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था और उसका कुछ भाग भी बन चुका था । जनना के तीव्र विरोध पर अंग्रेजी सरकार को वह योजना परित्याग करनी पड़ी।
भारन मरकार को हमारी धार्मिक भावनाओ और परम्पराग्री का ध्यान रखकर कार्ड ऐमा कार्य नहीं करना चाहिए जिममे कि हमारे दिलो को चोट लगे । जनता की भावनाओं, मौलिक अधिकार और परम्परामो की रक्षा करना सरकार का प्रथम कर्तव्य है । इतिहास माक्षी है कि भारतवर्ष मे सभी देशी-विदेशी गामका ने भारतीय जनता की भावनायों की कमी उपेक्षा नहीं की और उनकी भावनामो का ध्यान रखते हुए गोमाम निर्यात करने का कभी माहम नहीं किया । यह ठीक है कि हम भारतीय है- भारतवर्ष हमारा है और हम देश की उन्नत देवना चाहने है परन्तु यह कदापि सहन न होगा कि भारतीय सस्कृति, परम्परा नप्ट हो रही हो और देश का पनन हो रहा हो और हम चुपचाप बैठे रहें । जनता की भावनाओं के विद्ध जो भी कार्य सरकार करती है वह अवैधानिक और अनियमिन है । भारतवामियो का कर्तव्य है कि देश का नाग होने से बचाए और जनमन मंग्रह करके मांस वाने के प्रचार और वृचड़खानी के बनाने की योजनाओं का विरोध करके बन्द करायें।
जैन एकता का मंच भारत जैन महामंडल को दृढ़ बनाइये
सम्पूर्ण जैन समाज एक अंडे के नीचे देश में राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति की लहर ने नव १६ गताब्दी के अन्त में वल पकड़ा तब उसका प्रभाव जैन-ममाज पर पड़ना स्वाभाविक था। उस काल में जन-मान ज्वेताम्बर-दिगम्बर, स्थानक वानी, तेरापथी और अनेक विभागो मे बंटने के उपरान्त छिन्न-भिन्न अवस्था में था। इन विभिन्न विभागों के आपसी मतभेद यद्यपि कुछ वार्मिक विधि-विधानों मात्र तक सीमित थे और अहिंमादि पचव्रत, पाराध्यदेव, तस्वनान आदि वातो मे समन्त विभागों में पूर्ण मतैक्य था, तथापि छोटे-छोटे मतभेदो पर बल देने और मनक्य की महत्वपूर्ण वाती पर ध्यान न देने के कारण जन-समाज दिन-प्रतिदिन भीण होकर आपस में बंटता जा रहा था।
राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति के उस युग मे जन-समाज की इस स्थिति की और कुछ व्यक्तियों का ध्यान आकृष्ट हुा । मसार के इतिहास मे वह एक क्रांति का युग था, जिसमें पिछड़ी हुई जातियाँ और समाजें अपनी उनीटी अांखों को खोलकर जागने की चेप्टा मै मंलग्न थीं। इस परिवर्तित परिस्थिति ने इन जैन वन्युमो को भागीरथ प्रयल कर जन-समाज की दिया परिवर्तित करने के लिए प्रेरित किया । जैन-ममाज को एकता के सूत्र में पिरोने के महान उद्देश्य और शामन १४ ]