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परमात्म पुराण इनकी स्वतन्त्र गद्य-रचनाएँ हैं, जिनमे प्रात्म-तत्व का निरूपण है। दीपचन्द की शैली उपदेश-प्रधान है । वाक्य छोटे-छोटे है । भाषा मुहावरेदार तथा पालकारिक है।
६. बुधजन-दास्य भक्त के रूप मे वैष्णव भक्ति काव्य मे जो स्थान तुलसी का है वही जैन काव्य मे बुधजन का; जिस प्रकार नीतिपरक उक्तियां कहने से जो प्रसिद्धि रहीम व वृन्द को मिली है उसी के अधिकारी कवि वुधजन भी है। परम भक्त और नीतिकार बुधजन जयपुर में निहालचन्द्र बज के यहाँ उत्पन्न हुए थे। इनके गुरु मागीलाल थे। बुधजन दीवान अमरचन्द के यहा मुख्य मुनीम थे। कवि के दूसरे नाम 'भदीचन्द्र' के नाम पर दीवानजी ने जयपुर में एक जैन मन्दिर बनवाया जो अब तक विद्यमान है। बुधजन के मुख्य काव्य-प्रन्थ 'बुधजन सतसई' और 'पद सग्रह' है। अन्य रचनाएं जैन दर्शन सम्बन्धी तथा पचास्तिकाय, योगसार, तत्वार्थ सूत्र के अनुवाद प्रादि हैं। बुधजन के २४३ पदो मे भक्ति प्रधान है तया बुधजन सतसई के दोहो. मैं नीति ।
१०. जयचन्द्र-जयचन्द्र का जन्म फागी ग्राम के मोतीराम छाबड़ा के यहाँ हुमा । ११वर्ष की अवस्था मे ही जिन-शासन मे चलने की सुबुद्धि पाकर ये जयपुर आ गये जहां इन्होने अनेक विद्वानो का सत्सग एव जैन शास्त्रो का गम्भीर अध्ययन व मनन किया । जयचन्द ज्ञानी, उपदेशक, चरित्रवान तथा आध्यात्मिक पुरुष थे। संवत् १८८१-८२ मे इनकी मृत्यु हुई। जयचन्द्र गद्यकार और कवि दोनो है। जयचन्द ने सर्वार्थसिद्धि, प्रमेय रलमाला, द्रव्य सग्रह, स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, समयसार, अष्ट पाहुड, आप्तमीमासा, परीक्षामुख, ज्ञानार्णव मादि १७ ग्रन्थो की वचनिकाए लिखी। जयचन्द्र के २४६ भक्तिपरक पदो में तीर्थङ्करो की महिमा का गान अधिक है तथा अपने अवगुण व सासारिक कष्टो का वर्णन अपेक्षाकृत थोडा।
११. सदासुखवास-इनका जन्म जयपुर के प्रसिद्ध 'डेडराज' घराने मे सवत् १८५२ में हुआ । इनके पिता दुलीचन्द कासलीवाल थे । सदासुखदास बढे सत्सगी, ज्ञानी, धर्मात्मा व निस्वार्थ उपकारी थे। इनकी मृत्यु पुत्र-वियोग के कारण सवत् १९२३-२४ मे हुई। सदासुखदास ने सात ग्रन्थो की वचनिकाएं लिखी-भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र, मृत्यु-महोत्सव, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अलकार स्तोत्र, समयसार नाटक, नित्य नियम बूजा।
१२ सुजानमल-ये जयपुर नगर के प्रसिद्ध जौहरी ताराचन्द सेठिया के यहा स० १८६६ को उत्पन्न हुए थे। इनके तीन छोटे भाई व एक दत्तक पुत्र जवाहरमल थे। सुजानमल ने श्वेताम्बर मुनि विनयचन्द महाराज से स० १९५१ मे दीक्षा ग्रहण की। सुजानमल की मृत्यु स० १९६८ मे हुई । सुजानमल के ४०० पद सुने जाते है किन्तु अभी तक उपलब्ध केवल १६५ पद ही 'सुजान पद वाटिका' के नाम से प्रकाशित है। इनका पद सग्रह तीन भागो मे विभाजित किया गया है। स्तुतियां, उपदेश और चरित्र कथाए। सुजानमल ने यद्यपि सभी तीर्थवरो के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है किन्तु पार्श्वनाथ के प्रति उनका अधिक अनुराग है
मेरे प्रभु पार्श्वनाथ दूसरो न कोई ।
अश्वसेन तात त्रामा सुत सोई । ३८८]