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पर यह कर अनिवार्य न रहा जिनके पास विल्कुल पैसा ही न हो और जो शपथ लेकर कह सकें कि हमारे पास पैसा नहीं है। सिरोही राज्य की प्रजा से भी यह कर आशिक रूप से लिया जाने लगा।
उपरोक्त सशोधनो के पश्चात् इस टैक्स का स्वरूप यह हो गया कि वह अव विशेष रूप से दर्शनार्थी और सद्गृहस्थ हिन्दू और जैन यात्रियो के ही ऊपर विशेप भार के साथ लागू हो गया क्योकि आमोद-प्रमोद के लिए जाने वाले कर से राजा-महाराजाओ, यूरोपियनो, ऐंग्लो इडियनो
और अधिकारियो को तो राज्य ने पहले ही मुक्त कर दिया था। फकीर, साधु और सन्यासियो से राज्य को आमदनी भी क्या हो सकती थी, इसलिए उनके साथ रियायत कर दी गई । अव फल यह है कि रक्षा-कर के नाम से यह कर विशेष रूप से देवालयो और मन्दिरो के हिन्दू और जैन यात्रियो के लिए लागू होकर आबू के मन्दिरो के व्यापार का एक कलकित उदाहरण वन गया है । १९२३ मे ब्रिटिश सरकार ने आबू के लिए एक पक्की सडक खराडी से प्राबू कैम्प तक वनवाई, जिसके निर्माण के लिए जैन जनता ने वीस हजार रुपए की सहायता दी। इस नवीन पक्के मार्ग के खुल जाने से प्राबू के लिए आवागमन की सुविधाएं अत्यधिक बढ गई और फलस्वरूप रिशिकिशनगढ से अचलगढ देलवाडा का मार्ग आवागमन की दृष्टि से प्राय बन्द-सा हो गया । ब्रिटिश सरकार ने सडक बनवाते समय वचन दिया था कि इस मार्ग के प्रवन्ध और मरम्मत के हेतु जनता से किमी प्रकार का कर न लिया जाएगा और वह स्वय ही इसका प्रवन्ध करेगी । लेकिन सिरोही राज्य को तो यात्रियो से टैक्स वसूल करना था। इसलिए (मुडका) की वसूली के लिए उसने अपनी चौकियां कायम कर दी।
जहाँ इम नये मार्ग के निर्माण से यात्रियो के लिए आवू का मार्ग सुगम और निरापद हो गया, और सिरोही राज्य से भी सारे प्रवन्ध और रक्षा की जिम्मेदारियां समाप्त हो गई, वहां यह अधार्मिक कर फिर भी यात्रियो के ऊपर लदा रहा । लेकिन सिरोही राज्य द्वारा दर्शनार्थी यात्रियो का शोषण इसी रक्षा कर तक ही सीमित नही रहा, वरन् इस नई सडक के बन जाने से ज्यो-ज्यो यात्रियो की संख्या मे वृद्धि हुई, लोगो मे मार्ग सुगम हो जाने से मादू तीर्थ की दर्शनलालसा वढी, त्यो-त्यों यह शोषण का स्रोत और भी लाभदायक होता गया। लेकिन यह टैक्स विडम्बनाए तब और बढ गयी जब नई पक्की सडक का लाभ उठा कर सिरोही राज्य ने मार्ग पर मोटरो, लारियो, तांगो, रिक्शामी और बैलगाडियो आदि के चलाने के लिए ठेकेदारी की प्रथा कायम कर दी और ठेकेदारो ने मोटी-मोटी रकमो पर ठेके देकर अपनी ओर से सवारियो के दुगने और चौगुने किराये बांधकर पैसा ऐठना शुरू कर दिया। राह टैक्स, कस्टमस् ड्यूटियां, नाकेदारी आदि टैक्सो का भी बाजार गर्म हो गया और अब भी आबू की धार्मिक महानता को अधिक से अधिक शोषण का साधन बनाने की सिरोही के शासको की मनोवृत्ति बढती ही चली जाती है।
आज इन टैक्सो और ठेकेदारी की प्रथा के कारण तीर्थयात्रियो के लिए आवू की यात्रा जितनी सुगम हुई, उतनी ही परेशानी और विडम्बनापूर्ण भी हो गई है। अपने ही मन्दिरो और तीयों के दर्शनो के मार्ग में राज्य की ओर से इस प्रकार के टैक्स और विडम्बनाए देखकर यात्री
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