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नही। तात्पर्य यह है कि जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद को संसार गुरु की जो उपमा दी है वह सत्य है, अनूठी है तथा ससार को सच्चा मार्गदर्शन देने वाली है।
हम प्राचीन जैनाचार्यों के अनुपम विचारो को प्राचीन ग्रन्थो मे जव अध्ययन करते है तो पता चलता है कि उनमे कितनी उद्दात्त भावनाएँ विद्यमान थी। अनेकान्त विचार-पद्धति के अनुयायी जैनाचार्यों ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि :
भवबीजाकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरीजिनोवा नमस्तमे ॥ उन्होने ब्रह्मा, विष्णु, हरि, जिन सब को नमस्कार किया है वशते कि उनके पुनर्भव के बीज राग, द्वेष आदि क्षय हो चुके हो कितनी उदात्त भावना काम कर रही थी, कितना अनाग्रही विचार उनका था। यही नही उन्होने भारतीय दर्शनी मे आशिक सत्य की अनुभूति की । कि विभिन्न दर्शन आशिक सत्य वा प्रतिनिधित्व करते है इस कारण उनमै पाखण्ड है किन्तु उन्होने यह उद्घोष करने में भी हिचक नही की कि "जैन दर्शन" पाखण्डो का समूह है । कारण कि जैन दर्शन में सव दर्शनो के आशिक सत्य का समन्वय करके पूर्ण सत्य बनाने का प्रयत्न किया गया है। उन्होने यह भी धोपणा की कि -
पक्षपातो नमे वीरे, न प कपिलादिपू ।
युक्तिमवचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रह ।। उन्होने भगवान महावीर के वचनो के प्रति पक्षपात तथा कपिल आदि मुनियो के वधनो के प्रति द्वष न होना प्रकट किया था। उन्होने केवल युक्ति-पुरस्सर वचनो को अगीकार करने का निश्चय किया:
प्राचीन अथ इस बात के साक्षी है कि भगवान महावीर के समय में भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रमण विद्यमान थे और दोनो परम्परा के प्रतिनिधित्व करने वाले श्रमण वर्ग के विचार तथा प्राचार मे कुछ भिन्नता थी। श्वेताम्बर परम्परा के एक उपदेशप्रद शास्त्र "उत्तराध्ययन" के .."वे अध्ययन में दोनो परम्परा के प्रतिनिधि मुनि, केशी तथा गौतम स्वामी के मिलन का वर्णन है कितना सुन्दर, भव्य दृश्य था दोनो का शुभ मिलन। परम्परा भेद मे समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने का था। दोनो सफल हो गए और उन्होंने देश मे अहिंसा धर्म का प्रचार किया। भगवान महावीर के समय में भी श्रमणवर्ग ने वस्त्रधारी तथा नग्न दोनो प्रकार के श्रमण विद्यमान थे चाहे उनको वर्गीकरण के नाम पर "जिन कल्मी, स्थविर कल्मी" बताया गया हो किन्तु यह तथ्य है कि दोनो प्रकार के श्रमण भगवान महावीर द्वारा उपदेशित "अहिंसा धर्म" को देश भर में फैलाने के भगीरथ-प्रयल में जुटे हुए थे । भगवान महावीर के कुछ सौ वर्ष के पश्चात् तक प्राचार्य परम्परा रही। कहा जाता है कि भगवान महावीर के पश्चात् बारह वर्षीय दुप्काल मै कुछ श्रमण दक्षिण दिशा चले मे गये तथा कुछ उत्तर मे रह गये । दुष्काल समाप्ति के पश्चात् उत्तर-दक्षिण का मिलन हुआ तो सचेल, अचेल का प्रश्न महत्वपूर्ण बन गया। सचेल श्रमणो ने सचेलल का तथा अचेल श्रमणो ने नग्नत्व का एकान्त आग्रह किया।
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