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विद्यावारिधि
वैरिस्टर चम्पतराय जैन, बार एटला
श्री त्रिशला कुमारी जन वैरिस्टर चम्पतराय इस युग के महान पुरुपो में से थे। उन्होने इस मानव जीवन मे विश्व को अपने ज्ञान से नवीन पालोक और अपूर्व विचार शैली थी। मानव समाज वास्तविक मानवता को प्राप्त करे, यह आपके जीवन की माधना थी। वैरिस्टर साहब के जीवन के मध्याह्नकाल में जब उनका ज्ञान-सूर्य अपने प्रकाश और प्रताप की किरणो से ससार को आलोकित कर चुका था। बैरिस्टर साहब का कार्यकर्तामो के प्रति अगाध प्रेम था। बैरिस्टर साहब को अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा और अनवरत उद्योगो से जीवन की विविध साधनायो मे सफलता मिली थी। वे इस युग के धर्म सत्य के खोजियो और तुलनात्मक पद्धति के प्रवर्तको मे प्रमुख साधक थे। देश-विदेशो मे जैन धर्म प्रचार करने मे इस काल के अकलक वीर पे। अग्रेजी के जानकार जैन विद्वानो और जैन युवको के लिए धार्मिक श्रद्धा की सजीव मूर्ति थे। सोते हुए जैन समाज को जगाने तया उद्बोधन देने और स्वय कर्तव्य करने मे ही आपकी प्रवृत्ति थी। उनकी समाज-सेवा के भार को न हमारे पास योग्य तराजू है और न उनके प्रचुर साहित्य को ठीक-ठीक आंकने के लिए हमारे पास उपयुक्त मापदण्ड हे । जैन समाज में उनकी सम्मेदशिखर की रक्षा की कीर्ति और ससार मे उनका साहित्य-सूर्य कभी अस्त न होगा।
वे विश्व की विभूति थे । अपने जीवन में संसार के सभी देशो के विविध विद्वानो और विचारको से उनका सम्पर्क रहा।
हमारी पीढी ने स्वर्गीय वैरिटर चम्पतरायजी को एक सफल वैरिस्टर गम्भीर, विद्वान्, कुशल लेखक, प्रभावशाली वक्ता और पादरणीय नेता के रूप में पहचाना और सराहा । इम उनके कृतज्ञ है कि उन्होने समाज मे नये युग का आह्वान किया और विरोध को चुनौती दी। और सघर्ष से टक्कर ली। वह अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिपद के प्रमुख सस्थापक और मादि सभापति थे। परिपद की पतवार अपने समर्थ हाथो मे लेकर उन्होने न कभी तूफान की परवा की और न प्रलय की। इस अनुभव और उत्साह मे सदा तरुण रहे।
बैरिस्टर साहब का सर्व प्रधान गुण सम्यक् श्रद्धान था। वह जैनधर्म के मर्मज्ञ थे। पर उनकी मर्मज्ञता कोरे ज्ञान की प्रखर ज्वाला न वनकर श्रद्धा से ओत-प्रोत दीप-शिखा की तरह शान्त, स्निग्ध, स्थिर और रुचिर थी।
विद्यावारिधी बैरिस्टर चम्पतरायजी समाज के उन धर्मसेवियो मे से थे जिन्हे धर्म के उत्कर्ष की महान् चिन्ता थी । उनका दृष्टिकोण जैनधर्म को केवल भारतीय ही बनाये रखने का नहीं था। अपितु जगन्मान्य प्रात्मोद्धारक श्री वीर प्रभु की पवित्रतम वाणी को प्रत्येक जीव के हितार्थ देश-विदेशो में भी प्रसारित किया जाय । यही उनकी आन्तरिक भावना थी। यह उनकी १३४]