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'मझिम निकाय' मे चार प्रकार के तपो का आचरण करने का वर्णन मिलता हैतपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्ता । नमै रहना, अंजलि मे ही भिक्षान्न मांगकर खाना, वाल तोड कर निकालना, कांटो की शैया पर लेटना इत्यादि । देहदड के प्रकारों को तपस्वित कहते थे। कई वर्ष की धूल वैसी ही शरीर पर पड़ी रहे, इमे रूक्षता कहते थे । पानी की बूंद तक पर भी दया करना इसको जुगुप्सा कहते थे। जुगुप्सा अर्थात हिंसा का तिरस्कार । जगल में अपने रहने को प्रविविक्तता कहते थे।
तपश्चरण की उपरोक्त विधि से सप्ट है कि लोग अहिंसा तथा दया को तपस्या केन्द्र बिन्दु मानते थे।
अधिकतर पाश्चात्य पडितो का यह मत है कि जैनो के तेईसवे तीर्थकर पार्व ऐतिहासिक व्यक्ति थे । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चौवीसवें तीर्थकर वर्षमान के १७८ वर्ष पूर्व पार्श्व तीर्थकर का परिनिर्वाण हुआ।
यह बात भी इतिहास सिद्ध है कि वर्षमान तीर्थकर और गौतम बुद्ध समकालीन थे। बुद्ध का जन्म वर्धमान के जन्म से कम से कम १५ वर्ष वाद हुआ होगा। इसका अर्थ यह हुमा कि बुद्ध के जन्म तथा पार्श्व के परिनिर्वाण मे १९३ वर्ष का अन्तर था। निर्वाण के पूर्व लगभग ५० वर्ष तो पावं तीर्थकर उपदेश देते रहे होंगे। इस प्रकार बुद्ध के जन्म के लगभग २४३ वर्प पावं मुनि ने उपदेश देने का कार्य प्रारम्भ किया होगा। निर्ग्रन्य श्रवणो का मघ भी उन्होने स्थापित किया होगा।
परीक्षित राजा के राज्यकाल से कुरुक्षेत्र में वैदिक संस्कृति का आगमन हुमा । उसके वाद जन्मेजय गद्दी पर आया। उसने कुरु देश में महायज्ञ करके वैदिक धर्म का झंडा फहराया। इसी समय काशी देश मे पाच तीर्थकर एक नयी सस्कृति की नीव डाल रहे थे। पावं का जन्म वाराणसी नगर में अश्वसेन नामक राजा की वामा नामक रानी से हुआ। पाश्व का धर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह इन चार यम का था । इतने प्राचीन काल में अहिंमा को इतना सुसम्बद्धरूप देने का यह पहला ही उदाहरण है।
पार्व मुनि ने एक बात और भी की । उन्होंने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीन नियमो के साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो अहिंसा ऋषि-मुनियो के व्यक्तिगत आचरण तक ही सीमित थी और जनता के व्यवहार में जिमका कोई स्थान न था वह अब इन नियमो के कारण सामाजिक एवं व्यवहारिक हो गई।
पार्श्व तीर्थकर ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए मथ बनाया। बौद्ध साहित्य से हमें इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के नस्य जो संघ विद्यमान थे, उन सवो मे जैन साधु-साध्वियो का संघ सबसे बड़ा था। उपयुक्त वर्णन से मासूम होगा कि ऋषिमुनियो की तपश्चर्यारूपी अहिंसा से पाश्र्व मुनि की लोकोपकारी अहिता का उद्गम हुमा ।
लोकोपकारी अहिंसा का सबसे प्रमुख प्रभाद हमें सर्वभूत दया के रूप में दिखाई देता है। यो तो सिद्धान्तत. मर्वभूत दया को सभी मानते हैं किन्तु प्राणी रक्षा के पर जितना बल जैन
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