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कर्मठ समाज सेवी
श्री मोतीलाल जैन 'विजय' अमर सेवा समिति, कटनी ( म०प्र०)
राष्ट्रीय कार्यो मे जैन समाज कभी पीछे नही रहा और न रहेगा यह वान निर्विवाद है । इतिहास साक्षी है, राणा प्रताप को हृदय से चाहने वाले नर-रत्न भामाशाह ने अार्थिक दृष्ट्या विपत्ति थाने पर सारा वैभव तथा कोप महाराणा के कर कमलो मे सांप दिया था। मानवता की सेवा, सभी बन्धुओ मे एकत्व तथा ममत्व की भावना जागृत करना, सगठन तथा ममाज सेवा का व्रत, निरीह, दुखी एव कपटापन्न व्यक्तियो को सहायता प्रभृति कुछ ऐसे मानवीय कर्म हैं जिनमें हाथ बंटाकर समाज सेवी, कर्मठ तथा लगनशील व्यक्ति अवश्य हो रुचि लेता है । परतन्त्र भारत मे राष्ट्रीय भावनाओं को पल्लवित एव पुष्पित करने तथा स्वतन्त्रता का जयघोष करने वाले राष्ट्रीय नेताओं की हुकार को जन-जन तक पहुचाने में लालाजी सर्वप्रथम एव अग्रमर रहा करते थे ।
राष्ट्र-सेवी महान संगठन – लालाजी मे देश-प्रेम तथा सेवा भाव कूट-कूटकर भरा था । राष्ट्र भक्ति को सर्वोपरि मानकर यासकीय सेवा को छोड आप गांधीजी के असहयोग प्रान्दोलन मे सम्मिलित हो राजनैतिक जीवन व्यतीत करने लगे थे । स्वदेशी वस्तु प्रचार, खादी प्रचार, हिन्दी प्रचार, प्रभृति समितियो का नयोजन, नौजवान भारत मभा, मजदूर किसान सभा - सम्मेलन, हरिजनोद्वार, वाड - पीड़ितों की महायता जैसे अनेक ज्वलन्त उदाहरण है जिनसे लालाजी की मगठन शक्ति का परिचय मिलता है। लाला लाजपतराय तथा जनता के हृदयमम्राट प० नेहरू जैमे अग्रणी नेताश्री का स्नेह व सक्रिय साथ मे लालाजी ने विभिन्न जिलों में प्रभूत स्याति अर्जित की थी। उनका स्वभाव अत्यन्त मृदुल, सरल तथा निष्कपट था ।
शाकाहार का प्रचार उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है। सच्चे काग्रेस सेवक के रूप मे उन्होने जन्मस्थान रोहतक तथा भटिण्डा, एव अधिकाश समय भारत की राजधानी देहली में दिया था । सन् १९४१ मे नई दिल्ली काग्रेम समिति का प्रधान चुना जाना इस बात का द्योतक है कि उनमे अपूर्व सगठन शक्ति थी ।
महान समाज सेवक मच्चे स्वतन्त्रता सग्रामी होने के साथ ही लालाजी मे वर्म तथा जाति की उन्नति की भावना अपने उदारमना माता-पिता से वरोहर के रूप में मिली थी। इस युग के दि० जैन समाज के निर्माता, प्र० शीतलप्रसादजी तथा वैरिस्टर चम्पतरायजी जैसे क्रान्तिकारियों तथा समस्त भारत के आध्यात्मिक सन्त श्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज का प्रभाव आपके हृदय पर पडा । तदनुमार श्रापने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज तथा जैन धर्म मे व्याप्त रूढियाँ, वाद-विवाद, समस्याए और उनका समाधान ही अपना ध्येय वना लिया था । राष्ट्रीय संगठनो मे जहां वे अत्यन्त निपुण थे, जातीय संगठन में उतने ही
परिषद के माध्यम से जैन
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