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के श्लोक ५२, ५७, ६१ और ६४ मे स्वीकार किया है। जैनधर्म आवागमन को मानता है, गीता के अध्याय ४ श्लोक ५ से भी यही बात सिद्ध है। जैनधर्म बताता है कि जो राग-द्वेष से रहित होता है वह वीतरागी कर्म-बन्धन से मुक्त हो शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जैनधर्म के इसी मूल मन्त्र का गोता के प्रध्याय ५ श्लोक, ३ मे वर्णन है । जैनधर्म फल की इच्छा न रखते हुए कार्य करने को कहता है इसी बात को गीता के अध्याय ६ के श्लोक १ मे कहा है कि जो फल न चाहते हुए योग्य कार्य करता है वही योगी तथा सन्यासी है जैनधर्म ससार को अनादि और अनन्त मानता है, यही बात गीता मे स्वीकार करते हुए ससार रूनी प्रश्वत्य वृक्ष अनादि और अनन्त बताया है। जैनधर्म का कहना है कि यह ससार प्रक्रतमय है इसे किसी ईश्वर या भगवान ने नही बनाया, यह जीव स्वय कर्म करता है और स्वय कर्मों का फल प्राप्त करता है। ईश्वर कर्मों के करने और उसका फल देने वाला नही है, यही बात श्रीकृष्ण जी ने गीता के अध्याय ५ के श्लोक १४-१५ मे इस प्रकार कही है:
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्म-फल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । श्रज्ञानेनावृत ज्ञानं तेनुमह्यन्ति जन्तवः ||१५||
महान नैरन्यायिक विद्वान श्री हरिवश शर्मा न्यायशास्त्री ने कई बार इस बात को स्पष्ट स्वीकार किया कि ईश्वर में कर्म दायतत्व की मानता सर्वथा प्रसगत है, अस्तु हम लोग पुरातन सस्कारो से इतने जकडे हुए हुए है कि जानबूझकर भी सबके सामने स्वीकार करने मे असमर्थ है ।" वाराणसी के सुप्रसिद्ध तार्किक विद्वान स्व० प० श्रम्वादास शास्त्री जी का भी यही मत है और ऐसा ही कहा करते थे ।२ वास्तव में बात यह है कि ससार का प्राणी कुकर्म करता हुआ उसके फल की ओर नही देखता और जब उन कर्मों का फल मिलता है तो उस समय उसे यह ज्ञात नही होता कि मुझे किस कर्म का फल मिल रहा है । तब वह सारा भार ईश्वर पर ही देता है और कहता है कि यह सब कुछ भगवान ने किया। कुछ कह कर तो मानव सन्तोष कर ले | इस प्रकार वह अपने सन्तोप की सीमा ईश्वर को बना लेता है। अनासक्त होकर कर्म करने पर जैन धर्म के समान गीता मे जो अधिक जोर दिया है, श्री ताराचन्द पांड्या के शब्दो में यह भी जैनधर्म का ही प्रभाव है 13 गौतम स्वामी ने मगधपति महाराज श्रेणिक के प्रश्नो का उत्तर देते हुए पद्मपुराणजी मे बताया कि जब-जब धर्म को हानि और पाप की बढ़ोतरी होती है तो पाप अन्धकार का नाश करके धर्म का विकास करने को तीर्थंकर प्रगट होते है ।" गीता के अध्याय ४ का सर्वप्रसिद्ध श्लोक ७ भी इसी प्रकार कहता है .
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । श्रभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ (प्र० ४, श्लोक ७)
कहाँ तक दृष्टान्त दिये जावे ' वैदिक विद्वान श्री माधव कृष्णजी भूतपूर्व प्रिंसिपल
१-२ "अहिंसा" जयपुर ( १६ मई १९५६) पृ० ३
३. हिंसा जयपुर (१ फरवरी १९५६) पृ० ७
४. श्री रविसेनाचार्य रचित पद्मपुराण जो की प० दौलतराम जी की टीका, पृ० ४८
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