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________________ सके । इसे जितना कम से कम खर्चीला बनाया जा सके, उतनी ही अधिक इसकी उपावेयता बढ़ेगी । सबके लिए अनुकरणीय यह इसलिए है कि जो व्यक्ति चाहे व्यक्तिगत रूप से अधिक व्यय भी कर सकते हो वे यदि आगे आकर इस प्रकार के आदर्श स्थापित करेंगे जिससे कि अनुकरण-प्रिय निरीह निर्धन जनता उन पर चल सके तो समाज इस हीनावस्था से निकल सकेगी। स्व० बैरिस्टर साहब और उनके सहयोगियों के चिर प्रयत्नशील रहने कारण आज समाज में इस योजना का बड़ा स्वागत हुआ और सामूहिक रूप से सम्पन्न होने वाले इन आदर्श विवाहो का व्यापक प्रचार हुआ । समाज ने इन विवाहो की आवश्यकता, सुरुचिपूर्णता और सुविधात्मकता को हृदयगम किया और इस पर अपनी मान्यता की छाप भी लगा दी । बैरिस्टर साहब ने प्रायः सभी प्रमुख धार्मिक और सामाजिक उत्सवो पर, मेलो श्रादि में सामूहिक प्रादर्श विवाहो की योजना कराई । अन्य विशेष अवसरों पर भी इस प्रकार के प्रायोजन कराये जिनमे एक ही साथ एक ही मण्डप में, एक ही समय एक ही व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक वर-वधुओ का शास्त्रोक्त विधि-विधान सहित पाणिग्रहण सस्कार हुआ। बैरिस्टर साहब इस प्रकार के प्रगतिशीलता के कार्यों मे सदा आगे रहे हैं। परिषद ने १९५६ मे अपने देवगढ अधिवेशन के अवसर पर सामूहिक आदर्श विवाह योजना के बारे मे पूर्ण विचार-विमर्श के पश्चात् एक प्रस्ताव पास किया था और इसे कार्यान्वित करने के लिए जो समिति बनाई गई थी उनके कार्यों का सम्पूर्ण भार उसके मन्त्री श्री जमनाप्रसादजी को ही सौपा गया था । यो तो इस योजना का व्यापक प्रचार हुआ है किन्तु इस कार्य मे बडी सावधानी के साथ अग्रसर होने की आवश्यकता है। प्रायः समाज-सुधार के नाम पर ढोगी, बेईमान, ठग रघूर्त अपनी दुकानें कायम कर लेते है । उनसे बचने की आवश्यकता है ताकि वे इस योजना के मूल उद्देश्यो और वास्तविकता को ही नष्ट न कर दे। बेरिस्टर साहब के जीवनव्यापी सतत् प्रयन्नो और प्रथक परिश्रम से समाज ने आदर्श विवाहो की मौलिक महत्ता को तो स्वीकार किया ही, साथ ही इस योजना को सफल बनाकर इसकी व्यावहारिकता और उपादेयता को भी सिद्ध कर दिया । आज हमारा मान्य नेता तो हमारे बीच नही है जो हमारा मार्ग-दर्शन कर हमें रास्ता दिखाता चले । किन्तु उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग और स्थापित मिशन हमारे सन्मुख है जिस पर हमे चलना है और समाज को चलाना है । स्व० बैरिस्टर साहब की यही सच्ची स्मृति होगी और यही वास्तविक श्रद्धाजलि । 0 O जो सब कुछ जानकर भी अपने-आपको नही जानता, वह अविद्वान है। विद्वान् वही है, जो दूसरो को जानने से पूर्व अपने-आपको भली भाँति जान ले । २९६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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