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मममना चाहिये, अन्यथा जिस भारत मे घी-दूध की नदिया बहती थी दमी भारत में यह अनहोनी वयोकर होती ?
जिस वस्तु मे स्वास्थ्य का इतना गहरा सम्पर्क है, जब वही शुद्ध नही मिल पाती, तब स्वास्थ्य के लिए नित नई योजनाएं बनाना और देश का करोडो रुपया व्यय करना बेकार है। वृक्ष की जड को ही जब दीमक खाए जा रही हो तब फूल-पत्तियो की रक्षा के लिए उपाय सोचना कुछ बुद्धिमत्ता नही ।
हम अपने बच्चो को दूध समझ कर पिला रहे है, मगर मक्खन निकला हुआ । घी समझ कर हम वनस्पति तेल खा रहे है। गोया दही के बदले कपाम खाई जा रही है।
क्या विशेषज्ञो और डाक्टरों ने यह निर्णय दे दिया है कि वनस्पति तेल और मक्वन निकला हुआ दूध असल जैसे ही लाभदायक है, यदि ऐसा है तो गवर्नमेंट को यह घोषणा कर देनी चाहिए ताकि जनता इतनी सस्ती चीज बहुमूल्य देकर न खरीदे और बेचारे गरीब व्यर्थ की परेशानी में न पडे और यदि यह पदार्थं उतने उपयोगी नहीं है तो असल और नकल मे पहचान हो सके, सरकार को ऐसा प्रबन्ध कर देना चाहिए ।
अफीम-गाजा चरस शराव पर सरकार की ओर से प्रतिवन्ध है, लायमेन्स है जिसे समूची जनता कभी उपयोग मे नहीं लाना चाहती। पर जो समूची जनता के गले मे जाने अनजाने उतारे जा रहे है ऐसे अहितकर पदार्थों पर कोई लायसेन्स या प्रतिवन्ध नही । उन्हें दिन दहाडे असली मे मिलाकर या उसका रूप देकर हमारे गले मे उतारा जा रहा है । और हमारी सरकार का ध्यान इस ओर तनिक भी नही है ।
वनस्पति घी और मक्खन निकले हुए दूध के प्रचार से शुद्ध बेचने वाले मिलावट करने को वाध्य हो गए है । जब मार्केट मे खरीदार को दुकानदार पर विश्वास न रहा तब दुकानदार असली वस्तु बेचकर कम्पटीशन मे कैसे खड़ा रह सकता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि मार्केट मे शुद्ध बेचने वाले को खरीदार नही मिलते और खरीदार को प्रसली माल नही मिलता। इन नकली पदार्थों ने ग्राहक को अविश्वासी और दुकानदार को बेईमान बना दिया है।
हम तो कहते है कि वनस्पति तेल और मक्खन निकला हुआ दूध बेचना सर्वथा वन्द कर दिया जाय पर दुर्भाग्य से ऐसा न हो सके तो इनमे भिन्नता अवश्य कर दी जाय । जो इन्हे उपयोग मे लाना चाहे वे इन्हें उपयोग मे लाएँ । पर जो असली खरीदना चाहे उन्हे पूरी
कीमत देने पर भी यह वस्तुएं न भेड़ दी जाए इसका समुचित प्रबन्ध होना चाहिये ।
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लोगो मे जितना भाव उपासना का है, उतना आचरण-शुद्धि का नहीं । पर आचरण शुद्धि के विना उपासना का महत्व कितना होगा ?
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