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सफल जन्म मत झिझको, मत दहलामो, यदि बनना महामना है। जो नही किया वह 'पर' है, कर लिया वही 'अपना' है। दो दिन का जीवन-मेला, फिर खडहर-सी नीरवतायश-अपयश बस, दो ही है, बाकी सारा सपना है ॥ दो पुण्य-पाप रेखाये, दोनो ही जग की दासी । है एक मृत्यु सी : घातक, दूसरी सुहृद् माता-सी ॥ जो ग्रहण पुण्य को करता, मणिमाला उसके पडती । अपनाता जो पापो को, उसकी गर्दन में फांसी ।। इस शब्द कोष में केवल, है 'आज' न मिलना 'कल' है । 'कल' पर जो रहता है वह, निरुपाय और निवल है । यह पराक्रमी-मानव है, जो 'कल' को 'भाज' बनाकरक्षणभगुर विश्व-सदन मे, करता निज जन्म सफल है।
वीर निर्वाण
फिर सरसता जग उठी है प्राण में सचरित होकर । मानसर मे भर रहा है कौन यह जीवन निरन्तर ?
फिर नया सा हो रहा है रोम-रोम प्रदीप्त प्रमुदित ।
बज, उठेगी उल्लसित हो आज हत्तत्री कदाचित । लग रहा है और कुछ ही-माज मुझको दिव्य जीवन । आज मानो लहलहाया-हो शतोमुख विश्व-उपवन ।।
प्राण के प्रत्येक कण में प्राप्त-व्याप्त नवीनता है।
मग्न हो, जयकेतु बन, फहरा रही स्वाधीनता है ।। हाँ, इसलिये . मानन्द है सर्वत्र खग-नर-देव-घर । आज पाया है महाप्रभु–'वीर' ने निर्वाण गुरुतर ॥
पावश्यक हिंसा को अहिंसा मानना चिन्तन का दोष है । हिंसा आखिर हिंसा है। यह दूसरी बात है कि आवश्यक हिंसा से वचना कठिन है । गृहस्थी सकल्पी हिंसा का त्यागी होता है।
आत्म-तोष का एकमात्र मार्ग प्रात्म-सयम है। दोनो का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। प्राणी सयम और इन्द्रिय सयम दो प्रकार का है। २१८]