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१३. जडावकुवारि-हिन्दी काव्य के विकास मे अन्य कवित्रियो की तरह जन कवित्रियो ने भी महत्वपूर्ण योगदान किया। यद्यपि कुशलाजी भूरि सुन्दरी आदि कई जन कवित्रियां हुई किन्तु उनमे जडावकुवरि का स्थान सर्वोच्च है । वाल्यावस्था में विधवा हो जाने के कारण संसार से विरक्ति अनुभव कर २४ वर्ष की अवस्था मै स. १९२२ मे इन्होने श्री रंभाजी से दीक्षा ग्रहण की। जहावकुवरि यद्यपि जोधपुर, वीकानेर आदि स्थानो मे भी रही किन्तु सवत् १९५० के बाद नेत्र-ज्योति क्षीण हो जाने के कारण इन्होने अपना स्थान जयपुर ही धना लिया। सं० १९७२ मे इनकी मृत्यु हुई। जडावकुवरि के पद 'स्तवनावली' के नाम से प्रकाशित है। इनमे कथा, अध्यात्म के अतिरिक्त जिन-स्तवन और उपदेश की अच्छी रचनाएं है ।
यहा जयपुर के जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए स्थानाभाव के कारण प्रतिनिधि साहित्यकारो की चर्चा हुई है। नवल, माणिक, उदयचन्द, मन्नालाल, पन्नालाल अनेक साहित्यकार ऐसे हैं जिन्होने जयपुर की धरा पर अवतीर्ण होकर अपने प्रथ-रलो से मां भारती के विशाल भण्डार को भरा है।
जैन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ
प्रो० दरबारीलाल जैन कोठिया एम० ए०, न्यायाचार्य, प्राध्यापक, काशी विश्वविद्यालय, काशी तज्जयति पर ज्योति सम समस्तैरनन्तपर्याय ।। दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
-अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसियुपाय' पृष्ठभूमि :
भारतीय दर्शनो मे चार्वाक और मीमासक इन दो दर्शनो को छोड़कर शेष सभी (न्यायवैशेषिक, साख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञता की सम्भावना करते तथा युक्तियो द्वारा उसकी स्थापना करते है। साथ ही उसके सद्भाव मै पागम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रा में उपस्थित करते है। सर्वज्ञता के निषेध में चार्वाकदर्शन का दृष्टिकोण .
चार्वाकदर्शन का दृष्टिकोण है कि 'यदृश्यते तद् अस्ति, यन्न दृश्यते तन्नास्ति' अर्थात् इन्द्रियो से जो दिखे वह है और जो न दिले वह नहीं है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार भूत-तत्त्व ही दिखाई देते है, प्रत वे है। पर उनके अतिरिक्त कोई अतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टि-गोचर नहीं होता । प्रत वे नही है। सर्वज्ञता किसी भी पुरुप मे इन्द्रियो द्वारा जात नही है और प्रजात
१. तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्ग-देवतापूर्व-प्रत्यक्षीकरणे क्षम.॥
-भट्ट कुमारिल के नाम से वृहत्सवंतसिद्धि में उद्धृत
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