________________
- प्रात्मा ने स्वय पहिले जो कर्म किए है। उनका ही अच्छा-बुरा फल उसे भोगना पडता है। यदि यह माने कि दूमरे के द्वारा दिए गए कर्मफल को भोगना पड़ता है तो अपने द्वारा किया गया कर्म निरर्थक हो जावेगा-प्रात्मा दूसरे के कर्मों का गुलाम हो जावेगा-उमकी स्वतंत्रता छिन जावेगी। अत यह मानना होगा
. निजाजित कर्म विहाय देहिनो, '-' न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसो,
__ परो ददातीति विमुच्य मुपीम् ॥ - "देही आत्मा को अपने अर्जिन कर्म का फल मिलता है। कोई किसी को कुछ नहीं देता । प्रत आत्मदृष्टि मे लीन हो पूर्वोक्त प्रकार से विचारते हुए दूसरा देता है (कर्मों को या कर्मफल को) यह पर-बुद्धि छोड देना चाहिए अन्यथा कल्याण नहीं हो सकता ।] पर-बुद्धि के कारण ही ससारी बना रहता है। परबुद्धि मिथ्याधुद्धि है और स्ववुद्धि या आत्मवुद्धि सच्ची बुद्धि है-सच्ची दृष्टि है। अरिस्टाटिल कहते है
"Ruohcs, and authorty and all things else that come under the heading of potentialities are the gift of fortune Among feelings we have angar, fear, hatred, longing, envy, pity and the like-these are all accompained by pain or peasulre. Faculties are the potentialities of anger, grief pity and the like To do well and to do all are alike within owr powers Every natural growth whether plant or anlmal has the power of producing its like. It 18 who has the power of originating action, our changes of action are under control af our will."
"धन, अधिकार और वे सर्व वस्तुए जो अदृष्ट है-भाग्य का फल है। क्रोध, भय, इच्छा, ईर्ष्या दया आदि भाव दुख या सुख देते है। इन सब के होने का कारण अदृष्ट शक्तियाँ हैं; अच्छा या बुरा करना हमारा पुरुषार्थ है । वृक्ष या पशु अपनी प्रकृति के अनुसार बनने की की शक्ति रखते है। मानव अपने पुरुपार्थ से अनेक विचित्र कामो को अदल-बदल के कर सकता है।"
प्रत स्पष्ट है कि परिस्टाटल भी अपने कर्मों के फल को भोगने की बात मानते हैं । यहां यह कहना अनुचित न होगा कि वे ईश्वर को जगत् का कर्ता मानने को तैयार नही और पापपुण्य का फल देने वाला भी। ये विचार जैन दर्शन से मेल खाते है। अरिष्टाटल के दाणेनिक सिद्धान्तो में जैन दर्शन के सिद्धान्तो की विगेप झलक मिलती है।
३७८ ]