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जिस आत्मबल को तू भुला बैठा उसे रख ज्ञान में । क्या शक्तिशाली ऐक्य है, यह भी सदा रख ध्यान मे ॥ निज पूर्वजो का स्मरण कर, कर्तव्य पर आरूढ हो ।
बन स्वावलम्बी गुण-ग्राहक कप्ट मे न अधीर न हो ।।
सदृष्टि-ज्ञान-चरित्र का सुप्रचार हो जग मे सदा । यह धर्म है, उद्देश है, इससे न विचलित हो कदा ॥ 'युगवीर' वन यदि स्वपरहित मे लीन तू हो जायगा ।
तो याद रख, सब दुख-सकट शीघ्र ही मिट जायगा ।।
साधु-विवेक
असाधु वस्त्र रंगाते, मन न रंगाते, कपट-जाल नित रचते है । हाथ ! सुमरनी पेट कतरनी, परधन-वनिता तकते है ।। पापा पर की खबर नही, परमार्थिक बातें करते है । ऐसे ठगिया साधु जगत की, गली-गली मे फिरते है।
साधु राग, द्वेप जिनके नहिं मन मे, प्रायः विपिन बिचरने है। क्रोध, मान, मायादिक तज कर, पच महाव्रत धरते हैं। ज्ञान-ध्यान मे लीन चित्त, विपयो मे नही भटकते है ।
वे है साघु, पुनीत, हितपी, तारक जो खुद तरते है ॥
वास्कोडिगामा द्वारा किये गये उल्लेखो से यह बात पूर्ण रूप से विदित हो जाती है कि, मालाबार प्रान्त के समुद्री किनारे पर उस समय जो वस्ती थी वह न कभी हिंसा करती थी, इतना ही नही किन्तु समुद्र के किनारे पर रहने पर भी माम मच्छी प्रादि के माहार को निपिद्ध ही माननी थी । इस वस्तु स्थिति से अनुमान होता है कि वह प्रणा जैनधर्मी ही होनी चाहिए, जिसका प्रभाव तमाम प्रजा पर पूर्ण रूप से पटा था। इसके उपरात जैनधर्म के सम्बन्ध मे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय के अनेक उल्लेख मि. कोल बुक की डायरी में पाये जाते है।
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