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धनिक सम्बोधन
भारत के धनिको ! किस धुन में, पडे हुए हो तुम वैकार ? अपने हित की खबर नही, या नही समझते जग व्यवहार ? अन्धकार कितना स्वदेश में, छाया देखो प्रांख उघार । बिलबिलाट करते हैं कितने, सहते निश दिन कष्ट अपार ॥
कितने वस्त्रहीन फिरते है, क्षुत्पीडित है कितने हाय ! धर्म-कर्म सब बेच दिया है, कितनो ने होकर असहाय !! जो भारत या गुरु देशो का, महामान्य, सत्कर्म प्रधान । गौरवहीन हुम्रा वह, वन कर पराधीन, सहता अपमान ॥
क्या यह दशा देख भारत की, तुम्हे न भ्राता सोच-विचार । देखा करो इसी विधि क्या तुम, पडे-पडे दुख-पारावार ॥ धनिक हुए जिसके घन से क्या, योग्य न पूछो उसकी बात ! गोद पले जिसकी क्या उस पर देखोगे होते उत्पात !!
भारतवर्षं तुम्हारा, तुम हो भारत के सत्पुत्र उदार । फिर क्यो देश-विपत्ति न हरते करते इसका वेडा पार ॥ पश्चिम के घनिको को देखो, करते है वे क्या दिन-रात । और करो जापान देश के, धनिको पर कुछ दृष्टिनिपात ||
लेकर उनसे सबक स्वधन का, करो देश उन्नति-हिव त्याग । दो प्रोत्साहन उन्हें जिन्हे है, देशोन्नति से कुछ अनुराग ॥ शिल्पकला विज्ञान सीखने, युवको को भेजी परदेश | कला - सुनिक्षालय खुलवाकर, मेटो सब जनता के क्लेश ||
कार्य-कुशल विद्वानो से रख प्रेम, समझ उनका व्यवहार । उनके द्वारा करो देश मे, वहु उपयोगी कार्य प्रसार ॥ भारत हित सस्थायें खोलो, ग्राम-ग्राम मै कर सुविचार । करो सुलभ साधन वे जिनसे उन्नत हो अपना व्यापार ॥
चक्कर मे विलासप्रियता के, फँस मत भूलो अपना देश | प्रचुर विदेशी व्यवहारो से करो न अपना देश विदेश | लोक दिखावे के कामो मे होने दो नहि शक्ति-विनाश । व्यर्थ व्ययो को छोड, लगो तुम, भारत का करने सुविकाश ॥
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