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________________ सद्धर्म सन्देश मन्दाकिनी दया की जिसने यहाँ बहाई, हिंसा कठोरता की, कीचड़ थी धो बहाई । समता-सुमित्रता का ऐसा अमृत पिलाया, द्वषादि रोग भागे, मद का पता न पाया। उस ही महान प्रभु के, तुम हो सभी उपासक, उस वीर धीर जिनके सद्धर्म के प्रचारक । अतएव तुम भी वैसे बनने का ध्यान रक्खो, आवर्ण भी उसी का, आँखो के आगे रक्खो ।। सकीर्णता हटामो, दिल को बड़ा बनामो,निज कार्य-क्षेत्र की प्रव, सीमा को कुछ वढामो। सब ही को अपना समझो, सबको सुखी बनादो, औरो के हेतु अपने, प्रिय प्राण भी लगा दो। ऊंचा उदार पावन, सुख-शाति पूर्ण प्यारा । यह धर्म वृक्ष सवका, निजका नहीं तुम्हारा ।। रोको न तुम किसी को, छाया मे बैठने दो । कुल जाति कोई भी हो, सताप मेटने दो। जो चाहता हो अपना, कल्याण मित्र ! करना जगदेक बन्धु जिनकी, पूजा पवित्र करना। दिल खोल करके उसको, करने दो कोई भी हो, फलते है भाव सबके, कुल-जाति कोई भी हो। सतुष्टि शाति सच्ची, होती है ऐसी जिससे,ऐहिक-क्षुधा पिपासा, रहती है फिर नजिससे। वह है प्रसाद प्रभु का, पुस्तक-स्वरूप इसको, सुख चाहते सभी है, चखने दो चाहे जिसको । यूरुप अमेरिकादिक, सारे ही देश वाले, अधिकारी इसके सब है, मानव सफेद काले। अतएव कर सके वे, उपभोग जिस तरह से, यह बाँट दीजिए उन, सबको ही उस तरह से ।। ऐ धर्मरल धनिको । भगवान की प्रमानत, हो सावधान सुन लो, करना नहीं खयानत। दे दो प्रसन्न मन से, यह वक्त आ गया है, इस ओर सब जगत का, अव ध्यान जा रहा है। कर्तव्य का समय है, निश्चित हो न बैठो, थोथी बडाइयो मे, उन्मत्त हो न ऐंठो। सद्धर्म का सदेशा, प्रत्येक नारि-नर मे; सर्वस्व भी लगा कर फैला दो विश्व भर मै॥ प्रार्थना मुझे है स्वामी उस बल की दरकार । पड़ी खडी हो अमित अडचने, आड़ी अटल अपार । तो भी कभी निराश निगोडी, पटक न पावे द्वार ।। मुझे० ।। सारा ही ससार करे यदि, दुर्व्यवहार-प्रहार। . हटे न तो भी सत्य मार्ग-गत, श्रद्धा किमी प्रकार ।। मुझे० ॥ [२३१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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