________________
सबके प्रिय सबके हितकारी । दुख-सुख सरिस प्रशसा गारी ॥ कहइ सत्य प्रिय वचन विचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥ तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाही । राम बसहु तिनके मन माही | जननी सम जानहि पर नारी । धन पराय विषते विष भारी | जे हरषह पर सम्पति देखी। दुखित होहिं परविपति बिसेखी ॥ जिन्हहिं राम तुम प्रान पियारे । तिन्हके मन सुभ सदन तुम्हारे |
स्वामि सखा पितु मातु गुरू, जिन्हके सब तुम तात । मन-मन्दिर तिन्हके बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात ॥
एकादा व्रत
१. सत्य -- सत्य ही परमेश्वर है । सत्य- आग्रह, सत्य- विचार, सत्य-वारणी और सत्यकर्म ये सब उसके अग है । जहाँ सत्य है, वहाँ शुद्ध ज्ञान है । जहाँ शुद्ध ज्ञान है, वहीं श्रानन्द ही हो सकता है ।
२ अहिंसा - सत्य ही परमेश्वर है । उसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन, अहिंसा है। बगैर अहिसा के सत्य की खोज असम्भव है ।
--
३ ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ब्रह्म की - सत्य की सम्बन्ध रखने वाला श्राचार। इस मूल अर्थ मे से सर्वेन्द्रिय-सयम का केवल जननेन्द्रिय-सयम के अधूरे अर्थ को तो हमे भूल जाना चाहिए ।
खोज मे चर्या, अर्थात् उससे विशेष अर्थ निकलता है ।
४. अस्वाद - मनुष्य जब तक जीभ के रसो को न जीते तबतक ब्रह्मचर्य का पालन प्रति कठिन है। भोजन केवल शरीर-पोषण के लिए हो, स्वाद या भोग के लिए न हो ।
५ श्रस्तेय ( चोरी न करना) – दूसरे की चीज को उसकी इजाजत के बिना लेना तो चोरी है ही, लेकिन मनुष्य अपनी कम से कम जरूरत के अलावा जो कुछ लेता या सग्रह करता है, वह भी चोरी ही है ।
६ परिग्रह- सच्चे सुधार की निशानी परिग्रह- वृद्धि नही बल्कि विचार और इच्छापूर्वक परिग्रह कम करना उसकी निशानी है । ज्यो- ज्यो परिग्रह कम होता है, सुख और सच्चा सन्तोष बढ़ता है, सेवा-शक्ति बढती है ।
७. श्रभय - जो सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-बिरादरी से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से डरे, न बीमारी या मौत से डरे, न किसी के बुरा मानने से डरे ।
८. अस्पृश्यता निवारण - छुआछूत हिन्दू धर्म का अग नही है; इतना ही नही, बल्कि उसमें घुसी हुई सड़न है, बहम है, पाप है और उसका निवारण करना प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, कर्तव्य है ।
९ शरीरश्रम — जिनका शरीर काम कर सकता है, उन स्त्री-पुरुषो को अपना रोजमर्रा का सभी काम, जो खुद कर लेने लायक हो, खुद ही कर लेना चाहिए और बिना कारण दूसरो से सेवा न लेनी चाहिए ।
- ३२७