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हत रूढियो को धर्म का रूपक बनाया आज है।
फमकर उसीमे जाति भी अब हो रही मुहताज है ॥५॥ हा | न्याय-नीति नियम नशाकर घोर हटधर्मी बने। परिणत किया जिन धर्म को सन्ताप शापो मे सने । सुनते न क्यो कहते यदपि उत्थान की निज वार्ता ।
भावी समुन्नति के लिए मन में न नेक उदारता || सोये बहुत हे वन्धुओ । अब शीघ्र ही जागो, उठो। अज्ञान निद्रा मोह कल्मष द्वेष को त्यागो उठो । इससे अधिक कुछ और मुझको आपसे कहना नही ।
श्रम से हमारी जाति उन्नति शीघ्र पा सकती सही ॥७॥
पूज्य पिता की जय जय जय जय जय महाघोप से गूजी, दशा दिशाये विश्व महान । पुण्य नीद से चकित इन्द्र ने, सुना श्री जिनवर का गान ॥ दिग्गज कॅप और दिगपालो ने, गुण-गौरव गान किये। पुण्यवान सर सेठ हुकमचन्द, युग-युग सौ-सौ वर्ष जिये । नेत्रहीन दीपक दिखलावे, जगमग दीपक वाले को। और पंगु यदि छूना चाहे, रजत ज्योति उजियाले को । नम के तारे गिन जाने का, पूर्ण हो सके यदि विज्ञान । तो शायद कोई कर पाये, पूज्य पिताश्री का गुणगान ।। किन्तु स्वय की लौह लेखनी, पर मेरा अधिकार नहीं। मही पूर्ण होगी यश गाथा, मौन रहूं स्वीकार नही ।। रोम-रोम पुलकित है मेरा, मेरा मुझे अपना भी भान । गाजे अपनी हृदय वीन पर, पूज्य पिताश्री का यशगान ।। त्याग किया जिसने इस जग मे, उसकी कीर्ति ध्वजा फहरी। राग और वैराग सभी ले, जिनकी जयति व्वजा लहरी ।। महिमामय कर्तव्यशील, औदार्य दुन्दुभी बाज रही। सहनशीलता, गुणग्राहकता गजारूढ हो गाज रही।
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