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हम और हमारे पूर्वज जैसे हमारे पूज्य थे उनकी न हम में गन्ध है। रहते हुए सम्बन्ध भी उनसे न अब सम्बन्ध है । वे कौन थे क्या कर गये इसको भुलाया सर्वथा। आडम्बरो ने प्राण' तो हमको लुभाया सर्वथा ॥१॥ उनकी कथाओं पर कभी विश्वास भी आता नही। उनका सुखद वह नाम भी अब कान को भाता नही ।। उनके अलौकिक कार्य को हम आज मिथ्या मानते । अपने हिताहित को तनिक भी हम नही पहचानते ॥२॥ पूर्वज प्रबल रणवीर थे तो आज हम गृहवीर है । वे क्षीर थे विख्यात तो हम आज खारे नीर है। जीवन बिताते थे सकल अपना परम पुरुषार्थ मे। हम भी बिताते आज जीवन को यहाँ पर-स्वार्थ मे ।।३।। वे चाहते थे लोक में सबका सतत उपकार हो। हम चाहते है एकदम सबका महासहार हो । उनके सदा इच्छा रही नित दूसरे उन्नत बने । लिप्सा हमारी है यही नित दूसरे अवनत बने ॥४॥ वे थे जगत के रत्न अनुपम हम न पद की धूल है। वे फूल थे मकरन्दयुत पर हम न किंशुक फूल है ॥
लोक्य के वे चन्द्रमा थे पर न हम नक्षत्र है। पूर्वज हमारे प्रेम से पुजते रहे सर्वत्र है ॥५॥
विचार के अनुरूप ही आचार बनता है अथवा विचार ही स्वय आचार का रूप लेता है।
आचार-शुद्धि की आवश्यकता है, उनके लिए विचार-क्रान्ति चाहिए। उसके लिए सही दिशा मे गति, और गति के लिए जागरण अपेक्षित है ।
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लाला तनसुखराय जी को ये कविताये और भजन अत्यत प्रिय थे । वे इन कवितामो से प्रकाश ग्रहण करते थे। उन्होने अपने हाथ से लिखकर इन सब कविताओ को बड़े प्रेम से सजोकर रक्खा था। २३०॥