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भाज हमने तमाशा बना रखा है । वीतराग कहे जाने वाले देव के चारो ओर सोने-चादी के ऐसे उपकरण परिग्रहो के ढेर लगा रखे है कि जगत के सरक्षण के भी सरक्षक की आवश्यकता पड जाती है । मन्दिर एक सेठ साहूकार की 'हवेली' सा दिखाई देता है। ऐसा सजाया जाता है कि मूर्ति की अपेक्षा वहा की सजावट मे ही मन व्यस्त हो जाता है। जैन समाज के पूज्य, भारत के
आध्यात्मिक सन्त पूज्य श्री वर्णीजी महाराज को भी इस त्रुटि का दर्शन हुआ, उन्होने कहा-"एक ऐसा मन्दिर नही देखा गया जो प्राणीमात्र को लाभ का कारण होता। मूर्ति निरावरण स्थान मे होनी चाहिए जिसका दर्शन प्रत्येक कर सके।' (वर्णी-वाणी पृष्ठ १५२) इसी व्यवस्था के प्रभाव का कारण है लोगो मे भगवान के प्रति हीनाधिक भाव की प्रतिष्ठा की जागृति
"चांदनपुर के महावीर | मेरी पीर हरो" भगवान के भक्त को भारत की राजधानी के महावीर पर भी या तो विश्वास नहीं है या है तो चादनपुर के महावीर से कम । क्या कारण है ? यही कि वहाँ जैसा ठाठ-बाट उसे वही नजर आता है प्रत वहाँ के महावीर को ज्यादा शक्तिशाली मानता है। अगर मन्दिर को आडम्बर रहित पाराधना का सादगीपूर्ण स्थान ही रहने दिया जाता तो यह सब बाते पैदा न होती।
शास्त्र
जब लोगो की दृष्टि बडी सकुचित थी, बुद्धि कूपमण्डूक थी, अत एक दिन था, जब कि छापाखाने के छपे शास्त्र पढना मना था। शास्त्र छापना पाप था । हस्तलिखित शास्त्र की ही पूजा होती थी। पर यह दकियानूसी ख्याल कब तक चलता ? कुछ विकसित बुद्धि के लोग सामने पाये और हजारो विरोधो के बाद भी जिन वाणी को प्रकाश मे लाये । उसी का फल श्री धवल सिद्धान्त जैसे पवित्र ग्रन्थ को दर्शनमात्र के लिए थे भाज घर-घर मे प्रवचन के लिए उपलब्ध है। 'गागर' का यह 'सागर' सबको सुलभ है । कुछ शास्त्र ऐसे भी हैं जिन पर समय-समय पर तत्कालीन अन्य विचारधारामो का प्रभाव पडता रहा है और इस प्रभाव के कारण उस एक ही प्रथ मे परस्पर विरोधी विचारधाराएं भी मिल जाती है । ऐसे विरोधी विचार इतिहास की दृष्टि से देखकर उनमे सामजस्य स्थापित किया जा सकता है । सत्य का निर्णय कर जो दूसरो के विचार हमारी संस्कृति मे, हमारे धर्म मे आ गये है उन्हे दूर किया जा सकता है। इस प्रवाह की ऐतिहासिक कारण सामगी से अनमिज्ञ, कुछ लोगो का एक प्रवाह चल पड़ा है। वह प्रवाह है नये शास्त्रकारो का जो अक्ल मे शून्य पर नकल मे बहुत तेज है । जो देखो वही अपनी बात को कहता है- और प्रमाणिकता के लिए दुहाई देता है
"अस्य ग्रन्थस्य कर्तार. सर्वज्ञ देवा तदुन्तर गन्थ कर्तार. श्री गणघर देवाः प्रतिगणधर देवा तेपा वचोऽनुसारमासाद्यामया शास्त्रमिदं प्रणीतम्"
"इस ग्रन्थ के मूल कर्ता सर्वज्ञ देव है, उनके पश्चात् गणधर देव, प्रतिगणधर देव है । बस उन्ही की वाणी का सार लेकर हमने इस शास्त्र की रचना की है।" थोडी देर को यह सही भी मान लिया जाय । पर माने तो कैसे ? शास्त्रो मे पाये जाने वाले परस्पर-विरोधी विचार क्या १७२]