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सकल लोकमा सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे, वाच काच मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे । समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे, जिल्हा थकी असत्य न बोले, परवन नव झाले हाथ रे । मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना मनमा रे; रामनामशु ताली लागी, सकल तीरथ तेना तनमा रे | वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे; भणे नरसंयो तेनू दरसन करता कुल एकतेर तार्या रे ।
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हरि तुम हरो जन की भीर ।
द्रौपदी की लाज राखी, तुम बढ़ायो चीर । भक्त कारण रूप नरहरि धर्यो आप शरीर । हरिनकश्यप मार लीन्हो घर्यो नाहिन धीर । वूडते गजराज राख्यो, कियो बाहर नीर । दास मीरा लाल गिरधर, दुख जहां तहा पीर ॥ : ३ यदि तोर डाक सुने केउ ना आसे एकला चलो, एकला चलो, यदि केउ कथा ना काय, ओरे ओरे ओो अभागा यदि सवाई थाके सुख फिराये, सवाई करे भयतवे परान खुले
तवे एकला चलो रे. एकला चलो रे !
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श्रो, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला वोलो रे यदि सवाई फिरे जाय, भोरे, चोरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जावार काले केउ फिरे ना जायतव पथेर काटा
जो, तुई रक्त यदि आलो न यदि भातु बादले तवे बच्चानले
माखा चरन तले एकला दलो रे । घरे मोरे, ओरे, श्री अभागा, आधार राते दुआर देय बरे
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राम-सदन
थापन वुकेर पाजर ज्वालिये निये एकल चलो रे ! - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥ जिन्हके कपट दभ नहि माया | तिन्हके हृदय बसहु रघुराया ।।