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परम्परा ने दिया, जितनी लगन से इसने उस विषय मे काम किया, इसका परिणाम ममस्त ऐति. हासिक युग मे यह रहा है कि जहाँ-जहाँ और जव-जव जेनो का प्रभाव रहा वहाँ सर्वत्र आम जनता पर प्राणि-रक्षा का प्रबल सस्कार पडा है । यहा तक कि भारत के अनेक भागो मे अपने को अर्जन कहने वाले तथा जैन-विरोधी समझने वाले साधारण लोग भी जीवमात्र की हिसा से नफरत करते लगे है । अहिंसा के इस सामान्य सस्कार के ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर परम्पराओ के आचार-विचार पुरातन वैदिक परम्परा से सर्वथा भिन्न हो गये है । तपस्या के बारे में भी ऐसा ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थी सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक झुकते रहे है । सामान्य रूप से साधारण जनता जैनो की तपस्या की भोर पादरशील रही है । लोकमान्य तिलक ने ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तो मे जो प्राणि-रक्षा और निरामिष भोजन का आग्रह है वह जैन परम्परा का ही प्रभाव है।
जैनधर्म का आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम वगाल है । सभव है कि बगाल मे एक समय बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैनधर्म का विशेष प्रचार था । परन्तु क्रमश जैनधर्म के लुप्त हो जाने पर बौद्ध ने उसका स्थान ग्रहण किया । बगाल के पश्चिमी हिस्से मे स्थित सराक' जाति भावको की पूर्व स्मृति कराती है । अब भी बहुत से जैन मन्दिरो के ध्वसावशेष, जैन-मूर्तिया, शिलालेख आदि जैन स्मृतिचिन्ह बगाल के भिन्न-भिन्न भागो में पाये जाते है।
प्रोफेसर सिलवन लेवी लिखते है कि-"बौद्धधर्म जिस तरह आकुठित भाव से भारत के बाहर और अन्दर प्रसारित हो सका, उस तरह जैनधर्म नहीं । दोनो धर्मों का उत्पत्ति स्थान एक होते हुए भी यह परिणाम निकला कि बौद्धधर्म प्रतिष्ठित हुआ । पूर्व भारत में, और जैनधर्म पश्चिम तथा दक्षिण भारत मे । बौद्धधर्म भारत के अतिरिक्त पूर्व दिशा मे बर्मा, श्याम, चीन आदि देशो में फैला और उसने इन सब दिशामो से भारत को सम्भावित राजनैतिक विपत्तियो से उम्मुक्त किया । यदि जैनधर्म भी इसी तरह भारत से बाहर पश्चिमी देशो की ओर फैला होता तो शायद भारत अनेक राजनैतिक दुर्गतियो से बच गया होता।"
____ इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है उनसे यह स्पष्ट है कि ईसवी सन् की पहली शताब्दी मे और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्यपूर्व के देशो मे किसी-न-किसी रूप मे यहूदी-धर्म, ईसाई-धर्म और इस्लाम को प्रभावित करता रहा है।
प्रसिद्ध जर्मन इतिहासलेखक वान क्रेमर के अनुसार मध्यपूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रन्श है। इतिहासलेखक जी एफ मूर लिखता है कि-"हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व ईराक, श्याम और फिलस्तीन मे जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकडो की संख्या मे चारो ओर फैले हुए थे । पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथोपिया के पहाडो
और जगलो मे उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे। ये साधु वस्त्रो तक का परित्याग किए हुए थे।
इन साघुरो के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियो पर विशेषरूप से पडा। इन आदर्शों का पालन करने वालो की, यहूदियो मे, एक खास जमात बन गई को 'एप्सिनी' कहलाती