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इस उक्ति के साधक है ? हमारे ग्राज के व्यक्तियो को यह श्राचार्य परम्परा चलाने के नाम पर शास्त्र रचना का रोग हो गया है। जनता भोली है जो सामने होता है वही उसको सर्वत्र प्रतीत होने लगता है, शास्त्र प्रकाशक और विक्रेता हजारो प्रतिया छापकर बेचकर अपना भण्डार भर लेते हैं । अपने को ठगते है, दूसरो को भी ठग लेते है । जैन समान के शास्त्र भण्डारो मे प्राचीन आचार्यो की विमल वाणी के अक्षय भण्डार भरे पड़े है, न उनके दर्शन होते है, न प्रकाशन होते है । नागौर श्रादि जैसे अनेको शास्त्र भण्डार दीमक का भोजन वन रहे है !
गुरु
देव, शास्त्र, गुरु का यह प्रकृत - विकृत रूप ग्राज चिन्ता का विषय बन गया है । परन्तु चिन्ता करने मात्र से तो काम नही होगा। काम करने से, उपाय निकालने से होगा । मेरा निवेदन यह है --
१ -- मन्दिरो को प्रजायबघर न बनाया जाय । नई-नई मूर्तियां न लगाई जावे और जहाँजहा मन्दिर हो वहीं नए-नए मन्दिरो का निर्माण न कराया जाए। प्राचीन जो मन्दिर हैं उनका जीर्णोद्धार कराया जाय, यत्र-तत्र जो प्रतिमाएँ पडी है उन्हें एक मुव्यस्थित जगह पर लाने का प्रयत्न किया जाए।
२ - शास्त्र प्रकाशन के पूर्व विद्वत्परिपद् मे भेजा जाए। सभी विद्वानों द्वारा निर्दोष कहे जाने पर ही प्रकाशित किया जाए। शास्त्रो मे जहाँ कही भी दूसरे धर्मो के प्रति कटाक्ष हों उन्हें दूर कर दिया जाए जिससे श्रोताश्री को शास्त्र श्रवण से सद्भावना ही प्राप्त हो । शास्त्री के श्राकारिक तथा शृगरिक वर्णनों को कम कर शास्त्रों के संक्षिप्त रूपान्तर प्रकाशित किये जावे जिससे लोग कम समय और कम पैसे मे जैनधर्म के मान को समझ सकेँ ।
३ - किसी प्रतिष्ठित विद्वान जैनाचार्य या उनके अभाव मे विद्वत्मण्डली तथा समाज के tarur लोगो के द्वारा विद्वत्ता तथा सदाचरण की परीक्षा करने पर ही कोई त्यागी, व्रती, प्रतिभाधारी तथा मुनि या प्राचार्य हो सके। कोई मुनि या क्षुल्लक गन्यमाता आदि के नाम पर न तो स्वय चन्दा करे न दूसरो से कराये। जो ऐसे काम में सहयोग दें उन्हें स्थानीय समाज दण्डित करे ।
ऐसे और भी अनेक सुझाव हो सकते है । पर इतना हो जाय तो भी पर्याप्त है ।
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