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प्रश्न (१०)~-गीता किसने बनाई है ? वह ईश्वरकृत तो नही है ? यदि ईश्वरकृत हो तो उसका कोई प्रमाण है।
उत्तर ---ऊपर कहे हुए उत्तरो से इसका बहुत कुछ समाधान हो सकता है। अर्थात् 'ईश्वर' का अर्थ ज्ञानी (सम्पूर्ण ज्ञानी) करने से तो वह ईश्वरकृत हो सकती है, परन्तु नित्य, निष्क्रिय प्रकाश की तरह ईश्वर के व्यापक स्वीकार करने पर उस प्रकार की पुस्तक आदि की उत्पत्ति होना सम्भव नही । क्योकि वह तो साधारण कार्य है, जिसका कर्तृत्व प्रारम्भपूर्वक ही होता है-~अनादि नहीं होता।
गीता वेदव्यासजी की रची हुई पुस्तक मानी जाती है, और महात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार का बोध किया था, इसलिए मुख्यरूप से श्रीकृष्ण ही उसके कर्ता कहे जाते है, यह बात सम्भव है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है। उस तरह का प्राशय अनादि काल से चला आ रहा है, परन्तु वे ही श्लोक अनादि से चले आते हो, यह सम्भव नहीं है, तथा निष्क्रिय ईश्वर से उसकी उत्पत्ति होना भी सम्भव नहीं। वह क्रिया किसी सक्रिय अर्थात् देहधारी से ही होने योग्य है, इसलिए जो सम्पूर्ण ज्ञानी है वह ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदेश किए हुए शास्त्र ईश्वरीय शास्त्र है, यह मानने मे कोई वाधा नहीं है।
प्रश्न (११)-पशु आदि के यज्ञ करने से थोड़ा सा भी पुण्य होता है, क्या यह
सच है ?
उत्तर :-पशु के वध से, होम से अथवा उसे थोड़ा-सा भी दुख देने से पाप ही होता है। फिर उसे यज्ञ मे करो अथवा चाहे तो ईश्वर के धाम मे बैठकर करो परन्तु यज्ञ मे जो दान
आदि क्रियाएँ होती है, वे कुछ पुण्य की कारणभूत है। फिर भी हिंसा-मिश्रित होने से उनका भी अनुमोदन करना योग्य नहीं है ।
प्रश्न (१२)-जिस धर्म को श्राप उत्तम कहते हो, क्या उसका कोई प्रमाण दिया जा सकता है?
उत्तर -प्रमाण तो कोई दिया न जाय, और इस प्रकार प्रमाण के बिना ही यदि 'उसकी उत्तमता का प्रतिपादन किया जाय तो फिर तो अर्थ-अनर्थ, धर्म-अधर्म सभी को उत्तम कहा जाना चाहिए। परन्तु प्रमाण से ही उत्तम-अनुत्तम की पहचान होती है । जो धर्म ससार के क्षय करने में सबसे उत्तम हो और निज स्वभाव में स्थित कराने मे बलवान हो, वही धर्म उत्तम और वही धर्म बलवान है।
प्रश्न (१३) क्या आप लिस्टीधर्म के विषय मे कुछ जानते है ? यदि जानते है तो क्या आप अपने विचार प्रगट करेंगे?
उत्तर-निस्टीधर्म के विपयो मे साधारण ही जानता हूँ । भरत खण्ड के महात्मानी ने जिस तरह के धर्म की शोध की है, विचार किया है, उस तरह के धर्म का किसी दूसरे देश के द्वारा विचार नहीं किया गया, यह तो थोडे से अभ्यास से ही समझ मे पा सकता है। उसमे (विस्टीधर्म) जीव की सदा परवशता कही गई है, और वह दशा मोक्ष मे भी इसी तरह की मानी गई है, जिसमे ३४]