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श्रम शरीर को और कठिनाइयां मस्तिष्क को बलवान बनानी है।
दुःस जीवन का सबसे बडा गुरु है । एक आसू दूर देखने की आखो को वह शक्ति दे देता है जो कोई दूरवीन भी नहीं दे सकती।
आज के सुख को, पुराने दुःख की याद मधुर बना देती है।
प्रकृति पशु, पक्षी, मनुष्य सभी पर दयालु है किसी का उससे विरोध तो है ही नही खतरा मोल लीजिए डरिए नही, बढे चलिये । आपकी केवल शुभ से भेट होगी।
धुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी चोट खा जाता है पर चोट खाकर रोता मूर्ख ही है।
जो व्यक्ति असफलतानी के कडवे धूट पीने को तैयार नहीं होता उसे सफलता का मधुर रस कभी पीने को नहीं मिलता। मूल्य सफलताओ का नही आपने उसकी प्राप्ति के लिए जो उद्योग किया है उसका है।
शुभ-कामना कुछ लोग शरीर के रोगी होते है, कुछ लोग दिमाग के, पर आज के वैज्ञानिक युग मे जितने दिमाग के रोगी होते है उनकी तुलना मे शरीर के रोगी कम ही होते है । आपको चारो
ओर जो रोगी ही रोगी दिखाई देते है उनमे से अधिकाश चाहे तो अच्छे हो सवाते हैं पर उनका मानसिक दृष्टिकोण उन्हे वीमार ही रखता है।
जो लोग दूसरो का भला चाहते है और जहा तक बनता है उनकी भलाई के लिए कुछ करते भी है, वे दूसरो के ही कण्ट वहन करने और कष्ट से मुक्त होने में मददगार नहीं होवे । इस विधि से वे अपने शरीर और आत्मा को भी स्वस्थ रखते है मदद एक ऐसी दवा है जो लेने और देने वाले दोनो को ही फायदा पहुंचाती है यदि आप दूसरो की भलाई के काम में अपने को भूल जाये तो रोग स्वय जाने की ओर प्रवृक्त होते है, दूसरो की भलाई से जो सन्तोप प्राप्त होता है वह हमारी कल्पना को बनाता है और स्वस्थ कल्पना करने वालो को भी स्वस्थ ही देखती है।
भलाई करने का आनन्द मन को उत्साहित अवस्था में रखता है और वह उत्साह सारे अवसादो को दूर कर शरीर को सम्पादित अवस्था में रखता है। उपकार-रत व्यक्ति का इह खुशी से चमकता रहता है । उसकी मुख मुद्रा उसके मात्म-विश्वास और उसकी आत्मा की उच्चता को प्रकट करती है । खुदगर्ज का चेहरा उतरा, दवा हुया रहता है और उस पर धुआं-सा उडता रहता है उसके चेहरे पर उसके मन की मलीनता स्पष्ट रहती है।
अपने सम्बन्ध में विचार करते रहना रोगो को बनाये रखने का अचूक उपाय है। यह भी एक तरह की स्वार्थ परायणता ही है। प्रादमी अपने ही लाभ की ही सोचता रहता है।
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