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________________ यदि सच्चे अर्थो मे प्राध्यात्मिक जागरण हो और अध्यात्म शक्ति द्वारा मानव के सद्भाव और विवेक को एक सूत्र में पिरो दिया जाए तो हम निश्चय ही वर्तमान समाज से कही अधिक श्रेष्ठ और उत्तम समाज की स्थापना कर सकते हैं। __भौतिक विज्ञान के असीम उत्कर्प और यान्त्रिक एव औद्योगिक सुधारो के प्रचण्ड विस्तार के बल पर पाश्चात्य संस्कृति हमे इस विनाश काल में भी यही भुलावा दे रही है कि मानव जाति पूर्ण समृद्धि के युग मे खडी है । इसमे सदेह नहीं है कि यान्त्रिक संस्कृति ने जिन शक्तियो को जन्म दिया है वे दोनो तरह की है। उत्कर्ष करने वाली और विध्वसक। यह सस्कृति जलती हुई मशाल अथवा धधकती अग्नि के समान है-मशाल मार्ग भी वर्शाती है और घरो मे आग भी लगाती है-सच तो यह है मशाल अथवा अग्नि का उपयोग करने वाले मानव पर यह दोनो कार्य निर्भर है । वैज्ञानिक सस्कृतिक का भी यही हाल है । मनुष्य की नैतिक धुद्धि तथा ज्ञान के नष्ट और भ्रष्ट होने से ही समूचे विश्व के समूल नष्ट होने की आशका पैदा हुई है । मानव की आत्मा मे दोष-पूर्ण प्रवृत्तियो की वजह से आज मानव-मानव के सम्बन्ध बिगड़े हुए है क्या सामाजिक सम्बन्ध, क्या दैनिक जीवन के सम्बन्ध, क्या राष्ट्रो के बीच के सम्बन्ध-सभी दोषपूर्ण बने है । यह नितान्त आवश्यक है कि मानव अपनी आत्मा को शुद्ध करके और अपने में परिवर्तन करके सामाजिक, दैनिक तथा राष्ट्रीय सम्बन्धो में भी सुधार करे, क्योकि विश्व के सब प्रकार के सम्बन्धो का जन्म आत्मा से ही होता है-व्यक्ति ही उनका कारण है। कुछ व्यक्ति ही दल, वर्ग-सगठन, या पक्ष-सगठन करके राजनैतिक सत्ता हस्तगत करते है, समाज पर नियंत्रण रखते है और सत्ता के लिए स्पर्धा की राजनीति को जन्म देते हुए वास्तविक जन-कल्याण के मार्ग में बाधा डालते है-अतएव आध्यात्मिक शक्तियो का आह्वान करने वाली सत्प्रवृत्तियाँ ही भविष्य के प्रलयकारी सघर्ष से मनुष्य को मुक्त करा सकती हैं। इसी अध्यात्म धारा को प्रवाहित करने के लिए अध्यात्म समाज की स्थापना हुई है। इस मच से आध्यात्मिक विचारो का प्रचार करने मे हम सबके सहयोग की अपेक्षा करते है। अध्यात्म समाज (३) उसकी सद्भाव और विवेक की उच्चतम भावना का विकास किया जाए, तो कोई कारण नहीं है हम वर्तमान समाज की अपेक्षा एक अच्छे और उन्ध समाज की रचना न कर सकें। (२) यदि सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय जागरण तो मनुष्य मे अध्यात्म भाव जगाकर। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ। ज्ञानदर्शन वाला हूँ। परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है । मैं सप्त प्रकार के भय से निर्मुक्त हूँ। सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय और निशक होता है । शुद्ध आत्मज्ञान का अभिलाषी पुरुष बडा मात्म-विश्वासी, सरल-हृदय, कर्तव्य-परायण और अपने पर का कल्याण करने वाला होता है । उसे भौतिक ऐश्वर्य मोह मे नही डाल सक्ते । सोने-चादी के टुकड़े उसे रचमात्र में प्रलोभन नहीं दे सकते । उसके सामने शुद्ध प्रारमतत्व की प्राप्ति का लक्ष्य होता है। परिकल्पना १ चिन्तन और आस्था का युग । २ आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत निष्ठावान मानव । ३. करुणा, त्याग तथा कर्तव्यपरायणता की भावना से युक्त मानव । [३११
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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