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विमलवसही में पाये जाते है । ये तीनो लेख चौहान नरेश महाराव लु भाजी के है जिनमें एक स. १३७२ का और दो स० १३७३ के है । इन तीनो शिलालेखो में महाराव लु भाजी ने प्राबू के यात्रियो और पूजाथियो से किसी प्रकार का कर वसूल करने का निषेध किया है, तथा अपने उत्तराधिकारियो के नाम भी वसीयत के रूप मे प्राज्ञा दी है कि वे भी भविष्य मे इन मन्दिरो के पूजार्थियो और यात्रियो से किसी प्रकार का कर वसूल न करे। इसी प्रकार का एक दूसरा शिलालेख जैन मन्दिर मे पित्तलहर में स० १३५० का विमलदेव के नाम का मिलता है, वह भी उपरोक्त प्राशय का है । महाराणा कुम्भा द्वारा जारी की गई आज्ञा भी १५०६ के शिलालेख में मिलती है, उन्होने भी इन मन्दिरो पर करो की माफी दी है। स० १४६७ का राउत राजघर का भी एक शिलालेख इसी सम्बन्ध मे पाया जाता है । इस प्रकार न्याय और धर्म की दृष्टि से आबू के मन्दिरो पर किसी प्रकार का लगान का अधिकार न तो सरकार को ही है और न ही सिरोही राज्य के शासको को ही, यदि वे अपने पूर्वजो की आज्ञाओ और इच्छाओ का कोई मूल्य समझते है ? इन फरमानो के बाद सवत १९३३ तक सिरोही के शासको द्वारा प्राबू के मन्दिर
और यात्रियो पर किसी भी प्रकार के कर का पता नहीं चलता । सवत १९३३ मे ही पहली बार आबू यात्रियो पर राहजनी के भय से आबू मार्ग पर चौकियो का प्रबन्ध किया गया, जहां से कि यात्रियो की रक्षा के हेतु राज्य के सिपाही यात्री-दलो के साथ-साथ आया-जाया करते थे। प्रत्येक चौकी पर यात्रियो से चौकियो का टैक्स लिया जाता था, जो सब मिलाकर पाठ आने था। लेकिन यही टैक्स पाच साल बाद सवत १९३८ मे बढा कर १९०२ आने ९ पाई कर दिया गया । इस प्रकार इन चौकियो के नाम पर सिरोही राज्य द्वारा पाबू के यात्रियो से यह धार्मिक कर लिया जाने लगा । लेकिन तब इस कर का उतना अन्यायपूर्ण रूप नही था, जितना कि वह आज है। उन दिनो यदि यात्रियो को मार्ग मे चोर और डाकुओ के कारण किसी प्रकार आर्थिक क्षति उठानी पडती थी, तो कहा जाता है कि उस समय राज्य उसका वाजिब मुआवजा भी देता था। यह टैक्स उस समय केवल रिशिकिशनजी से देलवाडा-अचलगढ के मार्ग पर ही लिया जाता था और यह क्रम सन् १९१७ तक उसी प्रकार जारी रहा।
सन् १९१८ मे जब आबू की कुछ भूमि ब्रिटिश सरकार द्वारा सिरोही राज्य से लीज पर ले ली गयी, और वहां ब्रिटिश सरकार के सैनिक तथा अधिकारी गण आने जाने लगे और मार्ग की देखरेख भी जब ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ मे ले ली, तो सिरोही राज्य के रिशिकिशनगढ से अचलगढ-देलवाडा के मार्ग पर से अपनी चौकियां हटा लेनी पड़ी। इन चौकियो के हट जाने से अब सिरोही के शासको के सामने यह प्रश्न खडा हुआ कि यह टैक्स वसूली आखिर अब किस प्रकार जारी रखी जाए। इसके लिए राज्य ने ता० २-६-१९१८ ई० को नया फरमान निकालकर इस कर को, अब अलग चौकियो द्वारा वसूल किये जाने का साधन न रहने के कारण बढाकर एक मुश्त १ रु० ३ पाने ९ पाई प्रति यात्री के हिसाब से रक्षा-कर के रूप में लगा दिया। साथ ही साथ यह सोचकर कि अग्रेज, सरकारी अफसर और कर्मचारी इस टैक्स पर बखेडा न उठावे, इसलिए सिरोही स्टेट ने इस कर-से समस्त यूरोपियनो, एग्लो इडियनो, राजपूताने के राजा-महाराजानो तथा उनके राजकुमारो को मुक्त कर दिया । ऐसे साधु-सन्यासियो और ब्राह्मणो २७६ ]