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हिन्दू धर्म की इन बातो मे से एक भी वात ऐसी नहीं है जो जैन धर्म मे मान्य हो और न जैन धर्म का इस हिन्दू धर्म के उपरोक्त किसी भी भेद-प्रभेद, दर्शन, सम्प्रदाय, उपसम्प्रदाय आदि मे ही समावेश होता है । अतएव हिन्दू धर्म के अनुयायी हिन्दुप्रो का जैन धर्म के अनुयायी जैनो के साथ उसी प्रकार कोई एकत्व नहीं है जैसा कि बौद्धो पारसियो, यहूदियो, ईसाइयो, मुसलमानो, सिक्खो आदि के साथ नहीं है, यद्यपि एतद्देशीयता को एव सामाजिक सम्बन्धी एव ससर्गों की दृष्टि से उन सबकी अपेक्षा भारतवर्ष के जैन एव हिन्दू परस्पर मे सर्वाधिक निकट है । दोनो ही भारत मा के लाल है, दोनो के ही सम्बन्ध सर्वाधिक चिरकालीन है, इन दोनो मे से किसी के भी कभी भी कोई स्वदेश बाह्य (एक्स्ट्रा टेरिटोरियल) स्वार्थ नहीं रहे, जातीय, राष्ट्रीय, राजनैनिक एव भौगोलिक एकत्व दोनो का सदैव से अटूट रहा है, दोनो ही देश की समस्त सम्पत्ति-विपत्तियो मे समान रूप से भागी रहे है और उसके हित एव उत्कर्ष साधन मे समान रूप से साधक रहे है । कतिपय अपवाद्री को छोडकर इन दोनो मे परस्पर सौहार्द भी प्राय. बना ही रहा है।
इस वस्तुस्थिति को सभी विशेपज्ञ विद्वानो ने और राजनीतिज्ञो ने भी समझा है और मान्य किया है । प्रो. रामा स्वामी आयगर के शब्दो मे 'जैन धर्म बौद्ध धर्म अथवा ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) से निसृत तो है ही नहीं, वह भारतवर्ष का सर्वाधिक प्राचीन स्वदेशीय धर्म रहा है (जैन गजट, भा. १६, पृ २१६)। प्रो एफ. डबल्यू टामस के अनुसार 'जैन धर्म ने हिन्दू धर्म के बीच रहते हुए भी प्रारभ से वर्तमान पर्यन्त अपना पृथक एव स्वतन्त्र ससार अक्षुण्ण बनाए रखा है।" (लिगेसी आफ इडिया, पृ २१२) 'कल्चरल हेरिटेन आफ इडिया' सीरीज की प्रथम जिल्द (श्री रामकृष्ण शताब्दी ग्रन्थ) के पृ १८५-१८८ में भी जैन दर्शन का हिन्दू दर्शन जितना प्राचीन एव उससे स्वतत्र होना प्रतिपादित किया है। भारतीय न्यायालयो मे भी हिन्दू-जैन प्रश्न की मीमासा हो चुकी है । मद्राम हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज तया विधान सभा के सदस्य टी एन शेषागिरि अय्यर ने जैन धर्म के वैदिक धर्म जितना प्राचीन होने की सभावना व्यक्त करते हुए यह मत दिया था कि जैन लोग हिन्दू डिसेन्टर्म (हिन्दू धर्म से विरोध के कारण हिन्दुनो मे से ही निकले हुए सम्प्रदायी) नहीं है और यह कि वह इस बात को पूर्णतया प्रमाणित कर सकते है कि सभी जैनी वैश्य नहीं है अपितु उनमे सभी जातियो एव वर्गों के व्यक्ति है। मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जज (प्रधान न्यायाधीग) माननीय कुमारस्वामी शास्त्री के अनुसार "यदि इस प्रश्न का विवेचन किया जाए तो मेरा निर्णय यही होगा कि आधुनिक शोष खोज ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जैन लोग हिन्दू डिसेन्टर्स नहीं है, वल्कि यह कि जैन धर्म का उदय एव इतिहास उन स्मतियो एव टीका ग्रन्थो से बहुत पूर्व का है जिन्हें हिन्दू न्याय (कानून) एव व्यवहार का प्रमाणस्रोत मान्य किया जाता है .. . वस्तुत जैन धर्म उन वेदो की प्रमाणिकता को अमान्य करता है जो हिन्दू धर्म की आधारशिला है, और उन विविध सस्कारो की उपादेयता को भी, जिन्हे हिन्दू अत्यावश्यक मानते है, अस्वीकार करता है।" (आल इडिया लॉ रिपोर्टर, १९२७, मद्रास २२८) और वम्बई हाईकोर्ट के न्यायाधीश रॉगनेकर के निर्णयानुसार "यह वात सत्य है कि जैन जन वेदो के प्राप्तवाक्य होने की बात को अमान्य करते है और मृत व्यक्ति की आत्मा की मुक्ति के लिए किए जाने वाले अन्त्येष्टि सस्कारो,
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