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हो तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिम्रहो की ग्रहण आदि भविष्यत् दशानी और उनसे होने वाले शुभाशुभ का अविसवादी उपदेश कैसे हो सकेगा? इद्रियो की अपेक्षा लिए विना ही उनका अतीन्द्रियार्थ विषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा जाता है । अथवा जिस तरह सत्य स्वप्नदर्शन इन्द्रियादि की सहायता के विना ही भावोराज्यादि लाभ का यथार्थ बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीन्द्रिय पदार्थो में सवादी और स्पष्ट होता है। और उसमे इद्रियो को आंशिक भी सहायता नहीं होती । इद्रिया तो वास्तव में कम ज्ञान को ही कराती है। वे अधिक और सर्वविषयक ज्ञान मे उसी तरह बाधक है जिस तरह सुन्दर प्रासाद मे बनी हुई खिडकिया कम प्रकाश को ही लाती है और सब मोर के प्रकाश को रोकती है।
___अकलक की तीसरी युक्ति यह है कि जिस प्रकार परिमाण अगु-परिमाण से बढ़ताबढता आकाश मे महापरिमाण या विभुत्व का रूप ले लेता है, क्योकि उमकी तरतमता देखी जाती है। उसी तरह ज्ञान के प्रकर्ष मै भी तारतम्य देखा जाता है । अत जहा वह जान सम्पूर्ण अवस्था (निरतिशयपने) को प्राप्त हो जाय वही सर्वज्ञता आ जाती है। इस सर्वनता का किसी व्यक्ति या समाज ने ठेका नहीं लिया। वह तो प्रत्येक साधक को प्राप्त हो सकती है।
उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञता का कोई वाधक नहीं है। प्रत्यक्ष प्रादि पांच प्रमाण तो इसलिए बाधक नहीं हो सकते, क्योकि वे विधि (अस्तित्व) को विपय करते है। यदि वे सर्वज्ञता के विषय मे दखल दें तो उनसे उनका सद्भाव ही सिद्ध होगा। मीमासको का प्रभाव प्रमाण भी उसका निषेध नही कर सकता । क्योकि अभाव प्रमाण के लिए यह आवश्यक है। कि जिसका प्रभाव करना है उसका स्मरण और जहाँ उसका अभाव करना है उसका प्रत्यक्ष दर्शन पावश्यक ही नही, अनिवार्य है । जब हम भूतल मे घड़े का अभाव करते है तो वहां पहले देखे गए घड़े का स्मरण और भूतल का दर्शन होता है तभी हम यह कहते है कि यहां घड़ा नही है। किन्तु तीनो (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालो तथा तीनो (ऊर्च, मध्य और अयो) लोको के प्रतीत, अनागत और वर्तमान कालीन अनन्त पुरुपो में सर्वशता नहीं थी, नहीं है और न होगी इस प्रकार का ज्ञान उसी को हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुषो का साक्षालार किया है। यदि किसी ने किया है तो वही सर्वज्ञ हो जावेगा। साय ही सर्वज्ञता का स्मरण सर्वज्ञता के प्रत्यक्ष अनुभव के विना सम्भव नही मौर जिन कालिक और त्रिलोकवर्ती अनन्तपुरुपो (मावार) में सर्वज्ञता का अभाव करना है उनका प्रत्यक्ष-दर्शन भी सम्भव नहीं । ऐसी स्थिति में सर्वनता का प्रभाव प्रमाण भी वाधक नहीं है । इस तरह जब कोई बाधक नहीं है तो कोई कारण नहीं कि सर्वज्ञता का सद्भाव सिद्ध न हो।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा 'श' ज्ञाता है और उसके ज्ञान-स्वभाव को ढकने वाले मावरण दूर होते है । अत आवरणो के विच्छिन्न हो जाने पर सम्वभाव आत्मा के लिए फिर ऐप
१ गृहीत्वा वस्तु सद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् ।
मानस नास्तिताज्ञान जायतेभानपेक्षया।। "अस्ति सर्वज्ञ मुनिश्विता मामा द्वारकप्रमाणत्वान, सुखादिवत्"
-पिद्धि वि० ० -६ तथा प्रष्ट