________________
प्रश्न ( ३ ) - मोक्ष क्या है ?
उत्तर- जिस क्रोध श्रादि श्रज्ञानाभाव में देह आदि मे आत्मा को प्रतिबन्ध है, उससे सर्वथा निवृत्ति होना -- मुक्ति होना- उसे ज्ञानियों ने मोक्ष पद कहा है । उसका थोडा मा विचार करने मे वह प्रमाणभूत मालूम होता है ।
प्रश्न ( ४ ) - मोक्ष मिलेगा या नही ? क्या यह इसी देह मे निश्चित रूप से जाना जा मकता है ?
उत्तर -- जैसे यदि एक रस्सी के बहुत से वन्धनों से हाथ वाघ दिया गया हो, और उनमे से क्रम-क्रम से ज्यो-ज्यों बन्धन खुलते जाते है त्यो त्यो उस वन्धन की निवृत्ति का अनुभव होता है, और वह रस्सी बलहीन होकर स्वतन्त्रभाव को प्राप्त होती है, ऐसा मालूम होता है, अनुभव में आता है, उसी तरह श्रात्मा को अज्ञानभाव के अनेक परिणाम रूप बन्धन का समागम लगा हुआ है, वह बन्धन ज्योज्यो छूटता जाता है, त्यो त्यो मोक्ष का अनुभव होता है । और जब उसको अत्यन्त अल्पता हो जाती है तब सहज ही श्रात्मा में निजभाव प्रकाणित होकर अज्ञानभावरूप बन्धन से छूट सकने का अवसर श्राता है, इस प्रकार स्पष्ट अनुभव होता है तथा सम्पूर्ण श्रात्माभाव समस्त अज्ञान आदि भाव से निवृत होकर इसी देह मे रहने पर भी आत्मा को प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्ध से केवल अपनी मिन्नता ही अनुभव में प्राती है, अर्थात् मोक्ष-पद इस देह में भी अनुभव मे थाने योग्य है ।
प्रश्न ( ५ ) – ऐसा पढ़ने मे आया है कि मनुष्य देह छोडने के बाद कर्म के अनुसार जानवरो मे जन्म लेता है; वह पत्थर और वृक्ष भी हो सकता है, क्या यह ठीक है ?
उत्तर - देह छोड़ने के बाद उपार्जित कर्म के अनुसार ही जीव की गति होती है, इससे वह तिर्य च ( जानवर ) भी होता है; और पृथ्वीकाय ग्रर्थात् पृथ्वीरूप शरीर भी धारण करता है और वाकी को दूसरी चार इन्द्रियो के विना भी जीव को कर्म के भोगने का प्रसंग आता है, परन्तु वह सर्वथा पत्थर अथवा पृथ्वी ही हो जाता है, यह वात नहीं है । वह पत्थर रूप काया धारण करता है और उसमे भी अव्यक्त भाव से जीब, जीवरूप से ही रहता है। वहां दूसरी चार इन्द्रियो का अव्यक्त (अप्रगट) पनाह होने से वह पृथ्वीकाय रूप जीव कहे जाने योग्य है । क्रम-क्रम से हो उस कर्म को भोग कर जीव निवृत्त होता है । उस समय केवल पत्थर का दल परमाणु रूप से रहता है, परन्तु उसमें जीव का मम्बन्ध चला भाता है, इसलिए उसे आहार आदि सजा नही होती । अर्थात् जीव सर्वथा जड़-पत्थर हो जाता है, यह बात नही है । कर्म की विपमता से चार इन्द्रियो का अव्यक्त समागम होकर केवल एक स्पर्ग हम इन्द्रिय रूप से जीव को जिस कर्म से देह का समागम होता है, उस कर्म के भोगते हुए वह पृथ्वी आदि में जन्म लेता है, परन्तु वह सर्वथा पृथ्वी रूप अथवा पत्थर रूप नही हो जाता, जानवर होते समय सर्वथा जानवर भी नही हो जाता। जो देह है वह जीव का बेपधारीपना है, स्वरूपपना नही है ।
प्रश्नोत्तर ( ६-७ ) -- इसमे छठे प्रश्न का भी समाधान आ गया है।
३४२ ]