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विश्व-शांति के अमोघ उपाय
सुप्रसिद्ध लेखक श्री प्रगरचन्द
नाहटा, बीकानेर विश्व का प्रत्येक प्राणी शान्ति का इच्छुक है। जो कतिपय पथ-भ्रान्त प्राणी अशांति की सृष्टि करते है वे भी अपने लिए तो शान्ति की इच्छा करते है । अशात जीवन भला किसे प्रिय है। प्रतिपल शाति की कामना करते रहने पर जो विश्व में प्रशाति बढ़ रही है। इसका कुछ कारण तो होना चाहिए। उसी की शोध करते हुए शाति को पाने के उपायो पर प्रस्तुत लेख में विचार किया जाता है । आशा है कि विचारशील व विवेकी मनुष्यो को आशा की एक किरण मिलेगी, जितनी यह किरण जीवन में व्याप्त होगी उतनी ही शान्ति (विश्व-शान्ति) की मात्रा बढ़ती जाएगी।
___ व्यक्तियो का समूह ही 'समाज' है और अनेक समाजो का समूह एक देश है। अनेको देशो के जन-समुदाय को 'विश्व शान्ति' कहते है और इसी 'विश्व-जनता' के धार्मिक, नैतिक, दैनिक जीवन के उच्च और नीच जीवन-चर्या से विश्व में प्रशाति व शाति का विकास और ह्रास होता है । प्रशाति सर्वदा अवाछनीय व अग्राह्य है । इसलिए इसका प्रादुर्भाव कब कैसे किन-किन कारणो से होता है-इस पर विचार करना परमावश्यक है।
प्रथम प्रत्येक व्यक्ति के शान्ति व अशाति के कारणो को जान लेना जरूरी है इसीसे विश्व की शाति व प्रशाति के कारणो का पता लगाया जा सकेगा । व्यक्ति की अशान्ति की समस्याओ को समझ लिया जाय और उसका समाधान कर लिया जाय तो व्यक्तियो के सामूहिक रूप 'विश्व' की अशान्ति के कारणो को समझना बहुत आसान हो जायगा। ससार का प्रत्येक जीवधारी व्यक्ति यह सोचने लग जाय कि अशान्ति की इच्छा न रखने पर भी यह हमारे बीच कैसे टपक पडती है, एव शान्ति की तीव्र इच्छा करते हुए भी वह कोसो दूर क्यो भागती है ? तो उसका कारण ढूढ़ते देर न लगेगी। विश्व के समस्त प्राणियो की बुद्धि का विकास एकसा नहीं होता, प्रत विचारशील व्यक्तियो की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। जो प्राणी समुचित रीति से प्रशाति के कारणो को जान नहीं पाता, उसके लिए विचारशील पुरुष ही मार्ग-प्रदर्शक होते है।
दुनिया के इतिहास के पन्ने उलटने पर सर्वदा विचारशील व्यक्तियो की ही जिम्मेदारी अधिक प्रतीत होती है । विश्व के थोडे से व्यक्ति ही सदा दुनिया की अशाति के कारणे को ढूढने मे आगे बढे, नि स्वार्थ भाव से मनन कर उनका रहस्योद्घाटन किया और समाज के समक्ष उन कारणो को रखा । परन्तु उन्होने स्वय अशान्ति के कारणो से दूर रहकर सच्ची शान्ति प्राप्त की।
हां। तो व्यक्तियो की अशान्ति का कारण होता है प्रज्ञान, अर्थात् व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को न समझकर काल्पनिक स्वरूप को सच्चा समझ लेता है और उसी व्यक्ति की प्राप्ति के लिए लालायित होता है, सतत् प्रयत्नशील रहता है इससे गलत व भ्रामक रास्ता पकड़ लिया जाता है और प्राणी को अनेक कष्ट सहने पडते है। उन कष्टो के निवारणार्य वह स्वार्थान्ध हो ऐसी धार्मिक तथा नीति विरुद्ध क्रियायें करता है कि जिनसे जन-समुदाय मे हलचल मच जाती है और प्रशान्ति आ खड़ी होती है। यह स्वरूप का अज्ञान जिसे जैन परिभाषा मे
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