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शादी की वे सब सुखी है। सब भाराम मे है। मुझे तो वेफिक्र कर गए। मेरी भगवान से हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि उनको महान आत्मा को शान्ति दे ।
समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास
अन्तिम समय के ७ वजे थे । धर्मं पढना शुरू किया। जब तक प्राण निकले पढते ही रहे । श्रोरो से कहते तुम भी पढो । ध्यान लगाए बैठे रहे । जब तीन बजे तो और भी सचेत होकर आसन लगाकर सामने महावीर स्वामी का फोटो था । उसपर दृष्टि लगा ली। पद्मासन लगाकर बैठ गए । जल्दी जल्दी णमोकार मंत्र पढने लगे जैसे समय कम हो जाय पूरा करना हो । प्राणान्त के समय हिचकी आना, कठ मे कफ बोलना, श्राखो मे आसू आना, किसी से मोह, किसी से कहना - सुनना, आदि उस समय की त्रियाएं कुछ भी नही हुई । आत्मा के ध्यान मे मग्न | चेहरे पर अपूर्व तेज झलक रहा था । ऐसी उत्तम दशा उन्ही पुरुषो की होती है जिनका जीवन दूसरो के लिए होता है । यह उनके पुण्य का उदय कहिए या शुभ भावना का फल कहिए । स्त्री के लिए पति का अन्त समय देखकर कितनी भी धीरज वाली स्त्री हो, घबरा उठती है । लेकिन उनकी पुण्य प्रकृति इतनी प्रबल थी कि मैं किसी को हाय तक नहीं करने दूं । रोने का समय बहुत है । ध्यान न डिग जाय इसलिए किसी को चूं तक नही करने दी ।
अपना अन्तिम समय धमंध्यान और मल्लेखनापूर्वक व्यतीत किया । श्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि
अन्त. क्रियाधिकरण, तप फलं सकलदर्शन. स्तुवते, तस्माद्यावद्विभव, समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।
सर्वज्ञदेव सन्यास धारण करने को तप का फल कहते है । इसलिए जब तक शरीररूपी ऐश्वर्य हो तब तक यथाशक्ति समाधिमरण में प्रकृष्ट यत्न करना चाहिए ।
उनके जीवन को धन्य है जो उन्होने समाधिपूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया है । में श्री जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो ।
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सुलभ मार्गी
धर्मपत्नी रायबहादुर बा०
श्रीमती सुशीलादेवी सुलतानसिहजी जैन कश्मीरी गेट, दिल्ली
लाला तनसुखरायजी जैन समाज के एक ऐसे समाज सेवक हुए जिनमे लोकसेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी । देशप्रेम से उनका हृदय लबालब भरा था । राष्ट्रीय और धार्मिक कार्यों मे सदैव तत्पर रहते थे। जैन धर्म की सेवा के लिए वे ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहते थे जिससे धर्म का मार्ग सबके लिये सुलभ हो जाए। उन्होंने समाज की वडी सेवा की ।
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