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- कवि लक्ष्मीवल्लभ का 'नेमि राजुल वारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृति के रमणीय सन्निधान मे विरहिणी के व्याकुल भावो का सरस सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावण का माह है, चारो ओर से विकट घटाये उमड रही हैं । मोर शोर मचा रहे है। आसमान मे दामिनी दमक रही है। यामिनी मे कुम्भस्थल जैसे स्तनो को धारण करने वाली भामिनियो को पिय का सग भा रहा है। स्वाति नक्षत्र की दो से चातक की पीडा भी दूर हो गई है । शुष्क पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय पाया और न पतिया । ४ "ठीक इसी भाति एक वार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी, "चातक के मुख स्वाति नक्षत्र की दूदे पड़ गई, और समुद्र की सब सी भी मोतियो से भर गई । हस स्मरण कर करके अपने तालावो पर आ गये। सारस बोलने लगे और खजन भी दिखाई पड़ने लगे । कासो के फूलने से वन में प्रकाश हो गया, किन्तु हमारे कत न फिरे, कही विदेश मे ही भूल गये । ५" कवि भवानीदास ने भी नेमिनाथ बारहमासा लिखा था, किसमे कुल १२ पद्य है 1 श्री जिनहर्ष का 'नेमि वारहमासा' भी एक प्रसिद्ध काव्य है । उसके १२ सवैयो मे सौन्दर्य और आकर्षण व्याप्त है। श्रावण मास मे राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है, "श्रावण मास है, घनघोर घटाये उन्नै आई है। झलमलाती हुई विजुरी चमक रही है, उसके मध्य से वन-सी ध्वनि फूट रही है. जो राजुल को विषवेलि के समान लगती है । पपीहा पिउ-पिउ रट रहा है। दादुर और मोर बोल रहे है। ऐसे समय में यदि नेमीश्वर मिल जाये तो राजुल अत्यधिक सुखी हो।"१६
१४ उमटी घनघोर घटा चिहुँ ओरनि मोरनि मोर मचायो।
चमक दिवि दामिनि यामिनि कु मय भामिनि कु पिय को सग भायो। लिव चातक पीड ही पीत लई, भई राजहरी मुंह देह दिपायो। पतिया पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण पायो पं नेम न आयो ।
-कवि लक्ष्मीवल्लभ, नेमि राजुल वारहमासा, पहल पद्य,
__ इसी प्रवन्ध का छठा अध्याय । पृ० ५९४ १५. स्वाति वूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सव भरे ॥
सरवर सरि हस चलि आये । सारस कुरलहिं खजन देखाये ॥ भा परगास कास वन फूले । कत न फिरे विदेसहिं भूले ।। --जायसी ग्रन्थावली, प० रामचन्द्र शुक्ल सपादित, कामी नागरी प्रचारिणी सभा,
तृतीय सस्करण, वि० स० २००३, ३०1७, पृ० १५३ १६ धन की घनघोर घटा उनही, विजुरी चमकति झलाहलि सी ॥
विधि गाज अगाज अवाज करत सु, लागत भो विपवेलि जिसी ॥ पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलिसी ॥ ऐसे श्रावण मे यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी ॥
-जिनहर्प, नेमि वारहमासा, इसी प्रवन्ध का छठा अध्याय, पृ० ५०२
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