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ग्रन्थ मे उसका सर्वप्रथम उल्लेख हुमा बताया जाता है। उसमे सिन्धुनद के लिए 'शिन्तु' शब्द प्रयुक्त हुआ है और यहाँ के निवासियो के लिए 'युप्रान्तु' अथवा 'यिन्तु', कालान्तर मे 'ध्यान्तु'शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
सातवी शताब्दी ई. से मुसलमान अरब इस देश मे आने प्रारम्भ हुए और वे ईरानियो के आक्रमण से इमे 'हिन्द' और इसके निवासियो को पहले हिन्द कहने लगे। दसवी शताब्दी के अन्त मे अफगानिस्तान को केन्द्र बनाकर तुर्क मुसलमानो का साम्राज्य स्थापित हुआ और वे गजनी के सुलतानो के रूप में भारतवर्ष पर लुटेरे आक्रमण करने लगे। तुर्की का मूलस्थान चीन की पश्चिमी सीमा पर था और भारत एव चीन के बीच यातायात प्राय उन्ही के देश मे होकर होता था। यह तुर्क लोग मुसलमान बनने के पूर्व चिरकाल तक बौद्धादि भारतीय धर्मों के अनुयायी रहे थे अतएव दसवी-ग्यारहवी शताब्दी मे जब वे भारतवर्ष के सम्पर्क में पाये तो चीनी, अरबी एव फारसी मित्र प्रभाव के कारण वे इस देश को हिन्दुस्तान, यहाँ के निवासियो को हिन्दू और यहाँ की भाषा को हिन्दवी कहने लगे। मध्यकाल के लगभग ७०० वर्ष के मुसलमानी शासन में ये शब्द प्राय व्यापक रूप से प्रचलित हो गये।
यह मुसलमान लोग समस्त मुसल्मानेतर भारतीयो को, जो कि यहाँ के प्राचीन निवासी ये सामान्यत स्थूल रूप से हिन्दू या अहले हनूद और उनके धर्म को हिन्दू मजहब कहते रहे है, वैसे उनके कोप मे काफिर, जिम्मी, बुतपरस्त, दोजखी आदि अन्य अनेक सुशब्द भी थे जिन्हें वे भारतीयो के लिए बहुधा प्रयुक्त करते थे, हिन्दू शब्द का एक अर्थ वे 'चोर' भी करते थे। ये कथित हिन्दू एक ही धर्म के अनुयायी है या एकाधिक परस्पर मे स्वतन्त्र धार्मिक परम्पराम्रो के अनुयायी है इसमे औसत मुसलमान की कोई दिलचस्पी नही थी, उसके लिए तो वे सब समान रूप से काफिर, बुतपरस्त, जाहिल और वेईमान थे। स्वय भारतीयो को भी उन्हें यह तथ्य जानने की मावश्यकता नहीं थी क्योकि उनके लिए प्राय सभी मुसलमान विधर्मी थे। किन्तु मुसलमानो मे जो उदार विद्वान और जिज्ञासु थे यदि उन्होने भारतीय समाज का कुछ गहरा अध्ययन किया था प्रशासकीय सयोगो से किन्ही ऐसे तथ्यों के सम्पर्क मे आए तो उन्होंने सहज ही यह भी लक्ष्य कर लिया कि इन कथित हिन्दुओ मे एक-दूसरे से स्वतन्त्र कई धार्मिक परम्पराएं है और अनुयायियो की पृथक पृथक सुसगठित समाणे है। ऐसे विद्वानो ने या दर्शको ने कथित हिन्दू समूह के बीच में जैनो की स्पष्ट सत्ता को बहुधा पहचान लिया। मुसलमान लेखको के समानी, तायसी, सयूरगान, सरापोगान, सेवडे आदि जिन्हे उन्होने ब्राह्मण धर्म के अनुयायियो से पृथक पृथक सूचित किया है जैन ही थे। अबुलफजल ने तो पाईने अकबरी मे जैन धर्म और उसके अनुयायियो का हिन्दू धर्म एव उसके अनुयायियो से सर्वथा स्वतन्त्र एक प्राचीन परम्परा के रूप में विस्तृत वर्णन किया है।
जब अग्रेज भारत मे आये तो उन्होने भी प्रारभिक मुसलमानो की भांति स्वभावतः तथा उन्ही का अनुकरण करते हुए, समस्त मुसलमानेतर भारतीयो (इण्डियन्स) को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दूइज्म समझा और कहा। किन्तु १८वी शती के अन्तिमपाद मे ही उन्होने भारतीय
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