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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेममूला भक्ति
डा० प्रेमसागर जैन एम० ए०, पी-एच० डी०, जैन कालेज, बड़ौत
डा० प्रेमसागर जैन, समाज के उदीयमान सिद्धहस्त लेखक है। जैनभक्ति काव्य पर उच्चकोटि का निबन्ध प्रस्तुत करने के कारण आप डाक्टरेट की उपाधि से विभूपित हुए है । जैन कवियो ने विभिन्न विषयो पर रचनाए की है । जन साधारण की वोली मे काव्य-रचना करना जैन साहित्यकार अपना गौरव समझते थे । यही कारण है कि जैन कवियो ने हिन्दी मे अपार जैन साहित्य की रचना की हैं । प्रस्तुत निबन्ध मे इस भाव को सुन्दर ढंग से दर्शाया है कि नारिया प्रेम की प्रतीक होती है, उनका हृदय कोमल और सरस होता है। उसमे प्रेम-भाव को लहलहाने मे देर नही लगती। इसी प्रकार भक्त कान्ता भाव से और भगवान प्रिय रूप से । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियों की रचना मे भी पाया जाता है। विद्वान लेखक ने इस भाव का विस्तार से प्रतिपादन किया है।
भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्विपयक अनुराग है । इसीको शाण्डिल्य ने 'परानुरक्ति ' कहा है ।" परानुरक्ति : गभीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है। चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढे हो जाने को ही 'प्रेम' कहा है। भक्तिरसामृत सिन्धु मे लिखा है, " सम्यड मसृणित स्वान्तो ममत्त्वातिशयोक्ति । भाव स एव सान्द्रात्मा बुधः प्रेम निगद्यते । "
प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक । भगवद्विपयक अनुराग अलीकिक प्रेम के अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान का अवतार मानकर, उसके प्रति लौकिक प्रेम का मी प्रारोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्त्व सदैव छिपा रहता है। इस प्रेम मे समूचा श्रात्म-समर्पण होता है और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती । अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वैध भाव ही मृत हो जाता है, फिर प्रेम के प्रतीकार का भाव कहा रह सकता है ।
नारिया प्रेम की प्रतीक होती है। उनका हृदय एक ऐसा कोमल धोर सरस स्थल है, जिसमे प्रेम भाव को लहलहाने मे देर नही लगती । इसी कारण भक्त भी कान्ताभाव से भगवान की आराधना करने मे अपना अहोभाग्य समझता है । भक्त 'तिया' बनता है और भगवान 'पिय' । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियो की रचनाओ मे भी उपलब्ध होता है । वनारसीदास ने अपने 'अध्यात्म गीत' मे श्रात्मा को नायक और 'सुमति' को उसकी पत्नी बनाया है । पत्नी पति के वियोग मे इस भाति तडफ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति
१ शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, ११२, पृ० १
२ चैतन्य चरितामृत, क्ल्याण, भक्ति प्रक, वर्ष ३२, अक १, पृ० ३३३
३ श्री रूप गोस्वामी, हरिभक्ति रसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्रो सपादित, अच्युत प्रथमाला कार्यालय, काशी, वि० स० १९८८ प्रथम संस्करण, ११४|१
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