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________________ इसमे सातवें प्रश्न का भी समाधान आ गया है, कि केवल पत्थर अथवा पृथ्वी किसी कर्म का कर्ता नही है । उनमे आकर उत्पन्न हुआ जीव ही कर्म का कर्ता है, और वह भी दूध और पानी की तरह है जैसे दूध और पानी का सयोग होने पर भी दूध दूध है और पानी पानी ही है, उसी तरह एकेन्द्रिय आदि कर्मबन्ध से जीव का पत्थरपना-जडपना-मालूम होता है, तो भी वह जीव अन्तर मे तो जीवरूप ही है, और वहा भी वह आहार, भय आदि सज्ञापूर्वक ही रहता है, जो अव्यक्त जैसी है। प्रश्न ()-प्रार्यधर्म क्या है ? क्या सवकी उत्पत्ति वेद से ही हुई है ? ____उत्तर -(१) आर्यधर्म की व्याख्या करते हुए सबके सब अपने पक्ष को ही आर्यधर्म कहना चाहते हैं । जैन जैनधर्म को, बौद्ध बोरधर्म को, वेदान्ती वेदान्त धर्म को आर्यधर्म कहे, यह साधारण वात है । फिर भी ज्ञानी पुरुष तो जिससे प्रात्मा को निज स्वरूप की प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य (उत्तम) मार्ग है उसे ही आर्यधर्म कहते है, और ऐसा ही योग्य है। (२) सबकी उत्पत्ति वेद मे से होना सम्भव नही हो सकता। वेद में जितना ज्ञान कहा गया है उससे हवारगुना पाशययुक्त ज्ञान श्री तीर्थङ्कर आदि महात्मामी ने कहा है, ऐसा मेरे अनुभव मे आता है, और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तु मे से सम्पूर्ण वस्तु उत्पन्न मही हो सकती। इस कारण वेद मे से सबको उत्पत्ति मानना योग्य नहीं है। हां, वैष्णव आदि सम्प्रदायो की उत्पत्ति उसके आश्रय से मानने मे कोई वाधा नहीं है । जैन-बौद्ध के अन्तिम महावीरादि महात्माओ के पूर्व वेद विद्यमान थे, ऐसा मालूम होता है। तथा वेद बहुत प्राचीन ग्रन्थ है, ऐसा भी मालूम होता है, परन्तु जो कुछ प्राचीन हो, वह सम्पूर्ण हो अथवा सत्य हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, तथा जो पीछे से उत्पन्न हो, वह सब सम्पूर्ण और असत्य हो ऐसा भी नही कहा जा सकता। बाकी तो वेद के समान अभिप्राय और जैन के समान अभिप्राय अनादि से चला आ रहा है। सर्वमाव अनादि ही है, मात्र उनका रूपान्तर हो जाता है, सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नहीं होता । वेद, जैन, और सबके अभिप्राय अनादि है ऐसा मानने मे कोई वाधा नहीं है, फिर उसमे किस बात का विवाद हो सकता है ? फिर भी इनमें विशेष बलवान सत्य अभिप्राय किसका मानना योग्य है, इसका हम तुम सबको विचार करना चाहिए। प्रश्न (8)-वेद किसने बनाये ? क्या वे अनादि है। यदि वेद प्रनादि हो तो अनादि का क्या अर्थ है। उत्तर -(१) वेदो की उत्पत्ति बहुत समय पहले हुई है। (२) पुस्तक रूप से कोई भी शास्त्र अनादि नही, और उसमें कहे हुए अर्थ के अनुसार तो सभी शास्त्र अनादि हैं । क्योकि उस-उस प्रकार का अभिप्राय भिन्न-भिन्न जीव भिन्नभिन्न रूप से कहने पाये है, और ऐसा ही होना सम्भव है। क्रोध आदि भाव भी अनादि है। हिंसा आदि धर्म भी अनादि है और अहिंसा आदि धर्म भी अनादि है। केवल जीव को हितकारी किया है, इतना विचार करना ही कार्यकारी है। अनादि तो दोनो है, फिर कभी किसी का कम मात्रा मे बल होता है और कभी किसी का विशेष मात्रा में बल होता है। [ ३४३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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