________________
अपने काल के संरक्षक
प्राच्य विद्यामहार्णव श्री जुगलकिशोरजी मुख्त्यार
अधिष्ठाता वीर सेवा मविर, दिल्ली
हर्ष का विषय है कि वोर शासन जयन्ती के शुभ अवसर पर श्रीमान् लाला तनसुखराय जैन (मैनेजिंग डाइरेक्टर तिलक बीमा कम्पनी) दिल्ली का भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय सहित, उत्सव के प्रधान की हैसियत से वीर सेवामन्दिर में पधारना हुआ। आपने वीर सेवामन्दिर के कार्यों को देखकर अनेकान्त के पुन प्रकाशन की आवश्यकता को महसूम किया और गोयलीयजी को तो उसका वन्द होना पहले से ही खटक रहा था, वे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ यात्रा के बाद ही वह वन्द हुआ । अत. दोनो का अनुरोध हुआ कि "अनेकान्त" को अब शीघ्र ही निकालना चाहिए । लालाजी ने घाटे के भार को अपने ऊपर लेकर मुझे प्राधिक चिन्ता से मुक्त रहने का वचन दिया, और भी कितना ही आश्वासन दिया साथ ही उदारतापूर्वक यह भी कहा कि यदि पत्र को लाभ होगा तो उस मव का मालिक वीरसेवा मन्दिर होगा। और गोयलीयजी ने पूर्ववत् प्रशासक के भार को अपने ऊपर लेकर मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था सवन्धी चिन्तामो का रास्ता साफ कर दिया। ऐसी हालत मे दीपमालिका से नये वीर निर्वाण सवत् के प्रारम्भ होते ही अनेकान्त को फिर से निकालने का विचार सुनिश्चित हो गया। उसी के फलस्वरूप यह पहली किरण पाठको के सामने उपस्थित है और इस तरह मुझे अपने पाठको की पुन सेवा का अवसर प्राप्त हुआ है। प्रसन्नता की वात है कि यह किरण आठ वर्ष पहले की सूचना अनुसार विगेपाक के रूप में निकाली जा रही है। इसका सारा श्रेय लालाजी तथा गोयलीयजी को प्राप्त हैखासफर अनेकान्त के पुन प्रकाशन का सेहरा तो लालाजी के सर पर ही वंचना चाहिए जिन्होंने उस अर्गला को हटाकर मुझे इस पत्र की गति देने के लिए प्रोत्साहित किया जो अब तक इसके मार्ग में बाधक बनी हुई थी।
इस प्रकार जव अनेकान्त के पुन. प्रकाशन का सेहरा ला० तनमुखरायजी के सिर पर बंधना था, तब इससे पहले उसका प्रकाशन कैसे हो सकता या ऐमा विचार कर हमे सन्तोप धारण करना चाहिए और वर्तमान के साथ वर्तते हुए लेखको, पाठको नथा दूसरे सहयोगियों को पत्र के सहयोग विपय मे अपना-अपना कर्तव्य समझ लेना चाहिए तथा उसके पालन मे दृढसकल्प होकर मेरा उत्साह बढाना चाहिए ।
[ ६५