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संस्कृति का गम्भीर अध्ययन एव अन्वैपण भी प्रारम्भ कर दिया था। और शीघ्र ही उन्हे यह स्पष्ट हो गया कि हिन्दुनो और उनके धर्म से स्वतन्त्र भी कुछ धर्म और उनके अनुयायी इस देश मे है, और वे भी प्राय उतने ही प्राचीन एव महत्वपूर्ण है भले ही वर्तमान में वे अत्यधिक अल्पसख्यक हो । १९वी गती के प्रारम्भ मे ही कोलवुक, दुवाय, टाड, फर्लाग, मेकेन्जी, विल्सन प्रादि प्राच्य विदी ने इस तथ्य को भली प्रकार समझ लिया था और प्रकाशित कर दिया था। फिर तो जमे जैसे अध्ययन वढता चला गया यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली गई । इन प्रारभिक प्राच्यविदो ने कई प्रसगो मे ब्राह्मणादि कथित हिन्दुओ के तीव्र जैन विद्वेप को भी लक्षित किया। १९वी शती के उत्तराध मे उत्तर भारत के अनेक नगरी मे जैनो के रथ यात्रा आदि धर्मोत्सवी का जो तीव्र विरोध कथित हिन्दुनो द्वारा हुआ वह भी सर्वविदित है । गत दर्शकों मे यह गांव, जवलपुर आदि मे जैनो पर जो साम्प्रदायिक अत्याचार हुए और वर्तमान में विजोलिया मे जो उत्पात चल रहे है उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । हिन्दू महासभा मे जैनो के स्वत्त्वों की सुरक्षा की व्यवस्था होती तो जैन महासभा की स्थापना की कदाचित आवश्यकता न होती। आर्यसमाज सस्थापक स्वामी दयानन्द ने जैन धर्म और जैनो का उन्हें हिन्दूविरोधी कहकर खडन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक सव या जनसघ मे भी वही सकीर्ण हिन्दू साम्प्रदायिक मनोवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । स्वामी करपात्री जो प्रादि वर्तमान कालीन हिन्दूधर्म नेता भी हिन्दू धर्म का अर्थ वैदिक धर्म अथवा उससे निसृत शंव वैष्णवादि सम्प्रदाय ही करते है । अंग्रेजी कोप ग्रन्णे मे भी हिन्दूइज्म (हिन्दू धर्म) का अर्थ ब्रह्मानिज्म (ब्राह्मण धर्म) ही किया गया है।
इस प्रकार मूल वैदिक धर्म तथा वैदिक परम्परा मे ही समय-समय पर उत्पन्न होते रहने वाले अनगिनत अवान्तर भेद प्रभेद, यथा याज्ञिक कर्मकाण्ड और औपनिषदिक अध्यात्मवाद, श्रीत और रमातं, साख्य-योग-वैशेपिक-न्याय-मीमासा-वेदान्त मादि तयार थित आस्तिक दर्शन और वाहस्परस-लोकायत वा चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन, भागवत एवं पाशुपत जैसे प्रारम्भिक पौराणिक सम्प्रदाय और जैव-गाक्त-वैष्णवादि उत्तरकालीन पौराणिक सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायो के भी अनेक उपसम्प्रदाय, पूर्वमध्यकालीन सिद्धो और जोगियो के पन्थ जिनमे तान्त्रिक, अघोरी और वाममार्गी भी सम्मिलित है, मध्यकालीन निर्गुण एवं सगुण सन्त परम्पराएं, आधुनिकयुगीन आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, राधास्वामी मत आदि तथा असख्य देवी-देवतामो की पूजा भक्ति जिनमे नाग, वृक्ष, ग्राम्यदेवता, वनदेवता, प्रादि भी सम्मिलित है, नाना प्रकार के अन्धविश्वास, जादू-टोना, इत्यादि-में से प्रत्येक भी और ये सब मिलकर भी 'हिन्दूधर्म' सना से मूचित होते हैं । इस हिन्दू धर्म की प्रमुख विशेषताएँ है ऋग्वेदादि ब्राह्मणीय वेदो को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, पालनकर्ता और हर्ता मानना, अवतारवाद मे आस्था रखना, वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एव ब्राह्मण का देवता तुत्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियो को व्यक्तिगत एव सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार करना, महाभारत, रामायण एव ब्राह्मणीय पुराणो को धर्मशास्त्र मानना, मृत पित्री का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान को पुण्य मानना, विशिष्ट देवतारो को हिंसक पशुवलि-कभी भी नरवलि भी देना, इत्यादि ।
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