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________________ केवल भावना ही नही थी बल्कि इसके लिए उन्होने यथा - शक्ति विदेशो में भ्रमण किया । फलत' वह वीर वाणी को विदेशो मे प्रसारित कर स्व कर्तव्य में सफल हुए । किसी भी धर्म का साहित्य हो उसे जीवित रखने मे सजीवनी के समान कार्य करता है । और जिस धर्म का साहित्य देशी-विदेशी कई भापात्रो में उपलब्ध हो वह धर्म शीघ्रातिशीघ्र विकास को प्राप्त हो जाता है । वैरिस्टर साहब ने इस भ्राग्ल भाषा के युग मे लगभग २० ग्रन्थ इस भाषा मे लिखे है । इतना ही नहीं ग्रपितु श्रापने अपनी प्रभावित वक्तृत्व शैली द्वारा देशविदेशो ने धर्म श्रवण कराकर विदेशियो को प्रभावित किया और अपना जीवन सफल बनाया । आप बैरिस्टर होकर व विदेश भ्रमण करते हुए भी जैन सिद्धान्त के परम श्रद्धानी थे जिसे कि आजकल के शिक्षित विद्वानो मे बहुत कम देख पाते है । आपकी धर्मनिष्ठा और श्रात्मनिष्ठा सदैव स्थिरता रूप रही। यह सुनकर ग्राश्चर्य होता है कि आप रात्रि मे जल भी ग्रहण नही करते थे । अन्य नियम और स्वाध्यायादि तो आपकी दिनचर्या के साथी ही थे । आपका ज्ञान प्रापके परिणामों का सदा ही रक्षक रहा था। आप वास्तव मे सच्चे कर्मठ धर्मात्मा और जैन समाज के महान पुरुष थे । चारित्रमूर्ति श्रावक वैरिस्टर साहब केवल धर्म तत्व के दार्शनिक विद्वान् या उसके श्रद्धालु भक्त मात्र ही न थे । उन्होने रत्नत्रय धर्म को अपने जीवन मे यथा सम्भव मूर्तिमान बनाने का उद्योग किया था । वे महान् थे । इसलिए नहीं कि उनको महान बनने की आकाक्षा थी । महत्वाकाक्षा कभी भी मनुष्य को महान् नही बनाती । त्यागवृत्ति और सेवा धर्म ही मनुष्य को ऊंचा उठाते है । बैरिस्टर साहब महान् हुए। क्योकि वह त्याग और सेवा धर्म को जानते और उस पर भ्रमल करते थे लखनऊ महासभा अधिवेशन के वे सभापति मनोतीत हुए, परन्तु उस पद को ग्रहण करने के पहले उन्होने स्थूल रूप मे पचारगुव्रत धारण किए । उन व्रतो का उन्होने यावज्जीवन पालन किया । विलायत मे भी वे व्रतो को धारण करने मे पूर्ण सावधानी रखते थे । लन्दन से दिए गए एक पत्र मे वे लिखते है " शाम को मैं अपना भोजन स्वय बनाता हूँ । मेरे कमरो के पास ही एक छोटा-सा रसोईघर है । भोजन कमरो के किराये मे लगभग बीस पौढ प्रतिमास खर्च होता है । प्रात. में फल र मलाई लेता हू कभी-कभी चाय भी पी लेता हूँ । ६--४५ पर उठ बैठता हूँ और पौने ठ बजे सामायक पर बैठ जाता हूँ। जिसमे मुझे ३५ मिनट लगते है । उसके बाद ही मैं ε के करीब फलाहार करता हूँ । उपरान्त पास के बगीचे मे घूमने चला जाता हूँ" । वहा से १२- ३० बजे लौटता हूँ | तब में खाना बनाता और खाता हू जिसमे रोटी और भाजी मुख्य होती है । दिन मे दो बजे से पाँच बजे तक लिखने मे समय विताता हूँ। और ६-३० अपनी शाम की १३६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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