________________
२१२ ]
समाज सम्बोधन
दुर्भाग्य जैन समाज, तेरा, क्या दशा यह हो गई । कुछ भी नही अवशेष, गुण- गरिमा सभी तो खो गई । शिक्षा उठी, दीक्षा उठी, विद्याभिरुचि जाती रही । अज्ञान दुव्र्व्यसनादि से मरणोन्मुखी काया हुई ||
वह सत्यता, समुदारता तुझमे नजर पड़ती नही । दृढता नही, क्षमता नही, कृतविज्ञता कुछ भी नहीं ॥ सब धर्मनिष्ठा उठ गई, कुछ स्वाभिमान रहा नही | भुजबल नही, तप बल नही, पौरुप नही, साहस नही ॥
क्या पूर्वजो का रक्त, श्रव तेरी नसो में है कही ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नही । ठडा हुआ उत्साह सारा, श्रात्मवल जाता रहा । उत्थान की चर्चा नही, अब पतन ही भाता रहा ॥
पूर्वज हमारे कौन थे ? वे कृत्य क्या-क्या कर गये ? किन-किन उपायो से कठिन भव सिन्धु को भी तर गये ? रखते थे कितना प्रेम वे निज धर्म-देश-समाज से ?
परहित मे क्यो सलग्न थे, मतलब न या कुछ स्वार्थ से ?
क्या तत्व खोजा था उन्होने श्रात्म जीवन के लिये ? किस मार्ग पर चलते थे वे अपनी समुन्नति के लिये ? इत्यादि बातो का नही तव व्यक्तियो को ध्यान है ।
वे मोह - निद्रा मे पडे, उनको न अपना ज्ञान है ॥
सर्वस्व यो खोकर हुआ तू दीन, हीन, अनाथ है । कैसा पतन तेरा हुआ, तू रूढियो का दास है ॥ ये प्राणहारि-पिशाचिनी, क्यो जाल में इनके फँसा ।
पिण्ड तु इनसे छुडा, यदि चाहता अब भी जिया ||