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नीच और अछूत
नाली के मैले पानी से मे बोला हहराय, हौले वह रे नीच कही तू मुझ पर उचट न जाय ।
'भला महाशय' कह पानी ने भरी एक मुसकान, बहता चला गया गाता सा एक मनोहर गान ॥
एक दिवस में गया नहाने किसी नदी के तीर, ज्योही जल ग्रञ्जलि मे लेकर मलने लगा शरीर ।
त्योही जल वोला में ही हू उस नाली का नीर; लज्जित हुआ, काठ मारा सा मेरा सकल शरीर ॥ २ ॥
संतुलन तोडी मुँह मे डाली वह बोली मुसकाय, श्रह महाशय । बढी हुई मे नाली का जल पाय ।
फिर क्यो मुझ अछूत को मुँह मे देते, हो महाराज सुन कर उसके बोल हुई हा ! मुझको भारी लाज ॥ ३॥
खाने को बैठा भोजन मे ज्योही डाला हाथ; त्योही भोजन बोल उठा चट विकट हँसी के साथ ।
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नाली का जल हम सबने किया एक दिन पान, अतः नीच हम सभी हुए फिर क्यो खाते श्रीमान ॥ ४ ॥
एक दिवस नभ में प्रभ्रो की देखी खूब जमात; जिससे फडक उठा हर्षित हो मेरा सारा गात ।
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यो गाने लगा कि आनो अहो | सुहृद घन वृन्द । बरसो, शस्य बढाओ, जिससे हो हमको श्रानन्द || ५ ||
वे बोले, हे बन्धु, सभी हम है अछूत श्री नीच; क्योकि पनाली के जल कण भी है हम सबके बीच ।
कही अछूतो मे ही जाकर बरसेंगे जी खोल, उनके शस्य बढेगे, होगा उनको हर्ष अतोल ॥ ६ ॥