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आध्यात्म और विज्ञान
श्री तनसुखराय जैन, दिल्ली प्राध्यात्म प्रवाह .... इस बीसवी शताब्दी के महान क्रान्तिकारी युग मे मानव समाज सुख-शान्ति-समृद्धि और मानन्द के स्थान पर विनाश, भय, स्वार्थ और ईर्ष्या के भयानक जलते हुए बारूद के विनाशकारी अग्निरूप पर्वत पर बैठा है। न मालूम किस समय अग्नि की जलती हुई चिनगारी उस बारूद के ढेर पर लग जाए और विनाश रूपी राक्षस का मुंह खुल जाए।
समस्त मानव जाति की सास्कृतिक धरोहर जो युगो से बड़े सभाल और बलिदानों के बाद अब तक सुरक्षित रह सकी है वह किसी भी समय थोडे से कुरुचिमय प्रयल से विनाश के अग्निकुण्ड में समाप्त हो सकती है।
__माज के विज्ञान ने मानव-जाति के हाथो मे विनाश की ऐसी शक्ति भस्मासुर के समान दे रक्खी है जो उसका विनाश करके शान्त हो सकती है। ऐसी भयानक परिस्थिति में मनुष्य को विवेक और आध्यात्मिक शक्ति के बल पर ही अपनी रक्षा करनी चाहिए । विज्ञान की मानव जाति को बड़ी आवश्यकता है । उसी प्रकार आध्यात्मिक शक्ति की। दोनो के मेल से मनुष्य सच्ची सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सकता है । आध्यात्मिक शक्ति का उद्देश्य मनुष्य मे सद् प्रवृत्तियो को जगाना है, प्राध्यात्मिक गुणो का विकास करना है, उत्साह, प्रात्मविश्वास धैर्य, कर्तव्य-परायणता चरित्र-निर्माण और लोकसेवा की भावना उत्पन्न करना है। अन्याय के विरोध में शक्तिशाली मनोबल की आवश्यकता है । आत्मविश्वास जगाना है और मस्तिष्क में इस प्रकार के भाव जगाना है कि जो कुछ शक्ति हमे प्राप्त हुई है उसका सदुपयोग हो, दुरुपयोग न हो । सदुपयोग से विनाश से बच सकते है, सुख-समृद्धि की ओर बढ़ सकते है। एक-दूसरे के कार्यों में सहायक हो सकते है। बिना आधारक के विज्ञान अपने आविष्कृत अस्त्र-शस्त्रो से समस्त मानव जाति को ध्वस करने के लिए समर्थ है । ज्योही मस्तिष्क में थोड़ी-सी प्रतिहिंसा की भावना उत्पन्न हुई त्योही मानव महास्वार्थी बनकर विध्वस करने के लिए तत्पर हो गया। इसलिए आवश्यक है कि वैज्ञानिक
आविष्कारो का उपयोग सही ढग से हो । विध्वसकारी अस्त्र-शस्त्रो पर नियत्रण हो । विज्ञान का वास्तविक लाभ उठाया जाए। उसका उद्देश्य जनहित हो । यह कार्य अध्यात्म शक्ति के बल पर ही होगा । इसलिए विज्ञान और अध्यात्म का मेल हो । यह बात प्राचार्य विनोबा भावे जैसे मुनि भी पुकार-पुकार कर कह रहे है। और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष माननीय कोठारीजी से वैज्ञानिक अपने लेखो और भाषणो के द्वारा जन-साधारण को समझा रहे है । सामाजिक बुराइयो का अन्त अध्यात्म शक्ति से होगा। विकास और उत्थान का मार्ग विज्ञान से ही होगा | इसलिए लाला तनसुखरायजी ने एक आध्या- त्मिक समाज कायम करने की रूपरेखा बनाई-और उसका प्रचार किया परन्तु योग्य प्रचारको और कार्यकर्तामो के अभाव मे इस समाज की स्थापना से जुनून साधारण को लाभ नहीं होगा। उनके विचार पठनीय और मननीय है।