________________
कुछ लोगो ने जैनो के इस क्वचित यान्तरिक मतभेद का लाभ उठाया ग्राम जैनो का उपहास किया, उन पर लाछन लगाये, उनकी निन्दा र भर्त्सना की कि वे अपने श्रापको 'हिन्दूइज्म' से पृथक करना चाहते है, अल्पसख्यक करार दिये जाकर राजनैतिक अधिकार लेना चाहते है, पृथक विश्वविद्यालय की माग द्वारा इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में अपने धर्म का प्रचार किया चाहते है, इत्यादि ( ईवनिग न्यूज १४- ३ - ५० किन्ही फर्जी 'राइट एन्गिल' साहब का लेख) वीर अर्जुन (११-९-४९ ) श्रादि मे इसके पूर्व भी जैनो को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के विरुद्ध लेख निकल चुके पे कुछ पत्रो में इसके बाद भी निकले। इस प्रकार के लेख साम्प्रदायिक मनोवृति से प्रेरित होकर लिखे गए थे मोर बहुसख्यक वर्ग द्वारा उस जैन विद्वेपी सकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दिया गया था जिसे बीच-बीच मे यत्र-तत्र बहुसख्यको द्वारा जैनो पर किये गये धार्मिक अत्याचारो का श्रेय है। जिन विद्वानो, विशेपज्ञो, न्यायविदो एव राजनीतिज्ञो के मत इसी लेख में पहिले प्रगट किये जा चुके है वे प्राय उसी कथित हिन्दू धर्म के अनुयायी थे या है, किन्तु वे मनस्वी, निष्पक्ष और न्यायशील है- धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के नहीं । अल्पसख्यक समुदाय से बहुसख्यक समुदाय वैसे ही भय रहता है जो बहुसख्यको के सौहार्द एव सौभाग्य से दूर होता है, सख्या बल द्वारा दवा देने की मनोवृत्ति से नही ।
इन लेखो का एक असर यह हुआ कि कुछ जैनो ने, जिनमे स्व० ला० तनसुखराय प्रमुख थे, समाचारपत्रो मे अनेको देखो एव टिप्पणियो द्वारा कथित हिन्दुओ के इस भ्रम और श्राशका कि जैन हिन्दुओ से पृथक है का निवारण करने का भरसक प्रयत्न किया । इसकी शायद वैसी और उतनी श्रावश्यकता नही थी । १९५४ मे जब हरिजन मन्दिर प्रवेश प्रान्दोलन ने उग्ररूप धारण किया तब भी जैनो मे दो पक्ष से दीख पड़े और उस समय भी ला० तनसुखराय ने यही प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया कि जैन हिन्दुओ से पृथक नही है । सन् १९४६-५० से १९५४-५५ तक के विभिन्न समाचारपत्रो में इन विषयों से सम्बन्धित समाचारो, टिप्पणियो आदि की कटिंग्स वह एकत्रित करके छोड़ गये है । उनके श्रवलोकन से यही लगता है कि ला० तनसुखरायजी को यह आशका और भय था कि कही धर्म और संस्कृति संरक्षण के मोह के कारण जैनो ने स्वातन्त्र सग्राम मे जो धन-जन की प्रभूति प्राहुति दी है - अपनी सख्या के अनुपात से कही कि और देश को एव राष्ट्र की सर्वतोमुसी उन्नति मे जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है और कर रहे है कि उस पर पानी न फिर जाय । श्रौर फिर कुछ नेतागीरी का भी नशा होता है। वरना अपनी सत्ता का मोह होना, अपने स्वत्त्वो, परम्पराओ एव सस्कृति के सरक्षण मे प्रयत्नमान रहना तो कोई अपराध नही है - वह तो सर्वथा उचित एव श्रेष्ठ कर्तव्य है, केवल यह ध्यान रखना उचित है कि देश और राष्ट्र के महान हितो से कही कोई विरोध न हो और किमी अन्य समुदाय से किसी प्रकार का द्वप या वैमनस्य न हो, सहअस्तित्व का भाव ही प्रधान हो और समष्टि के बीच व्यष्टि भी निर्विरोध रूप से अपना सम्मानपूर्ण अस्तित्व बनाये रख सके ।
अस्तु, इस सम्पूर्ण विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि भले ही मूलत हिन्दू शब्द विदेशी हो. अर्वाचीन हो, देशपरक एव जातीयता सूचक हो, उसका रूढ अर्थ, जो अनेक कारणो
१५० ]