________________
फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने
जिन धर्म का डका आलम मे वजवा दिया वीर जिनेश्वर ने। सुख-शाति से रहना दुनिया को सिखला दिया वीर जिनेश्वर ने ॥१॥
अपना गौरव अपना जलवा दिखला दिया वीर जिनेश्वर ने । हा मृग केहरि को एक जगह विठला दिया वीर जिनेश्वर ने ।।२।।
यज्ञो मे गूगे मूक पशू जव लाखो मारे जाते थे । हिंसा से बढकर पाप नही फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥३॥
जब जीव हुए थे धर्मभ्रष्ट तव पापो की वन आई थी।
चुगल से इनके जीवो को छुड़वा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥४॥ मिथ्यात्व का खण्डन कर डाला अभिमान का मर्दन कर डाला। गौतम जैसे गणधर को परचा लिया वीर जिनेश्वर ने ॥१॥
हृदय मे जिनके राग-द्वेष की अग्नि सदा ही जलती थी। जग तजो द्वेप तब मोक्ष मिले फर्मा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥६॥
ऐ 'दास' हकीकत दुनिया की दम भर में हुई सब हमको प्रया । जो राज था आखों-आखो मे समझा दिया वीर जिनेश्वर ने ॥७॥
-
-
स्वार्थ
खिल-खिल कलियां मन को हरती, मन्द-मन्द मुसकाती है। अपनी सुन्दर छटा दिखा कर, मौरो को ललचाती है।। देख ऊपरी सुन्दरता को, भौरे नही ललचते है। मधु पाकर ही मधुप मनोहर, कलियो को मा छलते है ।
कैसा सुन्दर मधुर स्वार्थ है, मीठा रस इसमे रहता। स्वार्थ हेतु कट जाय शीश भी, तो भी नर इसको गहता ।। प्यारे भाई ! स्वार्थ-प्रस्त नर, सविवाद के योग्य नहीं। दुख-ही-दुख है स्वार्थ समर में, सुख की मात्रा कही नही ।।
[ २०३