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व्यालु बनाकर खाता हूँ" । लोगो ने मुझसे कई बार पूछा है कि क्या विलायत मे एक व्रती श्रावकं का जीवन बिताना सम्भव है ? मुझे तो लगता है सब चीजें बाजार में मिलती है और यदि रसोईघर है तो मनचाहा बनाकर खाइए। इसमे दिक्कत ही क्या है ? रही बात मानसिक शान्ति और निराकुलता की सो भारत की अपेक्षा विलायत मे अधिक निराकुलता और शान्ति है । क्योकि यहा उनके विरोधी साघन ही नही है । यह सच है कि यहाँ के जीवन मे बहुत-सी लुभावनी बाते है । परन्तु थोडे वहुत यह बात तो सभी ठौर है ।
मनुष्य लुभावो मे पड़कर कहा नही गलती कर सकता ? वास्तव मे यह प्रश्न तो चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्बन्ध रखता है । यदि उसका क्षयोपशम है तो वाह्य निमित्त निरर्थक होगे । और चारित्रमोहनीय के उदय मे रहते हुए भी एक व्यक्ति वम्बई में भी भ्रष्ट हो सकता है । अत आठवी एव उससे न्यूनतम प्रतिभाओ के घाटी श्रावक विलायत में सानन्द रह सकता है । एक खूबी इस देश मे और है वह यह है कि यहाँ चीटियाँ और कीड़े-मकोडे प्रायः होते ही नही । अत हमे उनकी प्रारम्भजनित हिंसा का भी पाप नही लगता ।"
पूज्य वैरिस्टर साहब सयमी जीवन पालन करने मे कितने जागरुक थे । उनका प्रदर्श बरबस हमसे कह रहा है कि सयम का पालन करो । श्रावक हो तो श्रावक के भाठ मूल गुणो का पालन करो। मद्य, मास और मधु तथा पच उदुम्बर फल मत खाओ । पानी छानकर पियो । रात मे खाना मत खाभो ।
वॅरिस्टर साहब तो वहाँ भी दिन ही मे भोजन कर लेते थे । जहा सब ही प्राय रात्रि भोजी थे । वह अपने व्रतो मे खूव सावघान थे । एक दफा वह बहुत प्राप्त हो रवाना होने को थे । उनके मित्र नाश्ता लाये । भुकभुका हो चुका था। पौ फटने को 1 बैरिस्टर साहब ने कहा, अभी रात है, में नाश्ता नही करुगा। मित्र का आगह निरर्थक था । वैरिस्टर साहब के जीवन मे अपूर्व शान्ति का सिरजन उनकी परीक्षा प्रधानता के कारण ही हुआ । यदि उनकी प्रज्ञा सुवृत्ति न होती वह वस्तुस्थिति के परीक्षक न होने तो विलासता के गहरे गर्त से वह बाहर नही निकल सकते थे । उस पर भी वह शास्त्रों मे लिखी हुई प्रत्येक पक्ति को इसलिए ही नही स्वीकार कर सकते थे कि उस पर तीर्थंकर कथित होने की मुहर लग गई थी। वह उस वात को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसते थे । और जब उसे ठीक पाते थे तभी उसे मान्य करते थे । पूज्य वैरिस्टर साहब ने सन् १९२६ मे नार्वे (Norway) देश की यात्रा की । वहां उन्होने द्वा० ११ जोलाई १९२६ को अपनी प्राखो से वरावर रातदिन सूर्य को मकते पाया । वहा तीन-चार महीने तक मुतवातिर सूर्य अस्त नही होता । सर्वज्ञ का कथन इस प्रत्यक्ष के अविरुद्ध ही हो सकता है। वैरिस्टर साहब ने वहा का मनोरजन वर्णन लिखा है । रात ११॥ बजे सूर्य अस्ताचल रेखा को चूमने लगा । बारह बजते-बजते उसका श्रावे से ज्यादा भाग डूब गया । प भाग आखो के सामने रहा । श्राधी रात के पश्चात् सूर्यास्त होना बन्द हो गया । सूर्य का जो भाग नेत्रो के सामने था वह धीरे-धीरे ऊपर को उठने और निकलने
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