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इसमे सातवें प्रश्न का भी समाधान आ गया है, कि केवल पत्थर अथवा पृथ्वी किसी कर्म का कर्ता नही है । उनमे आकर उत्पन्न हुआ जीव ही कर्म का कर्ता है, और वह भी दूध और पानी की तरह है जैसे दूध और पानी का सयोग होने पर भी दूध दूध है और पानी पानी ही है, उसी तरह एकेन्द्रिय आदि कर्मबन्ध से जीव का पत्थरपना-जडपना-मालूम होता है, तो भी वह जीव अन्तर मे तो जीवरूप ही है, और वहा भी वह आहार, भय आदि सज्ञापूर्वक ही रहता है, जो अव्यक्त जैसी है।
प्रश्न ()-प्रार्यधर्म क्या है ? क्या सवकी उत्पत्ति वेद से ही हुई है ? ____उत्तर -(१) आर्यधर्म की व्याख्या करते हुए सबके सब अपने पक्ष को ही आर्यधर्म कहना चाहते हैं । जैन जैनधर्म को, बौद्ध बोरधर्म को, वेदान्ती वेदान्त धर्म को आर्यधर्म कहे, यह साधारण वात है । फिर भी ज्ञानी पुरुष तो जिससे प्रात्मा को निज स्वरूप की प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य (उत्तम) मार्ग है उसे ही आर्यधर्म कहते है, और ऐसा ही योग्य है।
(२) सबकी उत्पत्ति वेद मे से होना सम्भव नही हो सकता। वेद में जितना ज्ञान कहा गया है उससे हवारगुना पाशययुक्त ज्ञान श्री तीर्थङ्कर आदि महात्मामी ने कहा है, ऐसा मेरे अनुभव मे आता है, और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तु मे से सम्पूर्ण वस्तु उत्पन्न मही हो सकती। इस कारण वेद मे से सबको उत्पत्ति मानना योग्य नहीं है। हां, वैष्णव आदि सम्प्रदायो की उत्पत्ति उसके आश्रय से मानने मे कोई वाधा नहीं है । जैन-बौद्ध के अन्तिम महावीरादि महात्माओ के पूर्व वेद विद्यमान थे, ऐसा मालूम होता है। तथा वेद बहुत प्राचीन ग्रन्थ है, ऐसा भी मालूम होता है, परन्तु जो कुछ प्राचीन हो, वह सम्पूर्ण हो अथवा सत्य हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, तथा जो पीछे से उत्पन्न हो, वह सब सम्पूर्ण और असत्य हो ऐसा भी नही कहा जा सकता। बाकी तो वेद के समान अभिप्राय और जैन के समान अभिप्राय अनादि से चला आ रहा है। सर्वमाव अनादि ही है, मात्र उनका रूपान्तर हो जाता है, सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नहीं होता । वेद, जैन, और सबके अभिप्राय अनादि है ऐसा मानने मे कोई वाधा नहीं है, फिर उसमे किस बात का विवाद हो सकता है ? फिर भी इनमें विशेष बलवान सत्य अभिप्राय किसका मानना योग्य है, इसका हम तुम सबको विचार करना चाहिए।
प्रश्न (8)-वेद किसने बनाये ? क्या वे अनादि है। यदि वेद प्रनादि हो तो अनादि का क्या अर्थ है।
उत्तर -(१) वेदो की उत्पत्ति बहुत समय पहले हुई है।
(२) पुस्तक रूप से कोई भी शास्त्र अनादि नही, और उसमें कहे हुए अर्थ के अनुसार तो सभी शास्त्र अनादि हैं । क्योकि उस-उस प्रकार का अभिप्राय भिन्न-भिन्न जीव भिन्नभिन्न रूप से कहने पाये है, और ऐसा ही होना सम्भव है। क्रोध आदि भाव भी अनादि है। हिंसा आदि धर्म भी अनादि है और अहिंसा आदि धर्म भी अनादि है। केवल जीव को हितकारी किया है, इतना विचार करना ही कार्यकारी है। अनादि तो दोनो है, फिर कभी किसी का कम मात्रा मे बल होता है और कभी किसी का विशेष मात्रा में बल होता है।
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प्रश्न (१०)~-गीता किसने बनाई है ? वह ईश्वरकृत तो नही है ? यदि ईश्वरकृत हो तो उसका कोई प्रमाण है।
उत्तर ---ऊपर कहे हुए उत्तरो से इसका बहुत कुछ समाधान हो सकता है। अर्थात् 'ईश्वर' का अर्थ ज्ञानी (सम्पूर्ण ज्ञानी) करने से तो वह ईश्वरकृत हो सकती है, परन्तु नित्य, निष्क्रिय प्रकाश की तरह ईश्वर के व्यापक स्वीकार करने पर उस प्रकार की पुस्तक आदि की उत्पत्ति होना सम्भव नही । क्योकि वह तो साधारण कार्य है, जिसका कर्तृत्व प्रारम्भपूर्वक ही होता है-~अनादि नहीं होता।
गीता वेदव्यासजी की रची हुई पुस्तक मानी जाती है, और महात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार का बोध किया था, इसलिए मुख्यरूप से श्रीकृष्ण ही उसके कर्ता कहे जाते है, यह बात सम्भव है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है। उस तरह का प्राशय अनादि काल से चला आ रहा है, परन्तु वे ही श्लोक अनादि से चले आते हो, यह सम्भव नहीं है, तथा निष्क्रिय ईश्वर से उसकी उत्पत्ति होना भी सम्भव नहीं। वह क्रिया किसी सक्रिय अर्थात् देहधारी से ही होने योग्य है, इसलिए जो सम्पूर्ण ज्ञानी है वह ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदेश किए हुए शास्त्र ईश्वरीय शास्त्र है, यह मानने मे कोई वाधा नहीं है।
प्रश्न (११)-पशु आदि के यज्ञ करने से थोड़ा सा भी पुण्य होता है, क्या यह
सच है ?
उत्तर :-पशु के वध से, होम से अथवा उसे थोड़ा-सा भी दुख देने से पाप ही होता है। फिर उसे यज्ञ मे करो अथवा चाहे तो ईश्वर के धाम मे बैठकर करो परन्तु यज्ञ मे जो दान
आदि क्रियाएँ होती है, वे कुछ पुण्य की कारणभूत है। फिर भी हिंसा-मिश्रित होने से उनका भी अनुमोदन करना योग्य नहीं है ।
प्रश्न (१२)-जिस धर्म को श्राप उत्तम कहते हो, क्या उसका कोई प्रमाण दिया जा सकता है?
उत्तर -प्रमाण तो कोई दिया न जाय, और इस प्रकार प्रमाण के बिना ही यदि 'उसकी उत्तमता का प्रतिपादन किया जाय तो फिर तो अर्थ-अनर्थ, धर्म-अधर्म सभी को उत्तम कहा जाना चाहिए। परन्तु प्रमाण से ही उत्तम-अनुत्तम की पहचान होती है । जो धर्म ससार के क्षय करने में सबसे उत्तम हो और निज स्वभाव में स्थित कराने मे बलवान हो, वही धर्म उत्तम और वही धर्म बलवान है।
प्रश्न (१३) क्या आप लिस्टीधर्म के विषय मे कुछ जानते है ? यदि जानते है तो क्या आप अपने विचार प्रगट करेंगे?
उत्तर-निस्टीधर्म के विपयो मे साधारण ही जानता हूँ । भरत खण्ड के महात्मानी ने जिस तरह के धर्म की शोध की है, विचार किया है, उस तरह के धर्म का किसी दूसरे देश के द्वारा विचार नहीं किया गया, यह तो थोडे से अभ्यास से ही समझ मे पा सकता है। उसमे (विस्टीधर्म) जीव की सदा परवशता कही गई है, और वह दशा मोक्ष मे भी इसी तरह की मानी गई है, जिसमे ३४]
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जीव के अनादि स्वरूप का तथा योग्य विवेचन नहीं है, जिसमे कर्मवन्ध की व्यवस्था और उसकी निवृत्ति भी जैसी चाहिए वैसी नही कही, उस धर्म का मेरे अभिप्राय के अनुसार सर्वोत्तम धर्म होना सम्भव नहीं है । खिस्ती धर्म मे जैसा मैंने ऊपर कहा, उस प्रकार जैसा चाहिए वैसा समाधान देखने में नहीं आता। इस वाक्य को मैने मतभेद के वश होकर नही लिखा अधिक पूछने योग्य मालूम हो तो पूछना-तब विशेष समाधान हो सकेगा।
प्रश्न (१४)-वे लोग ऐसा कहते है कि वाइवल ईश्वर-प्रेरित है। ईसा ईश्वर का अवतार है-वह उसका पुत्र है और था।
उत्तर -यह बात तो श्रद्धा से ही मान्य हो सकती है, परन्तु यह प्रमाण से सिद्ध नही होती। जो बात गीत और वेद के ईश्वर कर्तृत्व के विषय मे लिखी है, वही बात बाइबल के सम्बन्ध मे भी समझना चाहिए। जो जन्म-मरण से मुक्त हो, वह ईश्वर अवतार ले, यह सम्भव नही है । क्योकि राग-द्वेष आदि परिणाम ही जन्म के हेतु है, ये जिसके नही है, ऐसा ईश्वर का अवतार धारण करे, यह बात विचारने से यथार्थ नही मालूम होती। 'वह ईश्वर का पुत्र है और था' इस वात को भी यदि किसी रूपक के तौर पर विचार करे तो ही यह कदाचित ठीक बैठ सकती है, नही तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण से वाषित है। मुक्त ईश्वर के पुत्र हो, यह किस तरह माना जा सकता है और यदि मानें भी तो उसकी उत्पत्ति किस प्रकार स्वीकर कर सकते है? और यदि दोनो को अनादि मानें तो उनका पिता-पुत्र सम्बन्ध किस तरह ठीक वैठ सकता है ? इत्यादि वात विचारणीय है जिनके विचार करने से मुझे ऐसा लगता है कि वह वात यथायोग्य नही मालूम हो सकती।
प्रश्न (१५)-पुराने करार मे जो भविष्य कहा गया है, क्या वह ईसा के विषय मे ठीक-ठीक उतरा है।
उत्तर-यदि ऐसा हो तो भी उससे उन दोनो शास्त्री के विषय में विचार करना योग्य है तथा इस प्रकार का भविष्य भी ईसा को ईश्वरावतार कहने मे प्रवल प्रमाण नहीं है, क्योकि ज्योतिष आदि से भी महात्मा की उत्पत्ति जानी जा सकती हूँ। अथवा भले ही किसी ज्ञान से वह वात कही हो, परन्तु वह भविष्यवेत्ता सम्पूर्ण मोक्ष-मार्ग का जानने वाला था यह बात जब तक ठीक-ठीक प्रमाणभूत न हो, तव तक वह भविष्य वगैरह केवल एक श्रद्धा-पाह्य प्रमाण ही है, और वह दूसरे प्रमाणो से वाधित न हो, यह बुद्धि मे नही पा सकता।
प्रश्न (१६)-इस प्रश्न मे 'ईसामसीह के चमत्कार के विषय मे लिखा है ।
उत्तर -जो जीव काया मे से सर्वथा निकलकर चला गया है, उसी जीव को यदि उसी काया मे दाखिल किया गया हो अथवा यदि दूसरे जीव को उसी काया में दाखिल किया गया हो तो यह होना सम्भव नही है, और यदि ऐसा हो तो फिर कर्म आदि की व्यवस्था भी निष्फल ही हो जाय । बाकी योग आदि की सिद्धि से बहुत से चमत्कार उत्पन्न होते हैं। और उस प्रकार के बहुत से चमत्कार ईसा के हुए हो सो यह सर्वथा मिथ्या है, अथवा असम्भव है ऐसा
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। नहीं कह सकते। उस तरह सिद्धियाँ आत्मा के ऐश्वयं के सामने अल्प हैं--प्रात्मा के ऐश्वर्य को । महत्व इससे अनतगुना है । इसके विषय मे समागम होने पर पूछना योग्य है।
प्रश्न (१७)-आगे चलकर कौन मा जन्म होगा, क्या इस बात की इस जन्म में खबर पड़ सकती है ? अथवा पूर्व मे कौन म प था इसकी कुछ खबर पड सकती है ?
उत्तर :-हा, यह हो सकता है, जिसे निर्मल ज्ञान हो गया हो उसे वैसा होना सम्भव है। जैसे बादल इत्यादि के चिन्हो के ऊपर से बरसात का अनुमान होता है, वैसे ही इस जीव की इस भव की चेष्टा के ऊपर से उसके पूर्व कारण कैसे होने चाहिएं, यह भी समझ मे पा सकता है-चाहे थोडे ही अशो से समझ मे आये। इसी तरह वह चेष्टा भविष्य में किस परिमाण को प्राप्त करेगी, यह भी उसके स्वरूप के ऊपर से जाना जा सकता है, और उसके विशेष विचार करने पर भविष्य मे किस भव का होना सम्भव है, तथा पूर्व मे कौन सा भव था, यह भी अच्छी तरह विचार में आ सकता है।
प्रश्न (१८)-दूसरे भव की खबर किसे पड़ सकती है? उत्तर.-इस प्रश्न का उत्तर ऊपर आ चुका है।
प्रश्न (१९)-जिन मोक्ष-प्राप्त पुरुषो के नाम का पाप उल्लेख करते हो, वह किस - आधार से करने हो?
उत्तर ---इस प्रश्न को यदि मुझे खास तौर पर लक्ष्य करके पूछते हो तो उसके उत्तर मे यह कहा जा सकता है कि जिसकी ससार दशा अत्यन्त परिक्षीण हो गई है, उसके वचन इस प्रकार के सम्भव है, उसकी चेष्टा इस प्रकार की सम्भव है इत्यादि प्रश से भी अपनी आत्मा में
जो अनुभव हुआ हो, उसके आधार से उन्हे मोक्ष हुमा कहा जा सकता है , प्राय करके वह , यथार्थ ही होता है। ऐसा मानने मे जो प्रमाण है वे भी शास्त्र आदि से जाने जा सकते है ।
प्रश्न (२०)-बुद्धदेव ने भी मोक्ष नही पाई, यह माप किस आधार से कहते हो ?
उत्तर.-उनके शास्त्र-सिद्धान्तो के माधार से। जिस तरह से उनके शास्त्र-सिद्धान्त है, यदि उसी तरह उनका अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पूर्वापर विरुद्ध भी दिखाई देता है, और वह सम्पूर्ण ज्ञान का लक्षण नही है ।
जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान नही होता वहा सम्पूर्ण राग-द्वेष का नाश होना सम्भव नही । जहा वैसा हो वहा ससार को होना सम्भव है । इसलिए उन्हे सम्पूर्ण मोक्ष मिली हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता । और उनके कहे हुए शास्त्रो मे जो अभिप्राय है उसको छोड़कर उसका कुछ दूसरा ही अभिप्राय था, उसे दूसरे प्रकार से तुम्हे और हमें जानना कठिन पडता है, और फिर भी यदि कहे कि वुद्धदेव का अभिप्राय कुछ दूसरा ही था तो उसे कारणपूर्वक कहने से वह प्रमाणभूत न समझा खाय, यह बात नहीं है।
प्रश्न (२१)-दुनिया की अन्तिम स्थिति क्या होगी?
उत्तर -सब जीवो को सर्वथा मोक्ष हो जाय, अथवा इस दुनिया का सर्वथा नाश ही ३४६ ]
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हो जाये, ऐसा होना मुझे प्रमाणभूत नहीं मालूम होता। इसी तरह के प्रवाह मे उसकी स्थिति रहती है। कोई भाव रूपान्तरित होकर क्षीण हो जाता है, तो कोई वर्षमान होता है, वह एक क्षेत्र मे वढता है, तो दूसरे क्षेत्र मे घट जाता है, इत्यादि रूप से इस सृष्टि की स्थिति है। इसके ऊपर से और बहुत ही गहरे विचार मे उतरने के पश्चात् ऐसा कहना सम्भव है कि यह सृष्टि सर्वथा नाश हो जाय, अथवा इसकी प्रलय हो जाय, यह कहना सम्भव नहीं । सृष्टि का अर्थ एक इसी पृथ्वी को नही समझना चाहिए।
प्रश्न (२२)-इस अनीति में से सुनीति उद्भूत होगी, क्या यह ठीक है ?
उत्तर:-इस प्रश्न का उत्तर सुनकर जो जीव अनीति की इच्छा करता है, उसके लिए इस उत्तर को उपयोगी होने देना योग्य नही। नीति-अनीति सर्वभाव अनादि हैं। फिर भी हम-तुम अनीति का त्याग करके यदि नीति को स्वीकार करे, तो इसे स्वीकार किया जा सकता है, और यही आत्मा का कर्तव्य है। और सब जीवो की अपेक्षा अनीति दूर करके नीति का स्थापन किया जाय, यह वचन नहीं कहा जा सकता; क्योकि एकान्त से उस ' कार की स्थिति का हो सकना सम्भव नही।
प्रश्न (२३)-क्या दुनिया की प्रलय होती है ?
उत्तर:-प्रलय का अर्थ यदि सर्वथा नाश होना किया जाय तो यह वात ठीक नहीं। क्योकि पदार्थ का सर्वथा नाश हो जाना सम्भव नहीं है। यदि प्रलय का अर्थ सब पदार्थों का ईश्वर आदि मे लीन होना किया जाय तो किसी भभिप्राय से यह गत स्वीकृत हो सकती है, परन्तु मुझे यह सम्भव नही लगती । क्योकि सव पदार्थ सव जीव इस प्रकार समपरिणाम को किस तरह प्राप्त कर सकते है, जिससे इस प्रकार का सयोग बने ? और यदि उस प्रकार के परिणाम का प्रसग आये भी तो फिर विपमता नहीं हो सकती।
यदि अव्यक्त रूप से जीवन में विपमता और व्यक्त रूप से समता के होने को प्रलय स्वीकार करे तो भी देह मादि सम्बन्ध के बिना विषमता किस आधार से रह सकती है यदि देह प्रावि का सम्बन्ध माने तो सबको एकेन्द्रियपना मानने का प्रसग भाये, और वसा मानने से तो विना कारण ही दूसरी गतियो का निषेध मानना चाहिए-अर्थात् कची गति के जीव को यदि उस प्रकार के परिणाम का प्रसग दूर होने आया हो तो उसके प्राप्त होने का प्रसग उपस्थित हो, इत्यादि बहुत से विचार उठते है। अतएव सर्व जीवो की अपेक्षा प्रलय होना । सम्भव नहीं है।
प्रश्न (२४) अनपढ को भक्ति करने से मोक्ष मिलती है, क्या यह सच है ?
उत्तर.-भक्ति ज्ञान का हेतु है। ज्ञान भोक्ष का हेतु है। जिसे अक्षरज्ञान न हो यदि उसे अनपढ कहा हो तो उसे भक्ति प्राप्त होना असम्भव है, यह कोई बात नहीं है। प्रत्येक जीव ज्ञानस्वभाव से युक्त है। भक्ति के बल से ज्ञान निर्मल होता है। सम्पूर्ण ज्ञान की प्रावृत्ति
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हुए विना सर्वथा मोक्ष हो जत्य, ऐसा मुझे मालूम नहीं होता, और जहाँ सम्पूर्ण जान है वहाँ सर्व भापा-ज्ञान समा जाता है, यह कहने की भी आवश्यकता नहीं। भाषाज्ञान मोक्ष का हेतु है? , तथा वह जिसे न हो उसे वाकी दूसरी उपासना सर्वथा मोक्ष का हेतु नही है-वह उसके साधन का ही हेतु होती है । वह भी निश्चय से हो ही, ऐसा नही कहा जा सकता।
प्रश्न (२५)-ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कौन थे ?
उत्तर:-सृष्टि के हेतु रूप तीनो गुणों को मानकर उनके आश्रम से उनका यह रूप बताया हो, तो यह वात ठीक बैठ सकती है, तथा उस प्रकार के दूसरे कारणो से उन ब्रह्मा आदि का स्वरूप समझ मे आता है परन्तु पुराणो में जिस प्रकार से उनका स्वरूप कहा है, वह स्वरूप उसी प्रकार से है, ऐसा मानने मे मेरा विशेप झुकाव नहीं है । क्योकि उनमे बहुत से रूपक उपदेश के लिए कहे हो, ऐसी भी मालूम होता है। फिर भी उसमे उनका उपदेश के रूप में लाभ लेना, और ब्रह्मा आदि के स्वरूप का सिद्धान्त करने की जजाल मे न पड़ना, यही मुझे ठीक लगता है।
प्रश्न (२६)-यदि मुझे सर्प काटने आवे तो उस समय मुझे उसे काटने देना चाहिए या उसे मार डालना चाहिए ? यहाँ ऐसा मान लेते हैं कि उसे किसी दूसरी तरह हटाने की मुझमें शाक्ति नहीं है ?
उत्तर -सर्प को तुम्हें काटने देना चाहिए, यह काम बताने के पहले तो कुछ सोचना पड़ता है, फिर भी यदि तुमने यह जान लिया हो कि देह अनित्य है, तो फिर इस आसारभूत देह की रक्षा के लिए, जिसकी उसमे प्रीति है, ऐसे सर्प को मारना तुम्हें कैसे योग्य हो सकता है ? जिसे आत्महित की चाहना है, उसे तो फिर अपनी देह को छोड देना ही योग्य है । कदाचित यदि किसी को प्रात्म-हित की इच्छा न हो तो उसे क्या करना चाहिए? तो इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि उसे नरक आदि मे परिभ्रमण करना चाहिए, अर्थात् सर्प को मार देना चाहिए। परन्तु ऐसा उपदेश हम कैसे कर सकते है ? यदि अनार्य-वृत्ति हो तो उसे मारने का उपदेश किया जाय, परन्तु वह तो हमें और तुम्हें स्वप्न में भी न हो, यही इच्छा करना योग्य है।
अब सक्षेप में इन उत्तरो को लिखकर पत्र समाप्त करता हूँ। पट्दर्शन समुच्चय के समझने का विशेप प्रयत्न करना । मेरे इन प्रश्नोत्तरो के लिखने के सकोच से तुम्हें इनका समझना विशेप पाकुलताजनक हो, ऐसा यदि जरा भी मालूम हो, तो भी विशेषता से विचार करना,
और यदि कुछ भी पत्र द्वारा पूछने योग्य मालूम दे तो यदि पूछोगे यो प्राय करके उसका उत्तर लिखूगा । विशेप समागम होने पर समाधान होना अधिक योग्य लगता है।
लिखित आत्मस्वरूप मे नित्य निष्ठा के हेतु भूत विचार की चिंता में रहने वाले रायचन्द का प्रणाम !
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वीर भूमि पंजाब
सरदार इन्द्रजीतसिंह 'तुलसी'
भारत भूमि वीरगर्भा है । देश की रक्षा के अवसर पर सभी प्रातो के नर-नारी एकदूसरे से भागे बढकर अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए आतुर रहते है । परन्तु भारत की तलवार पजाब मे कुछ अपनी विशेषताएं है । देश का सीमांत प्रदेश होने के कारण यहां के वीरपुरुषो ने समय-समय पर जो अपने जौहर दिखाए वह अन्य प्रातो के लिए ईर्ष्या की वस्तु है ।
पजाब प्रदेश के निवासी वीर, साहसी, पराक्रमी और तेजस्वी हैं। सेना में उनकी ही अधिक संख्या है | पंजाब केसरी लाला लाजपतराय, वीरो के सरदार भगतसिंह आदि नररत्नो को जन्म देने वाली यही वीर भूमि है । यहा की मिट्टी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि मनुष्य को कर्तव्यशील और साहसी बना देती है। देश के बंटवारा होने पर पजाव को अपरिमित हानि हुई, परन्तु साहसी पंजाबियो ने उसकी रचमात्र भी परवा न करके नए सिरे से पजाब का निर्माण कर ढाला । स्व० प्रधानमन्त्री प० जवाहरलालजी इस बात के लिए पंजाब की वडी प्रशसा करते थे जो वास्तव मे उचित ही थी। दिल्ली मे कई प्रख्यात जैन परिवार पजाव के हैं जिन्होने अपने उद्यम, साहस और परिश्रम के बल पर धन के अजंन तथा सामाजिक और देशसम्बन्धी सेवा-कार्यों मे अच्छी ख्याति प्राप्त की है। लाला तनसुखराय जी भी पजाव (रोहतक) जिले से आकर दिल्ली में बसे थे। उन्होने अपने कार्यों से देश और समाज को प्रशसनीय सेवा की । वीर भूमि पजाब के सम्बन्ध मे सरदार इन्द्रजीतसिंह तुलसी की एक कविता और एक पत्र प्रस्तुत करते है जो पजावियो के भावो को दर्शाने के लिए अलम है ।
पंजाब
जद जद बुलाया देश ने, पजाव अग्गे आ गया, सब तो जियादा खून ते धन दी आहुती पा गया। दित्ता सुहागन कत हैं, मावा ने दित्ता पुत्त है । हर इक्क हिन्दी वास्ते, आई शहीदी रुत है । इक इक बहादुर फौजदा, इक इक हिमालय वन गया, मरवा होया होशियार सिंह, गौदा है जन गन मन गया । निक्का जया सूवा किसे, मगया सी हिन्दी जबा दे शोर ने, डगिया सी सूबे ते हिन्दी वालेयो, पूरा होया नेफा तो अज लद्दाख तक, पंजाब
मन्नू याद है ।
मैन्नू याद है ।
हुने स्वाद है ।
ही पजाब है ।
एक स्त्री का पति अगले मोर्चा की बर्फानी ऊंचाइयो मे दुश्मन का मुकाबला करते हुए शहीद हो गया । उसको पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार प्रतापसिंह कैरो ने पत्र लिखा --"मेरी लाड़ली, तू तो मेरी अपनी ही बच्ची है। तेरी जो कीमती चीज खो गई है, उनके नुकसान ने मेरी कमर
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भी तोड दी है । लेकिन विटिया, प्यारी चीजें सबको हमेशा प्यारी लगती हैं। तुम्हारा सरदार तुम्हे ही नही, सारे देश को प्यारा था, वाहेगुरु को प्यारा था, इसलिए वाहगुरु को प्यारा हो गया। उसने वीरता के वे जौहर दिखाये हैं कि फरिश्ते भी उसकी नामर्दी पर ईष्यालु हो उठते । चीजें टूटने-फूटने के वास्ते ही वनी हैं । लेकिन तुम्हारी चीन इसलिए टूटी है कि देग न टूटे । तुम्हारी एक माग के सिन्दूर की जगह तुम्हारे दूल्हे ने देश की करोडो मुहागिनों की मांग मे सिन्दूर भर दिया है । तेरा बच्चा मारे देश का प्यारा बच्चा है । तेरा दुःख नारे देश का दु.ख है। हौसला कर मेरी वच्चीहौसलाकर, और अपने वहादुर पति की आत्मा को प्रणाम करके वेगक कहदे कि वह विश्वास रखे कि उसकी इज्जत और आबरू की तरफ जिस किसी ने भी प्रान्त उठाकर देखा तो मैं, तेरा वापू रस कमीने की आँखें फोड़ दूंगा।"
इस सदेश का जादू का प्रभाव उस नारी पर हुआ । उसने आंमुग्री को पोछकर विखरे वालो को चेहरे पर से हटाया और तनकर बैठ गई है। उसने अपने बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर कहा-मेरा भी एक सदेश मेरे स्नेहमयी पिता तक पहुंचा दीजिये
"मैं इसलिए नहीं रो रही हूँ कि जाने वाला श्यो गया? वह तो अमर हो गया। लेकिन दुःख तो इस बात का है कि मेरे मासूम बच्चे करनलसिंह की अगूरी भी नहीं फूटी। कब यह जवान होगा और कव दुग्मनो मे बदला चुका सकेगा ! मेरे आँसू तो यही वरदान मांग रहे हैं कि जल्दी बड़ा होकर मेरा करनैलसिंह भी फौज का करनैल वने।"
युद्ध में जाते हुए वीर माता का सदेश-"मेरे बेटे, तुम युद्ध भूमि की ओर बले हो, दुश्मन पर विजय प्राप्त करके ही लौटना । मर जाना लेकिन मेरा दूध हराम न करना । मैं तुम्हे विजयी देखना चाहती हूं।"
"ऐ मेरे देश के सिपाहियो । भगवान तुम्हारी ग्मा करे । मुझे यह पता नहीं कि तुम किस कोख के जाए हो लेकिन यह अवष्य जानता हूँ कि वीरता, पौरुष, दिलेरी और देश-प्रेम के साथ-साथ इन्सानियत, सहृदयता, उदारता, भक्ति और भक्ति के गुण तुम्हारे रक्त में मौजूद है। तुम्हारे रक्त के मिंचन ने बर्फ में भाग के फूल खिला दिए है । जहाँ नग्न वृक्षो का शरीर छिरठिठुर कर जम जाता हूँ वहां तुम अग्नि-स्तम्भ बनकर खड़े हो।"
हिन्द का जवाहर
महात्मा गांधी पंडित जवाहरलाल हर तरह मुयोग्य हैं । उन्होंने वर्षों तक अनन्य योग्यता और निप्पा के साथ महासभा (कांग्रेस) के मंत्री का काम किया है। अपनी बहादुरी, दृढ़ संकल्प, निष्ठा, सरलता, सच्चाई और धैर्य सपर्क में आये हैं । यूरोपीय राजनीति का जो मूक्ष्म परिचय उन्हें है, उससे उन्हें स्वदेश की राजनीति को समझने और निर्माण करने में बड़ी सहायता मिलेगी।
जिन्हें यह पता है कि जवाहरलाल का और मेरा मम्बन्य है, वे यह भी जानते हैं कि वह सभापति हुए तो क्या और मैं हुआ तो क्या ! विचार या बुद्धि के लिहाज मे हममै मतभेद ३५० ]
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भले ही हो, हमारे दिल तो एक है । दूसरे, योवन-सुलभ उग्रता के रहते हुए भी, अपने कडे अनुशासन और एकनिष्ठादि गुणो के कारण वह एक ऐसे अद्वितीय सखा है, जिनमे पूरा-पूरा विश्वास किया जा सकता है।
जहाँ उनमे एक योद्धा के समान साहस और चपलता है, वहां एक राजनीति की मी बुद्धिमता तथा दूरदेशी भी है। अनुशासन के वह पूरे भक्त हैं और ऐसे समय भी, जबकि अनुशासन मे रहना अपमान-सा प्रतीत होता था, उन्होने उसका कठोरता के साथ पालन करके बताया है । इसमे शक नही कि अपने आस-पास वालो के मुकावले वह बहुत ज्यादा अतिवादी और गर्म दल के है, लेकिन साथ ही वह नम्र और व्यवहार कुशल इतने है कि किसी बात पर इतना अधिक जोर नही देते कि वह अमान्य हो जाय । जवाहरलाल स्फटिक के समान शुद्ध हैं। उनकी सच्चाई के सम्बन्ध में तो शका की गु जाइश ही नही । वह एक निडर और निष्कलक निर्दोष सरदार है । राष्ट्र उनके हाथो सुरक्षित हैं।
भारत मे नवयुवको की कमी नही है, लेकिन जवाहरलाल के मुकाबले मे खड़े होने वाले किसी नौजवान को मैं नही जानता । इतना मेरे दिल मे उनके लिए प्रेम है, या कहिये कि मोह है। लेकिन यह प्रेम या मोह उनकी शक्ति के अनुसार स्थापित है और इसलिए मैं कहता हू कि जब तक उनके हाथ मे लगाम है, हम अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर ले तो कितना अच्छा हो ।
जवाहरलाल हिन्द का जवाहर सिद्ध हुआ है । उनके व्याख्यान मे उच्चतम विचार, मधुर और नम्र भाषा मे प्रकट हुए है । अनेक विपयो का प्रतिपादन होने पर भी व्याख्यान छोटा है । आत्मा का तेज प्रत्येक वाक्य से झलकता है। कई लोगो के दिल मे जो भय था, भाषण के बाद वह सव मिट गया । जैसा उनका व्यख्यान था, वैसा ही उनका आचरण भी था। कांग्रेस के दिनो मे उन्होने अपना सारा काम स्वतन्त्रता और सपूर्ण न्याय बुद्धि से किया और अपना काम सतत उद्यम से करते रहने के कारण सब कुछ ठीक समय पर निर्विघ्नता के साथ पूर्ण हुआ ।
ऐसे वीर और पुण्य नवयुवक के सभापतित्व मे यदि हम कुछ न कर पायेंगे तो मुझे वडा प्राश्चर्य होगा । परन्तु यदि सेना ही नालायक हो तो वीर नायक भी कर क्या सकता है ? इसलिए हमे आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। क्या हम जवाहरलाल के नेतृत्व के लिए योग्य है ? यदि है तो परिणाम शुभ ही होगे ।
पण्डित नेहरू ने अपने देश और उसकी वेदी पर अपने जीवन की समस्त अभिलापामो तथा ममता का बलिदान किया है। सबसे बड़ी विशेषता की बात यह है कि उन्होंने किसी दूसरे देश की सहायता से मिलनेवाली अपने देश की आजादी को कभी सम्मानपूर्ण नही समझा । हमे अलग करने के लिए केवल मतभेद ही काफी नही है। हम जिस क्षण से सहकर्मी : बने है, उसी क्षण से हमारे बीच मे मतभेद रहा है, लेकिन फिर भी मै वर्षों से कहता रहा हूँ और अव भी कहता हूँ कि जवाहरलाल मेरा उत्तराधिकारी होगा ।..... वह कहता हूँ कि मेरी भाषा उसकी समझ मे नही भाती । वह यह भी कहता है कि उसकी भाषा मेरे लिए अपरिचित हैं । यह सही हो या न हो, किन्तु हृदयो की एकता मे भाषा वाघक नही होती ।
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और मैं जानना हूँ कि जब मै चला जाऊगा, जवाहरलाल मेरी ही भाषा से बात
करेगा।
आपके असली बादशाह जवाहरलाल है। वह ऐसे बादशाह है, जो हिन्दुस्तान को तो अपनी सेवा देना चाहते ही है, पर उसके मार्फत सारी दुनिया को अपनी सेवा देना चाहते है। उन्होने सभी देशो के लोगो से परिचय किया है।
जवाहर तो किसी से भी धोखा करने वाले नही है। जैसा उनका नाम है वैसा उनका गुण है।
वह आसानी से पिता, भाई, लेखक, यात्री, देशभक्त, या अतर्राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रकाशमान है, तो भी पाठको के सामने इन लेखो में से उनका जो रूप उभरेगा वह अपने देश और उसको स्वतन्त्रता के, जिसकी वेदी पर उन्होने अपनी दूसरी सभी कामनामो का बलिदान कर दिया है, निष्ठावान भक्त का रूप होगा। यह श्रेय उन्हे मिलना ही चाहिए कि वह किसी अन्य देश की सहायता की कीमत पर अपने देश की आजादी प्राप्त करना शान के खिलाफ समझेंगे। उनकी राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता-जैसी है। ऋतुराज के प्रतीक
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर नये भारत के सिंहासन पर बैठने का अधिकार निस्सदेह जवाहरलाल को है । जवाहरलाल की शानदार भूमिका है, उनका सकल्प अडिग है । और उनके साहस को रोकने की क्षमता किसी में नहीं है। उन्हे शिखर पर पहुंचाने का काम सत्य के प्रति अटूट निष्ठा और उनके वैद्धिक चरित्र ने किया है । जवाहरलाल ने पवित्रता का मापदण्ड उस राजनैतिक उथल-पुथल के बीच कायम रखा है. जहा प्रवचना, मात्मप्रवचना अक्सर चारित्रिक शुद्धता को नष्ट कर देती है। सत्य को भगीकार करने में खतरा होने पर भी जवाहरलाल कमी सत्य से विमुख नही हुए और न सुविधाजनक होने के कारण कभी भी असत्य से रिश्ता जोडा। छल-प्रपचपूर्ण कूटनीति से मिलने वाली निकृष्ट और सुगम सफलता से जवाहरलाल का प्रबुद्ध मस्तिष्क हमेशा स्पष्ट रूप से अलग रहा है। नीयत की यह पवित्रता और सत्य के प्रति अटूट लगन ही जवाहरलाल की सबसे बड़ी देन है।
__ जवाहरलाल हमारा ऋतुराज है, जो प्रतीक है यौवन के पुनरागमन का और विजयपूर्ण उल्लास का । वह प्रतीक है बुराई के विरुद्ध संघर्ष का और स्वतन्त्रता के लिए ऐसी निष्ठा का, जो किसी प्रकार का समझौता करना नहीं जानती।
सबके लाडले
-वल्लभभाई पटेल जवाहरलाल और मैं साथ-साथ काग्रेस के सदस्य, माजादी के सिपाही, कांग्रेस की कार्यकारिणी और अन्य समितियों के सहकर्मी, महात्माजी के, जो हमारे दुर्भाग्य से हमे जटिल समस्याओ के साथ जूझने को छोड गये है, अनुयायी और इस विशाल देश के शासन-प्रबन्ध के गुरुतर भार के वाहक रहे है । इतने विभिन्न प्रकार के कर्मक्षेत्रो मे साथ रह कर और एक-दूसरे ३५२]
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को जानकर हममे परस्पर स्नेह होना स्वाभाविक था। काल की गति के साथ वह स्नेह बढता गया है और आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि जब हम अलग होते है और अपनी समस्याप्रो और कठिनाइयो का हल निकालने के लिए उन पर मिल कर विचार नही कर सकते तो यह दूरी हमे कितनी खलती है। परिचय की इस घनिष्ठता, पात्मीयता और भ्रातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है कि सर्व-साधारण के लिए उसकी समीक्षा उपस्थित कर सक । पर देश के आदर्श, जनता के नेता, राष्ट्र के प्रधान मत्री और सबके लाडले जवाहरलाल को, जिनके महान् कृतित्व का भव्य इतिहास सबके सामने खुली पोथी-सा है, मेरे भनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं है।
दृढ और निष्कपट योढा की भाति उन्होने विदेशी शासन से अनवरत युद्ध किया। युक्त-प्रान्त के किसान-आन्दोलन के संगठनकर्ता के रूप में पहली 'दीक्षा' पाकर वह अहिंसात्मक युद्ध की कला और विज्ञान में पूरे निष्णात हो गये । उनकी भावनामो की तीव्रता और अन्याय या उत्पीडिन के प्रति उनके विरोव ने शीघ्र ही उन्हे गरीबी पर जिहाद बोलने को बाध्य कर दिया। दीन के प्रति सहज सहानुभूति के साथ उन्होने निधन किसान की अवस्था सुधारने के आन्दोलन की आग मे अपने को रोक दिया । क्रमश उनका कार्यक्षेत्र विस्तीर्ण होता गया और शीघ्र ही वह उसके विशाल सगठनकर्ता हो गए, जिसे अपने स्वाधीनता युद्ध का साधन बनाने के लिए हम सब समर्पित थे । जवाहरलाल के ज्वलन्त आदर्शवाद, जीवन मे कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, दूसरो को प्रेरणा और स्फूर्ति देने की अद्भुत आकर्षण-शक्ति और ससार के प्रमुख व्यक्तियो की सभा में भी विशिष्ट रूप से चमकने वाले व्यक्तित्व ने, एक राजनैतिक नेता के रूप में, उन्हे क्रमश उच्च से उच्चतर शिखरो पर पहुंचा दिया है। पत्नी की बीमारी के कारण की गई विदेश यात्रा ने भारतीय राष्ट्रवाद-सम्वन्धी उनकी भावनामो को एक प्राकाशीय अन्तर्राष्ट्रीय तल पर पहुंचा दिया । यह उनके जीवन और चरित्र के उम अन्तर्राष्ट्रीय झुकाव का प्रारम्भ था। जो अन्तर्राष्ट्रीय अथवा विश्व-समस्याओं के प्रति उनके रवैये मे स्पष्ट लक्षित होता है। उस समय से जवाहरलाल ने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा । भारत में भी और बाहर भी उनका महत्व बढता ही गया है । उनकी वैचारिक निष्ठा, उदार प्रवृत्ति, पनी, दृष्टि और भावनाओ की सच्चाई के प्रति देश और विदेशो की लाखो-लाख जनता ने श्रद्धाजलि अर्पित की है।
प्रतएव यह उचित ही था कि स्वातन्य की उपा से पहले के गहन अन्धकार में वह हमारी मार्ग-दर्शक ज्योति वनें, और स्वाधीनता मिलते ही जब भारत के आगे सकट-पर सकट मा रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हो और हमारी जनता का नेतृत्व करें। हमारे नये जीवन के पिछले कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है, उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नही जानता । मैने इस अवधि मे उन्हें अपने उच्च पद की चिन्तामओ और अपने गुरुतर उत्तरदायित्व के भार के कारण बडी तेजी के साथ बूढे होते देखा है। शरणार्थियो की सेवा में उन्होने कोई कसर नही उठा रखी और उनमे से कोई कदाचित ही उनके पास से निराश लौटा हो । राष्ट्र-सघ (कामनवेल्थ) की मन्त्रणाओं मे उन्होने उल्लेखनीय भाग लिया है और ससार के
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मच पर भी उनका कृतित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है किन्तु इस सब के बावजूद उनके चेहरे पर जवानी की पुरानी रौनक कायम है। और वह सन्तुलन, मर्यादा, ज्ञान, धैर्य और मिलनसारी, जो आन्तरिक सयम र वौद्धिक अनुशासन का परिचय देते है, श्रव भी ज्यो- के त्यो है । निस्सदेह उनका रोष कभी-कभी फूट पडता है, किन्तु उनका प्रधैर्य क्योकि न्याय और कार्य तत्परता के लिए होता है और अन्याय या धीगा धीगी को सहन नही करता, इसलिए ये विस्फोट प्रेरणा देने वाले ही होते हैं और मामलो को तेजी तथा परिश्रम के साथ सुलझाने मे मदद देते है । ये मानो सुरक्षित शक्ति है, जिनकी कुक से आलस्य, दीर्घसूत्रता और लगन या तत्परता की कमी पर विजय प्राप्त हो जाती है । आयु मे वडे होने के नाते मुझे कई बार उन्हे उन समस्याओ पर परामर्श देने का सोभाग्य प्राप्त हुआ है, जो शासन प्रबन्ध या सगठन क्षेत्र मे हम दोनो के सामने आती रही है । मैंने उन्हे सदैव सलाह लेने को तत्पर और मानने को राजी पाया है। कुछ स्वार्थ-प्रेरित लोगो ने हमारे विषय में भ्रान्तिया फैलाने का यत्न किया है और कुछ भोले व्यक्ति उन पर विश्वास भी कर लेते है, किन्तु वास्तव मे हम लोग याजीवन सहकारियो और बन्धुप्रो की भाति साथ काम करते रहे है । अवसर की माग के अनुसार हमने परस्पर एक-दूसरे के दृष्टिकोण के अनुसार अपने को वदला है और एक-दूसरे के मतामत का सर्वदा सम्मान किया है, जैसा कि गहरा विश्वास होने पर ही किया जा सकता है। उनके मनोभाव युवकोचित उत्साह से लेकर प्रौढ गम्भीरता तक बराबर बदलते रहते है । और उनमे वह मानसिक लचीलापन है, जो दूसरो को भेल भी लेता है और निरुत्तर भी कर देता है । क्रीडारत बच्चो मे और विचार सलग्न वूढो में जवाहरलाल समान भाव से भागी हो जाते है । यह लचीलापन और वहुमुखता ही उनके अजस्र यौवन का, उनकी अद्भुत स्फूर्ति और ताजगी का रहस्य है ।
उनके महान् और उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ इन थोडे से शब्दो में न्याय नही किया जा सकता । उनके चरित्र श्रीर कृतित्व का बहुमुखी प्रसार अकन से परे है। उनके विचारो मे कभी-कभी वह गहराई होती है, जिसका तल न मिले, किन्तु उनके नीचे सवंदा एक निर्मल पारदर्शी खरापन और यौवन की तेजस्विता रहती है और इन गुणो के कारण सर्वमान्य, जाति, धर्म, देश की सीमाएँ पार कर, उनसे स्नेह करती है ।
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नेहरूजी की राष्ट्र को सौंपी गई आखिरी वसीयत, जो उन्होने २१ जून १९५४ को fear थी और जिसको निधन के बाद ३ जून, १९६४ को प्रसारित किया गया ।
श्राखिरी वसीयत
मुझे, मेरे देश की जनता ने मेरे हिन्दुस्तानी भाइयो और बहनो ने इतना प्रेम और इतनी मुहब्बत दी है कि मैं चाहे जितना कुछ करूं, वह उसके एक छोटे से हिस्से का भी बदला नही हो सकता । सच तो यह है कि प्रेम इतनी कीमती चीज है कि इसके बदले कुछ देना मुमकिन नही । इस दुनिया मे बहुत से लोग है जिनको अच्छा समझकर, वडा मानकर पूजा गया, लेकिन भारत के लोगो ने छोटे और बडे, अमीर और गरीब सव तवको के वहिनो और भाइयो ने मुझे
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इतना ज्यादा प्यार किया जिसका वयान करना मेरे लिए मुश्किल है। और जिससे में दब गया । मैं आशा करता हूँ कि मैं अपने जीवन के वाकी वर्षो मे अपने देशवासियों की सेवा करता रहूंगा और उनके प्रेम के योग्य सावित होऊँगा ।
वेशुमार दोस्तो और साथियो के मेरे ऊपर और भी ज्यादा अहसान है । हम बडे-बडे कामो मे एक-दूसरे के साथ रहे, शरीक रहे, मिल-जुलकर काम किये। यह तो होता ही है कि जब बड़े काम किए जाते है उनमे कामयात्री भी होती है । नाकामयावी भी होती है। मगर हम सब शरीक रहे - कामयाबी की खुशी मे भी और नाकामयाबी के दुःख मे भी । मै चाहता हूँ धौर सच्चे दिल से चाहता हूँ, कि मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक रस्म अदा न की जाय। मैं ऐसी बातो को मानता नही हूँ। और सिर्फ रस्म समझकर उसमे बंघ जाना, घोके मे पडना मानता हूँ। मेरी इच्छा है कि जब मे मर जाऊं तो मेरा दाह सस्कार कर दिया जाए। अगर विदेश मे मरूं तो मेरे शरीर को वही जला दिया जाय, और मेरी अस्थियां इलाहाबाद भेज दी जाएं। उनमे से मुट्ठीभर गंगा मे डाल दी जाएं और उनके बड़े हिस्से के साथ क्या किया जाए, मै धागे बता रहा हू । उनका कुछ हिस्सा किसी हालत मे बचा न रखा जाय ।
गंगा मे अस्थियो का कुछ हिस्सा डलवाने के पीछे, जहां तक मेरा ताल्लुक है कोई धार्मिक ख्याल नही है । मुझे बचपन मे गंगा और जमुना से लगाव रहा है। श्रोर जैसे-जैसे मैं वडा हुआ, यह लगाव वढता ही गया। मैंने मौसमो के बदलने के साथ इनमे बदलते हुए रंग और रूप को देखा है । और कई बार मुझे याद आई उस इतिहास की, उन परम्पराओ की, पौराणिक गाथाओ की, उन गीतो और कहानियो की, जोकि कई युगो से उनके साथ जुड़ गई हैं और उनके बहते हुए पानी मे घुल-मिल गई है।
गगा तो विशेषकर भारत की नदी है । जनता को प्रिय है। जिससे लिपटी हुई है भारत की जातीय स्मृतियां, उसकी प्राशाएँ और उसके भय, उसके विजय गान, उसकी विजय और पराजय । गगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रतीक रही है । निधानी रही है। सदा बदलती सदा वहती फिर वही गंगा की गंगा । वह मुझे याद दिलाती है हिमालय की, बर्फ से ढकी चोटियो की और गहरी घाटियो की जिनसे मुझे मुहब्बत रही है। उनके नीचे उपजाऊ श्रीर दूर-दूर तक फैले मैदानो की जहाँ काम करते मेरी जिन्दगी गुजरी है । मैंने सुबह की रोदानी मे गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है । और देखा है शाम के साए में उदास काली-मी चादर ओढे हुए, भेद भरी जाडो मे सिमटी-सी आहिस्ते-आहिस्ते वहती सुन्दर धारा और वरमान
दौड़ती हुई समुद्र की तरह चोडा सोना लिए हुए, और सागर को वरवाद करने की शक्ति लिए हुए, यही गंगा मेरे लिए निशानी है। भारत की प्राचीनता की यादगार जो बहनी हुई वर्तमान तक और वहती चली जा रही है। भविष्य के महासागर की ओर ।
भले हो मैंने पुरानी परम्पराम्रो, रोति और रस्मो को छोड दिया है। और मै चाहना हूँ कि हिन्दुस्तान इन रीति श्रोर रस्मो को तोड़ दे जिनमे वह जकड़ा है। और उसको आगे बढ़ने से रोकती है । और देश मे रहने वालो मे फूट डालती हैं। जो बेशुमार लोगो को दबाये रमती है । और जो शरीर और ग्रात्मा के विकास को रोकती है।
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चाहे यह सब मैं चाहता हूँ। फिर भी मैं यह नहीं चाहता में अपने को इन पुरानी बातो से बिलकुल अलग कर लू । मुझे फल है इस शानदार उत्तराधिकार का-इस विरासत का जो हमारी रही है और हमारी है। और मुझे यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि मैं भी इन सबो की तरह इस जजीर की एक कड़ी हूँ । जोकि कभी नही और कही नही टूटी। और जिसका सिलसिला हिन्दुस्तान के अतीत के इतिहास के प्रारम्भ से चला आता है। यह सिलसिला मैं कभी नही तोड़ सकता क्योकि मै उसकी बेहद कद्र करता हूँ। और इससे मुझे प्रेरणा, हिम्मत, हौसला मिलता है । मेरी इस आकाक्षा की पुष्टि के लिए, भारत की संस्कृति को श्रद्धाजलि भेट करने के लिए मै यह दरख्वास्त करता हूँ कि मेरी भस्म की एक मुट्ठी इलाहाबाद के पास गगा मे डाल दी जाय जिससे कि वह महासागर में पहुंचे, जो हिन्दुस्तान को घेरे हुए है।
मेरे भस्म के बाकी हिस्से को क्या किया जाय ? मैं चाहता हूँ कि इसे हवाई जहाज में ऊचाई पर ले जाकर बिखेर दिया जाय, उन खेतो पर जहा भारत के किसान मेहनत करते है। ताकि वह भारत की मिट्टी में मिल जाय और उसी का अग बन जाय ।
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जयन्ती के जलूस का श्रेय
श्री आदीश्वरप्रसाद जैन M. A. मन्त्री त्री, जैनामिमण्डल
धर्मपुरा, दिल्ली। लाला तनसुखराय जी स्थानीय समाज के ही नही भारतीय जैन समाज मे एक आदर्श गौरव स्वरूप सफल कार्यकर्ता थे। सर्वप्रथम जैन मित्र-मण्डल की कमेटी ने जलूस निकालने का निश्चय किया तो लाला जी ने आगे आकर अपने तत्वावधान मे जलूस का नेतृत्व किया। यह कहते हुए बडा हर्ष होता है कि प्राज महावीर जयन्ती का जलूस जैन समाज के जलूसो मे एक आदर्श और महत्वपूर्ण है जिसका श्रेय लाला तनसुखराय जी को है। मैं उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
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धर्म और संस्कृति
णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, रामो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।
प्रथं --- अरहन्तो को नमस्कार हो, सिहो को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यों को नमस्कार हो और लोक के सब साबुनों को नमस्कार हो ।
पचणमोमारो,
मंगल है |
एसो
सव्य पावाचणासष्णो, मगलाणं च सव्र्वोति, पठमं होइ मंगलम |
यह नमस्कार मंत्र सब पापों का नाम करने वाला है और सब मंगलों में पता
जिन सासणत्य सारो, चउदस पुव्वाण जो समुद्धारो, जस्समणे नवकारो ससारे तस्य किं कुराई । एसो मगल निलो भर्यादिलो सगल सघ सुवणश्री. नवकार परममतो चिति, अमित सुह देई । नव कार प्रो अत्रो सारो, मंतो न अत्यि तिर लोए, तम्हाहू अरणदिण चिय, पठियब्वो परम भक्तीए । हरद्द दुह कुणइ सुह जणइ जर्म सोसए भवसमुख, इह लोय परलोइय सुहाण, मूल नमोक्कारो ।
यह णमोकार मंत्र जिन शासन का सार चतुर्दश पूर्वो का समुद्धार है। जिसके मन में यह णमोकार महामन्त्र है, ससार उसका कुछ भी नही विगाड़ सकता । यह मन्त्र मंगल का आगार, भय को दूर करने वाला, सम्पूर्ण चतुविव सव को सुख देने वाला और चिन्तन मात्र ते अपरिमित शुभफल को देने वाला है। तीनों लोकों में णमोकार मंत्र से बढ़कर कुछ सार नहीं है। इसलिए भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक णमोकार मंत्र को पढ़ना चाहिए। यह दुखों का नाश करने वाला, सुखो को देने वाला, यक्ष को उत्पन्न करने वाला और संसार रूपी समुद्र से पार करने वाला है। इस मन्त्र के समान इहलोक और परलोक मे अन्य कुछ भी सुखदायक नहीं है ।
मन्त्र ससार सारं, त्रिजगदनुपर्म सर्व पापारिमन्त्रं, ससारोच्छेद मन्त्र, विषम विपहरं कर्म निर्मूल मन्त्रम् । मन्त्र सिद्धि प्रदान शिव सुखजननं, केवल ज्ञान मन्त्रम्, मन्त्र श्री जैन मन्त्रं जप जप जपितं जन्मनिर्वारणमन्त्रन् । श्राकूप्ट सुर सम्पदां विदद्यते मुक्तिश्रियो कम्यतां, उच्चाट विपदां चतुर्गतिभुवां, विद्वेप मास्मैन सामु स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनं. पापात्पंच नमस्त्रिया क्षरमयी, सारावना देवता ।
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अपवित्र पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितो वो, ध्यायेत्पच नमस्कार सर्वपापै प्रमुच्यते । अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्था गतोऽपि वा, य' स्मरेत्परमात्मान, स वाह्याभ्यन्तरे शुचि . । अपराजित मन्त्रोऽय, सर्वविघ्न विनाशन, मङ्गलेषु च सर्वेपु, प्रथम मंगल मत. ॥५॥ विघ्नौघा प्रलय यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः, विषो निर्विषता याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥६॥ अन्यथा शरण नास्ति, त्वमेव शरण मम, तस्मात्कारुण्य भावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||७||
भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द
जैन को नास्तिक भाखे कौन ?
परम धरम जो दया अहिंसा सोई प्राचरत जीन ॥ सत कर्मन को फल नित मानत अति विवेक के भौन ॥ तिन के मतहि बिरुद्ध कहत जो महा मूढ है तोन ॥ सब पहुँचत एक हि थल चाही करो जोन पथ गौन । इन आँखिन सो तो सब ही थल सूझत गोपी रोन || कौन ठाम जह प्यारो नाही भूमि अनल जल पौन । 'हरीचद' ए मतवारे तुम रहत न क्यो गहि मौन ॥१॥
बात को मूरख की यह मानो । हाथी मारे तोहू नाही जिन मंदिर मे जानो । जग मे तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो । जहाँ लखो तह रूप तुम्हारो नैनन माहि समानो ॥ एक प्रेम है एकहि प्रन है हमरो एकहि बानो । 'हरीचद' तब जग मे जो भाव कहा प्रगटानी ||२|| ग्रहो तुम बहु विधि रूप धरो ।
जब जब जैसो काम पर तब तेसो भेख करो || कहु ईश्वर कहु बनत अनीश्वर नाम अनेक परो । सत पथहि प्रगटावन कारन ले सरूप विचारो ॥ जैन धरम मे प्रगट कियो तुम दया धर्म सगरो । 'हरीचद' तुमको विनु पाए लरि-लरि जगत मरो ॥३॥
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विभिन्न सम्प्रदायों में एक सूत्रता
प्रबुद्ध विचारक श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट
शुजालपुर म०प्र० "माननीय श्री सौभाग्यमलजी प्रसिद्ध देशभक्त, कुशल राजनीतिज, प्रबुद्ध विचारक, और उच्चकोटि के लेखक है। मध्यभारत विधान सभा के पाप अध्यक्ष रह चुके हैं। आपके हृदय मे इस बात से विशेष ठेस है कि जिस अनेकान्त शासन से विश्व के समस्त कार्य सचालित होते हैं जो अगत के विरोध को शान्त करता है। अपने गुणो के कारण भुवन का एकमात्र गुरु है। उसी शासन के मानने वाले सम्प्रदायवाद से सत्रस्त है। आज विश्व को अहिंसा की बडी आवश्यकता है । मै अपने मन में इस विश्वास को सजोए हुए हूँ कि समाज में कोई ऐमा महाभाग उत्पन्न हो, जो जनधर्म को इनकी परम्पराओ को एक सूत्र मे आवन कर सके जिससे समाज सगठित होकर शक्तिशाली रूप में अहिंसा का प्रचार कर सके। देश मे अहिंसात्मक विचारआचार की प्रतिष्ठा हो और देश पुन एक बार 'जिनो और जीने दो' का मन्त्र उद्घोष करते हुए आचार में उतार सके।" एक प्रसिद्ध जैनाचार्य ने कहा है कि :
जेणविणा विलोगस्स, ववहारो सम्वहान निब्बहई ।
तस्सभुवनेक-गुरूणो, णमो अणेगत वादरस्य ।। उक्त जैनाचार्य ने अनेकान्तवाद का महत्त्व सक्षिप्त में उपरोक्त गाया में स्पष्ट क्यिा है। वह वस्तुत सत्य है । अनेकान्तवाद के आधार पर पर सारे विश्व का कार्यभार चल रहा है। इसी अनेकान्तवाद को त्रिभुवन-गुरु होने की संज्ञा दी गई है। हमारे प्राचीन जैन शास्त्रो, ग्रथो मे अनेकान्तवाद के विचार बीज मे विद्यमान थे। प्राचीन आचार्यों ने उन बीज रूपी विचारो को लेकर विपुल साहित्य का सृजन किया अनेकान्तवाद वास्तव मे तीर्थकुरो की देन है। भगवान महावीर ने देश में विभिन्न विचारधारामो का प्रतिनिधित्व करने वाले-वाद-विद्यमान देखे तथा यह भी देखा कि उनमे से प्रत्येक के पास माणिक सत्य है, उनकी विचारशैली एकांगी है। यदि यह विचारक भनेकान्त-मार्ग का अवलम्बन करे तो उन्हें-सत्य-का साक्षात्कार हो सकता है। भगवान महावीर ने बडे कण्ट से यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार एकागी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति परस्पर वाद-विवाद करते हैं तथा धार्मिक असहिप्णुता के कारण प्रशान्ति उत्पन्न करते है। विभिन्न वादो के परस्पर सघर्ष ने केवल देश मे नही अपितु सारे ससार मे इस प्रकार का वातावरण निर्माण किया है। इस कारण कोई व्यक्ति अपने से विभिन्न विचारधारा के प्रति न्याय करना चाहता है तो उसे अनेकान्त विचार-पद्धति से काम लेना होगा। अनेकान्त विचार-पद्धति में वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का ध्यान रखा जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु के सम्बन्ध में कोई विश्लेपण करे तो वह वस्तु का समग्र चित्र नही हो सकता । यदि हम उसी वस्तु के विभिन्न पहलुओ को एकत्रित कर लें तो वस्तु का समय चित्र सन्मुख आ सकता है । अनेकान्त विचार पद्धति से उत्पन्न . उद्भुत दृष्टिकोण को जैनाचार्यों
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ने- स्याद्वाद-सज्ञा से अभिहित किया था। इस विचार-पद्धति को जिस भाषा मे व्यक्त किया जाता है-स्याद्वाद-है। कई जैनाचार्यों ने वर्गीकरण के लिए इसे सप्तभगी न्याय, सप्त नग आदि से विभाजित करने का प्रयत्न किया अपितु वास्तविकता यह है कि वस्तु जब अनन्त धर्मात्म कहे तो सत्य को भी वर्गीकरण के द्वारा सीमा में नहीं बांधा जा सकता। सत्य के लिए भौगोलिक अथवा अन्य कोई भी सीमा नही होती। अतएव मोटे रूप से जैनाचार्यों ने 'नय' को केवल दो भागो मे विभक्त किया १ निश्चय नय २ व्यवहार नय-किन्तु विशालता की दृष्टि से नय की सख्या भी उतनी ही है कि जितनी विचार-पद्धति की।
वास्तव मे उपरोक्त दृष्टिकोण से विचार करने पर सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकेगा कि सत्य का इजारा किसी मत, पन्थ या वाद के पास नहीं हो सकता। विभिन्न मतो, पन्थो, वादो को समत्व की दृष्टि से विचारा जावे तो उनमें एकता परिलक्षित होगी। विश्व मे धार्मिक असहिष्णुता का नाम शेष करने के लिए-समन्वय-की आवश्यकता हैसर्व धर्म समभाव-को जन्म देगी। इस युग के महान विचारक सन्त महात्मा गांधी ने सर्वधर्म समभाव को अपने द्वारा निर्दिष्ट ११ वृप्तो मे स्थान दिया है। गाधीजी के प्राध्यात्मिक उत्तराधिकारी ने उसे-अनाग्रही विचार-कहा। एक प्राचीन जैनाचार्य ने भारतीय षट्दर्शन में विभिन्न नयो दृष्टिकोणो : के माध्यम से सत्य का दर्शन किया। चाहे तत्व की दृष्टि से, चाहे बाद की दृष्टि से ससार का कार्य-अनेकान्त विचार-पद्धति के बिना नहीं चल सकता। यही नही विश्व मे विभिन्नता का राज्य है किन्तु विभिन्नता मे ही एकता का दर्शन पाना जीवन के कलाकार का काम है । धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, कौटुम्बिक आदि क्षेत्र मे यदि अनेकान्त विचार पद्धति से काम न लिया जाये तो सघर्ष अवश्यम्भावी है । और उसका परिणाम-प्रशान्ति । मानव जाति अपनी अशान्ति, दुख, दुख के कारणो के नाश के लिए-धर्म की शरण में जाती है वहाँ पर भी प्रशान्ति ही प्राप्त होगी इस स्थिति में भी जल मे पाग-लग जायेगी इसमें सन्देह नहीं है।
यदि हम सूक्ष्मता से अध्ययन करे तो-अनेकान्त विचार-पद्धति-अहिंसा के विचार से ही हुआ है। अपने से भिन्न विचार रखने वाले के प्रति न्याय करने के लिए ये उसके विचार में भी सत्यता का प्रश विद्यमान होने के विचार को मानव जाति के उद्धारक तीर्थहरो ने जन्म दिया । कहा जाता है कि तीर्थडुरो द्वारा उपदेशित मार्ग मे . चाहे उसे निम्रन्थ धर्म के नाम से पहिचाना जावे चाहे जैन धर्म के नाम से अहिंसा मुख्य है। यह सत्य है कि अनेकान्त विचारपद्धति अथवा स्याद्वाद बौद्धिक अहिंसा है। इस विचार-पद्धति से हम जीवन के किसी भी क्षेत्र मे समन्वयात्मक दृष्टिकोण ले सकते है। राजनीतिक क्षेत्र मे प्रजातान्त्रिक विचार इसी ओर ले जाते है । हमारे देश मे आज Parliamentary Democracy ससदीय प्रजा तान्त्रिक परम्परा चल रही है । इस परम्परा मे बहुमत दल द्वारा गठित सरकार, अल्पमत को अपने विचार प्रदर्शन का अधिकार मान्य करती है। उससे यथासभव लाभ उठाती है, यह राजनीतिक -स्याद्वाद-है। इसी प्रकार कौटुम्बिक क्षेत्र मे भी इस पद्धति का योगदान परस्पर कुटुम्बो मे, कुटुम्ब के सदस्यो में संघर्ष को टाल कर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा, इसमें सन्देह ३६. ]
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नही। तात्पर्य यह है कि जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद को संसार गुरु की जो उपमा दी है वह सत्य है, अनूठी है तथा ससार को सच्चा मार्गदर्शन देने वाली है।
हम प्राचीन जैनाचार्यों के अनुपम विचारो को प्राचीन ग्रन्थो मे जव अध्ययन करते है तो पता चलता है कि उनमे कितनी उद्दात्त भावनाएँ विद्यमान थी। अनेकान्त विचार-पद्धति के अनुयायी जैनाचार्यों ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि :
भवबीजाकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरीजिनोवा नमस्तमे ॥ उन्होने ब्रह्मा, विष्णु, हरि, जिन सब को नमस्कार किया है वशते कि उनके पुनर्भव के बीज राग, द्वेष आदि क्षय हो चुके हो कितनी उदात्त भावना काम कर रही थी, कितना अनाग्रही विचार उनका था। यही नही उन्होने भारतीय दर्शनी मे आशिक सत्य की अनुभूति की । कि विभिन्न दर्शन आशिक सत्य वा प्रतिनिधित्व करते है इस कारण उनमै पाखण्ड है किन्तु उन्होने यह उद्घोष करने में भी हिचक नही की कि "जैन दर्शन" पाखण्डो का समूह है । कारण कि जैन दर्शन में सव दर्शनो के आशिक सत्य का समन्वय करके पूर्ण सत्य बनाने का प्रयत्न किया गया है। उन्होने यह भी धोपणा की कि -
पक्षपातो नमे वीरे, न प कपिलादिपू ।
युक्तिमवचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रह ।। उन्होने भगवान महावीर के वचनो के प्रति पक्षपात तथा कपिल आदि मुनियो के वधनो के प्रति द्वष न होना प्रकट किया था। उन्होने केवल युक्ति-पुरस्सर वचनो को अगीकार करने का निश्चय किया:
प्राचीन अथ इस बात के साक्षी है कि भगवान महावीर के समय में भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रमण विद्यमान थे और दोनो परम्परा के प्रतिनिधित्व करने वाले श्रमण वर्ग के विचार तथा प्राचार मे कुछ भिन्नता थी। श्वेताम्बर परम्परा के एक उपदेशप्रद शास्त्र "उत्तराध्ययन" के .."वे अध्ययन में दोनो परम्परा के प्रतिनिधि मुनि, केशी तथा गौतम स्वामी के मिलन का वर्णन है कितना सुन्दर, भव्य दृश्य था दोनो का शुभ मिलन। परम्परा भेद मे समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने का था। दोनो सफल हो गए और उन्होंने देश मे अहिंसा धर्म का प्रचार किया। भगवान महावीर के समय में भी श्रमणवर्ग ने वस्त्रधारी तथा नग्न दोनो प्रकार के श्रमण विद्यमान थे चाहे उनको वर्गीकरण के नाम पर "जिन कल्मी, स्थविर कल्मी" बताया गया हो किन्तु यह तथ्य है कि दोनो प्रकार के श्रमण भगवान महावीर द्वारा उपदेशित "अहिंसा धर्म" को देश भर में फैलाने के भगीरथ-प्रयल में जुटे हुए थे । भगवान महावीर के कुछ सौ वर्ष के पश्चात् तक प्राचार्य परम्परा रही। कहा जाता है कि भगवान महावीर के पश्चात् बारह वर्षीय दुप्काल मै कुछ श्रमण दक्षिण दिशा चले मे गये तथा कुछ उत्तर मे रह गये । दुष्काल समाप्ति के पश्चात् उत्तर-दक्षिण का मिलन हुआ तो सचेल, अचेल का प्रश्न महत्वपूर्ण बन गया। सचेल श्रमणो ने सचेलल का तथा अचेल श्रमणो ने नग्नत्व का एकान्त आग्रह किया।
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परिणामस्वरूप विश्व की प्रत्येक समस्या का हल - अनेकान्त विचार पद्धति से कर देने वाले दर्शन के अनुयायी स्वय श्वेताम्बर, दिगम्बर परम्परा में विभाजित हो गये । यह एक आश्चर्य का विषय रहेगा कि इस प्रकार के उदार विचारमना जैनाचार्य परस्पर के इस सचेलत्व तथा अचेलत्व के विचार का समन्वय क्यो नही कर पाये ? मेरी यह निश्चित मान्यता है कि यदि इस विचार -भेद का समन्वय तत्कालीन जैनाचार्य कर पाते तो उनके द्वारा 'जैन दर्शन' की अधिक सेवा हुई होती । जैन दर्शन के रहस्यविद, शान्तिप्रिय जैनाचार्यों ने समय-समय पर दोनो परम्परा मे शान्ति स्थापनार्थं यह उद्घोष किया कि
न श्वेताम्वरत्वे, न दिगम्बरत्वे । न तत्व वादे न पक्ष सेवाऽऽन्मयेण मुक्ति । कषाय मुक्ति
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न च तर्क वादे ॥
किल मुक्ति रेव ॥
उन्होने मुक्ति श्वेताम्बर अथवा दिगम्बरत्व मे नही माना, न तत्ववाद मे, न तर्कवाद में। उन्होने यह भी कहा कि पक्षपाती दृष्टिकोण से मुक्ति प्राप्ति नही हो सकती । मुक्ति तो केवल कषाय मुक्तता से ही प्राप्त होती है । मे नही जानता कि हमारे प्राचीन जैनाचार्यो ने जैन समाज के दोनो जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर समाज मे परस्पर ऐक्य, सौहार्द, स्थापना के क्याक्या प्रयत्न किये ? मेरी यह मान्यता है कि कई ऐसे जैनाचार्य हुए है जिन्होने शान्ति स्थापना मे महत्वपूर्ण योगदान दिया । किन्तु यह भी एक तथ्य है कि आज दो सहस्र वर्ष से अधिक के काल
दोनो परम्पराओ के पृथक् हो जाने के कारण अत्यन्त हानि हुई है । यह एक तथ्य है कि इन दोनो परम्पराओ में श्रापस मे कितना कलह, कितना वैमनस्य हुआ । परिणामस्वरूप तीर्थ- मन्दिरो, अन्य कई धार्मिक स्थानो के सम्बन्ध मे कितनी मुकद्दमेबाजी हुई कि जिसमें समाज की शक्ति, धन का विपुल परिमाण मे अपव्यय हुआ । मेरी यह निश्चित मान्यता है कि यदि हमारे तत्कालीन जैनाचार्यों ने इस पृथक्ता के विचार को प्रारम्भ से ही न पनपने दिया होता, कोई माध्यम, समन्वयात्मक मार्ग निकाला होता तो श्राज जैन समाज अधिक सगठित, बलशाली होता । उसकी वाणी अधिक प्रभावशाली होती । किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही हो पाया। दो सहस्र वर्ष मे अधिक के इस लम्बे काल से दोनो परम्पराम्रो के मत वैभिन्य के कारण जैन धर्म का अनुयायी जैन समाज को हम छिन्न-भिन्न अवस्था मे पाते है तो हृदय को बडी ही ठेस लगती है । आज इसकी बडी वश्यकता है कि हम संगठित हो तथा जैन धर्म के व्यापक प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करे । सब कोई जानते है कि आज जैनधर्म, श्रमण संस्कृति के प्राण अहिंसा के विचार को देश मे कितना कम महत्व दिया जाता है। भारतीय शासन, अहिंसा तत्व की कितनी उपेक्षा करता है किन्तु हम अपनी पृथक्ता के कारण सामान्य प्रश्नो पर भी एक नही हो पाते । न सम्मिलित प्रयत्न कर पाते है । मैं इसी आशा, विश्वास को अपने हृदय मे सजोए हुए हूँ कि समाज मे कोई ऐसा महाभाग उत्पन्न हो जो जैन धर्म की एक-दो परम्पराम्रो को एक सूत्र मे माबद्ध कर सके ।
काश, यह स्वप्न साकार हो तथा हम सगठित अविरल जैन समाज का निर्माण करके श्रमण संस्कृति के प्रचार, प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान कर सके ताकि देश मे अहिंसात्मक विचार, प्राचार की प्रतिष्ठा हो और देश पुनः एक बार "जीओ और जीने दो" का मन्त्र उद्घोष करते हुए अपने प्रचार में उतार सके ।
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डा० हर्मन जैकोबी और जैन-साहित्य
डा० देवेन्द्रकुमार जैन
एम. ए पी एच-डी. आदि काल से ही भारतीय श्रमण-सस्कृति अत्यन्त समृद्ध तथा व्यापक रही है । भारतीय तत्व-चिन्तन तथा साहित्य-रचना मे इस प्रजा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। समाज, राजनीति तथा जीवन-दर्शनो के विविध पक्षो पर श्रमण-सस्कृति के पुरोहित जैनमनीषियो एव प्राचार्यों ने जिस प्रकाश को आलोकित किया है वह आज भी अपनी ज्योति से ज्योतिर्मान है । समय-समय पर प्रबल झझानो के आघात से, काल के क्रूर थपेडो से तथा जाति, समाज और सम्प्रदायो के संघर्षों मे अविचल रह कर जिन-वाणी ने जिस सत्य और अहिसा का प्रकाश विकीर्ण किया वह आज तक विश्व के इतिहास-पटल पर स्वर्णाक्षरो से जाज्वल्यमान है।
प्राचीनकाल में इस देश मे भाषा, साहित्य, आयुर्वेद, ज्योतिष, कला आदि वाडमय के विविध अंगो में उत्तरोत्तर उन्नति होती रही। सभी प्रजानो ने मिलकर विभिन्न रूपो मे उनका विकास किया। जैनाचार्यों ने प्रत्येक विषय पर मौलिक चिन्तन कर साहित्य-श्री एव वाड्मय को भलीभांति समृद्ध बनाया । आज भी जैन भाण्डागारो मे जो विपुल जैन-प्रजन साहित्य तथा वाड्मय उपलब्ध होता है उसे देखकर पातो तले उगली दवानी पड़ती है। साहित्य-रचना तथा सरक्षण का जो कार्य जैन साधुओ तथा मनीपियो ने किया है वस्तुतः वह इतिहास की अविस्मरणीय तथा गौरव-गाथा ही बन गई है।
भारतीय वाड्मय के सभी प्रकार से सम्पन्न और समृद्ध होने पर भी युग के युग ऐसे अन्धकाराच्छन्न प्रतीत होते हैं जिनमे विभिन्न जातियो के संघर्ष तथा उत्थान-पतन मे, राजनैतिक उथल-पुथल मे और सामाजिक एव सास्कृतिक विघटन मै प्रचुर साहित्य विलुप्त हो गया । विभिन्न भाक्रान्ताओ से पद्दलित यह देश धीरे-धीरे अपनी गौरव-गरिमा को धूमिल बनाता रहा और साहित्य के विभिन्न प्रगो की प्राय उपेक्षा-सी होती रही । जातीय-सकीर्णता तथा विभिन्न समाजो के दृष्टिकोण दिनोदिन सीमित होते गये । परिणाम यह हुआ कि हम अपने साहित्य और दर्शन से दूर होते गये । हमारी हताश और निराश भावना ने हमे दिनोदिन दुर्बल और चिन्तनीय बना दिया । अतएव उस युग में लिखा जाने वाला साहित्य भी जीवन्त समस्याओ से हट कर वास्तविक लोक-जीवन का आकलन न कर कल्पनामो तथा पौराणिक जड़ प्राकृतियो पर निर्भर रहने लगा। स्पष्ट शब्दो में हमारी मान्यताएं दिनोदिन रूढियो मे बधती गई और हम वास्तविक वातो से तथा सच्चे जीवन में बहुत कुछ दूर होते गये। इस मध्यकालीन युग के उत्तरकाल मे (मुगल काल मे) हमे अधिकतर ऐसे ही साहित्य का परिचय मिलता है । इस युग में मुख्य रूप से भारतीय पौराणिक साहित्य अधिक लिखा गया, जिसका प्रारम्भ गुप्त युग से हुआ प्रतीत होता है। गुप्त युग के पूर्व का साहित्य अत्यन्त प्रल्प तथा विरल प्राप्त होता है। भारतीय साहित्य के इतिहास में वह अन्धकारपूर्ण युग कहा जाता है जिसका प्राज तक कोई क्रमवद्ध रूप उपलब्ध नहीं हो सका
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है । इतिहास में ऐसे कई वर्षों के छोटे-छोटे युग लक्षित होते है जिनमें भारतीय संस्कृति और साहित्य का कोई स्पष्ट चित्र हमें नहीं मिलता।
अतीत काल में भारतवर्ष में धर्म, कला और साहित्य की जो प्रतिष्ठा एव उन्नति हुई वह आज इतिहास की वस्तु बन गई है। आधुनिक युग मे इसे प्रकाशित करने और विश्व के सामने गौरव के साथ रखने का श्रेय वस्तुत योरोपीय विद्वानो को है । योरोपीय विद्वानो मे भी विशेषकर यह श्रेय जर्मन विद्वानो को प्राप्त है, जिन्होने सुदीर्घ काल से प्राचीन भारतीय मार्य भाषाओ तथा उनमें लिखित साहित्य का अध्ययन कर ससार का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। कहा जाता है कि प्रबाहम रोजर नाम के विद्वान के सन् १६५१ मे भर्तृहरि के कुछ मधुर श्लोको का पुर्तगाली भाषा में अनुवाद किया था, जिसे देखकर विदेशी विद्वानो का ध्यान संस्कृत भाषा के प्रति माकृष्ट हुआ था। उसके बाद ही सस्कृत भाषा के प्रति जर्मन विद्वानो का विशेष रूप से ध्यान गया और उन्होने उसका अध्ययन किया।
आधुनिक युग में भाषा-विज्ञान का प्रमुख केन्द्र प्रमुख रूप से दो-तीन दशको में जर्मन ही बना रहा । बाद में यह मास मे भी स्थापित हुआ । फास से इगलैंड होता हुआ आज यह अमेरिका में प्रगतिशील दिखाई पड़ रहा है । यद्यपि भाषा वैज्ञानिक प्रथम अध्ययन फासीसी पादरी कोदों (Coeurdoux) से माना जाता है, जिन्होने सन् १७६७ में ग्रीक, लैटिन तथा फेच आदि भाषामो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था। परन्तु तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नीव डालने वाले सर विलियम जोन्स माने जाते है, जिन्होंने १७९६ ई० मे इस बात की घोषणा की थी कि संस्कृत भाषा बनावट में ग्रीक से, समृद्धि में लैटिन से--और परिष्कार में सभी भाषामो से बढ-चढकर है। शब्द, धातु तथा व्याकरण की दृष्टि से ग्रीक, लैटिन, गायिक, केल्टिक तथा प्राचीन फारसी किसी एक मूल स्रोत से निकल हुई जान पड़ती है। यद्यपि संस्कृत भाषा का कई
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कुशल प्रचारक
श्री महावीरसिह जैन जौहरी
प्रधानमन्त्री
जन मित्र-मण्डल, धर्मपुरा, दिल्ली लाला तनसुखराय जैन समाज के ऐसे कर्मवीर समाज-सेवी थे जो धार्मिक जागृति के कार्य में सदा आगे रहते थे। विश्वोद्वार म० महावीर स्वामी का जयन्ती महोत्सव सर्वप्रथम जैन-मित्र मडल के तत्वावधान में मनाना प्रारम्भ हुमा । उन्होने मित्र-मण्डल के अध्यक्ष पद पर रह कर जयन्ती उत्सव को सफल बनाने में कोई कसर नही रक्खी। मै उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
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विद्वानो ने अध्ययन, चिन्तन और मनन किया, परन्तु जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने जिस तमन्यता भौर मनोयोग के साथ वेदो का तथा सस्कृत का अनुशीलन किया वह वास्तव मे विलक्षण ही था। मैक्समूलर ने अपने जीवन के लगभग छप्पन वर्ष सस्कृत साहित्य के अध्ययन में विशेषकर ऋग्देव के अध्ययन में विताये थे । इम साहित्य पर जितना अधिक मैक्समूलर ने कार्य किया है संभवत किसी विद्वान ने आज तक नहीं किया होगा।
___ वास्तव मे प्राच्यविद्याविशारदो मे भारतीय साहित्य और संस्कृति पर शोध एव अनुसधान कार्य करने वाले आधुनिक युग में विशेष रूप से जर्मन विद्वान् उल्लेखनीय है । जार्ज फोटर, गेटे, ग्रासमान, लुगविग, वान हम्वोल्ट, फ्रेडरिक श्लेगल, कान्ट और शिलर, राय, वूलर आदि । ऐसे ही विशिष्ट जर्मन विद्वान् थे जिन्होंने भारतीय साहित्य का विशेष रूप से पालोडन किया था। १८८७ ई० मे डा० जे० जी० बूलर ने लगभग पाच सौ जैन ग्रथो के आधार पर जर्मन भाषा में जैनधर्म विषयक एक ग्रथ लिखा था, जो अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि इसके पूर्व ही जर्मन विद्वानो ने प्राकृत भाषामो का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु धर्म और सिद्धान्तो पर प्रकाश डालने पाली कदाचित् यह पहली ही पुस्तक थी। प्रो. रिचर्ड पिशेल ने सन् १८७७ मे मा० हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का एक सुसम्पादित-सस्करण प्रकाशित किया था। पिशेल महोदय वास्तव मे प्राकृत के पाणिनि थे। उन्होने लगभग २५-३० वर्षों के अथक श्रम से सैकडो प्राकृत प्रान्थो का अनुशीलन कर समग्र प्राकृतो का व्याकरण तैयार किया, जो १९००ई० मे जर्मनी के स्ट्रास्वर्ग नगर से प्रकाशित हुई । रिचर्ड पिशेल की पहली पुस्तक 'ही कालिदासी काकुन्तली रिकेन्सियोनिवस" सन् १८७० ई० मे जला विश्वविद्यालय से डाक्टरेट के लिए स्वीकृत हुई थी, जिसका प्रकाशन १८७७ ई. मे "कालिदासाज शकुन्तला, द बंगाली रिसेन्शन विद क्रिटिकल नोट्स" के रूप में कील से हुआ। उन्ही दिनो "हेमचन्द्राज ग्रेमेटिक डेर प्राकृतप्राखन" लिखी गई, जो हाल नाम के नगर से सन् १९७७-१८८० ई० मे दो जिल्दो में प्रकाशित हुई । इसी प्रकार १८८० ई० मे कील से 'देशीनाममाला' प्रकाशित हुई । "प्रेमेटिक डेर प्राकृतमाखन" नामक पुस्तक स्ट्रासबर्ग से सन् १९०० ई० मे प्रकाशित हुई । इस पुस्तक का अग्नेजी अनुवाद डा० सुभद्र झा ने "कम्पेरेटिव ग्रामर आव द प्राकृत लेग्वेज" नाम से किया है और हिन्दी मे डा. हेमचन्द्र जोशी ने "प्राकृत भापामो का व्याकरण" नाम से प्रस्तुत किया है, जो विहार-राष्ट्रभापा परिषद्, पटना से प्रकाशित हो चुका है । वास्तव में पिशेल महोदय ने उपलब्ध प्राकृतो के व्याकरण और अनेक हस्तलिखित ग्रन्यो के आधार पर प्राकृत-भाषाओ का व्याकरण जिस रूप में प्रस्तुत किया है उससे वह एक अद्भुत प्रथ ही बन गया है। वैदिक भाषामो के मूल उत्स से लेकर नव्य भारतीय आर्यभाषाओ की प्रकृति तथा शब्द रूपो का उन्होने विशेष रूप से अनुशीलन किया। उन्होने वैदिक साहित्य का भी यथेष्ट अध्ययन और अध्यापन किया था। प्राकृत भापामओ के व्याकरण की पूर्ति के रूप मे उन्होने "माटेरिप्रालिएन् त्सुर केन्टनिस् डेस् अपभ्रश" एक छोटी सी पुस्तक भी लिखी, जिसमै अपभ्रश का पहली बार स्वतन्त्र रूप से विचार किया गया और जिसका प्रकाशन सन् १९०२ ई. में वलिन से हुआ। प्राध्यापक पिशेल महोदय के ये दोनो ही ग्रन्थ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषामो के स्वरूप को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए है।
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डा० हर्मन जैकोबी भी एक जर्मन विद्वान् थे। पिछले की भांति भारतीय विद्या के विशेष प्रेमी तथा अध्ययन अध्यापन में रत रहते थे । जर्मन की वॉन युनिवर्सिटी मे डा० जेकोबी भारतीय विद्या के प्राध्यापक थे । प्रो० पिशेल ने प्राकृतो के अध्ययन-अध्यापन की जिस नीव को प्रस्थापित किया था डा० जेकोबी ने उसी परम्परा को अग्रसर किया। मुख्य रूप से प्राध्यापक जेकोवी ने जैनागमो का गम्भीर अध्ययन किया। सूत्र ग्रन्थो का अध्ययन और सगोधन तथा सम्पादन ही उनका प्रारम्भिक उद्देश्य था । परन्तु धीरे-धीरे जैन साहित्य मे उनकी रुचि विशेष रूप से प्राकृष्ट होती गई। उन्होने सबसे पहले " उत्तराध्ययन सूत्र " का अध्ययन किया। उस पर उन्होने एक टीका भी लिखी । टीकाओ मे अनेक कथाओ का उल्लेख देख कर उन्होने कथाओ का एक सग्रह तैयार किया, जो पाठ्यपुस्तक के रूप मे (महाराष्ट्री से चुनी हुई कहानियाँ) त्सूर प्राखफ्यूग इन डास स्टूडियम डेस प्राकृत ग्रामीटीक टेक्स्ट वोएरट खुस प्रकाशित हुआ । सन् १८८६ ई० मे लिपजिक नाम के नगर से "श्रीसगेवल्ते एर्सेल गन इन महाराष्ट्री" नाम से वह सग्रह प्रकाशित हुआ । इसके इन्ट्रोडक्शन मे महाराष्ट्री प्राकृत के सम्वन्ध मे विशद विवेचन किया गया है, जिसका अग्रेजी अनुवाद डा० ए० एम० घाटगे ने किया है और जो "द जैन एन्टिक्वेरी" के ठाक मे प्रकाशित हो चुका है । अपने इस प्राथमिक वक्तव्य मे प्रो० जेकोवी ने वैदिक भाषाओ से लेकर आधुनिक भारतीय श्रार्यभाषाओ तक के विकास को जिस घारा का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया था और जिस बात को पिशेल महोदय पहले ही अपने "प्राकृतो के व्याकरण" मे लिख चुके थे उसी आधार पर उन्होने अपभ्रंग के बहुविध रूपो की तथा वोलियो की कल्पना की । उन्होने अपने विचारो को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीय भाषाएँ तीन अवस्थाओ को पार कर चुकी है । वे तीन अवस्थाएं है - संस्कृत (वैदिक, इपिक और क्लासिकल), मध्यभारतीय या प्राकृत ( पाली, प्राकृत महाराष्ट्री और अपभ्रश) तथा आधुनिक भारतीय या भापा । उत्तर बौद्धो की गाथा वोलियो का विचार करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार उच्च जर्मन के लोग अपनी प्रवृत्ति के अनुसार निम्न जर्मन की भाषा मे वोलते और सोचते हैं उसी प्रकार गाथाओ की प्राकृत भी संस्कृत के अनुरूप लिखी गई, जिससे उस पर सस्कृत का प्रभाव दिखाई पडता है। वास्तव मे महाराष्ट्री अपने युग की साहित्यिक भाषा रही है। पाली, प्राकृत और अपना ध्वनि, वाक्य रचना एव बनावट मे एक-दूसरे से भिन्न है । प्राकृत अलग है और अपभ्रश अलग । प्राकृत से प्रपत्र श मै जटिलता और रूपो की कमी है। महाराष्ट्री प्राकृत का भी अधिकतर प्रयोग जैन साहित्य मे हुआ है। इस प्रकार कई महत्वपूर्ण वातो की चर्चा उन्होने इस ग्रन्थ की भूमिका मे की है।
डा० जेकोबी ने प्राकृत वाड्मय का विशेष रूप से अनुशीलन किया । श्रतएव आचारांग - सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, कल्पसूत्र, कालकाचार्यकथानक, पउमचरिय और समराङच्च हा आदि प्राकृत-ग्रन्थो के उत्तम रीति से सम्पादित तथा सशोधित सस्करण प्रकाशित किए। " श्रायाराग पुत्त" का प्रथम संस्करण हर्मन जेकोवी ने लन्दन से १८८२ ई० मे प्रकाशित कराया था । “कालकाचार्यकथानकम्” लायमन द्वारा प्रकाशित "त्साईदुग डेर मोर्गेन लैण्डिशन गैजेल गापट " मे सर्वप्रथम प्रकाशित हुया था । वस्तुत सम्पादन और प्रकाशन की दृष्टि से इनका विशेष महत्व है । परन्तु प्राकृतो का महत्व और स्वरूप निर्धारण में जो निष्पक्ष और सूक्ष्म दृष्टि रिचर्ड पिशेल
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में लक्षित होती है वह इनमें नहीं है। इनका महत्व अपभ्रंग-साहित्य की खोज करने में ही विशेष रूप से समाहित है।
पिशेल महोदय के पूर्व देशी-विदेशी विद्वान् यही समनते थे कि प्राकृतो का विकासनिकास संस्कृत से हुआ । सस्कृत को प्राकृत का मूल मानने वाले विद्वानो मे होएफर, लास्मन, भण्डारकर, और जेकोबी भी सम्मिलित थे। परन्तु पिगेल इसे भ्रमपूर्ण बतलाते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि प्राकृत सस्कृत से प्राचीन बोली जाने वाली भाषा है। भापा की भांति ही बीम्त आदि कई भाषाविद् वर्षों तक इस बात को दुहराते रहे कि प्राकृत भापाए कृत्रिम नया साहित्य की भाषाएं हैं। इसी प्रकार का मत अपभ्रश के सम्बन्ध में भी प्रचलित रहा । स्वयं पिल महोदय के सामने अपभ्रश का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होने से वे इसका विशेप विचार नहीं कर सके। परन्तु प्राकृतो की अनेक वोलियो का उल्लेख और उनके विविध रूपो का उन्होंने विस्तृत विवेचन किया तथा उनका महत्व प्रतिप्ठिन किया। उनके विचार में अपभ्रंश का साहित्य अवश्य था, परन्तु वह लुप्त हो चुका था। कई विद्वानो की राय में अपभ्रश बनावटी भाषा थी, जो संस्कृत को तोड-मरोड कर बनाई गई थी। कीय महोदय इसी मत को बहुत दिनों तक पुष्ट करते रहे । और जब तक अपभ्रश का साहित्य प्रकाश में नहीं पाया तब तक इसी प्रकार की अनेक अटकलें और अनुमान लगाये जाते रहे । यथार्थ में अपभ्र ग-साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय डा. हर्मन जेकोबी को है।
यद्यपि पिगेल महोदय के पूर्व ही हर्मन जेकोबी जैन-साहित्य का महत्व प्रतिपादित कर चुके थे, परन्तु “प्राकृत भाषा के व्याकरण" से प्रभावित एव प्रेरित होकर उन्होंने प्राकृत साहित्य की प्रचुरता और अपभ्रश-साहित्य के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था। और यही धारणा लेकर उन्होने सन् १९१३-१४ मै भारतवर्ष का प्रवास किया । मार्च, १९१४ मैं अहमदाबाद में एक जैन साधु के पास उन्होने जीर्ण हस्तलिखित प्रति को देखा। उस कया की चार-छह पंक्तियों को पढकर जेकोबो अत्यन्त चमत्कृत हुआ । वह हर्प से उछल पडा। उने उस समय उतना ही आनन्द प्राप्त हुमा जितना कि पुत्र-रत्न प्राप्ति के समय होता है । वह कथानन्य अपभ्रंश मापा में महाकवि धनपाल का लिखा हुआ "भविसयत्तकहा" था। अपभ्रश के इस महत्वपूर्ण प्रय की प्रथम परिचिति डा. जेकोबी को मिली । उन्होने बड़ी कठिनाई से इस कथाकाव्य के कुछ पत्रों की अपने हाथ से प्रतिलिपि की और कुछ की फोटोकापी तैयार करवाई। कुछ दिनो के बाद सौराष्ट्र के प्रवास मे एक दूसरा कथानथ प्राप्त हुआ । यह राजकोट के एक साधु के पास से प्राप्त हुआ। इसका नाम "नेमिनाथचरित" था। इसकी हस्तलिखित प्रति ही जर्मन विद्वान् को मिल गई । इस प्रकार अपभ्रश ग्रयो की पहली जानकारी डा. जेकोवी को प्राप्त हुई।
उन दिनो प्रथम महायुद्ध के विप्लव-वादल चारो और मडराने लगे थे। विश्वव्यापी महायुद्ध प्रारम्भ हो गया था। इसलिए लगभग चार वर्षों तक बैकोबी महोदय कुछ भी नहीं प्रकाशित कर सके । सन् १९१८ ई० मे म्युनिक रायल एकेडेमी की ओर से "भविश्यत्तत्हा" का १ देखिए, "प्राकृत भाषाओ का व्याकरण", पृष्ठ ८
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प्रथम सस्करण प्रकाशित हुआ, जो व्याकरण, शब्द-रचना, गब्द-कोप आदि से भलीभांति अलकृत था । एक ही प्रति पर आधारित होने के कारण ग्रन्थ मे अशुद्धियो का रह जाना स्वाभाविक ही था । परन्तु परिश्रम बहुत अधिक किया गया था। अपभ्रश का सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला यही साहित्यिक ग्रन्थ था । इसके तीन वर्षों के पीछे सन् १९२१ ई० मे डा. जेकोवी ने मा० हरिभद्रसूरि कृत "नेमिनाथचरित" के अन्तर्गत "सनत्कुमारचरित" का सुसम्पादित सस्करण प्रकाशित किया । वाद में "भविष्यदत्तकथा" गायकवाड़ मोरियन्ट सोरिज, वड़ोदा से १९२३ ई० मे सी०डी० दलाल और पी० डी० गुणे के सम्पादकत्व मे प्रकाशित हुई। उसके बाद अनेक अपभ्रंश ग्रन्थो का पता लग गया । भारतीय विद्वान् जिन्हे प्राकृत भाषा का समझते रहे वे अपभ्र के ग्रन्थ निकले।
और तव से कई भारतीय विद्वानो ने अपभ्र श पर बहुत कार्य किया। परिणामस्वरूप लगभग पचास ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। परन्तु अभी तक लगभग तीन सौ ग्रन्थ अप्रकाशित पडे हुए है। और कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ अज्ञात तथा अनुपलब्ध है । वस्तुत मध्ययुगीन भारतीय आर्यभापा और साहित्य के प्रतिष्ठापक और पुरस्कर्ता के रूप मे पिगेल और डा० हर्मन जेकोबी का नाम सदा स्मरणीय रहेगा । अपभ्रश के जिस अजान, प्रभात और उपेक्षित क्षेत्र का उन्होने उद्घाटन किया वह यथार्थ मे चिर अविस्मरणीय रहेगा। और मध्ययुगीन भारतीय साहित्य के इतिहास मे उनका नाम स्वर्णाक्षरो से अकित रहेगा।
जैन दर्शन में सत्य की मीमांसा
मुनिश्री नथमलजी महाराज सत्य क्या है ? इस प्रश्न पर मनुष्य अनादि काल से चिन्तन करता आ रहा है। उसने सत्य का साक्षात् करने का यत्न किया है और वह उसमे सफल भी हुआ है। चिर अतीत में अनेक मनुष्यो ने अनेक प्रयल किए है, इसलिए सत्य शोध की अनेक धाराएँ बन गयी है। उनमे एक धारा है जैनदर्शन । उसके अनुसार जो सत् है, वही सत्य-जो है वही सत्य है, जो नहीं है वह सत्य नहीं है । यह अस्तित्व-मत्य, वस्तु-सत्य, स्वरूप-सत्य या शेय-सत्य है । जिस वस्तु का जो सहज शुद्ध रूप है, वह सत्य है । परमाणु, परमाणु रूप में सत्य है । आत्मा, आत्मा रूप मे सत्य है। धर्म, अधर्म, आकाश भी अपने रूप मे सत्य है । "एक वर्ण, गन्ध, रस पौर स्पर्ण वाला अविभाज्य पुद्गल"-यह परमाणु का सहज रूप-सत्य है। बहुत सारे परमाणु मिलते है, स्कन्ध वन जाता है, इसलिए परमाणु पूर्ण-सत्य (कालिक-सत्य) नहीं है । परमाणु-दशा मे परमाणु सत्य है। भूत-भविण्यत् कालीन स्कन्ध की दशा मे उसका विभक्त रूप सत्य नहीं है।
आत्मा शरीर-दशा मे अर्ध सत्य है । शरीर, वाणी, मन और श्वास उसका स्वरूप नही है । आत्मा का स्वरूप है-अनन्त जान, अनन्त प्रानन्द, अनन्त वीर्य (शक्ति) अल्प। सरूप (सशरीर) पात्मा वर्तमान पर्याय की अपेक्षा सत्य है (अर्ध-सत्य है) अरूप (मशरीर, शरीर मुक्त) प्रात्मा पूर्ण सत्य (परम सत्य या कालिक सत्य) है । धर्म, अधर्म और आकाश (इन तीन तत्वो का कालिक रूपान्तर नहीं होता। ये सदा अपने सहज रूप मे ही रहते है- इसलिए) पूर्ण सत्य है। ३६८ ]
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साध्य-सत्य
साध्य-सत्य स्वरूप सत्य का ही एक प्रकार है। वस्तु सत्य व्यापक है। परमाणु मे ज्ञान नही होता, अत उसके लिए कुछ साध्य भी नही होता । वह स्वाभाविक काल मर्यादा के अनुसार कभी स्कंध में जुड़ जाता है और कभी उससे विलग हो जाता है ।
श्रात्मा ज्ञानशील पदार्थ है । विभाव- दशा ( शरीर दगा ) मे स्वभाव ( प्रशरीर-दशा या ज्ञान, आनन्द और वीर्य का पूर्ण प्रकाश) उसका साध्य होता है । साध्य न मिलने तक यह सत्य होता है और उसके मिलने पर (सिद्धि के पश्चात् ) वह स्वरूप सत्य के रूप मे वदल जाता है।
साध्य काल मे मोक्ष पूर्ण सत्य होता है और आत्मा श्रधं सत्य । सिद्धि दशा मे मोक्ष और आत्मा का अत (प्रभेद) हो जाता है, फिर कभी भेद नही होता। इसलिए मुक्त आत्मा का स्वरूप पूर्ण सत्य है (त्रैकालिक है, अपुनरावर्तनीय है) ।
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जैन-तत्त्व-व्यवस्था के अनुसार चेतन और प्रचेतन -- ये दो सामान्य सत्य है । ये निरपेक्ष स्वरूप- सत्य है । गति-हेतुकता, स्थिति-हेतुकता, अवकाश हेतुकता, परिवर्तन हेतुकता और ग्रहण ( सयोग-वियोग ) की अपेक्षा - विभिन्न कार्यो और गुणों की प्रपेक्षा धर्म, अधर्म, श्राकाश, काल, और पुद्गल --- प्रचेतन के ये पाच रूप (पाच-द्रव्य) और जीव, ये छह सत्य है । ये विभाग-सापेक्षस्वरूप सत्य हैं ।
भाव (बन्ध - हेतु), सवर (बन्धन-निरोध), निर्जरा ( बन्धन -दाय हेतु ) – ये तीनो साधन सत्य है । मोक्ष साध्य सत्य है । बन्धन-दशा मे ग्रात्मा के ये चारो रूप सत्य है । मुक्त-दशा मे आस्रव भी नही होता, सवर भी नही होता, निर्जरा भी नही होती, साध्य-रूप मोक्ष भी नही होता, इसलिए वहा आत्मा का केवल आत्म-रूप ही सत्य है ।
आत्मा के साथ अनात्मा (भजीव- पुद्गल ) का सम्बन्ध रहते हुए उसके बन्ध, पुण्य और पाप मे तीनो रूप सत्य है । मुक्त-दशा मे वन्धन भी नहीं होता, पुण्य भी नही होता, पाप भी नही होता। इसलिए जीव विमुक्त- दशा मे केवल अजीव (पुद्गल) ही सत्य है । तात्पर्य कि जीव-प्रजीव की सयोग - दशा मे नव सत्य है । उनकी वियोग दवा मे केवल दो ही सत्य है |
व्यवहार नय से वस्तु का वर्तमान रूप (वैकारिक रूप ) भी सत्य है । निश्चय नय से वस्तु का त्रैकालिक (स्वाभाविक रूप ) सत्य है ।
उपयोगिता की दृष्टि से सत्य का विचार निम्न चार विषयो के ग्रास-पास चलता है१. वन्ध, २ वन्ध-हेतु (प्रासव), ३ मोक्ष, ४. मोक्ष हेतु (सवर - निर्जरा ) 1 सक्षेप मे दो है— मानव और सवर । इसीलिए काल-क्रम के प्रवाह मे बार-बार यह वाणी मुखरित हुई है।
भावो भवहेतु स्यात् सबरो मोक्ष कारणम् । इतीयमाहंती दृष्टि रन्यदस्या प्रपचनम् ॥
यही तत्व वेदान्त मे विद्या मोर विद्या शब्द के द्वारा कहा गया है। वौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य और क्या हैं ? यही तो है—
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१. दुख हेतु ।
२. समुदय-हेतु ।
३ मार्ग - हनोपाय या मोक्ष उपाय ।
४ निरोध- हान या मोक्ष |
यही तत्व हमे पातजल-योग-सूत्र और व्यास भाष्य मे मिलता है। योग दर्शन भी यही कहता है -- विवेकी के लिए यह सयोग दुख है और दुख हेय है । त्रिविध दुख के थपेडो से थका हुआ मनुष्य उनके नाश के लिए जिज्ञासु बनता है ।
" नृणामेको गम्य स्त्वमसि खलु नानापथ जुषाम्”'गम्य एक है- उसके मार्ग अनेक । सत्य एक है - शोध-पद्धतिया अनेक । सत्य की शोध और सत्य का प्राचरण धर्म है। सत्य शोध की सस्थाए, सम्प्रदाय या समाज है, वे धर्म नही है । सम्प्रदाय अनेक बन गए पर सत्य अनेक नही बना | सत्य शुद्ध-नित्य और शाश्वत होता है । साघन के रूप मे वह है अहिंसा और साध्य के रूप वह मोक्ष है।
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सत्य की व्याख्या के दो पहलू
सत्य की व्याख्या एकान्त दृष्टि से नही की जा सकती । उसके दो पहलू है - वस्तु सत्य और व्यवहार सत्य । वस्तु सत्य के द्वारा पारमार्थिक सत् या ध्रुवता की व्याख्या की जा सकती है और व्यवहार सत्य के द्वारा दृश्य सत्य या परिवर्तनाश की व्याख्या की जा सकती है ।
वस्तु सत्य
एक ओर यह प्रखण्ड विश्व की अविभक्त सत्ता है और दूसरी ओर यह खण्ड का चरम रूप व्यक्ति है । व्यक्ति का प्राक्षेप करने वाली सत्ता और सत्ता का आक्षेप करने वाला व्यक्तिभटके हुए है। सत्ता का स्व व्यक्ति है । व्यक्ति की विशाल श्रृखला सत्ता है । सापेक्षता मे 1 दोनो का रूप निखर उठता है ।
यह व्यक्ति और समष्टि की सापेक्ष नीति जैन दर्शन का नय है। इसके अनुसार समष्टि सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति सापेक्ष समष्टि-दोनो सत्य हैं । समष्टि- निरपेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति निरपेक्ष- समष्टि - दोनो मिथ्या है।
व्यवहार - सत्य
नयवाद ध्रुव सत्य की अपरिहार्य व्याख्या है । यह जितना दार्शनिक सत्य है, उतना व्यवहार सत्य है | हमारा जीवन वैयक्तिक भी है और सामुदायिक भी। इन दोनो कक्षाओ में नय की अहंता है ।
सापेक्ष नीति से व्यवहार मे सामजस्य आता है । उसका परिणाम है मैत्री, शान्ति श्रोर व्यवस्था । निरपेक्ष नीति अवहेलना, तिरस्कार और घृणा पैदा करती है। परिवार, जाति, गाँव, राज्य, राष्ट्र और विश्व-ये क्रमिक विकाशशील सगठन है । सगठन का अर्थ है सापेक्षता । सापेक्षता नियम दो के लिए है, वही अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के लिए है ।
एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की ग्रवहेलना कर अपना प्रभुत्व साधता है, वहा असमजसता खड़ी हो जाती है । उसका परिणाम है- कटुता, सघर्ष और अशांति ।
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निरपेक्षता के पाच रूप वनते है-१. वैयक्तिक, २. जातीय, ३. सामाजिक, ४. राष्ट्रीय, ५ अतर्राष्ट्रीय ।
इसके परिणाम है-समता प्रधान जीवन, सामीप्य, व्यवस्था, स्नेह शक्ति-सवर्धन, मैत्री और शान्ति ।
बहुता और और अल्पता, व्यक्ति और समूह के एकान्तिक आग्रह पर प्रसन्तुलन बढता है, सामजस्य को कड़ी टूट जाती है।
___ अधिकतम मनुष्यो का अधिकतम हित-यह जो सामाजिक उपयोगिता का सिद्धान्त है वह निरपेक्ष नीति पर आधारित है । इसी के आधार पर हिटलर ने यहूदियो पर मनमाना अत्याचार किया । बहुसंख्यको के लिए अल्पसंख्यको तथा वडो के लिए छोटो के हितो का बलिदान करने के सिद्धात का औचित्य एकान्तवाद की देन है।
सामन्तवादी युग मे बडो के लिए छोटो के हितो का न्याय उचित माना जाता था। बहुसख्यको के लिए अल्पसख्यको तथा वडे राष्ट्रो के लिए छोटे राष्ट्रो की उपेक्षा आज भी होती है । यह अशान्ति का हेतु वनता है । सापेक्ष नीति के लिए किसी के लिए भी अनिष्ट नहीं किया जा सकता।
बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रो को नगण्य मान उन्हें आगे आने का अवसर नहीं देते। इस निरपेक्ष-नीति की प्रतिकिया होती है । फलस्वरूप छोटे राष्ट्रो मे बडो के प्रति अस्नेह-भाव उत्पन्न हो जाता है । वे सगठित हो उन्हें गिराने की सोचते हैं । घृणा के प्रति घृणा और तिरस्कार के प्रति तिरस्कार तीव हो उठता है।
__ मैत्री की पृष्ठभूमि सत्य है, वह ध्रुवता और परिवर्तन दोनो के साथ जुड़ा हुआ है। अपरिवर्तन जितना सत्य है, उतना ही सत्य है परिवर्तन । अपरिवर्तन को नहीं जानता वह चक्षुप्मान नहीं है, वैसे ही वह भी अचक्षुष्मान् है जो परिवर्तन को नहीं समझता। . वस्तुए बदलती है, क्षेत्र वदलता है, काल वदलता है. विचार बदलते हैं, इनके साथ स्थितियां बदलती है । बदलते सत्य को जो पकड लेता है, वह सामजस्य की तुला में चढ दूसरो का साथी बन जाता है।
श्रीमद्भगवदगीता और जैन-धर्म
श्री दिगम्बरदास जैन, मुख्तार जैनधर्म एक आध्यात्मिक धर्म है और गोता एक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ । जनधर्म प्रात्मा को शरीर से भिन्न वता कर आत्मा को नित्य और शरीर को नाशवान मानता है, यही बात श्रीकृष्णजी गीता के अध्याय २ श्लोक २१ मे कहते है। आगे २ श्लोक मै तो जैनधर्मानुसार यह भी कह दिया कि जैसे पुराने वस्त्र त्याग कर नये पहने जाते है, वैसे ही प्रात्मा शरीर का पुराना चोला त्याग कर कर्मानुसार नया शरीर धारण कर लेता है । जनधर्म राग-द्वेष को मंबन्धन का कारण कह कर इनके त्याग की शिक्षा देता है, इसी सिद्धान्त को गीता के अध्याय २
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के श्लोक ५२, ५७, ६१ और ६४ मे स्वीकार किया है। जैनधर्म आवागमन को मानता है, गीता के अध्याय ४ श्लोक ५ से भी यही बात सिद्ध है। जैनधर्म बताता है कि जो राग-द्वेष से रहित होता है वह वीतरागी कर्म-बन्धन से मुक्त हो शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जैनधर्म के इसी मूल मन्त्र का गोता के प्रध्याय ५ श्लोक, ३ मे वर्णन है । जैनधर्म फल की इच्छा न रखते हुए कार्य करने को कहता है इसी बात को गीता के अध्याय ६ के श्लोक १ मे कहा है कि जो फल न चाहते हुए योग्य कार्य करता है वही योगी तथा सन्यासी है जैनधर्म ससार को अनादि और अनन्त मानता है, यही बात गीता मे स्वीकार करते हुए ससार रूनी प्रश्वत्य वृक्ष अनादि और अनन्त बताया है। जैनधर्म का कहना है कि यह ससार प्रक्रतमय है इसे किसी ईश्वर या भगवान ने नही बनाया, यह जीव स्वय कर्म करता है और स्वय कर्मों का फल प्राप्त करता है। ईश्वर कर्मों के करने और उसका फल देने वाला नही है, यही बात श्रीकृष्ण जी ने गीता के अध्याय ५ के श्लोक १४-१५ मे इस प्रकार कही है:
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्म-फल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । श्रज्ञानेनावृत ज्ञानं तेनुमह्यन्ति जन्तवः ||१५||
महान नैरन्यायिक विद्वान श्री हरिवश शर्मा न्यायशास्त्री ने कई बार इस बात को स्पष्ट स्वीकार किया कि ईश्वर में कर्म दायतत्व की मानता सर्वथा प्रसगत है, अस्तु हम लोग पुरातन सस्कारो से इतने जकडे हुए हुए है कि जानबूझकर भी सबके सामने स्वीकार करने मे असमर्थ है ।" वाराणसी के सुप्रसिद्ध तार्किक विद्वान स्व० प० श्रम्वादास शास्त्री जी का भी यही मत है और ऐसा ही कहा करते थे ।२ वास्तव में बात यह है कि ससार का प्राणी कुकर्म करता हुआ उसके फल की ओर नही देखता और जब उन कर्मों का फल मिलता है तो उस समय उसे यह ज्ञात नही होता कि मुझे किस कर्म का फल मिल रहा है । तब वह सारा भार ईश्वर पर ही देता है और कहता है कि यह सब कुछ भगवान ने किया। कुछ कह कर तो मानव सन्तोष कर ले | इस प्रकार वह अपने सन्तोप की सीमा ईश्वर को बना लेता है। अनासक्त होकर कर्म करने पर जैन धर्म के समान गीता मे जो अधिक जोर दिया है, श्री ताराचन्द पांड्या के शब्दो में यह भी जैनधर्म का ही प्रभाव है 13 गौतम स्वामी ने मगधपति महाराज श्रेणिक के प्रश्नो का उत्तर देते हुए पद्मपुराणजी मे बताया कि जब-जब धर्म को हानि और पाप की बढ़ोतरी होती है तो पाप अन्धकार का नाश करके धर्म का विकास करने को तीर्थंकर प्रगट होते है ।" गीता के अध्याय ४ का सर्वप्रसिद्ध श्लोक ७ भी इसी प्रकार कहता है .
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । श्रभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ (प्र० ४, श्लोक ७)
कहाँ तक दृष्टान्त दिये जावे ' वैदिक विद्वान श्री माधव कृष्णजी भूतपूर्व प्रिंसिपल
१-२ "अहिंसा" जयपुर ( १६ मई १९५६) पृ० ३
३. हिंसा जयपुर (१ फरवरी १९५६) पृ० ७
४. श्री रविसेनाचार्य रचित पद्मपुराण जो की प० दौलतराम जी की टीका, पृ० ४८
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गवर्नमेट कालिज, जयपुर का स्वय कहना है कि, "गीताजी जैन धर्म के सिद्धान्तो मे प्रमाणित अन्य है ।"
हिन्दुओ का दूसरा प्रसिद्ध और प्रामाणिक ग्रन्थ भागवत पुराण कहता है कि जैनियों के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋपभदेव इक्ष्वाकु वशी ये । जो नाभिराय मनुजी के पुत्र और प्रयम मन्त्राट थे, जिनका वर्णन ऋग्वेद तक मे आता है। अनेक विद्वानो का मत है कि नाभिगय मनुजी ने जो उपदेश अपने पुत्र आदि महापुरुप श्री ऋपभदेव को इस युग के प्रारम्भ में दिया और फिर श्री ऋषभदेवजी ने दिया, फिर दूसरे तीर्थकर श्री मजतजी ने और फिर इसी प्रकार २२वं तीर्थकर श्री नेमिनाथजी ने अपने ममयकालीन श्री कृष्णजी को दिया वही कृष्णजी ने महाभारत के समय भी अर्जुन को दिया वही उपदेश गीता के नाम से पुकारा जाता है और यही कारण है कि गीता मे अनेक जैन सिद्धान्त भरे हुए है। आज के विद्वान श्री नेमिनाथजी को श्री कृष्णजी समान ऐतिहासिक पुरुप स्वीकार करते है। डा. श्री राधाकृष्णजी के अनुसार श्री नेमिनायजी का वर्णन वेदो में भी मिलता - 16 श्री कृष्णजी के पिता श्री वमुदेवजी और श्री नेमिनाथजी के पिता श्री समुद्रविजयजी सगे भाई थे 1. श्रीकृष्णजी अनेक वार अपने परिवार माहित भगवान नेमिनायजी के शमोशण मे उनका उपदेश सुनने के लिए गए। श्री कृष्णजी के पुत्र श्री प्रद्युम्नकुमारजी तो तीर्थकर महाराज के उपदेश से इतने प्रभावित हुए कि सब गजनुप त्यागकर भरी जवानी मे जन साधु उनके गमागणं मे ही हो गये थे। गीता पर भगवान नेमिनायजी का प्रभाव होना कुदरती वात है। स्वय कृष्ण जी ने भी गीता अध्याय ४ के लोक १-२ मे इस बात को इस प्रकार स्वीकार किया .
इम विवस्वते योग प्रोक्तवानह मव्ययम् । विवास्वान्मनचे प्राह मनुरिस्वाकवेऽनवीन् ।।।। एव परम्पराप्राप्तमिम राजर्षयोविदुः । स कालेनेह महता योगो मष्ट पर तप ॥२॥
(अध्याय ४) अर्थात् (गीता प्रेस गोरखपुर के अनुसार) इस अविनागी योग को क्ल्प के प्रादि (स युग के प्रारम्भ) मे सूर्य के प्रति कहा गया था और मूर्य ने बाने पुत्र मनु (नामीराय मनु) के प्रति कहा और मनुजी ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु (ऋषभदेव) के प्रति कहा । इस प्रकार परपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजपियो ने जाना । यह पुरातन योग अब मैं तुम्हारे (अर्जुन) के लिए कहता हूँ।
५. महिमा, जयपुर (१६ मई १९५६) पृ०२ ६ विस्तार के लिए हमारा यर्धमान महावीर, पृ० ४० ७ Glimpses of Jainism, page 3 ८. विस्तार के लिए हमारा वर्षमान महावीर, पृ० ४२६ ĉ Indiau Philosophy, Vol. II, p 287. १. Prof. Dr. H. S Bhattacharya Lord .Iri-ita Yema, Pic 3. ११-१२ हरिवंश पुराण पृ० ३८५
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जैन धर्म और कर्म सिद्धांत
श्री हीरालाल पांडे, प्राचार्य एम० ए० पी० एच० डी
बिलासपुर
"श्री हीरालालजी पाडे, प्राचार्य जैन समाज के उद्भट विद्वान है। जैनधर्म और कर्मसिद्धात पर अपने रोचक ढंग से यह लेख प्रस्तुत किया है। जैनधर्म में कर्म का जैसा सुन्दर विवेचन किया गया है, वैसा अन्यत्र नही है । जैनधर्म श्रात्मा का धर्म है। आत्मा साथ कर्मरूपी मैल अनादि काल से इस प्रकार लगा हुआ है जैसे खान से निकले स्वर्ण के साथ कालिमा लगी हुई है । जैसे अग्नि मे डालकर स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही तप रूपी अग्नि के प्रताप से आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है । इस सम्बन्ध मे श्रीमद्भगवतगीता का उदाहरण देकर जैनधर्म के कर्म सिद्धान्तो से उसकी साम्यता दिखाई देती है । कर्मसिद्धात संसार के प्रत्येक प्राणी को कर्मठ बनाता है । उसके जीवन को प्राशा की सुनहली किरणो से आलोकित करता है ।
1
मनुष्य के जीवन की सम्पूर्ण सफलता पुरुषार्थ और प्राशावाद पर निर्भर है जो कर्मसिद्धात सेती है | लेख मौलिक और पठनीय है।"
"जैनधर्म" आत्मा का धर्म है । "जैन" वह श्रात्मा है जो "जयति कर्मशत्रून् इति जिनः " के अनुसार कर्मशत्रुओं को जीतने वाले देव को या परमात्मा को अपना उपास्य या आराध्य माने । आत्मा का धर्म जैन मात्र का उपास्य है । वह तो म्रात्मा का धर्म है और आध्यात्मिक देश वह सभी का उपास्य होना चाहिए। हमारे देश का गौरव प्राध्यात्मिक धर्म और संस्कृति की उपासना में है ।
"जैनधर्म" में प्राराध्य देव सम्पूर्ण कर्मशत्रुओं को या सासारिक और प्रात्मिक बुराइयो को जीतने वाले है । अत "जैनधर्म" की नीव कर्मसिद्धात है । बिना कर्मों को जोते कोई विशुद्ध आत्मा या परमात्मा नही बन सकता । ससार में श्रेष्ठ मानव जीवन को पाकर कर्मों को जीत अच्छे कार्यों द्वारा मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना चार पुरुषार्थो मे श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारो पुरुषार्थ लौकिक जीवन के साथ पारमार्थिक जीवन की ओर संकेत करते है । जीवन की नीव धर्म है । श्रात्मा का धर्म सब सकटो को टालता है। श्रात्मवीर ही सच्चा वीर विश्व में बन सकता है । श्रात्मवीर बनने के लिए जीवन भर शांति और सहिष्णुता के साथ विपत्तियो का सामना करना पडता है । वह जानता है कि आत्मा अनादिकाल से कर्मों से लिप्त है। उसे हम त्मक गुणो के विकास द्वारा कर्म निर्लिप्त या मुक्त बना सकते है ।
"जैनधर्म" यह विश्वास रखता है कि प्रत्येक सासारिक आत्मा चाहे तो अपने कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकता है अत वह प्रत्येक आत्मा को देव या परमात्मा बनने का पात्र मानता है । उसके विश्वास मे प्रत्येक प्रात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । अतएव जैनधर्म ग्रपने भविष्य निर्माण का अधिकार श्रात्मा या व्यक्ति को सौंपता है । अतः जैनधर्म मे परमात्मा - विशेष को ससार के प्राणियों को अच्छा-बुरा फल देने वाला नही माना है ।
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गीता मे कहा गया है
न कर्तृत्व न कर्माणि, लोकस्य सजति प्रभु ।
न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ "भगवान ससार के न कर्तृत्व को करता है, न कर्मों को रचता है और न ही कर्मों के फल को देता है । किन्तु यह सव स्वभाव है- स्वत होता है ।"
पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट है कि परमात्मा ससार के प्राणी के अच्छे-बुरे कर्मों का कर्ताधर्ता नहीं है। प्रत्येक प्रात्मा अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । भारत देश कर्मभूमि है। कर्मभूमि मे प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए कर्म करता है । कृपक की तरह अच्छे वीज बोकर, परिश्रम के साथ भाग्य निर्माण कर अच्छा-बुरा फल पाता है । अत परमात्मा को किसी भी प्रकार दोपी बनाना उचित नहीं है । तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-"जो जस करहि सो तसु फल चाखा।"
ससार मे दो तत्व है-आत्मा और जड या चेतन और अचेतन । ससार इन तत्वो का सयोग है। सभी दर्शन इन दोनो के अस्तित्व को किसी-न-किसी रूप में स्वीकारते है-निबन्ध नहीं। अन्यथा ब्रह्म की प्राप्ति या मुक्ति सभी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। हमे प्रत्येक प्राणी मै पात्म-तस्व के दर्शन करता है और उसे पाने के लिए प्रत्येक को प्रोत्साहित करता है। अथर्ववेद मे कहा है -
'पुरुषे ब्रह्म ये विदुः ते विदु. परमेष्ठितम् ।' 'अर्थात् प्रात्मा मे जो ब्रह्म का दर्शन करते है वे परमात्मा को जानते है ।" परमात्मा मात्मा से पृथक् नहीं है । अतः आत्मा की अनादिता, अमरता, अविनश्वरता आदि की घोषणा की गई । ससार का कोई भी पदार्थ या तत्व नष्ट नही होता केवल उसकी पर्याये या अवस्थाएं बदलनी है । प्रत्येक तत्व मे तीन गुण पाये जाते है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ।
ससार मे चेतन और अचेतन, प्रात्मा और जड दो तत्व है-द्रव्य है। दोनो का अस्तित्व अमर है। दोनो मे अपनापन हमेशा रहता है । अत "मोक्षशास्त्र" ग्रन्थ मे-आचार्य उमास्वामी ने कहा- "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त सत्", "सद् द्रव्य लक्षणम्" अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के-अस्तित्व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रहता है और उसी को द्रव्य कहा जाता है। द्रव्य में गुण और पर्याय होती है।
दोनो तत्वो मे अनुरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रहता है । जड मे जड के अनुरूप और चेतन मे चेतन के अनुरूप । जड से चेतन और चेतन से जड की क्रिया असम्भव है । जिसमे ज्ञान, दर्शन की शक्ति या जानने, सोचने-विचारने की शक्ति हो वह चेतन है । चेतन मे दूसरे शब्दो मे अनतदर्शन, अनतज्ञान, अनतसुख और मनतवीर्य-अनतशक्ति होती है। अनतशक्ति तो जड में भी है परन्तु उतनी नहीं जितनी, यात्म-चेतन मे । शेप चेतन की तीन शक्तिया आत्मा मे ही होगी जड मे नही । अत चारो, अनत चतुष्टय आत्मा मे ही पाये जा सकते है।
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सोना, चादी, लोहा, ताम्रादि की अनेक चीजे बनती है। उनमे कगन, अगूठी, थाली, लोटा, आदि बनने की क्षमता है। इनमे नई अवस्था आई, उत्पाद हुआ । पूर्वावस्था का रूप बन गया अतः व्यय हुआ और धातु अचेतन की अचेतन, जड की जड रही। पर ये चेतन नही हो सकती । इसी प्रकार आत्मा चेतन अनेक रूप धारण कर सकता है- जन्म-मरण कर सकता है पर - अचेत नही हो सकता। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने रूप परिणमन करता है ।
1
" जैनदर्शन" मानता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । वह अपने रूपो का परिणमनो का उत्तरदायी है । कोई द्रव्य किसी का कुछ बिगाड नही सकता । अन्यथा - कर्ता-धर्तापन की भावना यहाँ भी बनी रहेगी जो सच्चे विश्वास को डगमगा देगी। जब सच्चा विश्वास - सम्यग् दर्शन न होगा तो सच्चा ज्ञान और सच्चा चरित्र कहाँ रहेगा। इन तीनो बिना मुक्ति भी न होगी । अत जैन दर्शन ने प्रत्येक द्रव्य को अपने परिणमन मे स्वतंत्र माना है । इसी विश्वास मे मात्मा की विजय है "अहमिन्द्रो न पराजिग्ये " - ऋग्वेद । आत्मा को अनतशक्ति का आभास भी यही होता है ।
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सयोग से अभिन्न रहा
यह ससार सदा से आत्मा और अनात्मा, चेतन या अचेतन के है । इन दोनो के सयोग का नाम ही ससार है। इस ससार में हमे प्रचेतन जड- द्रव्यों का सहारा तो लेना ही पडता है। इसमे जो भी सुख-दुख मिलता है उसमें अचेतन का भी योग रहता है । यह योग तब तक है जब तक ससार है-सासारिक बुद्धि हैं। इसे हम अनुभव भी करते है । इसीलिए "जैनदर्शन" कहता है कि हमारे क्रियाकलापो के अनुरूप " कार्याणवर्गणा" ( जड-द्रव्य कर्मसमूह ) हमारी आत्मा से सबद्ध हो जाती है तथा तदनुरूपेण ( प्रकृतिबंध, प्रदेशबध, स्थिति और अनुभागबध द्वारा) फलदान करती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जड पदार्थ "कार्माण वर्गणा" मे श्रात्म चेतन के क्रियाकलापो या विचारो आदि के कारण फल देने की शक्ति प्रकट हो जाती है। कौन कर्म जड कब उदय मे आकर फल देंगे यह भी निश्चित हो जाता है । " कार्मारण वर्गणा" ओ से आकृष्ट होकर आये, जडकर्मपरमाणु आत्मा से सम्बद्ध हो जाते है । वे ही समयानुसार फल देते है ।
"एकीभावस्तोत्र" मे प्राचार्य श्री वादिराज ने कहा है-
एकीभाव गत इव मया य स्वय कर्मबन्धो, घोर दुख भवभवगतो दुर्निवार. करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे । भक्तिरुन्मुक्तये चेत्, जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्ताप हेतु ॥
"हे भगवान् जिनेन्द्र सूर्य । अनेक भवो मे सचित दुर्निवार तथा मेरे साथ स्वय एकी भाव को प्राप्त कर्मबन्ध घोर दु ख देता है । उस कर्मबध से (जो अनादि कालीन है ) भापकी भक्ति छुटकारा दिलाती है तो फिर वह भक्ति दुख देने वाले अन्य किससे छुटकारा न दिलावेगी ।"
पूर्वोक्त भक्तिपद्य में श्रात्मा को अनादिकाल से कमवद्ध बताया है। साथ मे जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति का माहात्म्य भी बताया है। जैनदर्शन - कर्म से आत्मा का सवध अनादि
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मानता है । यह सम्बन्ध सयोग सम्बन्ध है । सयोग सम्बन्ध छूट जाता है किन्तु तादात्म्य सम्बन्ध नही छूटता । वह यह मानने को तैयार नही कि किसी के कारण श्रात्मा कर्मवन्ध से मुक्त होने पर भी जन्म धारण कर सकता है। न वह यह मानने को तैयार है कि आत्मा किसी शक्ति का अग है । कर्मबंध से वघा हुआ आत्मा जन्म-मरण के दुःख सहता है । मसार मे प्रत्येक प्राणी की आत्मा स्वतंत्र है - पृथक्-पृथक् है । प्रत्येक आत्मा की शक्ति अनत है। शक्ति दृष्टि से आत्माओ मे कोई अंतर नहीं है। इसी को विशुद्ध आत्मदृष्टि कहते है |
अत जैनदर्शन ने प्राणी दो प्रकार के माने हैं- ससारी और मुक्त । ससारी जन्म-मरण के दुख तब तक उठाते है जब तक कि वे कर्मवध से छूट नही जाते और मुक्त वे हैं जो जन्म-मरण के दुख से सदा को दूर हो जाते है। मुक्त पुन कभी भी इस ससार मे जन्म नही लेते । में खाता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ, मैं पढा लिखा हू इत्यादि वाक्यो मे, "मैं" शब्द शरीर में रहने वाली एक अदृश्य शक्ति का संकेत करता है, उसे ही जैनदर्शन ने आत्मा माना है । वह धनादि से कर्मबद्ध है— ससारी है अतएव जन्म-मरण करता है और नये-नये शरीर धारण करता है जव तक कि मुक्त नही हो जाता ।
गीता में कहा है
वासासि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह, नाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
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न्यन्यानि संयाति नवानि देही || "जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण-शीर्णं वस्त्रो को त्याग कर नये दूसरे वस्त्रो कोपहिनता है - धारण करता है उसी प्रकार आत्मादेही- संसारी जीणं शरीरो को छोडकर अन्य शरीर धारण करता है ।"
गीता ने भी आत्मा को अनादि और जन्म-मरण धारण करने वाला माना है । जैनदर्शन प्रत्येक ससारी आत्मा को अपना हित और ग्रहित करने वाला मानता है । प्रत्येक ससारी विवेक से अच्छे से अच्छा - उन्नत से उन्नत - श्रेष्ठ से- श्रेष्ठ वन सकता है और अविवेक से बुरे से बुरा, हीन-से-हीन और नीच-से-नीच वन सकता है । जो अच्छा कार्य करता है वह उच्च है और जो बुरा कार्य करता है वह नीच हैं । अत यह स्पष्ट है कि ससार और धर्म-दर्शन के क्षेत्र मे सुकम को ही महत्व दिया जाता है। सुकर्मों से ही मुक्ति मिलती है । कर्मों का फल सबको भोगना पड़ता है यह सर्वमान्य सिद्धात है । ससारी प्राणी को कर्मो का फल स्वत कर्मों के द्वारा मिलता है । क्रर्मोदय मे कोई अन्य कारण नही है ।
Andying
"भावना द्वात्रिंशत्का" मे कहा हैपुराकृत कर्मयदात्मना
स्वय
फल तदीय लभते शुभाशुभम् ।
परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुट,
स्वयं कृत कर्म निरर्थकं तदा ||
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- प्रात्मा ने स्वय पहिले जो कर्म किए है। उनका ही अच्छा-बुरा फल उसे भोगना पडता है। यदि यह माने कि दूमरे के द्वारा दिए गए कर्मफल को भोगना पड़ता है तो अपने द्वारा किया गया कर्म निरर्थक हो जावेगा-प्रात्मा दूसरे के कर्मों का गुलाम हो जावेगा-उमकी स्वतंत्रता छिन जावेगी। अत यह मानना होगा
. निजाजित कर्म विहाय देहिनो, '-' न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसो,
__ परो ददातीति विमुच्य मुपीम् ॥ - "देही आत्मा को अपने अर्जिन कर्म का फल मिलता है। कोई किसी को कुछ नहीं देता । प्रत आत्मदृष्टि मे लीन हो पूर्वोक्त प्रकार से विचारते हुए दूसरा देता है (कर्मों को या कर्मफल को) यह पर-बुद्धि छोड देना चाहिए अन्यथा कल्याण नहीं हो सकता ।] पर-बुद्धि के कारण ही ससारी बना रहता है। परबुद्धि मिथ्याधुद्धि है और स्ववुद्धि या आत्मवुद्धि सच्ची बुद्धि है-सच्ची दृष्टि है। अरिस्टाटिल कहते है
"Ruohcs, and authorty and all things else that come under the heading of potentialities are the gift of fortune Among feelings we have angar, fear, hatred, longing, envy, pity and the like-these are all accompained by pain or peasulre. Faculties are the potentialities of anger, grief pity and the like To do well and to do all are alike within owr powers Every natural growth whether plant or anlmal has the power of producing its like. It 18 who has the power of originating action, our changes of action are under control af our will."
"धन, अधिकार और वे सर्व वस्तुए जो अदृष्ट है-भाग्य का फल है। क्रोध, भय, इच्छा, ईर्ष्या दया आदि भाव दुख या सुख देते है। इन सब के होने का कारण अदृष्ट शक्तियाँ हैं; अच्छा या बुरा करना हमारा पुरुषार्थ है । वृक्ष या पशु अपनी प्रकृति के अनुसार बनने की की शक्ति रखते है। मानव अपने पुरुपार्थ से अनेक विचित्र कामो को अदल-बदल के कर सकता है।"
प्रत स्पष्ट है कि परिस्टाटल भी अपने कर्मों के फल को भोगने की बात मानते हैं । यहां यह कहना अनुचित न होगा कि वे ईश्वर को जगत् का कर्ता मानने को तैयार नही और पापपुण्य का फल देने वाला भी। ये विचार जैन दर्शन से मेल खाते है। अरिष्टाटल के दाणेनिक सिद्धान्तो में जैन दर्शन के सिद्धान्तो की विगेप झलक मिलती है।
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प्राचार्यों ने आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध का वैज्ञानिक विश्लेपण मनोविज्ञान के धरातल पर किया है। वे जिस नतीजे पर पहुंचे उसी आधार पर कर्मों के पाठ भेद माने है-(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, सातावेदनीय, प्रमातावेदनीय, (४) मोनीय, (५) बायु कर्म, (६) नामकर्म, (७) गोत्रकर्म, (८) अन्तराय कर्म।
इन पाठो कर्मों के पृथक-पृथक कार्य है । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण को प्रक्ट नहीं होने देता । ज्ञान का आवरण जितना हटेगा उतना ही ज्ञान प्रकट होगा । सम्पूर्ण आवरण हटने पर पूर्ण ज्ञान-केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रात्मा का ज्ञान अभिन्न गुण है। दर्शनावरण आत्मा के दर्शन गुण को ढांकता है। दर्शनावरण जितने प्रशो मे हटता है उतना ही दर्शनगुण प्रकट होता है। आत्मा की अनन्त दर्शन शक्ति है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । सातावेदनीय सुख देता है और असातावेदनीय दुख देता है । मोहनीय कर्म राग, द्वेप, क्रोध, मोह, लोभ आदि पैदा करता है। आयु कर्म देही आत्मा को निश्चित समय तक जीवित रखता है । नामकर्म शरीर की पूर्णतया रचना करने में स्वाधीन है। गोत्रकर्म प्राणी को उच्च कुल या नीच कुन मे जन्म देता है। अतः गोत्रकर्म के दो भेद है-उच्च गोत्र तथा नीच गोत्र । गोत्र का कार्य जन्म से सम्बद्ध है।
जन्म उच्च कुल या नीच कुल मे लेने के बाद प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है । कर्म के क्षेत्र मे सच्चा जनतन्त्र है। अच्छा कर्म करने वाला अच्छा और बुरा कर्म करने वाला बुरा । उच्चता और नीचता, कुलीनता और अकुलीनता कमों पर आधारित है। चार वों की व्यवस्था जन्म और कर्म के एक से सयोग होने पर श्रेष्ठ मानी जाती रही है । अन्तराय कर्म अच्छे-बुरे कर्मों मे विघ्न डालता है।
___ कर्मवाद के सिद्धान्त में उपादान कारण (मुख्य कारण) और निमित्त कारण (गौण या सहायक कारण) दोनो का ध्यान रखना पड़ता है। जिस कर्म का उदय है वह उपादान कारण तथा अन्य सहयोगी निमित्त कारण कहा जावेगा। उपादान कारण मुख्य गक्ति रूप है। निमित्त कारण तो ससार मै भरे पड़े है । प्रात्मा की दो शक्ति है--स्वाभाविक और वैमाविक । स्वाभाविक शक्ति आत्मा के गुण या स्वभाव रूप परिणमन कराती है। स्वभाव रूप परिणमन ही धर्म है । विभावरूप परिणमन करला वभाविक शक्ति का काम है। पारमा अन्य द्रव्यों के समान अपने परिणमन मै स्वतन्त्र है । आत्मा अपने गुणों को जितने अशो में प्रकट करता जाता है वह उतना ही स्वाभाविक शक्ति के निकट पहुंचता जाता है। स्वाभाविक शक्ति के पूर्ण प्रकट होने पर मुक्ति होती है-प्रात्मा कर्म सयोग से मुक्त होकर मुक्त जीव बनता है। मोह कर्म कर्मों का राजा है। कोष, मान, माया लोम उसी के है । इनसे ही आत्मा और कर्म का व सायोगिक होता है। यह वध चार प्रकार का होता है प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग।
प्रकृति वध कर्म के नामरूप होता है। प्रदेशावंध में प्रात्मा के प्रदेशो-जगो के साथ कर्म का वध और कर्मपरमाणुओ की मात्रा का वध होता है। स्थितिवष समय निर्धारित करता है और अनुभागवध फलदान शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, मान, माया और लोन पाये है। इनकी तरनमता के ऊपर वध निर्मर है । इन पूर्वोक्त क्मों से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करना ही
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सच्चा पुरुषार्थ है । मन और कषायों के संपर्क से उत्पन्न चौदह अवस्थाओं - गुगस्थानों को पार कर आत्मा युक्त बन सकता है । श्रत. प्रत्येक श्रात्मा को क्रमबंब से नुक्त होने के लिए सच्चा दर्शन, सच्चा ज्ञान और सच्चा चरित्र पाने की कोशिश करना चाहिए। क्योंकि इन तीनों की प्राप्ति से ही मुक्ति मिलेगी - अनंत आनंद की प्राप्ति होगी । सच्चा दर्शन - विश्वास - "जीवाजीवाश्रववंच संवर निर्जरा मोक्षास्तत्वम्” –'जीब, अंजीव, श्राश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोल इन तत्वों के सच्चे ज्ञान पर निर्भर है ।
जीव श्रात्मा है । आत्मा द्रव्य है । वह अजर-अमर भी हैं। आत्मा के ज्ञान, दर्शन, मुख और यक्ति गुण हैं । प्रत्येक के माय अनंन जोड़ने पर ये अनंत चतुष्टय बन जाते हैं । अजीव द्रव्य मैं आत्मा के गुण नहीं श्रतं. जीव से विपरीत अजीब कहा गया है। जीव द्रव्य पांच है-धर्म, धर्म, आकाश, काल और पुद्गल - जड़ । धर्म द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में सहायक होता है । धर्म द्रव्य ठहरने में सहायक होता है । श्राकाश जगह देता है रहने के लिए । प्रकाश के दो भेद हैं- लोकाकार तथा अलोकाकाम । लोकाकाम में छह व्यें रहती हैं किन्तु अलोककाय मे केवल आकाण ही है शेष द्रव्यें नहीं 1 कान समयं बताता और पुछ्न जड़ है इसमें कठोरता, कोमलता, रुक्षता आदि गुरण होते हैं ।
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गुणस्थानों के सहारे ग्राठों कर्मों में से मोहनीय कर्म के साथ-साथ ज्ञानवरण, वनाधरण और अतराय कर्मों का क्षय कर संसारी आत्मा अरहंत पत्र पाता है। इस अवस्था में वह महारीर रहता है और संसार के प्राणियों के कल्याणार्थ सदुपदेश देता है । यह सदुपदेव दिव्यध्वनि कहलाती है । अतः पांच परमेष्ठियों में प्रथम स्थान अरहंत को दिया । छेप वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों को नष्ट कर अरहंत मिद्ध हो जाते हैं। सिद्ध शाकाध के दूसरे भेट लोकाकाश में जो विराजते हैं 1 ये सिद्ध कर्मबन्धनों से मुक्त हो पुनः संसार में जन्म नहीं लेते। शेप परनेकी आचार्य, उपाध्याय और सर्वसा है।
इस प्रकार जैनधर्म-दर्शन में कर्मसिद्धान्त मुख्य सिद्धान्त है । कर्मसिद्धान्त का विवेचन स्याद्वाद के सहारे होता है । स्याद्वाद - श्रनेकान्तवाद ही वस्तुस्वरूप का सच्चा एवं पूर्ण विवेचन करता है । कर्मभूमि मे कर्मसिद्धांत कर्म को गौरव देना है । कर्मसिद्धांत संसार के प्रत्येक प्राणी को कर्मठ बनाता है। उसके जीवन को आशा की जगमगाती मुनहली किरणों से श्रानांकित करता है । क्योकि कहा है
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निराशाया. समं पापं मानवस्य न विद्यते । समुत्मार्थ समून्द्र तामाणावादपरो नव ॥
निर्भर है ।"
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"निराधा के समान पाप नही है । धतः मानव को अपने जीवन को उन्नत बनाने की भावना वाला होना चाहिए ।"
मानवस्योन्नति व साफल्यं जीवनस्य च ।
चारिनाय्यं नया सृष्टेराशावादे प्रतिष्ठितम् ॥
"मनुष्य की सम्पूर्ण उन्नति, जीवन की सफलता एवं सृष्टि की सायंन्द्रा द्यावाट पर
समूल नष्ट कर प्राशावादी
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विश्व-शांति के अमोघ उपाय
सुप्रसिद्ध लेखक श्री प्रगरचन्द
नाहटा, बीकानेर विश्व का प्रत्येक प्राणी शान्ति का इच्छुक है। जो कतिपय पथ-भ्रान्त प्राणी अशांति की सृष्टि करते है वे भी अपने लिए तो शान्ति की इच्छा करते है । अशात जीवन भला किसे प्रिय है। प्रतिपल शाति की कामना करते रहने पर जो विश्व में प्रशाति बढ़ रही है। इसका कुछ कारण तो होना चाहिए। उसी की शोध करते हुए शाति को पाने के उपायो पर प्रस्तुत लेख में विचार किया जाता है । आशा है कि विचारशील व विवेकी मनुष्यो को आशा की एक किरण मिलेगी, जितनी यह किरण जीवन में व्याप्त होगी उतनी ही शान्ति (विश्व-शान्ति) की मात्रा बढ़ती जाएगी।
___ व्यक्तियो का समूह ही 'समाज' है और अनेक समाजो का समूह एक देश है। अनेको देशो के जन-समुदाय को 'विश्व शान्ति' कहते है और इसी 'विश्व-जनता' के धार्मिक, नैतिक, दैनिक जीवन के उच्च और नीच जीवन-चर्या से विश्व में प्रशाति व शाति का विकास और ह्रास होता है । प्रशाति सर्वदा अवाछनीय व अग्राह्य है । इसलिए इसका प्रादुर्भाव कब कैसे किन-किन कारणो से होता है-इस पर विचार करना परमावश्यक है।
प्रथम प्रत्येक व्यक्ति के शान्ति व अशाति के कारणो को जान लेना जरूरी है इसीसे विश्व की शाति व प्रशाति के कारणो का पता लगाया जा सकेगा । व्यक्ति की अशान्ति की समस्याओ को समझ लिया जाय और उसका समाधान कर लिया जाय तो व्यक्तियो के सामूहिक रूप 'विश्व' की अशान्ति के कारणो को समझना बहुत आसान हो जायगा। ससार का प्रत्येक जीवधारी व्यक्ति यह सोचने लग जाय कि अशान्ति की इच्छा न रखने पर भी यह हमारे बीच कैसे टपक पडती है, एव शान्ति की तीव्र इच्छा करते हुए भी वह कोसो दूर क्यो भागती है ? तो उसका कारण ढूढ़ते देर न लगेगी। विश्व के समस्त प्राणियो की बुद्धि का विकास एकसा नहीं होता, प्रत विचारशील व्यक्तियो की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। जो प्राणी समुचित रीति से प्रशाति के कारणो को जान नहीं पाता, उसके लिए विचारशील पुरुष ही मार्ग-प्रदर्शक होते है।
दुनिया के इतिहास के पन्ने उलटने पर सर्वदा विचारशील व्यक्तियो की ही जिम्मेदारी अधिक प्रतीत होती है । विश्व के थोडे से व्यक्ति ही सदा दुनिया की अशाति के कारणे को ढूढने मे आगे बढे, नि स्वार्थ भाव से मनन कर उनका रहस्योद्घाटन किया और समाज के समक्ष उन कारणो को रखा । परन्तु उन्होने स्वय अशान्ति के कारणो से दूर रहकर सच्ची शान्ति प्राप्त की।
हां। तो व्यक्तियो की अशान्ति का कारण होता है प्रज्ञान, अर्थात् व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को न समझकर काल्पनिक स्वरूप को सच्चा समझ लेता है और उसी व्यक्ति की प्राप्ति के लिए लालायित होता है, सतत् प्रयत्नशील रहता है इससे गलत व भ्रामक रास्ता पकड़ लिया जाता है और प्राणी को अनेक कष्ट सहने पडते है। उन कष्टो के निवारणार्य वह स्वार्थान्ध हो ऐसी धार्मिक तथा नीति विरुद्ध क्रियायें करता है कि जिनसे जन-समुदाय मे हलचल मच जाती है और प्रशान्ति आ खड़ी होती है। यह स्वरूप का अज्ञान जिसे जैन परिभाषा मे
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'मिथ्यात्व कहते है, क्या है ? यही कि जो वस्तु हमारी नही है उसे अपनी मान लेना और जो वस्तु अपनी है उसे अपनी न समझकर छोड देना या उसके प्रति उदासीन रहना। उदाहरणार्थ जड़ पदार्थ जैसे वस्त्र, मकान, धन इत्यादि नष्ट न होने वाली चीजो को अपनी न समझकर प्राप्ति व रक्षा का सर्वदा इच्छुक रहना और चेतनामयी आत्मा जो इनकी सच्ची सम्पत्ति है उसे भुला डालना सच्चे दुखो का जन्म इन्ही क्षणभगुर वस्तुओ की प्राप्ति में लगे रहने से ही होता है। दृश्यमान सारे पदार्थ पौद्गलिक है, जड है। आत्मा तो हमे दिखाई देती ही नही, प्रत, शरीर ही हमने सब कुछ मान लिया है । उसी को सुखी रखने के लिए धन-सम्पत्ति इत्यादि को येन-केन-प्रकारेण जुटाने मे सलग्न रहते हैं। इस तरह हम वस्तुओ की प्राप्ति की तृष्णा मे ही जीवन-यापन करते हुए अपनी वस्तु अर्थात् प्रात्म-भाव प्रात्मानुभव से पराङ्मुख हो रहे है, यही अशान्ति का सबसे प्रधान, मूल और प्रथम कारण है।
जब पदार्थ सीमित है और मानव की इच्छाएँ अनन्त है । अतः ज्योही एक वस्तु की प्राप्ति हुई कि दूसरी वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा जागृत हो उठती है। इस तरह तृष्णा बढती चली जाती है और उत्तरोत्तर अधिक सग्रह की कामना मन मे उद्वेलित हो उठती है जिससे हम व्यग्न व प्रशान्त हो जाते है । इसी प्रकार अन्यान्य व्यक्ति भी संग्रह की इच्छा करते है और प्रतिस्पर्धा बढ जाती है । अशान्ति की चिनगारियां छूटने लगती है । व्यक्तित्व देश की अशान्ति रूप ज्वाला धधक उठती है कि वह सारे विश्व मे फैल जाती है और एक विश्वव्यापी युद्ध का अग्निकुण्ड प्रज्वलित हो उठता है जिससे सारे विश्व का साहित्य, जनसमूह, सम्पत्ति जलकर राख हो जाती है । यही दुनिया की अशान्ति की राम-कहानी है। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न देशो मे उत्पन्न हुए महापुरुष यही उपदेश दिया करते है कि 'अपने को पहचानो, पराये को पहचानो' फिर अपने स्वरूप मे "रहो, और अपनी आवश्यकतानो को सीमित करो, तृष्णा नहीं रहेगी तो सग्रह अति सीमित होगा जिससे वस्तुमो की कमी न रहेगी। प्रत वे आवश्यकतानुसार मभी को सुलभ हो सकेगी। फिर यह जन-समुदाय शान्त और सतुष्ट रहेगा। किसी भी वस्तु की कमी न रहेगी । जन-समुदाय भौतिक वस्तुप्रो की प्राप्ति सुलभ होने पर उन पर कम प्रासक्त होगा और आत्मज्ञान की ओर मुकेगा। मानव ज्यो-ज्यो अपने आत्म-स्वरूप को समझने का प्रयत्न करेगा, त्यो-त्यो वह समझता जायगा कि भौतिक वस्तुए जिनके लिए वह मारा-मारा फिर रहा है, जल्द नष्ट होने वाली है, पर उसमे मोह रखना मूर्खता है। इन विचारो वाला आवश्यकता से अधिक सग्रह (परिग्रह) न करेगा और अन्त में उसे मात्मा ही ग्रहण करने योग्य है-यह स्पष्ट मालूम हो जाएगा। इस तरह एक दिन वह भली-भाति समझ लेगा कि प्रात्मा मे मग्न रहना ही सच्ची शान्ति है। यदि इस प्रकार विश्व का प्रत्येक प्राणी समझले तो फिर विश्व की अशान्ति का कोई कारण ही नहीं रहेगा। परिग्रह सग्रह और ममत्व बुद्धि ही प्रशान्ति का दूसरा कारण है।
माजका विश्व भौतिक विज्ञान की तरफ प्रॉख मू दकर वढता चला जा रहा है। योरोप की बाते छोडिये । पर वह तो भौतिक विज्ञान के अतिरिक्त प्राध्यात्मिक विज्ञान को जानता तक नहीं । सब भौतिक विज्ञान के अधिकाधिक विकास मे ही मनुष्यो को पराकाष्ठा मानता है। ३५२ ]
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फलत अणुबम जैसे सर्वमहारक शस्त्र का आविष्कार करता है । केवल भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है कि जहां अनादि काल से आध्यात्मिक धारा प्रजम गति के प्रवाहित होती आ रही है। और समय-समय पर देश के महापुरुपो, ऋपियों ने इसे और भी निर्मल तथा सचेत बनाया और इस धारा का पीयूष सम जल पीकर अनेक मानव सन्तुष्ट हुए । अव योरोप भी भारत की ओर आशा की दृष्टि लगाये देख रहा है क्योकि उसे इस देश की अहिंसा-मूर्ति महात्मा गाधी की आत्मिक शान्ति का आभास मिल चुका है। वह समझ गया कि अहिंसा की कितनी बडी भक्ति है जिसके द्वारा भारतवासी अग्रेजो के शक्तिशाली साम्राज्य से विना शस्त्रो को लिए भी ममर्प तथा सफल हुए। उन्होने बडी सफलतापूर्वक अपनी चिरमिलपित स्वतन्त्रता प्राप्त की। वे समझने लगे है कि भारत ही अपने आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा विश्व-कल्याण कर सकता है और आत्मानुभव से ही प्रखण्ड शान्ति प्राप्त हो सकती है । 'यह मेरा है' वह व्यक्ति या देश मेरा नहीं है, इस भेद-भाव के कारण प्राणी अन्य प्राणियों के विनाग मे उद्यत होता है। इस भेदभाव से अधिक और कोई बुरी वात हो ही नहीं सकती। दूसरे के दु.ख को अपना मानकर दुःख अनुभव कर उसके दुख निवारण मे ही सहयोग देना मानवता है। पराया कोई है ही नहीं, सभी अपने ही है ऐसा भाव जहाँ आरा कि किसी को कष्ट पहुचाने की प्रवृत्ति फिर हो ही नहीं सकेगी फिर पराया कष्ट अपना ही करट प्रतीत होने लगेगा।
भारत एक आध्यात्मिक विद्याप्रधान देश है । इस देश में बडे-बड़े आध्यात्मवादियों ने जन्म ग्रहण किया है। उनमे प्राय ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और वुद्ध अवतीर्ण हुए थे। अहिंसा उनका प्रधान सदेश था। महात्मा गांधी की 'अहिंसा' व विश्व-प्रेम, भारत के लिए कोई नवीन वस्तुए नहीं थी, सिर्फ उसकी अपार शक्ति को हम भूल-से गये थे । इन्ही अहिंसा, सत्य
आदि को भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध ने अपने पवित्र उपदेशो द्वारा भारत के कोने-कोने मे प्रचलित किया था । भगवान् महावीर ने ही 'अहिंसा' यानी 'विश्व-प्रेम' का इतना सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया है कि जिसकी मिसाल मिल सकती । उनका कथन था , " मनुष्य को अपनी मात्मा को पहिचानना चाहिये, मैं स्वय शुद्ध हू, बुद्ध हू, चैतन्य हू, सर्वशक्ति सम्पन्न एव वांछारहित हू, मुझे किसी भी भौतिक पदार्थ मे भासक्ति नहीं रखनी चाहिए, उनसे मेरा कोई चिरस्थायी सवध नहीं। अगर मानव इ7 उपदेश को ग्रहण करे, तो उसमें अनावश्यक वस्तुओं के सग्रह की वृत्ति (परिग्रह) ही न रहेगी। उसमे मूळ व तीन प्रारम्भ वैमनस्य, और कलह न रहेगा । जव यह सब नहीं रहेगे तो फिर जन-समुदाय से प्रशान्ति का काम ही क्या है ? सर्वत्र शान्ति छा जायेगी और विश्व मे फिर अशाति के वादल और युद्ध की भयकर आशका छा रही है वह न रहेगी । सर्वत्र मानव महान सुखी दिखाई पडेगा। उपयुक्त विवेचना से विश्व शान्ति के निम्नलिखित कारण सिद्ध हुए -
१ आत्म-वोध-चेष्टा और भौतिक वस्तुओ मे विराग अर्थात् आत्म-ज्ञान । २ अनावश्यक अन्न वस्त्रादि का सग्रह नहीं करना अर्थात् अपरिग्रह ।
३. 'आत्मवर सर्वभूतेषु य पश्यति म पण्डित' अपनी आत्मा के समान विश्व के प्राणियो को समझना । अर्थात् 'अहिंसा-प्रात्मीयता का विस्तार'।
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४. विचार सघर्प मे समन्वय का उपाय-अनेकान्त ।
आज मनुष्य का एक दम ह्रास हो चुका व हो रहा प्रतीत होता है। पारस्परिक प्रेम और मंत्रीभाव की कमी परिलक्षित हो रही है। पुराने व्यक्ति आज भी मिलते है तो
आत्मीयता का अनुपम दर्शन होता है, वे खिल जाते है, हरे भरे हो जाते है। चेहरे पर उनके प्रसन्नता, प्रफुल्लता के भाव दृष्टिगोचर होने लगते है, पर आज के नवयुवको के पाम बनावटी दिग्वावै की मैत्री व प्रेम के सिवाय कुछ है ही नहीं। वाहर के मुहावने, चिकनी-चुपड़ी वातें, भीतर से धोखापन अनुभव होता है। इसलिए परदुःख-कातर विरले व्यक्ति ही मिलते हैं। अपना स्वार्थ ही प्रधान होता है। एक-दूसरे के लगाव से ही स्वार्थ टकराते है और प्रशान्ति वढती है । आत्मीयता के प्रभाव मे ही यह महान् दुख हट सकता है। हमारा प्राचीन भारतीय आदर्ग तो यही रहा है -
अय निज परोवेत्ति, गणना हि लघुचेत्तसाम् ।
उदार चरिताना तु 'वसुधैव कुटुम्बकम्' । इस आदर्श को पुन प्रतिष्ठापित करना है।
1 x x x x जयपुर का हिन्दी जैन-साहित्य और साहित्यकार
श्री गंगारामजी गर्ग, एम०ए०
___ रिसर्च स्कालर, जयपुर श्री गगारामजी गर्ग एम० ए० रिसर्च स्कालर ऐसे उदीयमान अजैन वन्धु है जिन्हें जैनधर्म से अत्यन्त प्रीति है। उन्होने जैन विषयो पर अनेक स्वतन्त्र गवेषणात्मक लेख लिखे हैं। 'जयपुर के जन विद्वानो की हिन्दी सेवा इस विषय पर आपका सारगर्भित खोजपूर्ण निवन्ध । सक्षिप्त और मौलिक ढग से लिखा गया है। इस लेख को पढकर आप भली प्रकार जान सकेंगे कि जयपुर मे जैन विद्वानो ने किस प्रकार हिन्दी साहित्य की सेवा की। आपके लेख पठनीय और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं ।"
जयपुर चिरकाल से जैन सस्कृति और साहित्य का केन्द्र रहा है । यहाँ विमलदास, कृपाराम, वालचन्द, वरवतराम आदि कई जैन धर्मावलम्बी प्रमुख राज्य-पदो पर आसीन होते रहे, अनेक श्रेष्ठि-जन मुन्दर जिन-चैत्यालयो का निर्माण करवाते रहे जिससे यहां की भूमि में जैन धर्मवल्लरी पर्याप्त पुष्पित भौर पल्लवित हुई। जैन धर्म के व्यापक प्रचार ने जैन साहित्य को भी बड़ी गति दी । मनुष्यो ने जैन धर्म व साहित्य का अध्ययन किया । शास्त्रो के अध्ययन ने क्लिष्ट व दुरूह अन्थो के अनुवाद तथा तन्निहित गूढ दार्शनिक तत्वो के विवेचन की प्रेरणा उनको दी एव भाव-भरी अपभ्रश रचनायो के पारायण ने उनमे कवि-बुद्धि जागृत की, अतः जयपुर में विपुल साहित्यिक रचनाओं का निर्माण हुआ। जयपुर के समग्र जैन साहित्य का अध्ययन कर लेने पर हमको उसमे निम्नलिखित विशेषताएं मिलती हैं - ३८४
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१. जयपुर के जैनेतर साहित्यकारो का केवल पद्य साहित्य ही है किन्तु जैन लेखको का पर्याप्त गद्य भी ।
२. जयपुर मे जैनो की दिगम्बर शाखा का बोलवाला रहा अत यहा सभी जैन साहित्यकार प्राय दिगम्बर है। श्वेताम्बर जैनो ने गद्य तो बिल्कुल लिखा ही नही, कविता अवश्य की है वह भी केवल दो-तीन कवियो ने ।
गृहस्थ है ।
३ ब्रह्मरायमल्ल, सुजानमल आदि को छोडकर जयपुर के सभी साहित्यकार प्राय
४ महावीर स्वामी ने अपने उपदेश लोक भाषाओ मे दिये थे जिससे जन-जन उन्हें समझ सके । जैन साहित्यकार भी अपने साहित्य को सर्वदा लोक भाषाओ मे व्यक्त करते रहे है । जयपुर के जैन साहित्यकारो पर भी यहा की स्थानीय बोली दुलहाड़ी का पर्याप्त
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प्रभाव है ।
होने लग गया था ।
जैन गद्य - गद्य साहित्य का प्रसार और वैभव आधुनिक काल मे ही अधिक देखा मौर माना जाता है किन्तु जयपुर के जिन मन्दिरो मे उपलब्ध अनेक गद्य-कृतियो के अध्ययन से मालूम होता है कि गद्य लेखन का प्रचलन सत्रहवी - अठारहवी शताब्दी से ही अच्छा जयपुर के जैन लेखको का गद्य चाहे टीका के रूप में ही अधिक क्यो न हो, किन्तु शैली, तत्त्वविवेचन की क्षमता तथा वर्तमान गद्य के उद्भव और विकास की दृष्टि से उसका अपना बड़ा महत्त्व है । यहाँ की हिन्दी गद्य-कृतियो मे अनुवाद के टब्वा, वालाववोध और वचनिका तीनो रूप पाये जाते है जिनमे अन्तिम दो शैली की दृष्टि से राजस्थानी वालावबोध औौर वचनिका से भिन्न है टब्बा का स्वरूप राजस्थानी और हिन्दी दोनो मे समान है । जैन गद्यकारो की स्वतन्त्र रचनाएं श्री प्राध्यात्मिक हैं यथा- टोडरमल का मोक्ष - मार्ग प्रकाशक और दीपचन्द के आत्मावलोकन चिद्विलास आदि ग्रन्थ |
जैन काव्य-काव्य के दो भेद माने जाते है - प्रवन्ध और मुक्तक । जयपुर के जैन कवियो मे मुक्तककार अधिक हैं, प्रबन्धकार के रूप में तो केवल ब्रह्मरायमल्ल का ही नाम उल्लेखनीय है जिन्होने स्वतन्त्र काव्य-ग्रन्थो की रचना की है। हां, जैन पुराण और चरित्रो के पद्यानुवाद यहाँ अवश्य बहुलता से मिलते है जिनमे कही कही मूल का सा काव्यानन्द उपलब्ध होता है। जैन सुक्तको के प्रधान विषय भक्ति और नीति है। जैन कवियो के श्राराध्य तीर्थंकर है जिनकी अगम्यता, अगोचरता, अपारता, दया, निष्कामता, शोभा, शान्तस्वरूप वीतरागता आदि का जी खोलकर गान किया गया है। जैन कवियो ने अपने आराध्य को पतित तारक भी कहा है । जिस प्रकार वैष्णव भक्तो मे आराध्य के द्वारा वाल्मीकि, अहिल्या, श्रजामिन, गज आदि के उद्धार की चर्चा है उसी प्रकार जैन भक्तो मे भील, अजन चोर, शृगाल व नाग-दम्पती के कल्याण की । भक्त हृदय की निष्कामता, श्रतन्यता, श्रात्मनिवेदन की प्रवृत्ति प्रादि सभी विशेषताएँ जैन -काव्य मे प्रचुर मात्रा मे मिलती है। जैन धर्म प्रचार-प्रधान धर्म है; प्रत जैन काव्य मे भी सत्य, वीतरागता को प्रधानता दी है । द्यूत, आमिप आहार, मदिरा-पान, वैश्या सेवन, पर नारी
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गमन, अस्तेय, शिकार यादि सप्तव्यसन, कुत्रचन, क्रोध, ग्रहकार, परनिन्दा त्याग सम्बन्धिनी अनेक नीति- उक्तियां बहुलता से दृष्टिगोचर होती है ।
जयपुर के प्रमुख जैन साहित्यकार
१ ब्रह्मरायमल्ल — जैन काव्य मे ब्रह्मरायमल्ल नामक दो व्यक्ति हुए हैं। एक जयपुर में, दूसरे गुजरात मे । जयपुर के ब्रह्मरायमल्ल का समय सत्रहवी शताब्दी का पूर्वार्द्धकाल है । ब्रह्मचारी होने के कारण ब्रह्मरायमल्ल इधर-उधर भी पर्याप्त रहे, किन्तु इनका मुख्य काव्य-क्षेत्र सांगानेर ( जयपुर ) ही रहा । ब्रह्मरायमल्ल जयपुर के अकेले मौलिक प्रवन्ध रचयिता है। इनके ग्रन्थ हैं - नेमिनाथ रासो, प्रद्युम्न रासो, श्रीपाल रासो, भविष्यदत्त कया, हनुवन्त कथा, निर्दोष सप्तमी की कथा, चन्द्रगुप्त चोपई, परमहंस चोपई इन सभी ग्रन्थो मे शान्त, शृगार, वीभत्स, वीर, रौद्र, वात्सल्य, करुण आदि सभी रसो की व्यजना हुई है । युद्ध, विवाह, उपवन आदि के वर्णन अच्छे हैं । ब्रह्मरायमल्ल के ग्रन्थो मे यत्र-तत्र उद्यम, वैर्य, परनारी-गमन सम्बन्धिनी नीति उक्तियाँ भी दृष्टिगत होती है । ब्रह्मरायमल्ल की भाषा यथावसर मबुरव ओजस्वी तथा मुहावरेदार है ।
२. राजमल्ल पाण्डे – हिन्दी के जैन गद्याकारो मे पाण्डे राजमल्ल का नाम अग्रणी हैं। इनकी पचाध्यायी, लाटी - सहिता, जम्बू स्वामी चरित्र अध्यात्म कमल, मार्तण्ड व समयसार कलश टीका ५ रचनाएं मिलती है जिनमे केवल अन्तिम कृति हिन्दी की है । ग्रामेर शास्त्र भंडार मैं प्राप्त समयसर कलश टीका की सवत् १६५३ की प्रतिलिपि के आवार पर डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने राजमल को १६वी - १७वी शताब्दी का साहित्यकार माना है । डा० कासलीवाल के अनुसार राजमल्ल का जन्म जयपुर नगर के वैराठ कस्बे मे हुआ था। डा० जगदीशचन्द्र के मत से ये जैनागमो के भारी वेत्ता, आचार-शास्त्र के पण्डित तथा अध्यात्म और न्याय मे बड़े कुशल थे । समयसार कलम पर इनकी वालाववोध टीका वड़ी सरल और व्याख्यात्मक है ।
३. हेमराज - हेमराज ने कवि श्रोर गद्यकार दोनो ही रूपो मे जैन साहित्य में ख्याति उपलब्ध की है । इनका प्राविर्भाव सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सागानेर मे हुआ । हेमराज के गुरू पाण्डे रूपचन्द थे । हेमराज का 'दोहा शतक', नीतिपरक, काव्य-ग्रन्थ है | हेमराज की arriadia टीकाएँ नयचक्र, प्रवचन सार, कर्मकाण्ड, पचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश व गोम्मट सार ग्रन्थो पर मिलती है ।
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४. जोधरान – कवि जोवराज सागानेर के निवासी तथा हेमराज के समकालीन थे । इनके पिता अमरचन्द गोदीका वडे रईस महाजन थे । जोवराज ने पडित हरिनाम मिश्र को अपना मित्र बनाकर उनकी गति से ज्ञान उपलब्ध किया; तदुपरान्त साहित्य-रचना मे प्रवृत्त हुए । सम्यकत्व कौमुदी, प्रवचन सार, कथाकोप प्रीतकर चरित्र पर इनके पद्यानुवाद है। ज्ञान समुद्र धीर धर्म सरोवर इनकी मौलिक कृतिया है। दोनो मे क्रमशः १४७ व ३८७ विविध प्रकार के छन्द है । दोनो ही रचनाओ का प्रतिपाद्य नीति है । सत्य के विषय मे कवि के विचार देखिए
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सत्य वचन परतीति करावै । सत्य वचन अमृत सम पावै ।।
सत्य वचन सम नहिं तप कोई । सत्य वचन उत्तिम जग होई ।।
५. खुशालचन्द्र-इनका जन्म सागानेर वासी सुन्दरदास काला के यहां हुआ था। इनकी माता सुजाणदे और विद्यागुरु लिखमीदाम (लक्ष्मीदास) थे। खुशालचन्द्र जयसिंह पुरा भी रहे। खुशालचन्द्रजी श्रेष्ठ अनुवादक है। इन्होंने निम्नलिखित ग्रन्यो के पद्यानुवाद किये
(१) उत्तर पुराण, (२) राम पुराण, (३) हरिवंश पुराण, (४) व्रतकथा कोप, (५) यशोवर चरित्र, (६) धन्यकुमार चरित्र, (७) जम्बू स्वामी चरित्र ।
६. दौलतराम-वसवा निवासी दौलतराम कासलीवाल के पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, आदि पुराण, श्रीपाल चरित्र, परमात्मप्रकाश, पुरुपार्थ सिघ्युपाय, उपासकाध्ययन, पुण्याश्रव कथाकोप व क्रियाकोष के टीकाकार के रूप मे १० रामचन्द्र शुक्ल, कामताप्रसाद जैन आदि 'इतिहास-लेखको ने अच्छे गद्यकार का स्थान दिया है, किन्तु दौलतराम कवि भी थे। चौवीस 'दण्डक, आदि छोटी रचनाओ के अतिरिक्त अध्यात्म बारहखड़ी उनका महत्वपूर्ण और विशाल ग्रन्थ है। अध्यात्म वारहखड़ी के पाठ अध्यायो के ५१५५ छन्दो मे जैन दर्शन व उपासना के अतिरिक्त नोति और भक्ति भी कवि का प्रतिपाद्य विपय है। दुर्गुणो से आक्रान्त भक्त दौलतराम की स्वउद्धारार्थ जिनेन्द्र से भाव-भरी प्रार्थना यहाँ दृष्टव्य है
पागेउ मोह तनी जिनको प्रति काम जु क्रोध महा मद लोमा। वचकता अरु मत्सर भादि सर्व जु दुरातम कारन क्षोभा ॥ मोहि जु देव महादुप दीयउ नाहिं प्रभू कछु मो महि सोमा । पोट अपावन टारहि नकु न कूक सुनौ जगदेव प्रक्षोभा ।।
७ टोडरमल्ल-मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रणेता के रूप मे टोडरमल्ल भारत के सम्पूर्ण दिगम्बर समाज मे प्रख्यात व समादृत है । ये जयपुर मे जोगीदास गोदीका के यहाँ सं० १७६७ में उत्पन्न हुए। टोडरमल वडे धर्मात्मा, दार्शनिक व उपदेशक थे। खेद है कि स० १८२३-२४ में अल्पायु में ही इनकी साम्प्रदायिक झगडो के कारण मृत्यु हो गई। सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, प्रात्मानुशासन टोडरमल की अनूदित कृतिया है तथा रहस्यपूर्ण चिट्ठी व मोक्षमार्ग प्रकाशक स्वतन्त्र रचनाएँ । अनूदित ग्रथो मे टोडरमल्ल के जैनागमो के विस्तृत ज्ञान, विवेचन की शक्ति का ज्ञान होता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक का लेखक विभिन्न मतो का ज्ञाता है तथा हार्दिक और स्वतन्त्र विचारक भी। इस ग्रन्थ मे टोडरमल साम्प्रदायिक आडम्बरो के विरोधी और जैनदर्शन की श्रेष्ठता के हामी प्रतीत होते है।
८ दीपचन्द-टोडरमल के अलावा जयपुर में दूसरे स्वतन्त्र गद्यकार दीपचन्द कासलीवाल ही हुए है । इनका जन्म तो सागानेर में हुआ किन्तु बाद में ये भामेर आ गए। दीपचन्द वीतरागी आध्यात्मिक ग्रन्यो के मर्मज्ञ थे। चिद्विलास, अनुभव प्रकाश, आत्मावलोकन,
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परमात्म पुराण इनकी स्वतन्त्र गद्य-रचनाएँ हैं, जिनमे प्रात्म-तत्व का निरूपण है। दीपचन्द की शैली उपदेश-प्रधान है । वाक्य छोटे-छोटे है । भाषा मुहावरेदार तथा पालकारिक है।
६. बुधजन-दास्य भक्त के रूप मे वैष्णव भक्ति काव्य मे जो स्थान तुलसी का है वही जैन काव्य मे बुधजन का; जिस प्रकार नीतिपरक उक्तियां कहने से जो प्रसिद्धि रहीम व वृन्द को मिली है उसी के अधिकारी कवि वुधजन भी है। परम भक्त और नीतिकार बुधजन जयपुर में निहालचन्द्र बज के यहाँ उत्पन्न हुए थे। इनके गुरु मागीलाल थे। बुधजन दीवान अमरचन्द के यहा मुख्य मुनीम थे। कवि के दूसरे नाम 'भदीचन्द्र' के नाम पर दीवानजी ने जयपुर में एक जैन मन्दिर बनवाया जो अब तक विद्यमान है। बुधजन के मुख्य काव्य-प्रन्थ 'बुधजन सतसई' और 'पद सग्रह' है। अन्य रचनाएं जैन दर्शन सम्बन्धी तथा पचास्तिकाय, योगसार, तत्वार्थ सूत्र के अनुवाद प्रादि हैं। बुधजन के २४३ पदो मे भक्ति प्रधान है तया बुधजन सतसई के दोहो. मैं नीति ।
१०. जयचन्द्र-जयचन्द्र का जन्म फागी ग्राम के मोतीराम छाबड़ा के यहाँ हुमा । ११वर्ष की अवस्था मे ही जिन-शासन मे चलने की सुबुद्धि पाकर ये जयपुर आ गये जहां इन्होने अनेक विद्वानो का सत्सग एव जैन शास्त्रो का गम्भीर अध्ययन व मनन किया । जयचन्द ज्ञानी, उपदेशक, चरित्रवान तथा आध्यात्मिक पुरुष थे। संवत् १८८१-८२ मे इनकी मृत्यु हुई। जयचन्द्र गद्यकार और कवि दोनो है। जयचन्द ने सर्वार्थसिद्धि, प्रमेय रलमाला, द्रव्य सग्रह, स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, समयसार, अष्ट पाहुड, आप्तमीमासा, परीक्षामुख, ज्ञानार्णव मादि १७ ग्रन्थो की वचनिकाए लिखी। जयचन्द्र के २४६ भक्तिपरक पदो में तीर्थङ्करो की महिमा का गान अधिक है तथा अपने अवगुण व सासारिक कष्टो का वर्णन अपेक्षाकृत थोडा।
११. सदासुखवास-इनका जन्म जयपुर के प्रसिद्ध 'डेडराज' घराने मे सवत् १८५२ में हुआ । इनके पिता दुलीचन्द कासलीवाल थे । सदासुखदास बढे सत्सगी, ज्ञानी, धर्मात्मा व निस्वार्थ उपकारी थे। इनकी मृत्यु पुत्र-वियोग के कारण सवत् १९२३-२४ मे हुई। सदासुखदास ने सात ग्रन्थो की वचनिकाएं लिखी-भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र, मृत्यु-महोत्सव, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अलकार स्तोत्र, समयसार नाटक, नित्य नियम बूजा।
१२ सुजानमल-ये जयपुर नगर के प्रसिद्ध जौहरी ताराचन्द सेठिया के यहा स० १८६६ को उत्पन्न हुए थे। इनके तीन छोटे भाई व एक दत्तक पुत्र जवाहरमल थे। सुजानमल ने श्वेताम्बर मुनि विनयचन्द महाराज से स० १९५१ मे दीक्षा ग्रहण की। सुजानमल की मृत्यु स० १९६८ मे हुई । सुजानमल के ४०० पद सुने जाते है किन्तु अभी तक उपलब्ध केवल १६५ पद ही 'सुजान पद वाटिका' के नाम से प्रकाशित है। इनका पद सग्रह तीन भागो मे विभाजित किया गया है। स्तुतियां, उपदेश और चरित्र कथाए। सुजानमल ने यद्यपि सभी तीर्थवरो के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है किन्तु पार्श्वनाथ के प्रति उनका अधिक अनुराग है
मेरे प्रभु पार्श्वनाथ दूसरो न कोई ।
अश्वसेन तात त्रामा सुत सोई । ३८८]
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१३. जडावकुवारि-हिन्दी काव्य के विकास मे अन्य कवित्रियो की तरह जन कवित्रियो ने भी महत्वपूर्ण योगदान किया। यद्यपि कुशलाजी भूरि सुन्दरी आदि कई जन कवित्रियां हुई किन्तु उनमे जडावकुवरि का स्थान सर्वोच्च है । वाल्यावस्था में विधवा हो जाने के कारण संसार से विरक्ति अनुभव कर २४ वर्ष की अवस्था मै स. १९२२ मे इन्होने श्री रंभाजी से दीक्षा ग्रहण की। जहावकुवरि यद्यपि जोधपुर, वीकानेर आदि स्थानो मे भी रही किन्तु सवत् १९५० के बाद नेत्र-ज्योति क्षीण हो जाने के कारण इन्होने अपना स्थान जयपुर ही धना लिया। सं० १९७२ मे इनकी मृत्यु हुई। जडावकुवरि के पद 'स्तवनावली' के नाम से प्रकाशित है। इनमे कथा, अध्यात्म के अतिरिक्त जिन-स्तवन और उपदेश की अच्छी रचनाएं है ।
यहा जयपुर के जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए स्थानाभाव के कारण प्रतिनिधि साहित्यकारो की चर्चा हुई है। नवल, माणिक, उदयचन्द, मन्नालाल, पन्नालाल अनेक साहित्यकार ऐसे हैं जिन्होने जयपुर की धरा पर अवतीर्ण होकर अपने प्रथ-रलो से मां भारती के विशाल भण्डार को भरा है।
जैन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ
प्रो० दरबारीलाल जैन कोठिया एम० ए०, न्यायाचार्य, प्राध्यापक, काशी विश्वविद्यालय, काशी तज्जयति पर ज्योति सम समस्तैरनन्तपर्याय ।। दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
-अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसियुपाय' पृष्ठभूमि :
भारतीय दर्शनो मे चार्वाक और मीमासक इन दो दर्शनो को छोड़कर शेष सभी (न्यायवैशेषिक, साख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञता की सम्भावना करते तथा युक्तियो द्वारा उसकी स्थापना करते है। साथ ही उसके सद्भाव मै पागम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रा में उपस्थित करते है। सर्वज्ञता के निषेध में चार्वाकदर्शन का दृष्टिकोण .
चार्वाकदर्शन का दृष्टिकोण है कि 'यदृश्यते तद् अस्ति, यन्न दृश्यते तन्नास्ति' अर्थात् इन्द्रियो से जो दिखे वह है और जो न दिले वह नहीं है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार भूत-तत्त्व ही दिखाई देते है, प्रत वे है। पर उनके अतिरिक्त कोई अतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टि-गोचर नहीं होता । प्रत वे नही है। सर्वज्ञता किसी भी पुरुप मे इन्द्रियो द्वारा जात नही है और प्रजात
१. तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्ग-देवतापूर्व-प्रत्यक्षीकरणे क्षम.॥
-भट्ट कुमारिल के नाम से वृहत्सवंतसिद्धि में उद्धृत
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पदार्थ का स्वीकार उचित नही है । स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा अनुमानादि कोई प्रमाण नही मानते। इसलिए इस दर्शन में अतीन्द्रिय सर्वज्ञ की सम्भावना नही है।
मीमांसक दर्शन का मन्तव्य :
मीमासको का मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता, नरक, नारकी भादि श्रतीन्द्रिय " पदार्थ तो हैं, पर उनका ज्ञान वेद द्वारा ही सम्भव है, किसी पुरुष के द्वारा नही । पुरुष रागादिदोषो से युक्त है और रागादि दोष पुरुष मात्र का स्वभाव है तथा वे किसी भी पुरुष से सर्वथा दूर नही हो सकते। ऐसी हालत मे, रागी-द्वेषी प्रज्ञानी पुरुषो के द्वारा उन धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान सम्भव नही है । शावर स्वामी अपने शावर भाष्य (१-१-५ ) मे लिखते है :
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'चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमल, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।'
इससे विदित है कि मीमासकदर्शन सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता है, किसी इन्द्रिय के द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नही मानता । शधरस्वामी परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान भट्ट कुमारिल भी किसी पुरुप मे सर्वज्ञता की सम्भावना का अपने मीमासा - श्लोकवार्तिक मे विस्तार के साथ पुरजोर खण्डन करते है ।' पर वे इतना स्वीकार कर लेते है कि
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१. यज्जातीय प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्ट सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ॥ यत्राप्यतिशयो दृष्ट स स्वार्थानतिलघनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टी स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ।। येsपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा- मेघादिभिनंरा । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राज्ञोऽपि हि नर सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन् । स्नजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नरान् ॥ एकशास्त्र विचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तर ज्ञान तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥ ज्ञात्वा व्याकरण दूर बुद्धि शब्दापशब्दयो । प्रकृष्यति न नक्षत्र - तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥ ज्योतिविच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-प्रहरणादिपु । न भवत्यादिशब्दाना साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥ दशहस्तान्तरे व्याम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तु शक्तोऽम्यास शतैरपि ॥ तस्मादतिशयज्ञानैरति दूर गतैरपि । न किञ्चिदेवाधिक ज्ञातु न त्वतीन्द्रियम् ॥
- अनन्तकीर्ति द्वारा बृहत्सर्वज्ञसिद्धि में उद्धत
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कि हम केवल धर्म का अथवा धर्मज्ञता का निषेध करते है । यदि कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सबको जानता है तो जाने, हमे उसमे कोई विरोध नही है । यथा -
घर्मज्ञत्व-निपेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुप केन वार्यते ॥ सर्व प्रमातृ - सवन्वि प्रत्यक्षादितिवारणात् । केवलागम-गम्यत्व लप्स्यते पुण्यपापयो ||"
किसी पुरुप को धर्मज्ञ न मानने मे कुमारिल का तर्क यह है कि पुरुषो का अनुभव परस्पर विरुद्ध एव वाघित देखा जाता है । अत वे उसके द्वारा धर्माधर्म का यथार्थं साक्षात्कार मे नही कर सकते । वेद नित्य, अपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होने से उसका ही धर्माधर्म के मामले
प्रवेश है ( 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्') । ध्यान रहे कि वौद्धदर्शन में बुद्ध के अनुभव - योगिज्ञान को जैनदर्शन मे अर्हतु के अनुभव — केवल ज्ञान - को धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कारी वतलाया गया है । जान पडता है कि कुमारिल को इन दोनो की धर्मज्ञता का निषेध करना इष्ट है। उन्हे त्रयीविद् मन्वादि का धर्माधर्मादिविषयक उपदेश तो मान्य है, क्योकि वे उसे वेदप्रभव बतलाते है । कुछ भी हो, वे किसी पुरुष को स्वयं सर्वत्र स्वीकार नही करते । मन्वादि को भी वेद द्वारा ही धर्माधर्मादि का ज्ञाता श्रोर उपदेष्टा मानते हैं ।
बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना
वौद्धदर्शन मे अविद्या और तृष्णा के क्षय से प्राप्त योगी के परम प्रकर्षजन्य अनुभव पर बल दिया गया है और उसे समस्त पदार्थों का, जिनमे धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी सम्मिलित हैं, साक्षात्कर्ता कहा गया है । दिग्नाग यादि वौद्ध-चिन्तको ने सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात्करण रूप
१ इन दो कारिकाओं में पहली कारिका को वौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने तत्त्व सग्रह (का० ३१२८ ) मे और दूसरी तथा पहली दोनो कारिकाओ को अनन्तवीर्य ने बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ( पृ० १३९ ) ने उद्धृत किया गया है ।
२. सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिलोनेति का प्रभा । तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेद कथ तयो ||
-- विद्यानन्द, भ्रष्ट स०, पृ० ३ पर उद्धृत
३. उपदेशो हि बुद्धादेवंर्माधर्मादिगोचर ।
श्रन्यथा चोपपद्यत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ॥ बुद्धादयो वेदज्ञास्तेषा वेदादसभव । उपदेश कृतोऽतस्तर्व्यामोहादेव केवलात् ॥ येsपि मन्वादय सिद्धा प्राधान्येन त्रयीविदाम् । त्रयीविदागिन्यास्ते वेदप्रभवोस्तय || नर कोऽप्यस्ति सर्वज्ञ स च सर्वज्ञ इत्यपि । साधन यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥
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अर्थ में सर्वज्ञता को निहित प्रतिपादन किया है। परन्तु बुद्ध ने स्वय अपनी सर्वज्ञता पर जोर नही दिया है । उन्होने कितने ही अतीन्द्रिय पदार्थों को अव्याकृत (न कहने योग्य) कहकर उनके विषय मे मौन ही रखा । पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थ का साक्षात्कार या अनुभव हो सकता है । उसके लिए किसी धर्म-पुस्तक की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है । बौद्धतार्किक धर्मकीर्ति ने भी बुद्ध को धर्मज्ञ ही बतलाया है और सर्वज्ञता को मोक्षमार्ग मे अनुपयोगी कहा है :
तस्मादनुष्ठानगत ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीट-सख्या-परिज्ञाने तस्य न क्वोपयुज्यते ।। हेयोपादेयतत्त्वस्य साम्युपायस्य वेदक । य प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदक ॥
-धर्मकीति, प्रमाणवात्तिक २-३१, ३२ 'मोक्षमार्ग में उपयोगी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए । यदि कोई जगत् के क्रीडेमकोड़ो की संख्या को जानता है तो उससे हमे क्या लाभ ? मत जो हेय और उपादेय तथा उनके उपायों को जानता है वही हमारे लिए प्रमाण-माप्त है, सबका जानने वाला नहीं।'
यहां उल्लेखनीय है कि कुमारिल ने जहा धर्मज्ञ का निषेध करके सर्वश के सद्भाव को इष्ट प्रकट किया है वहा धर्मकीति ने ठीक उसके विपरीत धर्मज्ञ को सिद्ध कर सर्व का निषेध मान्य किया है । शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील बुद्ध में धर्मज्ञता के साथ ही सर्वज्ञता की भी सिद्धि करते हुए देखे जाते है । पर वे भी धर्मज्ञता को मुख्य और सर्वज्ञता को प्रासगिक
सिसाधयिवतो योऽर्थ सोऽनया नाभिधीयते । यस्तूच्यते न तत्सिद्धी न किञ्चदस्ति प्रयोजत्तम् ।। यदीयागमसत्यत्वसिद्धौ सर्वशतेष्यते । न सा सर्वज्ञसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ॥ यावबुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचन मृषा। यत्र वचन सर्वज्ञे सिद्ध तत्सत्यता कुत ।। अन्यस्मिन्न हि सर्वज्ञे वचसोऽप्यन्यस्य सत्यता ।
समानाधिकरण्ये हि तयोरगागिमावता भवेत् ॥ ये कारिकार्य अनन्तकीर्ति ने अपनी बृहत्सर्वज्ञसिद्धि मे कुमारिल के नाम से उद्धत की है। १. देखिए, मज्झिमनिकाय २-२-३ के चूलमालु क्यसूत्र का सवाद । २. स्वर्गापवर्गसम्प्राप्ति हेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवल किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।।
-तत्व स० का० ३३०६
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बतलाते है । इस तरह हम वौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता की सिद्धि देखकर भी वस्तुत. इसका विशेष बल हेयोपादेय तत्वज्ञता पर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते है। न्यायवैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना :
न्याय-वैशेषिक ईश्वर मे सर्वज्ञत्व मानने के अतिरिक्त दूसरे योगी-आत्मानो मे भी उसे स्वीकार करते है । परन्तु उनका बह सर्वज्ञत्व अपवर्ग-प्राप्ति के बाद नष्ट हो जाता है, क्योकि वह योग तथा आत्ममन, सयोगजन्य गुण अथवा अणिमा आदि ऋद्धियो की तरह एक विभूतिमात्र है । मुक्तावस्था मे न आत्ममन सयोग रहता है और न योग । मत जानादि गुणो का उच्छेद हो जाने से वहा सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हा, वे ईश्वर की सर्वज्ञता अनादि अनन्त अवश्य मानते हैं। सांख्य-योगदर्शन मे सर्वज्ञता की सभावना
निरीश्वरवादी सास्य प्रकृति मे और ईश्वरवादी योग ईश्वर में सर्वज्ञता स्वीकार करते है । सात्यको का मन्तव्य है कि ज्ञान वुद्धितत्व का परिणाम है और बुद्धितत्व महत्तत्व तथा महत्तत्व प्रकृतितत्व का परिणाम है। अत. सर्वज्ञता प्रकृति मे पर्यवसित है और वह अपवर्ग हो जाने पर समाप्त हो जाती है। योगदर्शन का दृष्टिकोण है कि पुरुप विशेष रूप ईश्वर मे नित्य सर्वज्ञता है और योगियो की सर्वज्ञता, जो सर्वविषयक 'तारक' विवेक शान रूप है, अपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है । अपवर्ग अवस्था मे पुरुप चैतन्य मात्रा मे, जो ज्ञान से भिन्न है, अवस्थित रहता है । यह भी आवश्यक नहीं कि हर योगी को वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि इनके यहां सर्वज्ञता की सम्भावना तो की गई है पर वह योगज विभूतिजन्य होने से अनादि अनन्त नहीं है, केवल सादिसान्त है। वेदान्तदर्शन मे सर्वज्ञता :
वेदान्तदर्शन मे सर्वज्ञता को अन्त करणनिष्ठ माना गया है और उसे जीवन्मुक्त दशा तक स्वीकार किया गया है। उसके बाद वह छुट जाती है। उस समय अविद्या से मुक्त होकर विद्या रूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म का रूप प्राप्त हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञता में विलीन हो जाती है । अथवा उसका प्रभाव हो जाता है।
१ 'मुख्य हि तावत् स्वर्गमोक्ष सम्प्रापक हेतुजस्वसाधन भगवतोऽस्माभि क्रियते । यत्पुन अशेषार्थ परिज्ञातृत्व साधनमस्य तत् प्रासगिकम् ।'
-तत्व स०प० पृ० १६३ २ 'अस्मद्विशिष्टाना तु योगिना युक्ताना योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्यराकाश
दिक्काले परमाणुवायुमनस्सु तत्समवेत गुणकर्म सामान्य विशेष समवाये चावितथ स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते, वियुक्ताना पुनः ..........।'
-प्रशस्तपाद भाप्य, पृ० १८७ ३ 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ट पुरुपविशेष ईश्वर ।'
यो० सू० ४. 'तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम् ।' यो० सू-१-१-३
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जैनदर्शन में सर्वज्ञता की सभावनाएँ
जनदर्शन मे ज्ञान को प्रात्मा का स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है। और उसे स्वपर प्रकाशक वतलाया गया है। यदि आत्मा का स्वभाव नत्व (जानना) न हो तो वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि यो का ज्ञान नही हो सकता । भट्ट अकलङ्क ने लिखा है कि ऐसा कोई नेय नही, जो ज्ञस्वभाव प्रात्मा के द्वारा जाना न जाय । किसी विषय मे अनता का होना नानावरण तथा मोहा दिदोपो का कार्य है । जव ज्ञान के प्रतिवन्धक ज्ञानावरण तथा मोहा दिदोषो का भय हो जाता है तो विना रुकावट के एक साथ समस्त यो का ज्ञान हुए विना नहीं रह सकता। इसी को सर्वज्ञता कहा गया है। जैन मनीपियो ने प्रारम्भ से त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान के अर्थ मे इस सर्वजता को पर्यवसित माना है। आगम ग्रयो व तर्क प्रयो मे हमें सर्वत्र सर्वज्ञता का प्रतिपादन एव उपपादन मिलता है । पट्खण्डागम सूत्रोमे कहा गया है कि 'केवली भगवान समस्त लोको, समस्त जीवो और अन्य समस्त पदार्थों को सर्वथा एक साथ जानते व देखते है।'
आचाराग सूत्रो मे भी यही कथन किया गया है। महान् चिन्तक और लेखक कुन्दकुन्द ने भी लिखा है कि प्रावरणो के प्रभाव से उद्भूत पेवल ज्ञान वर्तमान, भूत, भविष्यत् सूक्ष्म, व्यवहित प्रादि सब तरह के शेयो को पूर्णरूप मे युगपत् जानता है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं जानता वह अनन्त पर्यायो वाले एक द्रव्य को भी पूर्णतया नहीं
१. 'उपयोगो लक्षणम् ।' -तत्वार्थ सू० २-८ २. 'न खल ज्ञस्वभावस्य कश्चिद्गोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तर प्रतिपेधात् ।'
-अष्ट ग० अष्ट स०१० ४६ ३. 'णाण सपरपवासय । -कुन्दकुन्द, प्रवचन सा० १ ४. 'सय भयव उप्पण्णणाणदरिसी......." सव्वलोए सव्वलोए वे सब्वभावे सव्वं
सम जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति ।' -पट्ख० पयदि० सू०७८ ५. 'से भगव अरिह जिणो केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी .... । सन्चलोए सव्वजीवाण सव्वभावाड जाणमाणे पासमाणे एव च ण विहरड।'
-आचाराग सू० २-३ ६ ज तक्कालियमिदर जाणदि जुगव समत दो सम्ध ।
प्रत्य विचित्तविसम त णाण खाइय भणिय ॥ जो ण विजाणदिजुगव अत्ये ते कालिगे तिहुवणत्ये । जादु तस्सण सक्कं सपज दवमेक वा ।। दम्बमणतप्पजयमेकमणं ताणि दव्व जाणादि । ण विजाणदि जदि जुगवं कय सो दन्वाणि जाणादि ।
-प्रव० सा०१-४७,४०,४६
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जान सकता और जो अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्य को नहीं जानता, वह समरूद द्रव्यो को कैसे एक साथ जान सकता है ?" - प्रसिद्ध विचारक भगवती धारावनाकार शिवार्य' और आवश्यक नियुक्तिका भद्रवाह वड़े स्पष्ट और प्राज्ञ्जल गब्दो मे सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन करते हुए कहते है कि 'वीतराग भगवान तीनो कालो, अनन्त पर्यायों से सहित समस्त ज्ञेयो श्रीर समस्त लोको को युगपत् जानते व देखते हैं ।'
यागमयुग के बाद जब हम तार्किक युग मे आते है तो हम स्वामी समन्तभद्र, सिद्धमेन अकलक, हरिभद्र, पात्रस्वामी, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र प्रभृति जैन तार्किको को भी सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन एव उपपादन करते हुए पाते है । इनमे अनेक लेखको ने तो सर्वज्ञता की स्थापना मे महत्वपूर्ण स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखे है । उनमे समन्तभद्र (वि० स० दूसरी, तीसरी दाती ) की
तमीमासा, सर्वज्ञ विशेष परीक्षा कहा गया है, अकलकदेव की सिद्धिविनिश्चयगत सर्वज्ञसिद्धि विद्यानन्द की प्राप्त परीक्षा, अनन्तकीर्ति की लघु व वृहत्सर्वज्ञ सिद्धियां, वादीमसिंह की स्याद्वाद - सिद्धिगत सर्वज्ञ सिद्धि आदि कितनी ही रचनाएं उल्लेखनीय है । यदि कहा जाय कि सर्वजता पर जैन दार्शनिको ने सबसे अधिक चिन्तन और साहित्य सृजन करके भारतीय दर्शनशास्त्र को समृद्ध बनाया है तो अत्युक्ति न होगी ।
सर्वज्ञता की स्थापना मे समन्तभद्र ने युक्ति दी है वह बड़े महत्व की है । वे कहते है कि सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी किसी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष है, क्योकि वे अनुमेय है । जैमे अग्नि । उनकी वह युक्ति यह है
सूक्ष्मान्तरितदूरार्था, प्रत्यक्षा कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ सस्थिति ॥
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- प्रा० मी० का० ४
समन्तभद्र एक दूसरी युक्ति के द्वारा सर्वज्ञता के रोकने वाले अज्ञानादि दोपो और ज्ञानावरणादि आवरणो का किसी प्रात्मविशेप में प्रभाव सिद्ध करते हुए कहते हैं 'किसी पुरुपविशेष
ज्ञान के प्रतिवन्धको का पूर्णतया क्षय हो जाता है, क्योकि उनी अन्यत्र न्यूनाधिकता देवी जाती है । जैसे स्वर्ण मे बाह्य और आभ्यन्तर दोनो प्रकार के मलो का अभाव दृष्टिगोचर होता है ।' प्रति बधको के हट जाने पर ज्ञस्वभाव श्रात्मा के लिए कोई ज्ञेय-अज्ञेय नही रहता । ज्ञेयो का अज्ञान या तो आत्मा मे उन सब ज्ञेयो को जानने की सामर्थ्य न होने से होता है और या ज्ञान के प्रतिबन्धको के रहने से होता है । चुकि आत्मा श है और तप, सयमादि की श्राराधना द्वारा प्रतिबन्धको का प्रभाव पूर्णतया सभव है । ऐसी स्थिति में उस वीतराग महायोगी को, कोई कारण नहीं कि श्रष
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१. पस्सदि जाणदि ण तहा तिणि वि काले सयज्ज ए सब्वे । तह वा लोगमसेस पस्सदि भयव विगय-मोहो || २ सभिण्ण पासतो लोगमलोग च सव्वग्रो सव्व ।
त णत्थि ज न पासइ भूय भव्व भविस्स च ॥ ३ अकलक, प्रष्टश० - अण्टस ०
- भ० प्रा० गा० ११४१
- आवश्य० नि० गा० १२७
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जयो का ज्ञान न हो ।' उनका वह प्रतिपादन निम्न प्रकार है
दोपावरणयोहानिनिश्शेपाऽस्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षय || स त्वमेवासि निर्दोपो युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् । अविरोधो मदिष्ट ते प्रसिद्धन ने वाध्यते ॥
- प्राप्तमी० का० ५, ६ समन्तभद्र के उत्तरवर्ती सूक्ष्म चिन्तक अकलकदेव ने मर्वज्ञताकी सभावना में जो महत्व] पूर्ण युक्तिया दी हैं उनका भी यहा उल्लेख कर देना आवश्यक है । अकलक की पहली युक्ति यह है कि आत्मा मे समस्त पदार्थों को जानने की सामर्थ्य है । इस सामर्थ्य के होने से ही कोई पुरुपविशेष वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयो को जानने में समर्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं। हा, यह अवश्य है कि ससारी-अवस्था मे ज्ञानावरण से प्रावृत होने के कारण ज्ञान सब जेयो को नही जान पाता। जिस तरह हम लोगो का ज्ञान सव जेयो को नही जानता, कुछ सीमितो को ही जान पाता है। पर जव ज्ञान के प्रतिवन्धक कर्मो (आवरणो) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट इन्द्रियानपेक्ष और आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान को, जो स्वय अप्राप्यकारी भी है, समस्त नेयो को जानने मे क्या बाधा है।
उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषो को धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय शेयो का ज्ञान न १ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने प्राप्त के आवश्यक ही नही, अनिवार्य
तीन गुणो (वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) मे सर्वज्ञता को प्राप्त की अनिवार्य विशेषता बतलाया है उसके विना वे उसमे प्राप्त को असम्भव बतलाते है :
आप्तेनोच्छिन्न दोपेण सर्वजेनागमेशिना। भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥
-रत्न क. श्लोक ५ २. कथाञ्चेत् स्वप्रदेगेपु स्यात्कर्म-पटलाच्छता ।
ससारिणा तु जीवना यत्र ते चक्षुरादय ॥ साक्षात्कतुं विरोध क सर्वथावरणात्पये । सत्यमर्थ तथा सर्व यथाऽभूद्वा भविष्यति ।। सर्वार्थग्रहण सामर्थ्याच्चैतन्यप्रतिवन्धिनाम् । कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वानर्थान् न पश्यति ।। महादि गतयः सर्वा सुखदुखादि हेतव । येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृत जगत् ।। जस्यावरण विच्छेदे ज्ञेय किम वशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मान् सर्वार्थावलोकनम् ।।
-न्यायविनिश्चय का० ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, ४६५
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हो तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिम्रहो की ग्रहण आदि भविष्यत् दशानी और उनसे होने वाले शुभाशुभ का अविसवादी उपदेश कैसे हो सकेगा? इद्रियो की अपेक्षा लिए विना ही उनका अतीन्द्रियार्थ विषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा जाता है । अथवा जिस तरह सत्य स्वप्नदर्शन इन्द्रियादि की सहायता के विना ही भावोराज्यादि लाभ का यथार्थ बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीन्द्रिय पदार्थो में सवादी और स्पष्ट होता है। और उसमे इद्रियो को आंशिक भी सहायता नहीं होती । इद्रिया तो वास्तव में कम ज्ञान को ही कराती है। वे अधिक और सर्वविषयक ज्ञान मे उसी तरह बाधक है जिस तरह सुन्दर प्रासाद मे बनी हुई खिडकिया कम प्रकाश को ही लाती है और सब मोर के प्रकाश को रोकती है।
___अकलक की तीसरी युक्ति यह है कि जिस प्रकार परिमाण अगु-परिमाण से बढ़ताबढता आकाश मे महापरिमाण या विभुत्व का रूप ले लेता है, क्योकि उमकी तरतमता देखी जाती है। उसी तरह ज्ञान के प्रकर्ष मै भी तारतम्य देखा जाता है । अत जहा वह जान सम्पूर्ण अवस्था (निरतिशयपने) को प्राप्त हो जाय वही सर्वज्ञता आ जाती है। इस सर्वनता का किसी व्यक्ति या समाज ने ठेका नहीं लिया। वह तो प्रत्येक साधक को प्राप्त हो सकती है।
उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञता का कोई वाधक नहीं है। प्रत्यक्ष प्रादि पांच प्रमाण तो इसलिए बाधक नहीं हो सकते, क्योकि वे विधि (अस्तित्व) को विपय करते है। यदि वे सर्वज्ञता के विषय मे दखल दें तो उनसे उनका सद्भाव ही सिद्ध होगा। मीमासको का प्रभाव प्रमाण भी उसका निषेध नही कर सकता । क्योकि अभाव प्रमाण के लिए यह आवश्यक है। कि जिसका प्रभाव करना है उसका स्मरण और जहाँ उसका अभाव करना है उसका प्रत्यक्ष दर्शन पावश्यक ही नही, अनिवार्य है । जब हम भूतल मे घड़े का अभाव करते है तो वहां पहले देखे गए घड़े का स्मरण और भूतल का दर्शन होता है तभी हम यह कहते है कि यहां घड़ा नही है। किन्तु तीनो (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालो तथा तीनो (ऊर्च, मध्य और अयो) लोको के प्रतीत, अनागत और वर्तमान कालीन अनन्त पुरुपो में सर्वशता नहीं थी, नहीं है और न होगी इस प्रकार का ज्ञान उसी को हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुषो का साक्षालार किया है। यदि किसी ने किया है तो वही सर्वज्ञ हो जावेगा। साय ही सर्वज्ञता का स्मरण सर्वज्ञता के प्रत्यक्ष अनुभव के विना सम्भव नही मौर जिन कालिक और त्रिलोकवर्ती अनन्तपुरुपो (मावार) में सर्वज्ञता का अभाव करना है उनका प्रत्यक्ष-दर्शन भी सम्भव नहीं । ऐसी स्थिति में सर्वनता का प्रभाव प्रमाण भी वाधक नहीं है । इस तरह जब कोई बाधक नहीं है तो कोई कारण नहीं कि सर्वज्ञता का सद्भाव सिद्ध न हो।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा 'श' ज्ञाता है और उसके ज्ञान-स्वभाव को ढकने वाले मावरण दूर होते है । अत आवरणो के विच्छिन्न हो जाने पर सम्वभाव आत्मा के लिए फिर ऐप
१ गृहीत्वा वस्तु सद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् ।
मानस नास्तिताज्ञान जायतेभानपेक्षया।। "अस्ति सर्वज्ञ मुनिश्विता मामा द्वारकप्रमाणत्वान, सुखादिवत्"
-पिद्धि वि० ० -६ तथा प्रष्ट
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जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञान से सकलार्थ-विषयक ज्ञान होना अवश्यम्भावी है । इद्रिया और मन सकलार्थ परिज्ञान मे साधक न होकर वाधक है। वे जहाँ नही है और आवरणो का पूर्णत प्रभाव है वहा त्रैकालिक और त्रिलोकवर्ती यावत् यो का साक्षात् ज्ञान होने मे कोई वाघा नहीं है।
आ. वीरमेन और प्रा० विद्यानन्द ने भी इसी भागय का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा जम्वभाव प्रात्मा मे सर्वजता की सम्भावना की है। वह श्लोक यह है :
जो ये कथमन स्यादसति प्रतिवन्धने । दाह येऽग्निदीहको न स्यादसति प्रतिवन्धने ।।
-जयधवला, पृ० ६६, अष्ट म० पृ० ५० अग्नि में दाहकता हो और दाह्य-ईंधन सामने हो तथा वीच मे कोई रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह य को क्यो नही जलावेगी ? ठीक उसी तरह आत्मा ज्ञ (जाता) हो, और नेय सामने हो तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तो ज्ञाता उन ज्ञेयो को क्यों नहीं जानेगा? आवरणो के अभाव मे ज्ञस्वभाव प्रात्मा के लिए आसन्नता और दूरता ये दोनो भी निरर्थक हो जाती है।
अन्त मे यह कहते हुए अपना निबन्ध समाप्त करते है कि जनदर्शन में प्रत्येक आत्मा मैं आवरणो और दोपो के अभाव मे सर्वज्ञता का होना अनिवार्य माना गया है । वेदान्तदर्शन मे मान्य आत्मा की सर्वज्ञता से जैनदर्शन की सर्वज्ञता में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि जनदर्शन मे सर्वजता को आवत करने वाले प्रावरण और दोप मिथ्या नहीं है, जबकि वेदान्तदर्शन में उसी को मिथ्या कहा गया है । इसके अलावा जैनदर्शन की सर्वज्ञता जहा सादि अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मा में वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है, अतएव अनन्त सर्वज्ञ है वहाँ वेदान्त मे मुक्त आत्माएं अपने पृथक् अस्तित्व को न रखकर एक अद्वितीय सनातन ब्रह्म मे विलीन हो जाते है और उनकी सर्वजता अन्त करण-सम्बन्ध तक रहती है, वाद को वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्म मे ही उसका समावेश हो जाता है।
श्री सम्पूर्णानन्दजी ने जैनो की सर्वजता का उल्लेख करते हुए उसे प्रात्मा का स्वभाव न होने की बात कही है । उमके सम्बन्ध मे इतना ही निवेदन कर देना पर्याप्त होगा कि जैन मान्यतानुसार सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है और महत् (जीवन्मुक्न) अवस्था मे पूर्णतया प्रकट हो जाती है तथा वह मुक्तावस्था में भी अनन्तकाल तक विद्यमान रहती है । "सत् का विनाश नहीं
और असत् का उत्पाद नहीं" इस सिद्धात के अनुसार आत्मा का कभी भी नाश न होने के कारण उसकी स्वभावभूत सर्वज्ञता का भी विनाश नहीं होता । अतएव अर्हत् अवस्था मे प्राप्त अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य) के अन्तर्गत अनन्तनान द्वारा इस सर्वज्ञता को जैनदर्शन मे शाश्वत (शक्ति की अपेक्षा अनादि अनन्त और व्यक्ति की अपेक्षा सादि अनन्त) स्वीकार किया गया है । १. ६ अक्तूबर १९६४ को राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर मे आयोजित अ० भा०
दर्शन परिपद् का उद्घाटन करते हुए दिया गया भापण ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेममूला भक्ति
डा० प्रेमसागर जैन एम० ए०, पी-एच० डी०, जैन कालेज, बड़ौत
डा० प्रेमसागर जैन, समाज के उदीयमान सिद्धहस्त लेखक है। जैनभक्ति काव्य पर उच्चकोटि का निबन्ध प्रस्तुत करने के कारण आप डाक्टरेट की उपाधि से विभूपित हुए है । जैन कवियो ने विभिन्न विषयो पर रचनाए की है । जन साधारण की वोली मे काव्य-रचना करना जैन साहित्यकार अपना गौरव समझते थे । यही कारण है कि जैन कवियो ने हिन्दी मे अपार जैन साहित्य की रचना की हैं । प्रस्तुत निबन्ध मे इस भाव को सुन्दर ढंग से दर्शाया है कि नारिया प्रेम की प्रतीक होती है, उनका हृदय कोमल और सरस होता है। उसमे प्रेम-भाव को लहलहाने मे देर नही लगती। इसी प्रकार भक्त कान्ता भाव से और भगवान प्रिय रूप से । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियों की रचना मे भी पाया जाता है। विद्वान लेखक ने इस भाव का विस्तार से प्रतिपादन किया है।
भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्विपयक अनुराग है । इसीको शाण्डिल्य ने 'परानुरक्ति ' कहा है ।" परानुरक्ति : गभीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है। चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढे हो जाने को ही 'प्रेम' कहा है। भक्तिरसामृत सिन्धु मे लिखा है, " सम्यड मसृणित स्वान्तो ममत्त्वातिशयोक्ति । भाव स एव सान्द्रात्मा बुधः प्रेम निगद्यते । "
प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक । भगवद्विपयक अनुराग अलीकिक प्रेम के अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान का अवतार मानकर, उसके प्रति लौकिक प्रेम का मी प्रारोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्त्व सदैव छिपा रहता है। इस प्रेम मे समूचा श्रात्म-समर्पण होता है और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती । अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वैध भाव ही मृत हो जाता है, फिर प्रेम के प्रतीकार का भाव कहा रह सकता है ।
नारिया प्रेम की प्रतीक होती है। उनका हृदय एक ऐसा कोमल धोर सरस स्थल है, जिसमे प्रेम भाव को लहलहाने मे देर नही लगती । इसी कारण भक्त भी कान्ताभाव से भगवान की आराधना करने मे अपना अहोभाग्य समझता है । भक्त 'तिया' बनता है और भगवान 'पिय' । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियो की रचनाओ मे भी उपलब्ध होता है । वनारसीदास ने अपने 'अध्यात्म गीत' मे श्रात्मा को नायक और 'सुमति' को उसकी पत्नी बनाया है । पत्नी पति के वियोग मे इस भाति तडफ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति
१ शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, ११२, पृ० १
२ चैतन्य चरितामृत, क्ल्याण, भक्ति प्रक, वर्ष ३२, अक १, पृ० ३३३
३ श्री रूप गोस्वामी, हरिभक्ति रसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्रो सपादित, अच्युत प्रथमाला कार्यालय, काशी, वि० स० १९८८ प्रथम संस्करण, ११४|१
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से मिलने का चाव निरन्तर बढ रहा है । वह अपनी समता नाम की सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमे इस तरह मग्न हो नाऊगी जैसे बूद दरिया मे समा जाती है । मैं अपनपा खोकर पिथ से मिलू गी, जैसे ओला गल कर पानी हो जाता है ।' अन्त में पति तो उसे अपने घट मे ही मिल गया, और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नही । उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तो से पुष्ट किया है । वह करतूति है और पिय कर्ता, वह सुख-सीव है मोर पिय सुख सागर, वह शिव- नीव है और पिय शिव मंदिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमल है और पिय माधव, वह भवानी है और पति शकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र ।"
कवि ने सुमति रानी को 'राधिका' माना है। उसका सौन्दर्य और चातुर्य सब कुछ राधा के ही समान है । वह रूप-सो रसीली है और भ्रम रूपी ताले को खोलने के लिए कीली के समान है। ज्ञान भानु को जन्म देने के लिए प्राची है और आत्म-स्थल मे रमने वाली सच्ची विभूति है । अपने धाम की खबरदार और राम की रमनहार है। ऐसी सन्तो की मान्य, रस के पथ और ग्रन्थो मे प्रतिष्ठित और शोभा की प्रतीक राधिका सुमति रानी है । 3
४०० ]
१. मैं बिरहिन पिय के आधीन
त्यौ तलफों ज्यो जल बिन मीन ॥८॥ होहु मगन मै दरशन पाय
ज्यो दरिया मे बूद समाय ||६|| पिय को मिलो अपनपो खोय भोला गल पाणी ज्यो होय ||१०||
- बनारसी विलास, अध्यात्म गीत, पृ० १६१ २ पिय मोरे घट मै पिय माहि, जलतरंग ज्यो दुविधा नाहि । पिय मो करता मे करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥ for सुखसागर मे सुख -सीव, पिय शिवमंदिर में शिवनीव । पिय ब्रह्मा मै सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम ॥ पिय शकर मै देवि भवानि, पिय जिनवर मे केवल वानि ॥
- देखिए वही, प्रध्यात्म गीत, पृ० १६१
३. रूप की रसीली भ्रम कुलप की कीली
शील सुधा के समुद्र भीलि सीलि सुखदाई है । प्राची ज्ञान- मान की प्रजाची है निदान की
सुराची निरवाची ओर साँची ठकुराई है । घाम की खबरदार राम की रमनहार
राधा रस पथति में ग्रन्थन मे गाई है । सतन की मानी निरवानी रूप की निसानी
यात सुबुद्धि रानी राधिका कहाई है || - वनारसीदास, नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, दमोह, पृ० ७६
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सुमति अपने पति 'चेतन' से प्रेम करती है । उसे अपने पति के अनन्त ज्ञान, वल और वीर्य वाले पहलू पर एक निष्ठा है । किन्तु वह कर्मों की कुसगति में पडकर भटक गया है। अत. बडे ही मिठास भरे प्रेम से दुलराते हुए सुमति कहती है, "हे लाल तुम किसके साथ कहा लगे फिरते हो । प्राज तुम ज्ञान के महल मे क्यो नही आते । तुम अपने हृदय-तल में ज्ञान-दृष्टि खोल कर देखो, दया, क्षमा, समता पौर शान्ति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा मे खड़ी हुई है । एक से एक अनुपम रूप वाली है । ऐसे मनोरम वातावरण को भूलकर भाप कही न जाइए। यह मेरी सहज प्रार्थना है।
बहुत दिन वाहर भटकने के बाद चेतन राजा आज घर पा रहा है। सुमति के आनन्द का कोई ठिकाना नही है । वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के आगमन की बात सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति प्राह्लादित होकर अपनी सखी से कहती है, "हे सखी देखो आज चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूमरो के वश मे होकर घूमता फिरा, अव उसने हमारी सुध ली है । अब तो वह भगवान जिन की आज्ञा को मानकर परमानन्द के गुणो को गाता है। उसके जन्म-जन्म के पाप भी पलायन कर गये है । भव तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे उसे ससार मे फिर नही माना पडेगा। अब वह अपने मनभाये परम अखडित सुख का विलास करेगा।"
पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परायेपन का भाव दूर हो जाता है। द्वैत हट जाता है और अद्वैत उत्पन्न हो जाता है । ऐसा ही एक भाव वनारसीदास ने उपस्थित किया है। सुमति चेतन से कहती है, "हे प्यारे चेतन | तेरी ओर देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई, दुविधा का आँचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई । कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद पाते ही मैं तुम्हे खोजने के लिए अकेली ही राज-पथ को छोडकर भयावह कान्तार मे घुस पड़ी
कहा-कहा कौन सग लागे ही फिरत लाल, प्रावी क्यो न आज तुम ज्ञान के महल मे। नकह विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेतो, कैसी-कैसी नीकी नारि ठाडी है टहल में । एक तें एक बनी सुन्दर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल मे। ऐसी विधि पाय कहू भूलि और काज कीजे, एतौ कह्यो मान लीज वीनती सहल मे।
-'मैया' भगवतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्नन्य रत्नाकर कार्यालय, बम्बई,
द्वितीयावृत्ति, सन् १९२६ ई०, शतप्रप्टोत्तरी, २७वा पद्य, पृ० १४ २ देखो मेरी सखी ये आज चेतन घर मावे ।
काल अनादि फिर्यो परवश ही, अब निज सुहिं चितावै ॥१॥ दे० जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहि वहावै । श्री जिन भाज्ञा सिर पर घरतो, परमनान्द गुण गावै ।।२।। दे० देत जलाजुलि जगत फिरन को ऐमी नुगति ननावै । विलस सुख निज परम अखडित, भैया सब मन भावे ।।३।। दे० -देखिये वही, परमार्थ पद पक्ति १४वा पद, पृ० ११४
[४.१
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थी। वहाँ काया नगरी के भीतर तुम अनन्त बल और ज्योति वाले होते हुए भी कर्मों के आवरण में लिपटे पड़े थे । अव तो तुम्हें मोह की नीद छोडकर सावधान हो जाना चाहिए।"3
एक सम्ली मुमति को लेकर, नायक चेतन के पास मिलाने के लिए गई। पहले दूतियां ऐसा किया करती थीं । वहाँ वह सखी अपनी वाला सुमति की प्रशसा करते हुए चेतन ने कहती है, "हे लालन ! मै अमोलक वाल लाई हूँ। तुम देखो तो वह कैसी अनुपम मुन्दरी है। ऐसी नारी तीनो ससार में दूसरी नहीं है । और हे चेतन ! इसकी प्रीति भी तुमने ही सनी हुई है। तुम्हारी इस राधे की एक-दूसरे पर अनन्त रीझ है । उसका वर्णन करने में मैं पूर्ण असमर्थ हैं।" आध्यात्मिक विवाह
इसी प्रेम के प्रसग में आध्यात्मिक विवाहो को लिया जा सकता है। ये 'विवाहला', 'विवाह', 'विवाहलां' और 'विवाहो' आदि नामो में अभिहित हुए हैं। इनको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-एक तो वह जब दीक्षा ग्रहण के समय आचार्य का दीमाकुमारी अथवा संयमश्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है, और दूसरा वह जत्र आत्मा रूपी नायक के साथ उसी के किसी गुणरूपी कुमारी की गांठे जुड़ती हैं। इनमे प्रथम प्रकार के विवाहो का वर्णन करने वाले कई रास 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह में संकलित है। दूसरे प्रकार के विवाहो में सबसे प्राचीन जिनप्रभसूरि का 'अन्तरग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। उपयुक्त मुमति और वेतन दूसरे प्रकार के पति-पली है । इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी आता है, जबकि प्रात्मारूपी नायक 'गिवरमणी के साथ विवाह करने जाता है । अजयरान पाटणी के 'गिवरमणी विवाह का उल्लेख हो चुका है।
३. वालम तुहु तन चितवन गागरि टि
अंचरा गो फहराय सरम गै छुटि ॥१॥ वालम० पिउ सुधि पावत वन मैं पैसिउ पेलि, छाडत राज डगरिया भयउ अकेलि ॥३॥ वालम० काय नगरिया भीतर चेतन भूप, करम लेप लिपटा वल ज्योति स्वरूप |वालम० चेतन वृझि विचार बरहु सन्तोष, राग दोप दुइ वन्वन छूटत मोप ॥१॥ वालम०
-बनारसी विलास, अध्यात्म पद पंक्ति पृ० २२८-२२६ ४. लाई हो लालन वाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी बनी है।
ऐसी कहूँ तिहुँ लोक मे मुन्दर, और न नारि अनेक धनी हैं । याहि तें तोह कहुँ नित चेतन, याहू की प्रीति जु तो सौं सनी है। तेरी और राधे की रीशि अनन्त जु मोप हूँ यह बात गनी है ।। -भैय्या भगवतीदाम, ब्रह्मविलास, बम्बई, १९२६ ई०,
गत अप्टोत्तरी, २८वां पद्य, पृ० १४ ४०२ ]
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वह १७ पद्यो का एक सुन्दर रूपक काव्य है। उन्होने 'जिनजी की रसोई' मैं तो विवाहोपरांत सुस्वादु भोजन और वन विहार का भी उल्लेख किया है ।"
बनारसीदास ने तीर्थ कर शातिनाथ का शिवरमणी से विवाह दिखाया है। शांतिनाथ विवाह मडप मे माने वाले है । होने वाली वधू की उत्सुकता दवाये नही दवती । वह अभी से उनको अपना पति मान बैठी है । वह अपनी सखी से कहती हैं, "हे सखी आज का दिन अत्यधिक मनोहर है, किन्तु मेरा मनभाया अभी तक नही आया । वह मेरा पति सुखकद है और चन्द्र के समान देह को धारण करने वाला है, तभी तो मेरा मन उदवि धानन्द से आन्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र- चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति को कीर्ति ससार मे फैली हुई है । वह दुखरूपी अधकार के समूह को नष्ट करने वाली हैं। उनकी वाणी से अमृत करता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए।"
तीर्थंकर अथवा आचार्यों के सयमश्री के साथ विवाह होने के वर्णन तो बहुत अधिक है । उनमे से 'जिनेश्वर सूरि और जिनोदय सूरि विवाहला' एक सुन्दर काव्य है । इसमे इन सूरियो का संयमश्री के साथ विवाह होने का वर्णन है। इसकी रचना वि० स १३३१ में हुई थी । हिन्दी के कवि कुमुदचन्द का 'ऋषभ विवाहला' भी ऐसी ही एक कृति है । इसमे भगवान ऋषभनाथ का दीक्षा कुमारी के साथ विवाह हुआ है। श्रावक ऋपभदास का 'आदीश्वर विवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है। विवाह के समय भगवान ने जिस चुनडी को मोदा था, वैसी चुनडी छपाने के लिए न जाने कितनी पत्नियाँ अपने पतियों से प्रार्थना करती रही हैं । १६वी शती के विनयचन्द्र की 'चुनड़ी' हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध रचना है । साघुकीर्ति को चुनडी मे तो मगीतात्मक प्रवाह भी है ।
तीर्थंकर नेमीश्वर और राजुल का प्रेम
नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर जैन हिन्दी के भक्तकवि दाम्पत्य भाव प्रकट करते रहे है । राजशेखर सूरि ने विवाह के लिए राजुल को ऐसा सजाया है कि उसमें मृदुल काव्यत्त्व ही साक्षात् हो उठा है। किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धि से संचालित है, जैसे राधासुधानिधि मे राधा का सौन्दर्य । राजुल को शील-सती शोभा मे कुछ ऐसी बात है कि उससे
५. देखिए, 'हिन्दी के भक्तिकाव्य मे जैन साहित्यकारो का योगदान'
छठा अध्याय, पृ० ६५६
1
६ सहि एरी दिन आज सुहाया मुझ भाया बाया नहि घरे । सहि एरी । मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा देह घरे ॥ चन्द जिवाँ मेरा वल्लम सोहे, नैन चकोहि सुक्ख करें। जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दूख तिमर वितान हरै ॥ सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग का लच्छन कहिये ।
श्री शान्ति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, आज मिला मेरी सहिये ॥
- बनारसीदास, बनारसी विनाम, श्री शान्तिनाथ जिन स्तुति, प्रथम पद्य, पृ० १८ ।
[ ४०३
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पवित्रता को प्रेरणा मिलती है, वासना को नहीं । विवाह मंडप मे विराजी वधू जिसके पाने की " प्रतीक्षा कर रही थी। वह मूक पशुप्रो के करुण-क्रन्दन से प्रभावित होकर लौट गया। उस समय
वधू की तिलमिलाहट और पति को पा लेने की बेचनी का जो चित्र हेमविजय ने खीचा है, दूसरा ' नही खीच सका । हर्षकीति की 'नेमिनाथ राजुल गीत' भी एक सुन्दर रचना है। इसमे भी नेमिनाथ को पा लेने की बेचैनी है, किन्तु वैसी सरस नही जैसी कि हेमविजय ने अकित की है।
___ कवि भूधरदास ने नेमीश्वर और राजुल को लेकर अनेक पदो का निर्माण किया है। "एक स्थान पर तो राजुल ने अपनी माँ से प्रार्थना की, "हे मा देर न करो। मुझे शीघ्र ही वहाँ 'भेज दो, जहाँ हमारा प्यारा पति रहता है। यहा तो मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता, चारो ओर
अधेरा ही अधेरा दिखाई देता है । न जाने नेमि रूपी दिवाकर का मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके बिना हमारा हृदय रूपी अरविन्द मुरझाया पडा है ।" पिय-मिलन की ऐसी विकट चाह है, जिसके कारण लड़की मां से प्रार्थना करते हुए भी नही लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसग मे लज्जा पाती है, क्योकि उसमे काम की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो अलौकिक और दिव्य प्रेम की बात है । अलौकिक की तल्लीनता मे व्यावहारिक उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता।
राजुल के वियोग मे 'सम्वेदना' की प्रधानता है। भूधरदास ने राजुल के अन्तःस्थ विरह को सहज स्वाभाविक ढग से अभिव्यक्त किया है । राजुल अपनी सखी से कहती है, "हे 'सखी ! मुझे वहाँ ले चल, जहाँ त्यारे जादीपति रहते है। नेमिरूपी चन्द्र के बिना यह आकाश का
चन्द्र मेरे सव तन-मन को जला रहा है। उसकी किरणे नाविक के तीर की भाँति अग्नि के स्फुलिंगो को बरसाती है । रात्रि के तारे तो भगारे ही हो रहे है ।"८ कही-कही राजुल के विरह में 'कहा' के दर्शन होते है, किन्तु उसमें नायिका के 'पेडुलम' हो जाने की बात नही आ पाई है, इसी कारण वह तमाशा बनने से बच गया है। यद्यपि राजुल का 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता। किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गर्मी से जड़काले मे लुये चलने लगी हो । राजुल अपनी सखी से कहती है, "नेमिकुमार के बिना मेरा जिय रहता नही है। हे सखी । देख मेरा हृदय कैसा बच रहा है, तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यो नहीं।
७. माँ विलब न लाव पठाव वहाँ री, जह जगपति पिय प्यारो ।
और न मोहि सुहाय कछू अब, दीसे जगत अधारो री ॥१॥ मैं श्री नेमि दिवाकर को अब, देखो बदन उजारो। बिन पिय देखे मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारो री ।।२।।
-भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, १३वा पद, प० ८। ८ तहाँ ले चल री, जहाँ जादौपति प्यारो।
नेमि निशाकर बिन यह चन्दा, तन-मन दहत सकल री ॥१॥ तहाँ० किरन किधी नाविक शर तति के, ज्यो पावक की झलरी। तारे हैं अगारे सजनी, रजनी राकस दल री ॥२॥ तहाँ०
-देखिए वही, ४५वा पद, पृ० २५
४.४ ]
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मेरी विरजन्य उष्णता कपूर और कमल के पत्तो से दूर नहीं होगी। उनसे दूर हटा दे। मुजे तो 'सियरा कलावर' भी 'करूर' लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमार के बिना मेरा 'हिरा' गीतन नही हो सकता । पिय के वियोग में राजुत भी पीली पड गई है, किन्तु ऐना नहीं हुआ कि उनके शरीर मे एक तोला मांस भी न रहा हो । विरह मे भरी नदी में उनका हृदय भी वहा है, हिन्दु उसकी प्राखो से खून के श्रासू कभी नही दुलके । हरी तो वह भी भत्तों से भेंट कर ही होगी, किन्तु उसके हाड सूख कर सारगी कभी नही बने ११०
बारहमासा
नेमीश्वर थोर राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में बारहमासी की भी रचना हुई है । उन सब में कवि विनोदीलाल का 'वारहमाना' उत्तम है । प्रिया को प्रिय में नुम के अनिश्चय की आशका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख में रह रहा हो। तीर्थकर नेमीसर वीतरागी होकर निराकुलतापूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं, किन्तु राजुन को टाका है, "जब मावन मे घनघोर घटायें जुड आयेगी, चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिन कुहुक गुनावेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाई के झोके चलेंगे, तो वह सुतपूर्वक तप न कर नकेगे । पोप के लगने पर तो राजुल की चिन्ता और भी बढ गई है। उमे विश्वास है कि पति का जान बिना रजाई के नही कटेगा । पत्तो की घुवनी से तो काम चलेगा नही। उस पर भी काम की फौजे मी तु मे निकलती है, कोमल गात के नेमीश्वर उससे लड न सकेगे ।" वैनान की गर्मी को देखकर गनुल और भी अधिक व्याकुल है, क्योंकि इस गर्मी मे नेमीश्वर को प्यास लगेगी, तो जीतन जन कहाँ मिलेगा, और तीव्र घूप से तचते पत्थरो से उनका शरीर दग जाएगा । १३
वर्णन से ।
६ नेमि विना न रहे मेरो जियरा ।
हेर गेली तपत उर कैसो, लावत क्यो निज हाथ न नियरा ॥१॥ नेमि० करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत कर कनावर गियरा ||२|| नमि० भूघर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न राजुल हियरा ॥ ३ ॥ नमि० - देखिए वही, २०वा पद, पृ० १२
१० देखिए वही, १४वा पद, पृष्ठ ह और मिलाउये जायनी के नागमनी के विरह
११. पिया सावन मे व्रत लीजे नही, घनघोर घटा जुर प्रावेगी ।
चहुँ ओर तै मोर जुघोर करें पिय रैन अधेरी मे सुभे नही, पुरवाई की
वन कोविन कुहक सुनायेगी || कछु दामिन दमक उरावेगी । भोक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज जगी ॥ कवि विनोदीलाल, बारहमासा नमि राजन था, वामानाम जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कनकता, १०:४ १२. देखिए वही, १४वा पद्य, पृ० २७
१३. देखिए वही. २२वा पद्य, पृ० २६
[ ४o ४
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- कवि लक्ष्मीवल्लभ का 'नेमि राजुल वारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृति के रमणीय सन्निधान मे विरहिणी के व्याकुल भावो का सरस सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावण का माह है, चारो ओर से विकट घटाये उमड रही हैं । मोर शोर मचा रहे है। आसमान मे दामिनी दमक रही है। यामिनी मे कुम्भस्थल जैसे स्तनो को धारण करने वाली भामिनियो को पिय का सग भा रहा है। स्वाति नक्षत्र की दो से चातक की पीडा भी दूर हो गई है । शुष्क पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय पाया और न पतिया । ४ "ठीक इसी भाति एक वार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी, "चातक के मुख स्वाति नक्षत्र की दूदे पड़ गई, और समुद्र की सब सी भी मोतियो से भर गई । हस स्मरण कर करके अपने तालावो पर आ गये। सारस बोलने लगे और खजन भी दिखाई पड़ने लगे । कासो के फूलने से वन में प्रकाश हो गया, किन्तु हमारे कत न फिरे, कही विदेश मे ही भूल गये । ५" कवि भवानीदास ने भी नेमिनाथ बारहमासा लिखा था, किसमे कुल १२ पद्य है 1 श्री जिनहर्ष का 'नेमि वारहमासा' भी एक प्रसिद्ध काव्य है । उसके १२ सवैयो मे सौन्दर्य और आकर्षण व्याप्त है। श्रावण मास मे राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है, "श्रावण मास है, घनघोर घटाये उन्नै आई है। झलमलाती हुई विजुरी चमक रही है, उसके मध्य से वन-सी ध्वनि फूट रही है. जो राजुल को विषवेलि के समान लगती है । पपीहा पिउ-पिउ रट रहा है। दादुर और मोर बोल रहे है। ऐसे समय में यदि नेमीश्वर मिल जाये तो राजुल अत्यधिक सुखी हो।"१६
१४ उमटी घनघोर घटा चिहुँ ओरनि मोरनि मोर मचायो।
चमक दिवि दामिनि यामिनि कु मय भामिनि कु पिय को सग भायो। लिव चातक पीड ही पीत लई, भई राजहरी मुंह देह दिपायो। पतिया पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण पायो पं नेम न आयो ।
-कवि लक्ष्मीवल्लभ, नेमि राजुल वारहमासा, पहल पद्य,
__ इसी प्रवन्ध का छठा अध्याय । पृ० ५९४ १५. स्वाति वूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सव भरे ॥
सरवर सरि हस चलि आये । सारस कुरलहिं खजन देखाये ॥ भा परगास कास वन फूले । कत न फिरे विदेसहिं भूले ।। --जायसी ग्रन्थावली, प० रामचन्द्र शुक्ल सपादित, कामी नागरी प्रचारिणी सभा,
तृतीय सस्करण, वि० स० २००३, ३०1७, पृ० १५३ १६ धन की घनघोर घटा उनही, विजुरी चमकति झलाहलि सी ॥
विधि गाज अगाज अवाज करत सु, लागत भो विपवेलि जिसी ॥ पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलिसी ॥ ऐसे श्रावण मे यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी ॥
-जिनहर्प, नेमि वारहमासा, इसी प्रवन्ध का छठा अध्याय, पृ० ५०२
४०६ ]
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आध्यात्मिक होलियाँ
जैन साहित्यकार आध्यात्मिक होलियो की रचना करते रहे है। इनमे होली के अग उपागो का आत्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमे आकर्षण तो होता ही है, पावनता भी ना जाती है । ऐसी रचनामो को 'फागु' कहते है । कवि बनारसीदास के 'फागु' मे आत्मा रूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है। कवि ने लिखा है, "सहज आनन्द रूपी वसन्त आ गया है और शुभ भाव रूपी पत्ते लहलहाने लगे है। सुमति रूपी कोकिला गलगही होकर गा उठी है, और मन रूपी भोरे मदोमत्त होकर गुजार कर रहे है । सुरति रूपी अग्नि-ज्वाला प्रकट हुई है, जिससे अष्टकर्म रूपी वन जल गया है। अगोचर प्रमूत्तिक प्रात्मा धर्म रूपी फाग खेल रहा है। इस भांति आत्म ध्यान के बल से परम ज्योति प्रकट हुई, जिससे अष्टकर्म रूपी होली जल गई और आत्मा शान्तरस मे मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा।"१०
कवि द्यानतराय ने दो जत्थो के महरा होली की रचना की है। एक भोर तो बुद्धि, क्ष्या, क्षमा रूपी नारिया है और दूसरी भोर प्रात्मा के गुण रूपी पुरुष है। ज्ञान और ध्यान रूपी डफ तथा ताल बज रहे है, उनसे अनहद रूपी घनघोर निकल रहा है। धर्म रूपी लाल रंग का गुलाल उड रहा है और समता रूपी रग दोनो ही पक्षो ने घोल रक्खा है। दोनो ही दल प्रश्न के उत्तर की भाति एक-दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोडते हैं । इधर से पुरुष-वर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधर से स्त्रिया पूछती है कि तुम किसके छोरा हो। पाठ कर्मरूपी काठ अनुभव रूपी अग्नि में जल बुझकर शान्त हो गये। फिर तो सज्जनो के नेत्र रूपी चकोर,
१७. विषम विरष पूरो भयो हो, आयो सहज वसन्त ।
प्रगटी सुरचि सुगधिता हो, मन मधुकर मयमत ।। सुमति कोकिला गहगही हो, वही अपूरब वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाडो जडताउ ।। शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होहि अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेलि विस्तार ।। सुरति अग्नि ज्वाला जगी हो, समकित मानु अमद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरद ॥ परम ज्योति प्रगट भई हो, लागी होलिका प्राग । माठ काठ सब जरि वुझे हो, गई तताई भाग ॥
बनारसीदास, बनारसी विलास
[४०७
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शिवरमणी के आनन्दकन्द की छवि की टकटकी लगाकर देखसे ही रहे । भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियो के साथ, श्रद्धा नगरी मे आनन्द रूपी जल से रुचि रूपी केशर घोल कर
और रंग हुए नीर को उमग रूपी पिचकारी ने भर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोडा । इस भाति उसने अत्यधिक आनन्द का अनुभव किया ।१६ अनन्य.प्रेम
प्रेम मे अनन्यता का होना अत्यावश्यक है। प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है । मा-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया, क्योकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरे नही पडने पाई थी। किन्तु प्रेम भाँवरो की अपेक्षा नहीं करता । राजुल को तो सिवा नेमीश्वर के अन्य का नाम भी रुचिकारी नहीं था। इसी कारण उसने मा-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे तात | तुम्हारी जीभ खूब चली है जो अपनी लडकी के लिए भी गालिया निकालते हो। तुम्हे हर बात सम्भल कर कहना चाहिए। सव स्त्रियो को एक-सी न समझो। मेरे लिए तो इस ससार मे केवल नेमि प्रभु ही एक मात्र पति हैं ।"२०
महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाति अध्यात्म पक्ष मे घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नही कर सका । कबीर मे दाम्पत्य भाव है और आध्यात्मिकता भी,
१८. भायो सहज बसन्त खेल सब होरी होरा ।
उत बुधि दया छिमा बहु ठाढी, इत जिय रतन सजे गुन जोरा ॥१॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत है, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उडत है, समता रग दुहू ने घोरा ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोतो करि-करि जोरा । इततै कहै नारि तुम काकी, उतते कहै कौन को छोरा ॥३॥ पाठ काठ अनुभव पावक मैं, जल वुझ शान्त भई सब ओरा। धानत शिव आनन्द चन्द छवि, देखहि सज्जन नैन चकोरा ।।४।।
-द्यानतराय, धानत पद-सग्रह, कलकत्ता, ८६वा पद, पृ० ३६-३७ १९. सरधा गागर मे रुचि रूपी, केसर घोरि तुरन्त ।
आनन्द नीर उमग पिचकारी, छोड़ो नीकी मन्त ।। होरी खेलोगी, घर आये चिदानन्द कन्त ॥
- भूधरदास, 'होरी खेलोगी' पद, अध्यात्म पदावली,
__ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृष्ठ ७५ २० काहे न बात सम्भाल कहाँ तुम जानत हो यह बात भली है।
गालिया काढत हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ जली है ।। पै सब को तुम तुल्य गिनी तुम जानत ना यह बात रली है । या भव मे पति नेत्र प्रभू वह लाल विनोदी को नाश वली है ।
-विनोदीलाल, नेमिव्याह, जैन सिद्धान्त भवन पारा की हस्तलिखित प्रति ४.८ ]
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किन्तु वैसा श्राकर्षण नही, जैसा कि आनन्दधन मे है । जायसी के प्रवन्धकाव्य मे अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमे वह एकता नहीं निभ सकी है, वैसी कि प्रानन्दधन के मुक्तक पदो मे पाई जाती है। मुजान वाले घनानन्द के बहुत ने पद भगवद्भक्ति मे वैसे नही खुप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घंटे है । महात्मा बानन्दघन जैनो के एक पहुँचे हुए साधु थे। उनके पदो मे हृदय की तल्लीनता है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, "सुहागिन के हृदय में निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जागा है कि अनादि कान ने चली आने वाली अज्ञान की नीद समाप्त हो गई। हृदय के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज ज्योति को प्रकाशित किया है, जिसमे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम इक ऐसा अचूक तीर है कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसको सुनकर आत्मा रूपी मृग तिनके तक चरना भूल जाता है । प्रभु तो प्रेम से मिलता है, उसकी कहानी कही नही जा सकती । १
भगवान आते हैं, तो
।
लम्बी प्रतीक्षा के
भक्त के पास भगवान स्वय श्राते है, भक्त नही आता । जब भक्त के आनन्द का वारापार नही रहता । श्रानन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी स्वयं प्राये है और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है बाद श्राये नाम की प्रसन्नता मे, पत्नी ने भी विविध भाति के ट गार किए है। उसने प्रेम, प्रतीति, राग और वि के रंग में रंगी साडी धारण की है, भक्ति को मेहंदी राची है और भाव का नुखकारी प्रजन लगाया है । सहज स्वभाव की चूडिया पहनी हैं और शिक्षा का भारी कगन धारण किया है। ध्यान रूपी उरवसी गहना वक्षस्थल पर पडा है और पिय के गुण की माला को गले मे पहना है । सुरत के सिंदूर से माग को सजाया है और निरति को वेणी को आकर्षण ढंग से गया है। उनके घर मे त्रिभुवन की सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म हुआ है । वहा से अनहद
२१ सुहागण जागी अनुभव प्रीति । सुहा० ॥
निन्द अज्ञान अनादि की मिट गई निज रीति ||१|| सुहा० घट मन्दिर दीपक कियो, सहज नुज्योति मरूप ।
आप पराइ आप ही, ठानत वस्तु अनूप ॥ मुहा० ॥२॥ कहा दिखावु और कू, कहा समभाउ भीर ।
तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठीर ॥ मुहा० ॥३॥ नाद विलुद्धो प्राण ले, गिने न तृण मृगलीय | आनन्दघन प्रभु प्रेम का, प्रकथ कहानी वोय || मुहा० ॥|४||
- महात्मा आनन्दघन, ग्रानन्दघन पद मग्ग्रह, प्रभ्यात्म ज्ञान प्रभा बम्बई त्रोश
मण्डल,
| पृ० ७
[ ४०६
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कां नाद भी उठने लगा है। अब तो उसे लगातार एकतार में पिय रस का श्रानन्द उपलब्धं हो रहा है । २२
ठीक उसी भाति बनारसीदास की नारी के पास भी निरजनदेव स्वयं प्रकट हुए है । वह इधर-उधर भटकती नही । उसने अपने हृदय मे ध्यान लगाया और निरजनदेव श्रा गये । अब वह अपने खजन जैसे नेत्रो से उसे पुलकायमान होकर देख रही है और प्रसन्नता से भरे गीत गा रही है । उसके पाप और भय दूर भाग गए है। परमात्मा जैसे साजन के रहते हुए पाप और भय कैसे रह सकते है । उसका साजन साधारण नही है, वह कामदेव जैसा सुन्दर श्रीर सुधारस सा मधुर है । वह कर्मों का क्षय कर देने से तुरन्त मिल जाता है । 23
४१० ]
२२ आज सुहागन नारी || अबधू प्राज० ॥
मेरे नाथ श्राप सुध लीनी, कीनी निज अगचारी ॥ अबधू० ॥ १ ॥
प्रेम प्रतीत राग रुचि रगत, पहिरे पहिरे जिनी सारी ।
महिंदी भक्ति रग की राची, भाव अजन सुखकारी ॥ अबधू० ॥२॥ सहज सुभाव चूरियाँ पेनी, थिरता कगन भारी ।
ध्यान उरवसी उर मे राखी, पिय गुन माल प्रधारी || अबघू० ||३|| सुख सिंदूर माग रग राती, निरते बेनी समारी ।
उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, भारसी केवल कारी ॥ प्रबघू० ||४|| उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी ।
डी सदा श्रानन्दवन बरात, बिन भोरे इक नारी || अबघू० ||५||
- देखिए वही, २०वा पद,
२३. म्हारे प्रगटे देव निरजन ।
टको कहा कहा सर भटकत कहा कहू जनरजन || म्हारे० ||१|| वजन दृग दृग नयनन गाऊँ चाऊ चितवत रजन ।
सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रजन || म्हारे ० || २ || बोहो कामदेव होय काम घट वो ही सुधारस मजन ।
श्रीर उपाय न मिले बनारसी मकल करमषय खजन || म्हारे० ||३||
- बनारसीदास, बनारसी विलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पर', पृ० २४० (क)
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जैन पद साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
डा० कस्तुरचन्द कासलीवाल
एम०ए०पी०एच-डी०, जयपुर हिन्दी मे काव्य, चरित कथा एव पुराण साहित्य के साथ-साथ जैन कवियों ने पद साहित्य के विकास में भी पूर्ण योग दिया। पद साहित्य वैराग्य एव भक्तिमार्ग का उपदेश देने मे बहुत सहायक सिद्ध हुआ है । जैन शास्त्र सभानो मे शास्त्र प्रवचन के पश्चात् भजन एव गीत वोलने की प्रथा सैकडो वर्षों से चली आ रही है इस दृष्टि से भी इन कवियो ने पद रचना में अधिक रुचि दिखलाई । यद्यपि यह कहना कठिन है कि सर्वप्रथम किस कवि ने हिन्दी मे पदसाहित्य की रचना की थी लेकिन इतना अवश्य है कि १४-१५वी शताब्दी में पद रचना सामान्य वात हो गई । १५वी शताब्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान् सकलकीति का पद देखिये
तुम वलिमो नेमजी दोय घटिया । जादव वस जब ब्याहन पाए, उनसेन धी लाडलीया ।। तुम० ॥ राजमती विनती कर जोरे, नेम नाल मानत न हीया ॥ तुम० ॥ राजमती सखीयन सु वोले, गिरनार भूधर ध्यान परीया || तुम० ॥
सकलकीर्ति मनु दास चारी, चरणे चित्त लगाय रहीण ॥ तुम० ॥ सकलकीति के पश्चात् ब्रह्म जिनदास के पद भी मिलते है । आदिनाथ स्तवन के रूप मे लिखा हुमा उसका यह पद बहुत सुन्दर एव परिष्कृत भापा मे निबद्ध है। हवी शताब्दी में होने वाले कवियो मे घीहल, पूनो, चराज आदि कवियो के पद उल्लेखनीय हैं। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारी की ग्रन्थ-सूची चतुर्थ भाग मे लेखक ने १४० से अधिक जैन कवियो के पदो की सूचना दी है।
___ इधर हिन्दी पदो के प्रमुख पुरुषकर्ता महाकवि कबीरदास, मीरों एव सूरदास सगुणोपासक कवि थे। इन कवियो की भक्ति-धारा से जैन कवि भी अप्रभावित नहीं रह सके और कालान्तर मे उनकी रचनाओ पर भी इन भक्त कवियो का अवश्य प्रभाव पड़ा । तुलसीदास के समकालीन जैन कवि वनारसीदास एवं रूपचन्द्र थे । तुलसीदास कट्टर रामोपासक थे और अपनी रामायण के माध्यम से रामकथा का घर-घर प्रचार किया था। इसलिए तुलसी की रामभक्ति से भी जैन कवि अछूते नहीं रह सके । यद्यपि वे मात्मा, परमात्मा एव वैराग्य के गुण गाते रहे किन्तु भगवद्भक्ति की भोर भी उनका ध्यान गया और तीर्थंकरो की भक्ति में इन्होने पद लिखने प्रारम किये।
१५-१६वी शताब्दी के पश्चात् जैन कवियो ने सैकडो-हजारो की संख्या मे पद लिखे। कितने ही कवियो ने तो २०० से भी अधिक पद लिख कर उस साहित्य की ओर अपनी रुचि का प्रदर्शन किया। इन हिन्दी पद निर्माताओ मे भट्टारक रत्लकीति, भट्टारक कुमुदचन्द्र, रूपचन्द्र, वनारसीराम, जगजीवन, जगतराम, द्यानतराम, भूधरराम, बस्तराम, नवलराम, बुधजन, छत्रपति, भागचन्द्र आदि के नाम उल्लेखनीय है । यदि इन जैन कवियो के पदो की गणना की जावे तो यह सभवत दस हजार से कम नहीं होगी लेकिन अभी तक ५-७ कवियो के अतिरिक्त शेष कवियो के बारे में साहित्य जगत् को कोई विशेष जानकारी नहीं है। इन कवियो ने बड़े ही सुन्दर शब्दो मे
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भक्तिपरक, आध्यात्मिक, दार्शनिक तथा रहस्यवादी पद लिखे है जिनको पढने से मात्मिक शान्ति मिलती है एव जीवन नैतिकता की ओर विकसित होता है। प्रस्तुत लेख में ऐसे ही कुछ कवियो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है
भूधरदास १८वी शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे। ये प्रागरे के रहने वाले थे तथा पार्श्वपुराण बामक काव्य की सवत् १७८४ में रचना की थी। भूधरदास ने माया को कबीरदास के समान ही ठगिनी शब्द से सम्बोधित किया है । कबीर ने माया के विभिन्न रूप दिखलाये है जब कि भूधरदास ने उसके स्वरूप का भी परिचय दिया है । माया बिजली की आभा के समान है जो मूर्ख प्राणियो को ललचाती रहती है । उस पर विश्वास करने वाले को सदैव पश्चाताप करना पड़ता है और अन्त में नरक में भी जाना पडता है । कबीर ने उसके कमला, भवानी, मूरति एव जोगिन आदि नाम दिये हैं तो भूधरदास ने "कैते कप किये ते कुलटा तो भी मन न अघाया" कह कर सारे रहस्य को समझाने का प्रयास किया है। कबीर ने माया को अकथ कहानी लिख कर छोड दिया है लेकिन भूधरदास ने "जो इस ठगिनी को ठग बैठे मै तिनको शिर नाया" शब्दो मे अच्छा अन्त किया है। दोनो ही कवियो के पदो को पाठको के सामने अवलोकनार्थ किया जा रहा है
माया महा ठगिनी हम जानी। निरगुन फास लिये कर डोले बोले मधुरी बानी। केसव के कमला ह बैठी, शिव के भवन शिवानी । पंडा के भूरति ह बैठी, तीरथ मे भई पानी। जोगी के जोगिन हबैठी, राजा के घर रानी । काहू के हीरा ह बैठी, काहू के कोडी कानी । भगतन के भगतिन ह बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी। कहत कबीर सुनो हो सतो यह सब अकथ कहानी ॥ +
+ सुनि ठगनी माया, ते सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया ।। सुनि० ।। आमा तनक दिखाय विज्जु ज्यो, मूढमती ललचाया । करि मद अन्ध धर्म हर लीनो, अन्त नरक पहुंचाया ।। सुनि० ॥ केते कथ लिये ते कुलटा तो भी मन न अघाया । किसही सौ नहिं प्रीति निभाई, वह तजि और लुभाया |सुनि० ॥ 'भूधर' छलत फिरत यह सबको, भोदू करि जग पाया।
जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिनको शिर नाया ।। सुनि० ।। कबीरदास ने अपने एक अन्य पद मे यह प्राणी सारी प्रायु वातो मे ही व्यतीत कर देता है, इस रूपक का सुन्दर चित्रण किया है । जैन कवि छन ने भी इसी के समान एक पद लिखा है जिसमे उसने "मायु सब यो ही बीती जाय" के पश्चात्ताप किया है। दोनो कवियो के पदो की प्रथम दो पक्तिया पढिये४१२ ]
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जन्म तेरा बातो ही बीत गया, तूने कबहुं न कृष्ण कहो। पाच वरस का भोला भाला अब तो बीम भयो । सुन्दर पचीमी माया कारन देश विदेश गयो ।
-वीरदास आयु सब यो ही बीती जाय । बग्स अपन ऋतु मास महत, पल छिन ममय सुभाय । बन न सकत जप तप व्रत सजम, पूजन भजन उपाय ॥ मिथ्या विपय कपाय काज मे, फमो न निकमो जाय ॥
-छत्तदास यदि कबीरदास प्रभु के भजन करने मे पानन्द का अनुभव करते है तो जगतगम कवि 'भजन मम नही काज दूजो की माला जपते है। दोनो ही कवियो ने परमात्मा के भजन की अपूर्व महिमा गाई है । भजन से पापो का नाश होता है । सत समाज का समागम होता है। द्रव्य का भण्डार प्राप्त होता है। दोनो कवियो के पदो का अध्ययन कीजिये
भजन मे होत मानन्द प्रानन्द । बरसै शब्द अमी के बादल, भीजे मरहम सन्त । कर अस्नान मगन होय वैठे, चढा शब्द का ग । अगर वाम जहां तत की नदिया, बहत पारा गग । तेरा साहिव है तेरे माही पारस परसे अग। कहत कबीर सुनो भाई साधो, जपले ओ३म् सोऽह ।।
-कवीरदास भजन सम नहीं काज दूजो।
धर्म अग अनेक या मै, एक ही सिरताज । करत जाके दुरत पातक, जुरत सत समाज । भरत पुण्य भण्डार यात, मिलत सब सुख साज ।।१।। भक्त को यह इप्ट ऐसो, ज्यो क्षुधित को नाज । कर्म ईधन को प्रगनि सम, भव जलधि को पाज ।। २ ।। इन्द्र जाकी करत महिमा, कहो तो कमी लाज ।
जगतराम प्रसाद याते, होत अविचल राज ॥ ३ ॥ दौलतराम ने भगवान महावीर से भवपीर हरने तथा कर्म वेडी को काटने की प्रार्थना की तो कवीरदास ने भगवान से निवेदन किया है कि उनके विना भक्त की कौन पीर हर सकता है।
हमारी पौर हरो भवपीर (दौलतराम) आप विन कौन नुने प्रभु मोगे (कबीरदाग)
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इसी तरह यदि कबीरदास ने "साधो । मूलन बेटा जायो, गुरू परताप साधु की सगत खोज कुटुम्ब सब खायो" पद मे बालक का नाम ज्ञान रखा है तो बनारसीदास ने बालक का नाम भौदू रखकर नाम रखने वाले पडित को ही बालक द्वारा खा लेने की अच्छी कल्पना की है । इस दृष्टि से बनारसीदास की कल्पना निस्सदेह उच्च स्तर की है। दोनो पदो का अन्तिम भाग देखिएकबीरदास - ज्ञान नाम घरयो बालक का शोभा वरणि न जाइ । कहै कबीर सुनो भाई साधो, घर घर रहा समाइ ॥ बनारसीदास - नाम धरयो बालक को भोट्ट रूप वरन कछु नाही । नाम धरते पाडे खाये कहत बनारसी भाई ॥ राजस्थान की लाडली मीरा ने कृष्णभक्ति की देश अनुपम धारा बहाई । 'मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई' का श्रालाप घर घर होने लगा । साधारण जनता कृष्णभक्ति मे दीवानी हो उठी और मीरा द्वारा रचित पदो को गाकर सारे वायुमंडल को भक्तिविभोर कर दिया । इधर जैन कवि भी उस प्रवाह से अछूते नही रह सके । कविवर बनारसीदास ने "जगत मे सौ देवन को देव, जासु वरन इन्द्रादिक परसे होय मुकति स्वयमेव" का आलाप लगाया। इसी तरह एक ओर मीरा ने प्रभु से होली खेलने के लिए निम्न शब्द लिखे :
(१) होली पिया बिन लागे खारी सुनो री सखी मेरी प्यारी । (२) होरी खेलत है गिरधारी ।
तो दूसरी ओर जैन कत्रि श्रात्मा से ही खेलने को आगे बढे और उन्होने निम्न शब्दो मे अपने भावो को व्यक्त किया—
होरी खेलूंगी घर आए चिदानन्द ।
शिशर मिथ्यात गई अब, आइ काल की लब्धि बसत ।
१७वी शताब्दी मे होने वाले महाकवि तुलसीदास ने 'राम जपु राम जपु राम जपु बाबरे', 'घोर नीर निधि नाम निज लख रे' का सदेश फैलाया तो कविवर रूपचन्द ने जिनेन्द्र का नाम जपने के लिए प्रोत्साहित किया किन्तु अपने परिणामो को पवित्र करने के लिए मन से काटे को निकाल कर उनका स्मरण करने के लिए भी कहा। कविवर द्यानतराय ने "रे मन भज भज दीनदयाल, जाके नाम लेत इक खिन मे कर्ट कोटि अघ जाल" के रूप मे भगवद्भवित करने के लिए जगत् को सलाह दी ।
इस प्रकार जैन कवियो ने अध्यात्म एव भक्तिपरक पद लिख कर हिन्दी पद साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया जिसका विस्तृत अध्ययन होना आवश्यक है ।
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संयम व सदाचार
श्री दयाचन्द जैन शास्त्री उज्जैन
सभी प्राणियो की अपेक्षा मनुष्य मे बुद्धि बल अधिक होता है इसलिए उसमे अपना हिताहित विचार करने की शक्ति भी अधिक होती है। विचारशक्ति का यह देवी लाभ पाकर
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भी मनुष्य यदि उसका उपयोग स्वपर हित-साधन मे न करे तो उसे अपना दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार सज्ञाए मनुष्य व पशु मे समान रूप से पाई जाती है । लेकिन मनुष्य पशु की तरह इन्ही की पूर्ति मे अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर दे तो उसे मनुष्य जीवन पाने से क्या लाभ ?
मनुष्य सद्भाग्य से प्राप्त इस देवी सम्पदा का उपभोग जीवन की शूभ और अशुभ दोनो ही दिशाओ मे कर सकता है। शुभ दिशा में किया गया उपयोग धर्म एव सदाचार तथा अशुभ दिशा में किया गया उपयोग अधर्म या पाप कहा जाता है। बुद्धि के शुभ दिशा मे किये गये उपयोग से वह न केवल अपना अपितु प्राणिमात्र का भी हित कर सकता है और प्रशुभ दिशा मे किए गए उपयोग से स्वपर विनाश भी। शस्त्र व शास्त्र रचना उस एक ही बुद्धि के परिणाम है, पर एक से मानवता का सहार व दूसरे से उसका कल्याण होता है । राम-रावण, कृष्ण-कस, कमठ-मरुभूमि आदि के पौराणिक उदाहरण उसी सद्-असद् बुद्धि के ही तो प्रतिफल है। आज भी इस प्रकार के उदाहरणो की कमी नहीं है। परन्तु इनमे से हमे अपना जीवन कैसा बनाना है यह हमारे सोचने की बात है।
आज के मानव समाज पर जब हम दृष्टिपात करते है तो हमे बडी निराशा होती है । आज के मानव ने अपने जीवन का प्रमुख ध्येय केवल धन सचय और विपय सुख-सावनो की पूर्ति ही मान रक्खा है। अगर वह धर्माचरण करता भी है तो इन्ही की उपलब्धि के लिए। अहनिश उसका एक ही लक्ष्य रहता है कि उचित अनुचित तरीको से धन कमाना और उससे अपनी
आसुरी वासनाओ की प्यास बुझाना । परिग्रहानन्द और विषयानन्द उसके जीवन के ये ही दो महावत है।
आज का मानव अपनी प्रारिमक शक्तियो के विकास का मार्ग अवरुद्ध करके केवल भौतिक उपलब्धियो के तृष्णा-ज्वार मे फंसता जा रहा है। वह कोल्हू के वैल की तरह अपने ज्ञान-चक्षुमो पर वासनामो की पट्टी बाँध निरन्तर विषयचक्र के आस-पास अर्थ की धुरी लिए घूमा करता है तथा ज्यो-त्यो जिन्दगी के दिन पूरे कर काल कवलित हो जाता है। विषयसामग्रियो की मोहकता मे वह जीवन के महान कर्तव्यो से इतना बेसुध रहता है कि मेरे जीवन का अन्त मे क्या होगा इतनी विवेक-बुद्धि उसमे नही रह जाती।।
हमारे देश मे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जन-जीवन को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए विभिन्न योजनाओ द्वारा भौतिक उपलब्धियो के तो नाना प्रयत्न किये गए और किये जा रहे हैं पर जन-जीवन के चरित्र-वल को समुन्नत करने के लिए कोई भी प्रभावशाली प्रयल नही किया गया । फलत समूचे देश का चारित्रिक-स्तर दिनोदिन गिरता गया और आज स्थिति काबू के बाहर अनुभव की जाने लगी है। देश मे वल-पौरुष, सचाई और सदाचार का दिनोदिन हास होता जा रहा है और उसके स्थान पर अनाचार, असयम और विलासिता उत्तरोत्तर वढती जा रही है। आज देश के समग्र जीवन मे सेवा के नाम पर स्वार्थसिद्धि, कर्तव्य के नाम पर पथभ्रष्टता, शिक्षा के नाम पर उन्मार्गगामिता, अनुशासन के नाम पर स्वेच्छाचारिता, श्रम के नाम पर कामचोरी तथा धर्म जैसी पवित्र वस्तु के नाम पर प्रात्मश्लाघा और वचकता जैसी पाप
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वृत्तियाँ बढती जा रही है मानो मानवता और सदाचार के नाम पर देश का दिवाला ही निकल गया हो।
आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस देश मे अपनी आध्यात्मिक ज्ञानगरिमा के प्रकाश में जीवन के उच्चतम आदर्शों पर चलने की हमेशा से विश्व को प्रेरणा दी हो, जिसने तप पूत मात्मानो की तपोभूमि होने के कारण विभिन्न धर्मों की तीर्थस्थली होने के गौरव प्राप्त किया हो, जो अपने आचार-विचार की श्रेष्ठता के कारण "आर्यभूमि" के नाम से विश्व मे विश्रुत हो वही देश आज अपनी चारित्रहीनता एव अनैतिकता के कारण दिनोदिन पतनावस्था की ओर अग्रसर होता जा रहा है। यद्यपि देश के सभी शुभचितक व्यक्ति देश की इस दुरावस्था से चिंतित है पर मर्ज का इलाज किसी की समझ मे नही पा रहा है।
यह ठीक है कि लगभग अठारह वर्षों से विदेशी सत्ता से हमने मुक्ति पा ली है तथापि पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता के गुलाम हम अव भी है । हमे पाश्चात्य संस्कृति से इतना व्यामोह हो गया है कि हर बात मे हम उसकी ही नकल करने के आदी बन गये है । हमारा रहन-सहन, खानपान और सभी तौर-तरीके प्राय पाश्चात्य संस्कृति में ढलते जा रहे है । परन्तु आश्चर्य यह है कि वहां की अच्छाइयो की तरफ हमारा ध्यान नही जाता है।
पाश्चात्य भारतीय संस्कृति मे मौलिक अन्तर यही है कि प्रथम भोगप्रधान होने से मनुष्य को विलासी व इन्द्रियो का दास बनाती है और दूसरी त्यागप्रधान होने के कारण उसको सयमशील और सदाचारी बनाती है। प्रत आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य के विचारो मे पवित्रता का सचार करने के लिए उनके जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मोडने के सफल प्रयत्न किये जाये । शिक्षाकेन्द्रो मे अन्य विषयो की शिक्षा के साथ आध्यात्मिक विषयो की शिक्षा का सुप्रबन्ध हो जिससे देश के होनहार बालको और तरुणो का मानसिक धरातल ऊंचा उठे और वे जीवन की शुभ दिशा की ओर झांकने के आदी बने । जैसे जड की बीमारी पत्तो के इलाज से दूर नहीं हो सकती वैसे ही मनुष्य की मात्मिक अथवा वैचारिक कमजोरियो को कानून या ऊपरी व्यवस्थाओ के बल पर दूर नहीं किया जा सकता।
___ अत देश का चारित्रिक-रतर ऊँचा उठाना है अथवा उसके जीवन मे सदाचार और सयम की प्रतिष्ठा करना है तो देश के जीवन मे आध्यात्मिक विचारधारा को प्रवाहित करने वाली साधन सामग्रियो को सुसगठित एव प्रभावशील बनाना चाहिए। आचरण की शुद्धता और विचारो की पवित्रता के बिना मात्र भौतिक उपलब्धियां मनुष्य के जीवन को शाति और आनन्द प्रदान नही कर सकती और न मनुष्य उनका उचित रूप मे उपभोग ही कर सकता है। उसके स्वय के श्रेष्ठ विचार ही उसके जीवन को ऊर्ध्वगामी और सुसस्कृत बना सकते है ।
xxxx जैन वीर बंकरस विद्याभूषण, सिद्धांताचार्य श्री पं० के० भुजबली शास्त्री,
सं० 'गुरुदेव' मूडबिद्री पांच-छह साल तक मान्यखेट के कारागृह में कराहने वाले गग शिवमार पर द्रवीभूत हो, गोविन्द प्रभूतवर्प ने ही उसे फिर तलवनपुर के सिंहासन पर बैठाया और अपने ही हाथो से उस ४१६ ]
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गंग शिवमार के मस्तक पर मुकुट रखा । पर वाद चक्रवर्ती के सहोदर बकरस के साथ मिलकर कृतघ्न वन, वही गग शिवमार ने फिर राष्ट्रकूटो पर दूसरी बार तलवार उठाई । पर उस लड़ाई में भी वह बुरी तरह पराजित हुमा। तव भी दयालु गोविन्द चक्रवर्ती के द्वारा उसका राज्य पुन. उसीको दिया गया था। मानो उस उपकार का प्रत्युपकार स्वरूप चक्रवर्ती जब उत्तर भारत के दिग्विजय मे व्यस्त रहे, तव नीतिमार्ग (शिवमार के अनुज का पोता) ने इधर दक्षिण में एकाएक राष्ट्रकूटो पर हमला कर दिया।
इस खबर को पाते ही बनवासी के महामण्डलेश्वर जैन वीर वकरस छोड़े गये । कृष्ण सर्प की तरह प्रक्षुब्ध हो, तुरन्त ही समर के लिये तैयार हुए। गग की कृतघ्नता को स्मरण कर उनका हृदय कोष से एकदम पापाण बन गया। या यो कहिए कि वकरसउस समय क्रोध की ज्वालामुखी ही बन गये । परिणामस्वरूप कोलतूर से प्रेपित वकरस की खबर राष्ट्रकूट पहुँचने के पूर्व ही, उनकी सवल सेना रास्ते मे छेडने वाले वीरो को कतल करती हुई केंदाल किले पर साहसपूर्वक हमला किया। यह किला गग नरेशो के प्रधान सेना केन्द्रो में से एक था। कंदाल का यह किला उस समय कर्णाटक मे वहा दुर्भद्य समझा जाता था।
लौह कवच तुल्य वह दुर्ग, उसके भीतर के वीर सैनिक और अपार शस्त्रास्त्र आदि सभी कराल काल की तरह हमला करने वाले वकरस के सामने टिक नही सके । शव-सेना के माने की खबर किले के अन्दर पहुचने के पूर्व ही राजसमूह ने प्रवान वार को चूर-चूर किया और पैदल सिपाहियों ने अन्यान्य साधनो द्वारा किले की दीवाल पर चढकर, रक्षक सिपाहियो को कतल कर डाला । रात को किले के अन्दर लोगो के सोने के उपरान्त हमला शुरू हुआ। वह हमला सूर्योदय के पहले ही समाप्त होकर किले के ऊपर राष्ट्रकूटो का गरुडध्वज फडफडाने लगा।
दुर्भद्य उस कैदाल किले की विजय से वकरस की सेना का उत्साह दुगुना हुआ और वैरियो के हृदय मे भय ने स्थान पा लिया। वाद वकरस की अदम्य सेना भयकर दावाग्नि की तरह सामने की सभी चीजो को जलाती हुई सीधा गग राजधानी तलवनपुर की ओर बढी। भरी हुई वर्षाकालीन कावेरी नदी भी गग राजधानी कौरक्षा नहीं कर सकी। अचानक हमला करने वाली, विजय मे मत्त वकरस की सेना के सम्मुख तलवनपुर सविवश शरणागत हुमा । राष्ट्रकूट के ऊपर अन्यायपूर्वक तलवार उठाने वाले नीतिमार्ग का दर्प चूर-चूर हुमा । पर हा, अल्प सेना के कारण अरक्षित राजधानी को ले लेने मात्र से वीर वकरस को समर मे अखपढ विजय नही मिल सकती थी।
कोलापुर के पास ठहरी हुई गगसेना को जीते विना बकरस अपनी पूर्व विजय से प्रप्त हो कर चुपचाप बैठ नही सकते थे। पहले धान्त सेना को विश्रान्ति प्रदान कर वाद कोवलापुर की ओर प्रायण करने का विचार कर वकरस ने तलवनपुर की विजय का समाचार चक्रवर्ती को भेजा। परन्तु वह समाचार जब मान्यखेट मे पहुचा तब चक्रवर्ती विजय के आनन्द को अनुभव करने की परिस्थिति मे नही रहे। उधर नीतिमार्ग की सेना राजा रमडुबु मे नव राष्ट्रकूट सेना पर हमला कर रही थी, तब इधर मगि की कूटनीति से त्रिपुरि को देखने के ब्याज से शकरगण के साप गया हुआ राजकुमार, चेटि सेना के बल पर अपने को चक्रवर्ती घोषित कर, राष्ट्रकूट
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राज्य पर ईशान्य दिशा से हमला करने वाला था । इस प्रकार त्रिपुरि में गये हुए राजकुमार कृष्ण एवं शंकरगण को अपनी कूटनीति से सफल होने ने बिलकुल सन्देह नहीं रहा।
___ इसलिए भविष्य मै चक्रवर्ती होने वाले कृष्ण को विशेष काबू में लाने के लक्ष्य से, गकरगण ने अपने पिता कक्कल को समझाकर, कृष्ण का विवाह, अपनी बहन के साथ किया और सेना के साथ किरणपुर पहुंचकर, हमला शुरू करने के लिए मगि के समाचार की प्रतीक्षा करने लगा। राजा रमडुबु में राष्ट्रकूट सेना की पराजय के समाचार को सुनते ही शंकरमण ने कृष्ण को ही राष्ट्रकूट-चक्रवर्ती घोषित कर चेदि राज्य की सीमा को लांघकर राष्ट्रकूट राज्य पर हमला किया।
यह समाचार भयकर आंधी की तरह बहकर आया और उसने चक्रवर्ती को किंकर्तव्यविमूढ वना दिया। उस असीमित आधात से उनको बड़ा ही कप्ट पहुचा! भूकम्प के कारण हिन्डोले की तरह घूमने वाली धरती पर वे खड़े-बड़े ही डोलने लगे । चक्रवर्ती अपने ही नेत्र एवं कानो पर विश्वास नही करते हुए महल में इधर से उधर उवर से इवर पागल की तरह चक्कर काटने लगे। उस समय खाना, पीना आदि सभी चीजों को छोड़कर वै विद्रोह को निर्मूल करने के लिए सर्वथा कटिबद्ध हुए। पुत्र के विरुद्ध लड़ाई में जाने के लिए उन्होंने स्वयं सेनाधिपत्य को स्वीकार किया एवं विद्रोही राजकुमार को पकड़कर लानेवाले को एक लाख सिक्के वहुमान में देने की घोपणा की । इस भयंकर घोषणा को सुनकर सारा नगर बिजली के आघात की तरह एकाएक स्तव्य हुआ।
__"इम अवसर पर गीघ्रातिशीघ्र आइए, चक्रवर्ती विद्रोही पुत्र को विना देखे अन्न-जल स्वीकार न करने की प्रतिमा कर चुके हैं। वे मेना को एकत्रित कर रहे हैं और उस सेना का नायक बनने के लिए स्वय कटिबद्ध हैं। राजवानी ने भी भेदनीति की आग सर्वत्र जोरो से सुलग रही है, इस समय चक्रवर्ती के पास आप जैसे प्राप्त और तपनिष्ठ व्यक्तियों का रहना परमावश्यक ही नही, अनिवार्य है । गीत्र चले आइए।"
एक पत्रवाहक ने गुण भद्राचार्य के इस आशय वाने एक पत्र को बंकरस के हाथ में दिया। इस पत्र को पढकर थोड़ी देर बकरस किंकर्तव्यमूढ हो बैठ गये । पर उत्तर क्षण में ही गगवाडि के समर को आगे बढ़ाने का भार अपने एक विश्वस्त सेनानायक को सौंपकर भीत्रातिशीघ्र चलने वाले एक घोड़े पर सवार हो, अगरनको के साथ बिजली की तरह वकरस मान्यखेट की ओर चल पड़े । अकस्मात् आये हुए वकरन को देखकर अक्रवर्ती एकदम चकित हुए । सिर्फ चार दिन को दारण व्यथा से विलकुल सूबे हुए निस्तेज चक्रवर्ती को देखकर भयंकर रक्तवृष्टि से भी भय न खाने वाले वंकरस का वीर हृदय भी अग्निस्पषित नवनीत की तरह एकदम पिघल गया और आँखो मैं आँसू भर पाए । तब चक्रवर्ती ने कहा कि "कूटनीति की आधी से व्याप्त इस राजधानी को किसके हाथ में सौपकर जाएं। इस बात की बड़ी चिंता मे थे । आपके आने से हम निर्भय हो गये । अब निश्चित हो, समरागण की ओर जा सकते है।"
___ इसका जवाब बकरस ने यो दिया : "प्रनु के हृदय को मै पहचानता हूं। प्रभु ! राजकुमार के व्यवहार से आपके हृदय में जो चोट पहुंची है उसे में जान रहा हूँ। आप मेरी नम्र ४१८ ]
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प्रार्थना को स्वीकार करें। आपसे मेरा निवेदन है कि इस विद्रोह को निर्मूल करने का भार आप सौप दे। एक सप्ताह के अन्दर इस विद्रोह को निर्मूल कर में राजकुमार को आपके समक्ष लाकर खड़ा कर दूँगा । अगर यह काम मुझसे नही हो सका तो मै अवश्य अग्निप्रवेश करूँगा । प्रभु ! यह मेरी अचल प्रतिज्ञा है इतना करके ही मैं अपना ऋण चुकाना चाहता हू । मेरी दूसरी माग है कि इस विद्रोह के शान्त होने पर्यन्त श्रापने अन्न-जल का जो परित्याग किया है उस भीपण प्रतिज्ञा को आप तोड दें। यदि मेरे सामने श्राप श्राहार लेंगे तो मेरे शरीर मे वच्च का बल श्रा जायगा । मेरी बात पर श्रापको विश्वास नही हो तो आप अपनी प्रतिज्ञा को जारी रखें । किंतु जब तक आप आहार नही लेंगे तब तक मुझे भी आहार त्याग के लिए आज्ञा दे दें।" बकरस के प्रेम से आहार कर चक्रवर्ती उनके वचनानुसार चलने को तैयार हुए ।
वकरस अपनी प्रतिज्ञानुसार विद्रोह को निर्मूल कर, मगि और शकरगण दोनो की पश्चात्तापूर्वक मृत्यु के बाद राजकुमार कृष्ण के साथ मान्यखेट को लौट श्राये । प्रतिज्ञानुसार राजकुमार को लाकर चक्रवर्ती के सामने उपस्थित करने पर, चक्रवर्ती विद्रोही पुत्र को मरणदड तुल्य भयकर सजा देंगे ऐसी आशा वकरस को नही रही । कृष्ण की पत्नी चेदि राजकुमारी की प्रार्थना पर भी चक्रवर्ती जव ध्यान न देकर वार-वार राजकुमार को मृत्युदण्ड की सजा ही दुहराते गये, तब बकरस ने अपने प्रासन से उठकर द्रवित हो यो कहा, "प्रभु । राजकुमार को क्षमा प्रदान कीजिये । उनके बदले में अपने प्राणो को देने को तैयार हूँ ।"
इस पर चक्रवर्ती ने कहा कि "वकरस भयकर अपराधी के लिए अपने प्राणो को देने के लिए कह रहे है। उनकी उदारता और दया अभिनंदनीय है । पर एक के अपराध के लिए दूसरे को सजा देकर तृप्ति पाने का अधिकार हमे नही है।" तब आचार्य गुणभद्रजी ने यो कहा----चक्रवर्ती के द्वारा न्यायपीठ से दिया हुआ निर्णय धर्मसम्मत है । उस निर्णय को हम भी समर्थन करते हैं । परन्तु प्रजायें राजकुमार को क्षमा प्रदान करने के लिए निवेदन करें तो, प्रजानो की आज्ञा को मानना चक्रवर्ती का धर्म है । क्योकि रक्षा -शिक्षा दोनो मे प्रजाओ का अधिकार ही सर्वोपरि है । चक्रवर्ती प्रजाश्रो की प्राकाक्षाओं को कार्य रूप मे लाने का सावन मात्र है ।" प्रजाओ ने भी गुणभद्रजी के बहुमूल्य श्रभिप्राय का समर्थन किया । वस, फिर क्या, चक्रवर्ती ने भी राजकुमार को क्षमा कर दिया ।
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जैन वाङ्मय के अमर रत्न प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनका जीवन-दर्शन
डा० प्रद्युम्नकुमार एम. ए. पी. एच. डी. ज्ञानपुर, वाराणसी
ईसा के एक शताब्दी पूर्व भारत के दक्षिणी अचल से एक ऐसी महान विभूति का उदय हुआ जिसको यद्यपि जैन वाड्मय के सीमाकाश का एक अत्यन्त जाज्वल्यमान नक्षत्र कहा
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जाता है, परन्तु वस्तुत जो जैनो के लिए नही, जैनेतर विचारको के लिए भी प्रेरणा का स्रोत रहा है। उस विभूति को हम कुन्दकुन्द के नाम मे ही अधिक जानते हैं । कुन्दकुन्द को विचारबोली, तत्वज्ञान की शोव-प्रणाली और अहिंया धर्म की प्राचारपद्धति सव कुछ ही वडी विलक्षण, मौलिक और अनूठी सिद्ध हुई । जिम तत्त्वज्ञान और तर्क-प्रणाली की उद्घोपणा तीसरी शताब्दि में नागार्जुन ने और नवी शतानि में आद्य शकराचार्य ने की, कुन्दकुन्द ने वही तत्वज्ञान और तर्कप्रणाली ईसा की एक शताब्दि पूर्व भारत के विचार-प्रागण मे उद्घोपित की। परन्तु खेद है कि साम्प्रदायिक द्वेप की भीपण आधी ने भ्रान्ति का कूडा इतनी अधिक मात्रा में लाकर इकट्ठा किया कि हम कुन्दकुन्द की दमदमानी वरदायिनी प्रतिभा का मही मूत्याकन न कर सके। प्रस्तुत निवन्व मे कुन्दकुन्द की मौलिकता का एक विहंगम दर्शन मायद हमारी आज की वैज्ञानिक एव निष्पक्ष दृष्टि को उक्त हीग अपने वास्तविक महत्वालोक मे पहचाने जाने में मदद दे सके । तत्वज्ञान : सत्तावाद
सत्य की खोज में कुन्दकुन्द पगवलम्बी न होकर स्वावलम्बी बने। उन्होंने सत्यासत्य के निर्णय में अपने आत्मज्ञान को ही मुख्य कसौटी के रूप में स्वीकार किया । अत जो कुछ उन्होंने प्रत्यक्ष देखा उसे हमारी विचार प्रक्रिया को सर्व-ग्वीकृत प्रणाली के द्वारा प्रस्तुत किया। स्पष्ट ही कहा -
उवोग विसुद्धो जो दिगदावरणतराय मोहरमो। भूदो सयमेवादा जादि पार णेय भूदाण ।।
(प्रव० सार-१५) अर्थात् . जिसका उपयोग विशुद्ध है ऐसी प्रात्मा नानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोह
___ रूप रज से रहित स्वमेव होती हुई नयभूत पदार्थो के पार को प्राप्त होती है। अत. शुद्ध आत्माज्ञान के माध्यम से शेयभूत पदार्थ यथारूप जाने जाते है । 'जानना' क्रिया सम्पूर्ण तत्वज्ञान का प्रस्थान-विन्दु है। गजान चूकि परत्व की कामनाबुद्धि से रहित होता है, अत उसका जानना केवल 'विचारना होता है। विचारना निर्णय की प्रक्रिया कहलाती है जिसमें बुद्धिव्यापार का शुद्ध रूप निहित है। निर्णय को व्यक्त इकाई वाक्य (Proposition) है, जिसमे दो पदो की पारस्परिकता एक क्रिया से सयुक्त होती है। अत वाक्य की कोई भी क्रिया उभयमुखी होती है, जिसके टोनो छोरो पर दो वस्तु-मत्य मौजूद होते है । 'जानना' भी एक क्रिया है, जिससे प्रस्थान करने पर हम तुरन्त नाता और जेय दो भत्ताओं के मध्य आ जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानव्यापार के परिणमन स्वरूप हमें जो कुछ उपलब्ध होता है वह सब कुछ सत्ता की ही विभिन्न इकाइयाँ है । कुन्दकुन्द कहते है:सत्ता सव्व पयत्या सविस्स स्वा प्रणत पज्जाया।
(पचा० सार-८) अर्थात् . सत्ता अनंत पर्याययुक्त, मविश्वरूप, सर्वपदार्थ स्थित है । मत जो कुछ भी हम जानते
अथवा देखते हैं वह मत्तायुक्त अवश्य है । सत्ता के विना 'नानना' अथवा 'देखना हो ४३०.]
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ही नहीं सकता। तार्किक रूप से चाहे सत्ता 'जानने' का परिणाम भले ही हो, परन्तु तत्व-रूप से 'जानना' सत्ता पर आश्रित है । तत्वदृष्टि ने मत्ता ही मूल है।
इस प्रकार जव सत्ता की तात्विकता स्थापित हुई, तो प्रश्न उठा, कि सत्ता को हम कितना जान सकते है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जो हम जानते अथवा देयने है वह मव सत्ता ही है । अपने 'जानने', 'देखने से परे हम सत्ता को प्रमाणित नहीं कर सकने, क्योंकि एकातरूप से यह कहना, कि हम सत्ता का कुछ प्रश नहीं जानते, यह सिद्ध करता है कि हम उम अनजानी सत्ता के प्रति पूर्णत अजान नहीं है । कुन्दकुन्द इम भर्द्ध-नास्तिकता को स्थान नहीं देते। वह यह मानते है कि सत्ता प्रमेय है । अत जानने और देखने की जितनी भी पर्याय न हो सकती हैं वे सब सत्ता की ही पर्याय है। सत्ता की उत्पत्ति 'जानने से नहीं होती। उमो तरह जान भी जेयसत्ता की उत्पत्ति नहीं है। तत्वत ज्ञाता और जय स्व-आधीन है। उनकी सत्ताएं निरपेक्ष है। 'जानना' और 'देखना' सत्तामों का पारस्परिक क्रिग-व्यापार है। यह क्रिया-कारित्व ज्ञाता से जेय की ओर ही प्रवाहित होता है । अत 'जानना' और 'देखना' ज्ञाता की ही गुण-पर्याय हैं, जो कि तत्वत ज्ञाता ही है, इतर और कुछ नही। ज्ञान और दर्शन ज्ञ तारूप ही है । जय भी स्वरूप है । दोनो का व्यवहारत तादात्म्य है । तत्वत दोनो स्वाधीन है। दो दृष्टियां
तत्वत ज्ञाता और ज्ञेय की दोनो इकाइयाँ स्वद्रव्याधीन है। उनका परिणमन अपनी निज की चीज है । परिणमन की प्रत्येक पर्याय में द्रव्य वही है। बल्कि यू कहिए, वह द्रव्य ही विभिन्न पर्याय-रूप है । अत प्रत्येक पर्याय वह द्रव्य ही है। ज्ञान और दर्शन पर्याय है। अस्तु वे भी द्रव्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरती । द्रव्य और पर्याय तत्वत एक ही है। उनमे सत्ता उभयनिष्ठ है । द्रव्य और पर्याय सत्ता के ही दो पहलू है। यही दोनो पहलू हमारे लिए दो दृष्टियां प्रस्तुत करते है -एक द्रव्य-दृष्टि और दूसरी पर्याय-दृष्टि । पर्याय, जैसा कि अभी कहा, सत्ता का एक व्यावहारिक पहलू है, क्योकि उसका निर्धारण सह-सत्तानो की पारस्परिश्ता से होता है। इस पारस्परिकता के चार तत्वो-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सापेक्षता मे पर्याय का स्वम्प निश्चित होता है । अत पर्यायदृष्टि व्यावहारिक और सापेक्ष है। जवकि द्रव्य दृष्टि पारमाधिक और निरपेक्ष है, क्योकि वह पर्यायगत व्यावहारिकता के तात्विक आगर का सृजन करती है । इन दो दृष्टियो के द्वारा प्रत्येक सत्ता के लौकिक और पारलौकिक दोनो पहलुओ का प्रकाशन हो जाता है । कुन्दकुन्द इन्ही दोनो दृष्टियो के माध्यम से पग-पग पर वस्तु-मत्ता के व्यावहारिक चौर पारमाथिक पहलयो का विवेचन बड़ी सफलतापूर्वक करते जाते है।
कुन्दकुन्द की विवेचन प्रणाली का महात्म्य इस बात मे है कि वह इन विरोधी स्वरूप वाली दृष्टियो को ग्रहण करते हुए भी सत्ता की प्रकाशन शैली में किसी प्रकार का विरोध नही आने देते। विरोधव्यवहार दृष्टि या नय के विभिन्न विकल्पो ने दृष्टिगत होता है। परन्तु कुन्दकुन्द उन व्यावहारिक विकल्पो का समापन मत्ता के पारमार्थिक पहलू मे कर देते है। अत भेद अभेद भी पर्याय-मात्र रह जाता है। मत्ता के इम म्वगत-विरोध के निराकरण के बाद कन्दवन्द उसके वाह विरोध को लेते है। एक सत्ता का दूमरी मत्तानो के वैपरीत्य का निराकरण उनकी
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उत्तरवर्ती आसन्न सत्ता में होता है। इस प्रकार प्रामन्न मत्तानो की मृखला का सनन करतेकरते हम अतन महामत्ता की परिकल्पना पर पहुंचते हैं, जिनमें सम्पूर्ण अवानर सत्तात्री का परिहार हो जाता है। महासत्ता की यह कल्पना प्लेटो के Idea of Good और हीडोल के Absolute के काफी मदन है । इस महासत्ता के भी दो पहल बनते हैं। पारमार्थिक पहलू वेदान्त के अट्ठन ब्रह्म का पोषक है और उसका व्यावहारिक पहलू बौदर्शन के भगवाद तथा बहुत्ववाद का पोषक । नन्वत महामना एकम्बाचीन ठोस इकाई है। उपादान और निमित्त
अब प्रश्न उठता है मत्ता के क्रियाकारित्व का। किमी भी पर्याय का उत्पाद अथवा विनाश क्या और कैसे होता है ? उदाहरणन एक घट पर्याय का उदय हुआ। इस उदय का हेतु क्या है ? कुन्दकुन्द इस हेतु के निर्णय में भी पूर्व वणित दो दृष्टियो का ही प्रसग उठाते है । तत्वत. अग्वा परमार्थत. उक्त पर्याय का हेतु तत्सबंधी द्रव्य अथवा मृत्तिका ही है जो कि रक्त वस्तुमत्य के सम्पूर्णत्व का पोपक है । प्रत्यक मत्ता स्वत परिणमनशील है । अत परिणमन का मूलावार वह सत्ता स्वय ही है । यह उमका अतरग हेतु है, जिसे उपादान कारण भी कह सकते है। इतना होते हुए भी यह न भूल जाना चाहिए कि उपादान एकान्तिक सत्य नहीं है । सत्ता की एक सारिणी है जो महासत्ता से अवर सत्ताओं के क्रम में उतरती चली आती है । इस प्रकार प्रत्येक अवर सत्ता अपनी विषयभूत सत्ताओं का वर्ग वनती है । महासत्ता जिनका सर्वोच्च वर्ग है। निम्नतम सत्ता व्यक्तिगत इकाइयां है जो किसी का वर्ग नहीं होती और नो कि एक यथार्थवादी विचारक की मूल परिकल्पना का आधार है । प्रत्येक इकाई परिणमनगील है। प्रत्येक सत्तात्मक वर्ग के अंतर्गत आने वाली इकाइयाँ उस वर्ग की उपादान हैं। उसके समत्तात्मक वर्ग उसके निमित्त हैं । दोनो ही निमित्तात्मक सह-सत्ताएं यद्यपि किसी उच्चनर सत्ता की इकाइया है और उसका उपादान कारण भी, परन्तु अपनी पारस्परिक उपेक्षाओं में वे एक-दूसरे की निमित्त कारण है। जिस समय इन सत्ताओं को इनकी आमन्नतम उच्च सत्ता की अपेक्षा देखा जाता है तो इनमें केवल अन्यत्व भाव ही प्रकट होता है । परन्तु जब इन्हें अपनी सह-सत्तानों की अपेक्षा देखा जाता है तो इनमे पृथकत्व भाव आ जाता है । अन उपादान कारण में केवल अन्यत्व भाव है, जबकि निमित्त ने पृयकत्व भाव । दोनो ही कारण अपनी-अपनी अपेक्षाओं में ययार्थ और भूतार्थ है । सम्पूर्णव अथवा द्रव्यत्व की अपेक्षा उपादान भूतार्थ है और निमित्त अभूतार्य; अगत्व अथवा पर्यायत्त की अपेक्षा निमित्त भूतार्थ है और उपादान अभूतार्थ । इसीलिए कुन्दकुन्द जब समयसार अय मे व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चय को भूतार्थ कहते हैं (समयमार-११), तो उसमे द्रव्यदृष्टि पहले से निहित है । समयमार के प्रारम्भ में ही अपनी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्द लिखते है :
त एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणे सविहवेण ।
जदि दाएन्ज पमाणं त्रुक्किल छल ण घेतब्य ।। समय०-५॥ अर्थात् • उस एकत्व विभक्त आत्मा को मैं प्रात्मा के निन वैभव से दिखाता हूँ; यदि मैं दिखाऊँ
तो प्रमाण स्वीकार करना और यदि कही चूक जाऊं तो छल ग्रहण नहीं करना । इस गाथा से स्पष्ट है कि ममयसार का सम्पूर्ण कथन आत्मा के निज वैभव अथवा द्रव्य दृष्टि से
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किया गया है। अत इस कथन को भी कचित सत्य की कोटि मे रखना ही श्रेष्ठ है। उपादान और निमित्त दोनो ही क्रमश कथचित भूतार्थ और कथचित अभूतार्थ है। उनके ऐकान्तिक स्वरूप को ग्रहण करना कुन्दकुन्द के दर्शन के साथ अन्याय करना है। प्राचार
कुन्दकुन्द ने मानवीय आचार-दर्शन का आधार भी बडा व्यापक और सुस्पष्ट हूढा । व्यक्ति का जो धर्म है वही करणीय है । और जो वस्तु का स्वभाव है वही धर्म है (प्रव० सार-७) मत वस्तु के लिए करणीय वही है जो उसका स्वभाव हो । जैसे जल का स्वभाव शीतलता और आत्मा का स्वभाव चेतना है। उनका अपने स्वभाव मे दक्षित हो जाना ही धर्म है।
___स्वभाव किसी भी वस्तु के द्रव्यत्व की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति द्रव्य का गुण है और तत्वत द्रव्य और गुण एक ही इकाई के पहलू हे (प्रव० सार--११४)। मत अपने स्वभाव मे दीक्षित आत्मा स्वय धर्मरूप है (प्रव० सार-८)। धर्म कोई वाह्य वस्तु नहीं, जिसे ग्रहण किया जाए । निजत्व की धारणा ही धर्म है। प्राचार धर्म का वाहन है । आचार आत्मा का निजत्वमय अथवा स्वसमय होने का एक प्रयत्न है। इस स्वसमय होने के लिए परसमयत्व का त्याग अनिवार्य है। इसीलिए मन, वचन और काय तीनो ही स्तर पर अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, शील, और ब्रह्मचर्य व्रतो के द्वारा आत्मा स्वसमय मे प्रवृत्त होती है। सम्पूर्ण विजातीय प्रभावो से मुक्ति आचार का लक्ष्य है । ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख की वृद्धि उपरोक्त मुक्ति की कसोटी है । इस गुण चतुष्टय की अनतरूपा अभिव्यक्ति शुद्ध चारित्र्य का घरमबिन्दु है । आचार इसी शुद्ध चारित्रिक प्रक्रिया की लक्षण सहिता है।
प्राचार के मामले मे कुन्दकुन्द का वैशिष्ट्य इस बात मे अधिक है कि वह स्वसमय होने के लिए सत्ता के उपादान कारण पर अधिक वल देते है, क्योकि उपादान स्व की चीज़ है और स्व पर ही म्ब का अधिक काबू है। प्रत समताभाव धारण कर उपादान भूमि को उर्वरा बनाए रखना ही वह है जिसे हम कर सकते है । बीज उसमें पहले से ही पड़ा है । अब हमे धैर्य से निमित्त रूपी वाह्य जल-वायु की अपेक्षा करनी चाहिए और उत्तम फसल के लिए आशावान और विश्वासी भी रहना चाहिए । जो केवल निमित्त के पीछे दौडते है, उन्हे दोनो ही ओर से घाटा रहता है। उपादान की उपेक्षा तो उन्होने स्पष्ट ही की, और निमित्त परद्रव्यात्मक होने के कारण उनका निज हो न सका । प्रत ऐसे व्यक्ति अज्ञानी है और मूढ। आचार के दृष्टिकोण से उपादान ही श्रेष्ठ और भूतार्थ है और निमित्त हेय और अभूतार्थ । निश्चय नय की धारणा ही शुद्ध चरित्र की मोर ले जाती है और अतत मोक्ष-लाभ कराती है।
कुन्दकुन्द अपनी इसी विलक्षण और मौलिक देशना से भारतीय वाङ्मय में अपनी अमिट छाप छोड गए । श्रद्धालुओं ने उनकी इतनी इज्जत की, कि उनका नाम भगवान वीर और गणधर गौतम के साथ स्मरण किया जाने लगा, जो कि निम्नलिखित मगल गाथा से स्पष्ट है -
मगल भगवान वीरो मगल गौतमो गणी।
मगल कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोस्तु मगल ॥ प्रस्तु, कुन्दकुन्द का शब्द प्रमाण हमारे लिए सदैव ज्ञानालोक विकीर्ण करता रहेगा।
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अपरिग्रह का महत्व
सुल्तानसिह जैन, एम.ए. शामली ( उ० प्र० )
आज विश्व किन परिस्थितियों से होकर गुजर रहा है, यह बात किसी से छिपी नही है । कुछेक इने-गिने व्यक्तियो को छोडकर जन-साधारण कितना ग्रस्त हो रहा है, यह लिखने की बात नही है ।
भारत का विभाजन होने के पश्चात् मनुष्यता का किस भाँति सहार हुआ, ललनानो की लज्जा के साथ कैसा खिलवाड हुआ, भ्रष्टाचार, घूसघोरी, चापलूसी का कैसा अखड साम्राज्य छाया । आज की खाद्य पदार्थों की मिलावट तथा उनकी असीम महगाई ने किस प्रकार जनता की रीढ की हड्डी को चकनाचूर किया, किस प्रकार लूट-खसोटकर ताडव नृत्य हुआ और किस भाति मानव-मानव को गाजर-मूली की तरह काट-काट कर हत्या के घाट उतार रहा है, कदाचित विश्व के इतिहास में ऐसा कही दीख पडे ? इससे भी बढकर आज विश्व मे एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को प्रगु-उद्जन, वीर आयुद्धो, स्पुतनिको की तीव्रता, हवाई छत्रियो की भीषणता, तारपीडो की मार से हडप जाने की चिन्ता मे है । सह प्रस्तित्व के नारे की प्राड मे शस्त्रास्त्रो के निर्माण की होड मे एक-दूसरे को पछाडने के प्रयास में संलग्न है । कहना अत्युक्ति न होगा कि विश्व में तृतीय विश्वयुद्ध के घनघोर बादल घटाटोप छाये हुए है ।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि उपरोक्त गुत्थियो के उलझने का क्या कारण है ? प्रश्न तो जटिल है; परन्तु इस सबंध मे अनेकानेक उत्तर- प्रत्युत्तर हो सकते है । यहाँ पर इस सवध मे केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस युग मे कुछेक लोगो की स्वार्थमयी मनोवृत्ति सबका नाश कर रही है। इतना ही नही आज वस्तुनो के संग्रह करने की प्रबल होड लगी हुई है । फलतः जनता दाने-दाने के लिए मुहताज हो रही है। प्राठ से सायकाल तक की कमाई लिए इधर-सेउधर डोलती फिरती हैं, पर कही भी कोई पैसे को नही सूंघता है। एक ओर यह दशा है तो दूसरी ओर कोठे और गोदाम खाद्यान्नो से खचाखच भरे पडे है, जिनमे सुरीली (कियरफ ) साम्राज्य स्थापित हो चुका है। भूखे मरे तो मरे कौन किसको पूछना है ? इस परिस्थिति का यह साराँश हुया कि आज की दुनिया आर्थिक विषमता के कारण कराह रही है ।
कही-कही तो यह आर्थिक विपमता सीमा को लाघ गई है, जो सहन-शक्ति से बाहर हो गई है । फलतः अधिकाश लोगो की नित्यप्रति की आवश्यकताये पूर्ण नही हो रही है । इसमे भी माश्चर्य यह है कि जो चोटी एडी का पसीना एक करके कमाते है, अन्न-वस्त्र उत्पन्न करते हैं वही लोग भूखे नगे रहते है, परन्तु वे लोग, जो ग्रीष्म ऋतु मे खश की टट्टी लगाकर कोचोज पर लेट लगाते है, विजली के पखो की हवा खाते हे और प्राकाशवाणी से विश्व के गायन सुनते है तथा तरह-तरह के गुलछर्रे उड़ाते एव मौज करते है । अतएव यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि आज "स्वार्थ के मद में चूर अपने भाइयो की लाशो पर बैठकर खून की होली खेली जा रही है ।"
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त्यागमूर्ति क्षुल्लक १०५ श्री गणेशप्रसादजी वर्णी जिन्होने ज्ञान प्रचार के लिए जीवनभर अथक प्रयत्न किया।
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चारित्रचक्रवर्ती प्राचार्य गातिसागरजी महाराज के पादमूल में
परमतपस्वी पूज्य नमिसागरजी महाराज
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वर्तमानकाल मे धन को विशेष महत्व प्राप्त हो गया है । कुछ इने-गिने लोगो के अधिकार में अधिकाश सम्पत्ति पहुंचने से उसके उपभोग का अधिकार अन्य लोगो को नहीं रहा है। 'यही वह घुन है जिसने आत्मा, धर्म एव सहकारिता के सगठन को ढीला ही नही कर दिया, अपितु इन सिद्धान्तो को पैगे नले रौद कर मिट्टी में मिला दिया है। इसीसे मानवता अध्री सौजन्यता वैधव्य को प्राप्त हो गई हैं।'
प्रस्तुत गुत्थी को सुलझाने का एकमात्र सरल उपाय यही है कि हमे कम से कम परिग्रह रखने के सिद्धान्त को अपनाना होगा। विश्ववन्द्य महात्मा गाधी ने एक स्थान पर परिग्रह को घटाते रहने के सम्बन्ध मे बतलाया है कि "सच्चे सुवार का, मच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है। ज्यो-ज्या परिग्रह घटाइए, त्यो-स्यो सच्चा सुख और सच्चा सन्तोप बढता है, सेवा-शक्ति बढती है। x x x अनावश्यक परिग्रह से पडोसी को चोरी करने के लालच मे फसाते है ।" उन्होंने वस्तुप्रो के परिग्रह के लिए ही नही विचार के परिग्रह करने के लिए भी एक अन्य स्थान पर त्याज्य ठहराया है। देखिये-"वस्तुओ की भांति विचार का भी अपरिग्रह होना चाहिए । जो मनुप्प अपने दिमाग में निरर्थक ज्ञान भर लेता है, वह परिग्रही है। जो विचार हमे ईश्वर ने विमुख रखते हो अथवा ईश्वर के प्रति न ले जाते हो, वे सभी परिग्रह मे मा जाते है और इसीलिए त्याज्य है।"
वास्तव मे गांधीजी ने परिग्रह के सम्बन्ध मे जो कुछ भी कहा, वह सत्य एव अहिंसा के विचार से एक सौ एक नये पैसे सत्य है।
___ एक स्थान पर एक विद्वान लेखक ने अशाति का मूल कारण बताते हुए लिखा है कि, "बहुत क्या ससार मे जितने विद्रोह, शोपण, अन्याय, पात्याचार, सघर्प और दुख होते हैं, उनका मूल कारण परिग्रह है।"
मत आज के विश्व को वह मार्ग अपनाने की आवश्यकता है, जिसके द्वारा परिग्रह की लोलुपता का स्वतः ही अत हो जाए । इसका एकमात्र मागं "अपरिग्रह" ही हो सकता है । अपरिग्रह का उद्देश्य हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करने के लिए प्रेरित करना है।
प्राचीनकाल मै अपरिग्रह के कारण ही लोगो का जीवन सुखी,स्मृद्धिशाली एव शान्तिमय था, किन्तु प्राधुनिक काल मे अपरिग्रह के अभाव से वह अनेक विषमताओ का शिकार बना हुआ हैं । अत हमे अपरिग्रह का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर हो सकता है ।
महात्मा टालस्टाय के शब्दो मै, "जव लोगो को पहिनने को कपड़ा न मिलता हो, तब मैं कपड़ो से सन्दूक मरू या जव लोगो को खाने को भी न मिलता हो तब मैं अजीर्ण की दवा करूं, यह मानवता का सबसे पहला कलक है।" टालस्टाय का प्रस्तुत कथन कितना युक्तियुक्त एव समाज की दृष्टि से कितना मुसंगत है, यह सहज ही जात हो जाता है।
एक समय का कथन है कि किसी धनाढ्य ने हजरत ईसा से प्रश्न किया कि ससार में मनुष्य निर्दोष कैसे ठहर सकता है ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि, "यदि प्राणी निर्दोप रहना चाहता है, तो वह अपनी समस्त सम्पत्ति गरीबो को वाट दे। इससे उसे सुख और शाति अवश्य
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ही प्राप्त होगी।" स्वर्गीय गाधीजी का भी ऐसा ही मत था । उन्होने कहा था-"यदि स्वराज्य के अन्दर परिग्रही मनुष्यो का प्रवेश होगा, तो अहिसा और सत्य एक क्षण भी नहीं ठहर सकेंगे।" कारण कि मनुष्यो को परिग्रह की रक्षा के हेतु निरन्तर हिसा के लिए तत्पर रहना पडेगा और परिग्रह की रक्षा के लिए मिथ्या नियमो की रचना करनी पडेगी। इसका अर्थ यह होगा कि हिंसा और असत्य के भयकर गर्त में लुढकना पडेगा। एक और स्थान पर उन्होने अकित किया है"मादर्श प्रात्यन्तिक अपरिग्रह तो उसी का होगा, जो मन और कर्म से दिगम्बर हो।" इससे भी बढकर गाधीजी एक स्थान पर कह बैठते है-"केवल सत्य को प्रात्मा की दृष्टि से विचार तो शरीर भी परिग्रह है। भोगेच्या के कारण हमने शरीर का आवरण खना किया है, और उसे टिकाये रखते है ।"
इन सब महापुरुषो के कहने का अर्थ यही है कि परिग्रह से मनुष्य को सुख की कभी उपलब्धि नही हो सकती। इसी सबध मे भगवान महावीर स्वामी ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उपदेश दिया था कि, "अपरिग्रहवाद से जनता मे सभाव का सृजन हो सकता है।" श्रीमद्भागवत मे भी अपरिग्रह को अत्यन्त महत्व देते हुए कहा है--"जो-जो मनुष्य को प्रिय लगने वाला परिग्रह है, वह सब दुख का ही कारण है । और जो अकिंचन है, वही सर्वदा सुख का भागी है।"
अतएव इन सब महापुरुषो ने अपरिग्रह का ही उपदेश दिया है। उनका यह आदेश राष्ट्रीय, सामाजिक एव वैयक्तिक हितो के दृष्टिकोण से सुन्दर और वाछनीय है।
भाधुनिक काल मे अपरिग्रह की प्रत्यधिक आवश्यकता है । मनुष्य अपने जीवन के चरम उद्देश्य-सुख-शाति' को तब ही प्राप्त कर सकता है, जब कि उसकी आवश्यकताये न्यून हो ।
षट् द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध से लोक-व्यवस्था
रूपचन्द गार्गीय जैन
पानीपत जिसका अस्तित्व हो वह द्रव्य है। लोक मे अस्तित्व गुणवाले केवल छह ही द्रव्य है। ये अपने गुणो व पर्यायो को लिए हुए परिणमन करते है। ये है--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल (Soul, matter, medium of motion or medium of keeping order, medium of rest or medium of creating disorder, space, medium of time)। यह लोक जिसमे हम रहते है तथा जिसका हम एक अग है इन्ही छह द्रव्यो से बना है। यह द्रव्यो का ताना-बाना रूप एक महासत्ता का धारी विश्व है। यह एक सचाई है कोई स्वप्न नहीं है। ये छहो द्रव्य एक-दूसरे के परिणमन में सहायक है, निमित्त है। ये स्वय भी परिणमनशील है-कूटस्थ नहीं है, ये अनन्त शक्ति के धारी है तथा अनन्त अपेक्षामो से परिणमन करते है । ये स्वय गुणो द्वारा परिणमन करते है, ये स्वयं अपने कर्ता है तथा कर्म भी है। ये अपने-अपने स्वभाव के कारण नियमित है ४२६]
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तथा नियमो के रचयिता है। इन्ही बहुत से दृष्टिकोणो द्वारा परिणमन करते हुए देखा गया, जाया गया व अनुसन्धान किया गया तो भी इनका कार्य समाप्त नहीं हुआ है और न ही कभी समाप्त होगा। ये विना किसी रुकावट के सदैव क्रियाशील रहेगे। गरज यह लोक एक चलतीफिरती सस्था है और सदैव इसी भांति चलता रहेगा। इसके सम्बन्ध में जितनी भी जानकारी गणित और अनुसन्धान के द्वारा अव तक वैज्ञानिको व ऋषि-महर्पियो ने की है-यह उनसे बहुत बडी है। यह अतीत और वर्तमान से बहुत अधिक है। यह अनादि से चली आयी है और अनन्त काल तक चलती रहेगी।
जीवद्रव्य-जिसमे चेतना गुण हो अर्थात् जिसमे मै हूँ ऐसा अनुभव हो तथा स्व पर पदार्थों को जानने की शक्ति हो, जो अत्यन्त सूक्ष्म व अरूपी है तथा इन्द्रियगम्य नहीं है जो वैभाविक दशा अर्थात् ससारी अवस्था में पांचो इन्द्रियो, मन, वचन व काय तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास प्राणो से जीता है। जो सुख-दुख का अनुभव करता हो।
पुद्गल द्रव्य-जिसमे रूप रस गन्ध व स्पश पाया जाता है तथा जो परमाणु व स्कन्ध अवस्था में पाया जाता है, जो ससारी जीवो के मुख दुख, जीवन-मरण मे निमित्त कारण है तथा उनके शरीर, वचन, मन व श्वासोश्वास का रचयिता है।
धर्म द्रव्य-जो जीव तथा पुद्गल को गमन करने मे प्रर्थात् व्यवस्थित रूप से परिणमन करने में सहायक हो । इसे ऋत भी कहते है।
अधर्म द्रव्य-जो जीव तथा पुद्गल की स्थिति मे अर्थात इनके व्यवस्थित परिणमन को रोकने में सहायक हो । इसे अन्त भी कहते है।
आकाग द्रव्य-जो अन्य द्रव्यो को ठहरने के लिए स्थान देता है।
काल द्रव्य-जो द्रव्यो के परिणमन व क्रिया मे निमित्त कारण है, जो स्वय विना किसी निमित्त के वर्तता है । जिसकी पर्याय स्वरूप समय, घड़ी, घण्टा, दिन, मास, वर्ष वनते हैइनके कारण स्वरूप जीव पुद्गल की पर्यायो की स्थिति मे कमी-बैशी का ज्ञान होता है।
यद्यपि धर्म, अधर्म, आकाश ब काल ये चारो द्रव्य प्रत्यक्ष मे दिखाई नहीं देते परन्तु लोक मे अपने-अपने कार्यों द्वारा सिद्ध होते हैं।
ये सभी द्रव्य नियमित स्वभाव रूप से नियत है तथा विभाव रूप क्षणवर्ती परिणमन के कारण अनियत है।
ये ध्रुव सत रूप रहने के कारण नित्य है तथा समय-समय पर्यायो के उत्पाद व व्यय के कारण अनित्य है।
अभेद दृष्टि से सम्पूर्ण लोकालोक रूप महासत्ता के धारी होने से एक है तथा अनन्तानत भेद कल्पना से अनेक है।
कभी नाग न होने के कारण अस्तित्व गुण वाले है। अर्थ-क्रिया धारी होने से वस्तुत्व गुण वाले है।
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समय-समय उत्पाद व्यय घ्रौव्य के कारण पर्याये बदलते रहने से द्रव्यत्व गुणधारी है । किसी न किसी के ज्ञान का विषय होने से प्रमेयत्व गुणधारी है ।
सभी द्रव्य व गुण अपनी-अपनी सत्ता रूप बने रहने से अगुरुलघुगुणधारी है । कुछ न कुछ आकर होने के प्रदेशत्व गुण धारी है।
इस प्रकार अनेक गुणो से युक्त लोक मे इन छहो द्रव्यो का पसारा है जिनकी सत्ता बराबर बनी रहती है । इनकी पर्यायो का अलटना-पलटना सदा से है और सदा बना रहेगा । लोक मे जितने द्रव्य है वे कभी नाश को प्राप्त होने वाले नही और न ही कोई द्रव्य नवीन पैदा होता है अर्थात न तो सत का नाश होता है और न असत का उत्पाद होता है, केवल पर्यायें ही नवीन पैदा होती है और नाश को प्राप्त होती है।
द्रव्य की पर्याये सूक्ष्म व स्थूल, क्षणिक व चिर स्थायी, सदृश व विसदृश होती है । शुद्ध द्रव्यो की पर्याये तो सदृश ही होती है और अशुद्ध वैभाविक पर्याये सदृश भी प्रौर विसदृश भी होती है । पदार्थों की वैभाविक गुण पर्यायो (जिन्हे अर्थ पर्याय भी कहते है ) के गुणाशो मे तो कमी बेशी प्रतिक्षण होती ही हैं जो प्रत्यक्ष दिखाई देती है किन्तु स्वाभाविक शुद्ध पर्यायो के गुणाशो मे भी कभी-बेशी होती है जिसे गुणो मे षट्गुणी हानि - वृद्धि कहते है । स्थूल रूप मे यह दृष्टिगत नही होती, सूक्ष्म रूप मे ही होती है । द्रव्यो के आकार जिन्हे व्यजन पर्याय कहते है वैभाविक दशा में बदलते रहते है किन्तु स्वाभाविक पर्याय मे सदैव एकसे बने रहते है ।
प्रत्येक छोटा व बडा, सूक्ष्म व स्थूल, शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य अपनी पर्याय के लिए तो उपादान रूप है तथा दूसरे कतिपय द्रव्यो की पर्यायो के लिए निमित्त होता है तथा उसके परिणमन मे अन्य द्रव्य निमित्त होते है । लौकिक इस व्यवस्था में ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता कहा जाता है । यद्यपि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने मे पूर्ण स्वतंत्र है, अविनाशी है, परिणमनशील है। किन्तु जीव व पुद्गल की स्वाभाविक व वैभाविक दोनो अवस्थाओ मे एक द्रव्य दूसरे से प्रभावित रहता है । स्वाभाविक दशा के अर्थ पर्याय के परिणमन मे तो काल द्रव्य निमित्त है, व्यजन पर्याय आकाश व काल दोनो द्रव्य निमित्त है तथा वैभाविक परिणमन मे काल व आकाश सहित द्रव्य व भाव रूप से अन्य पदार्थ भी निमित्त होते हैं। व्यजन पर्याय मे धर्म व अधर्म द्रव्य में से कोई एक निमित्त कारण बना रहता है । इसे द्रव्यो का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी कहते है, कर्ता - कर्म व्यवस्था भी कहते है । द्रव्यो की पर्यायों का परस्पर में षटकारक रूप से लोकव्यवहार होता है। शुद्ध द्रव्य की तो एक ही पर्याय मे छहो कारक लागू हो जाते हैं किन्तु द्रव्यो की वैभाविक प्रशुद्ध अनेक पर्यायो मे षटकारक व्यवहृत होते है । लौकिक वातावरण मे यह इन दृष्टियो से ठीक ही कहा जाता है कि जीव तथा पुद्गल द्रव्य परस्पर में एक-दूसरे को बहुत कुछ देते लेते रहते हैं - जीव द्रव्य अपने ज्ञान गुण तथा शुद्ध व अशुद्ध स्वाभाविक व वैभाविक भावो द्वारा और पुद्गल अपने रूप-रस, गन्ध व स्पर्श गुणो द्वारा तथा कार्माण वर्गणात्रो मे कर्म रूप शक्ति द्वारा, तथा अन्य अनेक गुणो द्वारा लोक व्यवहार में जब जीव अपने बुद्धि व पुरुषार्थ द्वारा अन्य द्रव्यों के परिणमन मे निमित्त होता है तो वह उनकी पर्यायों का कर्ता कहा जाता है । स्वभाव से ये हो द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि मे न आने योग्य है । ( पुद्गल जो दिखाई देता है वह भी स्वाभाविक दशा मे अणु रूप होकर दिखाई नही देता केवल स्थूल स्कन्ध के रूप
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में ही दिखता है ) धर्म, अधर्म, आकाश व काल चार द्रव्य तो सदैव अपने स्वभाव में परिणमनं करते है तथा अन्य द्रव्यो के परिणमन मे निमित्त कारण है। शेप जीव और पुद्गल दोनो द्रव्य स्वभाव रूप भी परिणमन करते है तथा एक-दूसरे से प्रभावित होकर विभाव रूप भी परिणमन करते हैं । इन दोनो द्रव्यो मे एक विभाविकी नाम का गुण पाया जाता है जिसके कारण इनका वैभाविक रूप परिणमन करना भी एक वैभाविको स्वभाव अर्थात गुण है। इस गुण का कार्य है वन्य के अन्य विशेष गुणो को विकार रूप परिणमन कराना अर्थात् विकार मे निमित्त कारण रहना।
___ यह गुण स्वाभाविक दशा मे रहता हुआ तो शुद्ध परिणमन करता है । तथा अन्य गुणो मे भी किसी प्रकार का निमित्त नहीं होता किन्तु इसी गुण के वैभाविक अर्थात् अन्य द्रव्य के निमित्त कारण से अशुद्ध परिणमन होने पर जीव व पुद्गल के अन्य गुण भी वैभाविक रूप परिणमन हो जाते है जिसके कारण लोक का यह रूप नजर आता है। ससारी सभी जीव अनादि काल से वभाविक रूप परिणमन कर रहे है, पुद्गल की भी यही दशा है। जीव एक बार स्वाभाविक शुद्ध अवस्था को प्राप्त होकर फिर कभी भी वैमाविक परिणमन को प्राप्त नहीं होते तथा पुद्गल स्वाभाविक दशा को प्राप्त होकर भी निमित्त कारण मिलने पर पुन वभाविक दशा को प्राप्त हो सकता है । जीव को वैभाविक दशा अर्थात् ससार मे रोकने वाले राग-द्वेष-मोह है जो पूर्व के सस्कारो से वीज वृक्ष की भांति बने रहते है, एक बार उनका वीज नष्ट होने पर पुनः पैदा नहीं हो सकते।
___ इस प्रकार लोक मे द्रव्यो के परिणमन की यह प्रगति है जिसके कारण यह विश्व पूर्ण रूप मे शुद्ध नहीं किन्तु शुद्धता के लिए सदैव परिणमनशील है। इसके नियमो मे बहुत से विकार पाए जाते है जिन्हें दूर करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। इसमे उन्नति के प्रयत्न भी आकस्मिक घटनाओं के कारण अवनति को प्राप्त होते रहते है। इन्ही कारणो से यह विश्व न तो पूर्णतया कभी शुद्ध जीव रूप ही हो पाता और न ही शुद्ध पुद्गल रूप हो पाता है किन्तु दोनो के एक मिश्रित तथा विकृत रूप में पाया जाता है जिसमे दोनो द्रव्य एकदूसरे के विभाव रूप परिणमन मे कारण बने रहते है। यह सव करिश्मा वैभाविकी शक्ति का ही है अन्यथा इस लोक मे जीव तथा पुद्गल दोनो द्रव्य सूक्ष्म-सूक्ष्म अवस्था मे रहते हुए सब शून्य सरीखा दिखाई देता । उस अवस्था को एक ब्रह्म मात्र भी कह सकते है। अर्थात् जीव और जड पुद्गल का पूर्णतया स्वाभाविक परिणमन तथा वैभाविकी शक्ति को माया कह सकते है जिसके कारण इस लोक मे जीव और पुद्गल की ये सब पर्याये दृष्टिगत हो रही है।।
इस प्रकार यह लोक की व्यवस्था चल रही है और सदैव चलती रहेगी। जीवो का ससार परिभ्रमण-जम्मन मरण चलता रहेगा। कुछ जीव काल लब्धि प्राप्त होने पर विशेष निज पुरुषार्थ द्वारा इस परिभ्रमण से मुक्त होते रहेंगे । ससार मे जीव कर्मचेतना-कतत्व वृद्धि तथा कर्मफल चेतना-कर्मफल भोक्त्रित्व बुद्धि के कारण जन्म-मरण व सासारिक सुख-दुख को भोगते हुए भ्रमण कर रहे है । निज स्वभाव स्वरूप ज्ञान चेतना प्राप्त होने पर ही इस भ्रमण से छुटकारा होता है।
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ससारी जीवो की इस परिणमन व्यवस्था में जीवों के वैभाविक भाव तो उपादान कारण है तथा जीव के साथ बँबे कर्म तथा जीव के सयोग मे ग्रायो अन्य जीव पुद्गल सामग्री निमित्त कारण है । जीव का ये वैभाविक भाव जीव का पुरुषार्थ है ।
यदि जीव के पुरुषार्थं की दिशा बदल जाये अर्थात् पुरषार्थ स्वभाव भाव रूप हो जाए तो अन्य निमित्त कारण इसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते । यह पुरुषार्थ की भक्ति जीव ही है जो निमित्तो के प्रभाव से अछूता रह सकता है। पुद्गल में यह शक्ति नही है, इसमे योग्य निमित्त कारण मिलने पर वैभाविक परिणमन अवश्यमेव होता है । इसलिए श्रनन्तानन्त जीवो मे से काल लब्धि को प्राप्त होने पर कोई-कोई जीव परिमित सख्या मे अपने पुरुषार्थं द्वारा शक्ति अनुसार राग-द्वेप- मोह परिणामो पर काबू पाते हुए उन्हें पूर्णतया नष्ट करके संसार वन्वन से मुक्त हो जाते है । ऐसी अवस्था इस लोक मे बहुत सी प्राकृतिक व्यवस्थाओं मे से एक है जो किसी के प्राचीन नहीं है, जीवो के अपने परिणामो तथा कालनव्वि के प्राचीन है तथा परिणामां की शुद्धि में सत्सगति व देशनालब्धि भी सहायक है । अत इस और पुरुषार्थ करना आवश्यक है । लोक मे जीवो की प्रश्नय अनन्त राशि है जो समय समय पर जीवां के मुक्त होते हुए भी कभी समाप्त होने वाली नही है ।
जीव को शुद्ध स्वाभाविक अवस्था प्राप्त करने की आवश्यकता क्यो है ? इसका कारण ससारी अवस्था मे जीव का मुख-दुख अनुभव करना है। दुख से इष्ट नहीं जिसे यह दूर करने मे सदा प्रयत्नशील रहता है, मुख यद्यपि इमे दृष्ट है किन्तु वह स्थायी न होने तथा दुख मे परिणत हो जाने से कल्याणकारी नही, अत यह भी लाभप्रद न होने के कारण वर्जनीय है । वास्तव मे तो यह समारी नुस्ख इच्छाग्रो की पूर्ति मात्र ही हैं, इच्छाए ग्राकुलता पैदा करती है, और प्राकुलता दुख रूप है। ग्रतएव जीव की वैनाविक सनारी दशा स्थायी स्वाभाविक मुख रूप न होने के कारण त्यागने योग्य है । स्वभाव की प्राप्ति के लिये जीव को बमंसान की आवश्यकता है । यदि वैभाविक अवस्था मे दुख न होता तो इसे वर्मं सावन की आवश्यकता न होती । जड़ पुद्गल वैभाविक अवस्था में रही या स्वाभाविक मे उसे कोई हानि नही क्योकि उस जीव सरीखा दुख-सुख का अनुभव नही है। इनमे तो केवल बन्धन व पृथकत्व के नियम है, उन्ही नियमा के अनु सार परिस्थिति उपस्थित होने पर परमाणु बन्ध कर छोटे-बड़े स्कन्ध बनते हैं और कब का विलेपण होकर परमाणु रूप में परिवर्तित होते रहते हैं । लोक में इस प्रकार में द्रव्यों में कार्यकारण व्यवस्था पायी जाती है जिसका पसारा हम सब प्रत्यक्ष देख्न रहे हैं ।
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तत्वार्थ सूत्र और उसकी प्रमुख टीकाएं
श्री अमृतलाल शास्त्री, दर्शनाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनीघाट, वाराणसी
भगवान महावीर की दिव्यदेशना का जिस द्वादशागवाणी में सकलन हुआ, उसकी मुख्य भाषा प्राकृत थी । उस समय उस भाषा का खूब प्रचार और प्रसार था । पर समय के परिवर्तन के
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साय प्राकृत का स्थान सरकृत ने लेना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर द्वैपायक के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि समन जैन वाड्मय का परिचय कराने में समर्थ एक ऐमे ग्रन्थ की सस्कृत में रचना क्यो न कर दी जाय, इस विचार के बाद वह स्वय ऐसी सामग्री के सकलन मे लग गया जिसमे उसका मनोरय पूर्ण हो सके । इसके लिए उसने कुछ उपक्रम भी क्यिा पर उसे कुछ कठिनाई प्रतीत होने लगी । अत वह एक तपोवन मे गया, जहा श्रुतकेवली की समता करने में सक्षम (श्रुतकेवलिदेशीय) आचार्य गृद्धपिच्छ विद्वान मुनियो के बीच मे बैठे हुए थे। उस समय यद्यपि वे मौन थे, किन्तु उनकी सौम्य वीतराग मुद्रा से ही दर्शको को मुक्तिमार्ग के उण्देश की एक झलक मिल रही थी । वहाँ का वातावरण विलकुल शान्त और पवित्र था। इससे द्वैपायक बहुत प्रभावित हुआ । अवसर पाते ही उसने आचार्य गृध्रपिच्छ एव अन्य सभी मुनियो को श्रद्धापूर्वक नमन किया और वही एक पोर बैठ गया। कुछ ही कणो के पश्चात उसने विनयपूर्वक यह प्रश्न किया-भगवन ! प्रात्मा का हित क्या है - 'भगवन । किन्तु खल्वात्मने हितम् " कृपया वतलाइये । द्वैपायक के प्रश्न की भाषा और उसके मनोभाव को ध्यान में रखकर उन्होने जो उत्तर दिया, उसीका माकार रूप तत्वार्थसूत्र है। उस समय जो भी वाइमम उपलब्ध था उसका सार लेकर उन्होंने उसे अलकृत किया।
जैन परम्परा मे तत्वार्थसूत्र का बहुत बड़ा महत्व है। इसके श्रवण करने मात्र से श्रोता को एक उपवास का फल मिलता है, ऐसी इसकी ख्याति है । प्राय दिगम्बर जैन समाज में दशलक्षण पर्व की पुण्यवेला मे प्रवचन का मुख्य विषय यही रहता है। इसमे प्रथमानुयोग को छोड़कर शेप तीनो अनुयोगो की चर्चा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। यह जैन दर्शन का प्रवेशद्वार है । प्रवेशिका से लेकर आचार्य तक और वालपाठशालामो से लेकर विश्वविद्यालयो तक इसका अध्ययन-अध्यापन होता है । अत यह कहने की आवश्यकता नही कि यह एक अनुपम ग्रन्थ ही नहीं महाग्रन्थ है।
इसके आधार पर अनेक उद्भट आचार्यों ने दार्शनिक ग्रन्थो की रचना की है। इसके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्', इत्यादि मगलसूत्र को लेकर आचार्य विद्यानन्द ने आप्त परीक्षा की रचना की। 'प्रमाणनयरधिगम' इस सूत्र का प्राश्रय लेकर महाकलकदेव ने अपने लघीयस्त्रय ग्रन्थ के प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश-इन दो प्रकरणो की तथा अभिनव धर्मभूपण यति ने न्यायदीपिका की रचना की है। इसे देखकर अन्य आचार्यों ने सस्कृत भाषा मे ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा ली। • इसके दसो अध्यायो मे कुल मिलाकर ३५७ सूत्र हैं । प्रारम्भ के चार अध्यायो मे जीवतत्त्व का, पचम मे अजीवतत्त्व का, पप्ठ और सप्तम मे पानपतत्त्व का, अष्टम मे वन्धतत्व का, नवम मे सवर और निर्जरा का तथा अन्तिम मे मोक्ष तत्त्व का निरूपण किया गया है। इसलिए इसका तत्त्वार्थ नाम पड़ा, और सूत्रशली मे लिखे जाने से इसे तत्त्वार्थसूत्र कहते है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन करने से इमकी मोक्षशास्त्र सज्ञा भी प्रचलित है।
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(१) सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थ सूत्र की उपलब्ध टीकाओ में सर्वार्थसिद्धि सबसे पुरानी है । यद्यपि आचार्य समन्तभद्र ने इस पर गन्धहस्ति महाभाष्य नाम की एक टीका लिखी थी, ऐसी प्रसिद्धि है । पर वह अभी तक उपलब्ध नही हुई है। इसलिये सर्वार्थसिद्धि ही इसकी प्रथम टीका मानी जाती है । लक्षणों की दृष्टि से इसका वडा महत्त्व है। इसमे जो लक्षण दिये गये है, उन्होने विद्वानो बहुत प्रभावित किया है । अतः इस टीका ग्रन्थ को लक्षण ग्रन्थ भी माना जाता है। इसमे तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रो के प्रत्येक पद का विशेष अर्थ प्राज्जल भाषा मे किया गया है। इसे वाद की सभी टीकाओ ने आदर्श माना है । आवश्यक स्थलो पर व्याकरण के आधार से अनेकानेक पदो की सिद्धि करते हुए प्रकृति और प्रत्ययो का निर्देश किया गया है । इसके 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' सूत्र की टीका मे सम्यग्दर्शन के दो भेद किये है- सरागसम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रगम, सवेग, अनुकम्पा और ग्रास्तिक्य आदि चिन्हो से जिसकी अभिव्यक्ति हो, उसे सरागसम्यग्दर्शन तथा आत्मा की विशुद्धिमात्र को वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं । 'जीवा जीवास्रववन्ध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्' इस सूत्र की टीका मे लिखा है कि पुण्य और पान का अन्तर्भाव आस्रव और वन्ध में हो जाता है, इसीलिये सूत्रकार ने नौ पदार्थो की अलग से चर्चा नही की । 'तद्भावाव्यय नित्यम्' सूत्र
व्याख्या मैं बतलाया है कि प्रत्येक वस्तु रवभाव से नित्य होकर भी परिणामी है । यदि वस्तु की सर्वथा नित्यता स्वीकार की जाय तो उसमें परिणमन नही बनेगा । फलत. ससार और उसकी निवृत्ति की प्रक्रिया ही गडवडा जायगी । इसी प्रकार वस्तु को सर्वया अनित्य मानने पर कार्य - कारणभाव नही वन सकेगा ।
इस टीका को महाकलकदेव ने अपने ग्रन्थ--- तत्त्वार्थ वार्तिक मे वार्तिक रूप में अपनाया है। इससे इस टीका का महत्व समझ मे आ जाता है । सर्वार्थसिद्धि से तत्त्वार्थवार्तिक मे और तत्त्वार्थवार्तिक से तत्त्वार्थश्लोकवात्र्तिक में उत्तरोत्तर विशेषता वढती गई। इसका एक मात्र श्रेय सर्वार्थसिद्धि को ही है । सुन्दरतापूर्वक थोडे शब्दो में अधिक अर्थं लिख देना इसकी सबसे बड़ी विशेषता है । बाद मे तत्त्वार्थसूत्र की जितनी भी टीकाएं लिखी गई वे सबकी सव सर्वार्थसिद्धि से प्रभावित है । इसकी रचना प्रशममूर्ति आचार्यवर्यं पूज्यपाद ने पाचवी शताब्दी मे की थी । इष्टोपदेश, समाविशतक और जैनेन्द्र व्याकरण मे भी इनकी प्रतिभा के दर्शन होते है । (२) तत्त्वार्थवार्तिक
तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य लिखा गया है । इसमे केवल अतिसरल २७ सूत्रो को छोड़कर शेष सभी पर गद्य रूप मे वार्तिको की रचना की गई है। उनकी कुल संख्या २६७० है | सातवी शताब्दी मे सूत्रो पर वार्तिक बनाने को परिपाटी श्रेष्ठ समझी जाती थी । विना वातिको
सूत्रो की महत्ता नही मानी जाती थी । अतः महाकलकदेव ने उद्योतकर की शैली मे वार्तिको की रचना की । श्राचार्य गृद्धपिच्छ के सूत्रों में भी जो अनुपपत्तियाँ कल्पनाओ के वल पर सम्भव -' सूत्रेष्वनुपपत्तिचोदनामानी जा सकती थी, उन सभी का परिहार वार्त्तिको में कर दिया गया – ' परिहारो वार्तिकम्' । वात्र्तिको की रचना में कही कुछ क्लिष्टता भी आ गई है । अतः उसकी वृत्ति,
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जिसे भाष्य कहना चाहिए, आवश्यकतानुसार कही सक्षिप्त और कही विस्तृत रूप में लिखी गई है। इसमे श्रगणित आक्षेपो का समुचित समाधान किया गया है – 'श्रक्षिप्यभाषणाद् भाष्यम् । उस समय शास्त्रार्थो की धूम मची रहती थी । अकलकदेव ने भी अनेकानेक शास्त्रार्थं किये थे । तस्वार्थवात्तिक मे, जिसका दूसरा नाम राजवार्तिक है, उनके शास्त्रार्थं के अभ्यास की एक झलक मिलती है ।
इस भाष्य में सूत्रो के पदो के कोपो के अनुसार अनेक अर्थ दिखलाकर विवक्षित अर्थ को युक्तिपूर्वक निश्चित किया गया है कि इस पद का यहा यही अर्थ होना चाहिए, इस अर्थ को छोडकर अन्य अर्थ करने पर अमुक-अमुक दोप उत्पन्न हो जायेंगे । 'तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' सूत्र के भाष्य मे 'अर्थ' शब्द के विवक्षित श्रर्थ पर जो विचार किया गया है, केवल उसीको नमूने के रूप मे देखकर महाकलक की शैली का एक आभास प्राप्त किया जा सकता है ।
प्रस्तुत भाष्य मे अन्य दार्शनिको की शकाओ का समाधान आगम और युक्तियो के आधार पर देकर अन्त मे अनेकान्त के आधार से भी समुचित उत्तर दिया गया है । यह शैली अन्य टीकाओ मे बहुत कम उपलब्ध होती है । देखिये पृष्ठ ७, २५, ५०, ७१ ४७१, ४६२ और ५०५ आदि । सप्तभगी का परिष्कृत लक्षण, स्वात्मा-परमात्मा का विश्लेषण, काल आदि आठ के द्वारा अभिन्नवृत्ति तथा प्रमेदोपचार की चर्चा, अनेकान्त मे सप्तभगी योजना, अनेकान्त के सम्यगेकान्त और मिथ्यैकान्त, अनेकान्त मे दिये गये दूपणो का निरसन और लक्षण के आत्मभूत और अनात्मभूत ये दो भेद यादि इस भाष्य की मौलिक उपलब्धिया है । इस भाष्य में सैद्धान्तिक, दार्शनिक, और भौगोलिक यादि अनेकानेक विपयो की प्रासंगिक चर्चा दृष्टिगोचर होती है, अत इसे विश्वकोप कहा जा सकता है ।
(३) तत्त्वार्थश्लोक वार्त्तिक
तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक मै, जिसका दूसरा नाम श्लोकवार्तिक भी है, तत्त्वार्थसूत्र के केवल ३५ सूत्रो को छोडकर शेप सभी पर वार्तिक लिखे गये है । उनकी संख्या लगभग २७०१ है । वार्तिक अनुष्टुप् छन्द मे कुमारिलभट्ट के मीमासाइलोक वार्तिक, तथा धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की शैली मे लिखे गये है । प्राह्निको की समाप्ति के स्थलो पर उपेन्द्रवज्रा, स्वागता, शालिनी, बशस्य, मालिनी, शिखरिणी और शार्दूलविक्रीडित ग्रादि छन्दो का भी प्रयोग किया गया है। बार्तिको के ऊपर वृत्ति भी लिखी गई है, जिसे महाभाप्य की सज्ञा प्राप्त है । तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओ मे इसका प्रमाण सबसे अधिक है । इसके निर्णयसागर वाले सस्करण मे ५१२ पृष्ठ है, जिनमे ३११ पृष्ठ प्रथम अध्याय के है । इम अध्याय में दार्शनिक चर्चा की बहुलता है। वैशेपिक, नैयायिक, और विशेषत मीमासक आदि सभी दार्शनिको के सिद्धान्तो की इसमे विस्तारपूर्वक समालोचना की गई है। भावना, विधि, नियोग, निग्रहस्थान आदि की आलोचना और जय-पराजय की व्यवस्था दी गई है। नयो का विस्तृत विवेचन द्रष्टव्य है । इसकी भाषा सरल है फिर भी विषय की गंभीरता के कारण क्लिष्टता आ गई है, पर कही कही बिलकुल सरलता भी देखने को मिलती है, विशेषत प्रथम अध्याय के आगे ।
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इसकी रचना नवमी शताब्दी में प्राचार्य विद्यानन्द ने की थी। इनके आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और अष्टसहनी आदि और भी अनेक ग्रन्य उपलब्ध है। (४) सुखवोधा
यह टीका सर्वार्थसिद्धि से कुछ छोटी है । इसमे 'मोक्षमार्गस्य नेतार भेतार कर्मभूभृताम्' इत्यादि मगलपद्य की टीका की गई है । 'सत्सख्या' इत्यादि सूत्र की टीका बिलकुल सक्षिप्त की गई है। विपय को पुष्ट करने के लिये इसमे अनेक ग्रन्थो के पद्य उद्धृत किये गये है। सर्वार्थसिद्धि के अनुकरण पर इसके पाचवें अध्याय में दार्गनिक चर्चा पर्याप्त मात्रा में की गई है। पर पहले अध्याय मे सर्वार्थसिद्धि सरीखी गनिक चर्चा नही है और न उतना विस्तार भी । इसमे यत्र-तत्र सर्वार्थसिद्धि के गन्द और कही-कही उनका भाव भी देखने को मिलता है । मूल को समझने के लिए यह टीका भी उपादेय है । इस टीका के प्रणेता भास्कर नन्दी है। इनका समय तेरहवी शताब्दी है। (५) तत्त्वार्थवृत्ति
तत्त्वार्थसूत्र पर १६वी शताब्दी मे श्रुतसागर ने तत्त्वार्थवृत्ति नाम की टीका लिखी। इसका दूसरा नाम श्रुतसागरी वृत्ति भी प्रसिद्ध है । इसमे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मगल पद्य पर टीका लिखी गई है। यह टीका पदे-पदे सर्वार्थसिद्धि का अनुगमन करती है और कहीकही राजवार्तिक का भी । इसलिये इसका प्रमाण सर्वार्थसिद्धि से कुछ वडा हो गया है । 'सत्सख्या' इत्यादि सूत्र की व्याख्या सर्वार्थसिद्धि के अनुकरण पर विस्तार से लिखी गई है ।
अहिंसक-परम्परा
श्री विशम्भरनाथ पांडे
सम्पादक : 'विश्ववाणी' इलाहाबाद छान्दोग्य उपनिपद् मे इस बात का उल्लेख मिलता है कि देवकीनन्दन कृष्ण को घोर आगिरस ऋपि ने आत्म-यज्ञ की शिक्षा दी। इस यज्ञ की दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋतुभाव, अहिंसा तथा सत्यवचन थी।
___ जैन ग्रंथकारों का कहना है कि कृष्ण के गुरु तीर्थकर नेमिनाथ थे। प्रश्न उठता है कि क्या यह नेमिनाथ तथा घोर आगिरस दोनो एक ही व्यक्ति के नाम थे ? कुछ भी हो, इससे एक वात निविवाद है कि भारत के मध्य भाग पर वेदो का प्रभाव पड़ने से पूर्व एक प्रकार का अहिंसाधर्म प्रचलित था।
स्थानाग मूत्र मे यह वात पाती है कि भरत तया ऐरावत प्रदेशो में प्रथम और अन्तिम को छोडकर गेप २२ तीर्थकर चातुर्मास धर्म का उपदेश इस प्रकार करते थे-'समस्त प्राणघातो का त्याग, सब असत्य का त्याग, सब अदत्ता दान का स्याग, सब वहिर्वा पादानो का त्याग।' इस धर्म रीति मे हमे उस काल मे अहिंसा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। '
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'मझिम निकाय' मे चार प्रकार के तपो का आचरण करने का वर्णन मिलता हैतपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्ता । नमै रहना, अंजलि मे ही भिक्षान्न मांगकर खाना, वाल तोड कर निकालना, कांटो की शैया पर लेटना इत्यादि । देहदड के प्रकारों को तपस्वित कहते थे। कई वर्ष की धूल वैसी ही शरीर पर पड़ी रहे, इमे रूक्षता कहते थे । पानी की बूंद तक पर भी दया करना इसको जुगुप्सा कहते थे। जुगुप्सा अर्थात हिंसा का तिरस्कार । जगल में अपने रहने को प्रविविक्तता कहते थे।
तपश्चरण की उपरोक्त विधि से सप्ट है कि लोग अहिंसा तथा दया को तपस्या केन्द्र बिन्दु मानते थे।
अधिकतर पाश्चात्य पडितो का यह मत है कि जैनो के तेईसवे तीर्थकर पार्व ऐतिहासिक व्यक्ति थे । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चौवीसवें तीर्थकर वर्षमान के १७८ वर्ष पूर्व पार्श्व तीर्थकर का परिनिर्वाण हुआ।
यह बात भी इतिहास सिद्ध है कि वर्षमान तीर्थकर और गौतम बुद्ध समकालीन थे। बुद्ध का जन्म वर्धमान के जन्म से कम से कम १५ वर्ष वाद हुआ होगा। इसका अर्थ यह हुमा कि बुद्ध के जन्म तथा पार्श्व के परिनिर्वाण मे १९३ वर्ष का अन्तर था। निर्वाण के पूर्व लगभग ५० वर्ष तो पावं तीर्थकर उपदेश देते रहे होंगे। इस प्रकार बुद्ध के जन्म के लगभग २४३ वर्प पावं मुनि ने उपदेश देने का कार्य प्रारम्भ किया होगा। निर्ग्रन्य श्रवणो का मघ भी उन्होने स्थापित किया होगा।
परीक्षित राजा के राज्यकाल से कुरुक्षेत्र में वैदिक संस्कृति का आगमन हुमा । उसके वाद जन्मेजय गद्दी पर आया। उसने कुरु देश में महायज्ञ करके वैदिक धर्म का झंडा फहराया। इसी समय काशी देश मे पाच तीर्थकर एक नयी सस्कृति की नीव डाल रहे थे। पावं का जन्म वाराणसी नगर में अश्वसेन नामक राजा की वामा नामक रानी से हुआ। पाश्व का धर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह इन चार यम का था । इतने प्राचीन काल में अहिंमा को इतना सुसम्बद्धरूप देने का यह पहला ही उदाहरण है।
पार्व मुनि ने एक बात और भी की । उन्होंने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीन नियमो के साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो अहिंसा ऋषि-मुनियो के व्यक्तिगत आचरण तक ही सीमित थी और जनता के व्यवहार में जिमका कोई स्थान न था वह अब इन नियमो के कारण सामाजिक एवं व्यवहारिक हो गई।
पार्श्व तीर्थकर ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए मथ बनाया। बौद्ध साहित्य से हमें इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के नस्य जो संघ विद्यमान थे, उन सवो मे जैन साधु-साध्वियो का संघ सबसे बड़ा था। उपयुक्त वर्णन से मासूम होगा कि ऋषिमुनियो की तपश्चर्यारूपी अहिंसा से पाश्र्व मुनि की लोकोपकारी अहिता का उद्गम हुमा ।
लोकोपकारी अहिंसा का सबसे प्रमुख प्रभाद हमें सर्वभूत दया के रूप में दिखाई देता है। यो तो सिद्धान्तत. मर्वभूत दया को सभी मानते हैं किन्तु प्राणी रक्षा के पर जितना बल जैन
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परम्परा ने दिया, जितनी लगन से इसने उस विषय मे काम किया, इसका परिणाम ममस्त ऐति. हासिक युग मे यह रहा है कि जहाँ-जहाँ और जव-जव जेनो का प्रभाव रहा वहाँ सर्वत्र आम जनता पर प्राणि-रक्षा का प्रबल सस्कार पडा है । यहा तक कि भारत के अनेक भागो मे अपने को अर्जन कहने वाले तथा जैन-विरोधी समझने वाले साधारण लोग भी जीवमात्र की हिसा से नफरत करते लगे है । अहिंसा के इस सामान्य सस्कार के ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर परम्पराओ के आचार-विचार पुरातन वैदिक परम्परा से सर्वथा भिन्न हो गये है । तपस्या के बारे में भी ऐसा ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थी सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक झुकते रहे है । सामान्य रूप से साधारण जनता जैनो की तपस्या की भोर पादरशील रही है । लोकमान्य तिलक ने ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तो मे जो प्राणि-रक्षा और निरामिष भोजन का आग्रह है वह जैन परम्परा का ही प्रभाव है।
जैनधर्म का आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम वगाल है । सभव है कि बगाल मे एक समय बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैनधर्म का विशेष प्रचार था । परन्तु क्रमश जैनधर्म के लुप्त हो जाने पर बौद्ध ने उसका स्थान ग्रहण किया । बगाल के पश्चिमी हिस्से मे स्थित सराक' जाति भावको की पूर्व स्मृति कराती है । अब भी बहुत से जैन मन्दिरो के ध्वसावशेष, जैन-मूर्तिया, शिलालेख आदि जैन स्मृतिचिन्ह बगाल के भिन्न-भिन्न भागो में पाये जाते है।
प्रोफेसर सिलवन लेवी लिखते है कि-"बौद्धधर्म जिस तरह आकुठित भाव से भारत के बाहर और अन्दर प्रसारित हो सका, उस तरह जैनधर्म नहीं । दोनो धर्मों का उत्पत्ति स्थान एक होते हुए भी यह परिणाम निकला कि बौद्धधर्म प्रतिष्ठित हुआ । पूर्व भारत में, और जैनधर्म पश्चिम तथा दक्षिण भारत मे । बौद्धधर्म भारत के अतिरिक्त पूर्व दिशा मे बर्मा, श्याम, चीन आदि देशो में फैला और उसने इन सब दिशामो से भारत को सम्भावित राजनैतिक विपत्तियो से उम्मुक्त किया । यदि जैनधर्म भी इसी तरह भारत से बाहर पश्चिमी देशो की ओर फैला होता तो शायद भारत अनेक राजनैतिक दुर्गतियो से बच गया होता।"
____ इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है उनसे यह स्पष्ट है कि ईसवी सन् की पहली शताब्दी मे और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्यपूर्व के देशो मे किसी-न-किसी रूप मे यहूदी-धर्म, ईसाई-धर्म और इस्लाम को प्रभावित करता रहा है।
प्रसिद्ध जर्मन इतिहासलेखक वान क्रेमर के अनुसार मध्यपूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रन्श है। इतिहासलेखक जी एफ मूर लिखता है कि-"हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व ईराक, श्याम और फिलस्तीन मे जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकडो की संख्या मे चारो ओर फैले हुए थे । पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथोपिया के पहाडो
और जगलो मे उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे। ये साधु वस्त्रो तक का परित्याग किए हुए थे।
इन साघुरो के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियो पर विशेषरूप से पडा। इन आदर्शों का पालन करने वालो की, यहूदियो मे, एक खास जमात बन गई को 'एप्सिनी' कहलाती
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थी। इन लोगो ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डो का पालन त्याग दिया। ये वस्ती से दूर जगलो मे या पहाडो पर कुटी बनाकर रहते थे। जैन मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मास खाने से उन्हे वेहद परहेज था । वे कठोर और मयमी जीवन व्यतीत करते थे । पैसा या धन को छने तक से इन्कार करते थे। गेगियो और दुर्बलों की सहायता को दिनचर्या का आवश्यक प्रग मानते थे । प्रेम और सेवा को पूजा-पाठ मे बढकर मानते थे । पशुबलि का तीव्र विरोध करते थे। शारीरिक परिश्रम मे ही जीवन-यापन करते थे । अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे । समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे। मित्र में इन्ही तपम्विगे को 'थेरापूते' कहा जाता था । पेरापूते का अर्थ है 'मौनी अपरिग्रही'।
__'सियाहत नाम ए नासिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पडा था । कलन्दरो को जमात परिवाजको की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में न रहना या । कलन्दर चार नियमो का पालन करते येसाधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता । वे अहिमा पर अखन्ड विश्वास रखते थे।
एक वार का किस्सा है कि दो कलन्दर मुनि बगदाद मे आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुरमुर्ग गृह-स्वामिनी का हीरो का एक बहुमूल्य हार निगल गया । सिवाय कलन्दरो के दिमी ने यह घटना देखी नहीं । हार की खोज गुरू हुई। शहर कोतवाल को सूचना दी गई। उन्हें कलन्दर मुनियो पर सन्देह हुआ। कलन्दर मुनियो मे प्रश्न किये गये । मुनियो ने उस मूक पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। क्योकि हार के लिए उस मूक पक्षी को मारकर उसका पेट फाडा जाता । मन्देह मे मुनियो को बेरहमी के साथ पीटा गया। वे लोह-लोहान हो गये किन्तु उन्होंने शुतुरमुर्ग के प्राणो की रक्षा की।
___ सालेहविन अब्दुल कुद्स भी एक अहिंसावादी अपरिगही परिव्राजक मुनि था, जिसे उसके क्रान्तिकारी विचारो के कारण सन् ७५३ ईस्वी मे सूली पर चढ़ा दिया गया । अकुल अतारिया, जरीर इन्न हज्म, हम्माद अजरद, यूनान विना हास्न, अली विन खलील और बरशार अपने समय के प्रसिद्ध अहिंसावादी निर्ग्रन्थी फकीर थे।
नवमी और दसवी गताब्दियो मे अव्वासी खलीफाओं के दरदार में भारतीय पडितो और साधुओ को आदर के साथ निमत्रित किया जाता था। इनमे वौद्ध और जैन साधु भी रहते थे। इन्न अन नजीम लिखता है कि-"अरबो के शासनकाल मे यह्यिा इन्न खालिद बरमकी ने खलीफा के दरवार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उनने बड़े अध्यवसाय और भादर के साथ भारत से हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानो को निमन्त्रित किया।"
सन् १९८ ईस्वी के लगभग भारत के बीन साधु-सन्यामियो ने मिलकर पश्चिमी एगिया के देशो की यात्रा की । इस दल के माथ चिकित्सा के रूप में एक जैन मन्यासी भी गये थे। एक वार ग्वदेश लौटकर यह दल फिर पर्यटन के लिए निकल गया । २६ वर्ष के बाद जब सन् १०२४ ईसवी मे यह लोग अन्तिम बार स्वदेश लौटे तव उम समुदाय के माय सीरिया के मुविन्यात अन्य कवि प्रवुलमला अलमारी का परिचय हुआ । अवुलमला का जन्म सन् ९७३ ईसवी में हुआ और
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मृत्यु सन् १०५८ ईसवी मे । जर्मन विद्वान वान केमर ने लिखा है कि अबुलपला सभी देशो और सभी युगो के सर्वश्रेष्ठ सदाचार शास्त्रियो मे से एक था।
अबुलअला जब केवल चार वर्ष के थे तभी चेचक के भयकर प्रकोप मे अन्धे हो गये थे। किन्तु उनकी ज्ञान-तृष्णा इतनी अदम्य थी कि वे स्पेन से मिस्र और मिस्र से ईरान तक अनेको स्थान मे गुरू की तलाश मे ज्ञानार्थी बनकर धूमते रहे । अन्त मे बगदाद मे जैन-दार्शनिको के साथ उनका ज्ञान-समागम हुमा । साधना द्वारा उन्होने परमयोगी पद को प्राप्त किया। उनकी ईश्वर की कल्पना इस्लाम की कल्पना से नितान्न भिन्न थी। बहिश्त के लिए उनकी जरा भी ख्वाहिश नही थी । वे दुखमय सत्ता को ही समस्त दुखो का मूल मानते थे । बगदाद से सीरिया लौटकर एक पर्वत की कन्दरा में रहकर उन्होने प्रति कृच्छ्तपश्चरण किया। उसके बाद उनका जीवन ही बदल गया । मद, मत्स्य, मास, अण्डे एव दूध तक का उन्होने परित्याग कर दिया । उनका जीवन पहिसामय एव मैत्रीपूर्ण बन गया।
अबुलअला का इस बात में विश्वास नहीं था कि मुर्दे किसी दिन कत्रो मे से निकलकर खडे हो जायेंगे । बच्चा पैदा करने के कार्य को वह पाप मानता था। अपने पृथक अस्तित्व को मिटा देने को वह मनुष्य जीवन का वास्तविक लक्ष्य मानता था। वह आजीवन मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी रहा । उसने अपने एक मजन मे लिखा है -
"हनीफ ठोकरे खा रहे है, ईसाई सब भटके हुए है, यहूदी चक्कर में है, भोगी कुराह पर वढे जा रहे है । हम नागवान मनुष्यो मे दो ही खास तरह के व्यक्ति है-एक बुद्धिमान शठ और दूसरे धार्मिक मूढ ।"
अबुलाला का एक दूसरा भजन है :
"कोई वस्तु नित्य नहीं है । प्रत्येक वस्तु नाशवान है । इस्लाम भी नष्ट होने वाला है। हजरत मूसा भाये, और उन्होने अपनी पाच वक्त की नमाज चलाई। कुछ दिनो बाद कोई दूसरा मजहब आकर इसकी जगह ले लेगा । इस तरह मानव-जाति वर्तमान और भविष्य के बीच में मौत की तरह हकाई जा रही है । यह धरती नाशवान है। जिस तरह इसका आरम्भ हुआ था उसी तरह इसका अन्त होगा । जन्म और मृत्यु हर चीज के साथ लगी हुई है । काल का प्रवाह नदी की धार के सदृश बहता चला जा रहा है । यह प्रवाह हर समय किसी-न-किसी नई वस्तु को सामने लाता रहता है।"
सभी जीव-जतुप्रो यहा तक कि कीडे-मकोडो के प्रति भी वे अपरिसीम करुणामय थे। इस सम्बन्ध का उनका एक भजन है -
"वृथा पशु-हिंसा मे क्यो जीवन कलकित करते हो ? वेचारे वनवासी पशुओ का क्यो निष्ठुर भाव से सहार करते हो? हिंसा सबसे बडा कुकर्म है । बलि के पशुओ को आहार न बनायो । अण्डे और मछलियां भी न खामो । इन सब कुकर्मों से मैने अपने अपने हाथ धो डाले है । वास्तव मे मागे जाकर न बधिक रहेगा और न बध्य । काश कि वाल पकने से पहले मैंने इन बातो को समझ लिया होता।"
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इसी प्रकार जैन-दर्शन ने जलालुद्दीन रूमी एव अन्य अनेक ईरानी सूफियो के विचारो को प्रभावित किया । अहिसा सिद्धान्त मानव-जीवन का सर्वोच्च सिद्धान्त है। प्रत्येक प्रगतिशील आत्मा उससे आकृष्ट हुए विना नहीं रह सकती। अनेक कारणो से, जिनके विस्तार में जाने की यहाँ प्रावश्यकता नहीं है, जैन जीवन-धारा व्यापक रूप से मानव-समाज को अधिक समय तक परिप्लावित नहीं कर सकी । उसके अनुगामी स्वय अनाचार और मिथ्याचार में फंस गये। भाज हमे फिर अहिंसा की उस परम्परा मे नई प्राण-शक्ति का संचार करना होगा। गाधीजी ने अपने जीवन का अर्घ्य देकर एक बार उसे देदीप्यमान कर दिया। किन्तु हमे निरन्तर साधनामय जीवन से उस अग्नि को प्रज्वलित कर अपनी प्राण शक्ति का प्रमाण देना होगा। सत्य और अहिंसा के आदर्श को व्यवहार में प्रतिष्ठित करने के सहजमार्ग को न स्वीकार कर यदि केवल वाक्य, तकं और प्रमाण चातुर्य का मार्ग ग्रहण किया जायगा, तो विश्वधर्म के महाकाल के विधान मे जैनधर्म के लिए कोई आशा नही।
___ "यदि जिन-मानितधर्म अनेक मिथ्या आडम्बरो, पार्यहीन आचारो आदि को त्यागकर दया, मैत्री, उदारता, शुद्ध जीवन, आन्तरिक और बाह्य प्रकाश और प्रेम की उदार तपस्या द्वारा अपने में अन्तनिहित जागृत जीवन का परिचय दे सके तो सब अभियोग और आरोप स्वय शात हो जायेंगे और इससे जन स्वय धन्य होगे तथा समस्त मानव सभ्यता को भी वे धन्य करेंगे।"
संस्कृत साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का सहयोग
डा० मंगलदेव शास्त्री, एम. ए., पीएच.डी. भारतीय विचारवारा की समुन्नति और विकास मे अन्य आचार्यों के समान जैन आचार्यों तथा ग्रन्थकारो का जो वडा हाथ रहा है उससे आजकल की विद्वन्मण्डली साधारणतया परिचित नहीं है। इस लेख का उद्देश्य यही है कि उक्त विचारधारा को समृद्धि मे जो जैन विद्वानो ने सहयोग दिया है उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाय । जैन विद्वानो ने प्राकृत, अपभ्र श, गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलगु, तमिल आदि भाषाओ के साहित्य की तरह सस्कृत भापा के साहित्य की समृद्धि मे वडा भाग लिया है। सिद्धान्त, आगम, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, चमचम्पू, ज्योतिप, आयुर्वेद, कोप, अलकार, छन्द, गणित, राजनीति, सुभापित आदि के क्षेत्र मे जैन लेखको की मूल्यवान संस्कृत रचनाएं उपलब्ध है । इस प्रकार खोज करने पर जैन संस्कृत साहित्य विशाल रूप मे हसारे सामने उपस्थित होता है । उस विशाल साहित्य का पूर्ण परिचय कराना इस अल्पकाय लेख मे सभव नहीं है । यहा हम केवल उन जैन रचनामो की सूचना देना चाहते है जो महत्वपूर्ण है । जैन सैद्धान्तिक तया आरभिक ग्रन्थो की चर्चा हम जान-बूझकर छोड़ रहे है। जैन न्यायजैन न्याय के मौलिक तत्त्वो को सरल और सुवोधरीति से प्रतिपादन करने वाले
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मुख्यतया दो ग्रन्थ है | प्रथम अभिनव धर्मभूपणयति विरचित न्यायदीपिका, दूसरा माणिकनन्दि का परीक्षामुख, न्यायदीपिका मे प्रमाण और नय का बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है । यह एक प्रकरणात्मक सक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशा मे समाप्त हुई है ।
गौतम के न्यायसूत्र और दिग्नाग के न्यायप्रवेश की तरह माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' जैन न्याय का सर्वप्रथम सूत्र ग्रन्थ है । यह छ परिच्छेदो मे विभक्त है और समरत सूत्रसख्या २०७ है । यह नवमी शती की रचना है और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारो ने इस पर अनेक विशाल टीकाए लिखी है । प्राचार्य प्रभाचन्द ( ७८० - १०६५ ई०) ने इस पर वारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक विस्तृत टीका लिखी हे । १२वी शती के लघुअनन्तवीर्य
इसी ग्रन्थ पर एक 'प्रयत्नमाला' नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसकी रचनाशैली इतनी विशद और प्राजल है और इसमे चर्चित किया गया प्रमेय इतने महत्व का है कि प्राचार्य हेमचद्र ने अनेक स्थलो पर अपनी 'प्रमाणमीमासा' मे इसका शब्दश और अर्थश अनुकरण किया है । लघु अनन्तवीर्य ने माणिकनन्दि के परीक्षामुख को अकलक के वचनरूपी समुद्र के मन्थन से उद्भुत न्यायविद्यामृत' वतलाया है।
उपयुक्त दो मौलिक ग्रन्थो के अतिरिक्त अन्य प्रमुख न्यायग्रन्थो का परिचय देना भी यहा अप्रासंगिक न होगा । अनेकातवाद को व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम श्रेय स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शदी ई०) श्रौर सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है । स्वामी समन्तभद्र की श्रासमीमासा और युवत्यनुवासन महत्वपूर्ण कृतिया है। प्राप्तमीमांसा मे एकान्तवादियो के मन्तव्यो की गम्भीर श्रालोचना करते हुए आप्तकी सीमासा की गई है और युक्तियो के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या की गई है। इसके ऊपर भट्टाकलक ( ६२० - ६८० ) का अप्टशती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानदि (स्वी श० ई०) का 'अष्टसहस्री' नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी (देवागम वृत्ति) नामक टीका प्राप्य है । युक्त्यनुशासन मे जैन शासन की निर्दोषिता सयुक्तिक सिद्ध की गई है। इसी प्रकार सिद्धमेनदिवाकर द्वारा अपनी स्तुतिप्रधान वतीसियों मे और महत्वपूर्ण सम्मति तर्कभाष्य मे बहुत ही स्पष्ट रीति से तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादी का स्वाद्वाद सिद्धान्त के साथ किया गया समन्वय दिखलाई देता है ।
भट्टालकदेव जैन न्याय के प्रस्थापक माने जाते है और इनके पश्चाभावी समस्त जनतार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्यायमार्ग का अनुसरण करते हुए ही दृष्टिगोचर होते हैं । इनकी प्रष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीस्त्रय और प्रमाणसग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाये है। इनकी समस्त रचनाए जटिल और दुर्बोध है । परन्तु वे इतनी गम्भीर है। कि उनमे 'गागर मे सागर' की तरह पदे पदे जैन दार्शनिक तत्वज्ञान भरा पडा है ।
moat शती के विद्वान आचार्य हरिभद्र की 'अनेकात जयपताका' तथा पदर्शन समुच्च
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१ - 'प्रकलकवचोम्मौधेरुध्रे येन धीमता ।
न्यायविद्यामृत तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।।'
- प्रमेयरत्नमाला
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(शब्दानुशासन) व्याकरण भी महत्वपूर्ण रचना है । प्रस्तुत व्याकरण पर निम्नाक्ति सात टीकाएं उपलब्ध हैं :---
(१) श्रमोधवृत्ति - शाकटायन के शब्दानुशासन पर स्वयं मूत्रकार द्वारा लिखी गई यह सर्वाधिक विस्तृत और महत्वपूर्ण टीका है। राष्ट्रकूट नरेश श्रमोघवर्ष को लक्ष्य मे रखते हुए ही इसका उक्त नामकरण किया गया प्रतीत होता है । (२) शाकटायनन्यास अमोघवृत्ति पर प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित यह न्यास है। इसके केवल दो अध्याय ही उपलब्ध है । (३) चिंतामणि टीका ( लघीयसीवृत्ति ) इसके रचयिता यक्षत्रमां है और अमोघवृत्ति को सक्षिप्त करके ही इसकी रचना की गयी है । (४) मणिप्रकाशिका - इसके कर्ता अजितसेनाचार्य है । (५) प्रक्रियासग्रह - भट्टोजीक्षित की सान्तकौमुदी की पद्धति पर लिखी गयी यह प्रक्रिया टीका है, इसके कर्ता अभयचन्द श्राचार्य है । (६) नाकटायन टीका - भावसेन त्रैविद्यदेव ने इमकी रचना की है । यह कातन्त्ररूपमाला टीका के रचयिता है। (७) रूपसिद्धि - लघुकौमुदी के समान यह एक अल्पकाय टीका है । इसके कर्ता दानाल (वि० ११वी ग०) मुनि है ।
प्राचार्य हेमचन्द्र का सिद्धि हेम शब्दानुशासन भी महत्त्वपूर्ण रचना है । यह इतनी कर्पक रचना रही है कि इसके आधार पर तैयार किये ये अनेक व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध होते है । इनके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन व्याकरण ग्रन्थ जैनाचार्यों ने लिखे हैं और अनेक जैनेतर व्याकरण ग्रन्थों पर महत्त्वपूर्ण टीकाए भी लिखी है। पूज्यपाद ने पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा था जो सम्प्रति अप्राप्य है । और जैनाचायों द्वारा सारस्वत व्याकरण पर लिखित विभिन्न वोस टीकाए आज भी उपलब्ध है ।"
गर्ववर्म का काव्याकरण भी एक सुवोध और सक्षिप्त व्याकरण है तथा इसपर भी विभिन्न चौदह टीकाएँ प्राप्त है ।
अलंकार
थलकार विपय मे भी जैनाचार्यो की महत्त्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं । हेमचन्द्र और वाग्भट्ट के काव्यानुशासन तथा वाग्भट्ट का वाग्भट्टालकार महत्त्व की रचनाए हैं । श्रजितसेन बाचार्य की अलकार चिन्तामणि और अमरचन्द्र की काव्य कल्पलता बहुद ही सफल रचनायें है ।
जैनतर अलकार शास्त्रों पर भी जैनाचायों की कतिपय टीकाए पायी जाती है। काव्यप्रकाश के ऊपर मानुचन्द्रगणि जयनन्दिमूरि और यत्रोविजयगणि तपागच्छ की टीकाएँ उपलब्ध है । इसके सिवा दण्डी के काव्य-दण पर त्रिभुवनचन्द्रकृत टीका पायी जाती है । और रुद्र के काव्यालकार पर नैमिखाबु (११२५ वि० स० ) के टिप्पण भी सारपूर्ण हैं |
नाटक
नाटकीय साहित्य सृजन मे भी जैन साहित्यकारो ने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया है । उभय-भाषा-कवि-चक्रवति हस्तिमल्ल ( १२वी ग ० ) के विक्रातकोरव, जयकुमार सुलोचना,
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१ - जिनरत्नकोटा ( भ० यो० रि० इ० पूना)
जिनरत्नकोण ( भ० प्रो०रि० ई०, पूना) ।
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है । जयकीर्ति ने अपने छन्दोऽनुशासन के अन्त मे लिखा है कि उन्होने माण्डेव्य, पिंगल, जनात्रय, शैतव, श्रीपूज्यवाद और जयदेव यादि के छन्दशास्त्रो के आधार पर अपने छन्दोऽनुशासन की रचना की है । ' वाग्भट का छन्दोऽनुशासन भी इसी कोटि की रचना है और इस पर इनकी स्वोपज्ञ टीका भी है । राजशेखर सूरि ( ११४६ ई०) का छन्द शेखर और रत्नमञ्जूषा भी उल्लेखनीय रचनाएं है ।
इसके अतिरिक्त जैनेतर छन्द शास्त्र पर भी जैनाचार्यों की टीकाएँ पायी जाती है । केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर पर सोमचन्द्रगणी, क्षेमहसगणी, सभयसुन्दर उपाध्याय आसड और मेरुसुन्दर आदि की टीकाएं उपलब्ध है । इसी प्रकार कालिदास के श्रुतबोध पर भी हर्ष कीर्ति और कातिविजयगणी की टीकाएँ प्राप्त है । संस्कृत भाषा के छन्द-शास्त्रो के सिवा प्राकृत और अपनश भाषा के छन्दशास्त्रो पर भी जैनाचार्यों की महत्वपूर्ण टीकाएं उपलब्ध है ।
कोष -
कोष के क्षेत्र मे भी जैन साहित्यकारो ने अपनी लेखनी का यथेष्ट कौशल प्रदर्शित किया है | अमरसिहगणीकृत अमरकोष सस्कृतज्ञ समाज मे सर्वोपयोगी और सर्वोत्तम कोष माना जाता है । उसका पठन-पाठन भी अन्य कोपो की अपेक्षा सर्वाधिक रूप मे प्रचलित है । घनजयकृत घनजयनाममाला दो सौ श्लोको की प्रल्पकाय रचना होने पर भी बहुत ही उपयोगी है। प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियो के लिए जैन समाज मे इसका खूब प्रचलन है ।
अमरकोष की टीका ( व्याख्यासुधाख्या) की तरह इस पर भी अमरकीर्ति का एक भाष्य उपधब्ध है । इस प्रसग मे आचार्य हेमचन्द्रविरचित श्रभिधानचिन्तामणि नाममाला एक उल्लेखनीय कोशकृति है । श्रीधरसेन का विश्वलोचनकोप, जिसका अपर नाम मुक्तावली है एक विशिष्ट और अपने ढंग की अनूठी रचना है। इसमे ककारातादि व्यजनो के क्रम से शब्दो की सकलना की गयी है जो एकदम नवीन है ।
मन्त्रशास्त्र
मन्त्रशास्त्र पर भी जैन रचनाएं उपलब्ध है । विक्रम की ११वी शती के अन्त और बारहवी के आदि के विद्वान् मल्लेषण का 'भैरवपद्मावतिकल्प, सरस्वतीमन्त्रकल्प और ज्वालामालिनीकल्प महत्वपूर्ण रचनाएँ है। भैरव पद्मावतिकल्प मेरे मन्त्रोलक्षण, सकलीकरण, दव्यचन, द्वादशरजिकामत्रोद्वार, क्रोधादिस्तम्भन, अगनाकर्षण, वशीकरण यन्त्र, निमित्तवशीकरणतन्त्र और गारुडमन्त्र नामक दस अधिकार है तथा इस पर बन्धुषेग का एक संस्कृत विवरण भी उपलब्ध
ary 1
१ -- मॉडल्य - पिंगलज्जनाश्रय संतवाख्य ।
श्री पूज्यपादजयदेव - बुधादिकाना |
छन्दासि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान, छन्दोनुशासनमिद जयकीर्तिनोक्तम् ॥
२ - इस ग्रन्थ को श्री साराभाई मणिलाल नवाब अहमदावाद ने सरस्वतीकल्प तथा अनेक परिशिष्टो मे गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित किया है ।
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है । ज्वालामालिनी कल्प नामक एक अन्य रचना इन्द्रनन्दि को भी उपलब्ध है जो गा म०६१ मे मान्यखेट मे रची गयी थी। विद्यानुवाद या विद्यानुगासन नामक एक और भी महत्वपूर्ण रचना है जो २४ अध्यायो मे विभक्त है। वह मल्लिपणाचार्य को कृति बन गयी जानी है परन्तु अन. परीक्षण से प्रतीत होता है कि इसे मल्लिपेण के किसी उत्तरवनि विद्वान् ने ग्रथित किया है। इनके अतिरिक्त हस्तिमरल का विद्यानुवादाग तथा भवनामस्तोत्र मन्त्र भी उल्लेखनीय रचनाएं है। सुभापित और राजनीति
सुभापित और राजनीति से सम्बन्धिन माहित्य के सृजन में जैन लेपकी में पर्याप्त योगदान किया है । इम प्रमग में आचार्य अमितगतिका मुभापित रत्नमन्दोह (१०५० वि०) एक सुन्दर रचना है। इसमे सासारिकविपयनिराकरण, मायाहका निराकरण, इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोप विचार, देवनिरुपण आदि वत्तीम प्रकरण है। प्रत्येक प्रकरण वीस-बीम, पच्चीमपच्चीस पद्यो में समाप्त हुआ है । सोमप्रभ की सूक्तिमुक्तावली, मालकीति की मुभापिनावली, प्राचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र आदि उच्चकोटि के मुभापित ग्रन्य हैं। इनमे से अन्तिम दोनो ग्रन्यो मे योगशास्त्र का महत्वपूर्ण निरूपण है।
___ राजनीति मे सोमदेषमूरि का, नीतिवावयामृत बहुत ही महत्त्वपूर्ण रचना है । सोगदेवमूरि ने अपने समय मे उपलब्ध होने वाले समस्त राजनैतिक और अर्थशास्त्रीय माहित्य का मन्थन करके इस सारवत नीतिवाक्यामृत का सृजन किया है। अतः यह रचना अपने दग की मौलिक और मूल्यवान है। आयुर्वेद
आयुर्वेद के सम्बन्ध मे भी कुछ जैन रचनाए उपलब्ध है । उग्रादित्य का कल्याणकारक, पूज्यपादवैद्यसार अच्छी रचनाए है। पण्डितप्रवर आधाघर (१३वी सदी) ने बाग्भट्ट या चरक सहिता पर एक प्रप्टाग हृदयोद्योतिनी नामक टीका लिसी थी परन्तु नम्प्रति वह अप्राप्य है। चामुण्डरायकृत नरचिकित्सा, सल्लेिपणकृत वालग्रह चिकित्मा, तथा मोमप्रभाचार्य का रसप्रयोग भी उपयोगी रचनाए हैं। कला और विज्ञान
___ जनाचार्यों ने वैज्ञानिक साहित्य के ऊपर भी अपनी लम्बनी घनाई। हमर (१३वी सदी) का मृगपक्षीशास्त्र एक उत्कृप्टकोटि की रचना मानूम होनी है। उनमे १७१२ पद है और इसकी एक पाण्डुलिपि त्रिवेन्द्रम के राजकीय पुस्तबागार में सुरक्षिन है । इसके अतिरिक्त नामुण्टरायकृत कृपजलज्ञान वनस्पतिस्वरूप, विधानादि परीक्षागान्न, धानुमार, धनुर्वेद ग्लपरीक्षा, विज्ञानार्णव आदि भी उल्लेसनीय वैज्ञानिक रचनाए है। ज्योतिप, सामुद्रिक तया स्वप्नगास्त्र
ज्योतिपणास्त्र के सम्बन्ध मे जैनाचार्यों की महत्वपूत रचनाए अम। गणित १-जैन नाहित्य और इतिहास (श्री १० नायूगम जी प्रेमी, १०४५)
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और फलित दोनो भागो के ऊपर ज्योतिषग्रन्थ पाये जाते है । जैनाचार्यों ने गणित ज्योतिष सम्बन्धी विषय का प्रतिपादन करने के लिए पाटीगणित, बीजगणित रेखागणित, त्रिकोणमिति, प्रतिभागणित, १ गोन्नतिगणित, पचागनिर्माण गणित, जन्मपत्रनिर्माणगणित, ग्रहयुति उदयास्तसम्बन्धी गणित एव यन्त्रादि सम्बन्धित गणित का प्रतिपादन किया है।
___जैन गणित के विकास का स्वर्णयुग छठवी से बारहवी तक है। इस बीच अनेक महत्वपूर्ण गणित ग्रन्थो का प्रथन हुआ है। इसके पहले कोई स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नही है। कतिपय आगमिक ग्रन्थो मे अवश्य गणितसम्बन्धी कुछ बीजसूत्र जाते है ।
सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति प्राकृत की रचनाए होने पर भी जैन गणित की अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्राचीन रचनाए है । इनमे सूर्य और चन्द्र से तथा इनके ग्रह तारामण्डल प्रादि से सम्बन्धित गणित तथा विद्वानो का उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। इनके अतिरिक्त महावीराचार्य (९वीं सदी) का गणितसार सग्रह, श्रीघरदेव का गणितशास्त्र, हेमप्रभसूरि का त्रैलोक्यप्रकाश और सिंहतिलकसूरि का गणिततिलक आदि ग्रन्थ सारगर्भित और उपयोगी है ।
___ फलित ज्योतिष से सम्बन्धित होराशास्त्र, सहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, प्रश्नशास्त्र और स्वप्नशास्त्र आदि पर भी जैनाचार्यों ने अपनी रचनमो मे पर्याप्त प्रकाश डाला है और मौलिक ग्रन्थ भी दिये है। इस प्रसग में चन्द्रसेन मुनि का केवलज्ञान होरा, दामनदिके शिष्य भट्टवासरि का आयज्ञानतिलक, चन्द्रोन्मीलनप्रश्न, भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र, अर्घकाण्ड, मुहूर्तदर्पण, जिनपालगणी का स्वप्नचितामणि आदि उपयोगी ग्रन्थ है।
जैसा ऊपर कहा गया है, इस लेख मे सस्कृत साहित्य के विषय मे जैनविद्वानो के मूल्यवान सहयोग का केवल दिग्दर्शन ही कराया गया है। संस्कृत साहित्य के प्रेमियो को उन
आदरणीय जैन विद्वानो का कृतज्ञ ही होना चाहिए । हमारा यह कर्तव्य है कि हम हृदय से इस महान् साहित्य से परिचय प्राप्त करे और यथासम्भव उसका सस्कृत समाज मे प्रचार करे।
Ahimsa ideology and Family Planning
Dr Bool Chand
Director, Ahimsa Shodh Peeth [Doctor Boolchand the Ex-Director of Ahimsa Shodh Peeth and professor Panjab University, Chandigarh, retired I. C. S. He has done the work of highest level by spreading the message of Indian Culture in the world. The most important and extraordinary work which has been done in the Abimsa Shodh Peeth is due to him and his efforts.
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Tre essay on Ahimsa Ideology and Family Planning written by him is really the work of the great intelligence. The country is facing the problems of rising prices now-a-days. He has correlated Ahimsa Ideology with family planning. He has laid great emphasis not on the birth control but on the self-control. The increasing number of population can only be checked by the self control. This check on the increasing number of the population is necessary to observe the goal of the Fire-Year Plans He also lays great emphasis on the chastity of the soul, body and heart which has been discussed at great Izngth by Mahatma Gandhi. I
Being based upon reason and scientific method, Abimsa ideology naturally relies on Planning as a proper procedure in all human activities Planning implies a conscious attempt to work out adequate means to reach desired ends.
In regard to the size of the population, for instance, the Government of a country may at any time follow a deliberate policy of population control; but in the case of individual men and women also, it is the view of Ahimsa thinkers that a Policy of family planning is inescapably required. Family planning involves the estimating of income and expenditure for husband, wife and children for a year or more in advance, and it also involves the wellbeing of the family for many years into the future. Among other things, this involves the planning of the size of the family.
More than other law-givers, Ahimsa philosophers have laid insistent emphasis upon two things in particular. First, that married persons must understand that the begetting of progeny imposes a fundamental and inescapable responsibility upon the parents not merely for its proper feeding, its bringing up, its education. but also for helping it to develop into useful citizens of the community who may be capable of contributing to the common well-being. Secondly, that married persons must always try to consciously regulate the number of their progeny by voluntary moral restraint. In respect of the first thing. Ahimsa thinkers feel that it would be justified for State authority to take
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acțion to bring home to the citizens their fundamental responsibility towards their progeny by recourse to even punitive measures.
Ahimsa thinkers have included the 'sheel' or vow of chastity for married persons in their scheme of ethical conduct. The Jains, the Buddhists and the Hindus in India as well as Christians in the West have laid down the principle of monogamy, and have further laid down with precision and specific detail the rules of chaslity which must be followed by married persons. Mahavira, Moses, the Buddha, Confucius, Socrates, Aristotle and Christ, all Ahimsa thinkers in the world have further prescribed a code of personal sexual ethic. By some this code of personal sexual ethic has been invested with a divine or semi-divine authority Each Ahimsa thinker has formulated for this own day and for his own community a criterion by which human conduct may be regulated and controlled. Ahimsa sociologists also have formulated a social sexual ethic on the basis of metaphysics, psychology and physiology. Realising that man is naturally polygamous and woman naturally polyandrous, and realising further that human society will not prosper or make progress unless a check is placed upon the promiscous psychological impulses of men and women, at first the institution of marriage and eventually monogamous marriage was invented as a form of this check.
This personal and social ethic his naturally differed from age to age. But certain elements of stability have been present in it throughout, and these are more or less permanent These elements may be summarised in a series of descending prohibitions. All forms of sexual indulgence have been disallowed to those who bave a conviction in favour of entire continence. To those who have entered into the bond of marriage, sexuality outside marriage has been forbidden Over-indulgence has been regarded as an evil and a sin for any class of persons indulging at all. For the immature and the youthful indulgence has been recommended to be postponed
Ahimsa thinkers have never been in favour of the expedient 786 ]
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called 'Birth Control', which has been with us secretly for long time and which has become a public policy in recent years. It consists in the use of chemical and mechanical means for the
prevention of contraception. Ahimsa thinkers have been fopposed Ba expedient mainly because they have felt that by the use of contraceptives inordinate sexualandulgence inside as well as out of marriage gets facilitated. From the physiological point of view inordinate sexual indulgence is most likely to lead to th speedy decline to the human race The subject has been discussed at great length by Mahatma Gandhi EFETT weekly writings, which have been collected Self-Restraint Vs self Indulgence'.
"I
It is an earnestly held view of Ahimsa thile that the best form of family planning would be bŷrself controlton Brahmacharya. Yet Ahimsa thinkers deplore with the others failure of the family planning programme initiated by our Government in the Five Year Plans of this country was in the Fist Five Years Plan that the idea of population control and the reduction of the birth-rate to the extent necessary to stabilise the population at a level consistent with the requirements of national economy' was first mooted. The appeal for family' Planning was then mainly put forward on considerations of health and welfare of the family In the second and the third, Five-Year Plans the profor her family planning was developed further and it was stated that the objective of stabilsing the growth of Bopulation over a reasonable period must be regarded as at the very centre of planned development.
of
It
Earls FTE FIFE OF The large-scale family planning programmes have unfor tunately not been too successful. The population has continued to increase atthe nonal or even higher than normal rater Fhat is a matter for real regret Of all those who believe in Ahimsa ideology it becomes an obvious duty to be positively assiduous in the implementation of the policy of population stabilisation and control deliberately adopted by our Government by all the means within their capacity.
I paye
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कलकत्ता
श्री तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ संयोजक समिति
सम्माननीय सदस्य श्री दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी अध्यक्ष , जगजीवनराम जी भूतपूर्व रेलवे मंत्री भारत सरकार " पद्मभूषण श्री कुंवरसैन जो चीफ इजीनियर
वैकाक, थाईलैंड , अचलसिंह जी M. P. आगरा , बा० तख्तमल जी जैन मिनिस्टर
मध्य प्रदेश सरकार भोपाल " ला० राजेन्द्रकुमार जी प्रधान भा० दि० जैन परिषद , आचार्य जुगलकिशोर जी मिनिस्टर उत्तर प्रदेश सरकार लखनऊ चौधरी श्री देशराज जी भूतपूर्व डिप्टी मेयर दिल्ली कारपोरेशन दिल्ली श्री जयन्तीलाल जी मानकर संचालक जीवदया प्रचारक मण्डल बम्बई , ऋषभदास जी रांका अध्यक्ष भारत जैन महामण्डल वम्बई देशभक्त बाबू रतनलाल जी जैन Ex. M. L. A. बिजनौर रायबहादुर बा० दयाचन्द जी जैन रिटायर्ड चीफ इजीनियर दिल्ली चिरंजीलाल जी वडजात्या वर्धा
लाला राजकृष्ण जी जैन दिल्ली ॥ प० परमेष्ठीदास जी जैन न्यायतीर्थ, ललितपुर , प० शीलचन्द जी जैन न्यायतीर्थ मवाना " श्री कान्ता जी जैशीराम आनरेरी फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट दिल्ली
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