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धन-वैभव की जिस श्रांधी से, अस्थिर सब संसार ।
उससे भी न कभी डिग पावे, मन वन जाय पहार || मुझे० ॥ असफलता की चोटो से नहि, दिल मे पडे दरार ।
अधिकाधिक उत्साहित होऊ, मानू कभी न हार ॥ मुझे० ॥ दुख-दरिद्रता - कृत अति श्रम से तन होवे बेकार ।
तो भी कभी निरुद्यम हो नहि, बैठूं जगदाधार । मुझे० ॥ जिसके प्रागे तन वल धन बल, तृणवत तुच्छ असार । महावीर जिन ! वही मनोबल, महामहिम सुखकार | मुझे० ॥
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समाज
पाठक अहिसा धर्म पर स्थित धर्म की भोत है । करना दया जी मात्र पर यह जैन धर्म पुनीत है ||
निज की दशा उल्लेख मे यह लेखनी बन कर्कशा ।
कैसे लिखे निज की घृणा मय दुखप्रद हा दुर्दशा ||१||
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जैसा अहिसा धर्म निज वक्तव्य मे रहता यहाँ । वैसा अहिंसा धर्म हा । कर्तव्य मे रहता कहाँ ? जल छानने मे बस समक्ष रक्खा महिला धर्म है । करते कुठाराघात नर पर हाय । कैसा कर्म है ॥२॥
श्रीमान् होकर हम अविद्या अन्धता के दास है ।
परमार्थ से प्रति दूर होकर स्वार्थता के पास है || निज पूजते है पीर पैगम्बर कुगुरु हित जान के ।
श्रद्धा हटी निज धर्म से मिथ्यात्व मग को मान के || ३ ||
उपहास मस्तक का हुआ जिससे न समझे तत्व को । हटग्राहिता धारण करे छोडा धवल सम्यक्त्व को ॥ होकर कलकी धर्म को हमने कलकित कर दिया |
वर्ण अनुपम में सदा को पाप अकित कर दिया ॥४॥
हम-सी अधम सन्तान से सद्धर्म- दीपक बुझ चला ।
श्रावक न होते और कुछ होते तभी होता भला ॥